परमात्मा-
इस प्रकार 40 किश्तों में मैंने प्रयास किया है-मानव की पाँचों श्रेणियों के बारे में अल्प रूप से बताने का । मैं जानता हूँ कि एक मुमुक्षु के लिए इतना अपर्याप्त है । एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में जाने की प्रगति करते हुए परमात्मा की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए आवश्यक है सही प्रकार से परमात्मा के प्रति समर्पण की । परमात्मा आपके प्रयास को सफल करे,यही कामना है ।
॥ हरिः शरणम् ॥
इस प्रकार हमने जाना कि परमात्मा और आत्मा ,दोनों में कहीं भी कोई अंतर नहीं है । इन दोनों को मैं दो बता रहा हूँ,वह भी एक भ्रम ही है । वास्तव में ये दोनों दो न होकर एक ही है । उस परम पिता परमात्मा का ही विस्तार है यह सब कुछ,जो भी हमें दृष्टि गोचर हो रहा है । यहाँ पर द्रष्टा और दृश्य अलग अलग नहीं है । जब द्रष्टा दृश्य को अपने से अलग मान लेता है तभी परमात्मा और जीवात्मा अलग अलग नज़र आने लगते हैं । वास्तव में दृश्य केवल द्रष्टा के मन का विस्तार है । यह मन ही दृश्य को द्रष्टा से अलग प्रतीत कराता है । यह एक भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है । इसी भ्रम का नाम माया है । ज्योंही यह भ्रम आत्म-ज्ञान होने से समाप्त हो जाता है ,माया तिरोहित हो जाती है । माया के हटते ही द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं , जीवात्मा अपने आपको परमात्मा होना ही स्वीकार कर लेती है । यही परमात्मा की वास्तविक स्थिति है । परमात्मा के विस्तार को परमात्मा से अलग नहीं मानें जिस प्रकार हम लहरों को समुद्र से अलग नहीं मानते हैं ।
ऐसा और यह सब लिखने में आसान है,पढ़ने में भी आसान है और जितना यह आसान नज़र आता है वैसा आत्म-सात करना आसान नहीं है । कहने को तो हम कह देते है कि आत्मा सो ही परमात्मा । परन्तु सांसारिक कार्यों में वही परमात्मा हमें अलग नज़र आने लगता है । हम अपने आपको कर्ता समझने लगते है और यह भूल जाते हैं कि हम मात्र समुद्र की लहर ही है उससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं । सत्य को स्वीकार कर लेना आसान नहीं होता है और जब हम सत्य को स्वीकार कर लेते हैं तब हमें लहरें नज़र आना स्वतः ही बंद हो जाती है ,केवल समुद्र ही रह जाता है । घटाकाश से हटकर महाकाश हो जाते हैं हम । यही परमात्मा का स्वरुप है । इसी श्रेणी में पहुंचे मनुष्य को प्रारम्भ में हम परमात्म स्वरुप और अंततः परमात्मा होना ही स्वीकार कर लेते हैं ।परमात्मा होने का अर्थ है सबओर और सबमे परमात्मा को देखना ।इस प्रकार 40 किश्तों में मैंने प्रयास किया है-मानव की पाँचों श्रेणियों के बारे में अल्प रूप से बताने का । मैं जानता हूँ कि एक मुमुक्षु के लिए इतना अपर्याप्त है । एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में जाने की प्रगति करते हुए परमात्मा की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए आवश्यक है सही प्रकार से परमात्मा के प्रति समर्पण की । परमात्मा आपके प्रयास को सफल करे,यही कामना है ।
॥ हरिः शरणम् ॥