Saturday, July 26, 2025

एकान्त

 एकान्त  

    एकांत और अकेलापन, दोनों एक से प्रतीत होते हुए भी भिन्न हैं । एकांत में मनुष्य व्याकुल नहीं होता परन्तु अकेलापन उसे काट खाने को दौड़ता है । एकांत में एक का भी अन्त हो जाता है, ऐसे में व्यथित कौन हो ? चंचल मन अकेलेपन में सहारे के लिए किसी दूसरे को ढूँढता है जबकि शान्त मन अकेला होने की अवस्था में स्वयं में ही खो जाता है । यही एक का अन्त अर्थात् एकान्त है जहां न कोई विचार है और न ही चिन्तन।

     प्रत्येक प्रकार के चिन्तन से मुक्त होने के लिए मौन होना आवश्यक है, मौन बाहर से भी और भीतर से भी । फिर जो द्रष्टा-भाव पैदा होता है, वही आपको परमात्मा तक ले जाता है । इसी के अनुभव के लिए लेखन से अवकाश ले रहा हूँ । कब तक ? कह नहीं सकता, आगे हरि इच्छा ।

।। हरिः शरणम्।।

Friday, July 25, 2025

यथेच्छसि तथा कुरु

 कर्म-स्वतंत्रता

         संसार में जितने भी जीव है, वे सब पूर्व मानव जीवन में किए गए कर्मों का फल भोगने के लिए ही शरीर धारण किए हुए है । वे अपनी इच्छा से कोई कर्म कर ही नहीं सकते । कई बार हमें लगता है कि कोई पशु अपनी इच्छा से किसी मनुष्य को लात मार रहा है, कोई किसी दूसरे प्राणी को काट रहा है आदि, परंतु ऐसा करना उसकी इच्छा पर तनिक भी निर्भर नहीं है । ऐसा जो भी वह करता है, सब पूर्व मनुष्य जीवन के कर्मों से बने प्रारब्ध के कारण ही करता है । मनुष्य भी इसी प्रकार प्रारब्ध के अधीन होकर बहुत कुछ करता है परन्तु साथ ही उसे अन्य प्राणियों के विपरीत अपनी इच्छा से कर्म करने की स्वतंत्रता भी है ।

    अपनी इच्छा से कर्म करने की स्वतंत्रता मनुष्य को नहीं मिलती तो एक दिन इस संसार कि गति रुक जाती क्योंकि इच्छा से किए गए कर्म जिनका फल उस जीवन में नहीं मिल पाता, वे ही प्रारब्ध बनकर दूसरे शरीर में जाकर फल देते हैं । मनुष्य जीवन में स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतंत्रता से ही चौरासी लाख योनियों में जीव का आवागमन सतत निर्बाध गति से चलता रहता है ।

        यह तो हुआ कर्म स्वतंत्रता का एक पहलू । दूसरी ओर देखें और विचार करें तो अनुभव होता है कि मनुष्य इस कर्म-स्वतंत्रता का सदुपयोग कर अपने मूल स्वरूप तक पहुँचकर सांसारिक आवागमन से मुक्त भी हो सकता है । परंतु ऐसा करना किसी-किसी मनुष्य के लिए ही संभव हो सकता है अन्यथा तो अधिकतर तो संसार के चक्कर में पड़कर अनेक जन्मों में विभिन्न प्राणियों के शरीर धारण करते हुए सुख-दुःख भोगते रहते हैं । परमात्मा ने मनुष्य को रचते ही उसे कर्म-स्वतंत्रता देते हुए कह दिया - ' जैसी तुम्हारी इच्छा, वैसे ही करो'  अर्थात् ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ ।

       भगवान ने इस सृष्टि का सृजन किया । प्रकृति के गुणों से होने वाली विभिन्न क्रियाओं से एक-एक कर बहुत प्रकार के पदार्थ बने । सभी पदार्थ अपने भीतर चल रही विभिन्न क्रियाओं से बनते रहे, बिगड़ते रहे । परमात्मा ने उन पदार्थों में से कुछ में जीवन देकर उन्हें जीव बना दिया । फिर भी उनके बनने-बिगड़ने की आवृति में कोई परिवर्तन नहीं आया । अंततः उन्होंने अपनी माया से मनुष्य नाम का जीव बनाया और उसे केवल प्राकृतिक क्रियाओं के भरोसे ही नहीं छोड़ा बल्कि उसे अपनी इच्छानुसार क्रियाओं को परिवर्तित करने की क्षमता भी दे दी । यही क्रियाएँ उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म कहलाती हैं । अपनी इच्छानुसार की जाने वाली क्रियाओं के कारण उसे जो स्वतंत्रता मिली है, उसे ही कर्म-स्वतंत्रता कहते हैं ।

          मनुष्य की यह कर्म-स्वतंत्रता उसे भोग की ओर भी ले जा सकती है और योग की ओर भी । कर्म स्वतंत्रता का सदुपयोग कर मनुष्य आत्म-बोध को उपलब्ध हो अपने मूल स्वरूप को पा सकता है । उसका मूल स्वरूप है - सच्चिदानन्द अर्थात् वह सत्य है, चैतन्य भी है और सदैव आनंद की अवस्था में रहने वाला भी है ।  प्रश्न है, क्या मनुष्य ने अपनी कर्म-स्वतंत्रता का उपयोग आत्म-बोध के लिए किया है ? जिसने अपनी इस स्वतंत्रता का इस प्रकार सदुपयोग किया है, वह अपने मूल स्वरूप तक पहुँचकर सांसारिक आवागमन से मुक्त  है ।

          प्रश्न है कि इस कर्म-स्वतंत्रता का उपयोग मनुष्य किस प्रकार कर सकता है ? एक दृष्टांत के माध्यम से चर्चा को आगे बढ़ाते हैं ।

              एक मूर्तिकार ने मनुष्य की एक समान तीन मूर्तियां बनाई और उन्हें प्रदर्शन के लिए रखा । तीनों मूर्तियाँ एक ही वजन की, एक जैसी दिखाई देने वाली थी, कहीं कोई रत्ती भर भी अंतर नहीं । प्रदर्शन में कलाकार द्वारा सब दर्शकों से एक ही प्रश्न पूछा - ‘ इन तीनों में से कौन सी मूर्ति सबसे अधिक क़ीमती है ?”  उत्तर देने का इच्छुक दर्शक एक-एक कर तीनों मूर्तियों के पास जाता, उनका गंभीरता से अवलोकन करता और वापस लौट जाता क्योंकि उसे तीनों में जरा सा अंतर भी नज़र नहीं आता । ऐसे में भला क़ीमत का आकलन कैसे हो पाता ? 

               एक-एक कर सभी दर्शक उन तीनों में से किसी एक क़ीमती मूर्ति को छाँटने में असफल रहे । तभी प्रदर्शनी में एक बुद्धिमान दर्शक ने प्रवेश किया । उस दर्शक से भी मूर्तिकार ने वही प्रश्न किया - “ इन तीनों मूर्तियों में से कौन सी मूर्ति सबसे क़ीमती है ?” बुद्धिमान दर्शक ने एक पल के लिए तीनों मूर्तियों को निहारा । सचमुच सभी मूर्तियाँ दिखने में एक समान थी । उनमें से किसी एक मूर्ति को सर्वश्रेष्ठ बताना वाक़ई बड़ा मुश्किल था ।

         उस दर्शक ने एक तिनका उठाया और पहली मूर्ति के एक कान में डाला । रास्ता बंद होने के कारण तिनका आगे नहीं बढ़ा । फिर तिनके को दूसरे कान में डाला । तिनका जरा सा भी आगे नहीं बढ़ा क्योंकि वहाँ भी आगे रास्ता बंद था । उसके बाद उसने उसी तिनके को दूसरी मूर्ति के कान में डाला । तिनके को आगे बढ़ने का रास्ता मिला । आगे बढ़ते-बढ़ते वह तिनका दूसरे कान के पार हो गया । अब उस दर्शक ने तीसरी मूर्ति के कान में तिनका डाला । तिनके को रास्ता मिलता गया और वह आगे बढ़ता गया । इस प्रकार पूरा तिनका उस एक मूर्ति के भीतर प्रवेश कर गया । दर्शक ने मूर्तिकार से कहा कि यह तीसरी मूर्ति सबसे क़ीमती है ।

           बाहर से एक समान दिखाई देने वाली मनुष्य की मूर्तियाँ भी भीतर से भिन्न-भिन्न हो सकती है, यह एक मूर्तिकार की कल्पना है । सोचिए ! उस महान सृजनकर्ता की कल्पना कितनी अद्वितीय होगी जिसने जीता-जागता मनुष्य बनाया, इस बात पर किसी प्रकार की कोई शंका नहीं की जा सकती । 

          मूर्तिकार द्वारा बनाई गई मनुष्य की तीन मूर्तियों की तरह परमात्मा की सर्वोत्तम कृति मानव भी तीन प्रकार के हैं । प्रथम प्रकार के मानव तो अपनी इच्छा से ही सब कुछ करते हैं, किसी की सुनते तक नहीं हैं । दूसरी प्रकार के वे मनुष्य हैं जो सुनते तो सबकी है परंतु उनका करना अपनी सोच के अनुसार ही होता है अर्थात् वे एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से बाहर निकाल देते हैं । वे सुने हुए पर तनिक सा भी विचार नहीं करते । तीसरे प्रकार के मनुष्य विशिष्ट होते हैं । वे ध्यान से सब कुछ सुनते हैं, उस पर विचार करते हैं और फिर उचित निर्णय लेकर अपनी इच्छा से ही सब कुछ करते हैं ।

         तीनों प्रकार के मनुष्य एक समान हैं, तीनों करते भी अपनी इच्छानुसार ही हैं फिर भी तीनों के करने में भिन्नता है और उनके परिणाम भी उन्हें भिन्न-भिन्न मिलते हैं । इससे सिद्ध होता है कि जिस इच्छा से कर्म किए जाते हैं और जैसी करने वाले की क्षमता होती है, इन दोनों बातों के एक समान होते हुए भी कर्म का प्रकार और उसके परिणाम भिन्न-भिन्न होकर व्यक्ति के जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं । हम इन तीनों में से मनुष्य की जिस श्रेणी में आते हैं, हमारा जीवन भी उसी प्रकार का होगा ।

            अर्जुन कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में युद्ध करने अथवा न करने के द्वंद्व में फँसकर विषादग्रस्त हो गया था । इसी उहापोह में उसे युद्ध न करना ही युक्तिसंगत प्रतीत होने लगा था । वह कुरुक्षेत्र के युद्ध से पलायन करता, इससे पहले ही भगवान श्रीकृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा - “अर्जुन ! तुम यह क्या करने जा रहे हो ? युद्ध से पलायन करने का परिणाम जानते हो ? एक क्षत्रिय होकर युद्ध-भूमि में आकर नपुंसक जैसा व्यवहार कैसे कर रहे हो ?”

             भगवान के इसी कटाक्ष ने अर्जुन को भीतर तक बींध दिया । भगवान के द्वारा कहे गए इन शब्दों ने अर्जुन को बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया । “नहीं, मैं नपुंसक नहीं हूँ । नपुंसक नहीं हूँ तो फिर मेरे मस्तिष्क में युद्ध से पलायन करने का विचार ही क्यों आया ? ओह ! मेरे पितामह, मेरे गुरु, मेरे भाई, मेरे सम्बन्धी सब मेरे विरुद्ध युद्ध करने को तैयार है । मैं नपुंसक नहीं हूँ, इसका अर्थ यह तो नहीं है कि मैं अपने प्रियजनों को ही मार डालूँ । नहीं, मैं मेरे प्रियजनों को भूमि के एक टुकड़े को पाने के लिए मार नहीं सकता ।”

              मनुष्य के जीवन में विषाद की अवस्था तभी आती है जब वह जो कुछ करना चाहता है, वैसा चाह कर भी नहीं कर पाता । द्वंद्व की इस अवस्था में उसके द्वारा लिए गए निर्णय प्रायः परिस्थिति के प्रतिकूल (विपरीत)  ही होते हैं । ऐसे समय में किसी मार्गदर्शक का साथ मिल जाए तो व्यक्ति विषाद की अवस्था से बाहर आ सकता है । अर्जुन को साथ मिला भगवान श्रीकृष्ण का, वे उसके सारथी जो थे । 

                  विषादग्रस्त अर्जुन ने अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान की ओर देखा और कहा - “यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् । मेरे लिये जो निश्चित कल्याणकारी हो, वह कहिए । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, इसलिए मुझे शिक्षा दीजिए ।”

             अर्जुन ने भगवान से शिक्षा मांगी, ज्ञान चाहा । फिर श्रीकृष्ण के मुख से जो ज्ञान का अविरल प्रवाह उस युद्ध भूमि पर हुआ वैसा इतिहास में आज तक कहीं और कभी नहीं हुआ । शरीर के जन्मने- मरने से प्रारंभ हुआ ज्ञान कर्म, ध्यान, भक्ति आदि को स्पष्ट करते हुए अपनी सर्वोच्च अवस्था तक पहुँच गया । बीच-बीच में भगवान से अर्जुन प्रश्न कर अपनी शंकाएँ उठाते रहे और श्रीकृष्ण उनके उत्तर देते रहे । अंततः अर्जुन को गुह्य से गुह्यतर ज्ञान मिल गया । 

          ज्ञान का समापन करते हुए भगवान ने अर्जुन को कहा - 

   इति ते ज्ञान माख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं मया ।

   विमृश्यैतदशेषेण  यथेच्छसि तथा कुरु ।। गीता -18/63।।

        हे अर्जुन ! क्या तूने गूढ़ से भी गूढ़ ज्ञान का ध्यानपूर्वक और एकाग्रता से श्रवण किया है ? क्या तेरा मोहजनित अज्ञान नष्ट हो गया है ? क्या तुझे स्मृति प्राप्त हो गई है ? यदि यह सब हुआ है तो तू इस पर विचार कर और जो तुझे उचित लगे वह कर - ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ ।

           अर्जुन भगवान को कहते हैं कि  “यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् । मेरे लिये जो निश्चित कल्याणकारी हो, वह कहिए ।” (गीता -2/7) । बहुत सा ज्ञान देने के उपरांत भगवान अब कह रहे हैं - “यथेच्छसि तथा कुरु” अर्थात् जो उचित लगे, वह कर ।(गीता -18/63) । भगवान ने इतने रास्ते बताकर फिर से अर्जुन को द्वंद्वात्मक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया । ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ तो वे ज्ञान देने से पहले भी कह सकते थे और रथ छोड़ द्वारिका चले जाते । परंतु नहीं, उन्होंने पहले कल्याण के सभी रास्ते बताए और फिर अपनी राह चुनने की स्वतंत्रता अर्जुन को दे दी । 

           पहले से ही अर्जुन कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में अपने सगे-संबंधियों को सामने खड़ा देखकर द्वंद्वात्मक स्थिति में फँसकर विषादग्रस्त है और अब भगवान ने ज्ञान देकर विषाद-मुक्त होने के लिए कह दिया कि तुम्हें जो भी उचित लगे, वह कर । अर्जुन चाहता तो युद्ध से अब भी पलायन कर सकता था अगर उसकी स्थिति प्रथम अथवा द्वितीय श्रेणी के मनुष्य की सी होती । ऐसी स्थिति में अर्जुन होता तो भगवान के कथन को या तो सुनता ही नहीं अथवा सुनता तो भी उसे दूसरे कान से निकाल देता अर्थात् उस पर विचार तक न करता । परन्तु अर्जुन तो तीसरी श्रेणी का मनुष्य है, जो भगवान के कथन पर विचार कर रहा है । अर्जुन उनके कथन पर विचार करते हुए समझ नहीं पा रहा है कि भगवान ने सारा ज्ञान देकर भी ‘उचित लगे, वैसा कर’ कहकर उसे अनिर्णयात्मक स्थिति में लाकर क्यों खड़ा कर दिया ?

           इस प्रश्न का समाधान करने के चलिए जानते है कि मनुष्य की ऐसी कौन सी विशेषताएँ हैं, जो उसे अन्य जीवों से भिन्न बनाती हैं ? 

          आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत्त् पशुभिर्नराणाम् ।

          धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: ।।

आहार, निद्रा, भय और मैथुन, ये सभी चीजें पशुओं और मनुष्य में समान हैं । धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न बनाता है । धर्म के बिना मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है ।

         मनुष्य में आहार, निद्रा, भय और मैथुन से जो अतिरिक्त विशेषता है, वही उसको अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है और वह विशेषता है - धर्म की पालना । धर्म ही मनुष्य जीवन का आधार है, बिना धर्म के मनुष्य बिना सींग पूँछ का पशु ही है । धर्म का अर्थ है कर्तव्य पालन, जो सही हो वही करना । अन्य जीव तो केवल प्रारब्ध के भोग भोगने के लिए कर्म करते हैं परंतु मनुष्य उनके अलावा भी कर्म करने को स्वतंत्र है । परमात्मा ने यह कर्म स्वतंत्रता मनुष्य को अपना धर्म-पालन करने के लिए दी है, जिससे वह अपना कर्तव्य निभा सके ।

            परमात्मा ने कर्म स्वतंत्रता के साथ मनुष्य को धर्म-पालन के लिए दूसरी शक्ति विवेक के रूप में दी है । विवेक के कारण ही मनुष्य को अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है । विवेक का सदुपयोग कर मनुष्य सुख-दुःख से निकलकर आनन्द को उपलब्ध हो सकता है ।

         इस प्रकार परमात्मा ने मनुष्य को विवेक और कर्म-स्वातंत्र्य, ये दो शक्तियाँ विशेष रूप से कृपा करके दी है,  जिससे वह धर्म-पालन करते हुए भोगों से सुख भी प्राप्त करे और निष्काम-कर्म करते हुए भोग-कर्मों में आसक्त भी न हो । भोगों में आसक्त मनुष्य संसार में ही उलझकर रह जाता है और उचित कर्म करने के लिए विवेक का सदुपयोग नहीं कर पाता । 

       पुनः चलते हैं, भगवान द्वारा कहे गए उस कथन की ओर जिसमें वे कहते हैं कि “यथेच्छसि तथा कुरु” अर्थात् जो उचित लगे, वह कर । “यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्”, विषादग्रस्त अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से चाहता है कि वे उसे जो निश्चित कल्याणकारी हो, वह रास्ता दिखाए । गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से लेकर अठारहवें अध्याय के बासठवें श्लोक तक अर्जुन को विभिन्न कल्याणकारी साधन बतलाए परंतु अब कह रहे हैं कि तुम्हें जो उचित लगे वह कर । यह बात तो वे उसी समय कह सकते थे, जब अर्जुन ने उनसे निश्चित कल्याणकारी मार्ग पूछा था । प्रश्न उठता है कि फिर भगवान ने ऐसा क्यों कहा ?

          दो विशेष शक्तियाँ जो भगवान ने मनुष्य को दी है - विवेक और कर्म-स्वातंत्र्य, उनका उपयोग करके ही मनुष्य उचित निर्णय ले सकता है । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की कर्म स्वतंत्रता का सम्मान किया है । वे जानते है कि अर्जुन तीसरी श्रेणी का मनुष्य है । उसने उनकी बात को बड़ी एकाग्रता से सुना है । अब वह अपने विवेक के अनुसार क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय ले सकता है ।

           भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गुह्य से भी गुह्य ज्ञान दिया है । इस ज्ञान को देने का उनका उद्देश्य था - अर्जुन के अज्ञान को नष्ट करना । अज्ञान के कारण ही तो अर्जुन मोहग्रस्त होकर विषाद की अवस्था में चला गया था । अज्ञान तभी नष्ट हो सकता है, जब ज्ञान प्रदान करने वाले को हम गंभीरता के साथ और एकाग्र होकर सुने । केवल सुनना ही पर्याप्त नहीं है, उस ज्ञान पर विचार कर उसे अपने जीवन में उतारना महत्वपूर्ण है । जीवन में ज्ञान सभी को उपलब्ध है केवल उसकी विस्मृति हो जाने के कारण हम सही समय पर उसका उपयोग नहीं कर पाते और विषाद की अवस्था में चले जाते हैं । किसी योग्य व्यक्ति (गुरु) से ज्ञान सुनने पर विस्मृत ज्ञान की पुनः स्मृति हो जाती है ।

        भगवान कुछ करते नहीं है, वे तो केवल आपकी स्मृति लौटाते हैं । अपने भीतर उपस्थित ज्ञान (विवेक) से हम कर्म स्वतंत्रता से अपने धर्म की पालना कर सकते हैं । स्मृति का अर्थ भूतकाल के घटनाक्रम को याद करना नहीं है । पुरानी घटनाओं को याद कर के तो हम संताप को ही आमंत्रित करते हैं । यहाँ स्मृति से अर्थ है  जो कुछ हमने पूर्व में ज्ञान प्राप्त किया है, जिस ज्ञान को हमने सांसारिक क्रिया कलापों में उलझकर भूला दिया है, उसको पुनः उपयोग में लाना । मनुष्य के भीतर प्राप्त ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता, केवल उसकी विस्मृति होती है । विस्मृति का कारण है, सांसारिक पदार्थों और क्रियाओं में ममता कर लेना । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के भीतर उत्पन्न हुए उसी ममत्व को झुठलाया है, जिससे उसे वास्तविक ज्ञान की स्मृति हो आई ।

             ममता के वशीभूत होकर अर्जुन कर्म के स्वरूप को भूल गया था । वह ममता में उलझकर कथित ज्ञानियों जैसी बातें करने लगा था । जैसे मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य को और न ही किसी प्रकार के सुख को । इन आतताइयों को मारने पर हमें पाप ही लगेगा । कुल को नष्ट कर हम कुल-धर्म को नष्ट कर देंगे, इससे कुल में पाप बढ़ जाएगा । मैं भीष्म पितामह, गुरु द्रोण आदि को मारना नहीं चाहता, इससे तो अच्छा है भीख माँगकर जीवन निर्वाह करना । विषाद की इस अवस्था में आकर अर्जुन अपना क्षत्रिय धर्म भूल गया है । वह नहीं जानता कि उसका स्वभाव-कर्म क्या है, उसका कर्तव्य क्या है ? यहीं से गीता भगवान श्रीकृष्ण के मुख से प्रस्फुटित होती है, जो अर्जुन को कर्मयोग की स्मृति करा देती है ।

       यथार्थ में गीता कर्म-शास्त्र है । क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए और क्यों करना चाहिए ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर श्रीकृष्ण ने इस शास्त्र में दिए हैं । गीता कर्म करने से पहले व्यक्ति की पात्रता निश्चित करती है । बिना पात्रता के कोई भी व्यक्ति कर्म करने को उद्यत ही नहीं होगा । किसी कारण से कर्म का स्वरूप जाने बिना कोई कर्म करता भी है तो वह उल्टे-सीधे कर्म करेगा या कर्म को बीच में ही अपूर्ण छोड़ देगा । इसी की स्मृति दिलाने के लिए भगवान ने अर्जुन को कर्म के स्वरूप को स्पष्ट किया है । अकर्म, निष्काम कर्म और विकर्म के भेद को स्पष्ट करते हुए अन्त में सब कुछ अर्जुन पर छोड़ दिया कि वह विचार कर अपनी पात्रता के अनुसार उचित कर्म करे । 

      कर्म के स्वरूप का ज्ञान कराने से पूर्व भगवान ने स्वरूप के बोध के लिए सांख्य-योग कहा है । बोध से अर्थ है, आत्म-अनात्म का ज्ञान । ‘शरीर को ही स्वरूप समझने’ से विमुख होकर ‘स्वयं के वास्तविक स्वरूप’ को जानने का नाम ही आत्म-बोध है । गीता के दूसरे अध्याय में अपनी बात शुरू करते हुए भगवान ने देह-देही के अंतर को स्पष्ट करते हुए अर्जुन को उसकी अनश्वरता के बारे में आश्वस्त किया है । केवल देह मरती है, देही नहीं । देह के रूप में जन्म लेने वाले की देह का मरना निश्चित है और मरने वाली देह का दूसरा जन्म होना निश्चित है । यथार्थ में न तो कोई मरता है, न ही कोई मार सकता है । इस प्रकार अर्जुन को विषाद से बाहर निकालने का भगवान प्रयास करते हैं जिससे उसे स्पष्ट हो जाए कि मनुष्य का स्वरूप यह शरीर नहीं है बल्कि वह उससे भिन्न है, अनश्वर है ।

       जब तक आत्म-बोध नहीं होता, तब तक कर्म स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है । बोध ही तो विवेक है, जो करने और न करने के मध्य के अन्तर का ज्ञान कराता है । कर्म स्वतंत्रता का सदुपयोग मनुष्य तभी कर पाता है, जब उसका विवेक जाग्रत हो जाए अन्यथा तो प्रायः इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग ही होता है ।

         अपने स्वरूप का बोध कराने के साथ गीता आचरण को भी महत्व देती है । स्वरूप के ज्ञान को केवल  सैद्धांतिक ही न मानें बल्कि उसको आचरण में लाना भी आवश्यक है । यही अध्यात्म है । कोरी स्वरूप के संबंध में बातें कहना, सुनना ही अध्यात्म नहीं है । कर्म-स्वतंत्रता उन्हीं के लिए है, जो आत्म- बोध को उपलब्ध हो चुके है । दूसरे अध्याय में ही अर्जुन को आत्म-बोध हो गया था तभी तो वह आगे युद्ध की बात न करके अपने कल्याण की बात करने लगा है । आत्म- बोध होने के बाद ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग कहा है और उसे कर्मों को करने के लिए प्रेरित किया है । 

            बिना बोध के मनुष्य में कर्तापन का अहंकार रहता है । आत्म-बोध ही मनुष्य को कर्मफल के उत्तरदायित्व से मुक्त करता है । श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में अर्जुन को कभी भी बाध्य नहीं किया कि तुम्हें ऐसा करना ही होगा । यही उनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को दी गई कर्म-स्वतंत्रता का सम्मान करना है । गीता ज्ञान के समापन से पूर्व उन्होंने अर्जुन को कभी योगी होने का कहा है, कहीं भक्त होने का कहा है, लेकिन आदेशात्मक रूप से कुछ भी करने के लिए बाध्य नहीं किया कि तुम्हें ऐसा करना ही होगा । यथार्थ को स्पष्ट करते हुए केवल इतना ही कहा है कि अर्जुन उनकी कही गई बातों पर विचार करे और आगे क्या करना है, इसका निर्णय वह स्वयं करे ।

         आज के मनुष्य का अपनी इच्छाओं पर कोई नियंत्रण नहीं है । वह अपनी इच्छाओं का ग़ुलाम है । इच्छाओं की दासता कर्म-स्वतंत्रता नहीं है । मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए ही कर्म कर रहा है और वह भी बिना कर्म का स्वरूप जाने । और तो और वह अपने द्वारा किए गए कर्मों को उचित भी ठहरा रहा है । आज आवश्यकता इस बात की है कि गीता के शाश्वत ज्ञान को मनुष्य अपने जीवन में उतारे और कर्म-स्वतंत्रता को सही रूप से समझे । अगर हम इस कार्य में असफल रहते हैं तो फिर ईश्वर अपने प्राकृतिक न्याय से उसे ठीक करने को बाध्य होंगे । प्राकृतिक न्याय अर्थात् प्रकृति के सिद्धांतों की अवहेलना करने पर मिलने वाला दण्ड । इतने से भी यदि सुधार नहीं होता और अन्याय अधिक बढ़ जाता है तो फिर परमात्मा को धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतरित होना पड़ता है ।

         गीता में श्रीकृष्ण (परमात्मा) ने अर्जुन (मनुष्य) को कर्म-योग के अनुसार आचरण करने पर कर्म-स्वतंत्रता दी है । उचित कर्म करने के लिए उसे ज्ञान, ध्यान, भक्ति आदि मार्गों से प्रेरित किया है । मनुष्य अपने जीवन में एक क्षण के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, इसलिए उसका कर्म से विमुख होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । अपने लाभ-हानि को देखकर अगर कोई कर्म से मुँह मोड़ने का प्रयास भी करता है तो वह उसमें सफल नहीं हो सकता क्योंकि अंततः स्वभाव के अनुसार प्रकृति उससे कर्म करवा ही लेगी । भगवान ने अर्जुन को यही तो कहा था कि तुम क्षत्रिय हो, तेरे स्वभाव में युद्ध लड़ना है । आज मोहवश तुम युद्ध से भागने का प्रयास कर रहे हो परंतु तेरा क्षत्रिय स्वभाव एक दिन तुम्हें युद्ध भूमि में अवश्य ही ले आएगा ।

           कर्म कैसे हों ? इसके लिए भगवान अठारहवें अध्याय तक अर्जुन को विभिन्न कोणों से समझाते हैं । जब भगवान समझ जाते हैं कि अर्जुन सचमुच समझ गया है तब सब कुछ उस पर ही छोड़ देते हैं । फिर भी अन्त में भगवान अपनी तरफ़ से सबसे महत्वपूर्ण बात कह ही देते हैं - ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा । यह सुनकर अर्जुन आश्वस्त हो जाता है कि अब जो भी मुझे उचित लगेगा, वह करूँगा क्योंकि परमात्मा ने जो ज्ञान दिया है, उससे मेरा मोह नष्ट हो गया है । मोह ही अज्ञान है । मोह के नष्ट होते ही ज्ञान प्रकट हो जाता है, फिर किसी से अनुचित कर्म हो ही नहीं सकते । 

सार - संक्षेप 

                   श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म के बारे में विस्तार से समझाकर ही युद्ध करने अथवा न करने का निर्णय अर्जुन पर छोड़ दिया था । गीता-ज्ञान से उपजे विवेक का सदुपयोग करने से अर्जुन के सामने स्पष्ट हो गया था कि युद्ध करने अथवा न करने वाला मैं कौन होता हूँ ? जीवन में जो भी परिस्थितियाँ सामने आती है, बिना विचलित हुए समता के साथ उनका सामना करना ही विवेकवान पुरुष का लक्षण है । जीवन में सब कुछ स्वभावानुसार पूर्व में ही निश्चित किया हुआ होता है, ऐसे में युद्ध करने अथवा न करने वाला अर्जुन कौन होता है ? सबसे महत्वपूर्ण बात : प्रकृति द्वारा होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा करना मान लेना ही मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है । इसलिए किसी भी क्रिया के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना अनुचित है ।

            ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ से तात्पर्य है, विवेक का सदुपयोग कर निर्णय लेना । उपरोक्त ज्ञान पर विचार करने के उपरान्त अर्जुन को भी युद्ध करना उचित लगा । विवेक और कर्म-स्वतंत्रता ही निष्काम कर्म की ओर ले जाते हैं । परमात्मा की शरण लेकर ‘फल की इच्छा’ और ‘करने का अभिमान’, इन दोनों से रहित होकर किए जाने वाले कर्म ही युद्ध का परिणाम निश्चित कर देते हैं ।

             तभी संजय ने युद्ध समाप्ति से पूर्व ही धृतराष्ट्र को स्पष्ट संदेश दे दिया -

    यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।

    तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।

    जहां ज्ञान के प्रतीक साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण हैं, जहां कर्मयोगी के प्रतीक गांडीवधारी अर्जुन है जोकि ज्ञान द्वारा प्रशस्त कर्म-मार्ग पर चलने को उद्यत है; वहीं पर श्री (लक्ष्मी, सरस्वती, ऐश्वर्य आदि) है, वहीं पर विजय है, विभूति और ऐश्वर्य है । वही ध्रुव अर्थात् अचल नीति है । संजय कहते हैं - ‘हे राजन् ! मेरा भी यही मत है ।’

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल


Thursday, July 10, 2025

गुरु - पूर्णिमा

            महाभारतकालीन सत्यवती, एक मत्स्य कन्या थी क्योंकि उसका जन्म एक मछली के गर्भ से हुआ था । इन्हें मत्स्यगंधा भी कहा जाता है क्योंकि इनके शरीर से मछली की गंध आती थी । एक मछुआरे ने इनका लालन-पालन किया । युवती हो जाने पर वह नाव चलाकर लोगों को यमुना नदी के आर-पार लाती ले जाती थी । एक बार ऋषि पराशर उनकी नाव में पार जाने के लिए बैठे । सत्यवती के शरीर से निकलने वाली मछली की गन्ध को उन्होंने अपने तप के प्रभाव से दूर कर दिया । इसी यात्रा में ऋषि पराशर के मिलन से सत्यवती गर्भवती हो गई । उस गर्भ से जिस बालक का जन्म हुआ उसका नाम श्रीकृष्ण द्वैपायन था जो बाद में वेद व्यास नाम से प्रसिद्ध हुए । वेद व्यास जी का जन्म एक द्वीप पर हुआ था और जन्म से वे कृष्ण वर्ण थे, इस कारण इनका नाम श्रीकृष्ण द्वैपायन पड़ा । वेद व्यासजी सात चिरंजीवियों में से एक है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि वे आज भी इस पृथ्वी पर जीवित हैं ।

            उनका जन्म आषाढ़ मास की पूर्णिमा को हुआ था । उनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण इस दिन को गुरु-पूर्णिमा भी कहा जाता है । उन्होंने अपनी प्रतिभा से जो ग्रंथ लिखे, वे आज सनातन धर्म के आधार ग्रंथ हैं । उन्होंने वेदों का संकलन, मीमांसा, ब्रह्म-सूत्र, अठारह पुराण, महाभारत महाकाव्य आदि कई ग्रंथ लिखे ।  

         गुरु-पूर्णिमा के दिन गुरु-पूजन किया जाता है । गुरु ही मनुष्य को उसके जीवन का उद्देश्य बताते हुए मार्गदर्शन करते हैं । आज आदर्श गुरु मिलने असंभव से होते जा रहे हैं । यही कारण है कि समाज को सही दिशा नहीं मिल पा रही है । जिस दिन गुरु सही मायने में गुरु हो जाएंगे और शिष्य उनके प्रति श्रद्धा, निष्ठा रखते हुए पूर्ण रूप से समर्पित हो जाएगा, उस दिन सनातन संस्कृति पुनः अपने सर्वोच्च शिखर को छू लेगी ।

              कलयुग में सच्चा गुरु वह है जो शास्त्रों के ज्ञान के आधार पर भक्ति का मार्गदर्शन करता है । शास्त्रों का पूर्ण ज्ञाता होने के साथ-साथ गुरु को अनुभव सिद्ध भी होना चाहिए । अनुभव सिद्ध गुरु ही सत्य का मार्ग दिखा सकता है । गुरु ही शिष्य को मोक्ष की ओर ले जा सकता है जिससे वह सांसारिक आवागमन से मुक्त हो जाता है । गुरु ही व्यक्ति को मर्यादा में रहकर भक्ति करने का संदेश देता है ।

              आइए ! गुरु-पूर्णिमा के दिन हम सब संकल्प करें कि गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान को अपने जीवन में उतारें । सही अर्थों में यही गुरु की पूजा होगी । आप सभी को गुरु - पूर्णिमा की शुभकामनाएं ।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

बंदऊँ गुरु पदकंज

 बंदऊँ गुरु पदकंज

“सा विद्या या विमुक्तये - ज्ञान वही है जो मनुष्य को मुक्त कर दे ।” (विष्णु पुराण - 1/19/41)

           ज्ञान और विवेक, ये दो शब्द मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । सभी मनुष्यों में जन्म-जात दोनों ही होते हैं । ज्ञान ही विवेक में परिवर्तित होता है, जिसमें गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । ज्ञान मनुष्य के सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवन में उपयोगी है परंतु विवेक उसे मनुष्य-जीवन के उद्देश्य से परिचित कराता है । जिस प्रकार चाक से घड़ा बन सकता है परन्तु उस घड़े को निखार देकर उपयोगी बनाने में कुम्हार की विशेष भूमिका रहती है, उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त मनुष्य में विवेक जाग्रत करने में गुरु की आवश्यकता होती है । 

            ज्ञान तो अनेक शास्त्रों में भरा पड़ा है । उस ज्ञान को उपयोगी बनाकर अनुभव करना मुख्य बात है । गुरु शास्त्रों का ज्ञाता भी होता है और अनुभव सिद्ध भी । ऐसा गुरु आपकी अंगुली पकड़ कर उस दिशा का ज्ञान करा देगा, जिसका हमें अभी तक ज्ञान नहीं है । उस दिशा में चल पड़ना ही विवेक है । केवल गुरु को सुनना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि सुने हुए को जीवन में उतारना महत्वपूर्ण है । गुरु आपके साथ नहीं चलेगा, उस मार्ग पर चलना आपको ही पड़ेगा । गुरु स्वयं के साथ आपको नहीं बाँधेगा उलटे आपको मुक्त कर देगा । इसलिए आदर्श गुरु मिलने को गोविंद का मिल जाना कहा गया है ।

          आज गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर हम सबको अपने गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए उनके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए । गुरु का अर्थ है - जो आपके अज्ञान रूपी अंधकार का नाश कर आपको ज्ञान रूपी प्रकाश से सरोबार कर दे । गुरु इसीलिए वंदनीय है । तुलसी मानस में बालकाण्ड के प्रारम्भ में गुरु-वन्दना करते हुए कहते हैं -

बंदऊँ गुरु पदकंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ।। सोरठा -5 ।।

     मैं उन गुरु महाराज के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में साक्षात् श्री हरि ही है और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं ।

          इस जीवन में कई आध्यात्मिक महापुरुषों का सानिध्य मिला परन्तु भीतर की मुमुक्षा को हरिः शरणम् के आचार्य श्री गोविन्दराम जी शर्मा ने पहचान कर आगे की यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया है, ऐसा कार्य कोई आदर्श गुरु ही कर सकता है । उनके मार्गदर्शन से आंतरिक-परिवर्तन को जो गति मिली है, उसको व्यक्त करने के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्दों का अभाव है । उनका स्मरण, उनके प्रति आदर भाव प्रातः जागने से लेकर रात को सोने तक तो सदैव बना ही रहता है, साथ ही साथ बढ़ता भी जा रहा है । आज गुरु-पूर्णिमा के पावन अवसर पर उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुए मैं स्वयं को रोमांचित अनुभव कर रहा हूँ ।

।। हरिः शरणम् ।।

डॉ. प्रकाश काछवाल

          

Wednesday, July 9, 2025

यत् दृष्टं तत् नष्टं (यद्दृष्टंतन्नष्टं)

 ‘यत् दृष्टं तत् नष्टं’ 

                 आदि कैलाश ॐ पर्वत की सप्त दिवसीय यात्रा में जो कुछ भी हमने देखा, क्या वह सदा के लिए रहने वाला है ? हमें इतने जीव इस संसार में दिख रहे हैं क्या वे भी सदा के लिए रहने वाले हैं ?  हमारा यह शरीर, जिसको हम इतना सजाते-संवारते है, क्या यह कभी मरेगा नहीं ? तनिष्क ज्वेलर्स अपने विज्ञापन में कहते हैं - “हीरा है, सदा के लिए” पर क्या हीरा (Diamond) सदा के लिए है ?

       जब यहां जो भी दिखलाई पड़ रहा है, वह सब जाने वाला है तो फिर यहाँ रहने वाला कौन है ? जो जाने वाला है, वह सब असत् है और जो सदैव रहने वाला है उसे सत् कहा जाता है । असत् दिखलाई पड़ रहा है और सत् अदृश्य है । ॐ सत् है लेकिन ‘ॐ पर्वत’ सत् नहीं है, कैलाशपति सत् है पर ‘आदि कैलाश पर्वत’ नहीं, हम सत् हैं परंतु हमारा यह शरीर नहीं ।  

           जो भौतिक दृष्टि की पकड़ में आता है, वह सब नाशवान है । प्रत्येक पर्वत (आदि कैलाश हो चाहे ॐ पर्वत ) नाशवान है । संसार की प्रत्येक वस्तु प्रतिदिन नाश की ओर अग्रसर है । जो प्रतिपल नष्ट होता जा रहा हो और साथ ही स्पष्ट रूप से दिखलाई भी पड़ रहा हो, उसके शाश्वत होने का भ्रम हो जाना स्वाभाविक है । नाशवान की इस दिखलाई पड़ने वाली इस सत्ता का क्या कारण है अर्थात् असत् की दिखलाई पड़ने वाली इस सत्ता के पीछे किसकी भूमिका है ? जब तक हम दिखाई देने वाली प्रत्येक वस्तु की सत्ता के पीछे छिपे वास्तविक सत्तावान को नहीं देखेंगे तब तक हम सुषुप्त अवस्था में ही रहेंगे । वास्तव में असत् की दिखलाई पड़ने वाली वह सत्ता उसी अविनाशी के कारण है ।

            हम जाग्रत तो हैं परंतु केवल भौतिक रूप से, तभी तो विनाशशील के पीछे छिपे अविनाशी को नहीं देख पा रहे हैं । जिस दिन धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे विनाशशील में भी अविनाशी को देखने लगेंगे, उसके बाद चहूँ ओर उस एक के ही दर्शन होंगे, जो कभी भी नष्ट नहीं होता । 

       ‘यत् दृष्टं तत् नष्टं’ अर्थात् जो दिखलाई पड़ रहा है, वह सब नष्ट होने वाला है । 

यह या वह 

       एक राज्य का इकलौता राजकुमार रोगग्रस्त होकर मृत्यु शैया पर पहुँच गया । राजा-रानी ने बहुत चिकित्सा करवाई, आस-पास के राज्यों से नामी-गिरामी चिकित्सकों तक को बुलवा लिया, उन्हें बहुत क़ीमती पुरस्कारों का लालच भी दिया परन्तु राजकुमार की बीमारी कम होने के स्थान पर बढ़ती ही चली गई । एक दिन राजवैद्य ने क्षमा माँगते हुए कह दिया कि आज की रात राजकुमार के जीवन की अंतिम रात है । शोकग्रस्त राजा-रानी ने राजकुमार की इस अंतिम रात को उसकी शैया के पास ही बैठकर बिताने का निश्चय किया ।

             इंतज़ार की घड़ियाँ बड़ी लम्बी होती है । भौतिक शरीर की भी जागते रहने की अपनी क्षमता होती है । दिन भर के थके राजा की आंख लग गई । राजा स्वप्नावस्था में चले गए । सपना भी मनुष्य को वही आता है, जिसका दिन भर चिन्तन चलता रहता हो । सपने में भी राजा, राजा ही बना हुआ है और उस राजा के चार सुन्दर राजकुमार है । सपने वाला राजा अपने राजमहल में रानी के साथ आमोद-प्रमोद में व्यस्त हैं । पास ही चारों राजकुमार खेल रहे हैं । राजकुमारों की आपस में हो रही नोंक-झोंक को देखकर दोनों मुदित हो रहे हैं । अचानक एक राजकुमार किसी बात को लेकर बड़ी ज़ोर से रोने लगता है । रोने की तेज आवाज़ सुनकर स्वप्न देख रहा राजा चौंककर नीन्द से जाग जाता है ।

             सामने शैया पर राजकुमार की मृत देह पड़ी है और उस के पास बैठी रानी विलाप कर रही है । राजा कभी मृत राजकुमार को देखता है, कभी विलाप करती रानी को और कभी मन ही मन में अपने सपने वाले राजकुमारों को । रानी तो रो रही है और पास ही राजा किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ बैठा है । रानी झिंझोड़ कर राजा को कहती है कि अपना इकलौता बेटा चला गया और आप रो नहीं रहे हैं । संज्ञा शून्य हो कर क्यों बैठे हो ?  इस पर राजा ने बड़ी मार्मिक बात कही - ‘ इस एक राजकुमार के लिए रोऊँ या उन चार राजकुमारों के लिए, जो अभी-अभी मेरे पास खेल रहे थे ।’ रानी के बात समझ में आई अथवा नहीं, पर राजा के समझ में अवश्य आ गई कि ‘यद्दृष्टंतन्नष्टं - जो दिखाई देता है, वह सब नष्ट होने वाला है ।’

          जो कुछ भी हमारे द्वारा देखा जाता है, वह सब नाशवान है । स्वप्न में भी और जाग्रत अवस्था में, दोनों ही प्रकार के दिखने में कोई अन्तर नहीं है । स्वप्न हम देखते ही इसलिए हैं कि जीवन में किसी चीज़ का अभाव है । वास्तविक जीवन में उस अभाव की पूर्ति नहीं हो पाती, उस अभाव को हम सपने में पूरा कर लेते हैं । सपने में अभाव का दूर होना हो अथवा वास्तविक जीवन में हो, वह सब फिर से अभाव में जाने वाला है । इसलिए कहा गया है कि जो भी देखा जाता है, वह सब नाशवान है । 

            मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह दृश्य को द्रष्टा भाव से न देखकर उसको शरीर के आधार पर देखता है । शरीर में इंद्रियाँ है और इंद्रियों की दृष्टि से दिखलाई पड़ने वाला प्रत्येक दृश्य आपको अपने साथ बांध लेता है । मनुष्य प्रत्येक दृश्य से राग/द्वेष करने लगता है । यही आसक्ति उसके सांसारिक बंधन का कारण बनती है । सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि स्वप्न में देखे गए दृश्य भी मनुष्य को भ्रमित कर देते हैं । आइए ! पहले यह जानने का प्रयास करते हैं कि स्वप्न और जाग्रत, दोनों अवस्थाओं की दृष्टि में मूलभूत अन्तर क्या है ?

          आध्यात्मिक रूप से देखा जाए तो दोनों अवस्थाओं में तनिक भी अंतर नहीं है । जाग्रत अवस्था में मनुष्य की दृष्टि में आने वाली प्रत्येक वस्तु स्थूल रूप में ही होती है और उसको स्थूल इंद्रियों के माध्यम से छूकर, देखकर, सूंघकर, चख कर अथवा सुनकर अनुभव किया जा सकता है । स्वप्न में दिखलाई देने वाली प्रत्येक वस्तु स्थूल रूप से उपस्थित न होते हुए भी स्थूल रूप में ही दिखती है परन्तु उसको केवल मन के द्वारा ही अनुभव किया जाता है और मन के इस अनुभव में सूक्ष्म इंद्रियों की भूमिका रहती है । सूक्ष्म इंद्रियों की क्रियाओं की प्रतिक्रिया स्वप्न देख रहे व्यक्ति की स्थूल इंद्रियों में भी प्रतिबिम्बित होती है । जैसे स्वप्न में फुटबॉल खेल रहे व्यक्ति के पैर में हो रही गति बाहर शरीर के पैर में भी देखी जा सकती है । कई बार तो सपने में गोल करने का अवसर मिलने पर वास्तविक पैर भी किक मार देता है । 

                स्वप्न में वस्तु के स्थूल रूप से अनुपस्थित होते हुए भी स्थूल इंद्रियों में प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी जाग्रत अवस्था में उस वस्तु को अनुभव करने से होती है । यही कारण है कि स्वप्न में देखे गए घटनाक्रम को भी मनुष्य वास्तविक समझ लेता है, जबकि उसका वास्तविकता से दूर का भी सम्बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार वास्तविक जीवन में भी जो कुछ देखा जाता है, उसके शाश्वत होने का भ्रम ही होता है । देखा जाने वाला सब कुछ नाश की ओर जा रहा है । ऐसा क्यों और कैसे होता है ? आइए ! इसके पीछे के विज्ञान को जानने का प्रयास करते हैं ।

              प्रत्येक स्थूल वस्तु का निर्माण पदार्थ से होता है । पदार्थ प्रकृति में सतत चल रही क्रियाओं का परिणाम है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक पदार्थ अथवा वस्तु क्रिया के कारण ही अस्तित्व में आते हैं और यह क्रिया उस पदार्थ के भीतर भी सतत चलती रहती है । इन क्रियाओं के कारण ही पदार्थ प्रतिपल अपना स्वरूप परिवर्तित करता रहता है । यह परिवर्तन प्रायः इतनी धीमी गति से होता है कि हमारी दृष्टि उसको पकड़ नहीं पाती । यह परिवर्तन ही पदार्थ को नाश की ओर ले जाता है । निष्कर्ष है कि क्रिया से ही पदार्थ का निर्माण होता है और वह क्रिया ही उसे नाश की ओर ले जाती है । क्रिया का प्रारम्भ पदार्थ की उत्पत्ति है और क्रिया का समापन उस पदार्थ की समाप्ति ।

         जाग्रत और स्वप्न, दोनों अवस्थाओं में ही क्रिया की भूमिका है । इसलिए न तो जाग्रत को सत् कहा जा सकता है और न ही स्वप्न को । केवल पदार्थ ही स्थूल दृष्टि की पकड़ में आता है, उसके भीतर चल रही क्रिया नहीं । आधुनिक विज्ञान ने ऐसे साधन विकसित कर लिए हैं, जिससे क्रिया को भी देखा जा सकता है । आज विज्ञान उस अवस्था में पहुँच गया है, जहां वह कह सकता है कि पदार्थ दिखलाई अवश्य दे रहा है परन्तु वास्तव में पदार्थ कहीं है ही नहीं, केवल क्रिया ही क्रिया है । यही बात तो हमारे सनातन धर्म-ग्रंथ सहस्राब्दियों से कहते आ रहे हैं कि जगत् में क्रिया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । हमारे ऋषियों ने तो इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि प्रत्येक क्रिया का भी अन्त होता है । प्रत्येक क्रिया को भी एक दिन अक्रियता में समाहित हो जाना होता है ।

           प्रत्येक क्रिया का आदि है अन्त भी है परन्तु जहां से क्रिया का आगमन होता है और जिसमें क्रिया को समाहित होना होता है, उस अक्रियता का कोई आदि-अन्त नहीं है । अक्रियता से क्रिया का जन्म होता है और क्रिया से पदार्थ का । हम अपनी स्थूल दृष्टि से पदार्थ को देख कर उसकी सत्ता समझ लेते हैं जबकि पदार्थ की सत्ता क्रिया के कारण है परन्तु क्रिया की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । क्रिया का अस्तित्व भी अक्रियता पर टिका है, अतः मुख्य सत्ता अक्रियता की हुई । अक्रियता जिसमें है और जिसकी है, एक वही शाश्वत है । पदार्थ और क्रिया का आदि-अन्त है परन्तु उस शाश्वत का न कोई आदि है और न ही अन्त । वह दिखलाई नहीं दे रहा परंतु अदृश्य होकर भी केवल एक उसी की सत्ता है । उसके बिना न तो कोई क्रिया होती है, न पदार्थ बनता है, न कोई आदि कैलाश है और न ही कोई ॐ पर्वत ।

                  संसार में जितने भी पदार्थ दिखलाई पड़ रहे हैं, वे सब अभाव में अर्थात् ‘न होने’ में जा रहे हैं । कहने का अर्थ है कि अभाव में भाव का होना, कभी नहीं हो सकता । गीता में भगवान ने कहा है -

       नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । 

       उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि: ।।' (गीता - 2/16)

     असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा है अर्थात् अनुभव किया है ।

          असत् की सत्ता नहीं है, फिर भी वह दिखलाई कैसे पड़ रहा है ? एक साधारण व्यक्ति की दृष्टि में आने वाली वस्तु उसे असत् नज़र नहीं आती क्योंकि हमारी सोच ही ऐसी बन गई है कि जो आँखें देख रही हैं, भला ! वह असत् कैसे हो सकती है ? ऐसा सोचना भी कुछ सीमा तक सही है परन्तु ऐसा तभी सही है जब हम प्रत्येक दिखने वाली में सत्तावान अविनाशी को देखें । इसके लिए हमें सत्-असत् के ज्ञान की अवस्था तक पहुँचना होगा । तत्त्वदर्शी महापुरुष को तो सत् और असत् दोनों का अनुभव है परन्तु साधारण मनुष्य को सत् प्रतीत होने वाली वास्तव में असत् है, इस बात का ज्ञान नहीं है । अक्रियता से क्रिया, क्रिया से पदार्थ और पदार्थ का नष्ट होकर क्रिया का पुनः अक्रियता में समा जाना ही सत्-असत् का ज्ञान है ।

          हमें असत्, सत् के रूप में दिखलाई पड़ता है क्योंकि उसको हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं । असत् का इस प्रकार सत् के रूप में अनुभव होना और अन्ततः उसका नष्ट हो जाना,  इस पूरी प्रक्रिया को जान लेने पर ही हमारी सारी भ्रांतियां दूर होगी उससे पहले नहीं । 

         मनुष्य शरीर की संरचना अन्य सभी प्राणियों में सबसे जटिल है । यह दो स्तर पर कार्य करता है। बाह्य और आंतरिक । शरीर से बाहर जाने के लिए आपकी चेतना इंद्रियों के माध्यम से यात्रा करती है और आपको संसार के पदार्थों से परिचय कराती है । यह चेतना की इंद्रिय यात्रा है । इंद्रिय यात्रा करने वाली चेतना ही हमारा अशुद्ध अहम् है । 

         आंतरिक स्तर पर जो यात्रा होती है, उसमें इंद्रियों की कोई भूमिका नहीं होती, इसलिए इसको अतीन्द्रिय यात्रा कहा जाता है । अतीन्द्रिय यात्रा करने वाली चेतना हमारा शुद्ध अहम् है । दोनों ही यात्राओं में चेतना (अहम्) की भूमिका होती है । हम इसी वास्तविकता को जीवन भर भूले रहते हैं । हमारे नेत्र केवल देखने के उपकरण मात्र है परंतु जो देखता है, वह तो हमारे भीतर बैठा है । नेत्रों को बंद कर लेने पर भी वह रहता है । वही चेतना है । उसी को द्रष्टा कहकर सम्बोधित किया जाता है । 

        बाहरी यात्रा में पदार्थ को जाना जाता है और भीतरी यात्रा में अपदार्थ को । यह चेतना ही बाहरी और भीतरी, दोनों यात्राओं की द्रष्टा है । 

          यथार्थ में पदार्थ और अपदार्थ में किसी प्रकार का विभाजन नहीं है, दोनों एक ही हैं । भौतिक दृष्टि में द्रष्टा की अवहेलना कर दें तो सब कुछ पदार्थ है जबकि द्रष्टा की दृष्टि में सब कुछ अपदार्थ ही है । पदार्थ में परिवर्तन होते हैं, वह नष्ट होने की ओर अग्रसर है, इसलिए उसे असत् कहा जाता है । अपदार्थ का नाश नहीं होता, इसलिए उसे सत् कहा जाता है । तत्त्वदर्शी महापुरुष असत् और सत् दोनों को जानता है, इनका उन्हें अनुभव होता है क्योंकि वह सर्वत्र केवल एक सत्तावान को ही देखता है । महापुरुष की दृष्टि और साधारण व्यक्ति की दृष्टि में मूलभूत यही अन्तर है । क्या कारण है, इस प्रकार से देखने का ? कारण है - हमने पदार्थ के प्रति आसक्ति रखकर स्वयं को प्रतिदिन नाश की ओर जाने वाली वस्तुओं के साथ जोड़ रखा है ।  

            ‘यद्दृष्टंतन्नष्टं’ का अर्थ है, "जो भी देखा जाता है, वह नाशवान है।" इसका मतलब है कि जो भी भौतिक चीजें देखी जाती है या जिनका अनुभव किया जाता है, वे सभी दृश्य अस्थायी होते हैं और अंततः नष्ट हो जाते हैं । यह एक धार्मिक या आध्यात्मिक विचार है, जो हमें यह बताता है कि इस भौतिक दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है ।

           यह कथन आत्मा और अनात्मा के बीच के अंतर को भी दर्शाता है । अनात्मा अर्थात् पदार्थ । आत्मा अर्थात् अपदार्थ । शरीर और संसार सब पदार्थ के अन्तर्गत हैं । आत्मा, जो कि स्थिर है, वही एकमात्र चीज है जो वास्तव में है । अन्य सभी चीजें, जो कि दिखलाई दे रही हैं, वे अस्थायी और नाशवान हैं । आत्म-अनात्म विवेक का अर्थ है स्वयं (आत्मा) और संसार तथा शरीर (अनात्मा) के बीच अंतर करना । यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो कई धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं में पाई जाती है । इतने विवेचन का निष्कर्ष है कि हमें इन दो तत्वों का स्पष्ट रूप से ज्ञान होना चाहिए -

(अ) अनात्मा (शरीर और संसार):- यह वह है जो परिवर्तनशील, सीमित और अस्थायी है । इसमें शरीर, मन और संसार शामिल हैं ।

 (आ) आत्मा (स्वयं):- यह वह है जो स्थायी, असीम और अपरिवर्तनीय है । यह वह है जो ज्ञान और चेतना का स्रोत है ।

           आत्म-अनात्म विवेक का ज्ञान होने से, व्यक्ति को यह समझने में सहायता मिलती है कि वह क्या है और क्या नहीं है ? आत्म-अनात्म विवेक हो जाने पर दो लाभ हैं - एक तो उसे ज्ञान हो जाता है कि वह स्वयं कौन है । इससे स्वयं के साथ एक मजबूत संबंध स्थापित बन जाता है और दूसरा, स्वयं को जान जाने के कारण संसार के प्रति आसक्ति से मुक्त होना सम्भव हो जाता है । ऐसा हो जाने पर आपका जब अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति से सामना होता है और आप क्रोध, भय या दुःख जैसी नकारात्मक भावनाओं का अनुभव करते हैं, तब आप स्वयं को उस भावना से अलग कर सकते हैं । आप समझ सकते हैं कि ये भावनाएं वास्तव में आपका स्वभाव नहीं हैं बल्कि ये परिस्थितियां आने-जाने वाली (अस्थायी) और परिवर्तनशील हैं । जब आप अपने सुख के लिए किसी बाहरी वस्तु या व्यक्ति को महत्व देते हैं, तो आत्म-अनात्म विवेक से समझ सकते हैं कि वास्तव में वे आपके आनन्द के स्रोत नहीं है ।  तब यह समझ में आ जाता है कि सच्चा सुख और संतोष तो आंतरिक है ।

          संसार और शरीर को सत्ता आपने दी है, उनमें आसक्त होकर । गीता में भगवान कहते हैं -  “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।” अर्थात असत् की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है । जिस असत् की तो सत्ता नहीं है, उसको तो 'नहीं' कहा जाता है और जिस सत् का कहीं अभाव नहीं है, उसको 'है' कहा जाता है । अतः जो नहीं है, वह 'नहीं' ही है और जो है, वह 'है' ही है । स्वामीजी कहते हैं - संसार पहले नहीं था, अन्त में नहीं रहेगा और वर्तमान में भी निरन्तर नाश में जा रहा है । संसार में सिवाय नष्ट होने के कुछ तत्त्व है ही नहीं, यह अभाव-रूप ही है । नाशवान् शरीर-संसार में जो 'है-पना' दिख रहा है, यह 'है-पन' संसार का नहीं होकर परमात्मा का है । नित्य-निरन्तर बदलने वाले को 'है' मानना गलती है । 'नहीं' को 'है' मान लेने से 'है' रूप परमात्मा की तरफ दृष्टि नहीं जा रही है; नहीं को नहीं मानते ही 'है' का अनुभव हो जाएगा ।

      मानस में तुलसी लिखते हैं - 

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।

मायाधीस ग्यान गुन धामू ।।

जासु सत्यता तें जड माया ।

भास सत्य इव मोह सहाया ।। बालकाण्ड - 117/7-8 ।।

       यह जगत् प्रकाश्य है और भगवान राम प्रकाशक हैं । वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं । जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य भासित होती है । 

       यही आत्म-अनात्म विवेक है । इस विवेक के जाग्रत होने से मनुष्य को अपना स्वरूप समझ में आ जाता है, फिर स्वरूप में स्थित होते देर नहीं लगती । स्वयं और शरीर का भेद समझ में आ जाने पर मनुष्य का प्रत्येक परिस्थिति में मन और भावनाओं पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है । साथ ही संसार से आसक्ति छूट जाने पर शांति का अनुभव होता है । आत्म-अनात्म विवेक ही हमें आत्म- साक्षात्कार की अवस्था तक ले जाता है ।

             आत्म-अनात्म विवेक एक जीवन भर की यात्रा है । इसका अभ्यास करने और इसे पूर्ण रूप से समझने की आवश्यकता है । यह आपको अपने भीतर के सत्य को खोजने और एक सार्थक जीवन जीने में सहायक सिद्ध हो सकता है ।

           इस चेतन-अचेतन चराचर जगत् को शरीर के स्तर पर देखेंगे तो इसके प्रति आसक्ति पैदा होगी ।  शरीर और इंद्रियों से अनुभव की जाने वाली प्रत्येक वस्तु नाश की ओर अग्रसर है । हमारी इनके प्रति आसक्ति ने ही इनको सत्ता दी है । यही कारण है कि उनमें जब परिवर्तन होता है अथवा वे नष्ट हो जाती है, तब हमें दुःख होता है । संसार का कोई भी पदार्थ क्रियाविहीन नहीं है और यह क्रिया ही उसको बनाती-बिगाड़ती है । इसलिए महत्व क्रिया का है, पदार्थ का नहीं । क्रिया का मूल (अक्रिय परमात्मा) जो है, केवल उसी के कारण पदार्थ सत्ता में आता है अन्यथा स्वयं पदार्थ की कोई सत्ता नहीं है । अतः प्रत्येक परिवर्तित होने वाली वस्तु, व्यक्ति अथवा दृश्य में केवल एक सत्तावान परमात्मा को देखने से हमें उनमें होने वाला परिवर्तन सुखी-दुःखी नहीं कर सकेगा । भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं - 

समं   सर्वेषु   भूतेषु   तिष्ठन्तं  परमेश्वरम् ।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।। 13/27 ।।

      जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमेश्वर को नाशरहित और समरूप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

           "यद्दृष्टंतन्नष्टं" का उपयोग प्रायः इस विचार को व्यक्त करने के लिए किया जाता है कि भौतिक संसार में प्रत्येक प्रकार की मोह-ममता, आसक्ति, राग आदि (attachment) से दूर रहना चाहिए और एक आत्मा (परमात्मा) पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए । सब जगह और सबमें एक परमात्मा को ही देखें, यही ‘अदृष्टंतन्नष्टं’ लेख का सार है । 

श्री नारायण स्वामी कहते हैं -

नारायण तब जानिये, लगन लगी या काल ।

जित तित में दृष्टी परै, दीखैं मोहनलाल ।।

- अनुराग रस (177) 

           इसी के साथ इस लेख के समापन की आज्ञा चाहूँगा । आप ‘वासुदेव सर्वम्’ के भाव को अपने हृदय में स्थान देंगे, तभी इस लेख की सार्थकता है ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।


Monday, June 30, 2025

यात्रा-वृत्तान्त (आदि कैलाश, ॐ पर्वत)

 यात्रा-वृत्तान्त 

       तीर्थ-यात्रा के बारे में एक प्रसिद्ध श्लोक है -

      उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यान-धारणा ।

     कनिष्ठा शास्त्र चिन्तन तीर्थ-यात्राऽधमाधमा ।।

             अर्थात् आत्म-बोध के लिए सबसे उत्तम सहज-अवस्था को प्राप्त करना है । मध्यम अवस्था ध्यान-धारणा की है । शास्त्र-चिन्तन को कनिष्ठ श्रेणी में रखा गया है और अधम से भी अधम श्रेणी में तीर्थ-यात्रा है । 

               आत्म-बोध के लिए हमारे शास्त्रों ने तीर्थ-यात्रा को सबसे निम्न श्रेणी की माना है । क्यों ? क्योंकि तीर्थ-यात्रा को हमने मात्र पर्यटन बनाकर छोड़ दिया है । तीर्थ के हाथ लगाकर आ गए और मोक्ष हो जाएगा, ऐसी धारणा ने ही इस यात्रा को अधम से भी अधम की श्रेणी में रख दिया है । 

        अगर प्रत्येक तीर्थ-यात्रा अधम से अधम होती तो क्या आदि शंकर अपने अल्पकालीन जीवन में पूरे भारत का दो बार भ्रमण कर लेते ? आदि शंकराचार्य ने जो भी तीर्थ अपनी यात्रा में खोजे थे, उन सभी का प्रकृति से सम्बन्ध अवश्य रहा है । इसका अर्थ है कि यात्रा का महत्व तीर्थ के कारण नहीं है, बल्कि प्रकृति के कारण है । यदि हम तीर्थ-यात्रा को केवल तीर्थ के दर्शन तक सीमित मानेंगे और लौटकर पुनः अपने संसार में रम जाएंगे तो फिर ऐसी यात्रा अधम से भी अधम श्रेणी में रखने लायक़ ही है ।

        प्रत्येक यात्रा तीन तल में से किसी एक तल पर की जाती है । यात्रा के ये तीन तल हैं - स्थूल शरीर के स्तर पर, मन के स्तर पर और आत्मा के स्तर पर । केवल शरीर के तल पर जो यात्रा की जाती है, उसमें स्थूल शरीर को विश्राम दिया जाता है । इसमें स्थान परिवर्तन करते हुए शरीर को विश्राम दिया जाता है । मन के तल पर जो यात्रा की जाती है उसमें मन का रंजन अर्थात् मनोरंजन अधिक होता है । तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण यात्रा आत्मा के स्तर पर की जाती है । आत्मा के तल पर की जाने वाली यात्रा में मनुष्य स्वयं को प्रकृति में खो देता है । यह परमात्मा तक पहुँचने की यात्रा है ।

          इस बात को सरलता से समझने के लिए नृत्य- कला का उदाहरण देता हूँ । जो नृत्य स्थूल शरीर के तल पर किया जाता है, उसमें कामुकता भरी होती है । ऐसा नृत्य काम वासना को जाग्रत करता है । मन के तल पर किए जाना वाला नृत्य केवल मनोरंजन करता है । इसमें कामुकता न होकर केवल मनोरंजन होता है । आत्मा के तल पर किया जाने वाला नृत्य आपको परमात्मा तक ले जाता है । ऐसा नृत्य मीरा बाई तथा चैतन्य महाप्रभु जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है । 

         नृत्य की तरह ही प्रत्येक यात्रा का भी एक तल होता है । आत्मिक स्तर पर जाकर की जाने वाली यात्रा ही वास्तव में तीर्थ-यात्रा है अन्यथा तो सब यात्राएं महज़ स्थूल शरीर का स्थान परिवर्तन और मनोरंजन बनकर रह जाती है । विभिन्न तीर्थों अथवा विग्रह की की जाने वाली परिक्रमा भी आत्मिक तल पर की जाने वाली यात्रा ही है । जैसे गिरिराज परिक्रमा, मंदिर में विग्रह की परिक्रमा, चौरासी कोस परिक्रमा, नर्मदा परिक्रमा आदि ।

                यदि हम अपनी यात्रा में प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो शीघ्र ही सहजावस्था को प्राप्त हो सकते हैं । प्रकृति से सम्बन्ध स्थापित करने से अर्थ है स्वयं को प्रकृति में खो देना । प्रकृति में स्वयं को खोकर ही आत्म-बोध को उपलब्ध हुआ जा सकता है । इसलिए तीर्थ-यात्रा का उद्देश्य यदि प्रकृति में डूबना है तो ऐसी यात्रा मुक्ति के द्वार खोलने वाली बन जाती है । प्रत्येक जीवन एक सफ़र से अधिक कुछ नहीं है । इस सफ़र का उद्देश्य है, आत्म-बोध को उपलब्ध होना । आत्म-बोध ही परमात्मा के अस्तित्व की पुष्टि करता है । 

            परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव तभी होता है, जब आप स्वयं चेतन रहें । चेतन रहेंगे तो जीवन में गति होगी ही और उस गति के कारण ही परमात्मा के होने का ज्ञान होता है । एक ही स्थान पर रहते हुए गति करना जड़ता की निशानी है । जड़ता आपको संसार में उलझाकर रख देती है । यही गति जब अलग अलग दिशाओं में, अलग अलग स्थानों के लिए होती है तब यह गति यात्रा बन जाती है । यात्रा यदि प्राकृतिक स्थानों की ओर हो तो ऐसी यात्राऐं ही एक दिन आपको प्रकृति के साथ एकाकार कर देती है । 

           प्रकृति के साथ एकाकार होने से अर्थ है, संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाना । संसार से सम्बन्ध ही बन्धन है जबकि प्रकृति में खो जाना मुक्ति है । संसार से आपका प्रत्येक सम्बन्ध स्वार्थ पर आधारित होता है, इसलिए वह बन्धन है । प्रकृति के साथ आपका नि:स्वार्थ सम्बन्ध होता है जोकि आपके लिए परमात्मा के द्वार खोलता है ।

           संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने में यात्रा की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है । हमारे शास्त्रों में धार्मिक यात्राओं का वर्णन आता है । चाहे इन यात्राओं को आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण न माना गया हो फिर भी इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । जिस प्रकार नदी का बहना महत्वपूर्ण है वैसे ही जीवन में यात्राएं करना भी महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार एक स्थान पर इकट्ठा हुआ जल कुछ समय पश्चात् गंदा हो जाता है उसी प्रकार साधु को भी एक स्थान पर अधिक समय तक टिकना नहीं चाहिए । कारण ? एक जगह टिकने से ही उस स्थान के प्रति मोह पैदा हो सकता है । मोह से फिर आसक्ति, कामनाएँ आदि । यह सब बंधनकारी हैं जो व्यक्ति के संसार की जनक हैं और उसे संसार के साथ बाँधनेवाली भी हैं ।

                गोरखनाथ के गुरु मच्छिन्द्रनाथ (कई जगह इनको गोरखनाथ का शिष्य भी बताया गया है) भी कई दिनों से एक स्थान पर जाकर टिक गए थे । उन्होंने संन्यास त्याग कर गृहस्थ के रूप में जीने का निश्चय कर लिया था । गोरख उन्हें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उस स्थान पर पहुँचे जहां उनके गुरु बहुत समय से टिके हुए थे । गुरु को पास ही कहीं टिका जानकर गोरख ने गाया - ‘भाग मच्छन्दर गोरख आया’ । सुनते ही मच्छिन्द्रनाथ को वास्तविकता का ज्ञान हुआ और तत्काल ही उन्होंने उस स्थान को छोड़ दिया ।

             जो आत्म-बोध की यात्रा पर है, उसके लिए आत्मा के तल पर की जाने वाली ऐसी यात्राएं महत्वपूर्ण है । परमात्मा के अस्तित्व की पुष्टि प्रकृति ही करती है और प्रकृति की विशालता में खो जाने का अर्थ है, परमात्मा तक पहुंच जाना । इसलिए जिसका शरीर साथ दे, जिसमें यात्रा करने का मनोबल है, जो आत्म-बोध के लिए लालायित है उसे अनिकेत होकर प्रकृति में खो जाना चाहिए । मेरे मत में ऐसी यात्राऐं आपके लिए आनन्द का द्वार खोल सकती है । 

              ऐसी ही एक यात्रा का वर्णन करने के लिए आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ । उत्तराखण्ड को देवभूमि कहा जाता है । जिसको आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ना है, उसके लिए निःसंदेह यह क्षेत्र देवभूमि ही है । उत्तराखण्ड में दो मण्डल हैं - गढ़वाल और कुमाऊँ । गढ़वाल मण्डल में हमारे उत्तर दिशा के चार धाम हैं - यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ । आदि शंकराचार्य ने जितने भी स्थानों की यात्राएं की थी उन सब में एक समानता है कि वे सभी स्थान प्रकृति की गोद में स्थित हैं, जिनमें ये चार धाम भी हैं । 

         गढ़वाल मण्डल के इन चार धामों की यात्रा कई बार पूर्व में कर चुका हूँ इसलिए इस बार किसी नए स्थान पर जाने की सोच थी । मस्तिष्क में फिर एक बार उत्तराखण्ड की यात्रा का ही विचार आया ।  उत्तर दिशा में स्थित इस प्रदेश में मुझे शान्ति का असीम अनुभव होता है । उत्तराखण्ड का दूसरा मण्डल है - कुमाऊँ । इसमें भी कई तीर्थ-स्थान है जिन्हें प्रकृति ने अपनी गोद में समेट रखा है । इनमें आदि कैलाश और ॐ पर्वत मुख्य हैं । इस बार आदि कैलाश ॐ पर्वत की यात्रा पर जाने का अवसर मिल ही गया । इसी यात्रा के अनुभव आपके साथ बाँटने जा रहा हूँ ।

              अप्रेल 2025 के मध्य में अपने साथियों के मध्य इस यात्रा की चर्चा की । अंततः श्री रामचन्द्र सोनी ने साथ चलने की हामी भरी । रामजी भी प्रायः ऐसी यात्राएं करते रहते हैं । चलो एक से दो भले, यह सोचकर यात्रा का कार्यक्रम बनाने में लगा । कई travel agencies से बात हुई । अंत में नागार्जुन ट्रैवेल्स, पिथौरागढ़ द्वारा संचालित की जाने वाली यात्रा में जाने का निश्चय किया । चूँकि 10 मई के दल में स्थान नहीं मिला तो 17 मई वाले ग्रुप में जाने का निश्चय किया ।

       ‘ज़ेहि कें जेहि पर सत्य स्नेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ।।’ ( मानस - 259/6)  जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । हमारा आदि कैलाश के प्रति स्नेह था, वहाँ जाने में अब किसी प्रकार का संदेह नहीं रहा । सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा था । रजिस्ट्रेशन फ़ार्म भरकर अग्रिम धन राशि जमा करवा दी गई । शेष राशि यात्रा प्रारम्भ होने वाले दिन देनी थी । ट्रैवल्स के निर्देशानुसार पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा के लिए आवश्यक सामान एकत्रित करना था । जिनमें मुख्य था - पैदल चलने के लिए ट्रेक शूज़, ट्रेक सूट, गर्म कपड़े, सिर को सर्दी से बचाने के लिए टोपी, तेज धूप से बचने के लिए कैप, काला चश्मा, सनस्क्रीन लोशन, सैनिटाइज़र, टोर्च, रैन कोट आदि ।

        यात्रा के लिए इनर लाइन परमिट भी आवश्यक था क्योंकि जिस क्षेत्र में हम जा रहे थे वह सीमांत क्षेत्र है, जिसका नियंत्रण भारतीय सेना के पास है । ॐ पर्वत और आदि कैलाश भारत-नेपाल-तिब्बत सीमा पर स्थित है । इनर लाइन परमिट के लिए पुलिस क्लीयरेंस आवश्यक होती है, जोकि सुजानगढ़ थाने से ले ली गई । दुर्गम स्थान पर यात्रा शारीरिक जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है । इसके लिए ट्रैवल एजेंसी आपसे पर्वतीय क्षेत्र के हाई एल्टीट्यूड के लिये स्वस्थ होने का प्रमाण पत्र चाहती है, जिसको हमने राजकीय चिकित्सालय सुजानगढ़ से प्राप्त कर लिया ।

            प्रत्येक पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा में आपके साथ दुर्घटना कभी भी घटित हो सकती है । इसकी ज़िम्मेदारी कोई एजेंसी अपने ऊपर लेना नहीं चाहती । इसके लिए वह पचास रुपये के स्टाम्प पेपर पर आपसे एक शपथ पत्र (Affidavit) लेती है । यह पत्र नोटरी द्वारा सत्यापित कर हस्ताक्षरित किया जाना आवश्यक है । हमने यात्रा प्रारम्भ तिथि से काफ़ी पहले ही सभी आवश्यक काग़ज़ात तैयार कर एजेंसी को भिजवा दिए थे , जिससे इनर लाइन परमिट प्राप्त करने हेतु कार्यवाही प्रारंभ की जा सके ।

        इतना सब कुछ निश्चित हो जाने पर यात्रा प्रारम्भ होने वाले स्थान पर जाने और वहाँ से लौटने के लिए रेल टिकिट का इंतज़ाम करना आवश्यक था । संयोग से रानीखेत एक्सप्रेस जोकि काठगोदाम- जैसलमेर के बीच वाया जयपुर होकर चलती है, उसमें यात्रा समाप्ति के दिन अर्थात् 23 मई को वरिष्ठ नागरिक कोटे से दो सीट थ्री एसी में मिल गई । हमने इस टिकट को सबसे पहले बनाया । चूँकि यात्रा 17 मई को काठगोदाम से सुबह 7 बजे प्रारम्भ होनी थी, अतः उससे पूर्व वहाँ पहुँचना भी था । रानीखेत एक्सप्रेस में 16 मई को जयपुर से काठगोदाम के लिए लम्बी वेटिंग थी और तत्काल टिकट के बनाने का हम ख़तरा मोल लेना नहीं चाहते थे ।

          अंत में निर्णय किया कि 15 मई की रात की गाड़ी से गुड़गाँव चला जाए । वहाँ 16 को सुबह पहुँचकर शाम को दिल्ली से चलने वाली संपर्क क्रांति से रात को हल्द्वानी पहुँच जाएं । दोनों ही गाड़ियों में सीट मिल गई । हल्द्वानी में रूकने के लिए रेलवे स्टेशन पर ही रिटायरिंग रूम बुक करवा लिया गया । वापस लौटने की टिकिट पहले बनवा ही ली थी ।

            यात्रा प्रारम्भ होने से पूर्व आपको बताता चलूँ कि यह यात्रा सात दिन और छः रात के लिए है । ट्रैवल एजेंसी ने हमें पूर्व में ही सारा कार्यक्रम दे दिया है । 17 मई का रात्रि विश्राम पिथौरागढ़ में, 18 मई को धारचूला, 19 व 20 मई को गूंजी, 21 मई को फिर धारचूला में और अंतिम रात्रि विश्राम (22 मई को) पाताल भुवनेश्वर नामक स्थानों पर होना है । मौसम की अनिश्चितता और लैंड स्लाइडिंग क्षेत्र होने के कारण को देखते हुए कार्यक्रम परिवर्तित भी हो सकता है । हम भी ऐसी प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं । यात्रा पर निकलने से पूर्व कई मित्रों और संबंधियों ने दुर्गम स्थानों की यात्रा में होने वाले सम्भावित ख़तरे के प्रति आगाह करते हुए यात्रा पर न जाने का आग्रह भी किया था । कइयों ने तो भारतीय सेना द्वारा आतंक के विरुद्ध चलाए जा रहे ऑपरेशन सिंदूर का कारण भी बताया परंतु हमारे निकलने से चार दिन पूर्व सीज़ फ़ायर भी हो गया ।

              जब एक उद्देश्य के लिए यात्रा पर निकलना हो और वह यात्रा भी आत्मा के तल पर की जानी हो तो फिर कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक सकती । भीतर किसी भी प्रकार के भय के होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । यदि आप निर्भीक नहीं है तो ऐसे दुर्गम स्थान पर जाने की योजना भी न बनाएं । दुर्घटना घटित होना आपके नियंत्रण में नहीं है । वह घर पर भी घटित हो सकती है और हो सकता है कि बाहर भी घटित न हो । सबसे पहले सब कुछ परमात्मा पर छोड़ना होता है । परमात्मा की शरण लेने वाले को किसी प्रकार का भय नहीं सताता । मैं और मेरे साथी रामजी, दोनों ही इस बारे में एक मत थे । दोनों के विचार ऐसी यात्रा के लिए एक समान होना भी बड़ी बात है । 

            इस प्रकार यात्रा की पूरी तैयारी कर 15 मई को सुजानगढ़ से निकल पड़े और दिल्ली होते हुए 16 मई की रात हल्द्वानी पहुँचकर विश्राम कर लिया । 17 मई को सुबह 6 बजे टेम्पो ट्रैवलर के चालक का फ़ोन आया कि काठगोदाम स्टेशन से सुबह 7 बजे यात्रा प्रारम्भ होगी । हम सुबह चार बजे उठकर नहा-धो प्रातःकालीन प्रार्थना कर तैयार तो बैठे थे ही, झटपट सामान समेटा और 6.45 की गाड़ी से चलकर 7 बजे काठगोदाम पहुँच गए । हल्द्वानी और काठगोदाम के बीच मात्र 7 किमी की दूरी है और बस, ऑटो आदि की सुविधा भी उपलब्ध रहती है । चूँकि हम हल्द्वानी के रेलवे रिटायरिंग रूम में ठहरे थे, इसलिए ट्रेन से जाना ही उचित समझा ।

             काठगोदाम स्टेशन से बाहर ही हमें टेम्पो ट्रैवलर का चालक मिल गया । हमने गाड़ी के उपर सामान चढ़वाया और सुबह की चाय पीने चले गए । एक-एक कर सभी साथी यात्री आते जा रहे थे । सभी से परिचय हुआ । कुल मिलाकर 14 यात्री इस टेम्पो ट्रैवलर में होने हैं । एक डॉक्टर दीपक हैं, जो सूरत (गुजरात) में नेफ्रोलॉजिस्ट हैं ।  दो हम सुजानगढ़ से हैं ही । स्वरूपगंज (राजस्थान) के एक निजी स्कूल की संचालिका श्रीमती ललिता गहलोत अपने पति और पुत्र के साथ हमारे सहयात्री हैं । गुना (मध्यप्रदेश) से श्री नितिन जोशी के परिवार से उनके सहित कुल पाँच यात्री हैं । सबसे अन्त में चंडीगढ़ से आने वाली तीन महिलाओं का नेतृत्व श्रीमती रमा कक्कड़ कर रही हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर 14 पर्यटक इस गाड़ी में हो गए हैं । 

यात्रा का प्रथम दिन -

            एक संघ/दल के साथ यात्रा करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले विभिन्न लोगों से आपका परिचय होता है और एक दूसरे की संस्कृति और रीतिरिवाजों को समझने का अवसर मिलता है । एक दूसरे से आत्मिक स्तर पर सम्पर्क स्थापित होता है क्योंकि ऐसे सम्बन्ध में किसी प्रकार के स्वार्थ की कोई भूमिका नहीं होती । निःस्वार्थ सम्बन्ध किसी प्रकार का सांसारिक बन्धन भी पैदा नहीं करता ।

           सभी तैयारियों के साथ काठगोदाम से यात्रा प्रारम्भ हुई । चंडीगढ़ से आने वाले तीन यात्रियों के कारण हमें यहीं काठगोदाम में ही दस बज गए थे । सबसे पहले भीमताल पर रुकना था । भीमताल का नाम पाण्डु-पुत्र भीम के नाम पर पड़ा है । कहा जाता है कि जब पाण्डव स्वर्गारोहण कर रहे थे तब रास्ते में इसी स्थान पर द्रौपदी को प्यास लगी । तब भीम ने ज़मीन के भीतर से जल को सतह पर लाने के लिए अपना एक बाण चलाया । भूमिगत जल के प्रवाह से यहाँ एक झील बन गई । कहा जाता है कि आज भी भूमि के भीतर से जल का प्रवाह निरंतर हो रहा है । इस झील से आस-पास के क्षेत्रों में जल-वितरण भी होता है फिर भी इसके जलस्तर में कभी कोई कमी नहीं आती ।

            भीमताल पर पर्यटकों की बड़ी भारी भीड़ रहती है, विशेष रूप से इस गर्मी के मौसम में । प्रायः युवा पीढ़ी और हाल में ही विवाह किए जोड़े बहुतायत से आते हैं । उनका उद्देश्य केवल शारीरिक सुख लेना और मनोरंजन करना होता है । खाने पीने और झील में नौकायन करने की सुविधा उपलब्ध है । हमने चलती गाड़ी से ही भीमताल को निहारा क्योंकि हमें पहले ही बहुत देर हो चुकी थी ।

          भीमताल के बाद आज के लिए अगला पड़ाव जागेश्वर धाम है । अभी तक काठगोदाम से मात्र 20 किमी ही चले हैं । भीमताल से चलने के बाद भोवाली गाँव का तिराहा आता है, जहां से बाईँ ओर का रास्ता सीधा नैनीताल को जाता है और दाहिनी ओर जाने वाला रास्ता अल्मोडा होते हुए आगे पिथौरागढ़ जाता है, जहां हमें रात्रि विश्राम करना है । नैनीताल से 10-12 किमी दूर पंगोट गाँव है, जहां आप पहाड़ी पक्षियों को देख सकते हैं । परन्तु हमें तो जागेश्वर महादेव जाना है, इसलिए हमने दाहिनी ओर का रास्ता पकड़ा । 

          भीमताल से अल्मोडा लगभग 65 किमी दूर है । धीरे-धीरे गर्मी कम हो रही है और हवाओं में ठंडक बढ़ रही है । अल्मोडा के रास्ते में अचानक दृष्टि कैंची धाम पर जाकर टिक जाती है । चालक से हमने आग्रह किया कि हम नीम करौली बाबा धाम के दर्शन कर लेते हैं परंतु उसने कहा कि आज शनिवार होने के कारण भीड़ अधिक है, जिससे ज़्यादा समय लग सकता है । उसने लौटते समय दर्शन कराने का आश्वासन दिया ।

              पहाड़ों की घुमावदार सड़कों पर सफ़र करने से गुना (मप्र) से आई एक महिला को वमन होने लगी । पहाड़ी घुमावदार रास्तों पर लगातार गाड़ी से बाहर देखते रहने पर चक्कर आना स्वाभाविक है । चक्कर के कारण उल्टियाँ होने लगती है । ये उल्टियाँ तब तक जरा भी कम होने का नाम नहीं लेती, जब तक कि गाड़ी से उतरकर घड़ी दो घड़ी विश्राम न कर लिया जाए । वमन को रोकने की कोई दवा भी कारगर नहीं होती । हाँ, अगर सफ़र प्रारम्भ करने से एक घंटे पहले दवा ले ली जाए तो उल्टियों को होने से रोका जा सकता है ।

                कैंची धाम की भीड़ से निकलने में ही आधा-पौन घण्टा लग गया । सभी का भूख के मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था ।  आख़िर एक अच्छी जगह देखकर चालक ने गाड़ी रोकी । हमारे चालक का नाम राजू है । लगभग 35 वर्ष का पहाड़ी युवा बड़ी कुशलता से गाड़ी चला रहा है । हमें पूरी यात्रा में कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि कहीं दुर्घटना हो भी सकती है । सभी ने अपनी रुचि के अनुसार कुछ न कुछ भोजन ले लिया । हाँ, इस tour package में केवल सुबह का नाश्ता और रात को भोजन ही शामिल है । दोपहर के भोजन और चाय-पानी आदि की व्यवस्था हमें स्वयं के स्तर पर ही करनी है ।

            ख़ैर ! भोजन करके आगे निकलने में ही चार बज गए । अभी अल्मोडा 10- 12 किमी दूर था । वहाँ से जागेश्वर महादेव लगभग 35 किमी है । लगभग एक घण्टे बाद हम जागेश्वर धाम पहुँच गए । जागेश्वर धाम में शंकर भगवान के 125 मंदिर एक ही परिसर में बने हुए हैं, जोकि चारों ओर पहाड़ों से घिरे सुरम्य वातावरण में स्थित है । मंदिरों के पश्चिम में एक छोटी नदी बहती है, जिसको गंगा की ही एक धारा माना जाता है । पहाड़ों पर देवदार के लम्बे-लम्बे वृक्ष हैं जिनके मध्य बहती हुई हवा वातावरण में सनसनाहट पैदा कर रही है ।

          सचमुच यहाँ परमात्मा ने प्रकृति के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त किया है । एक पल के लिए भी आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते । प्रकृति में खो जाना ही स्वयं को भूल जाना है । फिर एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा रहता ही कहाँ है ? जागेश्वर महादेव को एक ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है । यथास्थान अपने जूते उतारकर गर्भगृह में जाकर शिव की आराधना की और पूरे परिसर का अवलोकन किया ।

           जागेश्वर महादेव परिसर में एक ऐसा देवदार वृक्ष देखने को मिला जिसको अर्द्धनारीश्वर कहा जाता है । इस वृक्ष का नीचे मूल से निकलता तना तो एक ही है परंतु ऊपर बढ़ने के साथ-साथ तने के मध्य एक खाँचा सा बनने लगता है और ऊपर जाने पर तना स्पष्ट रूप से दो भागों में विभाजित हो जाता है । तने के एक भाग को शिव और दूसरे को पार्वती का रूप बताते हैं । प्राकृतिक रूप से देवदार वृक्ष में तना इस प्रकार दो में विभाजित प्रायः नहीं होता । 

           इसी वृक्ष के पास केदारनाथ मंदिर की प्रतिकृति बनाई गई है । बाहर से देखने पर यह केदारनाथ मंदिर ही प्रतीत होता है । इसके भीतर शिवलिंग भी उसी आकार का है, जैसा कि मूल केदारनाथ मंदिर में है । जागेश्वर महादेव के परिसर में निश्चय ही एक अलौकिक अनुभव होता है । हालाँकि एक वर्ष पूर्व भी मैं यहाँ श्री केशवगिरि के साथ आ चुका हूँ, फिर भी इस बार के अनुभव में भी कोई कमी नहीं रही । गत वर्ष हमने कसारदेवी की यात्रा की थी, जोकि अल्मोडा से 8 किमी दूर विपरीत दिशा में है । उसी समय हमने नैनीताल के पास स्थित पहाड़ी पक्षियों के स्थान पंगोट, चितई गोलू देवता और मुक्तेश्वर की यात्रा भी की थी । 

              जागेश्वर धाम के सुरम्य वातावरण में सभी इतने खो गए कि शाम उतर आने का पता ही नहीं चला । अभी भी पिथौरागढ़ लगभग 70 किमी दूर है । चालक राजू ने सभी को गाड़ी में बिठाया और हम अपने रात्रि विश्राम स्थल की ओर आगे बढ़ने लगे । आज कोई और दर्शनीय स्थल हमारी सूची में प्रस्तावित नहीं था, अतः  कहीं रूकने का प्रश्न ही नहीं था । रात को लगभग 8 बजे पिथौरागढ़ पहुँचे । होटल ज्यौनार पैलेस में रुकने की व्यवस्था थी । भोजन तैयार था, सभी ने अपनी रुचि अनुसार भोजन किया और विश्राम करने चले गए ।

यात्रा का दूसरा दिन -

         पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड का सीमांत ज़िला है । यहीं पर नागार्जुन ट्रैवेल्स का कार्यालय भी है । पिथौरागढ़ में दिल्ली से आए दल के दो यात्री शुभम् और हैदराबाद के सत्यनारायण जी से मिलना हुआ । दोनों व्यवस्था को लेकर बड़े खिन्न दिखे । लेकिन थोड़ी देर में ही व्यवस्थापकों ने उनकी भी उचित व्यवस्था कर दी । यहाँ से  सत्यनारायणजी पंद्रहवें यात्री के रूप में हमारे साथ हो गए। सभी को नाश्ता-चाय आदि करने के बाद वरदानी पार्क के view point पर मिलने का संदेश नागार्जुन से मिला था । सभी लोग उसी गाड़ी में बैठकर वरदानी पार्क में view point पर पहुँच गए । View point से पिथौरागढ़ का शानदार विहंगम दृश्य मन को मोह लेता है।

        कंपनी के सहायक निदेशक देवेशजी ने आने में थोड़ी देर कर दी थी । फिर भी आने के बाद उन्होंने सभी यात्रियों को पहाड़ी क्षेत्र में यात्रा को आनंददायक बनाने के कई सूत्र दिए । आदि कैलाश और ॐ पर्वत पंद्रह हज़ार फीट से अधिक ऊँचाई पर होने के कारण वहाँ ऑक्सीजन की मात्रा बहुत ही कम रहती है । वहाँ वनस्पतियाँ भी नहीं होती, केवल नंगे और बर्फ से ढके पहाड़ ही पहाड़ हैं ।

             सांस लेने में दिक़्क़त हो सकती है, क्योंकि लगभग छः किमी की पैदल trek भी है । इसके लिए गाइड के साथ ऑक्सीजन का सिलिंडर भी रहता है जिसका आवश्यकता पड़ने पर उपयोग किया जा सकता है । कपूर को रूमाल में बांधकर सूंघते रहने से भी सांस में आराम मिलता है । जहां पर भी शारीरिक थकान अनुभव हो, वहाँ पर रूककर गहरे गहरे सांस लेनी है । ऐसे कई सूत्र बताने के उपरांत उन्होंने पूरे यात्रा मार्ग को रेखांकित किया और समझाया कि ऊपर सुविधाओं का अभाव है, इसलिए उसी अनुरूप स्वयं को ढालना है ।

         उन्होंने सभी को चाय पिलाई और शेष राशि जमा कराने का कहा । हम सब ने इस कार्य को तत्काल ही पूरा किया । सभी को शुभकामनाएँ देते हुए उन्होंने हमें आगे की यात्रा के लिए विदा किया । आज हमारा रात्रि विश्राम धारचूला में होना है । वहीं हमें इनर लाइन परमिट भी मिलेगा । वहीं से हमारी गाड़ी भी बदल जाएगी क्योंकि आगे का रास्ता ऊबड़ खाबड़ और कठिन है । वहाँ पर टेम्पो ट्रैवलर नहीं जा सकती ।

           पिथौरागढ़ से धारचूला का रास्ता बड़ा कठिन है । कहीं अच्छी रोड़ है तो कहीं कहीं कच्ची भी है । यहाँ से निकलने के पश्चात् हम काली नदी के साथ - साथ चलने लगते हैं । काली नदी भारत और नेपाल के मध्य प्राकृतिक सीमा भी बनाती है । काली नदी के पश्चिम में भारत है और पूर्व में नेपाल । दोपहर बाद भोजन के लिए रूकना था । चालक राजू ने जौल जीबी नामक गाँव में गाड़ी को रोका । यहाँ कुछ मध्यम स्तर के रेस्तरां है, जहां शुद्ध सात्विक भोजन मिल जाता है । सबसे बड़ी समस्या है, बिना प्याज़ लहसुन के खाने की परंतु आग्रह करने पर तत्काल बना भी दिया जाता है ।

           हम जहां भोजन के लिए रुके हैं, उसी रेस्तरां के पीछे ही काली नदी बहती है । इसी स्थान पर पश्चिम दिशा से धौली/गोरी नदी आकर काली के साथ संगम करती है । काली नदी के पार नेपाल का जौल जीबी गाँव है । भारत-नेपाल सीमा के दोनों ओर बसे गाँव प्रायः एक ही नाम के मिलते हैं जो दोनों देशों की एक ही संस्कृति होने की पुष्टि करते हैं । नदी के ऊपर दोनों गाँवों को जोड़ता झूला पुल बना है, जिसके दोनों ओर संबंधित देशों की सुरक्षा चौकियाँ बनी हुई है । कोई भी अपना मूल पहचान पत्र दिखाकर दूसरी ओर जा सकता है ।

        भोजन कर हम कुछ लोग नदी पर चले गए और उसके बहाव के साथ मन की चंचलता को भी बहा दिया । नदी का बहाव मन को शान्त कर देता है और आप गहरे ध्यान की अवस्था में चले जाते हैं । यदि गाड़ी चालक राजू आवाज़ नहीं देता तो शायद हमें समय का ज्ञान भी नहीं रहता । तत्काल ही हम नदी के किनारे को छोड़ गाड़ी में आ बैठे और धारचूला की ओर बढ़ चले । पिथौरागढ़ से धारचूला लगभग 70 किमी है और वह दूरी तय कर हम सायं 5 बजे वहाँ पहुँच गये । होटल कैलाश मानस में हमारे रूकने की व्यवस्था है ।

              होटल कैलाश मानस के संचालक भी रेलवे सेवा से निवृत्त एक चिकित्सक निकले । हमारे दल में हम पहले से ही दो चिकित्सक थे और अब इन तीसरे चिकित्सक महोदय से मिलकर बड़े खुश हुए । होटल अच्छी है और व्यवस्थाएँ भी नाम अनुरूप है । एक घंटे के विश्राम के पश्चात् हम होटल संचालक डॉ. साहब के पास नीचे स्वागत कक्ष में आए । उनसे नदी पार धारचूला (नेपाल) जाने के बारे में जानकारी ली । रामजी को दो तीन चीज़ें ख़रीदनी थी । धारचूला (भारत) का बाज़ार रविवार होने के कारण आज बंद है । नेपाल जाने पर उसी दिन वापस लौटना भी आवश्यक था क्योंकि कल आगे की यात्रा पर निकलना है । दोनों देशों को जोड़ने वाला नदी पुल भारतीय समय अनुसार शाम 7 बजे बन्द हो जाता है । शाम के छः बज चुके थे । हम तत्काल ही पुल की ओर शीघ्रता से बढ़ चले ।

             भारतीय सुरक्षा चौकी पर हमने आधार कार्ड दिखाकर रजिस्टर में अपना नाम अंकित कराया और पुल को पार कर दार्चुला (नेपाल) में प्रवेश कर गए । वहाँ का बाज़ार छोटा सा है और चीनी माल से भरा पड़ा है । रामजी ने दस्ताने, पुलोवर और छोटा पिट्ठू बैग ख़रीदा । इनका बाज़ार मूल्य दोनों देशों में लगभग समान ही है । सीमा के दोनों ओर स्थित इन स्थानों पर दोनों ही देशों की मुद्राएँ स्वीकार की जाती हैं । एक भारतीय रुपया नेपाल के 1.80 रुपए के बराबर है ।

         नेपाल का समय भारतीय समय से 15 मिनट आगे है । नेपाल की घड़ियों में 7.05 बजते देखकर हम तत्काल ही पुल पार कर भारतीय सीमा में आ गए । किसी प्रकार का सन्देह होने पर यहाँ कस्टम चेकिंग होती है परन्तु हमारी नहीं हुई । हम अपनी होटल लौट आए । यहाँ हमें रात का भोजन बिना लहसुन प्याज़ के सुलभ हो गया । भोजन कर रात्रि विश्राम करने अपने कमरे में चले गए ।

यात्रा का तीसरा दिन -

      प्रतिदिन की तरह यहाँ भी साढ़े तीन बजे उठकर आवश्यक क्रियाओं से निवृत हो पाँच बजे प्रार्थना की । यहाँ नेट की गति सामान्य थी इसलिए आचार्यजी का प्रवचन भी साफ और आराम से सुन सके । वातावरण में ठंडक थी परंतु गीज़र होने के कारण गर्म पानी सुलभ हो गया था । साढ़े छः बजे होटल की छत पर जाकर प्रकृति का आनन्द लिया । सूर्य भगवान उदित हो रहे थे । रामजी के साथ थोड़ी आध्यात्मिक चर्चा हुई । आठ बजे नाश्ता किया । तभी व्हाट्सएप पर संदेश मिला कि इनर लाइन परमिट मिल गया है और आगे की यात्रा ठीक नौ बजे शुरू होगी । सामान तो पैक पहले ही कर चुके थे, इसलिए बैठकर प्रतीक्षा करने लगे ।

       टेम्पो ट्रैवलर यहाँ से आगे नहीं जाएगा । आगे के लिए हमें महिंद्रा गाड़ियां (बोलेरो, स्कॉर्पियो) उपलब्ध कराई गई । पाँच-पाँच यात्रियों के तीन ग्रुप बनाए गए क्योंकि एक गाड़ी में चालक के अलावा पाँच व्यक्ति ही बैठ सकते हैं । गाड़ी के पिछले भाग में हमारा सामान रखा गया । मेरे और रामजी के अलावा चंडीगढ़ की तीन देवियाँ हमारी सहयात्री हैं । गणेश इस गाड़ी का चालक है, जोकि धारचूला का ही रहने वाला है । हम पांचों का इनर लाइन परमिट पहले ही गणेश को दे दिया गया है ।

        ठीक नौ बजे हम गूंजी के लिए निकल पड़े । आज का रात्रि विश्राम गूंजी में करना है । धारचूला समुद्र तल से 2500 मीटर ऊँचाई पर है और गूंजी लगभग 3200 मीटर की ऊंचाई पर । रास्ते में एक जगह गिरते-बहते झरने देखकर हम रुके । कुछ फ़ोटो भी ली और ठण्डी-ठण्डी हवाओं के साथ प्रकृति में खो गए । 

             आगे की यात्रा में बीएसएफ/आईटीबीपी द्वारा विभिन्न स्थानों पर जांच की जाती है । इनर लाइन परमिट चार दिन के लिए ही मिलता है । चार दिनों के भीतर आपको वापस धारचूला लौटना पड़ता है । धारचूला से गूंजी के रास्ते में अच्छी ख़ासी बरसात शुरू हो गई, जिससे ठण्ड अपना प्रभाव दिखाने लगी । एक जगह जहां जांच हो रही थी, अवसर देखकर हमने अपनी बैग से गर्म कपड़े निकाल लिए । गर्म कपड़े पहनकर गाड़ी से बाहर निकले तो प्रकृति का सुंदर रूप देखकर देखते ही रह गए । दृश्य बड़ा ही मन को मोहने वाला था । पहाड़ों से अठखेलियाँ करते हुए बादल, ऊपर से पड़ती मद्धम फुँहारें और दूर बर्फ से लदी पहाड़ों की चोटियाँ; सब स्वर्ग में होने की अनुभूति दे रहे थे । शान्त वातावरण, जिसमें कृत्रिमता का ज़रा सा भी भाव नहीं था । ऐसी रचना करना एक परमात्मा के अतिरिक्त किसी दूसरे के बूते की बात नहीं हो सकती ।

           प्रकृति की गोद में खड़े होकर ऐसा अनुभव कर रहे थे मानो परमात्मा हमें पुकार रहे हैं । हवा की गति उसके अस्तित्व का भान करा रही थी । ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो परमात्मा स्वयं हमारा स्पर्श कर रहे हैं । एक वही तो सर्वत्र है, केवल हमारी दृष्टि ही उसे देख नहीं पा रही है । इसमें दृष्टि का भी भला क्या दोष ? जिसने आज तक केवल स्थूल को ही देखा हो, वह भला उस दिव्यता का दर्शन कैसे कर सकती है ? दिव्य दृष्टि चाहिए, उसके दर्शन के लिए । ऐसी दृष्टि जो स्थूल और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हो, जिससे केवल अनुभव किया जा सके, उस असीम की उपस्थिति का । कहाँ नहीं है वो ? यहाँ पर भी वही है और वहाँ पर भी वही था । फ़र्क़ इतना है कि संसार के शोरगुल में उसका अनुभव नहीं हुआ और यहाँ प्रकृति के मौन में उसका स्पष्ट रूप से अनुभव हो रहा है । जिस किसी को यहाँ पर भी उसका अनुभव नहीं हो रहा है, समझ लीजिए, वह केवल भौतिक रूप से यहाँ है, मानसिक रूप से वह अभी भी अपने संसार में ही खोया हुआ है ।

            भगवान गीता में कहते हैं - 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। 6/30 ।।

          जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।

               हम सबके शरीर प्रकृति के अंश हैं ।  प्रकृति में परमात्मा को देखना सबमें परमात्मा को देखना है । जब तक स्थूल में परमात्मा को नहीं देखेंगे तब तक दिव्य-दर्शन होना असम्भव है । दिव्यता इसी में है कि आपको सर्वत्र एक परमात्मा ही दिखे, दूसरा कोई नहीं । ऐसी दिव्यता की अवस्था तक शीघ्र पहुँचने के लिए प्रकृति के अतिरिक्त दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता । यही कारण है कि प्रकृति के साथ एकाकार हो जाना आपको शीघ्र ही परमात्मा के द्वार तक ले जाता है ।

              चलिए ! हमारी जाँच हो चुकी है । गणेश सभी काग़ज़ात दिखाकर वापस आ गया है । अब आगे की यात्रा पर चलते हैं । प्रकृति की छटा से आत्ममुग्ध हुए और कुछ बढ़ती जा रही ठण्ड से प्रभावित होकर सभी मौन धारण कर मंज़िल तक पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । शाम के पांच बज चुके हैं । काली नदी के किनारे दूर कहीं बस्ती दिखलाई पड़ रही है, यही गूंजी है । थोड़ी देर में हम वहाँ पहुँच जाते हैं । छोटे-छोटे कई होमस्टे बने है । शिवशंकरजी होमस्टे में एक छोटा सा कमरा मिला है । मैंने और रामजी ने अपना सामान उस छोटे से कमरे में रखा और उस होमस्टे का अवलोकन करने लगे ।

        इस होमस्टे की महिला मालकिन है जिसके दो संतान हैं -  एक पुत्र और एक पुत्री । माँ और ये दोनों हमारी सेवा में रत है । बच्चों के पिताजी नहीं रहे । दोनों बच्चे बारहवीं में पढ़ रहे हैं । यह परिवार यात्रियों से इन दो महीनों में होने वाली आय पर ही निर्भर है । 16-17 साल के दोनों बच्चे, लोकेंद्र और सुनयना अपनी मां के साथ सुबह चार बजे उठकर काम पर लगते हैं, जो रात को 11 बजे तक सारा काम निपटाकर सोते हैं । प्रारब्ध (कर्मों) का खेल भी अजीब है, इसीलिए स्वामीजी कहते हैं कि कर्मों का रहस्य जल्दी से हर किसी को समझ में नहीं आता । 

       इसी होमस्टे में हमारे अलावा दूसरे लोग भी ठहरे हैं । सभी कमरों के बीच दो ही बाथरूम है । हमने लोकेंद्र (होमस्टे की मालकिन का लड़का) से सुबह चार बजे गर्म पानी उपलब्ध कराने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गया । गूंजी में दिन का तापमान चार अंश सेलिशियस रहता है और रात का तापमान माइनस सोलह अंश सेलिशियस तक गिर जाता है ।

             हमने अपने आपको गूंजी की अत्यधिक ऊँचाई के अनुकूल बनाने के लिए पैदल चलने का अभ्यास करने का निर्णय किया । मैं, रामजी और डॉ. दीपक (सूरत) सेना क्षेत्र की ओर घूमने निकल पड़े । सुरक्षा गार्ड से इजाज़त लेकर ॐ पर्वत-लिपुलेख दर्रे के रास्ते पर कुछ दूर घूमे । वहीं सेना के अधिकारियों और कर्मचारियों के निवास बने हुए हैं । चारों ओर सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त लगी । यहाँ फ़ोटोग्राफ़ी पर सख़्त प्रतिबन्ध है । वातावरण में ठण्डक बढ़ती जा रही है और तापक्रम माइनस चार तक गिर चुका है । हवा की गति बढ़ती जा रही थी, साथ ही ठण्ड की तीव्रता भी । हमने लौटना ही उचित समझा ।  लौटकर भोजन किया । बिना लहसुन प्याज़ के मेरा भोजन अलग से बना दिया गया था । यहाँ निजी तौर पर सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पादन होता है, इसलिए रात को इन्वर्टर की रोशनी से ही काम चलाना पड़ता है, वह भी दो घण्टे में हांफना शुरू कर देता है और थोड़ी देर बाद बंद हो जाता है । ब्रह्ममुहूर्त में उठकर दैनिक कार्यों के लिए मोबाइल के प्रकाश का ही सहारा लेना पड़ता है ।

यात्रा का चौथा दिन -

                हमेशा की तरह सुबह साढ़े तीन बजे उठा और लोकेंद्र को जगाया । उसने लकड़ियों से चूल्हा जलाया और पानी गर्म करने लगा । स्नान कर नित्य-स्तुति और गीता भागवत-पाठ किया । साथ ही रामजी भी उठ गए और ध्यान करने लगे । मोबाइल के संकेत बिलकुल ही नहीं मिल रहे हैं । रात को थोड़ी देर के लिए आए ज़रूर थे परन्तु किसी से भी सम्पर्क करने के लिए अपर्याप्त थे । शीघ्र ही नाश्ता आदि करके तैयार हो गए । सुबह जल्दी ही छः-साढ़े छः तक आदि कैलाश के लिए निकलना होगा ।

           रात को ही हमारे साथ धारचूला से आई तीन देवियों ने अपना अलग कार्यक्रम बना लिया था । उनको आज लिपुलेख जाना है । उनकी गाड़ी भी गणेश वाली है । हमारे साथ आए गाइड ने हम दोनों को दूसरी गाड़ी में जगह दी है । मेरे और रामजी के अलावा उस गाड़ी में दिल्ली वाले शुभम् हैं । साथ ही हैदराबाद से आए उमाशंकरजी और उनकी धर्मपत्नी राधिकाजी हैं । चालक धारचूला के होशियार सिंह जी हैं । शुभम् का दिल्ली में फ़र्नीचर का काम है । राधिकाजी सीए हैं और उनके पति व्यापारी । 

        आज आदि कैलाश की यात्रा करनी है, जिसमें छः किमी की ट्रैकिंग भी होगी । हम सभी सात बजे जोलिंगकांग के लिए निकल गए जो गूंजी से 35 किमी दूर है । रास्ते में नबी और कुट्टी, दो गाँव पड़ते हैं । कुट्टी से निकलते ही हमारी गाड़ी का बाँई तरफ़ का पिछला टायर पंक्चर हो गया । सौभाग्यशाली रहे कि गाड़ी का संतुलन नहीं बिगड़ा । टायर बदलकर हम जोलिंगकांग लगभग 9 बजे पहुँच गये । रास्ते में ही आदि कैलाश पर्वत के दर्शन होने लगते हैं । इसकी आकृति मूल कैलाश (जोकि तिब्बत में है) से बहुत कुछ मिलती है । जोलिंगकांग समुद्रतल से 5000 मीटर ऊपर है । यह आदि कैलाश की पैदल यात्रा का आधार शिविर है । यहाँ से हमें समुद्र तल से 6000 मीटर ऊपर तक जाना है, जहां पहले पार्वती मंदिर और कुण्ड आएगा । फिर भीम की खेती देखते हुए गौरी कुण्ड जाएँगे । फिर वहाँ से पुनः आधार शिविर लौटेंगे ।

            छोटे से रेस्तरां में चाय पीकर संकरी पगडंडी पर कदम बढ़ाते हुए पार्वती मंदिर की ओर पैदल चल पड़े । ऑक्सीजन की कमी हमें सांस लेने में दिक़्क़त दे रही थी । आज टट्टू वालों की हड़ताल है क्योंकि उनकी लापरवाही के कारण दो दिन पूर्व टट्टू से गिरकर एक महिला की मृत्यु हो गई थी । इसलिए धारचूला SDM ने टट्टुओं के परिचालन पर रोक लगा दी है, जिसके विरोध में आज यह हड़ताल है । अब केवल पैदल चलने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं है । रूकते-चलते गहरी सांस लेते हुए आख़िर डेढ़ घंटे बाद पार्वती मंदिर पहुँच गए । वहाँ पूजा अर्चना कर पास में स्थित पार्वती कुण्ड के दर्शन किए ।

         एक ओर आदि कैलाश पर्वत है, बीच में पार्वती कुण्ड है और दूसरी ओर पार्वती मंदिर । वहाँ के पुजारी ने बताया कि पार्वती ने शंकर को पति रूप में पाने के लिए यहीं तपस्या की थी । उस अवधि में मां पार्वती इस कुण्ड में ही प्रतिदिन स्नान करती थी । उधर दूसरी ओर आदि कैलाश पर शिव रहते थे । जब पार्वती की तपस्या सफल हो गई तब शंकर-पार्वती का विवाह इसी स्थान पर हुआ था । विवाहोपरांत पार्वती के अनुरोध पर शंकर भगवान अपनी भार्या के साथ आदि कैलाश छोड़ मूल कैलाश की ओर चले गए और उसी को अपना निवास स्थान बना लिया ।

           कुछ समय वहाँ विश्राम कर हम आगे की यात्रा पर चल पड़े । रामजी मेरे साथ ही हैं । आगे की यात्रा बड़ी कठिन है क्योंकि अब खड़ी चढ़ाई है । रास्ते में ग्लेशियर पिघलने के कारण रास्ते पर पानी आ जाता है, जिससे फिसलन हो जाती है । ऊँचाई बढ़ने के साथ ही सांस लेने में दिक़्क़त आ रही है परंतु हमने सोच लिया था कि स्वाभाविक रूप से ही आगे बढ़ना है, सम्भव होगा तब तक ऑक्सीजन की सहायता नहीं लेनी है ।

           हमने थोड़ी देर तीनों स्थानों (आदि कैलाश, पार्वती कुण्ड और पार्वती मन्दिर) का भाव विभोर होकर अवलोकन किया और गौरी कुण्ड के दर्शन करने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे । पार्वती कुण्ड से लगभग डेढ़ किमी चले होंगे कि एक ऊँचे स्थान पर पहुँच गए । पीछे नीचे दूर पार्वती मंदिर का गुम्बज नज़र आ रहा था और आगे हमारे सामने थी एक हरी-भरी घाटी । यही भीम की खेती है । पास में ही भीम सरोवर है । कहा जाता है कि इस स्थान पर हरियाली कभी समाप्त नहीं होती, यहाँ तक कि हिमपात होने पर भी । समुद्रतल से 3500 मीटर ऊँचाई के बाद प्रायः वनस्पति नहीं मिलती परंतु यहाँ लगभग 5500 मीटर की ऊँचाई पर भी अच्छी ख़ासी हरियाली है । इसे विज्ञान की भाषा में अपवाद ही कहा जाएगा ।

         इस ऊँचाई से आगे का रास्ता दुर्गम और ऊबड़-खाबड़ पथरीला भी है । ऑक्सीजन लगातार कम होती जा रही है । सांस लेने में भी दिक़्क़त बढ़ती जा रही है । हम दोनों ने आधार शिविर लौटने का निश्चय किया । शरीर के साथ ज़्यादती करना उचित भी नहीं है । हम वापस नीचे जोलिंगकांग लौट आए और गाड़ी में साथ आए साथियों का इंतज़ार करने लगे । लगभग एक घण्टे बाद उमाशंकरजी और उनकी पत्नी राधिकाजी लौट आए । वे पार्वती मंदिर से ही लौट आए हैं । चालक होशियारसिंह जी भी वहीं मिल गए । अब इंतज़ार था शुभम् का । 26 साल का युवा, आगे गौरी कुण्ड की ओर चला गया था । वह भी थोड़ी देर में आ गया ।

              सभी बहुत अधिक थक गए थे । अल्प मात्रा में भोजन कर गाड़ी में बैठ गए और साढ़े चार बजे तक गूंजी लौट आए । थोड़ी देर विश्राम कर शाम छः बजे होमस्टे से बाहर निकलकर चहलक़दमी की । ठण्ड बढ़ती जा रही थी । कमरे पर लौटकर भोजन किया और अगले दिन ॐ पर्वत की यात्रा की तैयारी कर सो गए । आज की तरह कल सुबह भी जल्दी निकलना होगा । हाँ, कल पैदल रास्ता नाममात्र का ही रहेगा । 

 यात्रा का पांचवां दिन 

         कल की तरह आज भी लोकेंद्र ने समय से पूर्व ही पानी गर्म कर दिया था । दैनिक स्नानादि कर्म से निवृत होकर नित्य-स्तुति की और फिर सात बजे के लगभग गाड़ी से ॐ पर्वत की ओर चले । आर्मी क्षेत्र के सुरक्षा गार्ड ने हमारे इनर लाइन परमिट जाँचे । आज का रास्ता बड़ा ही ऊबड़-खाबड़ और सड़कविहीन था । जगह-जगह खड्डों में पिघलते ग्लेशियरों का जल भरा हुआ है । यहाँ जगह-जगह BRO, ITBP और BSF की चौकियाँ बनी हुई है, जो आपकी जाँच करती रहती है । पूरे रास्ते सैनिकों का आवागमन देखने को मिलता है । जगह-जगह शिव से संबंधित उक्तियाँ लिखी हुई मिलती हैं । एक उक्ति जो मुझे बहुत अच्छी लगी वह है - “शिव मौन में मिलते हैं शोर में नहीं । इसलिए कृपया शान्त होकर प्रकृति का आनन्द लें । शिव यहीं आपके आस-पास ही हैं ।” 

            लगभग एक-डेढ़ घण्टे चलने के बाद हमें पहली बार ॐ पर्वत के दर्शन हुए । तब तक हम गूंजी से लगभग 18 किमी दूर आ गए थे । दो किमी और चलने के बाद हम उस स्थान पर पहुँच गए जहां से ॐ पर्वत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । हम सभी के मोबाइल कैमरे इस अद्भुत दृश्य को क़ैद करने में लग गए । सामने ही लगभग 200 मीटर दूर एक ऊँचा स्थान है जहां से ॐ पर्वत के स्पष्ट दर्शन होते हैं । ॐ पर्वत का शब्दों के माध्यम से वर्णन करना लगभग असम्भव है । अपनी स्थूल आँखों से उसे निहारते हुए कब आप ॐ में खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता ।

        मांडूक्य उपनिषद् में ॐ का वर्णन आता है । प्रकृति का उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय जिसमें होता है, उस परमात्मा को ॐ नाम से कहा जाता है । ॐ जीव की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, तीनों अवस्थाओं का भी प्रतीक है । आप ॐ को किसी भी प्रकार लें, यह सत्य है कि अव्यक्त परमात्मा को ॐ अक्षर से व्यक्त किया जाता है ।

           ॐ पर्वत को देखते हुए ॐ में लीन हो जाना आपको परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव कराता है । ॐ ही ओंकार है, यह प्रणव भी है । गुरु नानक कहते हैं - ‘एक ओंकार सतिनाम । करता पुरखु, निरभउ, निरवैर । अकाल मूरति अजूनि सैभं गुरु प्रसादि ।’ अर्थात् वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत है, स्वयंभू है और गुरु की कृपा से प्राप्त होता है ।

           यहाँ गुरु नानकदेव कह रहे हैं कि वेदों में जिसे प्रणव कहा गया है, वह ओंकार ही सतनाम है, तत्व का नाद है । वही कर्ता-पुरुष यानी करनेवाला, सृजन करने वाला है, वह स्वयं भय और वैर रहित है, समय से परे है और स्वयंभू है । नानकदेव ने जो सबसे बड़ी बात कही है वह यह है कि उस तत्व की प्राप्ति अपने पुरुषार्थ से कम और गुरूकृपा से अधिक होती है । सारांश है कि आध्यात्मिक ज्ञान का आधार भक्ति, समर्पण और निरहंकार होने में है । यही संकेत हमें महापुरुषों की वाणी में मिलता है । इसलिए पुरुषार्थ करने के साथ-साथ गुरु की शरण लीजिए, वे ही आपको समर्पण और निरहंकार होने का मार्ग दिखलाएँगे ।

                  इसी ओंकार/प्रणव के साकार ॐ रूप में दर्शन कर हम अपने आपको भाग्यशाली समझ रहे हैं । ॐ की ओर चलना ही असली यात्रा है जिसके लिए गुरु का मार्गदर्शन मिलना आवश्यक है । इससे आगे की यात्रा आज की तरह मात्र भौतिक यात्रा नहीं है बल्कि आध्यात्मिक यात्रा है जिसके लिए गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और भक्ति का होना आवश्यक है ।

         चलिए ! आज तो इसी भौतिक यात्रा पर आगे बढ़ते हैं और ॐ पर्वत के बारे में कुछ और जानने का प्रयास करते हैं ।

       पर्वत पर ॐ की आकृति प्राकृतिक रूप से बनी हुई है । सर्दियों में हिमपात होने पर पूरा पहाड़ बर्फ से ढक जाता है । मार्च के बाद जब बर्फ पिघलनी शुरू होती है तब चारों ओर की बर्फ पहले पिघलती है और ॐ की आकृति उभरकर स्पष्ट दिखलाई देने लगती है । अभी भी ॐ के साइड में हल्की बर्फ है, जून के मध्य तक ॐ एकदम स्पष्ट नज़र आने लगेगा । “ॐ पर्वत” स्थित हिमालय की गोद में उस ॐ के ध्यान में खो जाने का जो परमानंद प्राप्त हुआ, कोई भी शब्द उन पलों के आनंद की अनुभूति को व्यक्त नहीं कर सकता ।

           जहां से हम ॐ पर्वत निहार रहे हैं, उस स्थान के दाहिनी ओर ‘पार्वती की नाभि’ नामक पर्वत है । बर्फ पिघलने पर यहाँ शिव, पार्वती और नंदी की आकृति उभर आई है और पार्वती की नाभि तक दिखलाई पड़ने लगी है । शायद इसी कारण इस स्थान का नाम ‘नाभिढांग कैम्प’ पड़ा होगा । यहाँ सेना की एक चौकी बनी हुई है । इसी पर्वत से थोड़ी दूर पर शेष नाग पर्वत की पीक भी दिखलाई देती है ।

             जहां से ॐ पर्वत के स्पष्ट दर्शन होते हैं, वहाँ से 200 मीटर की दूरी पर दुर्गा मां का मंदिर बना हुआ है, जिसकी देखभाल ITBP करती है । पुजारी भी ITBP का ही है । यहाँ नियमित पूजा आरती होती है । यहाँ से वापसी का मन तो नहीं करता लेकिन घड़ी के कांटे बता रहे हैं कि शीघ्र ही चलना चाहिए, रास्ते में काली मंदिर भी देखना है । काली मंदिर यहाँ से गूंजी लौटते समय बीच रास्ते में पड़ता है, जहां से काली नदी का उद्ग़म होता है । काली मंदिर के पास ही सेना की चेकपोस्ट है, यहाँ फिर से एक बार लौट रहे यात्रियों की जाँच की जाती है । जाँच का उद्देश्य है कि जितने और जो भी यात्री ऊपर गए हैं, वे सब लौट आए हैं या नहीं ।

        गूंजी से काली मंदिर, ॐ पर्वत होते हुए आगे लिपुलेख दर्रा (pass) का मार्ग है । उसी मार्ग से हम ॐ पर्वत देखकर लौट रहे हैं । यही कैलाश मानसरोवर की यात्रा का मार्ग है । कैलाश मानसरोवर को जाने वाले यात्री काली माता के दर्शन करके ही आगे बढ़ते हैं । काली मंदिर के सामने एक बहुत ऊँचा पहाड़ है जिसमें एक गुफा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है । यह व्यास गुफा है । कहा जाता है कि वेदव्यासजी ने यहाँ साधना की थी । यहीं मां ने उनको स्वप्न में दर्शन दिए थे । उन्होंने ही यहाँ काली मंदिर का निर्माण कराया था । 

           काली नदी माँ काली के चरणों से निकलती है और गूंजी से नीचे की ओर बहते हुए भारत-नेपाल की सीमा बनाती है । मन्दिर के गर्भगृह में जाकर माता की पूजा अर्चना कर बाजू में स्थित शिव मंदिर में भगवान आशुतोष की पूजा की । मंदिर से बाहर निकलने पर बाँई ओर सेना की कैंटीन है । यहां चाय-नाश्ते की अच्छी व्यवस्था है । किसी को कैंटीन से सामान ख़रीदना हो तो ख़रीद भी सकते हैं ।

        अब हम गूंजी की ओर लौट चले हैं । आज रात्रि विश्राम धारचूला में करना है, इसलिए पहले से ही पैक किया सामान होमस्टे से उठाया और आगे की यात्रा पर निकल पड़े । दो दिन पूर्व जिस दिन हम गूंजी आ रहे थे, उस समय बरसात हो रही थी । उसी रात धारचूला और गूंजी के मध्य में लैंडस्लाइड हो गई थी, जिससे रास्ता बन्द हो गया था । गत रात्रि को ही रास्ता खोल दिया गया था जिससे हमें भी यहाँ से निकलने केलिए हरी झण्डी मिल गई ।

             शाम साढ़े चार बजे धारचूला पहुँच गए हैं । होटल वही दो दिन पूर्व वाली कैलाश मानस ही मिली है । विश्राम कर रात को हल्का भोजन लिया और सोने चले गए । सुबह उसी टेम्पो ट्रैवलर से चालक राजू के साथ पाताल भुवनेश्वर के लिए रवाना होंगे ।

यात्रा का छठा दिन  - 

           सुबह दैनिक कार्यक्रम से निवृत होकर नाश्ता-चाय लेकर क़रीब नौ बजे पाताल भुवनेश्वर के लिए निकले । धारचूला से पाताल भुवनेश्वर की दूरी लगभग 170 किमी की है और पहाड़ी रास्ता होने के कारण समय लगना भी निश्चित है । रास्ते में भोजन आदि में भी समय लगना था फिर भी शाम चार बजे पाताल भुवनेश्वर मन्दिर के पास गाड़ी पहुँच गई । 

                   गाड़ी से मंदिर के ऊपरी प्रवेश द्वार तक लगभग एक किमी पैदल चलना पड़ा । पाताल भुवनेश्वर के दर्शन से पहले वृद्ध भुवनेश्वर के दर्शन करने होते हैं । उनके दर्शन, पूजादि कर पाताल भुवनेश्वर मंदिर की और चले । स्वागत कक्ष में मोबाइल और बैग आदि जमा कराना पड़ता तथा 260 रू की रसीद कटती है । फिर लाइन में लगना होता है । नम्बर आने पर ही मंदिर की गुफा में प्रवेश मिलता है क्योंकि गुफा में जाने-आने का एक ही रास्ता है इसलिए सुरक्षा के लिए उचित व्यवस्था बनाए रखना आवश्यक भी है । गुफा के भीतर कैमरा, फोन आदि ले जाना निषेध है।

              पाताल भुवनेश्वर गुफा 90 फीट गहरी है । गुफा में उतरने के लिए एक बहुत ही तंग रास्ता है जिसमें ऊपर-नीचे, आजू-बाजू चट्टाने हैं । एक बार में एक ही व्यक्ति बड़ी मुश्किल से उतर/चढ़ सकता है । चोट लगने और फिसलने का ख़तरा बराबर बना रहता है । अधिक आयु, दमा और हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों का प्रवेश प्रतिबंधित है । कई लोग तो गुफा का संकरा प्रवेश द्वार और नीचे घुप्प अंधेरा देखकर प्रवेश की हिम्मत तक नहीं करते । नीचे उतरने अथवा ऊपर चढ़ने में फिसलने से बचने के लिए दोनों ओर की चट्टानों पर मोटी-मोटी साँकलें लगी हुई है, जिनको दोनों हाथों से पकड़ कर नीचे उतरा अथवा ऊपर चढ़ा जा सकता है । आख़िर बड़े प्रयास से गुफा में नीचे उतर ही गए । नीचे गुफा में विद्युत प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है । ऑक्सीजन कनसनट्रेटर मशीन भी लगी हुई है, जो निरंतर वातावरण में ऑक्सीजन का आवश्यक स्तर बनाए रखती है ।

                आज तो हम जैसे पाताल लोक ही पहुंच गए । 33 कोटि देवताओं के अद्भुत दर्शनों और इतनी पवित्र और प्राचीन गुफा में प्रवेश के आनंद ने तो  जीवन धन्य कर दिया । यहाँ नहीं आते तो एक महत्वपूर्ण स्थान देखने से वंचित रह जाते । सारी सृष्टि, चारों युग, कामधेनु, वासुकि व तक्षक नाग, ब्रह्मा, विष्णु महेश, शेषनाग, गंगा अवतरण आदि सभी की प्राकृतिक मूर्तियाँ सजीव सी प्रतीत होती हैं, देखकर आश्चर्य होता है ।

पाताल भुवनेश्वर का इतिहास -

           कहा जाता है कि त्रेता युग में एक राजा हुए थे, ऋतुपर्ण । उनको सर्वप्रथम इस गुफा में प्रवेश करने पर साक्षात् शिव के दर्शन हुए थे । शिव ने राजा को निर्देश दिया कि इस बात को किसी अन्य को न बताएँ अन्यथा आपकी मृत्यु हो जाएगी और हम भी यह स्थान छोड़ अन्यत्र चले जाएंगे । पीछे केवल हमारे प्रतीक चिन्ह ही रह जाएँगे । राजा ऋतुपर्ण नियमित रूप से शिव के दर्शन को इस पाताल लोक में आता था । यह बात उनकी पत्नी से छिपी न रह सकी । पत्नी ने आग्रह किया कि बतायें कि वे प्रतिदिन कहाँ जाते हैं ?

          राज हठ और बाल हठ की तरह नारी हठ भी कई बार व्यक्ति के समक्ष कठिन परिस्थिति पैदा कर देता है । राजा ने बहुत समझाया और यहाँ तक कह दिया कि यह सब बताने पर मेरी मृत्यु हो जाएगी फिर भी रानी को नहीं मानना था तो नहीं ही मानी । हारकर ऋतुपर्ण ने सारी बात बताकर मृत्यु का वरण कर लिया । रानी को बड़ा दुःख हुआ पर अब कुछ भी नहीं हो सकता था । थोड़े दिनों बाद रानी उस पाताल गुफा में पहुँची तो उसे संपूर्ण सृष्टि के केवल प्रतीक चिन्ह ही मिले ।

               सन् 819 में आदि शंकराचार्य इस स्थान पर पहुँचे और उन्होंने इस गुफा में पूजा अर्चना की उचित व्यवस्था की । आज उन्हीं पुजारियों की 19 वीं पीढ़ी इस गुफा की देखभाल कर रही है । प्रशासन का सहयोग मात्र इसकी सुरक्षा व्यवस्था देखने तक सीमित हैं । देवदार वृक्षों के घने जंगल से घिरे इस स्थान पर आने पर एक अलौकिक अनुभव होता है । पाताल भुवनेश्वर की गुफा में पहुँचने पर ऐसा लगता है मानो आप त्रेता में पहुँच गए हैं । ऐसा अनुभव होता है मानो परमात्मा की इस सृष्टि के साथ आप स्वयं को भूलकर परमात्मा में समाहित हो गए हैं । पाताल भुवनेश्वर की इस गुफा के दर्शन का वर्णन शब्दों के माध्यम से करना असम्भव है । अनुभव करने के लिए तो इस गुफा की गहराई में उतरना ही होगा ।

         पाताल भुवनेश्वर मंदिर के दर्शन करने के पश्चात् हमें रात्रि विश्राम स्थल तक जाना है । हमारे ग्रुप के रात्रि विश्राम के लिए कुमाऊँ मण्डल विकास निगम (kmvn) के गंगोलीहाट स्थित यात्री निवास और पार्वती रिसोर्ट गंगोलीहाट में व्यवस्था की गई है । हम तीनों (मैं, रामजी और डॉ. दीपक) ने kmvn के यहाँ जाना निश्चित किया क्योंकि उस स्थान के पास ही सिद्धपीठ कालिका मंदिर भी है । टेम्पोट्रैवलर से हमने पहले 11 सदस्यों को रिसोर्ट छोड़ा और फिर हम kmvn के रेस्टहाउस पहुँचे । रात के साढ़े आठ बज चुके थे, इसलिए जाते ही हल्का भोजन लिया और सो गए ।

यात्रा का सातवाँ दिन - 

          सुबह नियमित कार्यक्रमों से निवृत हो कालिका मंदिर के लिए निकले । kmvn के विश्रामगृह से मंदिर के लिए ऊँचे नीचे पहाड़ी रास्ते पर क़रीब डेढ़ किमी जाना था और उतना ही वापस आना था । हम साढ़े पाँच बजे निकले और पूजा कर सात बजे तक लौट आए । मंदिर पहाड़ों से घिरा हुआ है और बड़ा ही रमणीय स्थान है । अब वापसी यात्रा प्रारम्भ होनी है और शाम तक काठगोदाम भी पहुंचना है । रास्ते में गोलू देवता मंदिर और कैंची धाम भी रूकना है । आज रात की रानीखेत एक्सप्रेस से रवाना होकर कल सुबह जयपुर पहुँचेंगे ।

             नाश्ता कर गाड़ी में बैठकर पहले पार्वती रिसोर्ट गए और वहाँ से सभी सहयात्रियों को साथ लेकर हमारी यात्रा शुरू हुई । इतने दिनों में सभी की आपस में गहरी जान पहचान हो गई थी । सभी ने वापसी यात्रा में मनोरंजन करते हुए खूब आनन्द लिया । दोपहर साढ़े बारह बजे चितई पहुँचे जहां गोलू देवता का मंदिर है । जिस प्रकार धारी देवी को गढ़वाल क्षेत्र को धारण करने वाली देवी माना जाता है उसी प्रकार कुमाऊँ क्षेत्र के आधार गोलू देवता है । गोलू देवता को न्याय का देवता भी कहा जाता है । यहाँ लोग बड़ी श्रद्धा से अपनी मनोकामना लिखकर लाते हैं और एक घण्टी के साथ देवता के सामने लटका जाते हैं । कोई भी व्यक्ति इन चिट्ठियों को आराम से पढ़ सकता है ।

            गोलू देवता की घोड़े पर सवार छोटी सी मूर्ति है, जिसके आप गर्भगृह में जाकर दर्शन कर सकते हैं । मंदिर परिसर में लाखों घंटियाँ और मनोकामना लिखी चिट्ठियाँ लटक रही हैं । आपको सिर झुकाकर चलना पड़ता है, नहीं तो सिर का किसी न किसी घण्टी से टकराना निश्चित है । लोग अपनी श्रद्धानुसार एक किग्रा की छोटी घण्टी से लेकर सौ किग्रा तक के बड़े घण्टे तक लटका जाते हैं । कहा जाता है कि यहाँ आने वाले की प्रत्येक मनोकामना पूरी होती है । हमारे भी कई सहयात्रियों ने देवता के समक्ष अपनी कामनाएँ रखी हैं । सभी ने मुझको भी कहा परन्तु मेरी कोई कामना है ही नहीं, तो क्या कहता । केवल यही कहा - सर्वे भवन्तु सुखिनः ।

                        मन्दिर परिसर से निकलकर आगे की यात्रा पर चले । भोजन कैंचीधाम में ही करने का निश्चय किया । दोपहर बाद दो बजे कैंची पहुँच गए । यह धाम नीम करौली बाबा के कारण प्रसिद्ध है । कहा जाता है कि बाबा हनुमानज़ी के परम भक्त और सिद्ध वचन थे । मंदिर में कोई प्रसाद नहीं चढ़ता । हां, कम्बल चढ़ाई जा सकती है । बाबा सदैव एक कम्बल ओढ़े रहते थे । बाबा के रहते यहां कुछ भी नहीं था । बाबा का वृंदावन में निर्वाण हुआ था, उसके बाद इस धाम का उनके अनुगामियों ने विकास किया । प्रतिदिन हज़ारों श्रद्धालु यहाँ आते हैं । मंगल और शनिवार को तो यह संख्या लाखों में पहुँच जाती है । परिसर में व्यवस्थाएं अच्छी और नियंत्रित हैं ।

            कैंचीधाम परिसर का अवलोकन कर उसके सामने स्थित एक भोजनालय में हमने भोजन किया और भीड़ से बचते-बचाते गाड़ी तक पहुँचकर काठगोदाम के लिए निकल पड़े । शाम छः बजे काठगोदाम पहुँच गए । सभी सहयात्रियों को धन्यवाद और शुभकामनाएं दी और रात की गाड़ी से जयपुर के लिए निकल पड़े ।

              सुबह साढ़े दस बजे जयपुर और देर रात सुजानगढ़ पहुँच गए । आदि कैलाश और ॐ पर्वत की यह यात्रा हमें अलौकिक अनुभव देने वाली रही । इस यात्रा के लिए नागार्जुन ट्रैवेल्स को हृदय से धन्यवाद । इस आध्यात्मिक यात्रा में अतिदुर्गम स्थानों में भी हमारे अन्नदाता रहे उन अनजान और सेवाभावी लोगों का आभार, जिन्होंने हमें  इतना स्वादिष्ट और सात्विक भोजन प्रदान किया, आवास उपलब्ध कराया और हमें ज़रा सी भी तकलीफ़ नहीं होने दी ।

                रही tour package की बात । यात्रा दो स्थान से शुरू होती है - दिल्ली से और काठगोदाम/हल्द्वानी से । दिल्ली से प्रारंभ होने वाली यात्रा की क़ीमत काठगोदाम/हल्द्वानी से शुरू होने वाली यात्रा से पाँच हज़ार रुपए अधिक है । इस यात्रा के लिए दो प्रकार के पैकेज हैं - स्टैण्डर्ड और डीलक्स । काठगोदाम/हल्द्वानी से यात्रा का स्टैण्डर्ड पैकेज पच्चीस हज़ार का है और डीलक्स पैकेज तीस हज़ार का । स्टैण्डर्ड पैकेज में कुछ सुविधाएँ कम है, वैसे दुर्गम स्थान की यात्राओं में सुविधाओं के बारे में कभी सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि सुविधाएँ घर छोड़ते ही दूर की कौड़ी हो जाती है । यात्रा में तो प्रत्येक कठिनाई को सहन करना चाहिए ।

              हम यात्रा करने से बचने का प्रयास ही केवल इसलिए करते हैं कि मार्ग में हमें सुविधाएं नहीं मिलेगी । एक उम्र के बाद तो असुविधा की बात जचती भी है परंतु पचास वर्ष की आयु तक तो विपरीत परिस्थितियों को सुगमता से सहन किया जा सकता है । विडम्बना है कि हमने तीर्थ-यात्रा के लिए वृद्धावस्था को ही उपयुक्त माना है । मेरे मत में यात्राएं जीवन के पूर्वार्ध में ही कर लेनी चाहिए ।   

            जीवन में की जाने वाली प्रत्येक यात्रा आपको नए-नए अनुभव कराती है । जीवन के सातवें दशक में यात्रा करने से शरीर को तो कुछ असुविधा हो सकती है परंतु आत्मिक स्तर पर की जाने वाली यात्रा में मनोबल उच्च स्तर का होता है । सबसे महत्वपूर्ण बात - प्रकृति से मिलना, उसके साथ एकाकार होने का अनुभव आपको परमात्मा की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है । लक्ष्य यदि आत्म-बोध का हो तो यात्रा उसका एक साधन है । साधन से साध्य तक पहुंचने में साधक और साधना दोनों मिट जाते हैं और केवल एक साध्य ही बच रहता है । फिर यात्रा में होने वाला कोई भी कष्ट अनुभव में ही नहीं आता क्योंकि संसार और शरीर दोनों खो जाते हैं । अंततः प्रकृति हमें परमात्मा के द्वार पर ले जाकर खड़ा कर देती है । इससे आगे की यात्रा स्वयं के भीतर की यात्रा है जो मौन होकर की जाती है । मौन हो जाने में प्रकृति की सीधी भूमिका रहती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।  

         इस तीर्थ-यात्रा में प्रकृति के साथ जो सम्बन्ध स्थापित हुआ वह अवर्णनीय और अविस्मरणीय है । सांसारिक गतिविधियों से दूर, प्रकृति और परमात्मा में खोए हुओं को सप्ताह के दिनों की याद तक नहीं रही, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है । केवल इस यात्रा-वृत्तान्त पढ़ने से ही अलौकिक अनुभव नहीं होगा, ऐसे अनुभव के लिए तो निर्भय और अनिकेत होकर यात्रा के लिए निकलना पड़ता है । तीर्थ-यात्रा आपको परमात्मा की तरफ़ चलने में उत्प्रेरक का कार्य करती है और उनसे निकटता का अनुभव कराती है । 

                  आपको भी समय निकालकर आत्मिक तल पर जाकर प्रकृति के साथ एकाकार होने का प्रयास करना चाहिए । मेरा मानना है कि ऐसी यात्रा आपको परमात्मा के द्वार तक अवश्य ही ले जाएगी । इस यात्रा-वृत्तान्त में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक साथ बने रहने के लिए आपका हृदय से आभार । 

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल