मन के सभी संकल्पों-विकल्पों का किसी एक केंद्र पर स्थित हो जाना एकाग्रता है। दीपक का लौ पर ठहर जाना एकाग्रता है। भंवरे का फूल पर फिदा हो जाना ही एकाग्रता है। गीता में अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से यही प्रश्न किया कि मन अत्यंत चंचल है, दृढ़ है, बलवान है। आंधी से भी ज्यादा वेगवान है।
भगवान ने बताया कि लगातार अभ्यास से हम स्थितप्रज्ञ मन वाले बन सकते हैं। स्वयं को एकाग्र कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता ही एकाग्रता है। हमने जो लक्ष्य जीवन में निर्धारित किया, उसके लिए हम मन व प्राणों से समर्पित हों और तब तक उसमें लगे रहें जब तक कि अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाए। एकाग्रता के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है, जो स्वयं एक साधना है। मन को वश में करना इतना आसान भी नहीं है।
हमें एकाग्र होने के लिए कुछ बातों का विशेष ध्यान देना होगा। हम सीधे दसवीं मंजिल पर चढ़ने की बात करें, यह ठीक नहीं होगा। इसके लिए मैं तो कहूंगा कि क्रमश: आगे बढ़ने का प्रयास करें। अभ्यास करते समय अपनी स्थिति उस कछुए की तरह बनाएं, जिसे मारने पर भी वह अपने हाथ और पैर अंदर सिकोड़ कर बैठा रहता है, बाहर नहीं निकालता। उसका इंद्रियों पर अद्भूत नियंत्रण होता है। साधक को 'स्व' की चिंता करते हुए यह विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि मन को साधते समय उसका चित्त, शांत व निर्मल हो। बाहर चाहे कितना ही कोलाहल क्यों न हो, समुद्र का ज्वार ही क्यों न उमड़ आए।
सबसे पहले तन को साधें, तन की एकाग्रता आसन के स्थिर होने से आएगी। प्राणायाम श्वास को एकाग्र करने में मदद करता है। एकाग्रता में मौन संजीवनी का काम करता है। साथ ही विचारों को भी एकाग्र करने का प्रयास करें। सांसों की लयबद्धता मन की गहराई तक ले जाती है। मन के लयबद्ध होते ही जीवन में एक अनूठी लय बन जाती है। एकाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति हर निर्णय सोच समझकर सटीक लेता है। मन रूपी झील में दुनियादारी का कंकड़ पड़ने से जो हलचल आ गई थी वह भी प्राणायाम से धीरे-धीरे शांत होने लगती है। लगातार प्रयास से कुछ नियमों का पालन करके व्यक्ति आसानी से एकाग्रता के रथ पर सवार हो सकता है।
॥ हरिः शरणम् ॥
No comments:
Post a Comment