कल दिन भर टेलीविजन पर दिखाई जा रही उत्तराखंड विभिषिका की तस्वीरों ने कुछ ज्यादा ही विचलित कर दिया था|जिसका असर दिनभर के कार्यों पर तो होना ही था,परन्तु रात को नींद का ना आना ,इस विभीषिका का दिलोदिमाग पर अमिटनिशान छोड़ने का संकेत माना जा सकता है|अभी गत माह ही मैं केदारनाथ के कपाट खुलने के अवसर पर मौजूद था|क्या माहौल था पूर्व संध्या के दिन,अवर्णनीय |दिनांक १३/५/२०१३ को मैंने पूरे परिसर का अवलोकन किया था|सभी तीर्थयात्रियों में गजब का उत्साह था|व्यापारी लोग भी अपनी दूकाने सजा रहे थे,पूजा सामग्री और प्रसाद के पैकेट बनाये जा रहे थे|क्यों ना हो यह उत्साह,आखिर साल के ६ माह ही उनका व्यापार चलता है|उसमे भी शुरुआत के २ माह में तो अच्छा व्यापार होता है|
आज इसी विभीषिका के बाद ऐसा लगता है जैसे कोई स्वप्न पूरा होने से पहले ही टूट गया हो|मेरी यह केदारनाथ कि तीसरी यात्रा थी|मैंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि कभी ऐसा भी हो सकता है|जहाँआस्था का प्रवाह निरंतर गतिमान हो वहाँ ऐसी दुर्घटना होना कल्पना से परे कि बात है|
ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ?यह अनुतरित है|आज सुबह मेरे एक अभिन्न मित्र से बात हो रही थी|मेरे मित्र ने मेरा देवभूमि से अत्यंत लगाव को महसूस किया है|इस कारण से मेरा व्यथित होना उनके लिए चिंता का विषय था|परन्तु वो मेरे को अभी तक उस अवस्था से बाहर नहीं निकल पाए है|
गंभीरता से देखने पर मैंने महसूस किया कि यह भौतिक संसार है|और यहाँ पर प्रत्येक कार्य प्रकृति के नियमों के अंतर्गत ही होता है, अलग से नहीं|इस धरा पर ईश्वर ने भी मानव के रूप में अवतार लिए है|उन्होंने भी यहाँ पर सब कुछ इसी प्रकृति के नियमों से कार्य किये है,अपने अनुसार नहीं|फिर उसी के एक मंदिर क्षेत्र में हुई इस कारूणिक विभीषिका पर इतना व्यथित होना भी उचित नहीं है|व्यथित होने का अर्थ ईश्वर पर से विश्वास का उठ जाना है|अतः यही उचित होगा कि ऐसी घटना को एक नियति का क्रूर मजाक मानते हुए सुखद भविष्य की और अग्रसर हुआ जाये|प्रकृति के इस ताण्डव से यही सीख ली जाये कि इसके साथ एक सीमा से ज्यादा छेडछाड ना की जाये,अन्यथा ईश्वर हमें कभी माफ़ नहीं करेंगे और पर्कृति अपना ताण्डव दुहराती रहेगी|
मैं अपने उस अभिन्न मित्र का अत्यंत आभारी हूँ जो ऐसे विपरीत समय में आत्मिक तौर पर मेरे साथ रहते हुए बाहर आने में मदद करते हैं|
आज इसी विभीषिका के बाद ऐसा लगता है जैसे कोई स्वप्न पूरा होने से पहले ही टूट गया हो|मेरी यह केदारनाथ कि तीसरी यात्रा थी|मैंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि कभी ऐसा भी हो सकता है|जहाँआस्था का प्रवाह निरंतर गतिमान हो वहाँ ऐसी दुर्घटना होना कल्पना से परे कि बात है|
ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ?यह अनुतरित है|आज सुबह मेरे एक अभिन्न मित्र से बात हो रही थी|मेरे मित्र ने मेरा देवभूमि से अत्यंत लगाव को महसूस किया है|इस कारण से मेरा व्यथित होना उनके लिए चिंता का विषय था|परन्तु वो मेरे को अभी तक उस अवस्था से बाहर नहीं निकल पाए है|
गंभीरता से देखने पर मैंने महसूस किया कि यह भौतिक संसार है|और यहाँ पर प्रत्येक कार्य प्रकृति के नियमों के अंतर्गत ही होता है, अलग से नहीं|इस धरा पर ईश्वर ने भी मानव के रूप में अवतार लिए है|उन्होंने भी यहाँ पर सब कुछ इसी प्रकृति के नियमों से कार्य किये है,अपने अनुसार नहीं|फिर उसी के एक मंदिर क्षेत्र में हुई इस कारूणिक विभीषिका पर इतना व्यथित होना भी उचित नहीं है|व्यथित होने का अर्थ ईश्वर पर से विश्वास का उठ जाना है|अतः यही उचित होगा कि ऐसी घटना को एक नियति का क्रूर मजाक मानते हुए सुखद भविष्य की और अग्रसर हुआ जाये|प्रकृति के इस ताण्डव से यही सीख ली जाये कि इसके साथ एक सीमा से ज्यादा छेडछाड ना की जाये,अन्यथा ईश्वर हमें कभी माफ़ नहीं करेंगे और पर्कृति अपना ताण्डव दुहराती रहेगी|
मैं अपने उस अभिन्न मित्र का अत्यंत आभारी हूँ जो ऐसे विपरीत समय में आत्मिक तौर पर मेरे साथ रहते हुए बाहर आने में मदद करते हैं|
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