Sunday, December 14, 2025

भूख -13

 भूख -13

        एक सुधि पाठक की जिज्ञासा है कि 'संग्रह सूक्ष्म शरीर का भूखा है' इसे पूर्ण रूप से समझ में नहीं आया। इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं।

            विषय-भोग स्थूल शरीर के स्तर पर भोगा जाता है। उस भोग से मिले सुख-दुःख का अनुभव सूक्ष्म शरीर को होता है। जब स्थूल शरीर मर जाता है तब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर का त्याग कर देता है, तब स्थूल शरीर को किसी प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता। विषय-भोग से मिले सुख-दुःख का सूक्ष्म सूक्ष्म शरीर में ही होता है। इसी के आधार पर सूक्ष्म शरीर में ही अधिक भोग मिलने की इच्छा (वासना), विषय के प्रति आशक्ति, व्यक्ति के प्रति मोह, स्थान आदि के प्रति मोह, धन को संग्रहित करने की प्रवृत्ति आदि पैदा होती हैं। ये सभी सूक्ष्म शरीर में एकत्रित होते रहते हैं। दोस्ती के कारण अलग-अलग शरीर त्याग-त्याग रहता है। 

                   मुख्य रूप से हम धन के संग्रह की प्रकृति को ही सूक्ष्म शरीर की भूख कहते हैं। धन कामना अनुचित नहीं है क्योंकि धन से ही हमें स्वस्थ शरीर की आवश्यकता पूरी होती है। जिंदगी की दो हकीकतों को जानते हुए भी हम अंकित बने रहते हैं। पहली हकीकत - इस जीवन में स्टूल धन का भी संग्रह किया गया है, इसे शरीर छोड़ने पर कोई भी अपने साथ नहीं ले सकता। हम भलीभाँति जानते हैं कि धीरे-धीरे हमारे द्वारा अर्जित की गई सामग्री का संग्रह कर लिया गया है, वह हमारे पूरे जीवन के लिए आत्मनिर्भर है, फिर भी हम 'और अधिक, और अधिक' की रट लांग बने हुए हैं। दूसरी वास्तविकता - धन से एकमात्र पदार्थ ही विखंडित किया जा सकता है क्रम-सिद्धांत के अनुसार भगवान ने जन्म से पूर्व ही निश्चित कर रखा है। उस प्रारब्ध से न तो रत्ती भर कम अपॉइंटमेंट है न ही मोर। फिर भी हम जीवन भर धन की तलाश और संग्रह करने में लगे हैं। यह मानसिक भूख नहीं है तो और क्या है? 

          मन सूक्ष्म शरीर का मुख्य अंग है, जो हमें चौरासी के चक्कर में डालता है, वह बाहर यात्रा नहीं देता। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी पर सूक्ष्म शरीर के सूक्ष्म कण पाए जाते हैं।

कल लेख की अगली कड़ी 

मॉन्स्टर - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Saturday, December 13, 2025

भूख -12

 भूख -12

          सांसारिक भूख के बाद बात करते हैं आध्यात्मिक भूख की । अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर मनुष्य ने अहम् के कारण एक अलग संसार बना लिया है, जिसमें आसक्त होकर उसमें फँस गया है । इससे मुक्त होने के लिए उसके भीतर जो छटपटाहट होती है, वह उसकी आध्यात्मिक भूख है । संसार अपरा प्रकृति है और जीव परा प्रकृति के अन्तर्गत है । संसार क्षर है, जीव अक्षर है । क्षर से मुक्त होने के लिए अक्षर अर्थात् जीव की प्रकृति (परा प्रकृति) का ज्ञान होना आवश्यक है । अध्यात्म का यही अर्थ है कि जीव अपने स्वभाव को जाने । अक्षर जीव उस अक्षर परमात्मा का अंश है जिसे उत्तम पुरुष कहा जाता है । स्वयं को जानने के लिए हमें संसार से अपने आपको अलग करना होगा । संसार से अलग होने के लिए अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना होगा तभी हम अहम् से स्वरूप तक पहुंचेंगे । इस प्रकार मनुष्य जीवन की यह आध्यात्मिक भूख उसकी ‘स्वभाव से स्वरूप तक’ की यात्रा कराती है ।

            सांसारिक भूख और आध्यात्मिक भूख, दोनों ही भूख हैं, फिर इनमें अंतर क्या है ? सांसारिक भूख को जितना हम मिटाने की कोशिश करते हैं, वह उतनी ही अधिक भड़कती है । सांसारिक भूख के कारण जीवन अशांति से घिरा रहता है । आध्यात्मिक भूख का पहले तो जाग्रत होना कठिन है और जब जाग्रत हो जाती है तब जीवन में शांति का अवतरण होने लगता है । आध्यात्मिक भूख ऐसी भूख है जिसको मिटाने के प्रयास मात्र से ही जीवन में संतुष्टि का अनुभव होने लगता है । सांसारिक भूख के लिए कितने ही प्रयास कर लें वह आपको सदैव असंतुष्ट ही बनाए रखती है । सांसारिक भूख संसार के भोजन को चाहती है और आध्यात्मिक भूख परमात्मा के भजन को ।

 क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।     

Friday, December 12, 2025

भूख -11

 भूख -11

     अब बात करते हैं, सामाजिक भूख की । भोग और संग्रह के पश्चात् बात आती है, सामाजिक मान-सम्मान की । भोग स्थूल शरीर की भूख है, संग्रह सूक्ष्म शरीर की भूख है और मान-सम्मान की चाह रखना सामाजिक भूख है । जब व्यक्ति के पास संग्रह अधिक हो जाता है, तब वह चाहता है कि समाज में उसकी प्रतिष्ठा हो, समाज से उसे मान-सम्मान मिले, समाज उसकी प्रशंसा करे । प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और प्रशंसा की चाह रखना सबसे बड़ा और ख़तरनाक ज़हर है । सामाजिक भूख को शान्त करने के लिए व्यक्ति भोग और संग्रह से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि ये एक दूसरे के पूरक हैं । सामाजिक स्तर पर इतनी अधिक प्रतिस्पर्धा है कि अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के प्रयास में व्यक्ति कोल्हू का बैल बन जाता है ।

         इस प्रकार सांसारिक भूख के बारे में हमने अल्प रूप से चर्चा की । सांसारिक भूख कंचन, कामिनी और कीर्ति की भूख है । कंचन के संग्रह में लग जाना मानसिक भूख है । कामिनी को भोगने अर्थात् शरीर के सुख की कामना के कारण यह शारीरिक भूख है । कीर्ति की कामना रखना सामाजिक भूख है । कंचन, कामिनी और कीर्ति की भूख तब तक शान्त नहीं हो सकती जब तक हम इस संसार को महत्व देते रहेंगे । संसार दिखता अवश्य है परंतु वास्तव में वह है नहीं । इसी प्रकार कंचन, कामिनी और कीर्ति हमें आकर्षित करती अवश्य है परन्तु उनका अस्तित्व नहीं है, वे स्थाई नहीं है । कंचन अर्थात् धन आने-जाने वाला है, कामिनी का यौवन भी एक दिन ढल जाने वाला है और कीर्ति भी सदैव के लिए नहीं रहेगी ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Thursday, December 11, 2025

भूख -10

 भूख -10 

          वासनामय भूख जब विस्तार पाती है तो मन तक अपना फैलाव कर लेती है । शरीर जब किसी विषय विशेष के प्रति आसक्त होकर क्रिया को करने में असहाय हो जाता है तब व्यक्ति मन में उसी विषय से सुख भोगने के लिए क्रिया (चिन्तन) करने लगता है अर्थात् मन के माध्यम से वह उस क्रिया का सुख लेता रहता है । उस क्रिया से मानसिक सुख तो मिल सकता है परंतु भूख नहीं मिट सकती ।

           शारीरिक भोग की तरह ही मानसिक भोग से भी व्यक्ति कभी तृप्त नहीं हो सकता क्योंकि संसार की वस्तुएँ चाहे स्थूल रूप में हो अथवा काल्पनिक रूप में, भोग के लिए बनी ही नहीं है, वे तो केवल उपयोग के लिए है । जितनी आवश्यकता है, केवल उतनी का ही उपयोग करेंगे तो भूख कभी विस्तारित नहीं होगी ।

          शास्त्रों में शारीरिक भोग से भी मानसिक भोग को अधिक पतन करने वाला बताया है । शारीरिक रूप से तो किसी एक विषय का भोग कर आप कुछ समय के लिए शान्त हो जाते हैं परंतु मानसिक भोग को आप अनिश्चित काल तक सतत भोगते हुए अशान्त बने रहते हैं । शारीरिक भूख को मिटाने के लिए आप इंद्रियों के माध्यम से विषय-भोग करते हुए रस लेते हैं परन्तु मानसिक भूख में आपके सामने विषय नहीं होता, फिर भी आप उसका रस लेते रहते हैं । गीता में भगवान ने कहा है कि इंद्रियों को विषयों से हटाने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता अर्थात् उसकी शरीर और संसार में रसबुद्धि बनी रहती है । (गीता-2/59) । इस प्रकार कहा जा सकता है कि शारीरिक भूख से मानसिक भूख अधिक उग्र और विनाशकारी होती है । 

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Wednesday, December 10, 2025

भूख -9

 भूख -9              

       शरीर की वासना भूख मानसिक भूख है। यह वास्तव में स्थूल शरीर का भूख न क्षत्र सूक्ष्म शरीर का भूख है। दोनों के शरीर की भूख में ज्यादा अंतर नहीं है। मन में किसी वस्तु या पदार्थ की प्रति आसक्ति हो जाती है, तब मानसिक भूख तेज हो जाती है। अभी तक हमने काम-भोग की चर्चा की है। दूसरी वासनामय भूख, संग्रह की भूख है। काम-भोग के बाद इस वासनामय भूख का दूसरा उदाहरण धन का संग्रह करना है। धन का संग्रह करने वाला धन का उपयोग नहीं कर सकता। धन कमाना अनुचित नहीं है बल्कि धन को महत्वपूर्ण मानने के लिए केवल उसका संग्रह करना अनुचित है। धन की आवश्यकता नौकरों के लिए है। आवश्यकता है शेष धन का सदुपयोग करते हुए उसे सद्कार्यों में लगाना देना है। ऐसा करने से धन के संग्रह की भूख ख़त्म हो जाती है। 

       धन के लोभी व्यक्ति के मन में धन ने अपना विशेष स्थान बना लिया है जिससे वह अपने प्रिय का ही संग्रह कर लेता है फिर भी भूखा का खाना ही रह जाता है। वास्तव में धन के त्याग से जो सुख मिलता है, वह धन के संग्रह से नहीं। स्वामीजी कहते हैं कि जिस वस्तु के आकर्षण से जो सुख मिलता है, वह उस वस्तु के ज्ञान से नहीं - यह सिद्धांत है। धन के आकर्षण (लोभ) से जो सुख मिलता है, वह धन के ज्ञान से नहीं।

 क्रमशः 

मॉन्स्टर - डॉ. प्रकाश काछवाल

.. हरिः शरणम् ।।

Tuesday, December 9, 2025

भूख -8

 भूख -8

       सामाजिक वर्जनाएँ और शारीरिक विवशताएँ भले ही पुरुष को स्त्री-भोग से रोक दें फिर भी रूप-रस को भोगने से वह कभी बाज़ नहीं आता । मनुष्य के जीवन की विडम्बना है कि वह विषय- भोग में आकण्ठ डूबा हुआ है । आज तक भोगों से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ है । शरीर की आवश्यकता अनुसार भोज्य पदार्थ सभी को मिलते हैं परंतु जब आवश्यकता मय भूख वासना बन जाती है तब उसका अन्त नहीं आता । विषय-भोग ही जीवन में दुःख का कारण बनते हैं । विषयों की यह तृष्णा ही उसके दुःख का कारण है ।

       या दुस्त्यज्या दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते ।

       तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ।। भागवत - 9/19/16 ।।

      विषयों की तृष्णा ही दुःखों का उद्ग़म स्थान है । मंदबुद्धि लोग बड़ी कठिनाई से इसका त्याग कर सकते हैं । शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन होती जाती है । अतः जो कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र से शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिए ।

      प्रत्येक व्यक्ति यह बात जानता है, फिर भी भोगों से उसका वैराग्य नहीं हो पाता । इसीलिए अष्टावक्र महाराज राजा जनक को कहते हैं - 

        मुक्तिमिच्छासि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज ।

        क्षमार्जवदयातोषसत्यं पियूषवद् भज ।। अ.गी. -1/2।।

हे प्रिय ! यदि तू मुक्ति को चाहता है, तो विषयों को विष के समान त्याग दे और क्षमा, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत के सदृश सेवन कर ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Monday, December 8, 2025

भूख -7

 भूख -7

       पिता की कामना ने पुत्र को समय से पहले बूढ़ा कर दिया । पिता ययाति अपने पुत्र की युवावस्था पाकर कई वर्षों तक काम-सुख भोगता रहा, फिर भी उसको तृप्ति नहीं मिली । काम व्यक्ति को उम्रभर असंतुष्ट बनाए रखता है, संतुष्टि तो कामना रहित होने में है । यह तृप्ति मिलती है - त्याग से । भोग से भला कोई कभी तृप्त हुआ है ? ययाति की युवावस्था उधार की थी इसलिए कई वर्षों तक बनी रही परन्तु समय तो कभी रूकता नहीं, वह तो अपनी गति से भागता जाता है । ययाति युवा रहा परन्तु बढ़ती उम्र ने उसे कुछ सोचने को विवश कर दिया । उसे अपने किए पर बड़ी ग्लानि हुई । उसने देवयानी से अपने पतन की चर्चा की और भोगों से वैराग्य ले लिया । देवयानी से वे कहते हैं - 

        न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।

        हविषा कृष्णवत् र्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। 9/19/14 ।।

विषयों को भोगने से भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती । जिस प्रकार घी की आहुति डालने पर आग और अधिक भड़कती है, वैसे ही भोगों से भोगवासनाएँ और अधिक प्रबल होती है ।

         ययाति ने अपने असमय वृद्ध हुए पुत्र पूरू को उसकी युवावस्था लौटा दी और अपने चार बड़े पुत्रों में राज्य के विभिन्न भाग करके बाँट दिया । सबसे छोटे पुत्र पूरू ने चूँकि उनकी माँग को तत्काल पूरा किया था, उसे सभी संपत्तियां देते हुए अपने राज्य पर अभिषिक्त किया और वन में चले गए ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।