Monday, September 28, 2015

मानव -श्रेणी |-40

परमात्मा-
               इस प्रकार हमने जाना कि परमात्मा और आत्मा ,दोनों में कहीं भी कोई अंतर नहीं है । इन दोनों को  मैं दो बता रहा हूँ,वह भी एक भ्रम ही है । वास्तव में ये दोनों दो न होकर एक ही है । उस परम पिता परमात्मा का ही विस्तार है यह सब  कुछ,जो भी हमें दृष्टि गोचर हो रहा है । यहाँ पर द्रष्टा और दृश्य अलग अलग नहीं है । जब द्रष्टा दृश्य को अपने से अलग मान लेता है तभी परमात्मा और जीवात्मा अलग अलग नज़र आने लगते हैं । वास्तव में दृश्य केवल द्रष्टा के मन का विस्तार है । यह मन ही दृश्य को द्रष्टा से अलग प्रतीत कराता है । यह एक भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है । इसी भ्रम का नाम माया है । ज्योंही यह भ्रम आत्म-ज्ञान होने से समाप्त हो जाता है ,माया तिरोहित हो जाती है । माया के हटते ही द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं , जीवात्मा अपने आपको परमात्मा होना ही स्वीकार कर लेती है । यही परमात्मा की वास्तविक स्थिति है । परमात्मा के विस्तार को परमात्मा से अलग नहीं मानें जिस प्रकार हम लहरों को समुद्र से अलग नहीं मानते हैं ।
                  ऐसा और यह सब लिखने में आसान है,पढ़ने में भी आसान है और जितना यह आसान नज़र आता है वैसा आत्म-सात करना आसान नहीं है । कहने को तो हम कह देते है कि आत्मा सो ही परमात्मा । परन्तु सांसारिक कार्यों में वही परमात्मा हमें अलग नज़र आने  लगता है  । हम अपने आपको कर्ता समझने लगते है और यह भूल जाते हैं कि हम मात्र समुद्र की लहर ही है उससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं । सत्य को स्वीकार कर लेना आसान नहीं होता है और जब हम सत्य को स्वीकार कर लेते हैं तब हमें लहरें नज़र आना स्वतः ही बंद हो जाती है ,केवल समुद्र ही रह जाता है । घटाकाश से हटकर महाकाश हो जाते हैं हम । यही परमात्मा का स्वरुप है । इसी श्रेणी में पहुंचे मनुष्य को प्रारम्भ में हम परमात्म स्वरुप और अंततः परमात्मा  होना ही स्वीकार कर लेते हैं ।परमात्मा होने का अर्थ है सबओर और सबमे परमात्मा को देखना ।
                            इस प्रकार 40 किश्तों में मैंने प्रयास किया है-मानव की पाँचों श्रेणियों के बारे में अल्प रूप से बताने का । मैं जानता हूँ कि एक मुमुक्षु के लिए इतना अपर्याप्त है । एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में जाने की प्रगति करते हुए परमात्मा की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए आवश्यक है सही प्रकार से परमात्मा के प्रति समर्पण की । परमात्मा आपके प्रयास को सफल करे,यही कामना है ।
                                                      ॥ हरिः शरणम् ॥   

Wednesday, September 23, 2015

मानव-श्रेणी |-39

परमात्मा-
                 गुरु और शास्त्र आपको मार्ग दिखा सकते हैं परन्तु चलना आपको स्वयं को ही होगा ।स्वयं के चले बिना परमात्मा तक पहुंचा नहीं जा सकता । शास्त्र और गुरु को भी एक  दिन छोड़ना पड़ेगा । वहां केवल और केवल अकेले ही जाया जा सकता है । इसी बात को याद रखना जरूरी है । आजकल के दौर में जो भक्ति-रस के नाम से सामूहिक कीर्तन आदि हो रहे हैं,वे केवल भक्ति के लिए अनुकूल माहौल ही तैयार कर सकते हैं ,परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकते । वहां तक भीड़ क्या दो भी साथ नहीं जा सकते । दो क्या,एक  भी नहीं जा सकता । एक को  भी अपने आप को समाप्त करना पड़ता है । जब आप अपने आपको भी गवां देते हैं तब जो शेष बचता  है,वही परमात्मा है । कहने का अर्थ है कि अपने आपको खोकर  ही परमात्मा को  पाया जा सकता है ।
                 योगवाशिष्ठ में इस बारे में बहुत ही आसान तरीके से समझाया गया है । मनुष्य को घटाकाश कहा गया है । परमात्मा को महाकाश कहा गया है । जैसे कुम्हार घड़े का निर्माण करता है तो उस मिट्टी के रीते घड़े में  भी आकाश  रहता है और उसके बाहर भी आकाश जिसे महाकाश कहा जाता है । जब घड़ा टूट जाता है तब घटाकाश,महाकाश में मिल जाता है । वास्तव में देखा जाये तो घटाकाश और महाकाश के आकाश भिन्न भिन्न नहीं है । जब तक घड़े यानि शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं तो हम स्वयं को शरीर होना मान लेते  है । जब इस घड़े को हम आपना मानना बंद कर देंगे तब इस घड़े रुपी शरीर की दीवार शरीर के रहते हुए ही समाप्त हो जाती है और घटाकाश महाकाश के साथ एकाकार हो जाता है । यही सिद्ध का परमात्मा हो जाना है,आत्मा का परमात्मा हो जाना है और यही मोक्ष यानि मुक्ति है । अगर हम गंभीरता से देखें तो घटाकाश और महाकाश के आकाश में कोई अंतर नहीं है, दोनों एक ही है । यह अंतर तो घड़े के प्रति आसक्ति का यानि अपने मन और इन्द्रियों के कारण पैदा किया हुआ है ।
                समुद्र से लहर अलग नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा परमात्मा से अलग नहीं है । यह बात एकदम से समझ में आते ही लहर समाप्त हो जाती है और वह समुद्र ही हो जाती है । शरीर को परमात्मा की ही देन  समझे,जैसे लहर समुद्र की देन है ।समुद्र नहीं होगा तो लहरें भी नहीं होगी और इसी तरह परमात्मा नहीं हैं तो फिर शरीर भी कहाँ से होंगे । जैसे हम समुद्र की लहरों का आनंद  लेते हैं उसी प्रकार मनुष्य के शरीर का आनंद ले । परन्तु लहरों के आनंद में समुद्र को न भूलें और शरीर के आनंद में परमात्मा को ।
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥     

Saturday, September 19, 2015

मानव-श्रेणी |-38

परमात्मा-
                कबीर ने कह तो दिया कि  मुक्ति बिना गुरु के हो नहीं सकती परन्तु क्या गुरु आपके पास चल कर आएगा ? नहीं,गुरु  को ढूँढना पड़ता है । और गुरु को ढूंढना प्रारम्भ हम तभी करते हैं जब हमारे मन मे मुक्ति के भाव जगे,परमात्मा होने की आकांक्षा पैदा हो । यह आकांक्षा तभी पैदा होगी जब परमात्मा की आप पर कृपा होगी । संसार में कितने लोग आप देखते हो,जिनके मन में ऐसी इच्छा पैदा होती है ?क्यों नहीं होती ?कारण स्पष्ट है । बिना ईश्वरीय कृपा के कुछ भी होना संभव नहीं है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं -
                 "सोइ  जानइ जेहि देहु  जनाई ।जानत तुम्हहि  तुम्हइ  होइ जाई  ॥ मानस 2 /127 /3 ॥
           परमात्मा को वही व्यक्ति जान सकता है, जिसको स्वयं परमात्मा जनाना चाहते हैं  । परमात्मा को जानते ही वह व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो  जाता है ।
         एक साधारण मनुष्य का परमात्मा हो जाना मात्र इतना सा ही खेल है । ईश्वरीय कृपा से ही व्यक्ति परमात्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसे यह ज्ञान  मिलता है-शास्त्रों के अध्ययन से और संतों के संग से । इन दोनों के बारे में हम पूर्व में साधक श्रेणी के अन्तर्गत चर्चा कर चुके हैं ।शेष दो साधन जो बताये गए हैं,वे हैं शम और  संतोष । इन दोनों को अपना कर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है और इन दोनों को अपने जीवन में उतारने में गुरु और शास्त्रों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होती है । अतः व्यक्ति के जीवन में गुरु की महत्ता स्वीकार की गयी है । गुरु आपको वह रास्ता दिखाता  है जिस पर चलकर वह सिद्ध होकर परमात्मा तक पहुंचा है । आदर्श गुरु की यही पहचान होती है कि वह आपकी अंगुली पकड़कर थोड़ी दूर आपको परमात्मा के रास्ते पर चला दे और जब गुरु को विश्वास हो जाये कि अब आप आगे का रास्ता अकेले ही तय कर लेने में सक्षम हो गए है तो वह अपनी अंगुली को आपसे  छुड़ा ले । ध्यान रखें,जो गुरु आपको जीवन भर अंगुली पकडवाये रखवाना चाहता है,वह केवल अपने आप तक ही आपको सीमित रखना चाहता है ,  परमात्मा तक नहीं पहुँचने देना चाहता है । ऐसा गुरु आदर्श गुरु नहीं हो सकता ।
क्रमशः
                                       ॥  हरिः शरणम्  ॥ 

Monday, September 14, 2015

मानव-श्रेणी |-37

परमात्मा-
                जिस प्रकार मरुस्थल में भीषण गर्मी में मृग-मरीचिका दिखाई देती है और उसमे कहीं पर भी पानी का नामोनिशान नहीं होता,उसी प्रकार हमें आत्मा का होना दिखाई न देकर शरीर ही सब कुछ दिखाई देता है । हम शरीर नहीं है बल्कि आत्मा हैं । शरीर संसार बनाता है अतः यह संसार हमारे शरीर की तरह ही क्षण भंगुर है ।  हमें यह शरीर ही अपना क्यों दिखाई देता है,आत्मा का होना क्यों नहीं ? इसका कारण है हमारा मन यानि चित्त । हमारा मन आत्मा के साथ रहकर, दोनों एक होकर जीवात्मा  बन जाते हैं । यह जीवात्मा संसार को ही वास्तविकता समझने लगती है जिस कारण से आत्मा अपने स्वरुप को पहचान नहीं पाती । यह ठीक वैसे ही है,जैसे मरीचिका में मृग को जल दिखाई देता है जबकि वास्तविकता  में वहां जल नहीं होता है । मृग को तो यह बात समझ में नहीं आती परन्तु हम तो मनुष्य हैं ,हमें तो यह बात समझ में आनी ही चाहिए कि मरीचिका मात्र प्रकृति की माया है,जल और उसमे पड़ने वाली पेड़ों की छाया वास्तविक नहीं है । फिर भी  हम अपने मन के बनाये संसार को जो कि वास्तव में एक मरीचिका ही है, वास्तविकता समझ बैठे हैं । ऐसे में हमारे  मनुष्य होने में और उस मृग के जानवर होने में अंतर ही क्या रह जाता है ?
                 अँधेरे में रस्सी को हम सांप समझने की  प्रायः भूल कर बैठते हैं परन्तु जब  हम प्रकाश करके देखते हैं  तब पता चल जाता  है कि जिसे हम सांप समझ रहे थे,वास्तव में वह  तो एक रस्सी है । जब तक हमारे भीतर अन्धकार समाया हुआ है ,तब तक यह संसार और शरीर हमें वास्तविक नज़र आते हैं परन्तु जब हम प्रकाशित हो जाते हैं तब हमें पता चलता है कि यह संसार और शरीर तो माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । इस प्रकार के प्रकाशित होने को महात्मा लोग "आत्म-ज्ञान" होना कहते हैं । आत्म-ज्ञान अर्थात स्वयं के आत्मा होने का ज्ञान ।
            आत्म-ज्ञान कैसे हो ?कबीर इसी आत्म-ज्ञान के बारे में कहते हैं-
                    "आतम ज्ञान बिना सब सूना,क्या मथुरा क्या कासी ।
                      कहत कबीर सुनो भाई साधो,गुरु बिना कटे न चौरासी ॥ "
         कबीर कहते हैं  कि बिना गुरु के आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के व्यक्ति बार बार हो रहे 84 लाख योनियों में  जन्मों से मुक्ति नहीं मिल सकती ।
क्रमशः
                             ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, September 7, 2015

मानव-श्रेणी |-36

परमात्मा-
                  परमात्मा , देखने में एक चार अक्षरों से युक्त मात्र छोटा सा शब्द  परन्तु इसकी विशालता, अनुमान लगाने से भी बहुत परे है । परमात्मा अपरिमेय है । परमात्मा दो शब्दों से मिलकर बना एक शब्द है ,परम और आत्मा । परम मतलब उसके समकक्ष कोई नहीं । परमात्मा यानि समस्त आत्माओं की आत्मा ,परमपिता यानि समस्त पिताओं का भी पिता । परमात्मा और आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है । यह बात जिस दिन और जो व्यक्ति जान और समझ लेता है, उसी दिन वह वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । जीवन में जो ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है उसमे यह ज्ञान हो जाना ही सर्वोच्च ज्ञान है । इसी को तात्विक ज्ञान कहा गया है । केवल यह पढ़ लेना और याद कर लेना ही पर्याप्त नहीं है कि आत्मा ही परमात्मा का अंश है और संसार में सभी परमात्मा के ही विविध रूप है । यह बात कह भीतर तक उतार लेनी आवश्यक है और उसी अनुरूप अपना आचरण भी करना आवश्यक है । 
                    वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है-
                                             पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते |
                                             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
                        अर्थात्,वह भी पूर्ण है|यह भी पूर्ण है|पूर्ण में पूर्ण जोड़ने पर जो योग बनता है वह भी पूर्ण है|अगर पूर्ण में से पूर्ण दें, तो निकालने पर निकाला गया भी पूर्ण है और जो कुछ भी शेष बचता है ,वह भी पूर्ण है|
                 उपनिषद् के इस श्लोक से स्पष्ट है कि परमात्मा के कितने भी अंश कर लिए जाये,तो वह अंश भी पूर्ण होगा और परमात्मा की पूर्णता में भी कोई कमी नहीं होगी, चाहे कितनी ही पूर्ण आत्माएं परमात्मा में विलीन हो जाये फिर भी परमात्मा पूर्ण ही रहेगा । अतः सर्वप्रथम  हमें यह जान लेना आवश्यक है कि परमात्मा और आत्मा में  कहीं से भी किसी प्रकार का मूलभूत अंतर नहीं है । जो अंतर हमें दिखाई देता है वह केवल मरुस्थल की मरीचिका मात्र ही है ।
क्रमशः
                            ॥ हरिः शरणम् ॥