Sunday, November 30, 2014

समझ |

मैने बहुत से इन्सान देखे हैं,
जिनके बदन पर लिबास नहीं होता।
और बहुत से लिबास देखे हैं,
जिनके अंदर इन्सान नहीं होता ।
कोई हालात नहीं समझता,
कोई जज़्बात नहीं समझता,
ये तो बस अपनी अपनी समझ है,
कोई कोरा कागज़ भी पढ़ लेता है,
तो कोई पूरी किताब नहीं समझता...!!!
                         ||हरिः शरणम् ||

Thursday, November 27, 2014

What is love?

What is love?
Love is when my mom kisses me and says mera bachha lakhon me ek hai...
Love is when you come back from work and dad says 'arey beta! aaj bahut der ho gai
Love is when ur bhabhi says ' hey hero ladki dekhi hai tere liye, koi aur pasand ho tou bata dena'
Love is when ur brother says ' bhai tu tension na le, main hu na tere saath
Love is when you are Mood less and your sister says ' chal bhai kahi ghoom kay aatein hai
Love is when ur best friend hugs you and says' abe tere bagair mazaa nahi aata yar....
These all are best moments of love.....don't miss them in life.
Love is not only having a bf or gf.
Love you all who have been a special part of my life...........
Its love,
when a little girl puts her energy to give dad a head massage.
Its love,
when a wife makes tea for husband and take a sip before him.
Its love,
when a mother gives her son the best piece of cake.
Its love,
when your friend holds your hand tightly on a slippery
road.
Its love,
when your brother messages you and asks did you reach home on time..
Love is not just a guy holding a girl and going around the city.
Love when you send a small message to your friends to make them smile
Love is actually a name of "care".. !!!!..
Love is the name of God....
Love every one  and live with God.
                         || HARI SHARNAM ||

Wednesday, November 26, 2014

प्रदर्शन |

                                अभी दो दिन पूर्व मैं उदयपुर था-राजस्थान के  शिशु रोग विशेषज्ञों के सम्मलेन में भाग लेने के लिए । किसी भी आयोजन से पूर्व सदैव ही उस आयोजन के उद्घाटन की एक रस्म निभाई जाती है । इस आयोजन में भी ऐसा ही कुछ किया गया । मंचस्थ सभी व्यक्ति अपने प्राकृतिक व्यवहार से विपरीत व्यवहार करते महसूस हो रहे थे । जो व्यक्ति सदैव जिस रूप में हमें नज़र आते हैं,यदि किसी एक दिन वे ऊसके विपरीत नज़र आये तो स्वाभाविक है कि उस तरफ आपका ध्यान अवश्य ही जायेगा । मंच पर आयोजक और मुख्य अतिथि उपस्थित थे और वे सभी उस दिन ऐसा व्यवहार कर रहे थे ,जैसा कि वे आम दिनों में नहीं करते हैं ।
                                स्वर्गाश्रम,ऋषिकेश में एक संस्था है -वानप्रस्थ-आश्रम । वहां कई स्थानों पर सुविचार लिखे हुए है । एक सुविचार है-"व्यक्ति जो कुछ भी है उसको छुपाने में अपनी आधी ऊर्जा व्यय कर देता है और शेष बची ऊर्जा जो नहीं है,उसे दिखाने में ।"इस  प्रकार हम देखते हैं की इस छुपाने और दिखने में ही वह अपने जीवन की सारी ऊर्जा खपा डालता है । ऐसे में उसके पास अपने जीवन में कुछ नया करने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं है । यही बात ध्यान देने योग्य है ।
                              हमें अपने जीवन में सदैव ही अपने स्वभाव के अनुरूप ही व्यवहार करते रहना चाहिए,जिससे ऊर्जा का अनावश्यक क्षरण न हो । ऐसे में हमारे पास ऊर्जा का अतुल भंडार होगा जिससे हम अपने इस छोटे से जीवनकाल में कई सृजनात्मक कार्य  कर सकते हैं । जीवन में अगर किसी लक्ष्य को प्राप्त करना है तो सदैव ही अपने प्राकृतिक स्वभाव में ही जीयें । याद रखें,शेर की खाल ओढ़ लेने मात्र से ही कोई भेड़िया कभी भी शेर बन कर शिकार नहीं कर सकता । भेड़िया तभी शिकार कर सकता है जब वह भेड़िये के स्वभावानुसार ही शिकार करे । आप जो  कुछ भी हैं ,उस परमात्मा ने आपके स्वभावानुसार ही आपको वैसा बनाया है । उसमे कुछ भी परिवर्तन करने का प्रयास न करें । फिर देखें,आप कैसे अपनी इस  उर्जा से नई उपलब्धियां हासिल करते हैं । दिखावा आपको बड़ा होने का भ्रम ही पैदा कर सकता है,बड़ा बनाता नहीं है और न ही बड़ा बनने देता है ।
                             ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, November 22, 2014

जीवन - मृत्यु ।

                                          आज सुबह सुबह ही एक मित्र का फोन आया ।एक लम्बा अंतराल हो गया था उससे बात हुए ।मेरे हैलो कहते ही वह बिना किसी औपचारिकता पूरी किए मुझ पर बरस पङा ।वह बोला-"पंडित, जिन्दा है कि मर गया? "मुझे मेरे सभी मित्र मेडिकल कॉलेज में इसी नाम से सम्बोधित करते थे ।खैर , उस मित्र को अपने पुत्र की शादी का निमंत्रण देना था, जो उसने दे दिया ।परंतु उसने मुझे कुछ और ही दिशा मे सोचने को विवश कर दिया ।आज जीवन के उतरार्ध में ऐसा सोचना कितना कष्ट प्रद होता है, ऐसा अनुभव  मुझे आज जाकर  हुआ ।
                                         इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ पाना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है कि आज मैं जिन्दा हूँ कि मर गया हूँ? जिन्दा अपने आप को इस तरह नहीं कह सकता हूँ क्योंकि मेरी विवशताओं ने मुझसे मेरे शरीर से जीवित होने के सभी लक्षण छीन लिए हैं और मरा हुआ इसलिये नहीं कह सकता हूँ क्योंकि इस शरीर में दिल अभी भी धङक रहा है तथा सासें भी चल रही है।जीवन में इसी तरह समय बंद मुट्ठी से बालू रेत की तरह फिसल जाता है ।अंत में जब मुठ्ठी खोलने पर रिक्तता नजर आती है तो फिर निराश और निरूत्तर होना ही पङता है।
                                     जिन्दगी में भौतिकता का संग्रह कोई उपलब्धि नहीं है, जिसे हम अपनी उपलब्धि बताते हुए उस पर गर्व कर सके। आज इस संसार मे यही तो हो रहा है।यहां हर कोई भौतिक सुख की कामना करते हुए भौतिकता के पीछे दौड रहा है जिसे वह अपनी उपलब्धि बताते हुए गर्व महसूस करता है।परंतु जीवन के संध्या काल में जाकर उसे अहसास होगा कि वह कितना गलत था।जीवन का उतरार्ध वह अवस्था है कि जब व्यक्ति के पास कुछ करने के लिए न तो समय ही रहता है और न ही शारीरिक उर्जा।
इसका क्या समाधान हो सकता है?
                                                       ।।हरि: शरणम् ।।

Wednesday, November 19, 2014

कर्म -फल |

             यदि लक्ष्य स्पष्ट हो, उसे पाने की तीव्र उत्कंठा और अदम्य उत्साह हो तो अकेला व्यक्ति भी बहुत कुछ कर सकता है। विश्वकवि रविंद्रनाथ टैगोर का यह कथन कितना सटीक है कि अस्त होने के पूर्व सूर्य ने पूछा कि मेरे अस्त हो जाने के बाद दुनिया को प्रकाशित करने का काम कौन करेगा। तब एक छोटा-सा दीपक सामने आया और कहा प्रभु! जितना मुझसे हो सकेगा, उतना प्रकाश करने का काम मैं करूंगा।
            आखिरी बूंद तक दीपक अपना प्रकाश फैलाता रहता है। जितना हम कर सकते हैं, उतना करते चलें। आगे का मार्ग प्रशस्त होता चला जाएगा। किसी ने कितना सुंदर कहा है कि जितना तुम कर सकते हो, उतना करो, फिर जो तुम नहीं कर सको, उसे परमात्मा करेगा। जो व्यक्ति आपत्ति-विपत्ति से घबराता नहीं है, प्रतिकूलता के सामने झुकता नहीं है और दुख को भी प्रगति की सीढ़ी बना लेता है, उसकी सफलता निश्चित है। ऐसे धीर पुरुष के साहस को देखकर असफलता घुटने टेक देती है। इसीलिए तो कहा गया है-''चरैवेति चरैवेति" यानी चलते रहो, चलते रहो, निरंतर श्रमशील रहो। किसी महापुरुष ने कितना सुंदर कहा है-अंधकार की निंदा करने की अपेक्षा एक छोटी-सी मोमबत्ती, एक छोटा-सा दिया जलाना कहीं ज्यादा अच्छा होता है। महापुरुष समझाते हैं कि व्यक्ति सफलता प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ अवश्य करे, लेकिन अति महत्वाकांक्षी न बने।
         किसी के हृदय को पीड़ा पहुंचाकर किसी के अधिकारों को छीनकर प्राप्त की गई सफलता न तो स्थायी होती है और न ही सुखद। ऐसी सफलता का कोई अर्थ नहीं होता। अति महत्वाकांक्षा व्यक्ति को तानाशाह तो बना सकती है, किंतु सुख-चैन से जीने नहीं देती। दिन-रात भय और चिंता के वातावरण का निर्माण करती है और अंतत: सर्वनाश का ही सबब बनती है। हमें भगवान श्रीकृष्ण का गीता में कथित यह संदेश कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि हे अर्जुन! "तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में नहीं। इसलिए तू कर्मो को करने पर ध्यान दे, फल पाने की चिंता में उलझा मत रह। इसलिए हमारे लिए यह जरूरी है कि हमें किसी भी दशा में निरंतर प्रयास करने के बाद भी यदि वांछित सफलता न मिले, तो उदास और निराश नहीं होना है।
        इस जगत में सदैव मनचाही सफलता किसी को भी नहीं मिली है और न ही कभी मिल सकती है, लेकिन यह भी सत्य है कि किसी का पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं गया है।
                    ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, November 16, 2014

बंधन |

            बच्चों के प्रति स्नेह और लाड़-प्यार का अर्थ वात्सल्य से संबंधित है। मनुष्य जीवन के प्रारंभ होते ही रिश्तों के बंधन बनने लगते हैं। सबसे पहले बीजरूप बनते ही माता और पिता से संबंध बन जाता है। इसके बाद भाई, बहन, दादा-दादी और नाना-नानी आदि से बंधन जुड़ते हैं।
          इस संसार में जन्म लेने वाले बच्चों की मुस्कान माता-पिता और सभी बड़ों को अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और उनका हृदय स्नेह की हिलोरों से भर उठता है, जो हमारे मनोभावों पर जादू सरीखा प्रभाव डालती है। आज संयुक्त परिवार की व्यवस्था चरमरा रही है। युवाओं को आत्म-निर्भर होने के बाद माता-पिता के बंधन में रहना गवारा नहीं है और न ही बुजुर्गो को नई पीढ़ी की स्वतंत्र जीवन-शैली रास आती है।
         ऐसे में इन दोनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए वात्सल्य बंधन सेतु के रूप में काम करता है। बुजुर्ग अपनी संतान से कितना ही रुष्ट हो जाएं, जब उनकी नजर अपने इन नन्हें-मुन्नों की मासूम मुस्कान पर पड़ती हैं और उनकी बातों को सुनते हैं तो उन पर जादू जैसा प्रभाव पड़ता है। वात्सल्य के अलावा अन्य बंधनों, जैसे भाई-बहन, पति-पत्‍‌नी, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच बने सारे बंधन मोह या स्वार्थ की नींव पर ही आधारित होते हैं। इन बंधनों में कोई भी दृढ़ता नहीं होती है। समस्त बंधनों में केवल वात्सल्य बंधन ही एक नि:स्वार्थ, निर्दोष और सार्वभौमिक है। अर्थात इस दुनिया में आप कहीं भी चले जाएं, इन सब स्थानों पर इसका एक ही स्नेह भरा रूप मिलेगा, परंतु हमारी संस्कृति की यह विशेष देन रही है कि शिशु के कोमल भावों को ध्यान में रखते हुए प्यार-दुलार से उसके जीवन को संवारा जाता है। किसी भी वस्तु की अति उचित नहीं कही जा सकती है। प्यार-दुलार भी एक सीमा तक ही करना उचित है। ऐसा इसलिए क्याेंकि एक उम्र के बाद थोड़ा ताड़न लालन-पालन के लिए नितांत आवश्यक है, परंतु यह बनावटी होना चहिए। वात्सल्य बंधनों में सबसे बड़ा बंधन तो भक्त और भगवान का है। परमेश्वर अपने भक्तों को बच्चों के समान समझते हुए उनसे स्नेह रखता है। इसीलिए ईश्वर को भक्तवत्सल कहा गया है।
                                                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, November 13, 2014

मन की यात्रा |

               मन की यात्रा अधूरी ही होती है। वैसे तो आदमी जीता पूरा है और पूरी तरह से जीने का प्रयास करता है, पर वह जी नहीं पाता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जीने के लिए प्रयास करता है। उन प्रयासों में वह कुछ संभावनाओं में डूबकर जीता है। कुछ कल्पनाओं में डूबकर जीता है और कभी-कभी ख्वाब में इस तरह खोकर जीता है जैसे उसका यही सत्य है।
             यही जीवन है। आदमी का यह मन ही तो है। मन जो मान लेता है उसी की यात्रा करने लगता है। उसी के नशे में डूबकर कुछ समय काट लेता है। मन सभी चीजों को स्वीकार कर लेता है। मन सभी तरह की बातों को बर्दाश्त कर लेता है। वह केवल अपना रास्ता खोजता रहता है। वह खाने में, पीने में, सोने-जागने में भी अपना प्रभाव रखता है। इसलिए आदमी पूरी तरह से सो भी नहीं पाता। सोकर भी वह स्वप्न में खो जाता है। सोकर वह यात्राएं करने लगता है। स्वप्न में ही उठकर चलने लगता है। स्वप्न में ही मन के भटकाव को मुक्ति देने का प्रयास करता है और कभी-कभी तो सो भी नहीं पाता। पूरी रात स्वप्नों में ही गुजार देता है और करवट पर करवट बदलकर अपनी जिंदगी के कुछ क्षण को, समय को काट लेता है।
              वैसे तो मनुष्य पूरी व्यवस्थाओं के साथ जन्म लेता है। जब वह जन्म लेता है तो प्रेम के अनुग्रह का अथाह सागर उसके लिए उमड़ पड़ता है, पर जैसे-जैसे उसकी दुनिया बढ़ती जाती है, वह अपने जीवन के प्रश्नों के समाधान में उलझ जाता है। मांग बढ़ती जाती है। प्रश्नों का चक्रव्यूह बढ़ता जाता है। चाहतें बढऩे लगती हैं। समाधान की खोज में यात्राएं होती रहती हैं। किसी स्थूल यात्रा को वह पूरा कर लौट आता है। तो किसी में उलझ कर छोड़ आता है। आदमी के प्रश्न भी अनेक तरह के हैं और समाधान के मार्ग भी भिन्न तरह के हो जाते हैं। आदमी की कई तरह की चाहत है। कोई धन से प्यार करता है, कोई पद प्रतिष्ठा से, तो कोई कला से प्रेम कराने लगता है। इस प्रकार मन के कहने पर वह हर काम करता है, लेकिन बाद में उसे यह अहसास होता है कि मन के कहने पर वह जो भी करता है, अंतत: हाथ कुछ नहीं आता। मन की नीरसता व रिक्तता दूर नहीं होती। यह रिक्तता तो ध्यान से ईश्वर की शरण में जाने से ही पूरी हो सकती है।
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, November 9, 2014

अनासक्ति |

                  राग और द्वेष से विलग हो जाना अनासक्ति है। मनुष्य आदतन आसक्ति और विरक्ति के मध्य झूलता है। या तो वह किसी चीज की ओर आकर्षित होता है या विकर्षित, परंतु वह यह नहीं जानता कि इन दोनों से बड़ी बात है कि कर्तव्य कर्म करते समय निष्पृह भाव में चले जाना। यही अनासक्त भाव है। विरक्ति वास्तव में आसक्ति का दूसरा हिस्सा है। आज जिस वस्तु के प्रति आसक्ति है, कल उससे विरक्ति हो सकती है। अनासक्ति इन दोनों से ऊपर है। अनासक्ति की भावदशा में चीजें हमें न बुलाती हैं और न भगाती हैं। हम दोनों के मध्य अनासक्त खड़े हो जाते हैं।
              बुद्ध ने इसे 'उपेक्षा' कहा है। न कोई राग है और न विराग। भोगवाद और वैराग्यवाद दोनों अतियां हैं। भोग में वैराग्य का भाव ही निष्काम कर्म है। भोजन तो करना ही है। जरूरत है भोजन में त्याग का भाव। भोजन में स्वाद की तलाश करना बुरा है। अनासक्त साधक सांसारिक घटनाओं का केवल साक्षी है- तटस्थ द्रष्टा है। वह एक गवाह की तरह जिंदगी में विचरता है। उसके भीतर न चिंता है, न दुख है और न ही द्वंद्व की तरंगें। अनासक्त कर्मयोगी के जीवन में जो तरंगें उठती हैं, वे स्वभाव से मंगलकारी होती हैं। कर्मयोगी 'कर्तव्य कर्म' करते हुए आसक्ति और विरक्ति के बीच से बेदाग निकल जाता है। जीवन से भागना नहीं है, जीवन में जागना है। जो जीवन से भागता है वह स्वयं अपने लिए समस्या बन जाता है। कोल्हू के बैल की तरह भागने वाला कभी मंजिल तक नहीं पहुंचता। भागने से कोई सकारात्मक क्रांति नहीं हो सकती।
              जागते केवल वे हैं, जो जीवन को सत्कर्म से संवारते हैं। आसक्ति में जीने वाले व्यक्ति के भीतर विरक्ति के ख्याल आते रहते हैं। जिंदगी ध्रुवीय है। विद्युत की तरह वह 'पॉजिटिव है और निगेटिव' भी। अंधेरा है, तो उजाला भी है। जन्म है तो मृत्यु भी है। कहने का आशय यह है कि जो लोग विरक्त होने का प्रदर्शन करते हैं, उनके जीवन में आसक्ति के दौरे पड़ते रहते हैं। ध्यान रहे कि जिस हिस्से को हम दबाते हैं, वह हम पर हमला करता रहता है। अनासक्ति स्वभाव से 'नॉन पोलर' है- अध्रुवीय है। ध्रुवीय जगत के बाहर स्थित होना ही अनासक्त योग है। अनासक्त होते ही कर्मयोगी अद्वैत में प्रवेश कर जाता है, क्योंकि वह 'नॉन पोलर है।
                                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Friday, November 7, 2014

आत्मा और शरीर |

                   शास्त्रों में परमात्मा का निवास आत्मा में माना जाता है, क्योंकि परमात्मा आत्मा का विस्तार है और आत्मा परमात्मा का संकुचित स्वरूप है। जो लोग आत्मा के निवास स्थान शरीर को पर्याप्त महत्व नहीं देते वे बहुत बड़ी हिंसा करते हैं।
                  ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंसा का अर्थ है किसी को नष्ट करने का प्रयास करना, जबकि शरीर आत्मा का वाहन है। अगर शरीर स्वस्थ है तो उसमें स्वस्थ आत्मा का निवास होता है। शरीर बीमार है, तो वह सही ढंग से काम नहीं कर सकता। जब शरीर विकृतियों से भर जाए तो उस शरीर से कोई सुकृति नहीं हो सकती। इसीलिए साधकों को काम, क्त्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या से बचने का परामर्श दिया जाता है। क्योंकि ये षड्विकार मनुष्य को रुग्ण बनाते हैं और रुग्ण मनुष्य कभी-भी परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता। परमात्मा के चिंतन का अर्थ है उस परमात्म तत्व को धारण करना और उस तत्व का बोधत्व प्राप्त करना।
                परमात्मा द्वारा निर्मित यह सारा ब्रह्मांड परमात्मा का मूर्त प्रत्यक्षीकरण है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, तारे, औषधि, वनस्पति, पुष्प, फल इत्यादि ब्रह्म की विभिन्न स्वरूपों में अभिव्यक्ति हैं। जब हम इन तमाम वस्तुओं से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं, तब हमें ब्रह्म की अनुभूति होती है, यही अनुभूति सिद्धि की अवस्था है।
               लोगों को अपने दिन का कार्यक्रम प्रात:काल के लाल सूर्य से शुरू करना चाहिए। सूर्य की प्रथम किरण को आंख के माध्यम से मस्तिष्क में उतारें और धीरे-धीरे उस विराट प्रकाश को अंतर्मुखी होकर शरीर के सभी अंगों का स्मरण करते हुए फैलने दें। मस्तिष्क से पैर की अंगुली तक उस विराट रश्मि को अवतरित होने दें। इससे शरीर के अंदर की अनेक विकृतियां, रोग और कुंठा का शमन होगा। उसके पश्चात नक्षत्रों का स्मरण करें और एक-एक नक्षत्र को स्मरण कर शरीर में प्रवेश कराएं, ऐसी विचार-कल्पना करें। विशेषकर आप जिस ग्रह से प्रभावित हों, उसे बार-बार धारण करें, बारी-बारी से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश की शक्तियों को शरीर में धारण करें, क्योंकि इन्हीं तत्वों से आपका शरीर बना है। इन तत्वों में असंतुलन हो जाने के कारण ही आप शरीर से बीमार पड़ते हैं। फूल, पौधे, औषधि, वनस्पति और पहाड़ ये सभी ईश्वर के ही स्वरूप हैं। अंतर यह है कि हमारी दस इंद्रियां सक्रिय हैं और इनकी एक, दो और तीन इंद्रियां सक्रिय हैं।
                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, November 4, 2014

मुक्ति-मार्ग |

                  हमारा पुरातन योग अंग्रेजी मीडिया की कृपा से आजकल हिंदी में 'योगा' हो गया है। योग के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो सीधे-सीधे जोड़ को योग कहते हैं। इस संदर्भ में प्रश्न उठता है कि किसका किससे जोड़। हमारा अध्यात्म इस योग में आत्मा से परमात्मा को मिलाता है।
               जब हमारी आत्मा, परमात्मा से निकटता बढ़ाकर एकाकार होने लगती है तो इसे 'योग' कहते हैं ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग भी हमें अंतत: आत्मा का परमात्मा से ही साक्षात्कार कराते हैं अध्यात्म जगत को असत् यानी मिथ्या मानता है और परमात्मा को सबसे बड़ा सत् यानी सत्य मानता है।
               श्रीमद्भागवत पुराण का पहला श्लोक भी यही कहता है कि 'सत्यं परम धीमहि' यानी परम सत्य परमात्मा को हमारी आत्मा धारण करे। भक्तियोग को गीता में और अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों में सर्वोत्कृष्ट योग माना जाता है। कर्मयोग और ज्ञान योग के मार्ग अंतत: भक्ति योग तक ले जाते हैं। भक्तियोग को सरलतम और सहज माना जाता है, पर मन और इंद्रियों को भक्ति में रमाने के लिए समर्पण आवश्यक है और समर्पण तक पहुंचने के लिए मार्ग मंत्रयोग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और महायोग की शरण से होकर गुजरता है।
              मंत्र योग किसी मंत्र का उच्चारण करने से सिद्ध होता है। स्पर्श योग में इष्ट का स्पर्श मंत्र जपने से होता है जैसे कि शिवलिंग का स्पर्श या इष्ट की मूर्ति का श्रृंगार और सेवा। इस प्रक्रिया से आस्था मजबूत होती है। आस्था मजबूत होने पर भाव योग का सृजन होता है। तब हम मस्त होकर इष्ट के भजनों का गायन करते हैं और उनकी लीलाओं का स्मरण करते हैं। अभाव योग में हम संसार से विरक्त हो जाते हैं। तमाम अभावों में भी हमारी भक्ति हमारे इष्ट से टूटती नहीं है। परीक्षाओं से गुजरते हुए हमारी भक्ति मजबूत होती जाती है। सांसारिकता का अभाव मन में स्थान बना लेता है और तब महायोग जन्मता है, जो भक्तियोग की पराकाष्ठा है।
             सांसों के साथ परमात्मा का जुड़ाव हो जाता है और यह होता है वास्तविक योग, हमारी आत्मा का परमात्मा से। यह ही सनातन योग है। योग में आसन, प्राणायाम इसी महायोग के यंत्र है क्योंकि स्वस्थ देह के सहारे ही आत्मा व परमात्मा को बेहतर ढंग से पास-पास लाया जा सकता है। अंतत: महायोग की सिद्धि होती है, जो मुक्ति मार्ग तक ले जाता है।
                                                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, November 1, 2014

त्याग |

                 त्याग की भावना अत्यंत पवित्र है। त्याग करने वाले पुरुषों ने ही संसार को प्रकाशमान किया है। जिसने भी जीवन में त्यागने की भावना को अंगीकार किया, उसने ही उच्च से उच्च मानदंड स्थापित किए हैं। सच्चा सुख व शांति त्यागने में है, न कि किसी तरह कुछ हासिल करने में।
                गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि त्याग से तत्काल शांति की प्राप्ति होती है और जहां शांति होती है, वहीं सच्चा सुख होता है। मनुष्य अपने जीवन में सारा श्रम भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही लगा देता है। वह अपने सीमित जीवन में सभी कुछ पा लेना चाहता है। इसी में सारा जीवन खप जाता है। वह जितना भौतिक लाभ प्राप्त करता जाता है, उसकी सांसारिक तृष्णा उतनी ही बलवती होती जाती है। उसे शांति से बैठने नहीं देती। उसकी बेचैनी को बढ़ाती रहती है। मनुष्य जीवन की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं, उनकी पूर्ति तो आवश्यक है। उनके बिना तो जीवन की निरंतरता को बनाए रखना असंभव है। इस निरंतरता को बनाए रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति तो ईश्वर करता ही रहता है।
              उन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के पश्चात फिर मनुष्य को क्या चाहिए? बस यहां पर रुककर विचारने की आवश्यकता होती है कि अब हमें किस मार्ग की ओर बढ़ना है।
              ईश्वर की अनुभूति करने और समाज में उच्च मानदंड स्थापित करने के लिए त्याग की भावना को अंगीकार कर, उस पथ पर बढ़ने की आवश्यकता होती है। उस मार्ग में व्यक्तिगत व शारीरिक सुखों का त्याग करना होगा। उन सभी आसक्तिओं को छोड़ना होगा, जो मानव जीवन को संकीर्णता की ओर ले जाने वाली होती है। तब यही त्याग वृत्ति अंत:करण को पवित्र कर भीतर के तेज को देदीप्यमान करती है। भारत में त्याग की परंपरा पुरातनकाल से चली आ रही है। आसक्ति से विरत हो जाने वालों की यहां पूजा की जाती है। भगवान राम द्वारा अयोध्या के राज्य को एक क्षण में त्याग देने जैसे स्थापित किए गए आदर्श को संसार पूजता है। राज्य का त्याग कर वन में जाने से उन्होंने समाज में उच्चतम मानदंड स्थापित किया। साथ ही लोगों को धर्म, अध्यात्म, ज्ञान व भक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा भी प्रदान की। त्याग से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर सच्चे सुख व शांति का लाभ पाता है, वहीं समाज को भी उच्च आदर्शे के मानदंड बरकरार रखने की प्रेरणा प्रदान करता है।
                               ॥ हरिः शरणम् ॥