Tuesday, November 8, 2016

अहम् ब्रह्मास्मि

अहम् ब्रह्मास्मि
एक भक्त था जो अपने गुरु की प्रतिमा के समक्ष बैठा उस पर पुष्प अर्पित कर रहा था | अचानक उसका ध्यान अंतर्मुखी हो गया और समाधिस्थ होकर उसने देखा कि समस्त ब्रह्मांड उसी के भीतर है | उसकी देह स्थिर थी पर उसकी चेतना अनंत के साथ एकाकार हो गई |
बाद में उसे लगा कि मैं पुष्प सही स्थान पर अर्पित नहीं कर रहा था क्योंकि समस्त ब्रह्मांड तो मेरी चेतना है, मैं यह देह नहीं अपितु पूर्ण समष्टि हूँ | मैं, मेरे गुरुदेव और परमात्मा सभी एक हैं | उसने बचे हुए पुष्प अपनी नश्वर देह के सिर पर ही चढ़ा दिए, और पुनः समाधिस्थ हो गया |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
आज से कुछ समय के लिए अवकाश पर जा रहा हूँ | दिसम्बर माह के तीसरे सप्ताह से फिर से अध्यात्म चर्चा में सब साथ होंगे |
|| हरि शरणम् ||

Monday, November 7, 2016

शरीर- एक साधन

एक बार एक राजा कहीं जा रहा था। उसने एक सफाई कर्मचारी को देखा। राजा को उसकी निर्धनता देखकर दया आ गई। उसने हीरे-मोतियों से जड़ित एक स्वर्ण थाल दिया, ताकि वह उससे धन कमाकर आराम की जिंदगी बिता सके। कुछ वर्षों के पश्चात राजा ने उस व्यक्ति को पुन: सफाई करते हुए देखा, तो पूछा कि मैंने जो थाल तुम्हें दिया था, वह कहां है ? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया कि आपकी बहुत कृपा है। मैं बहुत समय से उसमें गंदगी डालकर फेंकता रहा हूं। राजा यह सुनकर क्रोधित हो गया। उसने अपने सेवकों को आदेश दिया कि इससे थाल लेकर किसी अन्य साधनहीन व्यक्ति को दे दो।
इसी तरह परमात्मा भी जीव को मनुष्य तन देता है, लेकिन वह इसे विषय-वासना से गंदा कर देता है और बाद में दुखी होता है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि जो जीव मानव तन धारण करने के पश्चात भी भवसागर से पार होने का प्रयत्न नहीं करता, वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महंता है। यदि जीव प्रभु-कृपा का लाभ उठाकर परमात्मा की भक्ति करता है, तो वह सदा के लिए कर्म-बंधनों से मुक्त हो जाता है। इंसान इस शरीर रुपी नगर में एक सीमित समय के लिए आया है। इस नगर में वह अकेला नहीं है, बल्कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदि भी इसमें उसके साथ निवास करते हैं। यदि वह इनसे सावधान नहीं रहेगा, तो फिर पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है। इस संसार में संत- महापुरुष एक पहरेदार का काम करते हैं। जैसे यदि गांव में पहरेदार को जरा भी संशय हो जाता है कि इस गांव में चोरी होने की आशंका है, तो वह उच्च स्वर में आवाज लगाता है। उसकी आवाज सुनकर जो जाग जाते हैं, उनका घर बच जाता है। जो नहीं जागते और यह सोचकर ही सोये रहते हैं कि शोर करना तो इसका काम ही है, वे सूर्योदय होने तक लुट चुके होते हैं। महापुरुष भी जीव को जगाकर कहते हैं कि किसी भी इंसान के शरीर रुपी घर के अंदर दिन-रात पांच चोर चोरी करने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसलिए उनसे सावधान होने की जरूरत है। यदि किसी जीव को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के विकारों ने लूट लिया, तो उसका संपूर्ण जीवन बेकार है। इसलिए महापुरुष बार-बार इंसान को जगाते हैं। इस अज्ञानता की निद्रा से जागकर उस प्रभु रुपी औषधि का प्रयोग करना चाहिए, ताकि इस जीवन को सार्थक बनाया जा सके। मानव तन अति दुर्लभ और क्षण भंगुर भी है। इसलिए सोचने में समय नष्ट करने की बजाय उस परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास आज और अभी से शुरू कर देना चाहिए।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल


|| हरिः शरणम् ||

Sunday, November 6, 2016

ज्ञान

ज्ञान
पात्रता के अभाव में ज्ञान टिकता नहीं है । सुपात्र के अभाव में ज्ञान शोभा नहीं पाता है । धन और ज्ञान सुपात्र के बिना शोभा नहीं पाते है ।
जब तक ज्ञान क्रियात्मक नहीं होता तब तक वह अज्ञान जैसा ही होता है । बहुत जानने की अपेक्षा तो जितना जान लिया है, उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए । ज्ञान जब तक क्रियात्मक न बन जाये तब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती । जब ज्ञान क्रियात्मक होता है तभी वह शान्ति देता है । ज्ञान को शब्द रुप ही न रहने दिया जाये बल्कि उसे क्रियात्मक बनाया जाये । ज्ञान का अन्त न कभी हुआ और न कभी होने वाला है परन्तु जितना ज्ञान प्राप्त हो गया है उसे ही क्रियात्मक बनाने से शान्ति मिलती है ।
कपिल अर्थात् जो जितेन्द्रिय है, वही ज्ञान को पचा सकता है । विलासी जन ज्ञान का अनुभव नहीं कर सकते ।
कर्दम जीवात्मा है और देवहूति बुद्धि है । देवहूति देव को बुलाने वाली निष्काम बुद्धि है ।
ज्ञान प्राप्त करने हेतु सरस्वती के पास रहना होगा। कर्दम होना होगा । यदि हम कर्दम होंगे तभी बुद्धि देवहूति बनेगी अर्थात् जितेन्द्रिय होने पर ही बुद्धि निष्काम होगी और कपिल भगवान आयेंगे अर्थात् ज्ञान सिद्ध होगा । ज्ञान सिद्ध होने पर पुरुषार्थ सिद्ध होगा ।
वैराग्य और संयम के अभाव में ज्ञान सिद्ध नहीं होता, प्राप्त ज्ञान को जीवन में उतारकर भक्तिमय जीवन बिताने वाले जन बहुत ही विरले है ।
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, November 5, 2016

राग-द्वेष

संसार में दुःख राग के कारण है । जब कोई कही फँस जाता है तो उसको न ईश्वर मालूम पड़ता है न गुरु मालूम पड़ता है न धर्म मालूम पड़ता है न अपना कर्तव्य मालूम पड़ता है। जिसके चित्त में किसी के प्रति राग नहीं , उसके चित्त में किसी प्रकार का दुःख भी नहीं । राग द्वेष से हृदय कलुषित हो जाता है तब उसमें सम्पूर्ण दुःख , भय , अन्धकार और मृत्यु आते हैँ ।
यह संसार सरकता हुआ जा रहा है , संसरणशील है . दुःख रुप है . विमोहक है। कौन किसका बेटा और कौन किसका घर ? स्नेहवान ज्वलतेऽनिशम- जिस प्रकार जब तक दीये में तेल रहता है तब तक वह जलता रहता है, इसी प्रकार जब तक हृदय में लोगों के प्रति. संसार के प्रति मोह बना रहता है तब तक हृदय में जलन होती है ।
राग शब्द का अर्थ द्वेष भी होता है । ये दोनों सहचरित है । जहाँ राग है वहाँ द्वेष है, जहाँ द्वेष है वहाँ राग है । ये मधु कैटभ दैत्य के समान हैं । भगवान से भी बहुत दिनों तक लड़ते हैं । भगवान भी इनको तभी मारते है जब ये स्वयं मरना चाहते हैं । कहाँ मरते है ? जहाँ विषय रस की निवृत्ति हो जाती है ।
ये राग द्वेष जहाँ भी रहते हैँ वहाँ दुःख देते हैं । ये हमारे हैं और वे दूसरे हैं यही तो अज्ञान है ।
( गोकर्ण एवं आत्मदेव संवाद पर आधारित )
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, November 4, 2016

कर्म-रहस्य

कर्मफलों से मुक्त कैसे हों ? यह एक ऐसा विषय है जिसे बौद्धिक धरातल पर समझना तो सबसे आसान है, पर करना सबसे अधिक कठिन कार्य है|
शरणागति द्वारा परमात्मा को पूर्ण समर्पित होकर ही हम अपने अच्छे-बुरे सब कर्मों से मुक्त हो सकते हैं| यह समर्पण अपने अहंकार, मोह, कामनाओं, लोभ, और राग-द्वेष सभी का हो | यही मुक्ति है, और यही मोक्ष है |
जब कोई भी कार्य हमारे माध्यम से परमात्मा के लिए ही, परमात्मा को समर्पित होकर ही होता है, वह किसी भी प्रकार के बंधन का कारण नहीं बनता |
जो कार्य अपने इन्द्रिय सुख के लिए, अपने अहंकार कि तृप्ति के लिए होता है, वह ही बंधन का कारण होता है | हमारी सोच, हमारे विचार और हमारे भाव भी हमारे कर्म ही हैं, जो हमारे खाते में जुड़ जाते हैं |
यही है कर्म फलों का रहस्य और मुक्ति का उपाय जो समझने में सर्वाधिक सरल है, पर करने में सर्वाधिक कठिन है |
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, November 3, 2016

प्रार्थना का फल

हमारी प्रार्थनाओं के फल क्यों नहीं मिलते? यह समझना बहुत ही सरल है पर कार्य रूप में करना थोड़ा कठिन है |
हम अपने नित्य नियमित शास्त्रोक्त कर्म नहीं करते, इसीलिए न तो हमारी प्रार्थनाओं का कोई उत्तर मिलता है और न ही किसी भी अनुष्ठान का फल मिलता है| समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 2, 2016

हम और हमारा धर्म

हम कौन हैं? हमारा परम धर्म क्या है ?
हम सब परमात्मा की एक अभिव्यक्ति हैं जो कुछ समयके लिए यह देह बन गए हैं | इस देह से हमारा सम्बन्ध नश्वर है | यह देह एक साधन मात्र है |
सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी सृष्ट है व उससे परे जो भी है वह सब हम स्वयं ही हैं |
जिसे हम ढूँढ रहे हैं वह भी हम स्वयं ही हैं |
हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण चैतन्य हैं, सम्पूर्ण ब्रह्मांड हैं |
अपने आत्म-तत्व में स्थित होना ही हमारा परम धर्म है |
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 1, 2016

"जन्म दुःखं जरा दुःखं जाया दुःखं पुनः पुनः ।
अन्तकालं महादुःखं तस्मात् जागृहि जागृहि ।।"
जन्म दुःख है, वृद्धावस्था दुःखमय है, स्त्री, पुत्रादि कुटुम्ब जन दुःख रुप है और अन्त काल भी बडा दुखद है, इसलिए जागो - जागो । इस अंतकाल को रोज याद करो ।
          नित्य विचार करें कि यदि आज यमदूत मुझे पकडने आयें तो मैं कहाँ जाऊँगा - नरक में, स्वर्ग में, बैकुण्ठ में | मृत्यु का निवारण शक्य नहीं है, तो फिर पाप क्यों? कई लोग बहुत समझदार बनते है । जब बाजार में कुछ लेने जाते है तो बडी देर तक सोच विचार करते है कि किस वस्तु को लिया जाये । किन्तु जिसका विचार करने की आवश्यकता है उस पर विचार ही नहीं करते । मृत्यु को रोज याद करें, मृत्यु का भय रहेगा तो पाप दूर होगा और जिस दिन पाप दूर हो जायेगा, उसी दिन मनुष्य संत बन जायेगा ।