Tuesday, September 9, 2014

वास्तविक आनंद |

                 एक संत के विषय में यह प्रसिद्ध था कि जो उनके पास जाता है, आनंदित होकर लौटता है। वह सहजता के साथ आनंदित, सुखी और संतुलित जीवन के सूत्र बता देते। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। एक धनी व्यक्ति एकाएक सुखी और आनंदित होने की चाह लेकर उनके पास गया और उतावला होकर आनंदित रहने की विधि पूछने लगा। संत उसकी बात अनसुनी करते हुए एक पेड़ के नीचे बैठे चिड़ियों को दाना चुगाते रहे। चिड़ियों की प्रसन्नता के साथ संत अपने को जोड़कर आनंदविभोर हो रहे थे। संत की इसी स्थिति को देखकर धनी व्यक्ति अपना धैर्य कायम नहीं रख पा रहा था और उसने अधिक उतावलेपन से संत से सुखी बनने का सूत्र बताने का आग्रह किया। संत अपने काम में आनंदित हो रहे थे। अमीर आदमी उतावला हो रहा था, उसने पुन: संत से आनंदित रहने का रहस्य पूछा। अधिक आग्रह करने पर संत ने अलमस्ती से कहा, ''दुनिया में प्रसन्न होने का एक ही तरीका है-दूसरे को देना। देने में जो आनंद है, जो सुख है वह और किसी चीज में नहीं है। तुम चाहो तो अपनी अमीरी जरूरतमंदों को लुटाकर स्वयं आनंदित रहने वालों में अग्रणी हो सकते हो।'' इसलिए सेवा के नाम पर भूखों को भोजन कराएं, यही बड़ा धार्मिक कार्य हो सकता है, लेकिन इस पुनीत कार्य का भी अब प्रदर्शन हो रहा है।
               लोग धर्म के नाम पर कई प्रकार के कर्म-कांडों और संस्कारों का पालन करते हैं। हममें से तमाम लोग प्राय: दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने धार्मिक कार्यो का प्रदर्शन करते हैं, जबकि सच यह है कि मानव की सेवा ही पुण्य का काम है, किसी की आंख के आंसू पोंछना वास्तविक धर्म है और सच्ची संवेदनशीलता है। सभी धर्म हमें यही शिक्षा देते हैं। पुण्य तभी प्राप्त होंगे, जब हम हृदय से पवित्र होंगे, जरूरतमंदों की सहायता करेंगे। कुछ लोग गरीबों को भोजन कराते हैं, लेकिन कितने लोग हैं, जो इनकी गरीबी दूर करने के लिए आगे आते हैं। अगर हम संतों-महात्माओं के जीवन का अध्ययन करें, तो पाएंगे कि उन सबने गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा की। उन्होंने हमें इसी बात की शिक्षा प्रदान की। लेकिन हमने उन महात्माओं के नाम पर संप्रदाय बना लिए और सेवा धर्म भूल गए। हम जीवन में पुण्य प्राप्त करने के लिए न जाने कहां-कहां भटकते हैं।
                   || हरिः शरणम् || 

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