संसार में जितने भी जीव है, वे सब पूर्व मानव जीवन में किए गए कर्मों का फल भोगने के लिए ही शरीर धारण किए हुए है । वे अपनी इच्छा से कोई कर्म कर ही नहीं सकते । कई बार हमें लगता है कि कोई पशु अपनी इच्छा से किसी मनुष्य को लात मार रहा है, कोई किसी दूसरे प्राणी को काट रहा है आदि, परंतु ऐसा करना उसकी इच्छा पर तनिक भी निर्भर नहीं है । ऐसा जो भी वह करता है, सब पूर्व मनुष्य जीवन के कर्मों से बने प्रारब्ध के कारण ही करता है । मनुष्य भी इसी प्रकार प्रारब्ध के अधीन होकर बहुत कुछ करता है परन्तु साथ ही उसे अन्य प्राणियों के विपरीत अपनी इच्छा से कर्म करने की स्वतंत्रता भी है ।
अपनी इच्छा से कर्म करने की स्वतंत्रता मनुष्य को नहीं मिलती तो एक दिन इस संसार कि गति रुक जाती क्योंकि इच्छा से किए गए कर्म जिनका फल उस जीवन में नहीं मिल पाता, वे ही प्रारब्ध बनकर दूसरे शरीर में जाकर फल देते हैं । मनुष्य जीवन में स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतंत्रता से ही चौरासी लाख योनियों में जीव का आवागमन सतत निर्बाध गति से चलता रहता है ।
यह तो हुआ कर्म स्वतंत्रता का एक पहलू । दूसरी ओर देखें और विचार करें तो अनुभव होता है कि मनुष्य इस कर्म-स्वतंत्रता का सदुपयोग कर अपने मूल स्वरूप तक पहुँचकर सांसारिक आवागमन से मुक्त भी हो सकता है । परंतु ऐसा करना किसी-किसी मनुष्य के लिए ही संभव हो सकता है अन्यथा तो अधिकतर तो संसार के चक्कर में पड़कर अनेक जन्मों में विभिन्न प्राणियों के शरीर धारण करते हुए सुख-दुःख भोगते रहते हैं । परमात्मा ने मनुष्य को रचते ही उसे कर्म-स्वतंत्रता देते हुए कह दिया - ' जैसी तुम्हारी इच्छा, वैसे ही करो' अर्थात् ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ ।
भगवान ने इस सृष्टि का सृजन किया । प्रकृति के गुणों से होने वाली विभिन्न क्रियाओं से एक-एक कर बहुत प्रकार के पदार्थ बने । सभी पदार्थ अपने भीतर चल रही विभिन्न क्रियाओं से बनते रहे, बिगड़ते रहे । परमात्मा ने उन पदार्थों में से कुछ में जीवन देकर उन्हें जीव बना दिया । फिर भी उनके बनने-बिगड़ने की आवृति में कोई परिवर्तन नहीं आया । अंततः उन्होंने अपनी माया से मनुष्य नाम का जीव बनाया और उसे केवल प्राकृतिक क्रियाओं के भरोसे ही नहीं छोड़ा बल्कि उसे अपनी इच्छानुसार क्रियाओं को परिवर्तित करने की क्षमता भी दे दी । यही क्रियाएँ उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म कहलाती हैं । अपनी इच्छानुसार की जाने वाली क्रियाओं के कारण उसे जो स्वतंत्रता मिली है, उसे ही कर्म-स्वतंत्रता कहते हैं ।
मनुष्य की यह कर्म-स्वतंत्रता उसे भोग की ओर भी ले जा सकती है और योग की ओर भी । कर्म स्वतंत्रता का सदुपयोग कर मनुष्य आत्म-बोध को उपलब्ध हो अपने मूल स्वरूप को पा सकता है । उसका मूल स्वरूप है - सच्चिदानन्द अर्थात् वह सत्य है, चैतन्य भी है और सदैव आनंद की अवस्था में रहने वाला भी है । प्रश्न है, क्या मनुष्य ने अपनी कर्म-स्वतंत्रता का उपयोग आत्म-बोध के लिए किया है ? जिसने अपनी इस स्वतंत्रता का इस प्रकार सदुपयोग किया है, वह अपने मूल स्वरूप तक पहुँचकर सांसारिक आवागमन से मुक्त है ।
प्रश्न है कि इस कर्म-स्वतंत्रता का उपयोग मनुष्य किस प्रकार कर सकता है ? एक दृष्टांत के माध्यम से चर्चा को आगे बढ़ाते हैं ।
एक मूर्तिकार ने मनुष्य की एक समान तीन मूर्तियां बनाई और उन्हें प्रदर्शन के लिए रखा । तीनों मूर्तियाँ एक ही वजन की, एक जैसी दिखाई देने वाली थी, कहीं कोई रत्ती भर भी अंतर नहीं । प्रदर्शन में कलाकार द्वारा सब दर्शकों से एक ही प्रश्न पूछा - ‘ इन तीनों में से कौन सी मूर्ति सबसे अधिक क़ीमती है ?” उत्तर देने का इच्छुक दर्शक एक-एक कर तीनों मूर्तियों के पास जाता, उनका गंभीरता से अवलोकन करता और वापस लौट जाता क्योंकि उसे तीनों में जरा सा अंतर भी नज़र नहीं आता । ऐसे में भला क़ीमत का आकलन कैसे हो पाता ?
एक-एक कर सभी दर्शक उन तीनों में से किसी एक क़ीमती मूर्ति को छाँटने में असफल रहे । तभी प्रदर्शनी में एक बुद्धिमान दर्शक ने प्रवेश किया । उस दर्शक से भी मूर्तिकार ने वही प्रश्न किया - “ इन तीनों मूर्तियों में से कौन सी मूर्ति सबसे क़ीमती है ?” बुद्धिमान दर्शक ने एक पल के लिए तीनों मूर्तियों को निहारा । सचमुच सभी मूर्तियाँ दिखने में एक समान थी । उनमें से किसी एक मूर्ति को सर्वश्रेष्ठ बताना वाक़ई बड़ा मुश्किल था ।
उस दर्शक ने एक तिनका उठाया और पहली मूर्ति के एक कान में डाला । रास्ता बंद होने के कारण तिनका आगे नहीं बढ़ा । फिर तिनके को दूसरे कान में डाला । तिनका जरा सा भी आगे नहीं बढ़ा क्योंकि वहाँ भी आगे रास्ता बंद था । उसके बाद उसने उसी तिनके को दूसरी मूर्ति के कान में डाला । तिनके को आगे बढ़ने का रास्ता मिला । आगे बढ़ते-बढ़ते वह तिनका दूसरे कान के पार हो गया । अब उस दर्शक ने तीसरी मूर्ति के कान में तिनका डाला । तिनके को रास्ता मिलता गया और वह आगे बढ़ता गया । इस प्रकार पूरा तिनका उस एक मूर्ति के भीतर प्रवेश कर गया । दर्शक ने मूर्तिकार से कहा कि यह तीसरी मूर्ति सबसे क़ीमती है ।
बाहर से एक समान दिखाई देने वाली मनुष्य की मूर्तियाँ भी भीतर से भिन्न-भिन्न हो सकती है, यह एक मूर्तिकार की कल्पना है । सोचिए ! उस महान सृजनकर्ता की कल्पना कितनी अद्वितीय होगी जिसने जीता-जागता मनुष्य बनाया, इस बात पर किसी प्रकार की कोई शंका नहीं की जा सकती ।
मूर्तिकार द्वारा बनाई गई मनुष्य की तीन मूर्तियों की तरह परमात्मा की सर्वोत्तम कृति मानव भी तीन प्रकार के हैं । प्रथम प्रकार के मानव तो अपनी इच्छा से ही सब कुछ करते हैं, किसी की सुनते तक नहीं हैं । दूसरी प्रकार के वे मनुष्य हैं जो सुनते तो सबकी है परंतु उनका करना अपनी सोच के अनुसार ही होता है अर्थात् वे एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से बाहर निकाल देते हैं । वे सुने हुए पर तनिक सा भी विचार नहीं करते । तीसरे प्रकार के मनुष्य विशिष्ट होते हैं । वे ध्यान से सब कुछ सुनते हैं, उस पर विचार करते हैं और फिर उचित निर्णय लेकर अपनी इच्छा से ही सब कुछ करते हैं ।
तीनों प्रकार के मनुष्य एक समान हैं, तीनों करते भी अपनी इच्छानुसार ही हैं फिर भी तीनों के करने में भिन्नता है और उनके परिणाम भी उन्हें भिन्न-भिन्न मिलते हैं । इससे सिद्ध होता है कि जिस इच्छा से कर्म किए जाते हैं और जैसी करने वाले की क्षमता होती है, इन दोनों बातों के एक समान होते हुए भी कर्म का प्रकार और उसके परिणाम भिन्न-भिन्न होकर व्यक्ति के जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं । हम इन तीनों में से मनुष्य की जिस श्रेणी में आते हैं, हमारा जीवन भी उसी प्रकार का होगा ।
अर्जुन कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में युद्ध करने अथवा न करने के द्वंद्व में फँसकर विषादग्रस्त हो गया था । इसी उहापोह में उसे युद्ध न करना ही युक्तिसंगत प्रतीत होने लगा था । वह कुरुक्षेत्र के युद्ध से पलायन करता, इससे पहले ही भगवान श्रीकृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा - “अर्जुन ! तुम यह क्या करने जा रहे हो ? युद्ध से पलायन करने का परिणाम जानते हो ? एक क्षत्रिय होकर युद्ध-भूमि में आकर नपुंसक जैसा व्यवहार कैसे कर रहे हो ?”
भगवान के इसी कटाक्ष ने अर्जुन को भीतर तक बींध दिया । भगवान के द्वारा कहे गए इन शब्दों ने अर्जुन को बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया । “नहीं, मैं नपुंसक नहीं हूँ । नपुंसक नहीं हूँ तो फिर मेरे मस्तिष्क में युद्ध से पलायन करने का विचार ही क्यों आया ? ओह ! मेरे पितामह, मेरे गुरु, मेरे भाई, मेरे सम्बन्धी सब मेरे विरुद्ध युद्ध करने को तैयार है । मैं नपुंसक नहीं हूँ, इसका अर्थ यह तो नहीं है कि मैं अपने प्रियजनों को ही मार डालूँ । नहीं, मैं मेरे प्रियजनों को भूमि के एक टुकड़े को पाने के लिए मार नहीं सकता ।”
मनुष्य के जीवन में विषाद की अवस्था तभी आती है जब वह जो कुछ करना चाहता है, वैसा चाह कर भी नहीं कर पाता । द्वंद्व की इस अवस्था में उसके द्वारा लिए गए निर्णय प्रायः परिस्थिति के प्रतिकूल (विपरीत) ही होते हैं । ऐसे समय में किसी मार्गदर्शक का साथ मिल जाए तो व्यक्ति विषाद की अवस्था से बाहर आ सकता है । अर्जुन को साथ मिला भगवान श्रीकृष्ण का, वे उसके सारथी जो थे ।
विषादग्रस्त अर्जुन ने अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान की ओर देखा और कहा - “यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् । मेरे लिये जो निश्चित कल्याणकारी हो, वह कहिए । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, इसलिए मुझे शिक्षा दीजिए ।”
अर्जुन ने भगवान से शिक्षा मांगी, ज्ञान चाहा । फिर श्रीकृष्ण के मुख से जो ज्ञान का अविरल प्रवाह उस युद्ध भूमि पर हुआ वैसा इतिहास में आज तक कहीं और कभी नहीं हुआ । शरीर के जन्मने- मरने से प्रारंभ हुआ ज्ञान कर्म, ध्यान, भक्ति आदि को स्पष्ट करते हुए अपनी सर्वोच्च अवस्था तक पहुँच गया । बीच-बीच में भगवान से अर्जुन प्रश्न कर अपनी शंकाएँ उठाते रहे और श्रीकृष्ण उनके उत्तर देते रहे । अंततः अर्जुन को गुह्य से गुह्यतर ज्ञान मिल गया ।
ज्ञान का समापन करते हुए भगवान ने अर्जुन को कहा -
इति ते ज्ञान माख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।। गीता -18/63।।
हे अर्जुन ! क्या तूने गूढ़ से भी गूढ़ ज्ञान का ध्यानपूर्वक और एकाग्रता से श्रवण किया है ? क्या तेरा मोहजनित अज्ञान नष्ट हो गया है ? क्या तुझे स्मृति प्राप्त हो गई है ? यदि यह सब हुआ है तो तू इस पर विचार कर और जो तुझे उचित लगे वह कर - ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ ।
अर्जुन भगवान को कहते हैं कि “यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् । मेरे लिये जो निश्चित कल्याणकारी हो, वह कहिए ।” (गीता -2/7) । बहुत सा ज्ञान देने के उपरांत भगवान अब कह रहे हैं - “यथेच्छसि तथा कुरु” अर्थात् जो उचित लगे, वह कर ।(गीता -18/63) । भगवान ने इतने रास्ते बताकर फिर से अर्जुन को द्वंद्वात्मक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया । ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ तो वे ज्ञान देने से पहले भी कह सकते थे और रथ छोड़ द्वारिका चले जाते । परंतु नहीं, उन्होंने पहले कल्याण के सभी रास्ते बताए और फिर अपनी राह चुनने की स्वतंत्रता अर्जुन को दे दी ।
पहले से ही अर्जुन कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में अपने सगे-संबंधियों को सामने खड़ा देखकर द्वंद्वात्मक स्थिति में फँसकर विषादग्रस्त है और अब भगवान ने ज्ञान देकर विषाद-मुक्त होने के लिए कह दिया कि तुम्हें जो भी उचित लगे, वह कर । अर्जुन चाहता तो युद्ध से अब भी पलायन कर सकता था अगर उसकी स्थिति प्रथम अथवा द्वितीय श्रेणी के मनुष्य की सी होती । ऐसी स्थिति में अर्जुन होता तो भगवान के कथन को या तो सुनता ही नहीं अथवा सुनता तो भी उसे दूसरे कान से निकाल देता अर्थात् उस पर विचार तक न करता । परन्तु अर्जुन तो तीसरी श्रेणी का मनुष्य है, जो भगवान के कथन पर विचार कर रहा है । अर्जुन उनके कथन पर विचार करते हुए समझ नहीं पा रहा है कि भगवान ने सारा ज्ञान देकर भी ‘उचित लगे, वैसा कर’ कहकर उसे अनिर्णयात्मक स्थिति में लाकर क्यों खड़ा कर दिया ?
इस प्रश्न का समाधान करने के चलिए जानते है कि मनुष्य की ऐसी कौन सी विशेषताएँ हैं, जो उसे अन्य जीवों से भिन्न बनाती हैं ?
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत्त् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: ।।
आहार, निद्रा, भय और मैथुन, ये सभी चीजें पशुओं और मनुष्य में समान हैं । धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न बनाता है । धर्म के बिना मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है ।
मनुष्य में आहार, निद्रा, भय और मैथुन से जो अतिरिक्त विशेषता है, वही उसको अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है और वह विशेषता है - धर्म की पालना । धर्म ही मनुष्य जीवन का आधार है, बिना धर्म के मनुष्य बिना सींग पूँछ का पशु ही है । धर्म का अर्थ है कर्तव्य पालन, जो सही हो वही करना । अन्य जीव तो केवल प्रारब्ध के भोग भोगने के लिए कर्म करते हैं परंतु मनुष्य उनके अलावा भी कर्म करने को स्वतंत्र है । परमात्मा ने यह कर्म स्वतंत्रता मनुष्य को अपना धर्म-पालन करने के लिए दी है, जिससे वह अपना कर्तव्य निभा सके ।
परमात्मा ने कर्म स्वतंत्रता के साथ मनुष्य को धर्म-पालन के लिए दूसरी शक्ति विवेक के रूप में दी है । विवेक के कारण ही मनुष्य को अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है । विवेक का सदुपयोग कर मनुष्य सुख-दुःख से निकलकर आनन्द को उपलब्ध हो सकता है ।
इस प्रकार परमात्मा ने मनुष्य को विवेक और कर्म-स्वातंत्र्य, ये दो शक्तियाँ विशेष रूप से कृपा करके दी है, जिससे वह धर्म-पालन करते हुए भोगों से सुख भी प्राप्त करे और निष्काम-कर्म करते हुए भोग-कर्मों में आसक्त भी न हो । भोगों में आसक्त मनुष्य संसार में ही उलझकर रह जाता है और उचित कर्म करने के लिए विवेक का सदुपयोग नहीं कर पाता ।
पुनः चलते हैं, भगवान द्वारा कहे गए उस कथन की ओर जिसमें वे कहते हैं कि “यथेच्छसि तथा कुरु” अर्थात् जो उचित लगे, वह कर । “यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्”, विषादग्रस्त अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से चाहता है कि वे उसे जो निश्चित कल्याणकारी हो, वह रास्ता दिखाए । गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से लेकर अठारहवें अध्याय के बासठवें श्लोक तक अर्जुन को विभिन्न कल्याणकारी साधन बतलाए परंतु अब कह रहे हैं कि तुम्हें जो उचित लगे वह कर । यह बात तो वे उसी समय कह सकते थे, जब अर्जुन ने उनसे निश्चित कल्याणकारी मार्ग पूछा था । प्रश्न उठता है कि फिर भगवान ने ऐसा क्यों कहा ?
दो विशेष शक्तियाँ जो भगवान ने मनुष्य को दी है - विवेक और कर्म-स्वातंत्र्य, उनका उपयोग करके ही मनुष्य उचित निर्णय ले सकता है । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की कर्म स्वतंत्रता का सम्मान किया है । वे जानते है कि अर्जुन तीसरी श्रेणी का मनुष्य है । उसने उनकी बात को बड़ी एकाग्रता से सुना है । अब वह अपने विवेक के अनुसार क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय ले सकता है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गुह्य से भी गुह्य ज्ञान दिया है । इस ज्ञान को देने का उनका उद्देश्य था - अर्जुन के अज्ञान को नष्ट करना । अज्ञान के कारण ही तो अर्जुन मोहग्रस्त होकर विषाद की अवस्था में चला गया था । अज्ञान तभी नष्ट हो सकता है, जब ज्ञान प्रदान करने वाले को हम गंभीरता के साथ और एकाग्र होकर सुने । केवल सुनना ही पर्याप्त नहीं है, उस ज्ञान पर विचार कर उसे अपने जीवन में उतारना महत्वपूर्ण है । जीवन में ज्ञान सभी को उपलब्ध है केवल उसकी विस्मृति हो जाने के कारण हम सही समय पर उसका उपयोग नहीं कर पाते और विषाद की अवस्था में चले जाते हैं । किसी योग्य व्यक्ति (गुरु) से ज्ञान सुनने पर विस्मृत ज्ञान की पुनः स्मृति हो जाती है ।
भगवान कुछ करते नहीं है, वे तो केवल आपकी स्मृति लौटाते हैं । अपने भीतर उपस्थित ज्ञान (विवेक) से हम कर्म स्वतंत्रता से अपने धर्म की पालना कर सकते हैं । स्मृति का अर्थ भूतकाल के घटनाक्रम को याद करना नहीं है । पुरानी घटनाओं को याद कर के तो हम संताप को ही आमंत्रित करते हैं । यहाँ स्मृति से अर्थ है जो कुछ हमने पूर्व में ज्ञान प्राप्त किया है, जिस ज्ञान को हमने सांसारिक क्रिया कलापों में उलझकर भूला दिया है, उसको पुनः उपयोग में लाना । मनुष्य के भीतर प्राप्त ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता, केवल उसकी विस्मृति होती है । विस्मृति का कारण है, सांसारिक पदार्थों और क्रियाओं में ममता कर लेना । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के भीतर उत्पन्न हुए उसी ममत्व को झुठलाया है, जिससे उसे वास्तविक ज्ञान की स्मृति हो आई ।
ममता के वशीभूत होकर अर्जुन कर्म के स्वरूप को भूल गया था । वह ममता में उलझकर कथित ज्ञानियों जैसी बातें करने लगा था । जैसे मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य को और न ही किसी प्रकार के सुख को । इन आतताइयों को मारने पर हमें पाप ही लगेगा । कुल को नष्ट कर हम कुल-धर्म को नष्ट कर देंगे, इससे कुल में पाप बढ़ जाएगा । मैं भीष्म पितामह, गुरु द्रोण आदि को मारना नहीं चाहता, इससे तो अच्छा है भीख माँगकर जीवन निर्वाह करना । विषाद की इस अवस्था में आकर अर्जुन अपना क्षत्रिय धर्म भूल गया है । वह नहीं जानता कि उसका स्वभाव-कर्म क्या है, उसका कर्तव्य क्या है ? यहीं से गीता भगवान श्रीकृष्ण के मुख से प्रस्फुटित होती है, जो अर्जुन को कर्मयोग की स्मृति करा देती है ।
यथार्थ में गीता कर्म-शास्त्र है । क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए और क्यों करना चाहिए ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर श्रीकृष्ण ने इस शास्त्र में दिए हैं । गीता कर्म करने से पहले व्यक्ति की पात्रता निश्चित करती है । बिना पात्रता के कोई भी व्यक्ति कर्म करने को उद्यत ही नहीं होगा । किसी कारण से कर्म का स्वरूप जाने बिना कोई कर्म करता भी है तो वह उल्टे-सीधे कर्म करेगा या कर्म को बीच में ही अपूर्ण छोड़ देगा । इसी की स्मृति दिलाने के लिए भगवान ने अर्जुन को कर्म के स्वरूप को स्पष्ट किया है । अकर्म, निष्काम कर्म और विकर्म के भेद को स्पष्ट करते हुए अन्त में सब कुछ अर्जुन पर छोड़ दिया कि वह विचार कर अपनी पात्रता के अनुसार उचित कर्म करे ।
कर्म के स्वरूप का ज्ञान कराने से पूर्व भगवान ने स्वरूप के बोध के लिए सांख्य-योग कहा है । बोध से अर्थ है, आत्म-अनात्म का ज्ञान । ‘शरीर को ही स्वरूप समझने’ से विमुख होकर ‘स्वयं के वास्तविक स्वरूप’ को जानने का नाम ही आत्म-बोध है । गीता के दूसरे अध्याय में अपनी बात शुरू करते हुए भगवान ने देह-देही के अंतर को स्पष्ट करते हुए अर्जुन को उसकी अनश्वरता के बारे में आश्वस्त किया है । केवल देह मरती है, देही नहीं । देह के रूप में जन्म लेने वाले की देह का मरना निश्चित है और मरने वाली देह का दूसरा जन्म होना निश्चित है । यथार्थ में न तो कोई मरता है, न ही कोई मार सकता है । इस प्रकार अर्जुन को विषाद से बाहर निकालने का भगवान प्रयास करते हैं जिससे उसे स्पष्ट हो जाए कि मनुष्य का स्वरूप यह शरीर नहीं है बल्कि वह उससे भिन्न है, अनश्वर है ।
जब तक आत्म-बोध नहीं होता, तब तक कर्म स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है । बोध ही तो विवेक है, जो करने और न करने के मध्य के अन्तर का ज्ञान कराता है । कर्म स्वतंत्रता का सदुपयोग मनुष्य तभी कर पाता है, जब उसका विवेक जाग्रत हो जाए अन्यथा तो प्रायः इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग ही होता है ।
अपने स्वरूप का बोध कराने के साथ गीता आचरण को भी महत्व देती है । स्वरूप के ज्ञान को केवल सैद्धांतिक ही न मानें बल्कि उसको आचरण में लाना भी आवश्यक है । यही अध्यात्म है । कोरी स्वरूप के संबंध में बातें कहना, सुनना ही अध्यात्म नहीं है । कर्म-स्वतंत्रता उन्हीं के लिए है, जो आत्म- बोध को उपलब्ध हो चुके है । दूसरे अध्याय में ही अर्जुन को आत्म-बोध हो गया था तभी तो वह आगे युद्ध की बात न करके अपने कल्याण की बात करने लगा है । आत्म- बोध होने के बाद ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग कहा है और उसे कर्मों को करने के लिए प्रेरित किया है ।
बिना बोध के मनुष्य में कर्तापन का अहंकार रहता है । आत्म-बोध ही मनुष्य को कर्मफल के उत्तरदायित्व से मुक्त करता है । श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में अर्जुन को कभी भी बाध्य नहीं किया कि तुम्हें ऐसा करना ही होगा । यही उनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को दी गई कर्म-स्वतंत्रता का सम्मान करना है । गीता ज्ञान के समापन से पूर्व उन्होंने अर्जुन को कभी योगी होने का कहा है, कहीं भक्त होने का कहा है, लेकिन आदेशात्मक रूप से कुछ भी करने के लिए बाध्य नहीं किया कि तुम्हें ऐसा करना ही होगा । यथार्थ को स्पष्ट करते हुए केवल इतना ही कहा है कि अर्जुन उनकी कही गई बातों पर विचार करे और आगे क्या करना है, इसका निर्णय वह स्वयं करे ।
आज के मनुष्य का अपनी इच्छाओं पर कोई नियंत्रण नहीं है । वह अपनी इच्छाओं का ग़ुलाम है । इच्छाओं की दासता कर्म-स्वतंत्रता नहीं है । मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए ही कर्म कर रहा है और वह भी बिना कर्म का स्वरूप जाने । और तो और वह अपने द्वारा किए गए कर्मों को उचित भी ठहरा रहा है । आज आवश्यकता इस बात की है कि गीता के शाश्वत ज्ञान को मनुष्य अपने जीवन में उतारे और कर्म-स्वतंत्रता को सही रूप से समझे । अगर हम इस कार्य में असफल रहते हैं तो फिर ईश्वर अपने प्राकृतिक न्याय से उसे ठीक करने को बाध्य होंगे । प्राकृतिक न्याय अर्थात् प्रकृति के सिद्धांतों की अवहेलना करने पर मिलने वाला दण्ड । इतने से भी यदि सुधार नहीं होता और अन्याय अधिक बढ़ जाता है तो फिर परमात्मा को धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतरित होना पड़ता है ।
गीता में श्रीकृष्ण (परमात्मा) ने अर्जुन (मनुष्य) को कर्म-योग के अनुसार आचरण करने पर कर्म-स्वतंत्रता दी है । उचित कर्म करने के लिए उसे ज्ञान, ध्यान, भक्ति आदि मार्गों से प्रेरित किया है । मनुष्य अपने जीवन में एक क्षण के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, इसलिए उसका कर्म से विमुख होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । अपने लाभ-हानि को देखकर अगर कोई कर्म से मुँह मोड़ने का प्रयास भी करता है तो वह उसमें सफल नहीं हो सकता क्योंकि अंततः स्वभाव के अनुसार प्रकृति उससे कर्म करवा ही लेगी । भगवान ने अर्जुन को यही तो कहा था कि तुम क्षत्रिय हो, तेरे स्वभाव में युद्ध लड़ना है । आज मोहवश तुम युद्ध से भागने का प्रयास कर रहे हो परंतु तेरा क्षत्रिय स्वभाव एक दिन तुम्हें युद्ध भूमि में अवश्य ही ले आएगा ।
कर्म कैसे हों ? इसके लिए भगवान अठारहवें अध्याय तक अर्जुन को विभिन्न कोणों से समझाते हैं । जब भगवान समझ जाते हैं कि अर्जुन सचमुच समझ गया है तब सब कुछ उस पर ही छोड़ देते हैं । फिर भी अन्त में भगवान अपनी तरफ़ से सबसे महत्वपूर्ण बात कह ही देते हैं - ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा । यह सुनकर अर्जुन आश्वस्त हो जाता है कि अब जो भी मुझे उचित लगेगा, वह करूँगा क्योंकि परमात्मा ने जो ज्ञान दिया है, उससे मेरा मोह नष्ट हो गया है । मोह ही अज्ञान है । मोह के नष्ट होते ही ज्ञान प्रकट हो जाता है, फिर किसी से अनुचित कर्म हो ही नहीं सकते ।
सार - संक्षेप
श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म के बारे में विस्तार से समझाकर ही युद्ध करने अथवा न करने का निर्णय अर्जुन पर छोड़ दिया था । गीता-ज्ञान से उपजे विवेक का सदुपयोग करने से अर्जुन के सामने स्पष्ट हो गया था कि युद्ध करने अथवा न करने वाला मैं कौन होता हूँ ? जीवन में जो भी परिस्थितियाँ सामने आती है, बिना विचलित हुए समता के साथ उनका सामना करना ही विवेकवान पुरुष का लक्षण है । जीवन में सब कुछ स्वभावानुसार पूर्व में ही निश्चित किया हुआ होता है, ऐसे में युद्ध करने अथवा न करने वाला अर्जुन कौन होता है ? सबसे महत्वपूर्ण बात : प्रकृति द्वारा होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा करना मान लेना ही मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है । इसलिए किसी भी क्रिया के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना अनुचित है ।
‘यथेच्छसि तथा कुरु’ से तात्पर्य है, विवेक का सदुपयोग कर निर्णय लेना । उपरोक्त ज्ञान पर विचार करने के उपरान्त अर्जुन को भी युद्ध करना उचित लगा । विवेक और कर्म-स्वतंत्रता ही निष्काम कर्म की ओर ले जाते हैं । परमात्मा की शरण लेकर ‘फल की इच्छा’ और ‘करने का अभिमान’, इन दोनों से रहित होकर किए जाने वाले कर्म ही युद्ध का परिणाम निश्चित कर देते हैं ।
तभी संजय ने युद्ध समाप्ति से पूर्व ही धृतराष्ट्र को स्पष्ट संदेश दे दिया -
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।
जहां ज्ञान के प्रतीक साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण हैं, जहां कर्मयोगी के प्रतीक गांडीवधारी अर्जुन है जोकि ज्ञान द्वारा प्रशस्त कर्म-मार्ग पर चलने को उद्यत है; वहीं पर श्री (लक्ष्मी, सरस्वती, ऐश्वर्य आदि) है, वहीं पर विजय है, विभूति और ऐश्वर्य है । वही ध्रुव अर्थात् अचल नीति है । संजय कहते हैं - ‘हे राजन् ! मेरा भी यही मत है ।’
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल