Friday, September 28, 2018

पुरुषार्थ - 3


पुरुषार्थ -3
पुरुषार्थ की उपलब्धियां / पुरुषार्थ के प्रकार –
             जिस अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ किया जाता है उस पुरुषार्थ के परिणाम को भी पुरुषार्थ ही कहा जाता है | पुरुषार्थ के लिए व्यक्ति को कर्म करने आवश्यक होते हैं | कर्म के कारण प्राप्त फल को अर्थात इन पुरुषार्थों की उपलब्धियों को इस पुरुषार्थ के पदार्थ भी कहा गया है | कर्म फल के रूप में उपलब्ध पुरुषार्थ अर्थात पदार्थ चार प्रकार के होते हैं | यथा - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष | गोस्वामी तुलसीदासजी ने इनको स्पष्ट करते हुए रामचरितमानस में लिखा भी है-
       “चारि पदारथ करतल ताकें | प्रिय पितु मातु प्राण सम जाकें ||”
   अर्थात संसार में ये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक जो चार प्रकार के पदार्थ हैं, वे उन व्यक्तियों की हथेली पर अर्थात उसे आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं,जो व्यक्ति अपनी माता-पिता के प्राणों को अपने ही प्राणों के समान प्रिय जानकर उनकी सेवा करता हो |
        इसी प्रकार श्रीरामचरितमानस में एक अन्य स्थान पर गोस्वामीजी लिखते हैं-
             “सकल पदार्थ है जग माहीं | कर्महीन नर पावत नाहीं ||”
    अर्थात इस संसार में सकल पदार्थ यानि उपयोगी पदार्थ उपलब्ध हैं परन्तु जो मनुष्य कर्म नहीं करता है, जिस मनुष्य में पुरुषार्थ करने की भावना का आभाव है, उसे वे पदार्थ कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकते | यहाँ पर गोस्वामीजी इन्ही चार पदार्थों की बात कह रहे हैं | इन चार पदार्थों का विस्तार से विवेचन हम आगे करेंगे | उस विवेचन से पहले हमें यह जानना आवश्यक होगा कि यह भौतिक शरीर पुरुषार्थ करने के लिए कैसें तैयार होता है ? इस शरीर की कार्यप्रणाली को जाने बिना पुरुषार्थ के बारे में, इसके चारों पदार्थों के बारे में जानना कठिन होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Thursday, September 27, 2018

पुरुषार्थ - 2


पुरुषार्थ – 2
             मनुष्य के जीवन की यह विशेषता है कि वह अपनी इच्छा से भी कर्म कर सकता है | उसके यह कर्म ही उसे इस जन्म में पुरुषार्थ उपलब्ध करवा सकते हैं | पूर्व मानव जन्म के कर्म अर्थात पूर्व जन्म के पुरुषार्थ ही इस जन्म में मनुष्य का भाग्य बनकर आते हैं जो उसे भोग के रूप में उपलब्ध होते हैं | अतः इस मानव देह में रहते हुए व्यक्ति अगर पुरुषार्थ करे तो उसे उसका फल अवश्य ही उपलब्ध होगा | जैसा कि हम जानते हैं कि केवल मानव देह में रहते हुए जो भी कर्म किये जाते हैं,वे ही कर्म फलीभूत होते हैं, अन्य योनियों में रहते हुए किये जाने वाले कर्म कभी भी फल उत्पन्न नहीं कर सकते |  इस प्रकार विवेचन करने के पश्चात् पुरुषार्थ की परिभाषा स्पष्ट हो जाती है –
          “अपने अभीष्ट  (Desirable) की प्राप्ति के लिए, अपने कल्याण (Well being) के लिए जो मानसिक (Mental), वाचिक (Verbal) और कायिक (Somatic) चेष्टायें (Efforts) की जाती है, उन्हीं चेष्टाओं को पुरुषार्थ कहते हैं |”
            पुरुषार्थ की यह परिभाषा स्पष्ट करती है कि मनुष्य स्वयं ही अपने वर्तमान और भविष्य का निर्माता और उत्तरदायी है | परमात्मा ने पुरुषार्थ के माध्यम से हमें एक ऐसी व्यवस्था दी है, जो मनुष्य को अन्य जीवों से न केवल अलग ही करती है बल्कि उसे स्वयं इस व्यवस्था का अर्थात पुरुषार्थ का सदुपयोग करते हुए परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग भी निर्धारित करती है | अब यह मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है कि वह पुरुषार्थ कैसे, किस प्रकार और किस अभीष्ट की प्राप्ति के लिए करता है ?   
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, September 26, 2018

पुरुषार्थ-1

पुरुषार्थ —1
            पुरुषार्थ-एक छोटा सा मात्र चार अक्षरों से मिलकर बना शब्द परन्तु है बड़ा गूढ़ | पुरुषार्थ, एक संस्कृत शब्द है,जो दो शब्दों के योग से बना है - पुरुष+अर्थ = पुरुषार्थ | अतः इस शब्द का तात्पर्य हुआ – पुरुष होने का मंतव्य , पुरुष होने उद्देश्य | अंग्रेजी में इसको  कह सकते हैं- Purpose of human being or objects of human pursuit. पुरुष का अर्थ है पुर यानि शरीर में रहने वाला | इस  भौतिक शरीर को जो अधिग्रहित करता है वह है चेतन्य अर्थात आत्मा | मनुष्य मात्र शरीर ही नहीं है ,वह शरीर से अलग भी कुछ है ,उसी को हम जीवात्मा कहते है | यह भौतिक शरीर जीवात्मा के कारण ही चेतनता को उपलब्ध होता है | अतः इस छोटे से शब्द पुरुषार्थ का अर्थ हुआ चेतन्य होने का उद्देश्य | जीवात्मा जब सब प्राणियों के शरीर में उपस्थित रहता है,तब क्या उनके जीवन का भी कुछ उद्देश्य होता है ? हाँ, उद्देश्य अवश्य ही होता है | परन्तु मनुष्य को छोड़ अन्य प्राणियों के द्वारा केवल भोग प्राप्त करने का ही एक मात्र उद्देश्य रहता है | अन्य प्राणियों द्वारा केवल पूर्व मानव जन्म के कर्मों के भोग प्राप्त करने के योग्य कर्म ही संपन्न किये जा सकते हैं | उन्हें पूर्व मनुष्य जन्म का पुरुषार्थ ही अपने वर्तमान जीवन में प्रारब्ध अथवा भाग्य के रूप में उपलब्ध होता है | पूर्व मानव जन्म का पुरुषार्थ उन्हें मात्र भोग ही (अर्थ और काम के माध्यम से) उपलब्ध करवा सकता है ,परन्तु धर्म और मोक्ष नहीं | वर्तमान मनुष्य जीवन में भी किसी न किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार के कर्म करने की आवश्यकता होती है, उसी को पुरुषार्थ कहा जाता है | यही कारण है कि मनुष्य योनी को कर्म-योनि और मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी योनियों को भोग योनियाँ कहा जाता है |
क्रमशः 
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, September 25, 2018

कल से - पुरुषार्थ

एक लम्बी अवधि तक लेखन रुका हुआ था।पहले पारिवारिक परिस्थितियां लेखन के अनुकूल नहीं थी, फिर नई पुस्तक "कलश" के प्रकाशन और विमोचन का कार्य आ गया और अभी कुछ दिन सुजानगढ़ में आचार्यजी के सत्संग-प्रवचन कार्यक्रम में व्यस्त रहा।अब कुछ समय मिला है सोचने का कि किस विषय पर लिखूँ? वैसे एक दो विषयों पर एक लंबी अवधि से चिंतन मनन चल रहा था। भाई श्री अशोकजी शर्मा (B.O.B.) सुजानगढ़ ने कई दिनों, शायद कई महीनों पहले "पुरुषार्थ" विषय को स्पष्ट करने का आग्रह किया था।बड़ा ही महत्वपूर्ण विषय है यह।हम पुरुषार्थ तो करते हैं परंतु यह नहीं जानते कि किस पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए किस प्रकार पुरुषार्थ किया जाना चाहिए? यह सबसे बड़ी और विकट समस्या है, हम सबके समक्ष।पुरुषार्थ का फल भी पुरुषार्थ है और वह भी दो प्रकार के हैं जो एक जीवन में नहीं बल्कि दो जीवन में मिलने सम्भव होते है।केवल एक जीवन में ही प्राप्त करने हों तो धर्म और मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करना होगा और अगर भावी जन्मों में प्राप्त करने हों तो अर्थ और काम के लिए पुरुषार्थ करने होंगे।अर्थ और काम के लिए किए जानेवाले कर्म, प्रारब्ध यानि भाग्य का निर्माण करते है, जिनको भावी जीवन में ही मिलना होता है।वर्तमान मनुष्य जीवन में ही पुरुषार्थ का फल पाना हो तो केवल धर्म और मोक्ष के लिए कर्म करें।बड़ा ही जटिल विषय है "पुरुषार्थ"।भाई अशोकजी के आग्रह पर इस विषय को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ।कोई त्रुटि हो तो ध्यान आकर्षित करें क्योंकि कोई भी व्यक्ति शत प्रतिशत किसी कार्य में निपुण नहीं होता। कल से नित्य प्रतिदिन आपसे भेंट करेंगे,"पुरुषार्थ" के साथ।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।