‘यत् दृष्टं तत् नष्टं’
आदि कैलाश ॐ पर्वत की सप्त दिवसीय यात्रा में जो कुछ भी हमने देखा, क्या वह सदा के लिए रहने वाला है ? हमें इतने जीव इस संसार में दिख रहे हैं क्या वे भी सदा के लिए रहने वाले हैं ? हमारा यह शरीर, जिसको हम इतना सजाते-संवारते है, क्या यह कभी मरेगा नहीं ? तनिष्क ज्वेलर्स अपने विज्ञापन में कहते हैं - “हीरा है, सदा के लिए” पर क्या हीरा (Diamond) सदा के लिए है ?
जब यहां जो भी दिखलाई पड़ रहा है, वह सब जाने वाला है तो फिर यहाँ रहने वाला कौन है ? जो जाने वाला है, वह सब असत् है और जो सदैव रहने वाला है उसे सत् कहा जाता है । असत् दिखलाई पड़ रहा है और सत् अदृश्य है । ॐ सत् है लेकिन ‘ॐ पर्वत’ सत् नहीं है, कैलाशपति सत् है पर ‘आदि कैलाश पर्वत’ नहीं, हम सत् हैं परंतु हमारा यह शरीर नहीं ।
जो भौतिक दृष्टि की पकड़ में आता है, वह सब नाशवान है । प्रत्येक पर्वत (आदि कैलाश हो चाहे ॐ पर्वत ) नाशवान है । संसार की प्रत्येक वस्तु प्रतिदिन नाश की ओर अग्रसर है । जो प्रतिपल नष्ट होता जा रहा हो और साथ ही स्पष्ट रूप से दिखलाई भी पड़ रहा हो, उसके शाश्वत होने का भ्रम हो जाना स्वाभाविक है । नाशवान की इस दिखलाई पड़ने वाली इस सत्ता का क्या कारण है अर्थात् असत् की दिखलाई पड़ने वाली इस सत्ता के पीछे किसकी भूमिका है ? जब तक हम दिखाई देने वाली प्रत्येक वस्तु की सत्ता के पीछे छिपे वास्तविक सत्तावान को नहीं देखेंगे तब तक हम सुषुप्त अवस्था में ही रहेंगे । वास्तव में असत् की दिखलाई पड़ने वाली वह सत्ता उसी अविनाशी के कारण है ।
हम जाग्रत तो हैं परंतु केवल भौतिक रूप से, तभी तो विनाशशील के पीछे छिपे अविनाशी को नहीं देख पा रहे हैं । जिस दिन धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे विनाशशील में भी अविनाशी को देखने लगेंगे, उसके बाद चहूँ ओर उस एक के ही दर्शन होंगे, जो कभी भी नष्ट नहीं होता ।
‘यत् दृष्टं तत् नष्टं’ अर्थात् जो दिखलाई पड़ रहा है, वह सब नष्ट होने वाला है ।
यह या वह
एक राज्य का इकलौता राजकुमार रोगग्रस्त होकर मृत्यु शैया पर पहुँच गया । राजा-रानी ने बहुत चिकित्सा करवाई, आस-पास के राज्यों से नामी-गिरामी चिकित्सकों तक को बुलवा लिया, उन्हें बहुत क़ीमती पुरस्कारों का लालच भी दिया परन्तु राजकुमार की बीमारी कम होने के स्थान पर बढ़ती ही चली गई । एक दिन राजवैद्य ने क्षमा माँगते हुए कह दिया कि आज की रात राजकुमार के जीवन की अंतिम रात है । शोकग्रस्त राजा-रानी ने राजकुमार की इस अंतिम रात को उसकी शैया के पास ही बैठकर बिताने का निश्चय किया ।
इंतज़ार की घड़ियाँ बड़ी लम्बी होती है । भौतिक शरीर की भी जागते रहने की अपनी क्षमता होती है । दिन भर के थके राजा की आंख लग गई । राजा स्वप्नावस्था में चले गए । सपना भी मनुष्य को वही आता है, जिसका दिन भर चिन्तन चलता रहता हो । सपने में भी राजा, राजा ही बना हुआ है और उस राजा के चार सुन्दर राजकुमार है । सपने वाला राजा अपने राजमहल में रानी के साथ आमोद-प्रमोद में व्यस्त हैं । पास ही चारों राजकुमार खेल रहे हैं । राजकुमारों की आपस में हो रही नोंक-झोंक को देखकर दोनों मुदित हो रहे हैं । अचानक एक राजकुमार किसी बात को लेकर बड़ी ज़ोर से रोने लगता है । रोने की तेज आवाज़ सुनकर स्वप्न देख रहा राजा चौंककर नीन्द से जाग जाता है ।
सामने शैया पर राजकुमार की मृत देह पड़ी है और उस के पास बैठी रानी विलाप कर रही है । राजा कभी मृत राजकुमार को देखता है, कभी विलाप करती रानी को और कभी मन ही मन में अपने सपने वाले राजकुमारों को । रानी तो रो रही है और पास ही राजा किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ बैठा है । रानी झिंझोड़ कर राजा को कहती है कि अपना इकलौता बेटा चला गया और आप रो नहीं रहे हैं । संज्ञा शून्य हो कर क्यों बैठे हो ? इस पर राजा ने बड़ी मार्मिक बात कही - ‘ इस एक राजकुमार के लिए रोऊँ या उन चार राजकुमारों के लिए, जो अभी-अभी मेरे पास खेल रहे थे ।’ रानी के बात समझ में आई अथवा नहीं, पर राजा के समझ में अवश्य आ गई कि ‘यद्दृष्टंतन्नष्टं - जो दिखाई देता है, वह सब नष्ट होने वाला है ।’
जो कुछ भी हमारे द्वारा देखा जाता है, वह सब नाशवान है । स्वप्न में भी और जाग्रत अवस्था में, दोनों ही प्रकार के दिखने में कोई अन्तर नहीं है । स्वप्न हम देखते ही इसलिए हैं कि जीवन में किसी चीज़ का अभाव है । वास्तविक जीवन में उस अभाव की पूर्ति नहीं हो पाती, उस अभाव को हम सपने में पूरा कर लेते हैं । सपने में अभाव का दूर होना हो अथवा वास्तविक जीवन में हो, वह सब फिर से अभाव में जाने वाला है । इसलिए कहा गया है कि जो भी देखा जाता है, वह सब नाशवान है ।
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह दृश्य को द्रष्टा भाव से न देखकर उसको शरीर के आधार पर देखता है । शरीर में इंद्रियाँ है और इंद्रियों की दृष्टि से दिखलाई पड़ने वाला प्रत्येक दृश्य आपको अपने साथ बांध लेता है । मनुष्य प्रत्येक दृश्य से राग/द्वेष करने लगता है । यही आसक्ति उसके सांसारिक बंधन का कारण बनती है । सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि स्वप्न में देखे गए दृश्य भी मनुष्य को भ्रमित कर देते हैं । आइए ! पहले यह जानने का प्रयास करते हैं कि स्वप्न और जाग्रत, दोनों अवस्थाओं की दृष्टि में मूलभूत अन्तर क्या है ?
आध्यात्मिक रूप से देखा जाए तो दोनों अवस्थाओं में तनिक भी अंतर नहीं है । जाग्रत अवस्था में मनुष्य की दृष्टि में आने वाली प्रत्येक वस्तु स्थूल रूप में ही होती है और उसको स्थूल इंद्रियों के माध्यम से छूकर, देखकर, सूंघकर, चख कर अथवा सुनकर अनुभव किया जा सकता है । स्वप्न में दिखलाई देने वाली प्रत्येक वस्तु स्थूल रूप से उपस्थित न होते हुए भी स्थूल रूप में ही दिखती है परन्तु उसको केवल मन के द्वारा ही अनुभव किया जाता है और मन के इस अनुभव में सूक्ष्म इंद्रियों की भूमिका रहती है । सूक्ष्म इंद्रियों की क्रियाओं की प्रतिक्रिया स्वप्न देख रहे व्यक्ति की स्थूल इंद्रियों में भी प्रतिबिम्बित होती है । जैसे स्वप्न में फुटबॉल खेल रहे व्यक्ति के पैर में हो रही गति बाहर शरीर के पैर में भी देखी जा सकती है । कई बार तो सपने में गोल करने का अवसर मिलने पर वास्तविक पैर भी किक मार देता है ।
स्वप्न में वस्तु के स्थूल रूप से अनुपस्थित होते हुए भी स्थूल इंद्रियों में प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी जाग्रत अवस्था में उस वस्तु को अनुभव करने से होती है । यही कारण है कि स्वप्न में देखे गए घटनाक्रम को भी मनुष्य वास्तविक समझ लेता है, जबकि उसका वास्तविकता से दूर का भी सम्बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार वास्तविक जीवन में भी जो कुछ देखा जाता है, उसके शाश्वत होने का भ्रम ही होता है । देखा जाने वाला सब कुछ नाश की ओर जा रहा है । ऐसा क्यों और कैसे होता है ? आइए ! इसके पीछे के विज्ञान को जानने का प्रयास करते हैं ।
प्रत्येक स्थूल वस्तु का निर्माण पदार्थ से होता है । पदार्थ प्रकृति में सतत चल रही क्रियाओं का परिणाम है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक पदार्थ अथवा वस्तु क्रिया के कारण ही अस्तित्व में आते हैं और यह क्रिया उस पदार्थ के भीतर भी सतत चलती रहती है । इन क्रियाओं के कारण ही पदार्थ प्रतिपल अपना स्वरूप परिवर्तित करता रहता है । यह परिवर्तन प्रायः इतनी धीमी गति से होता है कि हमारी दृष्टि उसको पकड़ नहीं पाती । यह परिवर्तन ही पदार्थ को नाश की ओर ले जाता है । निष्कर्ष है कि क्रिया से ही पदार्थ का निर्माण होता है और वह क्रिया ही उसे नाश की ओर ले जाती है । क्रिया का प्रारम्भ पदार्थ की उत्पत्ति है और क्रिया का समापन उस पदार्थ की समाप्ति ।
जाग्रत और स्वप्न, दोनों अवस्थाओं में ही क्रिया की भूमिका है । इसलिए न तो जाग्रत को सत् कहा जा सकता है और न ही स्वप्न को । केवल पदार्थ ही स्थूल दृष्टि की पकड़ में आता है, उसके भीतर चल रही क्रिया नहीं । आधुनिक विज्ञान ने ऐसे साधन विकसित कर लिए हैं, जिससे क्रिया को भी देखा जा सकता है । आज विज्ञान उस अवस्था में पहुँच गया है, जहां वह कह सकता है कि पदार्थ दिखलाई अवश्य दे रहा है परन्तु वास्तव में पदार्थ कहीं है ही नहीं, केवल क्रिया ही क्रिया है । यही बात तो हमारे सनातन धर्म-ग्रंथ सहस्राब्दियों से कहते आ रहे हैं कि जगत् में क्रिया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । हमारे ऋषियों ने तो इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि प्रत्येक क्रिया का भी अन्त होता है । प्रत्येक क्रिया को भी एक दिन अक्रियता में समाहित हो जाना होता है ।
प्रत्येक क्रिया का आदि है अन्त भी है परन्तु जहां से क्रिया का आगमन होता है और जिसमें क्रिया को समाहित होना होता है, उस अक्रियता का कोई आदि-अन्त नहीं है । अक्रियता से क्रिया का जन्म होता है और क्रिया से पदार्थ का । हम अपनी स्थूल दृष्टि से पदार्थ को देख कर उसकी सत्ता समझ लेते हैं जबकि पदार्थ की सत्ता क्रिया के कारण है परन्तु क्रिया की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । क्रिया का अस्तित्व भी अक्रियता पर टिका है, अतः मुख्य सत्ता अक्रियता की हुई । अक्रियता जिसमें है और जिसकी है, एक वही शाश्वत है । पदार्थ और क्रिया का आदि-अन्त है परन्तु उस शाश्वत का न कोई आदि है और न ही अन्त । वह दिखलाई नहीं दे रहा परंतु अदृश्य होकर भी केवल एक उसी की सत्ता है । उसके बिना न तो कोई क्रिया होती है, न पदार्थ बनता है, न कोई आदि कैलाश है और न ही कोई ॐ पर्वत ।
संसार में जितने भी पदार्थ दिखलाई पड़ रहे हैं, वे सब अभाव में अर्थात् ‘न होने’ में जा रहे हैं । कहने का अर्थ है कि अभाव में भाव का होना, कभी नहीं हो सकता । गीता में भगवान ने कहा है -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि: ।।' (गीता - 2/16)
असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा है अर्थात् अनुभव किया है ।
असत् की सत्ता नहीं है, फिर भी वह दिखलाई कैसे पड़ रहा है ? एक साधारण व्यक्ति की दृष्टि में आने वाली वस्तु उसे असत् नज़र नहीं आती क्योंकि हमारी सोच ही ऐसी बन गई है कि जो आँखें देख रही हैं, भला ! वह असत् कैसे हो सकती है ? ऐसा सोचना भी कुछ सीमा तक सही है परन्तु ऐसा तभी सही है जब हम प्रत्येक दिखने वाली में सत्तावान अविनाशी को देखें । इसके लिए हमें सत्-असत् के ज्ञान की अवस्था तक पहुँचना होगा । तत्त्वदर्शी महापुरुष को तो सत् और असत् दोनों का अनुभव है परन्तु साधारण मनुष्य को सत् प्रतीत होने वाली वास्तव में असत् है, इस बात का ज्ञान नहीं है । अक्रियता से क्रिया, क्रिया से पदार्थ और पदार्थ का नष्ट होकर क्रिया का पुनः अक्रियता में समा जाना ही सत्-असत् का ज्ञान है ।
हमें असत्, सत् के रूप में दिखलाई पड़ता है क्योंकि उसको हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं । असत् का इस प्रकार सत् के रूप में अनुभव होना और अन्ततः उसका नष्ट हो जाना, इस पूरी प्रक्रिया को जान लेने पर ही हमारी सारी भ्रांतियां दूर होगी उससे पहले नहीं ।
मनुष्य शरीर की संरचना अन्य सभी प्राणियों में सबसे जटिल है । यह दो स्तर पर कार्य करता है। बाह्य और आंतरिक । शरीर से बाहर जाने के लिए आपकी चेतना इंद्रियों के माध्यम से यात्रा करती है और आपको संसार के पदार्थों से परिचय कराती है । यह चेतना की इंद्रिय यात्रा है । इंद्रिय यात्रा करने वाली चेतना ही हमारा अशुद्ध अहम् है ।
आंतरिक स्तर पर जो यात्रा होती है, उसमें इंद्रियों की कोई भूमिका नहीं होती, इसलिए इसको अतीन्द्रिय यात्रा कहा जाता है । अतीन्द्रिय यात्रा करने वाली चेतना हमारा शुद्ध अहम् है । दोनों ही यात्राओं में चेतना (अहम्) की भूमिका होती है । हम इसी वास्तविकता को जीवन भर भूले रहते हैं । हमारे नेत्र केवल देखने के उपकरण मात्र है परंतु जो देखता है, वह तो हमारे भीतर बैठा है । नेत्रों को बंद कर लेने पर भी वह रहता है । वही चेतना है । उसी को द्रष्टा कहकर सम्बोधित किया जाता है ।
बाहरी यात्रा में पदार्थ को जाना जाता है और भीतरी यात्रा में अपदार्थ को । यह चेतना ही बाहरी और भीतरी, दोनों यात्राओं की द्रष्टा है ।
यथार्थ में पदार्थ और अपदार्थ में किसी प्रकार का विभाजन नहीं है, दोनों एक ही हैं । भौतिक दृष्टि में द्रष्टा की अवहेलना कर दें तो सब कुछ पदार्थ है जबकि द्रष्टा की दृष्टि में सब कुछ अपदार्थ ही है । पदार्थ में परिवर्तन होते हैं, वह नष्ट होने की ओर अग्रसर है, इसलिए उसे असत् कहा जाता है । अपदार्थ का नाश नहीं होता, इसलिए उसे सत् कहा जाता है । तत्त्वदर्शी महापुरुष असत् और सत् दोनों को जानता है, इनका उन्हें अनुभव होता है क्योंकि वह सर्वत्र केवल एक सत्तावान को ही देखता है । महापुरुष की दृष्टि और साधारण व्यक्ति की दृष्टि में मूलभूत यही अन्तर है । क्या कारण है, इस प्रकार से देखने का ? कारण है - हमने पदार्थ के प्रति आसक्ति रखकर स्वयं को प्रतिदिन नाश की ओर जाने वाली वस्तुओं के साथ जोड़ रखा है ।
‘यद्दृष्टंतन्नष्टं’ का अर्थ है, "जो भी देखा जाता है, वह नाशवान है।" इसका मतलब है कि जो भी भौतिक चीजें देखी जाती है या जिनका अनुभव किया जाता है, वे सभी दृश्य अस्थायी होते हैं और अंततः नष्ट हो जाते हैं । यह एक धार्मिक या आध्यात्मिक विचार है, जो हमें यह बताता है कि इस भौतिक दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है ।
यह कथन आत्मा और अनात्मा के बीच के अंतर को भी दर्शाता है । अनात्मा अर्थात् पदार्थ । आत्मा अर्थात् अपदार्थ । शरीर और संसार सब पदार्थ के अन्तर्गत हैं । आत्मा, जो कि स्थिर है, वही एकमात्र चीज है जो वास्तव में है । अन्य सभी चीजें, जो कि दिखलाई दे रही हैं, वे अस्थायी और नाशवान हैं । आत्म-अनात्म विवेक का अर्थ है स्वयं (आत्मा) और संसार तथा शरीर (अनात्मा) के बीच अंतर करना । यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो कई धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं में पाई जाती है । इतने विवेचन का निष्कर्ष है कि हमें इन दो तत्वों का स्पष्ट रूप से ज्ञान होना चाहिए -
(अ) अनात्मा (शरीर और संसार):- यह वह है जो परिवर्तनशील, सीमित और अस्थायी है । इसमें शरीर, मन और संसार शामिल हैं ।
(आ) आत्मा (स्वयं):- यह वह है जो स्थायी, असीम और अपरिवर्तनीय है । यह वह है जो ज्ञान और चेतना का स्रोत है ।
आत्म-अनात्म विवेक का ज्ञान होने से, व्यक्ति को यह समझने में सहायता मिलती है कि वह क्या है और क्या नहीं है ? आत्म-अनात्म विवेक हो जाने पर दो लाभ हैं - एक तो उसे ज्ञान हो जाता है कि वह स्वयं कौन है । इससे स्वयं के साथ एक मजबूत संबंध स्थापित बन जाता है और दूसरा, स्वयं को जान जाने के कारण संसार के प्रति आसक्ति से मुक्त होना सम्भव हो जाता है । ऐसा हो जाने पर आपका जब अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति से सामना होता है और आप क्रोध, भय या दुःख जैसी नकारात्मक भावनाओं का अनुभव करते हैं, तब आप स्वयं को उस भावना से अलग कर सकते हैं । आप समझ सकते हैं कि ये भावनाएं वास्तव में आपका स्वभाव नहीं हैं बल्कि ये परिस्थितियां आने-जाने वाली (अस्थायी) और परिवर्तनशील हैं । जब आप अपने सुख के लिए किसी बाहरी वस्तु या व्यक्ति को महत्व देते हैं, तो आत्म-अनात्म विवेक से समझ सकते हैं कि वास्तव में वे आपके आनन्द के स्रोत नहीं है । तब यह समझ में आ जाता है कि सच्चा सुख और संतोष तो आंतरिक है ।
संसार और शरीर को सत्ता आपने दी है, उनमें आसक्त होकर । गीता में भगवान कहते हैं - “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।” अर्थात असत् की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है । जिस असत् की तो सत्ता नहीं है, उसको तो 'नहीं' कहा जाता है और जिस सत् का कहीं अभाव नहीं है, उसको 'है' कहा जाता है । अतः जो नहीं है, वह 'नहीं' ही है और जो है, वह 'है' ही है । स्वामीजी कहते हैं - संसार पहले नहीं था, अन्त में नहीं रहेगा और वर्तमान में भी निरन्तर नाश में जा रहा है । संसार में सिवाय नष्ट होने के कुछ तत्त्व है ही नहीं, यह अभाव-रूप ही है । नाशवान् शरीर-संसार में जो 'है-पना' दिख रहा है, यह 'है-पन' संसार का नहीं होकर परमात्मा का है । नित्य-निरन्तर बदलने वाले को 'है' मानना गलती है । 'नहीं' को 'है' मान लेने से 'है' रूप परमात्मा की तरफ दृष्टि नहीं जा रही है; नहीं को नहीं मानते ही 'है' का अनुभव हो जाएगा ।
मानस में तुलसी लिखते हैं -
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।
मायाधीस ग्यान गुन धामू ।।
जासु सत्यता तें जड माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ।। बालकाण्ड - 117/7-8 ।।
यह जगत् प्रकाश्य है और भगवान राम प्रकाशक हैं । वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं । जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य भासित होती है ।
यही आत्म-अनात्म विवेक है । इस विवेक के जाग्रत होने से मनुष्य को अपना स्वरूप समझ में आ जाता है, फिर स्वरूप में स्थित होते देर नहीं लगती । स्वयं और शरीर का भेद समझ में आ जाने पर मनुष्य का प्रत्येक परिस्थिति में मन और भावनाओं पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है । साथ ही संसार से आसक्ति छूट जाने पर शांति का अनुभव होता है । आत्म-अनात्म विवेक ही हमें आत्म- साक्षात्कार की अवस्था तक ले जाता है ।
आत्म-अनात्म विवेक एक जीवन भर की यात्रा है । इसका अभ्यास करने और इसे पूर्ण रूप से समझने की आवश्यकता है । यह आपको अपने भीतर के सत्य को खोजने और एक सार्थक जीवन जीने में सहायक सिद्ध हो सकता है ।
इस चेतन-अचेतन चराचर जगत् को शरीर के स्तर पर देखेंगे तो इसके प्रति आसक्ति पैदा होगी । शरीर और इंद्रियों से अनुभव की जाने वाली प्रत्येक वस्तु नाश की ओर अग्रसर है । हमारी इनके प्रति आसक्ति ने ही इनको सत्ता दी है । यही कारण है कि उनमें जब परिवर्तन होता है अथवा वे नष्ट हो जाती है, तब हमें दुःख होता है । संसार का कोई भी पदार्थ क्रियाविहीन नहीं है और यह क्रिया ही उसको बनाती-बिगाड़ती है । इसलिए महत्व क्रिया का है, पदार्थ का नहीं । क्रिया का मूल (अक्रिय परमात्मा) जो है, केवल उसी के कारण पदार्थ सत्ता में आता है अन्यथा स्वयं पदार्थ की कोई सत्ता नहीं है । अतः प्रत्येक परिवर्तित होने वाली वस्तु, व्यक्ति अथवा दृश्य में केवल एक सत्तावान परमात्मा को देखने से हमें उनमें होने वाला परिवर्तन सुखी-दुःखी नहीं कर सकेगा । भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं -
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।। 13/27 ।।
जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमेश्वर को नाशरहित और समरूप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।
"यद्दृष्टंतन्नष्टं" का उपयोग प्रायः इस विचार को व्यक्त करने के लिए किया जाता है कि भौतिक संसार में प्रत्येक प्रकार की मोह-ममता, आसक्ति, राग आदि (attachment) से दूर रहना चाहिए और एक आत्मा (परमात्मा) पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए । सब जगह और सबमें एक परमात्मा को ही देखें, यही ‘अदृष्टंतन्नष्टं’ लेख का सार है ।
श्री नारायण स्वामी कहते हैं -
नारायण तब जानिये, लगन लगी या काल ।
जित तित में दृष्टी परै, दीखैं मोहनलाल ।।
- अनुराग रस (177)
इसी के साथ इस लेख के समापन की आज्ञा चाहूँगा । आप ‘वासुदेव सर्वम्’ के भाव को अपने हृदय में स्थान देंगे, तभी इस लेख की सार्थकता है ।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम् ।।
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