सिद्ध-
सिद्ध पुरुष जब जीवन मुक्त हो जाता है तब उसके लिये इस भौतिक शरीर का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है । विदेह की अवस्था को उपलब्ध हुए ऐसे व्यक्ति के मन में सभी वासनाएं आर कामनाएं निकल चुकी होती है । उसका मन इतना निर्मल हो जाता है कि उसको मन कहना ही अतिश्योक्ति होगी । मन तो उस अवस्था को कहते हैं जब किसी प्रकार की कामना शेष रही हो । जब कोई कामना शेष रहती ही नहीं है तो मन की उपस्थिति हो ही नहीं सकती । बिना मन के इस देह की स्थिति भी बिना देह की सी हो जाती है । इसी अवस्था को विदेह होना कहते हैं ।
विदेह की स्थिति को प्राप्त करने के उपरांत भी भौतिक देह की अवस्था तो बनी ही रहती है । जब पूर्वजन्म के कर्मों का फल यह देह पूर्ण रूप से भोग लेगी सिद्ध पुरुष की यह भौतिक देह भी समाप्त हो जाएगी । इस भौतिक देह के छूटते ही सिद्ध पुरुष परमात्म अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । अतः सिद्ध अवस्था और परमात्म अवस्था में अंतर मात्र इस भौतिक देह की उपस्थिति का ही है । मन की समाप्ति हो जाना ही मुक्ति है । इस जीवितावस्था में मन की समाप्ति होने को कबीर ने मन का निर्मल होना कहा है । कबीर कहते हैं कि-
मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ॥
इस दोहे में कबीर कहते हैं कि जब मन से सभी कामनाएं,वासनाएं आदि विकार तिरोहित हो जाते है तब मन गंगा जल की तरह एक दम निर्मल हो जाता है । ऐसी अवस्था को उपलब्ध हुए व्यक्ति को परमात्मा को कही ढूंढने नहीं जाना होता है बल्कि स्वयं परमात्मा ही उसे ढूंढ लेंगे । इसका भावार्थ यही है कि मन के साफ होते ही व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । सिद्ध और परमात्मा में अंतर मात्र इस शरीर का ही तो है ।
हमने आज तक मनुष्य की पांच अवस्थाओं में से पामर,विषयी,साधक और सिद्ध इन चार प्रकार के मनुष्यों की संक्षिप्त रूप से चर्चा की । अब अंतिम अवस्था या श्रेणी जो परमात्मा हो जाने की है उसके लिए कल से चर्चा करेंगे । हालाँकि परमात्म अवस्था की चर्चा की अधिक आवश्यकता नहीं है क्योंकि सिद्ध पुरुष हो जाना ही परमात्मा हो जाना है ।फिर भी दोनों की अवस्थाओं में कुछ मूलभूत अंतर की चर्चा करना आवश्यक समझता हूँ ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
पुनश्चः - बहुत ही हर्ष के साथ सूचित कर रहा हूँ कि मेरी चिर प्रतीक्षित पुस्तक "पुनर्जन्म और विज्ञान " आगामी जन्माष्टमी पर अर्थात 5 /09 /2015 को हरिःशरणम् आश्रम,हरिद्वार द्वारा प्रकाशित की जा रही है । मैं आप सभी को व्यक्तिगत रूप से पहुँचाने की व्यवस्था कर रहा हूँ फिर भी जो भी पाठक इस पुस्तक को प्राप्त करना चाहता है मुझे मेरे e-mail पर अपना पता भेजें । मैं उन्हें डाक द्वारा प्रेषित करने की व्यवस्था कर रहा हूँ । मेरा e-mail है- pckachhwal@gmail.com
सिद्ध पुरुष जब जीवन मुक्त हो जाता है तब उसके लिये इस भौतिक शरीर का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है । विदेह की अवस्था को उपलब्ध हुए ऐसे व्यक्ति के मन में सभी वासनाएं आर कामनाएं निकल चुकी होती है । उसका मन इतना निर्मल हो जाता है कि उसको मन कहना ही अतिश्योक्ति होगी । मन तो उस अवस्था को कहते हैं जब किसी प्रकार की कामना शेष रही हो । जब कोई कामना शेष रहती ही नहीं है तो मन की उपस्थिति हो ही नहीं सकती । बिना मन के इस देह की स्थिति भी बिना देह की सी हो जाती है । इसी अवस्था को विदेह होना कहते हैं ।
विदेह की स्थिति को प्राप्त करने के उपरांत भी भौतिक देह की अवस्था तो बनी ही रहती है । जब पूर्वजन्म के कर्मों का फल यह देह पूर्ण रूप से भोग लेगी सिद्ध पुरुष की यह भौतिक देह भी समाप्त हो जाएगी । इस भौतिक देह के छूटते ही सिद्ध पुरुष परमात्म अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । अतः सिद्ध अवस्था और परमात्म अवस्था में अंतर मात्र इस भौतिक देह की उपस्थिति का ही है । मन की समाप्ति हो जाना ही मुक्ति है । इस जीवितावस्था में मन की समाप्ति होने को कबीर ने मन का निर्मल होना कहा है । कबीर कहते हैं कि-
मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ॥
इस दोहे में कबीर कहते हैं कि जब मन से सभी कामनाएं,वासनाएं आदि विकार तिरोहित हो जाते है तब मन गंगा जल की तरह एक दम निर्मल हो जाता है । ऐसी अवस्था को उपलब्ध हुए व्यक्ति को परमात्मा को कही ढूंढने नहीं जाना होता है बल्कि स्वयं परमात्मा ही उसे ढूंढ लेंगे । इसका भावार्थ यही है कि मन के साफ होते ही व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । सिद्ध और परमात्मा में अंतर मात्र इस शरीर का ही तो है ।
हमने आज तक मनुष्य की पांच अवस्थाओं में से पामर,विषयी,साधक और सिद्ध इन चार प्रकार के मनुष्यों की संक्षिप्त रूप से चर्चा की । अब अंतिम अवस्था या श्रेणी जो परमात्मा हो जाने की है उसके लिए कल से चर्चा करेंगे । हालाँकि परमात्म अवस्था की चर्चा की अधिक आवश्यकता नहीं है क्योंकि सिद्ध पुरुष हो जाना ही परमात्मा हो जाना है ।फिर भी दोनों की अवस्थाओं में कुछ मूलभूत अंतर की चर्चा करना आवश्यक समझता हूँ ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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