आज मैं एक ऐसे विषय को छूने जा रहा हूँ,जो काफी संवेदनशील है और विवादित भी|संसार में एक मात्र सनातन धर्म ही ऐसा धर्म है,(जहा तक मेरा ज्ञानं है)जहां पुनर्जन्म की केवल अवधारणहीनहीं,उसकी मान्यता भी है|जहाँपुनर्जन्म को मान्यता नहीं है वहां कभी भी आध्यात्मिकता ने जन्म नहीं लिया,वहां केवल भोगवादी संस्कृति ही फली फूली है|पश्चिमी देश इसके बेहतरीन उदहारण है|वहां यही मान्यता है कि जो भी करना है अभी करलो,बाद में कुछ भी नहीं है|तभी वहां पर हर कोई जल्दी में है|परिवार जैसी संस्था लगभग खत्म हो चुकी है|व्यक्ति केवल एक मशीन बन कर रह गया है|इसके विपरीत भारतवर्ष में अभी भी परिवार व्यवस्था देखी जा सकती है|कोई जल्दी नहीं है,लोग कई जन्मो तक अपनी उम्मीदों के पूरी होने का इंतज़ार करने को भी तैयार है|हालाँकि पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति ने यहाँ भी पांव फ़ैलाने शुरू कर दिए हैं|भोगवादी संस्कृति यहाँ पर भी हावी होती जा रही है|यहाँ पर भी स्वार्थ वश परिवार संस्था मरान्नासन अवस्था में जा रही है|परन्तु फिर भी पुनर्जन्म की अवधारणा को मान्यता अभी भी है|
पुनर्जन्म आखिर है क्या?जिसने भारतवर्ष को इतना प्रभावित किया है|यहाँ के लगभग सभी साहित्य में इसकी चर्चा आपको देखने को मिल जायेगी|यहाँ मैं कबीर के एक दोहे की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा----
मन मरा ना ममता मरी,मर मर गया शरीर|
आशा तृष्णा ना मरी,कह गए दास कबीर||
कबीर इस दोहे में यही कहना चाहते है की आदमी के मन में जो भी है और आगे जो भी पाने की ईच्छा है वो कभी मारती नहीं है|केवल शरीर मर जाता है और इस मन में बसी ममता, आशा और तृष्णा उसको पुनर्जन्म अर्थात नये शरीर में जन्म लेने को बाध्य कर देती है|
क्रमश :
पुनर्जन्म आखिर है क्या?जिसने भारतवर्ष को इतना प्रभावित किया है|यहाँ के लगभग सभी साहित्य में इसकी चर्चा आपको देखने को मिल जायेगी|यहाँ मैं कबीर के एक दोहे की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा----
मन मरा ना ममता मरी,मर मर गया शरीर|
आशा तृष्णा ना मरी,कह गए दास कबीर||
कबीर इस दोहे में यही कहना चाहते है की आदमी के मन में जो भी है और आगे जो भी पाने की ईच्छा है वो कभी मारती नहीं है|केवल शरीर मर जाता है और इस मन में बसी ममता, आशा और तृष्णा उसको पुनर्जन्म अर्थात नये शरीर में जन्म लेने को बाध्य कर देती है|
क्रमश :
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