बंदऊँ गुरु पदकंज
“सा विद्या या विमुक्तये - ज्ञान वही है जो मनुष्य को मुक्त कर दे ।” (विष्णु पुराण - 1/19/41)
ज्ञान और विवेक, ये दो शब्द मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । सभी मनुष्यों में जन्म-जात दोनों ही होते हैं । ज्ञान ही विवेक में परिवर्तित होता है, जिसमें गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । ज्ञान मनुष्य के सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवन में उपयोगी है परंतु विवेक उसे मनुष्य-जीवन के उद्देश्य से परिचित कराता है । जिस प्रकार चाक से घड़ा बन सकता है परन्तु उस घड़े को निखार देकर उपयोगी बनाने में कुम्हार की विशेष भूमिका रहती है, उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त मनुष्य में विवेक जाग्रत करने में गुरु की आवश्यकता होती है ।
ज्ञान तो अनेक शास्त्रों में भरा पड़ा है । उस ज्ञान को उपयोगी बनाकर अनुभव करना मुख्य बात है । गुरु शास्त्रों का ज्ञाता भी होता है और अनुभव सिद्ध भी । ऐसा गुरु आपकी अंगुली पकड़ कर उस दिशा का ज्ञान करा देगा, जिसका हमें अभी तक ज्ञान नहीं है । उस दिशा में चल पड़ना ही विवेक है । केवल गुरु को सुनना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि सुने हुए को जीवन में उतारना महत्वपूर्ण है । गुरु आपके साथ नहीं चलेगा, उस मार्ग पर चलना आपको ही पड़ेगा । गुरु स्वयं के साथ आपको नहीं बाँधेगा उलटे आपको मुक्त कर देगा । इसलिए आदर्श गुरु मिलने को गोविंद का मिल जाना कहा गया है ।
आज गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर हम सबको अपने गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए उनके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए । गुरु का अर्थ है - जो आपके अज्ञान रूपी अंधकार का नाश कर आपको ज्ञान रूपी प्रकाश से सरोबार कर दे । गुरु इसीलिए वंदनीय है । तुलसी मानस में बालकाण्ड के प्रारम्भ में गुरु-वन्दना करते हुए कहते हैं -
बंदऊँ गुरु पदकंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ।। सोरठा -5 ।।
मैं उन गुरु महाराज के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में साक्षात् श्री हरि ही है और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं ।
इस जीवन में कई आध्यात्मिक महापुरुषों का सानिध्य मिला परन्तु भीतर की मुमुक्षा को हरिः शरणम् के आचार्य श्री गोविन्दराम जी शर्मा ने पहचान कर आगे की यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया है, ऐसा कार्य कोई आदर्श गुरु ही कर सकता है । उनके मार्गदर्शन से आंतरिक-परिवर्तन को जो गति मिली है, उसको व्यक्त करने के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्दों का अभाव है । उनका स्मरण, उनके प्रति आदर भाव प्रातः जागने से लेकर रात को सोने तक तो सदैव बना ही रहता है, साथ ही साथ बढ़ता भी जा रहा है । आज गुरु-पूर्णिमा के पावन अवसर पर उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुए मैं स्वयं को रोमांचित अनुभव कर रहा हूँ ।
।। हरिः शरणम् ।।
डॉ. प्रकाश काछवाल
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