संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य आशा और निराशा को अपने जीवन में धूप-छांव की तरह अठखेलियां करते हुए पाता है। जीवन की इस परिवर्तनशीलता को देखकर व्यक्ति अपनी कमजोर मानसिकता के कारण दुखी व संघर्षों से घबराकर निराश हो जाता है। जब व्यक्ति लगातार असफल होता है, तो उसे अपने चारों ओर ऐसा अंधकार दिखाई देता है, जिसमें वह आशा का दीप बुझा हुआ पाता है।
दुख और अवसाद उसके मन-मस्तिष्क पर कब्जा कर लेते हैं। कुंठा और हीनभावना से ग्रसित व्यक्ति अपना मनोबल भी गंवा बैठता है। उसके सकारात्मक गुण लुप्त हो जाते हैं। अनासक्ति व अकर्मण्यता की स्थिति में पहुंचकर वह अपने जीवन को ही समाप्त करने की बात सोचने लगता है। यह सब निराशा, अति उत्साह और स्वप्न के टूटने का परिणाम है। अपेक्षाओं के पूर्ण न होने से उत्पन्न दुख से भी निराशा का जन्म होता है। विवेकपूर्ण मनुष्य तो असफलता को चुनौती मानकर पुन: प्रयत्न करते हैं, परंतु विवेकहीन मनुष्य निराशा से भर उठते हैं। निराशा एक सहज मानवीय सार्वभौमिक अभिव्यक्ति है।
डॉक्टर मानते हैं कि निराशा और अवसाद कुछ रासायनिक पदार्थो के स्त्रावित होने के परिणाम हैं। इसे एक तरह से बीमारी माना जाता है। इससे बाहर निकलने के लिए मनोचिकित्सकों और दवाओं की सहायता ली जाती है। आध्यात्मिक विधियों जैसे ध्यान (मेडिटेशन) के जरिये भी निराशा को दूर किया जाता है।
निराशा को घातक बनाने का कार्य मानव मन ही करता है। इसीलिए मन पर अंकुश रखना चाहिए और आशा की सतत ऊर्जा से निराशा को दूर करना चाहिए। असफलता इस बात का संकेत है कि सार्थक प्रयत्न नहीं किया गया। इसलिए असफलताओं से घबराने की आवश्यकता नहीं है। बस अपने प्रयासों की गति बढ़ा देनी चाहिए। जिस प्रकार रात्रि का अंत सूर्योदय के साथ होता है, उसी प्रकार निराशा का अंत आशा और उम्मीद के साथ होता है। 'गीता' में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो व्यक्ति सुख व दुख में, लाभ व हानि में और जय व पराजय की स्थितियों में विचलित नहीं होता, ऐसे शख्स को कोई भी विचलित नहीं कर सकता। निराशा से सामना करने का यही मूल-मंत्र है। इस पर सभी को अमल करना चाहिए।
|| हरिः शरणम् ||
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