Monday, September 29, 2014

मन की एकाग्रता |

                    मन के सभी संकल्पों-विकल्पों का किसी एक केंद्र पर स्थित हो जाना एकाग्रता है। दीपक का लौ पर ठहर जाना एकाग्रता है। भंवरे का फूल पर फिदा हो जाना ही एकाग्रता है। गीता में अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से यही प्रश्न किया कि मन अत्यंत चंचल है, दृढ़ है, बलवान है। आंधी से भी ज्यादा वेगवान है।
                   भगवान ने बताया कि लगातार अभ्यास से हम स्थितप्रज्ञ मन वाले बन सकते हैं। स्वयं को एकाग्र कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता ही एकाग्रता है। हमने जो लक्ष्य जीवन में निर्धारित किया, उसके लिए हम मन व प्राणों से समर्पित हों और तब तक उसमें लगे रहें जब तक कि अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाए। एकाग्रता के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है, जो स्वयं एक साधना है। मन को वश में करना इतना आसान भी नहीं है।
                  हमें एकाग्र होने के लिए कुछ बातों का विशेष ध्यान देना होगा। हम सीधे दसवीं मंजिल पर चढ़ने की बात करें, यह ठीक नहीं होगा। इसके लिए मैं तो कहूंगा कि क्रमश: आगे बढ़ने का प्रयास करें। अभ्यास करते समय अपनी स्थिति उस कछुए की तरह बनाएं, जिसे मारने पर भी वह अपने हाथ और पैर अंदर सिकोड़ कर बैठा रहता है, बाहर नहीं निकालता। उसका इंद्रियों पर अद्भूत नियंत्रण होता है। साधक को 'स्व' की चिंता करते हुए यह विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि मन को साधते समय उसका चित्त, शांत व निर्मल हो। बाहर चाहे कितना ही कोलाहल क्यों न हो, समुद्र का ज्वार ही क्यों न उमड़ आए।
                 सबसे पहले तन को साधें, तन की एकाग्रता आसन के स्थिर होने से आएगी। प्राणायाम श्वास को एकाग्र करने में मदद करता है। एकाग्रता में मौन संजीवनी का काम करता है। साथ ही विचारों को भी एकाग्र करने का प्रयास करें। सांसों की लयबद्धता मन की गहराई तक ले जाती है। मन के लयबद्ध होते ही जीवन में एक अनूठी लय बन जाती है। एकाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति हर निर्णय सोच समझकर सटीक लेता है। मन रूपी झील में दुनियादारी का कंकड़ पड़ने से जो हलचल आ गई थी वह भी प्राणायाम से धीरे-धीरे शांत होने लगती है। लगातार प्रयास से कुछ नियमों का पालन करके व्यक्ति आसानी से एकाग्रता के रथ पर सवार हो सकता है।
                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, September 28, 2014

मौन - मन की आदर्श अवस्था |

                  अधिक बोलना हमारे व्यक्तित्व पर ग्रहण लगने के समान है। जरूरत से ज्यादा बोलने पर शिष्टता-शालीनता की मर्यादाओं का उल्लंघन होता है। इससे मानसिक शक्तियां कमजोर और दुर्बल होती हैं, स्नायुतंत्र पर विपरीत असर पड़ता है। यदि लंबे समय तक ऐसी स्थिति बनी रहे तो कई प्रकार की मानसिक विकृतियां और शारीरिक रोगों का पनपना प्रारंभ हो जाता है।
                  वाचाल व्यक्ति का व्यक्तित्व उथला माना जाता है। कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता। अविश्वास एक ऐसी सजा है कि जिसे झेल पाना अत्यंत कठिन है। मौन मन की आदर्श अवस्था है। मौन का अर्थ है-मन का निस्पंद होना। मन की चंचलता समाप्त होते ही मौन की दिव्य अनुभूति होने लगती है। मौन मन का अलंकार है, जो इसके स्थिर होते ही सहजता से प्राप्त किया जा सकता है। मौन से मानसिक ऊर्जा का क्षरण रोककर इसे मानसिक शक्तियों के विकास में नियोजित किया जाना संभव है। मौन में मन शांत, सहज व उर्वर होता है और सृजनशील विचारों को ग्रहण कर पाता है।
                 इसलिए मौन चुप रहने की अवस्था नहीं है। मौन से वाणी पर अंकुश लगाया जा सकता है। मौन का अभ्यास करके निरर्थक और बेलगाम प्रलाप से निजात पाई जा सकती है। इससे मन स्थिर और प्रशांत होता है। प्रशांत मन समस्त मानसिक शक्तियों का द्वार होता है।
                मौन चुप या शांत रहना नहीं है बल्कि अनावश्यक विचारों की उधेड़बुन से मुक्ति पाना है। चुप रहने को यदि मौन की संज्ञा दी जाए तो समझना चाहिए कि इस के मर्म और तथ्य से हम बहुत दूर हैं। सामान्यत: व्यक्ति बोलकर जितनी मानसिक ऊर्जा बर्बाद करता है, उससे कहीं ज्यादा विवशतावश चुप रहकर करता है। ऐसी अवस्था में विचारों की आड़ी टेढ़ी लकीरें मन में आपस में टकराने लगती हैं और अपने को अभिव्यक्त करने के लिए मन का संधान करती है। चुप रहते हैं और मन की इस व्यथा को भी सहते हैं। बोलना चाहते हैं और बोलते भी नहीं।
               इस कशमकश से तो अच्छा है कि बोलकर अपने को हल्का कर लिया जाए। इसके अभाव में मानसिक शक्तियां कुंठित हो जाती हैं। उनमें गांठें पड़ जाती हैं और अंतत: ये गांठें हमारे अचेतन मन को जख्मों से छलनी कर देती हैं। ऐसा मौन संघातक होता है। मौन की शक्ति असीमित और अनंत है। मौन मनुष्य की ही नहीं संपूर्ण प्रकृति की अमोघशक्ति है।
                                                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, September 27, 2014

बुद्धि और ज्ञान |

                 बुद्धि का विकास आवश्यक है। बुद्धि के विकास से ही ज्ञान का प्रकाश पुंज फैलता है। समस्त जानकारी हमें बुद्धि के द्वारा ही प्राप्त होती है। बुद्धि ही ज्ञान को प्रकाशित करती है। हम बुद्धि का विकास किस ओर करते हैं, यह बात विचारणीय है। बुद्धि का विकास हम दो दिशा में कर सकते हैं। प्रथम, हम बुद्धि को सही दिशा देकर उसे ज्ञान की उच्चतम अवस्था की उपलब्धि करा सकते हैं।दूसरी तरह से हम बुद्धि का उपयोग मात्र अपने स्वार्थ के लिए कर सकते हैं । 
                 कहने का आशय यह कि हम बुद्धि को वाह्य जगत से मोड़कर अपने अंतर्मन की ओर अग्रसारित करा सकते हैं, जिससे वह अपनी आत्मा के आलोक को प्राप्त कर ले और यही मनुष्य जन्म प्राप्त करने का सच्चा व यथार्थ उद्देश्य है। देश में इसी दिशा की ओर सभी महापुरुष चले हैं। उनके द्वारा वह उन्नति प्राप्त की गई है जिसके कारण उन्होंने समाज व संसार को सही रास्ता दिखलाया। बुद्धि भावना से जुड़कर आत्मिक उन्नति को प्राप्त कर पाती है। इसके विपरीत बुद्धि जब भावना का परित्याग करते हुए मात्र बुद्धिवादी बनकर आगे बढ़ती है, तब वह इंद्रियों के सुखों की पोषक होती है। वह इस ओर लग जाती है कि किस प्रकार से शरीर के सुख के लिए अधिक से अधिक योगदान किया जा सके।
                 शरीर सुख ही मुख्य उद्देश्य रह जाता है। आज समाज बिखर रहा है। क्यों? इसलिए कि लोग केवल बुद्धिवादी होकर रह गए हैं। भावना का परित्याग कर दिया गया है। बुद्धि की बाजीगरी चल रही है। लोग कैसे-कैसे, झूठ, फरेब, छल, कपट को ओढ़ते चले जा रहे हैं। हर तरफ बिखराव की स्थिति दिखाई पड़ती है। सब एक दूसरे को दोष देते रहते हैं। मगर वे क्यों नहीं समझ पाते कि भाव का परित्याग कर केवल बुद्धिवादी बनकर वैतरणी नहीं पार की जा सकती।
               आज बुद्धि की समस्त चेष्टाएं संसार की ओर अग्रसर हो चुकी हैं। ठगी का बाजार गर्म है। वे इस बात को भूल गए हैं कि हम किस देश के रहने वाले हैं, जहां बुद्धि का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर रहा है। बुद्धि को संसार में उतना ही प्रयुक्त किया जाता रहा है जिससे सही जीवनयापन हो सके। अब पुन: बाहर की दौड़ पर लगाम लगाकर अपने यथार्थ सुख की प्राप्ति की ओर बुद्धि को ले जाना होगा। तभी समाज और पूरे विश्व को शांति व आनंद की राह पर लाया जा सकता है।
                      ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Friday, September 26, 2014

चरित्र |

                   चरित्र एक ऐसी मशाल के समान होता है जिसका प्रकाश दिव्य और पावन होता है। चरित्र बल के आलोक से अनेक लोगों को प्रेरणा मिलती है, एक नई राह मिलती है। चरित्र एक ऐसा आकर्षण केंद्र होता है, जिसकी ओर सभी अनायास खिंचे चले आते हैं। चरित्र से व्यक्तित्व आकार पाता है, उसे एक पहचान मिलती है।
                  वस्तुत: आमतौर पर अच्छी आदतों व गुणों के समूह को चरित्र में शामिल किया जाता है। चरित्र का क्षेत्र बड़ा ही व्यापक व विस्तृत है। इसे हमने संकीर्णता की सीमाओं में सीमित कर दिया है। चरित्र के संबंध में हम अनेक भ्रांत धारणाओं से ग्रस्त हैं, जबकि यह हमारे समूचे व्यक्तित्व को गढ़ता है और विकसित करता है। यह अपने गुणों के बीजों का हमारे अंतस् में रोपण करता है और कालांतर में इन गुणों के विकास से हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। चरित्र के आधार पर व्यक्ति की पहचान होती है। चरित्र के बीज सही और प्रखर हों, सत्य से आवृत्त हों, तो व्यक्तित्व सशक्त होगा। इसके विपरीत दुर्गुण से शिकार हों, तो व्यक्तित्व दोषयुक्त होगा। इसलिए चरित्र को व्यक्तित्व के गुणों का समुच्य कहा जा सकता है। इसमें अच्छे-बुरे और सद्गुण-दुर्गुण दोनों को ही शामिल किया जाता है। ये गुण हमारे समूचे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इसके आधार पर हम जाने व समझे जाते हैं। हम क्या हैं, हमारा अस्तित्व क्या है, हमारी वर्तमान स्थिति क्या है और कहां पर विद्यमान हैं? इसकी समूची जानकारी चरित्र के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती हैं।
                अध्यात्म व्यक्तित्व ढालने की टकसाल है और चरित्र-निर्माण की प्रयोगशाला है। ऐसे अनेक, असंख्य जीवंत प्रमाण हैं, जिनका व्यक्तित्व कोयले के समान अनगढ़ व कुरूप था, परंतु बाद में वे ही विद्वान, ज्ञानी और महापुरुष बने। चरित्र से ही व्यक्तित्व की व्याख्या-विवेचना संभव है। व्यक्तित्व निर्माण चिंतन की प्रेरणा प्रदान करता है। चरित्र एक पात्र है, जिसमें चिंतन विकसित होता है। चरित्र की उपजाऊ भूमि पर ही चिंतन का बीजारोपण होता है। यह वह भूमि है, जहां से अध्यात्म की कोंपलें फूटती हैं, परंतु विडंबना है कि आज की तथाकथित आध्यात्मिकता में अध्यात्म की मूलभूत विशेषता चरित्र विलुप्त हो रही है। यही कारण है कि आज तमाम आध्यात्मिक व धार्मिक व्यक्ति बाहर से जैसे दिखते हैं, वैसे अंतर्मन से होते नहीं हैं।
                       ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, September 25, 2014

आत्म-सुधार |

                    कुछ भारतीय मनीषियों ने विनोदप्रियता का सहारा लेते हुए पर-छिद्रान्वेषण यानी निंदा को निंदा-रस कहा है। कारण स्पष्ट है। दूसरे की निंदा या दूसरे की बुराई करने में तमाम लोगों को बहुत अच्छा लगता है। अनेक लोग उन लोगों की निंदा करते हैं, जिनके प्रति शत्रुभाव रखते हैं। वे मित्रों को भी नहीं बख्शते और पीठ पीछे उनकी आलोचना करते रहते हैं।
                   दूसरे के चरित्र पर बना सुई के नोक के बराबर छिद्र भी हमें तत्काल नजर आ जाता है और हम पूरी तत्परता से उसे चौड़ा करने में यानी बढ़ा-चढ़ाकर दूसरों से कहने में व्यस्त हो जाते हैं। इस बात की परवाह किए बगैर कि सामने वाले से कई गुना अधिक कमियां उनमें हो सकती हैं, किंतु इस ओर हमारा ध्यान जाता भी नहीं और हम निंदा-रसपान में व्यस्त रहते हैं। निंदारस की व्यापकता यत्र-यत्र सर्वत्र नजर आती है। ऐसा क्यों होता है? दूसरों की निंदा करके बहुधा लोगों को सुखानूभूति क्यों होती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे मन में स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दर्शाने की भावना उस समय सूक्ष्म अहंकार के रूप में मौजूद रहती हो? निश्चय ही ऐसा ही है। अहंकार सूक्ष्म-सूक्ष्मतर व छद्मवेशी होता है। इसीलिए हम उसे पहचान नहीं पाते। परिणाम स्वरूप उसके मकड़जाल में हम उलझ जाते हैं। वैसे भी किसी भी वस्तु को देखने के लिए हमें फासले की जरूरत होती है। आईने में हमें अपनी शक्ल तभी नजर आती है जब थोड़ा फासला हो। चूंकि हमारा स्वयं से फासला रंचमात्र भी नहीं होता, इसलिए हमें अपनी शक्ल प्राय: नजर नहीं आती। अगर कोई इस बात की ओर ध्यानाकर्षण भी करे तो हम अपने ही पक्ष में उल्टे-सीधे तर्क जुटा लेते हैं। जबकि दूसरा व्यक्ति फासले पर होता है। इसलिए उसकी कमियां हमें नजर आ जाती हैं और अहंकार के वशीभूत होकर हम उन्हें निर्ममतापूर्वक उधेड़ने में लग जाते हैं, जबकि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। किंतु सावधान! कहीं ऐसा न हो कि सामने वाला बुद्धिमान हमसे और अपनी कमियों के प्रति सजग होकर आत्म-सुधार में जुट जाए और हम निंदा करके आत्मपतन के मार्ग पर अग्रसर रहें। मनीषी वही है, जो दूसरों की कमियों पर ध्यान देने के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान दे। तभी आत्म-सुधार संभव है।
                         नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें ।
                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 


Wednesday, September 24, 2014

गुरु |

                 भारतीय संस्कृति में गुरु का पद सर्वोच्च माना गया है। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के तुल्य कहा गया है। प्रथम स्तर पर गुरु बालक को शिक्षा देकर इस योग्य बनाता है कि वह अपने कर्मक्षेत्र में सफल हो सके। द्वितीय स्तर पर गुरु अपने शिष्य के अंतर्मन में व्याप्त अंधकार (अज्ञान व अविद्या) और विकारों को नष्ट कर प्रकाश (ज्ञान) की अनुभूति कराता है।
                 गुरु शिष्य को ज्ञान का मार्ग दिखाने के साथ-साथ उसकी चेतना का विस्तार भी करता है। गुरु वह सेतु है जिस पर चलकर शिष्य परमात्मा तक पहुंचता है, तभी तो कबीर कहते हैं कि गुरु जी आप धन्य हैं कि आपने भगवान के बारे बता दिया। इसी तरह सूफी महाकवि जायसी भी मानते हैं कि इस संसार में गुरु के बगैर कोई भी उस परब्रह्म को प्राप्त नहीं कर सकता है। 'बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।' गोस्वामी तुलसीदास भी 'हनुमान चालीसा' में हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि गुरुदेव की तरह मुझ पर कृपा करो- 'जै जै हनुमान गोसाईं, कृपा करौ गुरुदेव की नाई।' विचारणीय प्रश्न यह है कि सच्चा गुरु मिले कैसे? क्योंकि आज के इस परिवेश में सच्चा गुरु मिलना सहज नहीं है। यदि गुरु ही अज्ञानी है, तो वह शिष्य को कैसे मार्ग दिखा सकेगा? वह तो स्वयं को भी और शिष्य को भी पतन के गर्त में ढकेल देगा। संत कबीर ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन अपने तरीके से किया है। गुरु सच्चा ज्ञानी हो और शिष्य में ज्ञान पाने की ललक हो, तभी गुरु और शिष्य दोनों धन्य हो उठते हैं। इस संबंध में ओशो कहते हैं- 'गुरु-शिष्य संबंध संयोग मात्र भी है और एक होशपूर्ण चयन भी। जहां तक गुरु का सवाल है, वह पूर्णत: होशपूर्ण (जागरूकतापूर्ण) चयन है। जहां तक शिष्य का प्रश्न है, यह संयोग ही हो सकता है, क्योंकि अभी होश उसके पास है ही नहीं। ओशो के कहने का अर्थ यह है कि यदि सच्चा गुरु आसानी से नहीं मिलता है तो गुरु को ऐसा शिष्य भी मुश्किल से मिलता है, जो उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान की लौ को प्रज्जवलित कर सके। गुरु ऐसे शिष्य को मात्र एक बीज देता है और शिष्य भूमि बनकर उस बीज को अंकुरित और पल्लवित करता है। इस प्रकार सच्चा गुरु शिष्य को सही मार्ग निर्देशित करके न केवल उसके जीवन-मार्ग को प्रशस्त करता है बल्कि उसे आध्यात्मिक ऊंचाइयों की ओर ले जाने में सहायक होता है।
                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, September 22, 2014

धर्माचरण |

                 साधना परक धर्म के साथ रचनापरक धर्म वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है। रचनात्मक धर्म का मतलब परोपकार से है, सेवा-भावना से है। ऐसे कार्यों में तकनीक और युवा शक्ति का सामंजस्य बिठाकर समाज को एक नई दिशा दी जा सकती है। जरूरत मन: स्थिति बदलने की है, मन: शक्ति से हर परिस्थिति को बदला जा सकता है। एक विचारक ने ठीक कहा है कि वृद्ध वह है, जो अतीत के अनुभवों में जीता है। युवा वह है, जो वर्तमान ठोस धरातल पर खड़ा होकर भविष्य के सपने बुनता है। एक स्वप्नद्रष्टा युवक को तैयार करने के लिए हमें उसे वर्तमान की कठोर सच्चाइयों से रूबरू कराना है। हमें एक ऐसी युवा शक्ति की जरूरत है, जो समय की चाल के साथ बराबर तालमेल बिठा सके।
               इतिहास के आंगन में खड़े होकर देखते हैं तो पता चलता है कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण, मोहम्मद और जीसस ने जब प्रसुप्त समाज को जगाया था, तब वे न केवल आयु से युवा थे, बल्कि उनकी सोच भी समय से आगे की थी। आज की स्थिति में धर्म-जगत पर दृष्टि डालें, तो एक धुंध और कुहासा दिखाई देता है। आज युवकों ने धर्म और अध्यात्म को वृद्धों के लिए सुरक्षित और आरक्षित मान लिया है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तीर्थकर महावीर ने कहा है- जब तक बुढ़ापा पीड़ित नहीं करता हो, व्याधि जब तक नहीं बढ़ती हो, जब तक इंद्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्माचरण करें। क्षण मात्र का भी आलस्य मत करें और समय के अनुरूप चलते रहें। आज के संदर्भ में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या युवक धर्म से दूर जा चुके हैं? मेरी दृष्टि में युवक धर्म से दूर नहीं हैं, बल्कि धर्म की पुरातन व्याख्या नूतन युवक से दूर खड़ी है। आज के युवक को एक ऐसी धार्मिक आस्था की तलाश है, जो उसके दौड़ते-भागते जीवन के साथ कदम-ताल कर सके। हर काल का युवा वर्ग जीवन में कुछ नयापन चाहता है। वह नए कपड़े पहनता है, वह नए तरीके से खाता है, नई दिशा में सोचता है, फिर वह पुरानी परंपरा को धर्म के संदेश के रूप में कैसे आत्मसात करेगा?
                 यह प्रश्न धर्माचार्यों के लिए विचारणीय है। सामाजिक क्षेत्र में हो रहे बदलावों की आहट धर्म जगत में भी सुनाई देना स्वाभाविक है। कोई भी आस्था बदलते सामाजिक बदलावों के साथ गतिशील नहीं होती है तो वह प्रगतिशील युवकों को कैसे तैयार करेगी?
                      ॥ हरिः  शरणम् ॥ 

Sunday, September 21, 2014

कर्म और परिणाम |

                      यदि कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता है तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गए। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है कि जो आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य धर्म को समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं।
                       भगवान ने मनुष्य को भला या बुरा करने की स्वतंत्रता इसलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने और सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। ईश्वर चाहता है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना का विकास करे और विकास के क्रम से आगे बढ़ता हुआ लक्ष्य प्राप्त करने की सफलता प्राप्त करे। प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर ने स्वतंत्र इच्छा शक्ति प्रदान की है।
                       मनुष्य अच्छा या बुरा करने के लिए स्वतंत्र है। ईश्वर ने यह सीख दी है कि अच्छे का फल अच्छा और बुरे का फल बुरा होता है। यह मानव पर निर्भर है कि वह अच्छे और बुरे कर्मो का निर्धारण किस तरह करता है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो कोई भी क्रिया के समतुल्य उतने ही पैमाने पर विपरीत प्रतिक्रिया होती है। स्पष्ट है कि अगर हम अच्छे कर्म करेंगे, तो आज न सही कालांतर में उसका परिणाम किसी न किसी रूप में अच्छा ही होगा।
                     यदि ईश्वर को यह प्रतीत होता कि बुद्धिमान बनाया गया मनुष्य पशुओं जितना मूर्ख ही बना रहेगा तो शायद उसने दंड के बल पर चलाने की व्यवस्था उसके लिए भी सोची होती। तब झूठ बोलते ही जीभ पर छाले पड़ने, चोरी करते ही हाथ में फोड़ा उठ पड़ने, कुविचार आते ही सिरदर्द होने जैसे दंड मिलने की व्यवस्था बनी होती। तब कोई मनुष्य दुष्कर्म करने की हिम्मत नहीं करता, लेकिन ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना, विवेक, बुद्धि और आंतरिक महानता के विकसित होने का अवसर ही नहीं आता और आत्मविकास के बिना पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकने की दिशा में प्रगति ही नहीं होती।
                                 ।। हरि: शरणम् ।।

Thursday, September 18, 2014

विवेकानंद |

                विश्व में भारतीय अध्यात्म का परचम लहराने वाले और भारत की गौरवशाली परंपरा एवं संस्कृति के सच्चे संवाहक ने चार जुलाई 1902 को बेलूरमठ में महाप्रयाण लिया था। उन्होंने अपने अनुयायियों को संकेत दे दिया था कि उनकी आयु 40 वर्ष की है। उनका यह कथन सच निकला। 39 वर्ष पांच माह और 24 दिन की उम्र में वह दुनिया से विदा हो गए।
                जानकार बताते हैं कि चार जुलाई 1902 को स्वामीजी एकदम सहज थे। अंतिम दिन उनकी दिनचर्या ऐसी गुजरी कि किसी को ऐसी घटना का अंदाजा नहीं था। स्वामीजी का जन्म 12 जनवरी 1863 में पश्चिम बंगाल स्थित कोलकाता में हुआ था। युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगंध विदेश में बिखेरने वाले विवेकानंद साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकांड विद्वान थे। उनका मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत करते थे। मां भुवनेश्वरी देवी धर्मपरायण महिला थीं। नरेंद्रनाथ आगे चलकर के विवेकानन्द नाम से प्रसिद्ध हुए।
                 श्रीरामकृष्ण आश्रम के स्वामी विश्वरूप महाराज ने बताया कि विवेकानंद युगांतकारी आध्यात्मिक संत थे। उन्होंने सनातन धर्म को गतिशील तथा व्यावहारिक बनाया। सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। भारत में स्वामीजी की जयंती राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनायी जाती है। विवेकानंद का उद्घोष था- उठो, जागो और तब तक मत रुको जबतक लक्ष्य को न प्राप्त कर लो। नरेंद्रनाथ कैसे श्रीरामकृष्ण की दिव्य शक्ति से बने यह पूरी दुनिया जानती है। जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं होने के बावजूद स्वामीजी ने पैदल कश्मीर से कन्याकुमारी तक की यात्रा की। इस दौरान उन्होंने भारत की आत्मा को पहचान लिया।
                                ।। हरि: शरणम् ।।

Wednesday, September 17, 2014

प्रतिकर्म अर्थात पुण्य |

                   अठारह पुराणों के रचनाकार महर्षि व्यास का यह कहना था कि यदि आप कुछ अच्छा कार्य करते हैं तो इस स्थिति में आपको कुछ प्रतिकर्म मिलते हैं। प्रत्येक कार्य का एक समान और विपरीत प्रतिकर्म मिलता है, बशर्ते तीन आपेक्षिक तत्व अर्थात देश, काल और पात्र अपरिवर्तित रहें। यही नियम है। यदि आप कुछ अच्छा करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वहां एक अच्छा प्रतिकर्म प्राप्त होगा।
                  जब कहीं आप किसी मनुष्य की सेवा करते हैं, और विशेषकर नि:स्वार्थ सेवा तो उसके प्रतिकर्म स्वरूप आप कुछ पाएंगे। आप चाहें या न चाहें, किंतु उसका प्रतिकर्म प्राप्त होगा और प्रतिकर्म के फल को पुण्य कहा जाता है। यदि आपने कुछ बुरा किया, किसी को क्षति पहुंचाई या कर्म के द्वारा अधोगति तक पहुंच गए तो इस प्रतिकर्म को पाप कहा जाता है। आप पुण्य कर्म में दिन-रात व्यस्त रहे। इसलिए आपको इन चौबीस घंटों को किस कार्य में व्यतीत करना है? स्पष्ट है, 'पुण्य' में और पुण्य क्या है? अब कोई कह सकता है कि दिन के समय पुण्य कर्म किया जा सकता है, लेकिन रात्रि में सोते समय पुण्य कर्म कैसे किए जा सकते हैं? इसका उत्तर है कि पुण्य कर्म करते समय आपको मानसिक, आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता होती है।
                 कोई बुरा कार्य करते समय आपको किसी नैतिक साहस या किसी आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती है, लेकिन कुछ अच्छा कार्य करने के लिए आपको नैतिक साहस और आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता पड़ सकती है। वह शक्ति आपको ध्यान और जप के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। अर्थात मानसिक जप के द्वारा। यद्यपि आप सो रहे हैं तो भी स्वचालित, श्वास-प्रश्वास के साथ आपकी यह जप क्रिया स्वचालित रूप से चलती रहेगी, जिसे 'अजपा' जप कहते हैं। वहां आपको कोई विशेष प्रयत्‍‌न अपनी ओर से नहीं करना है। जप अपने आप स्वचालित रूप से चलता रहेगा। इस प्रकार रात्रि के समय भी आप पुण्य कर सकते हैं। आप 24 घंटे पुण्य कर सकते हैं। आप हमेशा याद रखें कि आप यहां अल्प समय के लिए आए हैं। आप इस पृथ्वी पर दीर्घ समय तक नहीं रहेंगे।
                            ||हरिः शरणम् ||

Thursday, September 11, 2014

नीति |

                   लंका युद्ध लगभग समाप्त हो चूका था | महाबली रावण युद्धभूमि में मरणासन्न था | तभी भगवान श्री राम ने अपने अनुज लक्ष्मण को युद्ध भूमि में जाकर रावण से नीति, राजनीति का ज्ञान प्राप्त कर आने का आदेश दिया | उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि रावण जितना नीति,राजनीति का ज्ञाता और शक्तिशाली आज के समय में कोई नहीं है और न ही निकट भविष्य में कोई अन्य होगा | अतः तुरंत जाकर अभी उससे ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है | लक्ष्मण उनसे आज्ञा लेकर युद्धभूमि को चल पड़े | वहां जाकर वे रावण के सिर की तरफ खड़े हो गए |रावण ने उसे आँखें खोलकर देखा परन्तु लक्ष्मण के ज्ञान देने के आग्रह पर कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दी | लक्ष्मण ने वापिस लौटकर श्री राम को यह सब बताया | श्री राम ने कहा की ज्ञान प्राप्त करने के लिए सदैव ही ज्ञानी व्यक्ति के चरणों में ध्यान रखना चाहिए | यह कहकर श्री राम ने लक्ष्मण को पुनः जाकर उचित आग्रह के साथ ज्ञान प्राप्त कर आने का आदेश दिया |
                   लक्ष्मण ने इस बार जाकर रावण का चरण वंदन किया और ज्ञान देने का आग्रह किया | रावण ने नीति की तीन बातें लक्ष्मण को बताई | रावण ने कहा कि पहली नीति की बात यह है कि शुभ कार्य को यथा शीघ्र संपन्न कर लेना चाहिए तथा अशुभ कार्य को जितना टाल सको टालना चाहिए | जैसे कि मैंने भगवान श्री राम को पहचान तो कभी का ही लिया था परन्तु उनकी शरण में नहीं जा सका, जबकि मुझे बहुत पहले ही उनके शरणागत हो जाना चाहिए था |अशुभ कार्य मैंने जल्दी कर लिया जैसे सूपनखा के कहते ही मैंने सीता का अपहरण कर लिया जबकि इस अशुभ कार्य को मैं चाहता तो कुछ समय के लिए टाल सकता था | अतः नीति की पहली बात यह है कि शुभस्य शीघ्रम् |
                    रावण ने फिर नीति की दूसरी बात बताई कि जीवन में कभी भी किसी को अपने से हल्का और कमजोर मत आंको | मुझे ब्रह्माजी ने वरदान दिया था कि तुम वानर और मानव के अलावा किसी अन्य के द्वारा नहीं मारे जाओगे | मैं जिंदगी भर यही समझता रहा कि मैं तो इन दोनों से बहुत बलवान हूँ | इन दो के द्वारा तो मैं मारा नहीं जा सकता और ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार इन दो के अतिरिक्त मुझे कोई अन्य मार नहीं सकेगा | इसी भ्रम में मैंने इन दोनों की सदैव ही उपेक्षा की, जिसका परिणाम आज तुम्हारे सामने है | अतः जिंदगी में कभी भी किसी को कमजोर समझने की भूल न करना |
                एक गहरी साँस छोड़ते हुए रावण ने तीसरी ज्ञान की बात कही कि छिपाने योग्य बात सदैव ही सबसे छिपानी चाहिए ,किसी को भी कह देने से आपका ही नुकसान होगा | मैंने अपने मरने का राज केवल विभीषण को बताया था | आज वही विभीषण उस राज को जानने के कारण ही मेरी मृत्यु का कारण बना है अन्यथा मुझे कभी भी और कोई मार नहीं सकता था | रावण ने इतना कहकर आँखें मूँद ली और गहरी सांसे लेने लगा | लक्ष्मण ने उसकी मृत्यु निकट जानकर उनको अंतिम प्रणाम किया और भगवान श्री राम की और लौट पड़ा |

                         || हरिः शरणम् ||    

Wednesday, September 10, 2014

आस्था के आयाम |

                जीवन के बारे में गहराई से सोचने के लिए मनुष्य में आस्था-भाव अवश्य होना चाहिए। मानव जीवन हमेशा सामान्य रूप से नहीं चल सकता। कठिनाइयों के समय धैर्य व साहस के साथ जीवन निर्वाह के बारे में सोचना पड़ता है। भौतिक रूप से खाली होने पर मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। संघर्ष के ऐसे वक्त में उसे ईश्वर का ध्यान तो आता है, पर वह अपने कल्याण के लिए उसमें पूरी आस्था नहीं रख पाता। उसका ईश्वरीय संस्मरण मात्र डर व शंका के कारण ही होता है, जबकि उस सर्वशक्तिमान के सान्निध्य-प्रसाद को उस पर गहन आस्था रखने से ही प्राप्त किया जा सकता है।
              आस्था का भाव-विचार संशयग्रस्त नहीं होना चाहिए। आस्था के लिए सोचने-विचारने का कार्यक्रम आस्थावान रहकर ही संपन्न हो सकता है। धर्म-कर्म व ईश-मर्म में रुचि भी तब ही बनी रह सकती है। ईश्वरीय उपासना के दौरान गूढ़, रहस्यात्मक विचार हमें निराकार शक्ति की ऊर्जा के निकट ले जाते हैं। इस ऊर्जा प्रवाह से हममें सच्ची धार्मिक स्थिरता आती है। ईश्वर से साक्षात्कार इसी प्रकार होता है। भगवान में आस्था की बात को इसी उच्चकोटि के धर्मानुभव के आधार पर समझी जा सकती है। आस्था कोई पौराणिक व पारंपरिक विधान या नियम नहीं है, जिसका अनुसरण करके ही व्यक्ति आस्था में विश्वास करे। आस्था एक विशुद्ध व्यक्तिगत मान्यता है। धर्म को सम्मान देते हुए ध्यान का विस्तार करना और धर्म-भक्ति के सुर, संगीत और संप्रवाह के माध्यम से उसमें गहरे उतरना आस्था से ही संभव है। आस्था कठिन जीवन परिस्थितियों में एक विश्वास-पुंज के समान होती है। आस्थावान होकर हम जीवन को व्यर्थ व विकार के रूप में देखना बंद कर देते हैं। इसके उपरांत हममें भगवत चेतना का अंकुर फूट पड़ता है। आस्था एक प्रकार का मानसिक व्यायाम है। इसमें ज्ञानेंद्रियां एक सकारात्मक विचार-बिंदु पर स्थिर हो जाती हैं और तत्पश्चात हमारे द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य व कामना में एक शुभभाव आ जाता है। व्यक्ति में ऐसा परिवर्तन उसे नई दिशा प्रदान करता है। आस्था के बलबूते जिंदगी फलती-फूलती है। सच्ची आस्था से ईश्वर का साक्षात्कार या उनकी अनुभूति किसी न किसी रूप में अवश्य होती है।
                   || हरिः शरणम् ||

Tuesday, September 9, 2014

वास्तविक आनंद |

                 एक संत के विषय में यह प्रसिद्ध था कि जो उनके पास जाता है, आनंदित होकर लौटता है। वह सहजता के साथ आनंदित, सुखी और संतुलित जीवन के सूत्र बता देते। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। एक धनी व्यक्ति एकाएक सुखी और आनंदित होने की चाह लेकर उनके पास गया और उतावला होकर आनंदित रहने की विधि पूछने लगा। संत उसकी बात अनसुनी करते हुए एक पेड़ के नीचे बैठे चिड़ियों को दाना चुगाते रहे। चिड़ियों की प्रसन्नता के साथ संत अपने को जोड़कर आनंदविभोर हो रहे थे। संत की इसी स्थिति को देखकर धनी व्यक्ति अपना धैर्य कायम नहीं रख पा रहा था और उसने अधिक उतावलेपन से संत से सुखी बनने का सूत्र बताने का आग्रह किया। संत अपने काम में आनंदित हो रहे थे। अमीर आदमी उतावला हो रहा था, उसने पुन: संत से आनंदित रहने का रहस्य पूछा। अधिक आग्रह करने पर संत ने अलमस्ती से कहा, ''दुनिया में प्रसन्न होने का एक ही तरीका है-दूसरे को देना। देने में जो आनंद है, जो सुख है वह और किसी चीज में नहीं है। तुम चाहो तो अपनी अमीरी जरूरतमंदों को लुटाकर स्वयं आनंदित रहने वालों में अग्रणी हो सकते हो।'' इसलिए सेवा के नाम पर भूखों को भोजन कराएं, यही बड़ा धार्मिक कार्य हो सकता है, लेकिन इस पुनीत कार्य का भी अब प्रदर्शन हो रहा है।
               लोग धर्म के नाम पर कई प्रकार के कर्म-कांडों और संस्कारों का पालन करते हैं। हममें से तमाम लोग प्राय: दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने धार्मिक कार्यो का प्रदर्शन करते हैं, जबकि सच यह है कि मानव की सेवा ही पुण्य का काम है, किसी की आंख के आंसू पोंछना वास्तविक धर्म है और सच्ची संवेदनशीलता है। सभी धर्म हमें यही शिक्षा देते हैं। पुण्य तभी प्राप्त होंगे, जब हम हृदय से पवित्र होंगे, जरूरतमंदों की सहायता करेंगे। कुछ लोग गरीबों को भोजन कराते हैं, लेकिन कितने लोग हैं, जो इनकी गरीबी दूर करने के लिए आगे आते हैं। अगर हम संतों-महात्माओं के जीवन का अध्ययन करें, तो पाएंगे कि उन सबने गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा की। उन्होंने हमें इसी बात की शिक्षा प्रदान की। लेकिन हमने उन महात्माओं के नाम पर संप्रदाय बना लिए और सेवा धर्म भूल गए। हम जीवन में पुण्य प्राप्त करने के लिए न जाने कहां-कहां भटकते हैं।
                   || हरिः शरणम् || 

Sunday, September 7, 2014

स्वावलंबन |

                  वैसे तो जीवन जीने की अनेक विधियां हैं, लेकिन उन्हीं के लिए इन विधियों का महत्व है, जो सचमुच जीवन को सफलतापूर्वक जीना चाहते हैं। जिन लोगों को जीवन से कोई मोह नहीं होता, उनके लिए किसी विधि की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनके जीवन में कोई उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्यपूर्ण जीवन के लिए कुछ और भी महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिनका पालन हमें करना चाहिए। स्वावलंबन का अर्थ है, स्वयं पर विश्वास करके जीना। कई लोग अपना जीवन स्वयं नहीं जीते, उनका जीवन कोई दूसरा जीता है। वे पराश्रित हो जाते हैं। सड़क किनारे पेड़ों पर पीली-सी लता फैली रहती है, जिसकी अपनी जड़ नहीं होती, यह लता पेड़ से रस लेकर अपना पोषण करती है।
                कुछ मनुष्य भी पराश्रित होते हैं, वे स्वयं कुछ नहीं कर पाते। दूसरे के द्वारा अर्जित धन का गलत ढंग से उपभोग करते हैं। इसीलिए वे धन का उपयोग नहीं जानते, क्योंकि वे दूसरों की कमाई खाते हैं। अगर छोटे बच्चे बचपन से स्वावलंबी बनें, अपना काम स्वयं करें, तो वे आत्मनिर्भर बन जाएंगे। जो माता-पिता अपने बच्चों को छोटे-छोटे काम भी नहीं करने देते, वे अपने बच्चों के साथ न्याय नहीं करते। आखिर कब तक कोई माता-पिता अपने बच्चों को पराश्रित रहने देंगे। इसलिए प्रत्येक विवेकशील माता-पिता अपने बच्चों को स्वयं के पांव पर खड़ा होने का प्रशिक्षण देते हैं ताकि भविष्य में अगर उन्हें अपने जीवन में कोई संघर्ष करना पड़े, तो वे बहादुरी से उसका मुकाबला कर सकें। स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता, अपना काम स्वयं करना, ये बहुत ही उत्तम बातें हैं। अपने घरों में भी अपने सामान की देखभाल अपना प्रत्येक काम स्वयं करने का प्रयास करना चाहिए। कहा जाता है- 'जो व्यक्ति स्वयं अपना काम कर सकता है, वही दूसरों की सहायता कर सकता है।' स्वावलंबी व्यक्ति को ही सुख, शांति और धन-वैभव प्राप्त होता है। इसलिए माता-पिता का दायित्व है कि वे बच्चों को उनका काम स्वयं करने दें। अपने सामान की देखभाल अपने अन्य दूसरे काम, अपनी पढ़ाई, होमवर्क, अपनी स्कूल ड्रेस, जूते, पेन-पेंसिल और किताबें आदि वे स्वयं सहेज कर रखें, तभी वे स्वावलंबी बन सकेंगे। आजकल प्यार और दुलार के कारण अनेक माता-पिता अपने बच्चों का सारा काम स्वयं करने लगे हैं। यह तौर-तरीका आगे चलकर बच्चों को बहुत नुकसान करता है।
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, September 6, 2014

आशावाद

               संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य आशा और निराशा को अपने जीवन में धूप-छांव की तरह अठखेलियां करते हुए पाता है। जीवन की इस परिवर्तनशीलता को देखकर व्यक्ति अपनी कमजोर मानसिकता के कारण दुखी व संघर्षों से घबराकर निराश हो जाता है। जब व्यक्ति लगातार असफल होता है, तो उसे अपने चारों ओर ऐसा अंधकार दिखाई देता है, जिसमें वह आशा का दीप बुझा हुआ पाता है।
             दुख और अवसाद उसके मन-मस्तिष्क पर कब्जा कर लेते हैं। कुंठा और हीनभावना से ग्रसित व्यक्ति अपना मनोबल भी गंवा बैठता है। उसके सकारात्मक गुण लुप्त हो जाते हैं। अनासक्ति व अकर्मण्यता की स्थिति में पहुंचकर वह अपने जीवन को ही समाप्त करने की बात सोचने लगता है। यह सब निराशा, अति उत्साह और स्वप्न के टूटने का परिणाम है। अपेक्षाओं के पूर्ण न होने से उत्पन्न दुख से भी निराशा का जन्म होता है। विवेकपूर्ण मनुष्य तो असफलता को चुनौती मानकर पुन: प्रयत्‍‌न करते हैं, परंतु विवेकहीन मनुष्य निराशा से भर उठते हैं। निराशा एक सहज मानवीय सार्वभौमिक अभिव्यक्ति है।
          डॉक्टर मानते हैं कि निराशा और अवसाद कुछ रासायनिक पदार्थो के स्त्रावित होने के परिणाम हैं। इसे एक तरह से बीमारी माना जाता है। इससे बाहर निकलने के लिए मनोचिकित्सकों और दवाओं की सहायता ली जाती है। आध्यात्मिक विधियों जैसे ध्यान (मेडिटेशन) के जरिये भी निराशा को दूर किया जाता है।
         निराशा को घातक बनाने का कार्य मानव मन ही करता है। इसीलिए मन पर अंकुश रखना चाहिए और आशा की सतत ऊर्जा से निराशा को दूर करना चाहिए। असफलता इस बात का संकेत है कि सार्थक प्रयत्‍‌न नहीं किया गया। इसलिए असफलताओं से घबराने की आवश्यकता नहीं है। बस अपने प्रयासों की गति बढ़ा देनी चाहिए। जिस प्रकार रात्रि का अंत सूर्योदय के साथ होता है, उसी प्रकार निराशा का अंत आशा और उम्मीद के साथ होता है। 'गीता' में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो व्यक्ति सुख व दुख में, लाभ व हानि में और जय व पराजय की स्थितियों में विचलित नहीं होता, ऐसे शख्स को कोई भी विचलित नहीं कर सकता। निराशा से सामना करने का यही मूल-मंत्र है। इस पर सभी को अमल करना चाहिए।
                                               || हरिः शरणम् ||

Thursday, September 4, 2014

धर्म का स्वरुप |

                 आज मनुष्य अनेक प्रकार की समस्याओं से घिरा है। कभी वह बीमारी की समस्या से जूझता है तो कभी उसे वृद्धावस्था सताती है, कभी वह मौत से घबराता है तो कभी व्यवसाय की असफलता का भय उसे बेचैन करता है। कभी अपयश का भय उसे तनावग्रस्त कर देता है ..और भी न जाने कितने प्रकार हैं भय के। मनुष्य इन सब समस्याओं से निजात चाहता है। हर इंसान की कामना रहती है कि उसके समग्र परिवेश को ऐसा सुरक्षा कवच मिले, जिससे वह निश्चित होकर जी सके, समस्यामुक्त होकर जी सके। जीवन एक संघर्ष है। इसे जीतने के लिए धर्मरूपी शस्त्र जरूरी है।
               महाभारत में लिखा है-'धर्मो रक्षति रक्षित:।' मनुष्य धर्म की रक्षा करे तो धर्म भी उसकी रक्षा करता है। यह विनियम का सिद्धांत है। संसार में ऐसा व्यवहार चलता है। भौतिक सुख की चाह में लोग धर्म की ओर प्रवृत्त होते हैं। कुछ देने की मनौतियां- वायदे होते हैं, स्वार्थो का सौदा चलता है। पाप को छिपाने के लिए पुण्य का प्रदर्शन किया जाता है। यदि ऐसा होता है, तो धर्म से जुड़ी हर परंपरा, प्रयत्न और परिणाम गलत हैं, जो हमें साध्य तक नहीं पहुंचने देते। आचार्य तुलसी ने इसीलिए ऐसे धर्म को आडंबर माना। 'धर्मो रक्षति रक्षित:'-यह एक बोधवाक्य है, जीवन का वास्तविक दर्शन है। मनुष्य की धार्मिक वृत्ति उसकी सुरक्षा करती है, यह व्याख्या सार्थक है। ऐसा इसलिए क्योंकि वास्तव में धर्म का न कोई नाम होता है और न कोई रूप। व्यक्ति के आचरण, व्यवहार या वृत्ति के आधार पर ही उसे धार्मिक या अधार्मिक होने का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आता, उसे बुढ़ापा, बीमारी या आपदा का सामना नहीं करना पड़ता, ऐसी बात नहीं है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में भी बुढ़ापा का समय आता है, लेकिन उसे यह सताता नहीं है। बीमारी आती है, पर उसे व्यथित नहीं कर पाती। आपदा आती है, पर उससे उसका धैर्य विचलित नहीं होता। इस कथन का सारांश यह है कि धार्मिक व्यक्ति दुख को सुख में बदलना जानता है। इस बात को यों भी कहा जा सकता है कि धार्मिक वही होता है, जो दुख को सुख में बदलने की कला से परिचित रहता है। यही है धर्म की वास्तविक उपयोगिता।
                    || हरिः शरणम् ||

Tuesday, September 2, 2014

इच्छाएं (Desires)

              मनुष्य जीवनभर इच्छाओं-कामनाओं के पीछे भागता रहता है। जीवन में कुछ इच्छाओं की पूर्ति तो हो जाती है, पर ज्यादातर इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती। मनुष्य की जब इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है, तो वह फूला नहीं समाता और अहंकारयुक्त हो जाता है। उस कार्य की पूर्ति का सारा श्रेय स्वयं को देता है। वहीं जब इच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती तब वह ईश्वर को दोष देने लगता है और अपने भाग्य को दोष देने लगता है। मनुष्य की इच्छाएं अनंत होती हैं। वे धारावाहिक रूप से एक के बाद एक कर आती चली जाती हैं। जीवनपर्यन्त यही क्रम चलता रहता है। वर्तमान के इस भौतिक युग में लोग इच्छाओं से भी बड़ी महत्वाकांक्षाओं को मन में पालने लगे हैं। ऐसी-ऐसी महत्वाकांक्षाएं करते हैं, जिनके बारे में स्वयं जानते हैं कि वे शायद ही कभी पूरी हो सकें।
             इस क्षणभंगुर संसार में सांसारिक सुख की प्राप्ति करने के लिए मनुष्य सदा प्रयत्‍‌नशील रहता है। इसके लिए वह सदैव कामना करता रहता है। वह नहीं जानता कि सुखस्वरूप तो वह स्वयं ही है। गुणों के अधीन यह सांसारिक सुख तो क्षणभंगुर हैं। यह समाप्त होने वाला है, तब फिर इन संसारी सुख की इच्छाओं के पीछे क्यों भागते रहा जाए? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि रजोगुण से उत्पन्न यह कामना बहुत खाने वाली है अथवा हमें परेशान करने वाली है। ऐसी मनोकामना की पूर्ति कभी नहीं होती। इसका पेट कभी नहीं भरता। भगवान कहते हैं कि मन में उठने वाली कामना यदि पूरी हो जाती है तो राग उत्पन्न हो जाता है और इसकी पूर्ति न होने पर मन में क्रोध जन्म ले लेता है। कहने का मतलब यही है कि दोनों ही स्थितियों में मनुष्य की हानि है अथवा उसे नुकसान उठाना पड़ता है। हमें यह समझना होगा कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में उसकी संपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो पाती, जबकि इन इच्छाओं की पूर्ति करने में मनुष्य अपना सारा श्रम लगा देता है। मनुष्य को चाहिए कि इन इच्छाओं का दामन छोड़कर अपने नियमित कर्मों को आसक्ति से रहित होकर करते हुए सारे जगत के रचयिता परमात्मा को अपना सर्वस्व न्योछावर करे और इस जगत में निर्लिप्त होकर रहे। इससे वह शाश्वत सुख व शांति प्राप्त कर सकेगा और फिर वह इच्छाओं के जाल में नहीं फंसेगा।
                          ॥ हरिः  शरणम् ॥ 

Monday, September 1, 2014

मनोबल

              एक राजा के पास एक बड़ा ही पराक्रमी हाथी था। युद्धों में उस पर ही बैठकर राजा ने तमाम राज्यों पर विजय पाई थी। उसे इस तरह प्रशिक्षण दिया गया था कि युद्ध में शत्रु पक्ष के सैनिकों को देखते ही वह उन पर टूट पड़ता और शत्रु अवाक रह जाते और पीछे हट जाते। ऐसा भी समय आया, जब हाथी बूढ़ा हो गया। राजा ने युद्ध के लिए नए युवा हाथियों को प्रशिक्षण देकर तैयार कर लिया। वह उपेक्षित होकर रह गया। अब उस पर पहले की तरह ध्यान नहीं दिया जा रहा था। उसकी भूख भी कम हो गई थी और उसके पौष्टिक भोजन में भी कमी कर दी गई। वह अशक्त और दुर्बल दिखने लगा था।
            एक बार हाथी पानी पीने तालाब में गया। वहां की दलदल में उसका पैर धंस गया। उसने निकलने की कोशिश की, तो उसके शरीर ने साथ नहीं दिया। वह गर्दन तक कीचड़ में समा गया। इतने बड़े हाथी को आखिर निकाला कैसे जाए? हाथी के बच जाने की संभावना किसी को नहीं थी। राजा को जब घटना की बात पता चली, तो वे दुखी हो गए।
           उन्होंने एक चतुर सेनापति से सलाह मांगी, तो उसने कहा कि महाराज, इस हाथी को निकालने का एक ही तरीका है कि इसके पास युद्ध का माहौल तैयार किया जाए।
           युद्ध के वाद्य मंगवाए गए, नगाड़े बजवाये गए और ऐसा माहौल बनाया गया कि शत्रुओं के सैनिक राज्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह देखकर हाथी में अचानक फुर्ती और साहस आ गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई और सैनिकों की ओर दौड़ने की कोशिश करने लगा। इसी प्रयास में वह बाहर आ गया।
       कथा मर्म: उच्च मनोबल से किसी भी तरह की अशक्तता पर विजय पाई जा सकती है..
                    ॥ हरिः शरणम् ॥