मनुष्य जीवनभर इच्छाओं-कामनाओं के पीछे भागता रहता है। जीवन में कुछ इच्छाओं की पूर्ति तो हो जाती है, पर ज्यादातर इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती। मनुष्य की जब इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है, तो वह फूला नहीं समाता और अहंकारयुक्त हो जाता है। उस कार्य की पूर्ति का सारा श्रेय स्वयं को देता है। वहीं जब इच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती तब वह ईश्वर को दोष देने लगता है और अपने भाग्य को दोष देने लगता है। मनुष्य की इच्छाएं अनंत होती हैं। वे धारावाहिक रूप से एक के बाद एक कर आती चली जाती हैं। जीवनपर्यन्त यही क्रम चलता रहता है। वर्तमान के इस भौतिक युग में लोग इच्छाओं से भी बड़ी महत्वाकांक्षाओं को मन में पालने लगे हैं। ऐसी-ऐसी महत्वाकांक्षाएं करते हैं, जिनके बारे में स्वयं जानते हैं कि वे शायद ही कभी पूरी हो सकें।
इस क्षणभंगुर संसार में सांसारिक सुख की प्राप्ति करने के लिए मनुष्य सदा प्रयत्नशील रहता है। इसके लिए वह सदैव कामना करता रहता है। वह नहीं जानता कि सुखस्वरूप तो वह स्वयं ही है। गुणों के अधीन यह सांसारिक सुख तो क्षणभंगुर हैं। यह समाप्त होने वाला है, तब फिर इन संसारी सुख की इच्छाओं के पीछे क्यों भागते रहा जाए? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि रजोगुण से उत्पन्न यह कामना बहुत खाने वाली है अथवा हमें परेशान करने वाली है। ऐसी मनोकामना की पूर्ति कभी नहीं होती। इसका पेट कभी नहीं भरता। भगवान कहते हैं कि मन में उठने वाली कामना यदि पूरी हो जाती है तो राग उत्पन्न हो जाता है और इसकी पूर्ति न होने पर मन में क्रोध जन्म ले लेता है। कहने का मतलब यही है कि दोनों ही स्थितियों में मनुष्य की हानि है अथवा उसे नुकसान उठाना पड़ता है। हमें यह समझना होगा कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में उसकी संपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो पाती, जबकि इन इच्छाओं की पूर्ति करने में मनुष्य अपना सारा श्रम लगा देता है। मनुष्य को चाहिए कि इन इच्छाओं का दामन छोड़कर अपने नियमित कर्मों को आसक्ति से रहित होकर करते हुए सारे जगत के रचयिता परमात्मा को अपना सर्वस्व न्योछावर करे और इस जगत में निर्लिप्त होकर रहे। इससे वह शाश्वत सुख व शांति प्राप्त कर सकेगा और फिर वह इच्छाओं के जाल में नहीं फंसेगा।
॥ हरिः शरणम् ॥
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