पुरुषार्थ – 2
मनुष्य के जीवन की यह विशेषता है कि
वह अपनी इच्छा से भी कर्म कर सकता है | उसके यह कर्म ही उसे इस जन्म में पुरुषार्थ
उपलब्ध करवा सकते हैं | पूर्व मानव जन्म के कर्म अर्थात पूर्व जन्म के पुरुषार्थ ही
इस जन्म में मनुष्य का भाग्य बनकर आते हैं जो उसे भोग के रूप में उपलब्ध होते हैं
| अतः इस मानव देह में रहते हुए व्यक्ति अगर पुरुषार्थ करे तो उसे उसका फल अवश्य
ही उपलब्ध होगा | जैसा कि हम जानते हैं कि केवल मानव देह में रहते हुए जो भी कर्म
किये जाते हैं,वे ही कर्म फलीभूत होते हैं, अन्य योनियों में रहते हुए किये जाने
वाले कर्म कभी भी फल उत्पन्न नहीं कर सकते | इस प्रकार विवेचन करने के पश्चात् पुरुषार्थ की
परिभाषा स्पष्ट हो जाती है –
“अपने अभीष्ट (Desirable) की प्राप्ति के लिए, अपने कल्याण (Well being) के लिए जो मानसिक (Mental), वाचिक (Verbal) और
कायिक (Somatic) चेष्टायें (Efforts) की जाती है, उन्हीं
चेष्टाओं को पुरुषार्थ कहते हैं |”
पुरुषार्थ की यह परिभाषा स्पष्ट करती
है कि मनुष्य स्वयं ही अपने वर्तमान और भविष्य का निर्माता और उत्तरदायी है |
परमात्मा ने पुरुषार्थ के माध्यम से हमें एक ऐसी व्यवस्था दी है, जो मनुष्य को अन्य
जीवों से न केवल अलग ही करती है बल्कि उसे स्वयं इस व्यवस्था का अर्थात पुरुषार्थ का
सदुपयोग करते हुए परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग भी निर्धारित करती है | अब यह मनुष्य
के विवेक पर निर्भर करता है कि वह पुरुषार्थ कैसे, किस प्रकार और किस अभीष्ट की प्राप्ति
के लिए करता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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