आज कई दिनों बाद मन ,आत्मा और शरीर के बारे में लिखने की ईच्छा हुई|मेरे अभिन्न मित्र ने अपने विचार मुझे लिख कर भेजे है जो उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तक के अध्ययन के बाद महसूस किये है|मैं उनके इस सन्देश से बहुत प्रभावित हूँ,और इसको अल्प भाषा परिवर्तन के साथ ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ| विचार चाहे जिस किसी के भी हो,पठन पाठन से पीढ़ी दर पीढ़ी संचारित होते रहते है| महापुरुषों की पुस्तकें पढने से मनुष्य विवेकशील होता है और उसके संस्कारों एवं चरित्र में बदलाव आता है,और एक नयी सोच का उदय होता है जो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है|
प्रस्तुत है मेरे डाक्टर व मित्र का यह सन्देश----
" प्रत्येक व्यक्ति तीन तत्वों से बना है|ये तीन है---देह,आत्मा और मन|इनमे शरीर आत्मा का बाहरी आवरण है और मन भीतरी |यह आत्मा ही दृष्टा और भोक्ता हैं|यह चेतन है,हमारा हर कार्य ,जो हम करते है,हर विचार जो हम सोचते है,मन पर एक छाप छोड़ जाता हैं|जिसे हम संस्कृत में संस्कार कहते हैं|ये सभी संस्कार मिल कर एक ऐसी शक्ति का रूप लेते हैं,जिसे चरित्र कहते हैं|यह मानसिक और दैहिक क्रियाओं का परिणाम है ,जिन्हें उसने अपने दैहिक जीवन में किया है|संस्कारों कि शक्ति ही निश्चित करती है कि मृत्यु के बाद मनुष्य किस दिशा की और जायेगा|
मरणोपरांत शरीर तो पांच तत्वों में विलीन हो जाता है,किन्तु संस्कार मन में रहते है|हमारे वर्तमान जीवन को पूर्व जन्म के कर्मो ने निश्चित किया है|यह चक्र लगातार चलता रहता है और इसी प्रकार मनुष्य अपने ही किये अछे बुरे कर्मों से बंधता चला जाता है|
आत्मा ना तो कहीं आती है ना कहीं जाती है,ना कभी जन्म लेती है और ना ही कभी मारती है|जब तक आत्मा बंधन में रहती है तब तक उसे जीव कहते है,तथा संस्कारों के कारण एक से दूसरा रूप बदलती है| यह केवल मनुष्य के रूप को पाकर ही मुक्ति की और अग्रसर हो सकती है|"
प्रस्तुत है मेरे डाक्टर व मित्र का यह सन्देश----
" प्रत्येक व्यक्ति तीन तत्वों से बना है|ये तीन है---देह,आत्मा और मन|इनमे शरीर आत्मा का बाहरी आवरण है और मन भीतरी |यह आत्मा ही दृष्टा और भोक्ता हैं|यह चेतन है,हमारा हर कार्य ,जो हम करते है,हर विचार जो हम सोचते है,मन पर एक छाप छोड़ जाता हैं|जिसे हम संस्कृत में संस्कार कहते हैं|ये सभी संस्कार मिल कर एक ऐसी शक्ति का रूप लेते हैं,जिसे चरित्र कहते हैं|यह मानसिक और दैहिक क्रियाओं का परिणाम है ,जिन्हें उसने अपने दैहिक जीवन में किया है|संस्कारों कि शक्ति ही निश्चित करती है कि मृत्यु के बाद मनुष्य किस दिशा की और जायेगा|
मरणोपरांत शरीर तो पांच तत्वों में विलीन हो जाता है,किन्तु संस्कार मन में रहते है|हमारे वर्तमान जीवन को पूर्व जन्म के कर्मो ने निश्चित किया है|यह चक्र लगातार चलता रहता है और इसी प्रकार मनुष्य अपने ही किये अछे बुरे कर्मों से बंधता चला जाता है|
आत्मा ना तो कहीं आती है ना कहीं जाती है,ना कभी जन्म लेती है और ना ही कभी मारती है|जब तक आत्मा बंधन में रहती है तब तक उसे जीव कहते है,तथा संस्कारों के कारण एक से दूसरा रूप बदलती है| यह केवल मनुष्य के रूप को पाकर ही मुक्ति की और अग्रसर हो सकती है|"
No comments:
Post a Comment