Monday, August 31, 2015

मानव-श्रेणी |-35

सिद्ध-
                 सिद्ध पुरुष जब जीवन मुक्त हो जाता है तब उसके लिये इस भौतिक शरीर का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है । विदेह की अवस्था को उपलब्ध हुए ऐसे व्यक्ति के मन में सभी वासनाएं आर कामनाएं निकल चुकी होती है । उसका मन इतना निर्मल हो जाता है कि उसको मन कहना ही अतिश्योक्ति होगी । मन तो उस अवस्था को कहते हैं जब किसी प्रकार  की कामना शेष रही हो । जब कोई कामना शेष रहती ही नहीं है तो मन की उपस्थिति हो ही नहीं सकती । बिना मन के इस देह की स्थिति भी बिना देह की सी हो जाती है । इसी अवस्था को विदेह होना कहते हैं ।
                  विदेह  की  स्थिति को प्राप्त करने के उपरांत भी भौतिक देह की अवस्था तो बनी ही रहती है । जब पूर्वजन्म के कर्मों का फल यह  देह पूर्ण रूप से भोग लेगी  सिद्ध पुरुष की यह भौतिक देह भी  समाप्त हो जाएगी । इस भौतिक देह के छूटते  ही सिद्ध पुरुष परमात्म अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । अतः सिद्ध अवस्था और परमात्म अवस्था में अंतर मात्र इस भौतिक देह की उपस्थिति का ही है । मन की समाप्ति हो जाना ही मुक्ति है । इस जीवितावस्था में मन की समाप्ति होने को कबीर ने मन का निर्मल होना कहा है । कबीर कहते हैं कि-
                      मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
                      पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ॥
            इस दोहे में कबीर कहते हैं कि जब मन से सभी कामनाएं,वासनाएं आदि विकार तिरोहित हो जाते है तब मन गंगा जल की तरह एक दम निर्मल हो जाता है । ऐसी अवस्था को उपलब्ध हुए व्यक्ति को परमात्मा को कही ढूंढने नहीं जाना होता है बल्कि स्वयं परमात्मा ही उसे ढूंढ लेंगे । इसका भावार्थ यही है कि मन के साफ होते ही व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । सिद्ध और परमात्मा में अंतर मात्र इस शरीर का ही तो है ।
               हमने आज तक मनुष्य की पांच अवस्थाओं में से पामर,विषयी,साधक और सिद्ध इन चार प्रकार के मनुष्यों की संक्षिप्त रूप से चर्चा की । अब अंतिम अवस्था या श्रेणी जो परमात्मा हो जाने की है उसके लिए कल से चर्चा करेंगे । हालाँकि परमात्म अवस्था की चर्चा की अधिक आवश्यकता नहीं है क्योंकि सिद्ध पुरुष हो जाना ही परमात्मा हो जाना है ।फिर भी दोनों की अवस्थाओं में कुछ मूलभूत अंतर की चर्चा करना आवश्यक समझता हूँ । 
क्रमशः
                                         ॥ हरिः शरणम् ॥
पुनश्चः - बहुत ही हर्ष के साथ सूचित कर रहा हूँ कि  मेरी चिर प्रतीक्षित पुस्तक "पुनर्जन्म और विज्ञान " आगामी जन्माष्टमी पर अर्थात 5 /09 /2015 को हरिःशरणम् आश्रम,हरिद्वार द्वारा प्रकाशित की जा रही है । मैं आप सभी को व्यक्तिगत रूप से पहुँचाने की व्यवस्था कर रहा हूँ  फिर भी जो भी पाठक इस  पुस्तक को प्राप्त करना चाहता है मुझे मेरे e-mail पर अपना पता  भेजें । मैं उन्हें डाक द्वारा प्रेषित करने की व्यवस्था कर रहा हूँ  । मेरा e-mail है- pckachhwal@gmail.com  

Wednesday, August 26, 2015

मानव-श्रेणी |-34

सिद्ध-
                जब सिद्ध अवस्था को मनुष्य उपलब्ध हो जाता है तब उसके परमात्म अवस्था को उपलब्ध होने में कुछ ही क़दमों की दूरी रह जाती है । गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
                              बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
                              वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ गीता 7/19॥
          अर्थात् बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष , सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझ को भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।
                          श्री कृष्ण ने यहाँ आकर एक दम से स्पष्ट कर दिया है कि सिद्ध महात्मा पुरुष इस संसार में बहुत ही दुर्लभ है क्योंकि वही एक मात्र ऐसा पुरुष है जो यह जानता कि यहाँ और वहां, सभी ओर जहाँ तक दृष्टि जाती हो या दृष्टि की पहुँच नहीं भी हो,सब कुछ वासुदेव ही है,वह परमब्रह्म ही है । वह सिद्ध उस परमब्रह्म को ही सदैव भजता है । कितना सत्य कहा है-श्री कृष्ण ने ? पहले तो यह स्वीकार करना ही बड़ा दुष्कर है कि सब कुछ वही  है और उसके बाद केवल उसे ही भजना तो बहुत ही मुश्किल है । दुष्कर इस लिए कि जब वही सब कुछ है तो फिर आप और मैं क्या हैं ? और जब यह पता चलता है कि आप और मैं भी वही हैं तो यह मुश्किल आ पड़ती है कि फिर हम भजे किसको ?जो व्यक्ति इस दुविधा से बाहर निकल जाता है,वही महात्मा कहलाता है,वही सिद्ध पुरुष हो जाता है । फिर उसको कोई परेशानी नहीं है कि वह किसको माने, किसको भजे ?उसके सामने सब कुछ वही और उसका ही होता है । जब सब कुछ वही और उसका तथा उसके ही कारण है तो फिर किसी अन्य को भजने का प्रश्न ही कहाँ से पैदा होगा ? यह सिद्ध पुरुष की सर्वोच्च अवस्था होती है । इस अवस्था को उपलब्ध हुआ व्यक्ति आवागमन से मुक्त हो जाता है ,उसका फिर जन्म नहीं होता । ऐसे सिद्ध पुरुष जीवन मुक्त पुरुष कहलाते है अर्थात इनकी मुक्ति अपने जीते जी इसी जीवन में हो जाती है ।
क्रमशः
                                              ॥ हरिः शरणम् ॥  

Thursday, August 20, 2015

मानव-श्रेणी |-33

सिद्ध-
                 गोरख ने ज्ञान को मक्खन और कहानियां-किस्सों को छाछ बताया है । मक्खन केवल सिद्ध पुरुष ही निकाल सकते हैं,अन्य तो छाछ को ही मक्खन समझकर रसास्वादन कर रहे हैं । परन्तु ध्यान रहे, छाछ से कुछ भी शरीर को प्राप्त नहीं होता है,शरीर की सेहत के लिए तो मक्खन ही फायदेमंद होता है । इसी प्रकार आध्यात्मिकता में कहानियां केवल मनोरंजन कर सकती है परन्तु इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए तो ज्ञान आवश्यक है । अतः शास्त्रों और संत समागम से आपको छाछ छोड़ कर मक्खन को पकड़ना होगा । तभी आप अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं ।
                   गोरख की इसी बात को कबीर और आगे बढ़ाते हुए कहते हैं -
                                       साधू  ऐसा  चाहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
                                       सार सार को गहि रहे,थोथा देई उडाय ॥
                 सत्संग और शास्त्र अध्ययन से सिद्ध पुरुष केवल सार को ही ग्रहण करता है,अन्य बातों को वह आत्मसात नहीं करता । यही सिद्ध मनुष्य की विशेषता होती है । अतः साधक और सिद्ध में मूलभूत अंतर  यही दृष्टिगोचर होता है । जब साधक तत्व की बात को पहचानने लगता है और अन्य बातों को एक तरफ कर देता है,तब वह एक सिद्ध की अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । साधक से सिद्ध होना इसी लिए कठिन है क्योंकि तत्व की बातों में वह रस उसे महसूस नहीं होता जो किस्से कहानियों को सुनकर होता है । धार्मिक शास्त्रों के प्रति रुचि पैदा करने के लिए उनमें किस्से कहानियां वर्णित की गयी है और इनके साथ ज्ञान को इस प्रकार समाहित किया गया है कि एक सिद्ध पुरुष ही इस सत्य बात को  समझ सकता है । अतः साधक को इन शास्त्रों का अध्ययन करते समय अपनी सोच इस प्रकार रखनी चाहिए कि वह इन कहानियों के पीछे छुपे हुए ज्ञान को मक्खन की तरह निकाल सके । तभी इन शास्त्रों की सार्थकता है । ऐसा कर पाना केवल एक सिद्ध पुरुष के लिए ही संभव है  अन्यथा किस्से कहानियां तो चलचित्रों में भी बहुत देखने को मिल जाएगी, फिर ज्ञान के लिए शास्त्रों की  आवश्यकता ही क्या रह जाएगी ? अतः एक दम स्पष्ट सन्देश है यह कि शास्त्र ज्ञान के लिए बने हैं केवल मात्र कथा कथन और श्रवण के लिए नहीं ।
क्रमशः
                                      ॥ हरिः शरणम् ॥  

Sunday, August 16, 2015

मानव-श्रेणी |32

सिद्ध-
               जब व्यक्ति शम,विचार ,संतोष और संत-संगम को पूर्णतया धारण कर लेता है तब वह साधक से सिद्ध की अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । सिद्ध पुरुष के लिए सब कुछ परमात्मा ही होता है,परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं । वह इस भौतिक संसार में रहते  हुए भी परमात्मा में तल्लीन रहता है । सिद्ध व्यक्ति शास्त्र-अध्ययन में भी अपने काम के विषय को ही आत्म साथ करता है ,अन्य कुछ भी नहीं है । नाथ सम्प्रदाय के संस्थापक गोरख का एक दोहा मुझे याद आ रहा है-
           गगन मण्डल में गाय बियाई,कागद दही जमाया ।
          छाछ छाछ तो पंडिता पिवी,सिद्धां माखण खाया ॥
                        गोरख कहते हैं कि इस अन्तरिक्ष में परमपिता द्वारा ब्रह्माण्ड निर्माण का संकल्प हुआ जिसके कारण यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है (गाय बियाई)  । इस घटना के बाद गाय से  मिले दूध (ब्रह्माण्ड का ज्ञान) को  ऋषियों ने शास्त्रों में अपने शब्दों में वर्णित किया है (कागद दही जमाया ) । जब इन शास्त्रों का अध्ययन किया गया (दही को मथा गया) तो इसमे से कई प्रकार की कहानियां किस्से (छाछ-छाछ) पढ़ने में  आये ,उन सब को कथित प्रवचन कर्ता पंडितों ने पकड़ लिए (छाछ छाछ तो पंडिता पीवी) परन्तु जो सिद्ध है, उन्होंने केवल परमात्मा से  सम्बंधित ज्ञान को  ही प्राप्त किया  (सिद्धां  माखन खाया )।
                 यही सिद्ध पुरुष की विशेषता होती है । शास्त्रों में महत्वपूर्ण है-ज्ञान । ज्ञान को व्यक्ति सरलता और सुगमता से मन लगाकर पढ़ समझकर आत्मसात कर ले, इसके लिए हमारे पूर्वजों ने उनको कथा कहानियों के रूप में लिपिबद्ध किया है । अगर हम केवल कहानी को याद रखेंगे और उसमें निहित भावार्थ पर ध्यान नहीं देंगे तो कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे क्योंकि महत्वपूर्ण कहानी नहीं बल्कि उसमे समाहित ज्ञान है । कहानी तो दही के मंथन उपरांत निकली केवल मात्र छाछ है ,मक्खन तो उस कहानी  में समाहित ज्ञान है जो हमें परमात्मा की ओर ले जाता है । आज के कथित धार्मिक प्रवचनकर्ता केवल कथा कहानियां सुनाकर छाछ ही बाँट रहे हैं और दुर्भाग्य तो यह है कि वे इस छाछ को मक्खन बताकर बाँट रहे हैं ।
क्रमशः
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥  

Tuesday, August 11, 2015

मानव-श्रेणी |-31

सिद्ध-
         मनुष्यों की चौथी और अत्यंत दुर्लभ श्रेणी के बारे में चर्चा का प्रारम्भ करते हैं । इस श्रेणी के मनुष्य देखने में अतिदुर्लभ हैं । प्रायः मनुष्य साधक श्रेणी की भी प्रारम्भिक अवस्था तक ही पहुंचकर वहीँ पर अटक कर रह जाता है अथवा पुनः विषयी श्रेणी  में लौट जाता है । यही कारण है कि सिद्ध श्रेणी के मनुष्य लुप्तप्रायः हो चुके हैं । साधक का साधना पथ इतना कठिन होता है कि वह किसी भी एक रास्ते पर चलने में भी अपने आप को दुविधा में पाता हैं । सबसे बड़ी दुविधा पैदा होती है,शम और संतोष को धारण करने में । जबकि शम और संतोष की सिद्ध होने में सबसे बड़ी भूमिका होती है । अगर कोई मनुष्य शम और संतोष को धारण नहीं कर सकता तो इसके पीछे महत्त्व है उसके विचारों का , परमात्म विषयक विचारों का । विचार भी बहुधा सांसारिक ही चलते रहते हैं ,परमात्म विषयक विचार तो कभी  कभी विपरीत परिस्थितियों में  ही बनते हैं । संत समागम तो फिर भी हो सकता है परन्तु आज के इस भौतिक युग में संत ,वास्तविकता में संत न होकर प्रायः विषयी ही  होते हैं । संत के आवरण में विषयी मनुष्य ही  छद्म रूप से घूमते रहते हैं,जिन्हें देखकर विषयी पुरुष धोखे से उन्हें सिद्ध पुरुष समझ लेता है । ऐसे कथित संत न तो स्वयं का भला कर सकते हैं और न ही उनका सानिध्य प्राप्त करने वाले अपना भला। यही कारण है कि आजकल साधक भी कम रह गए हैं और सिद्ध तो विलुप्त से ही हो गए हैं ।
                             साधक जब चारों क्षेत्रों-शम,विचार,संतोष और संत-संगम में निरंतर प्रगति  करता है,तब एक दिन वह सिद्ध हो जाता है । उसकी यह सिद्धता  स्वयं के पुरुषार्थ से ही संभव होती है । इस उपलब्धि को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं है । प्रतीकात्मक रूप से किये जाने वाले कर्म कांड,पूजा-पाठ और तीर्थांटन का सिद्ध पुरुष बनने में किसी भी प्रकार का योगदान नहीं होता है । ऐसे कार्य केवल  आपको एक साधक बनने के लिए उत्प्रेरक का कार्य कर सकते हैं । अतः ऐसे कर्मकांडों में उलझना मनुष्य को  साधना पथ पर आगे बढ़ने नहीं देगा और मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि ये सब साधना पथ में बाधा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । साधना पथ पर अग्रसर होने के लिए ऐसे सभी कर्मकांडों को कही पीछे छोड़ देना पड़ता है ।
क्रमशः
                                  ॥ हरिः शरणम् ॥   

Friday, August 7, 2015

मानव-श्रेणी |-30

साधक-
                        शास्त्रों के अध्ययन में बढती हुई रुचि और परमात्मा विषयक विचार मनुष्य को ज्ञानार्जन के लिए अनुकूल वातावरण तैयार कर देते हैं  |यह अर्जित किया जाने वाला ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है |शेष जो भी ज्ञान हम संसार के लिए प्राप्त करते हैं वह सब अविद्या ही है | असली विद्या तो परमात्मा का ज्ञान हो जाना ही है |केवल शास्त्र से ही परमात्मिक ज्ञान संभव नहीं है अतः साधना में चौथा प्रकार साधू संगम को  बताया गया है |
             जब व्यक्ति साधुओं के साथ बैठेगा  तो यह निश्चित है कि वहां चर्चा संसार की तो होगी नहीं |संत संगम में चर्चा केवल  परमात्मा के सम्बन्ध में ही होती है | संत संगम में व्यक्ति शास्त्रों के अध्ययन में उठी शंकाओं का समाधान कर सकता है |इसीलिए साधना के लिए संत समागम या गुरु मिलन आवश्यक बताया गया है |गुरु और संत व साधू एक ही श्रेणी के होते हैं |ये वही व्यक्ति होते हैं जो आज मनुष्यों की श्रेणी 'सिद्ध' को प्राप्त कर चुके हैं  |इनका साधना अनुभव हमारा मार्गदर्शन करता है जिससे साधना पथ से भटक जाने की सम्भावना समाप्त हो जाती है |एक अनुभव प्राप्त व्यक्ति ही रास्ते की सभी प्रकार की बाधाओं से हमे अवगत करा सकता है |संत मिलन के लिए  कहा गया है कि-
                                संत समागम,हरिकथा,जग में दुर्लभ दोय  |
                                सुत, दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय ||
        किसी भी  गृहस्थ के धर्मपत्नी,पुत्र और सांसारिक वैभव और धन  दौलत हो सकते हैं |ये सब पुण्यात्मा या पापी होने का आधार नहीं हो सकते क्योंकि ये सब तो किसी  के पास भी हो सकते हैं |यह सब होना कोई दुर्लभ नहीं है |इस संसार में अगर कुछ  दुर्लभ है तो दो ही बातें होना है |एक तो संतों से मिलन और दूसरा परमात्मा की चर्चा |
                   इस प्रकार हमने एक साधक होने की प्रक्रिया को संक्षेप में जाना | कल से हम सिद्ध के बारे में चर्चा प्रारम्भ करेंगे |
क्रमशः
                                           || हरिः शरणम् ||

Monday, August 3, 2015

मानव-श्रेणी |29

साधक-
              साधक जब शम,विचार(परमात्मा विषयक और शास्त्र अध्ययन),संतोष और संत संगम के बारे में दिन प्रतिदिन प्रगति करता जाता है तब वह शीघ्र ही साधनापथ पर अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होता है । जितने और भी साधन इस शरीर से किये जा सकते हैं,व्यक्ति को करने चाहिए । हालाँकि सभी तरीके उपरोक्त  वर्णित चार तरीकों में आकर ही समाप्त होते हैं । साधक को चाहिए कि उसे उपर्युक्त चार तरीकों में से  में जो भी अपनाने में सुगम लगे, उसी तरीके को अपने शरीर के माध्यम से साधने का प्रयास करना चाहिए । ज्योंही एक तरीके में आप पारंगत होंगे ,दूसरे तरीके को इस्तेमाल करना स्वतः ही प्रारम्भ कर देंगे ।
              परमात्मा को जानने और पाने का प्रयास ही  पुरुषार्थ  कहलाता है |वैसे प्रत्येक तरीके का विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है परन्तु आप स्वयं इस पथ पर अग्रसर है,  अतः ज्यादा विवेचना की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | हाँ, विचार के समबन्ध में थोडा गहराई में अवश्य जाना चाहिए | एक तरफ हम ध्यान केलिए विचारशून्यता की बात करते हैं और इधर साधक के लिए विचार आवश्यक बताया जा रहा है | ये दोनों बातें विरोधाभासी प्रतीत होती है |"योगवासिष्ठ"में वसिष्ठ मुनि विचार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति में जब तक विचार प्रारम्भ नहीं होते तब तक उसका परमात्मा की तरफ उन्मुख होना संभव ही नहीं है |यूँ तो सांसारिक विषयी व्यक्ति दिनभर विचारों के जाल में उलझा हुआ  रहता है । वसिष्ठ ऐसे विचारों का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं | वे कहते हैं कि विचार परमात्मा विषयक होने चाहिए |जब विचार अन्य सांसारिक विषयों से हटकर परमात्मा के बारे में मनुष्य के मस्तिष्क में उठने प्रारम्भ हो जाते हैं,तब उसे परमात्मा को और अधिक जानने की जिज्ञाषा मन में उठने लगती है | उसकी यह जिज्ञाषा प्रारम्भ में उसे शास्त्रों की तरफ ले जाती है |परमात्मा विषयक विचार जब शास्त्र पढ़ने को प्रेरित करते हैं तब एक बार तो मनुष्य को इनके अध्ययन में आनंद नहीं आता है परन्तु परमात्मा को जानने की उत्सुकता उसे शास्त्र अध्यन से विमुख नहीं कर पाएगी | सतत अध्ययन के कारण उसकी रुचि इन शास्त्रों में निरंतर बढती जाती है |
क्रमशः
                                          || हरिः शरणम् ||