Sunday, May 31, 2015

मानव-श्रेणी |14

विषयी-पुरुष -(स्पर्श)
                    सर्दी में हमें ठण्ड लगती है और  इस ठण्ड से हम दुखका अनुभव करते  हैं |इसी प्रकार गर्मी में हमें बढता हुआ ताप प्रभावित करता है और हम इस गर्मी से परेशान हो उठते हैं |सर्दी में हमें गर्म पानी से नहाना  अच्छा लगता है जबकि यही पानी हमें गर्मी में मिले तो हम दुखी हो जाते हैं |भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि इस स्पर्श के प्रति आसक्ति को कम करने के लिए व्यक्ति  को सर्दी और गर्मी को सहने की आदत डालनी चाहिए |यह  एक तरीका है जिससे इस  इन्द्रिय को नियंत्रण में  रखा जा सकता है |बौध भिक्षु इस इन्द्रिय को नियंत्रण में रखने के लिए एक प्रकार का ध्यान-योग भी उपयोग में लेते है |इस योग में किसी बर्फीले और अत्यधिक ठन्डे स्थान पर बैठ कर वे अत्यधिक गर्म स्थान पर बैठे होने का ध्यान करते हैं |इस ध्यान में उतरने के बाद धीरे धीरे उन्हें सर्दी का अहसास कम होता जाता है | इस ध्यान की उच्चत्तम अवस्था में तो भिक्षु के अत्यधिक ठन्डे स्थान पर भी पसीना तक  आने लगता है |इसी प्रकार की साधना किसी अत्यधिक  गर्म स्थान पर बैठ कर बहुत ही ठन्डे  स्थान की कल्पना करते हुए भी की जा सकती है |
            इसी प्रकार किसी कील या कांटे के शरीर में चुभने पर पैदा होने वाले दर्द का अनुभव कम किया जा सकता है |मैंने ऐसे एक साधू की शल्य चिकित्सा होते देखी है,जिसने अपने ऊपर किसी भी प्रकार की निश्चेतन करने की विधि को प्रयोग में  लाने से  स्पष्ट इंकार  कर दिया था |बिना निश्चेतन के उस महात्मा ने अपनी मध्यम दर्जे की शल्य चिकित्स करवाई और पूरी शल्य चिकित्सा के दौरान उनके मुंह से जरा सी  भी आह तक नहीं निकली |इसको कहते हैं -स्पर्श  से अनासक्त होना |
क्रमशः
                                             || हरिः शरणम् ||

Sunday, May 24, 2015

मानव-श्रेणी |-13

विषयी-पुरुष -
 त्वचा-
       मनुष्य  की इस ज्ञानेन्द्रिय का विषय है-स्पर्श |त्वचा, सभी इन्द्रियों में इस  भौतिक शरीर में  विशालतम इन्द्रिय है |इस से प्राणी का सारा शरीर ढका हुआ रहता  है |इसको स्पर्श करने से ही प्राणी को सुख या दुःख का अनुभव होता है |शेष सभी चारों इन्द्रियों को आप अपने विवेकानुसार उपयोग में ले सकते हैं परन्तु  इस इन्द्रिय को नियंत्रण में रखना बड़ा ही मुश्किल है |स्पर्श तो कभी भी और कहीं पर भी मिल सकता है |इस स्पर्श से व्यक्ति प्रभवित हुए बिना नहीं रह सकता |
          स्पर्श से हमें ठन्डे-गर्म का भान होता है |इसी कारण से हमें  सर्दी-और गर्मी का अहसास होता है |दर्द का अनुभव भी इसी इन्द्रिय के माध्यम से होता है |स्पर्श से ही यौन  और कामेच्छा पैदा होती है और सुख अथवा दुःख मिलता है |अतः कहा जा सकता है  कि इस इन्द्रिय से जितना व्यक्ति प्रभावित हो सकता है,उतना अन्य किसी इन्द्रिय से नहीं | स्पर्श विषय में आसक्ति होना ही सबसे अधिक घातक माना गया  है |हालाँकि  सभी इन्द्रियां आपस में एक प्रकार का तालमेल बनाकर ही कार्य सम्पादित करती है,परन्तु त्वचा इन्द्रिय द्वारा ही व्यक्ति को सबसे  अधिक सुख और दुःख की अनुभूति होती है |अतः इस इन्द्रिय  को नियंत्रण में कर के उसे जीतनेवाला ही वास्तव में जितेंद्रिय कहलाने का अधिकारी होता है |
            हालाँकि व्यक्ति के शरीर में काम का प्रवेश आँखों के माध्यम से होता है और नाक तथा कान इस काम की भावना को बढाने में सहायक होते है परन्तु इस काम का सुख अथवा दुःख त्वचा ही प्रदान कर सकती है | इसीलिए इस इन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति आसक्त रहने की सम्भावना सबसे अधिक होती है |
क्रमशः
                                || हरिः शरणम्  ||   

Sunday, May 17, 2015

मानव-श्रेणी |-12

विषयी-पुरुष-
                                       जब आप शब्दों में आसक्त हो जाते हैं,तब आप केवल वे ही शब्द सुनना चाहेंगे,जो आपको प्रिय लगते हों |यही आसक्ति आपको शब्दों के प्रति विषयी बना देती है |जैसे  आपको फ़िल्मी गाने अधिक पसंद है ,तो आप वही गाने बार बार सुनना पसंद करेंगे |ऐसे ही कुछ अन्य  व्यक्ति भजन सुनकर प्रसन्नता अनुभव करते हैं | दोनों ही परिस्थितियां विषयी होने के अंतर्गत आती है |परन्तु भजनों में आसक्त होना आपकी उन्नति में सहायक है | धीरे धीरे भजनों की आसक्ति भी नियंत्रित होकर प्रेमाभक्ति में परिवर्तित हो जाती है , जबकि सांसारिक शब्दों के प्रति आसक्ति दिन प्रतिदिन बढाती ही जाती है |विषयी न होने का अर्थ यही है कि आप शब्दों के प्रति  आसक्त् न हो , चाहे वे शब्द गाली हो, आपकी प्रशंसा के हो,भजन हो या फिर फ़िल्मी  धुनें | जिस प्रकार के भी शब्द आपके कानों में पड़कर सुनाई दे रहे हों, सबको इन्द्रियों का गुण मानते हुए स्वीकार करें और अपने आपको सम अवस्था में रखें | यही इस इन्द्रिय के प्रति विषयी न होना है |सम अवस्था से अर्थ है,शब्दों को भलीभांति सुनकर और समझकर भी समता मे रहना - न तो प्रसन्नता,न ही उद्विग्नता और न ही उदासीनता |यही शब्दों के प्रति विषयी न होना है |
                जब विषय के प्रति आसक्ति पैदा होती है,तब मन बार बार उस विषय को भोगना चाहता है | यह बार बार भोगने की कामना ही विषयी की पहचान है |अतः शब्दों के प्रति आसक्ति न रखते हुए उनका अवलोकन करे और अपने मन में उन शब्दों को लेकर संतुलन बनाये रखें |शब्द जब इन्द्रिय तक पहुंचेंगे,तो प्रकृति के गुणों के कारण उन्हें सुनने के लिए आप बाध्य हैं परन्तु सुनकर उसकी प्रतिक्रिया देने में आप स्वतन्त्र है |जब आप शब्दों को सुनकर भी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, निश्चित मानिये फिर आप उन शब्दों के प्रति विषयी नहीं है |
       कान ही एक इन्द्रिय है, जिससे शेष चारों ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ है | कान आकाश का प्रतिनिधित्व करती है | आकाश में विकृति आने पर वायु का प्रादुर्भाव होता है ,जिससे त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय का विकास हुआ | त्वचा का विषय है-स्पर्श |स्पर्श विषय के प्रति आसक्ति क्या कर सकती है?-अगली कड़ी में |
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् ||

Sunday, May 10, 2015

मानव-श्रेणी |-11

विषयी-पुरुष-
                    कान  इन्द्रिय का कार्य है,सुनना |इसका विषय है-शब्द| शब्द जब आपके कानों में पड़ते हैं,तब कुछ शब्द आपको अच्छे लगते हैं और कुछ बुरे |कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं,जो आपको न  तो अच्छे लगते हैं और न ही बुरे | अच्छे शब्दों को सुनकर आप प्रसन्न होते हैं,जबकि बुरे शब्दों को सुनकर आपको क्रोध आता है |जिन शब्दों को सुनकर आपको न तो ख़ुशी मिलती है और न ही क्रोध आता है,ऐसे शब्दों का आप या आप से सम्बंधित किसी अन्य का भी कोई मतलब नहीं होता है | ऐसे शब्दों को सुनकर आप न तो हर्षित होते हैं और न ही व्यथित |इस अवस्था को उदासीन अवस्था कहते हैं | तीनों ही अवस्थाएं,शब्दों को सुनने के उपरांत पैदा हुई है | इन शब्दों  को सुनकर आपकी जो जो अवस्था बनती है,उसी से  साबित होता है कि आप विषयी हैं |
                                    विषयी होने का अर्थ है,सम्बंधित  विषय के प्रति आसक्त होना |शब्दों पर ध्यान न देना भी विषयी नहीं होना, नहीं है | शब्दों को ध्यान लगाकर सुनना और फिर उन शब्दों से प्रभावित हुए बिना रह जाना ही विषयी न होने की पहचान है |विषयासक्त न होना, तभी संभव हो पाता है,जब आप इन्द्रियों और  उनके विषयों के प्रति सम्पूर्ण ज्ञान रखते हो | उच्चारित शब्द आपके कानों तक हर परिस्थिति में पहुंचेंगे ही | वे शब्द कान में पड़ते ही उनको सुनना भी होगा |इन दोनों को ही  रोक पाना आपकी पहुँच से बाहर है |आपके वश में है तो केवल मात्र यही कि  उन शब्दों को सुनकर भी आप उद्वेलित न हो,प्रसन्न न हो और न ही उदासीन रहे |
क्रमशः
                                     || हरिः शरणम् ||
                        

Saturday, May 2, 2015

मानव-श्रेणी |-10

विषयी-पुरुष-
                 इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति रखना ही विषयी पुरुष का प्रमुख लक्षण है |कान एक ऐसी इन्द्रिय है जिसके माध्यम से व्यक्ति शब्दों का श्रवन करता है |यह इन्द्रिय पांचो  इन्द्रियों में एक मुख्य इन्द्रिय है |यह इन्द्रिय  जीवन में सबसे पहले सक्रिय होती है और प्रायः जीवन के अंत तक सक्रिय बनी रहती है |जिस शिशु में इस इन्द्रिय का विकास नहीं होता उसकी शेष  बची चार इन्द्रियों का विकास भी प्रभावित होता है |
 श्रवनेंद्रिय-                        
            इस इन्द्रिय का विषय है-शब्द |यह पांच भौतिक तत्वों में से, एक आकाश का प्रतिनिधित्व करती है |सुनना इस इन्द्रिय का प्रमुख कार्य है |यह इन्द्रिय जिस शिशु में विकसित नहीं होती,उसका  जीवन में शब्दों को सुनना तथा साथ ही साथ उनका उच्चारण करना संभव नहीं हो पाता |व्यक्ति अपनी इस इन्द्रिय के माध्यम से शाव्ब्दों का श्रवण कर उनकी स्मृति बना लेता है,फिर उस स्मृति के आधार पर उसकी एक  कर्मेन्द्रिय जिव्हा ,उन शब्दों को उच्चारित करती है |
                शब्दों को  सुनना भी महत्वपूर्ण है |व्यक्ति को  परमात्मा का नाम सुनने में रुचि काम और किसी अन्य व्यक्ति की आलोचना सुनना ज्यादा पसंद होता है |व्यक्ति  धार्मिक आयोजनों में भक्ति-संगीत सुनने से ज्यादा रुचि किसी पार्टी में बज रहे कामुक और फ़िल्मी गानों को सुनना ज्यादा पसंद करता है | शास्त्रीय संगीत की बजाय उसे तडक भड़क वाले  ,शोर पैदा करने वाले वाद्य  यंत्रों का संगीत सुनने में ज्यादा रस मिलता है |यह उस व्यक्ति की  इस इन्द्रिय के विषय के प्रति आसक्ति होना प्रदर्शित करता है |विषयी व्यक्ति अपना सबकुछ कार्य छोड़ कर इस विषय के प्रति आसक्त होकर वैसे शब्दों को सुनना अधिक पसंद करता है ,जो शास्त्रोक्त तो है ही नहीं बल्कि उसे  अपनी स्थिति से गिराने वाला भी है |अतः इस इन्द्रिय पर नियंत्रण रखना उसके भविष्य निर्माण के लिए आवश्यक है |
क्रमशः
                                  || हरिः शरणम् ||