Thursday, May 2, 2024

रसो वै स:

 रसो वै स:

             समस्त सृष्टि रस से ओतप्रोत है, फिर भला जीव उससे भिन्न कैसे होगा । संसार में रहते हुए प्रत्येक जीव का जीवन भी रसमय होता है । जीव जिस शरीर का अधिग्रहण कर लेता है, वही शरीर उसे अच्छा लगने लगता है । गंदगी से भरे, गंदगी खाते और गंदगी में रहते सुअर का जीवन हमें भले ही नीरस लगता हो परंतु ज़रा जाकर सुअर से पूछिए ! उसको अपना जीवन स्वर्गतुल्य ही प्रतीत होता है । कहने का अर्थ है कि सभी जीवों का जीवन रसमय है क्योंकि रस के अतिरिक्त संसार में कुछ है ही नहीं ।

         “वासुदेव: सर्वम्” अर्थात् सब कुछ वासुदेव ही है । बात चल रही है कि सृष्टि में सर्वत्र रस ही रस है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि परमात्मा ही रस है । तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा भी गया है- “तत्सुकृतं रसो वै स:” अर्थात्  वह जो सुकृत (अपने आप बना हुआ) है, वही रस है । वह रस है और वही सभी जीवों के हृदय में स्थित रह कर उन्हें जीवन का रस प्रदान करता है । मनुष्य के हृदय में भी परमात्मा स्थित हैं इसलिए उसके जीवन में भी रस है । वह बात और है कि मनुष्य अपने जीवन में इस रस को किस प्रकार लेता है ।

        रसहीन जीवन नीरस, उबाऊ होता है । जीवन रसमय है, इसीलिए जीवन में आनंद है । जिसके जीवन में आनंद नहीं है, इसका अर्थ है कि उसने रस का सदुपयोग नहीं किया है । परमात्मा सच्चिदानंद स्वरूप हैं और हम भी, क्योंकि परमात्मा के कारण ही जीव का अस्तित्व है । अन्य किसी जीव की इतनी क्षमता नहीं है कि वह रस का दोहन कर आनंद की अवस्था को प्राप्त हो सके परंतु मनुष्य में वह क्षमता अवश्य है । मनुष्य कैसे इस रस की एक-एक पर्त खोलते हुए, रस के एक-एक सोपान पर चढ़ते हुए आनन्द की अवस्था को उपलब्ध हो सकता है, हमारे लिए चिंतन का विषय होना आवश्यक है ।

      संसार में विभिन्न प्रकार के रस भरे पड़े हैं, क्योंकि यहाँ रस के अतिरिक्त कुछ है भी नहीं । उन रसों का अनुभव करने की मनुष्य में विशिष्ट क्षमता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीव रस का आनंद नहीं लेते । रस प्रत्येक जीव के जीवन में है, उनके जीवन में वह रस किस रूप में है, यह अलग बात है । मनुष्य के जीवन में नवरस की कल्पना की गयी है । जीवन में इन नौ रसों का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को होता है । ये नौ रस हैं - श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त । प्रत्येक रस का एक स्थाई भाव होता है । श्रृंगार का रति, हास्य का हास, करुण का शोक, रौद्र का क्रोध, वीर का उत्साह, भयानक का भय, वीभत्स का घृणा, अद्भुत का आश्चर्य, और शांत रस का निर्वेद स्थाई भाव कहे गए हैं । इनके अतिरिक्त दो रस और भी कहे जाते हैं - वात्सल्य और भक्ति रस, जिनके स्थाई भाव क्रमशः वत्सल और भक्ति कहे गए हैं ।

            मुख्य रूप से रस आठ प्रकार के ही कहे गए हैं । जो नौ रस ऊपर उल्लेखित हैं, उनमें शांत रस को निकाल दिया जाए तो शेष बचे आठ रस, ये सभी जीवन में सकाम कर्मों से संबंधित है । ये सभी भोगरस है । विभिन्न प्रकार के विषयों को भोगने का जो भाव है, वही इस रस का जन्मदाता है । ये आठ रस व्यक्ति को सुख प्रदान करते हैं । यह सुख भी एक दिन दुःख में परिवर्तित हो सकता है । कहने का अर्थ है कि इन आठ रसों का संबंध जीवन में मिलने वाले सुख-दुःख से है ।

           शांत रस निष्काम कर्म से संबंधित है । वात्सल्य और भक्ति रस परमात्मा से प्रेम के प्रतीक हैं । शांत, वात्सल्य और भक्ति रस का आनंद प्रत्येक प्रकार के सुख-दुःख से परे हैं । सुख का विलोम शब्द  दुःख है और दुःख का विलोम शब्द सुख है परंतु आनंद का कोई विलोम शब्द नहीं है । मूल बात यह है कि पहले आठ रस जीवन को रसमय बनाते हैं और जब इनका अभाव हो जाता है तो व्यक्ति का जीवन नीरस हो जाता है । ऐसा नीरस जीवन पुनः रसमय कैसे हो सकता है ? यही मानव जीवन का मूल प्रश्न है ।

            रस का अर्थ है - आनंद । जिस किसी भी पदार्थ, विचार अथवा कार्य से मन प्रसन्न होता है, वही रस है । प्रत्येक रस के पीछे कोई न कोई भाव अवश्य ही रहता है । बिना भाव के रस की धारा प्रवाहित नहीं हो सकती । पशुओं में भावना का अभाव होता है, इसीलिए उनका जीवन नीरस सा ही प्रतीत होता है । मनुष्य का जीवन भावना प्रधान है । भावना का आधार मन है । मन जिसको पसंद करने लगता है, मनुष्य का उसके प्रति विशेष भाव हो जाता है । मन जिसको चाहता है, वही मनुष्य के लिए रसदायी होता है ।

      नाट्य-शास्त्र की एक सूक्ति है - 

          यथो हस्त: तथो दृष्टि:, यथो दृष्टि: तथो मन: ।

          यथो मनः तथो भाव:, यथो भाव: तथो रस: ।।

जिधर हाथ का संकेत होता है, दृष्टि उधर ही जाती है, जिधर दृष्टि जाती है, मन भी उधर ही जाता है । जहां मन होता है, वहाँ भावना विकसित होती है और जहां भावना विकसित होती है, वहीं रस प्रवाहित होता है ।

        उपरोक्त श्लोक बड़ा ही महत्वपूर्ण है । जिधर हम अपनी हाथ की तर्जनी से संकेत करते हैं, हमारी दृष्टि उस अंगुली की दिशा की ओर स्वतः ही चली जाती है । अकेली हमारी ही दृष्टि उस ओर नहीं जाती बल्कि उस अंगुली के संकेत को देखने वाले प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि उस ओर चली जाती है । जिस ओर दृष्टि जाती है, उसी ओर हमारा मन चला जाता है । हमारा मन उस दृश्य का आकलन (Analysis) करता है और उसी आकलन के अनुसार हमारे भीतर भाव जन्म लेते हैं । जैसी हमारी भावना होती है, उसी प्रकार का रस हमारे भीतर प्रवाहित होने लगता है ।

               रस का संबंध हमारे भाव से है और भाव का संबंध मन से । मन सदैव दृष्टि का अनुगमन (follow) करता है । प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि उसके मन में एक भाव उत्पन्न करती है और उसी भाव के अनुरूप सबके भीतर रस प्रवाहित होता है । इस प्रकार सभी अपने अपने रस का सुख लेते हैं । कहने का अर्थ है कि एक दृष्टि मात्र ने सबके मन में रस की धाराएँ प्रवाहित कर रखी हैं।  विभिन्न रस की धाराओं के अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति अपनी एक सृष्टि का निर्माण कर लेता है । इसीलिए कहा जाता है - “जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि” । जिसकी जैसी दृष्टि होगी, उसी अनुरूप उसकी सृष्टि होगी ।

           जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है कि रस का अर्थ है - आनन्द । परमात्मा स्वयं आनन्दस्वरूप है । परमात्मा को सच्चिदानन्दघन कहा जाता है । वह सत्य है, चैतन्य है और आनन्द भी है । आनंदघन का अर्थ है आनन्द से परिपूर्ण । वे कभी सुखी-दुःखी नहीं होते बल्कि सदैव आनन्द की अवस्था में रहते हैं । जहाँ आनन्द है, वहीं परमात्मा है । कहने का तात्पर्य है कि रस साक्षात् परमात्मा ही है ।

       तैत्तिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानन्द वल्ली के सप्तम अनुवाक का दूसरा मन्त्र कहता है -

  तत्सुकृतं रसो वै स: । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति । को ह्येवान्यात्क: प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । एष ह्येवानन्दयाति ।(तैत्तिरीय-2/7/2)

अर्थात् निश्चय ही वह जो सुकृत (अपने आप बना हुआ) है, वही रस है क्योंकि यह (जीवात्मा) इस रस को प्राप्त करके ही आनन्दयुक्त होता है । यदि यह आकाश की भाँति व्यापक आनन्दस्वरूप परमात्मा न होता तो कौन जीवित रह सकता और कौन प्राणों की क्रिया (चेष्टा) कर सकता । निःसंदेह यह परमात्मा ही सबको आनन्द प्रदान करता है । 

भगवान श्री कृष्ण ही विभिन्न रसों के समूह रुप हैं ।

           संसार में विभिन्न प्रकार के रस हैं । व्यक्ति की जैसी भावना होती है, उसी अनुरूप उसे रस मिलता है । विषयों का रस चाहिए तो वह भोग रस के रूप में आपको उपलब्ध हो जाता है, निष्काम कर्म करते हुए संसार की सेवा के लिए अपना स्वार्थ त्याग कर कर्म करना, आपको शान्त रस उपलब्ध कराता है । सबसे महत्वपूर्ण आपकी दृष्टि है, आपका मन है जोकि आपके भावों को उर्वरा भूमि उपलब्ध कराते हैं । जैसी आपकी दृष्टि होगी, मन में उसी प्रकार के भाव जन्म लेते हैं । भावानुसार रस की धारा प्रवाहित होती है और प्रत्येक रस में परमात्मा हैं ।

           गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो: ।

प्रणव: सर्ववैदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।। गीता - 7/8।।

हे अर्जुन ! मैं जल में रस हूँ, चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, संपूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ । 

         प्यास को बुझाने के लिए जल का सेवन किया जाता है । उस समय जल पीने से एक प्रकार की तृप्ति मिलती है । जल से तृप्ति उसमें उपस्थित रस से मिलती है । भगवान कह रहे हैं कि मैं जल में रस हूँ । चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश भी परमात्मा हैं । आपके नेत्र कितने ही सुंदर और स्वस्थ हो, प्रकाश की अनुपस्थिति में आप उनसे कुछ भी नहीं देख सकते । दृश्य का दर्शन जिस प्रकाश की उपस्थिति मात्र से हो जाता है, वास्तव में उसके दृष्टा परमात्मा ही हैं । संपूर्ण वेदों में ओंकार वही है, जो अपने भीतर तीनों अवस्थाओं को छिपाए हुए हैं । आकाश में शब्द भी परमात्मा हैं, श्रवणेन्द्रिय होते हुए भी हम बिना शब्द के कुछ भी सुन नहीं सकते । पुरुषों में पुरुषत्व भी परमात्मा हैं । आधुनिक विज्ञान भले ही पुरुषत्व का कारण हार्मोन्स को बताते हों, उन हॉर्मोन्स की सक्रियता के पीछे भी परमात्मा हैं । 

        श्रीमद्भागवत महापुराण में कपिल भगवान अपनी माता देवहूति को ज्ञान देते हुए कह रहे हैं - 

     कषायो मधुरस्तिक्त: कट्वम्ल इति नैकधा ।

     भौतिकानां विकारेण रसो एको विभिद्यते ।।

                             - भागवत - 3/26/42

        रस अपने शुद्ध स्वरूप में एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थों के संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकार का हो जाता है ।

             हमारा जीवन रस से भरा हो । रसपूर्ण जीवन ही मनुष्य और पशु के जीवन में अंतर करता है । भला, शुष्क जीवन भी कोई जीवन होता है । रस से परिपूर्ण जीवन मनुष्य को सरलता से परमात्मा की ओर ले जाता है । जीवन में उपलब्ध रसों के बारे में भी हमें ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि मनुष्य के जीवन में सभी रसों का महत्वपूर्ण स्थान है  । सांसारिक दृष्टि में कुल रस नौ हैं परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो मनुष्य के जीवन में निम्न चार प्रकार के रस महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।  भोग-रस, शांत-रस, भाव रस और प्रेम-रस  ।  एक प्रकार के रस से क्रमश: दूसरे प्रकार के रस पर स्थानांतरित होते जाना ही, परमात्मा के रास्ते पर आगे बढ़ते जाना है । हरिः शरणम् आश्रम के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि संसार में सभी मनुष्य भोगों में आकंठ डूबे हुए हैं । जब तक वे उन भोगों से अपना पिंड छुड़ाकर शांत नहीं हो जायेंगे तब तक परमात्मा के मार्ग पर प्रगति नहीं हो सकती । संसार के विभिन्न भोग आपको संग्रह की ओर ले जाते हैं । जब तक मनुष्य भोग और संग्रह से दूर नहीं होगा तब तक उसे वास्तविक रस का अनुभव नहीं होगा ।

            तो आइये ! चलते हैं, प्रत्येक रस को अल्प रूप से जानने के लिए तथा एक रस से दूसरे रस पर जाने के रास्ते को पहचानने के लिए । 

           चलिए ! रस विषय पर आगे बढ़ते हैं । रस चाहे आठ/नौ/ ग्यारह प्रकार के हों, कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि प्रत्येक रस में परमात्मा है । शास्त्रों में मुख्य रूप से रस चार प्रकार के बताए गए हैं । ये चार रस हैं - भोग रस, शान्त रस, भाव रस और प्रेम रस । एक-एक कर हम इन चारों रसों के बारे में जानेंगे । किसी भी रस के विवेचन में आगे बढ़ने से पहले स्मृति में यह बात दृढ़ता से बनाए रखें कि प्रत्येक रस परमात्मा है, तभी हम “रसो वै स:” को दृढ़ता से स्वीकार कर पाएंगे । नि:संदेह मनुष्य का जीवन रसमय होना ही चाहिए क्योंकि रसमय जीवन ही मनुष्य को परमात्मा की अनुभूति करा सकता । आइए! जीवन के प्रथम रस की बात करते हैं।

भोग-रस

      जीवन का  प्रथम रस है, भोग-रस ।  संसार में एक ओर तो शरीर है और दूसरी ओर विषय हैं । विषय शरीर के बाहर है, जबकि विषयों का ज्ञान कराने वाली इंद्रियाँ (ज्ञानेन्द्रियाँ) और विषयों का भोग कराने में सहायक कर्मेन्द्रियाँ शरीर के भीतर हैं । उन विषय भोगों का भोक्ता वह पुरुष है, जो इस शरीर के भीतर बैठा विषय रस का भोग करते हुए सुखी-दुःखी होता रहता है । 

             जितनी भी हमारी इन्द्रियां है, वे भोग-रस प्राप्त कर हमें उसका ज्ञान कराती हैं । मनुष्य शरीर की ये इन्द्रियां जब तक सक्रिय रहती है तब तक भोग-रस की उनकी मांग बढ़ती ही जाती है । यह रस भी मनुष्य के सांसारिक जीवन के लिए आवश्यक है परन्तु आध्यत्मिक जीवन के लिए इस भोग-रस का त्याग करना आवश्यक है क्योंकि सांसारिक भोगों से मनुष्य कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता ।

              भागवत में ययाति-प्रसंग आता है । एक बार राजा ययाति को उनके श्वसुर शुक्राचार्य ने शाप दिया था जिसके कारण उनके शरीर को वृद्धावस्था ने असमय (समय से पूर्व) ही आकर जकड लिया था ।  सांसारिक भोगों से तब तक उन्हें संतुष्टि नहीं मिल पाई थी । वे शुक्राचार्यजी से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें सांसारिक व शारीरिक भोग के लिए कुछ समय और मिलना चाहिए क्योंकि उनकी पुत्री देवयानी का भी इसी में भला है । शुक्राचार्य कहते हैं कि मेरे द्वारा दिया गया श्राप तो अन्यथा हो नहीं सकता । इससे बच निकलने का एक ही उपाय है कि जो व्यक्ति प्रसन्नता से तुम्हें अपनी युवावस्था दे दे, उससे अपनी वृद्धावस्था बदलकर शारीरिक सुख भोग सकते हो । इस प्रकार शुक्राचार्य से उन्हें भोग-रस का पान करने के लिए समय तो मिल जाता है परन्तु प्रश्न था कि युवावस्था कहाँ से लाये ? शारीरिक भोग के लिए युवा बने रहना आवश्यक है । राजा ययाति के समक्ष युवावस्था प्राप्त करने का एक मात्र साधन उसके पुत्र ही थे ।

              ययाति ने एक-एक कर सभी पुत्रों से वृद्धावस्था लेकर बदले में अपनी युवावस्था देने का आग्रह किया । एक-एक कर सभी पुत्रों ने उन्हें अपनी युवावस्था देने से मना कर दिया, केवल सबसे छोटे पुत्र पूरु ने अपने पिता का आग्रह स्वीकार किया और उनसे वृद्धावस्था ले ली और उन्हें शरीर के भोग के लिए अपनी युवावस्था दे दी । संसार में एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में किसी विशेष हार्मोन्स को स्थानांतरित (Hormone transfer) करने का शायद यह पहला उदाहरण है । आधुनिक विज्ञान ने अब ऐसे हार्मोन्स की दवाइयाँ विकसित कर ली है ।

                युवावस्था पा कर ययाति ने कई वर्षों तक शारीरिक भोग भोगे । परन्तु फिर भी इन भोगों से उन्हें तृप्ति नहीं हुई बल्कि भोगों को प्राप्त करने की कामना दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई । अंततः उनको इस बात का ज्ञान हुआ कि शारीरिक भोगों से कभी भी कोई तृप्त नहीं हो सकता ।

      भागवतजी में ययाति इन विषय-भोगों के बारे में कहते हैं -

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। भागवत-9/19/14 ।।

अर्थात विषयों को भोगने से भोगवासना कभी शांत नहीं हो सकती । जैसे घी की आहुति डालने से अग्नि और अधिक भड़क उठती है वैसे ही भोगवासनायें भी भोगों से प्रबल हो उठती है ।

                          ययाति ने सत्य ही कहा है । सभी विषय-भोग ऐसे ही होते हैं, जिन्हें मनुष्य जीवन भर भोगना तो चाहता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि वह इन भोगों का स्वयं ही भोग बनता जा रहा है । जब तक उसे इस बात का अनुभव होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है । ययाति को इस बात का ज्ञान होते ही उन्होंने अपने पुत्र पूरु को उसकी युवावस्था लौटा दी और साथ ही साथ अपना राज्य उसे देकर शांत भाव से वन को प्रस्थान कर गए । मनुष्य को शांति तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि उसको यथार्थ का ज्ञान नहीं हो जाये । यह यथार्थ क्या है ?

             यथार्थ वह नहीं है, जो हमें अपनी आँखों से दिखलाई पड़ता है । यथार्थ उस दृश्य के पीछे छुपा हुआ है जिसे केवल वही व्यक्ति देख सकता है, जिसके आंतरिक (ज्ञान) चक्षु खुले हों । नेत्र और उनकी दृष्टि दोनों ही जड़ होते हैं, अतः वे यथार्थ को देखने से कोसों दूर रहती है परन्तु आंतरिक दृष्टि यथार्थ को देख सकती है । आंतरिक दृष्टि को जाग्रत करने का एक ही साधन है - ज्ञान । ज्ञान हमें यथार्थ तक ले जाता है । जब यथार्थ से हमारा सामना होता है, संसार का सब कुछ बहुत पीछे छूट जाता है । सत्-असत् का द्वंद्व तो इस संसार के कारण है । संसार एक स्वप्न, एक कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । स्वप्न हमें उद्वेलित करता है, जबकि यथार्थ का ज्ञान हमें शांति प्रदान करता है । संसार के सब भोग स्वप्न मात्र हैं, उनसे शांति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता । अतः शांति को उपलब्ध होने के लिए भोग-रस का त्याग करना आवश्यक है ।

                  हमें भोग-रस का त्याग कर दूसरे रस की ओर अग्रसर होना चाहिए । परन्तु भोगों का त्याग कैसे हो ? भोगों का त्याग करना सम्भव ही नहीं है । जैसा कि कर्म-सिद्धांत कहता है कि प्रत्येक कर्म का फल भोग के रूप में प्राप्त होकर ही रहता है, ऐसे में भोगों के त्याग की कल्पना भी नहीं की जा सकती । हाँ, यह सत्य है कि हमें अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल वर्तमान जीवन में भोग के रूप में मिलता है । अतः उन कर्मों के फलस्वरूप मिले भोगों को भोगना उचित ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है । 

             श्रीमद्भागवत महापुराण में मनु महाराज अपनी पुत्री देवहूति को कर्दम ऋषि को विवाह हेतु सौंपते हुए कह रहे हैं - 

 उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते।

अपि निर्मुक्तसंगस्य कामरक्तस्य किं पुनः।।

भागवत -3/22/12

जो भोग स्वतः प्राप्त हो जाय, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुष को भी उचित नहीं है, फिर विषयासक्त की तो बात ही क्या है ।

         कर्दम ऋषि थे, फिर भी अनायास ही मिले भोग को उन्होंने ठुकराया नहीं । कर्दम ऋषि ने देवहूति के साथ विवाह किया, संतान भी उत्पन्न की परन्तु काम-भोग में अनासक्त रहते हुए । अंततः उन्होंने भी भोगों का त्याग कर दिया और हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए । इस प्रकार अनासक्त रहते हुए भोग भोगना और फिर समय आने पर उसका त्याग कर देना ही जीवन में महत्वपूर्ण है ।

          भोगों की ओर जाना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । जीवन में जब किसी एक विषय का संयोग इंद्रिय के साथ होता है, तब वह विषय-रस मनुष्य को अच्छा अथवा बुरा अवश्य ही लगता है । अच्छे विषय भोग से अर्थ है उस विषय-इंद्रिय संयोग के परिणाम स्वरूप मनुष्य को सुख की अनुभूति होना । जिस भोग से मनुष्य को सुख की अनुभूति होती है, उस विषय को प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त होना मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है । साधारण भाषा में इसको “लार टपकना” भी कहते हैं । जहां भी वह विषय- भोग दिखलाई पड़ता है, मनुष्य उस विषय को पाने को लालायित हो उठता है । इस प्रकार मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है ।

            श्रीमद् भागवत महापुराण में नौ योगीश्वरों की कथा आती है । उनमें से आठवें योगीश्वर चमसजी मनुष्य की भोग के प्रति स्वाभाविक प्रवृत्ति के बारे में बताते हैं -

             लोके व्यवायामिषमद्यसेवा

                      नित्यास्तु जन्तोर्न हि तत्र चोदना ।

            व्यवस्थितिस्तेशु विवाहयज्ञ-

                       सुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ।। भागवत - 11/5/11।।

       संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्य की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है । तब उसमें प्रवृत्त करने का विधान तो हो ही नहीं सकता । ऐसी स्थित में विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञ के द्वारा जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गई है, उसका अर्थ है - लोगों की उच्छृंखल प्रवृत्ति पर नियंत्रण, उनका मर्यादा में स्थापन । वास्तव में यह शास्त्रीय व्यवस्था लोगों को उन भोगों की ओर से हटाने के लिए ही की गई है ।

          मैथुन, मांस और मदिरा, ये तीनों ही मनुष्य का पतन कराने वाले हैं । इन तीनों की और आकर्षित होना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए शास्त्रों में किए गए विधान को स्पष्ट करते हुए चमसजी कहते हैं -

        यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-

                   स्तथा पशोरालभनं न हिंसा ।

        एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या

                    इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ।। भागवत -11/5/13।।

         सौत्रामणि यज्ञ में सुरा को सूंघने का ही विधान है, पीने का नहीं । यज्ञ में पशु का आलभन (स्पर्श मात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं । इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के साथ मैथुन की आज्ञा विषयभोग के लिए नहीं, धार्मिक परम्परा की रक्षा के निमित्त संतान उत्पन्न करने के लिए ही दी गई है । परन्तु जो लोग अर्थवाद के चक्कर में फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्म को जानते ही नहीं ।    

        भोगों का त्याग कर के ही मनुष्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति पर अंकुश लगा सकता है । यहाँ भोगों के त्याग से अर्थ है, उन भोगों के प्रति आसक्त न होना । ऐसे में प्रश्न उठता है कि भोग भोगते हुए भी भोगों में आसक्त होने से कैसे बचा जा सकता है, इस बारे में ईशावास्योपनिषद् कहता है -

       ईशा वास्यमिदंसर्वं यत्किंच्य जगत्यां जगत् ।

       तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।

        अर्थात अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन संसार है; यह समस्त संसार ईश्वर से व्याप्त है । उस ईश्वर को साथ रखते हुए; त्यागपूर्वक इसे भोगते रहो । इसमें आसक्त मत होओ । धन, भोग्य पदार्थ आदि किसी के नहीं है ।  

        इस प्रकार इस मन्त्र को दृष्टि में रखते हुए जीवन में मिल रहे भोगों को भी त्यागपूर्वक भोगा जा सकता है और साथ ही उस विषय-भोग के प्रति अनासक्त भी हुआ जा सकता है ।

                  भोग-रस हमारे स्वार्थ का परिणाम है । हम इस शरीर का ही सुख चाहते हैं और वह सुख हमें मिलता भी है परंतु प्रत्येक सुख एक दिन दुःख में परिवर्तित अवश्य ही होता है । सुख के दुःख में परिवर्तित होने के मुख्य रूप से दो कारण है - प्रथम, एक ही प्रकार का शारीरिक सुख मनुष्य को कभी भी रुचता नहीं है । वह निरंतर बढ़ता हुआ सुख प्राप्त करना चाहता है, जो संभव नहीं है । दूसरा कारण है कि शारीरिक सुख मनुष्य के शरीर का क्षरण करता है, जो उसको सामाजिक, आर्थिक अथवा शारीरिक क्षति (रोग आदि) पहुंचाता है । इस प्रकार प्रत्येक सुख का एक न एक दिन दुःख में परिवर्तित होना अवश्यंभावी है ।

          इस प्रकार स्पष्ट है कि भोग-रस से जीवन में छद्म सुख ही मिल सकता है, इसमें वास्तविक सुख का नितांत अभाव है । ऐसा छद्म सुख व्यक्ति को जीवनभर और अधिक सुख प्राप्त करने अथवा  दुःख को सुख में परिवर्तित करने के लिए व्यथित बनाए रखता है । मनुष्य के इस प्रकार सुख के लिए व्यग्र होने से उसका जीवन अशांत बना रहता है । अतः मनुष्य को इसी जीवन में शांति को उपलब्ध होने के लिए भोग-रस का त्याग कर शांत-रस की खोज करनी होगी ।

शान्त-रस

       मनुष्य जीवन का दूसरा रस है- शांत-रस । इस शांत-रस को प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार के भोगों की कामनाएं शांत करनी होती है । शांत-रस को इन्द्रियों को बलात् (जबरदस्ती) दबाकर पैदा करने का प्रयास नहीं करना चाहिए बल्कि मन को नियंत्रण में लेकर भोग-रस की कामना का त्याग कर शांत-रस का आनंद लेना चाहिए । आज मनुष्य विभिन्न प्रकार के भोग-रस में डूबा हुआ है, इस कारण से उसमें शांति के अवतरण की कल्पना नहीं की जा सकती । भोग-रस में आसक्ति के कारण व्यक्ति सदैव उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में प्राप्त करने का प्रयास करता रहता है । इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण समाप्त हो जाता है । अशांति उसे चारों ओर से घेर लेती है । इस प्रकार  भोगों से दूरी बनाये रखना उसके लिए असंभव हो जाता है ।

               भोगों के प्रति आसक्ति न हो, इसका एक ही उपाय है, अपनी कामनाओं पर नियंत्रण । इन्द्रियों को दबाना नहीं है बल्कि कामनाओं को दबाना है । मन में उठ रही कामनाओं को रोककर ही इन्द्रियों को नियंत्रण में रखा जा सकता है । एक बार कामनाएं नियंत्रित हो गयी तो फिर जो शांत-रस प्राप्त होता है, वह भोग-रस से भी अधिक आनंददायक होता है ।

     गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं -

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।। गीता -2/59।।

     निराहारी अर्थात इंद्रियों को विषयों से हटाने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु रस निवृत नहीं होता । परमात्मा तत्व का अनुभव होने से मनुष्य का रस भी निवृत हो जाता है अर्थात उसकी संसार में रसबुद्धि नहीं रहती ।

      हमारी समस्त इन्द्रियां और मन भी तो परमात्मा के कारण है । ऐसे में इन्द्रियों का दमन करना तो परमात्मा के सृजन का अनादर करना है । आप अगर स्वादेंद्रिय को नियंत्रण में रखने के लिए अपनी जिव्हा को काटकर भी फैंक देंगे, तो क्या आपको भोजन का रस नहीं आएगा ? भोजन का रस आपको अपनी कल्पना में मिलता रहेगा, उसको आप अपनी जिव्हा काटकर नियंत्रित नहीं कर सकते । भगवान् ने आपको स्वादेंद्रिय दी है, स्वाद की अनुभूति करने के लिए, स्वाद का आनंद लेने के लिए, स्वाद के प्रति आसक्त होने के लिए नहीं । 

               आपका मन एक विशेष स्वाद के, और अधिक मात्रा में मिलने की चाहना अथवा उस भोग के सतत मिलते रहने की कामना करता है । अगर आपके मन में उसी स्वाद को बार-बार प्राप्त करने की कामना नहीं उठती है तो फिर आप सुगमता से मिल रहे भोजन का रस स्वादेंद्रिय से लेने को स्वतन्त्र है । भोजन न भी मिले तो आपके मन में किसी भी प्रकार का विचलन नहीं होना चाहिए । यही शांत-रस है ।

          इस बारे में कठोपनिषद् कहती है – 

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।।

महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ।

पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ।। कठो.-1/3/10-11 ।।

       अर्थात इन्द्रियों से विषय बलवान है; विषयों से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से महान जीवात्मा होने से वह अधिक बलवान है । उस जीवात्मा से अधिक बलवान है भगवान की अव्यक्त माया शक्ति अर्थात प्रकृति; और सबसे श्रेष्ठ है परम पुरुष भगवान; उनसे अधिक श्रेष्ठ और बलवान अन्य  कोई नहीं है । वही सबकी परम अवधि और वही सबकी परम गति है ।

                     इस प्रकार कठोपनिषद में वर्णित यम-नचिकेता संवाद में यम ने नचिकेता को स्पष्ट कर दिया है कि जीवात्मा के पश्चात् इस व्यक्त संसार में केवल बुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ है । इन्द्रियों को बलपूर्वक दबाने के स्थान पर अपनी बुद्धि से विचार करते हुए स्वीकार करें कि भोग-रस अंततः हमें दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकते । शांति प्राप्त करने के लिए अपनी बुद्धि से मन में उठ रही विभिन्न कामनाओं को नियंत्रित करें । कामनाओं पर नियंत्रण मन को नियंत्रण में लेकर पाया जा सकता है । इस प्रकार कामनाओं पर नियंत्रण पाते ही आपकी इन्द्रियां स्वतः ही नियंत्रित हो जाएगी ।  इस अवस्था को उपलब्ध होते ही आपके जीवन में शांत-रस का आगमन हो जायेगा । शांत-रस कामनाओं के शांत होने पर ही मिलना संभव हो सकता है अन्यथा नहीं ।

भाव-रस

              अब चलते हैं, जीवन के एक महत्वपूर्ण रस की ओर । यह महत्वपूर्ण तीसरा रस है-भाव-रस । शांत-रस प्राप्त कर लेने के उपरांत साधक को भाव-रस प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना चाहिए । भाव-रस का अर्थ है, मनुष्य का भावना प्रधान होना, भक्ति-मार्ग पर अग्रसर होना । इस भाव-रस में मुख्यतः भावना प्रधान होती है । जैसा मैं हूँ वैसे ही सब प्राणी हैं । कोई किसी से अलग अथवा भिन्न नहीं है । जैसे कि गीता में भगवान् श्री कृष्ण कह रहे हैं –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। गीता-6/30 ।।

अर्थात जो सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझको ही व्याप्त देखता है और सब भूतों को मुझके अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं और मेरे लिए वह कभी भी अदृश्य नहीं होता ।

             बहुत ही महत्वपूर्ण भाव-रस, जहाँ कोई किसी से भिन्न नहीं, सभी अपने, कोई भी पराया नहीं । चोर और साधू, पशु व मानव सभी में परमात्मा को देखना । भाव-रस हमें परमात्मा की ओर ले जाता है । भाव-रस दया और करुणा का रस है । इस संसार में भोग-रस से निवृत हो व्यक्ति शांति को उपलब्ध होता है । शांति प्राप्त करने के उपरांत उसमें प्रत्येक प्राणी के प्रति दया और करुणा का भाव जगता है । इसीलिए इस भाव-रस को भावना प्रधान कहा गया है । गोविन्द की यात्रा के लिए मनुष्य का भाव-प्रधान होना आवश्यक है । भाव, भोग से एकदम विपरीत अवस्था है और प्रेम से पूर्व की अवस्था है । भोग-रस से प्रेम-रस के मार्ग पर अग्रसर होने के मध्य में भाव-रस की उपलब्धि होती है ।

                   महान योगाचार्य महर्षि पतंजलि के जीवन का एक वृतांत है । तत्कालीन राजा पुष्पराज ने एक बार अपने राजमहल में एक माह तक चलने वाले यज्ञ का आयोजन किया । उस यज्ञ में उन्होंने महर्षि पतंजलि को भी आमंत्रित किया । आमंत्रण मिलने पर महर्षि ने पुष्पराज को स्पष्ट किया कि इतनी दीर्घ अवधि तक गुरुकुल छोड़ कर जाना संभव नहीं है क्योंकि इससे मेरे एक सौ विद्यार्थियों की शिक्षा अवरुद्ध हो जाएगी ।  राजा पुष्पराज ने कहा कि मैं आपके साथ-साथ सभी एक सौ विद्यार्थियों के आवास, भोजन और शिक्षा की व्यवस्था कर देता हूँ । वहां रहते हुए आप यज्ञ में भी भाग ले सकते हैं और अपने शिष्यों को विद्याध्ययन भी करा सकते हैं । राजा पुष्पराज के आग्रह को आखिर महर्षि टाल नहीं सके और अपने शिष्यों सहित राजा के यहाँ मेहमान बन गए ।

             प्रातःकाल महर्षि पतंजलि यज्ञादि कार्यक्रमों में भाग लेते और तत्पश्चात गुरुकुल की तरह ही अपने शिष्यों को विद्याध्ययन कराते । इस प्रकार एक पक्ष बीत गया । एक दिन राजा ने महल की नाट्यशाला में एक भव्य नृत्य और संगीत के कार्यक्रम का आयोजन किया जिसमें राज्य की सुन्दरतम प्रसिद्ध तीन नृत्यांगनाओं को नृत्य करने के लिए आमंत्रित किया गया था । यह कार्यक्रम सायं काल को प्रारम्भ होकर मध्य रात्रि तक चलना था । राजा पुष्पराज ने महर्षि पतंजलि को भी इस नृत्य-संगीत कार्यक्रम को देखने के लिए निमंत्रित किया । महर्षि ने कहा कि मैं अकेला नहीं आ पाउँगा, अगर निमंत्रित करना है तो मेरे साथ मेरे सभी एक सौ शिष्यों को भी निमंत्रण देना होगा । राजा पुष्पराज ने सहर्ष महर्षि पतंजलि के सभी शिष्यों को आमंत्रित किया और उनके बैठने की रंगशाला में उचित व्यवस्था कर दी ।

            रंगशाला में नृत्य कार्यक्रम समय पर प्रारम्भ हुआ । तीनो नृत्यांगनाएं एक से बढ़कर एक प्रस्तुति दे रही थी । नृत्य और संगीत का तालमेल बहुत ही उच्च कोटि का था । महर्षि पतंजलि बार-बार आगे बढकर नृत्य और संगीत की प्रशंसा करते हुए नर्तकियों को प्रोत्साहित कर रहे थे । सभी शिष्य नृत्य और संगीत का आनंद ले रहे थे । एक शिष्य जिसक नाम चरित्र था, उसको अपने गुरु का इस प्रकार नृत्य और संगीत का रसास्वादन करना अनुचित लग रहा था । उसका ध्यान नृत्य और संगीत में कम और अपने आचार्य की भाव भंगिमाओं पर अधिक था । खैर ! मध्यरात्रि को आयोजन का समापन हुआ । सभी शिष्य अपने अपने शयन कक्ष की ओर बढ़ चले । 

                   महर्षि पतंजलि से अपने शिष्य चरित्र की दुविधा अधिक समय तक छुपी न रह सकी । उन्होंने अपने शिष्य को संबोधित करते हुए कहा – ‘चरित्र ! मैं अनुभव कर रहा हूँ कि तुम किसी बड़ी दुविधा में हो, कहो क्या बात है ?’ चरित्र ने कहा – “आचार्य ! मेरी दुविधा है कि आपके द्वारा  नृत्य और संगीत का इस प्रकार रसास्वादन करना कहीं चित्त वृति निरोध में बाधक तो नहीं है ?’ महर्षि पतंजलि, जो अष्टांग योग के प्रणेता हैं, ने कहा – ‘नहीं चरित्र ! नृत्य और संगीत को भोग-रस की तरह लेना ही चित्त वृति निरोध में बाधक है, इसे भाव-रस की तरह लेने से आप कला की केवल प्रशंसा ही करते है, उस कला को भोगते नहीं हैं । मुझे संगीत और नृत्य कला का समुचित ज्ञान है । मैंने उच्च कोटि के नृत्य और संगीत की प्रशंसा की है, उन नृत्यांगनाओं की सुन्दरता की नहीं । भोग दृष्टि से देखें तो सुन्दरता हमें भोग-रस प्रदान के लिए आकर्षित करती है और यदि ज्ञान दृष्टि से देखें तो यही संगीत व नृत्य हमें भाव-रस प्रदान करता है । हमारा जीवन भोग-रस प्राप्ति के लिए नहीं है बल्कि भाव-रस को प्राप्त करने के लिए अवश्य है ।’  इस उत्तर से चरित्र की सारी दुविधा मिट गई और महर्षि पतंजलि के प्रति उसका आदर भाव और अधिक बढ़ गया ।  

              महर्षि पतंजलि के जीवन का यह दृष्टान्त स्पष्ट करता है कि मनुष्य के जीवन में भोग और भाव, इन दो प्रकार के रसों में सूक्ष्म सा अंतर है । भोग-रस सुख-दुःख से व्यक्ति को मुक्त नहीं होने देता जबकि भाव-रस व्यक्ति को आनंद की अवस्था तक ले जाता है । भोग-रस अस्थाई रस है, जबकि भाव रस अखंड रस है । भोग-रस हमें आवागमन से मुक्त नहीं होने देता जबकि भाव-रस हमें मुक्ति की ओर ले जाता है । अज्ञान के कारण कई बार हम भोग-रस और भाव-रस के अंतर को समझ नहीं पाते हैं । केवल ज्ञान ही इन दोनों के मध्य जो अंतर है, उसको पूर्ण रूप से स्पष्ट कर सकता है । योगाचार्य पतंजलि के इस दृष्टान्त से यह अंतर बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है ।

                     भाव-रस हमें संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होने देता । प्रत्येक प्राणी के लिए करुणा और सहृदयता रखना ही भाव-रस है । भक्ति का प्रारम्भ ही भाव के साथ होता है । भाव के अभाव में भक्ति केवल एक दिखावा बन कर रह जाती है, जो मूल्यहीन है । अतः हमें भोग-रस को छोड़कर शांत-रस को प्राप्त कर भाव-रस में डूबना होगा, तभी हम परमात्मा को पाने की ओर अग्रसर हो सकते हैं । स्वामी शरणानन्द जी महाराज कहा करते थे कि भाव-रस अखंड है परन्तु अनन्त नहीं है । भाव-रस में सदैव ही द्वैत की अवस्था बनी रहती है, जबकि हमें इससे आगे बढ़कर अद्वैत तक पहुंचकर उससे एकाकार होना है । कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति को केवल भाव-रस पर आकर ही नहीं अटक जाना है । हमें उस रस को पाना है, जो अखंड भी हो और अनन्त भी हो । वह अनंत रस क्या है, आइये ! जानने के लिए चलते हैं उस ओर ।

प्रेम-रस 

                 रसपूर्ण जीवन का चौथा और सर्वोत्तम रस है, प्रेम-रस | स्वामी शरणानन्द जी महाराज के अनुसार प्रेम-रस अखंड भी है और अनन्त भी । अखंड और अनंत रस, जिसे प्रेम-रस कहा जाता है वह न तो कभी मध्य में आकर टूट सकता और न ही कभी समाप्त हो सकता है । अनंत केवल गोविन्द है और उसे अनंत प्रेम-रस से ही पाया जा सकता है । प्रेम कभी भी किसी से प्रतिदान में कुछ नहीं चाहता है । प्रेम स्वार्थी नहीं है । प्रेम में द्वैत है ही नहीं, प्रेम में केवल एकत्व है । प्रेम-रस से बढकर कोई दूसरा रस हो ही नहीं सकता । रस की सर्वोत्तम निधि प्रेम ही है और प्रेम पाकर, प्रेम बांटकर मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है । अतः अपने जीवन को प्रेम-रस से परिपूर्ण कर ले । प्रेम-रस में आकण्ठ डूबे हुए रसपूर्ण जीवन में और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । कबीर इस प्रेम के बारे में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय ।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांय ।।

                 प्रेम में ‘मैं’ की समाप्ति हो जाती है और ‘मैं’ की समाप्ति पर जो शेष रहता है, वह है प्रेम से परिपूर्ण गोविन्द । प्रेम में एक ही रहता है, दूसरे के लिए कोई स्थान नहीं है । दो का एक हो जाना ही प्रेम है । भक्त का भगवान हो जाना, आत्मा का परमात्मा हो जाना । 

ते दिन गए अकारथी, संगत भई न संत ।

प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ।।

                कबीर गुरु और प्रेम को सपष्ट करते हुए कहते हैं कि मनुष्य जीवन के वे दिन व्यर्थ ही बीत गए, जिस दिन उसने किसी संत से सत्संग नहीं किया अर्थात किसी गुरु का सानिध्य प्राप्त नहीं किया । गुरु ही हमें प्रेम से सरोबार कर देता है, प्रेम-रस में डुबो देता है । प्रेम बिना तो मनुष्य का जीवन पाशविक जीवन है । भक्ति भगवान के प्रति प्रेम का दूसरा नाम ही तो है ।

          प्रेम-रस में डूबने जा रहे व्यक्ति को जीवन में बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है । इसके लिए योग्य गुरु ही हमारे मार्गदर्शक होंगे । योग्य गुरु के मार्गदर्शन के अभाव में प्रेम-रस से विमुख होकर व्यक्ति भोग-रस में पुनः डूब सकता है । अपरिपक्व प्रेम, वासना में परिवर्तित हो सकता है । जो व्यक्ति वासना को ही प्रेम का नाम दे रहे हैं, वे बहुत बड़े भ्रम में हैं । संतुष्ट-जीवन, स्वाधीन-जीवन व होशपूर्ण-जीवन, प्रेम-रस की उच्चावस्था को प्राप्त कर उसे बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं । इनमें से किसी एक की भी अवहेलना प्रेम को वासना में परिवर्तित कर सकती है । इस स्थिति से बचने के लिए ही गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है ।

                भाव-रस से प्रेम रस तक पहुँचने का मार्ग एक साधक के लिए सबसे कठिन मार्ग है । यहाँ तक आकर बड़े-बड़े महापुरुष तक लडखडा जाते हैं । ऐसे उदाहरण आप वर्तमान काल में देख ही रहे हैं । वे सब भाव-रस से प्रेम-रस तक की यात्रा में ही लडखडा कर पतन को प्राप्त हुए हैं । मेरे एक मित्र पूछते हैं कि साध्य की इस यात्रा के अंतिम चरण के पास तक पहुँच कर ऐसा क्यों होता है ? इसका एक मात्र कारण है - स्वयं को परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिए पक्के रूप से तैयार न कर पाना । भाव-रस से प्रेम-रस तक की यात्रा में आपकी प्रसिद्धि दिन दूनी रात चोगुनी की गति से बढ़ती है जिसके कारण आपके संपर्क में आकर बहुत से लोग प्रभावित होकर आपके अनुयायी बन जाते हैं । बढ़ते अनुयायियों की संख्या देखकर आप में अहंकार पैदा हो जाता है । उस प्रसिद्धि का सुख ही आपको आनंद लगने लगता है, जबकि वास्तव में वह आनंद न होकर एक प्रकार का भोग-रस ही है । इसी को समझने में आप भूल कर बैठते हैं और आप पुनः संसार के भोगों में रत होकर पतन को प्राप्त हो जाते हैं ।  

       आज हम इस युग में अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त व्यक्तियों का ऐसे ही किसी एक सूत्र का त्याग कर देने से पतन को प्राप्त हुए देख रहे हैं । जो कभी आध्यात्मिकता की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर अपने शिष्यों का मार्गदर्शन कर रहे थे, वे स्वयं ही उन सूत्रों का त्याग कर पतन को प्राप्त हो चुके हैं । अतः आवश्यक है कि प्रेम-रस में डूबकर होश नहीं खोना है, किसी की स्वाधीनता को छीनने का प्रयास नहीं करना है और शांति के साथ संतुष्ट होकर होशपूर्वक जीना है । तभी हम प्रेम-रस के शिखर को छूकर परमात्मा को उपलब्ध हो सकते हैं ।

            वास्तव में देखा जाए तो जिस अवस्था को प्राप्त होकर पतन होता है, वह प्रेम की अवस्था तो हो ही नहीं सकती । ज्ञान की अवस्था में को सूक्ष्म अहंकार बना रहता है, वही अहंकार पतन के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है । अहंकार व्यक्ति को भ्रमित कर देता है, जिस कारण से वह स्वयं को अन्य से भिन्न और सर्वोच्च समझने लगता है । यहीं से उसका पतन होना प्रारम्भ होता है । पतन को सन्निकट जानकर भी उसका अहंकार समाप्त नहीं होता और वह ग़लतियों पर ग़लतियाँ करता रहता है । उसका परिणाम हम स्वयं देख सकते हैं । 

              भाव रस तक पहुँच कर पतन से बचने के लिए आप क्या कर सकते हैं ? आपको अपने मान-सम्मान और बढ़ती प्रसिद्धि की अवहेलना करनी होगी और दृष्टि को एक मात्र अपने लक्ष्य पर जमाये रखना होगा । साधना रत व्यक्ति के जीवन में एक नहीं अनेकों मेनकाएँ आएगी ही, यह सत्य है । आपको अडिग रहना है, लडखडाना नहीं है । पतन को प्राप्त हुए संतों ने यही गलती की कि उन्होंने प्रत्येक साधिका को मेनका समझ लिया । प्रत्येक साधिका मेनका नहीं हो सकती । अतः आपको सभी मेनकाओं से अपने आप को दूर रखना होगा । इस सम्बन्ध में एक छोटा सा दृष्टान्त प्रस्तुत है ।  

           एक घुमक्कड़ संत घूमते-घूमते एक छोटे से नगर में पहुँच गए । नगर वासी उनके मुख मंडल के तेज को देखकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । सभी नगरवासियों ने स्वामीजी से आग्रह किया कि वे कुछ समय के लिए इसी नगर में रूक कर उनका मार्गदर्शन करें । उन्होंने संत के रहने के लिए एक छोटी सी कुटिया भी बना दी । नगर के एक मात्र मंदिर में उनके प्रवचन का कार्यक्रम रखा गया । कुटिया से संत जब मंदिर के लिए पैदल निकलते तो उन्हें एक वैश्या के घर के सामने से होकर जाना पड़ता । वैश्या भी संत के मुखमंडल को देखकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी । एक बार जब संत वैश्या के घर के सामने से मंदिर के रास्ते पर अग्रसर थे, तभी वैश्या ने छत पर से ऊँची आवाज में पूछा-“स्वामीजी, आप कच्चे संत है अथवा पक्के संत ?” संत ने छत पर खड़ी वैश्या पर एक दृष्टि डाली और उसकी भाव भंगिमाओं को देखते हुए उसके प्रश्न को सुना-अनसुना कर दिया । दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ, संत उसके घर के सामने से निकल ही रहे थे कि वैश्या ने पुनः उनसे वही प्रश्न किया । फिर तो  यह प्रतिदिन का नियम सा हो गया । स्वामीजी का वैश्या के घर के सामने से निकलना, वैश्या का उनसे वही प्रश्न पूछना और संत का बिना उत्तर दिए मंदिर की ओर चलते जाना ।

                दैव-योग, एक दिन संत चल बसे । नगरवासियों ने संत की सम्मान के साथ शव यात्रा निकाली । शव यात्रा के मार्ग में फिर उसी वैश्या का घर पड़ा । वैश्या भी उत्सुकतावश छत पर खड़ी संत के अंतिम दर्शन करने की प्रतीक्षा कर रही थी । संत की शव यात्रा देखकर उसके मुंह से अनायास ही निकल गया- “हाय ! संत तो मेरे  प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही चले गए ।” कहते हैं कि इतना सुनते ही संत के शरीर में हलचल हुई और वे बोल पड़े – “ मैं पक्का संत हूँ । जब तक शरीर जीवित था तब तक मुझे स्वयं पर विश्वास नहीं था कि मैं पक्का संत हूँ क्योंकि तुम्हें देखकर और तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देकर मैं तुम्हारे रूप-जाल में कभी भी फंस सकता था । आज मेरा यह जड़ शरीर नहीं रहा, अब मैं पतन की ओर नहीं जा सकता इसलिए दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं एक पक्का संत हूँ ।”

                     संत तो अपनी यात्रा सफल कर गए परन्तु क्या आज के संत इस यात्रा मार्ग से भटक तो नहीं रहे हैं ? ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी महाराज सदैव इस बात के बारे में अपने साधकों को चेताते रहते थे । उनके यहाँ साधक और साधिकाओं के बैठने तक की अलग-अलग व्यवस्था रहती थी । परन्तु आज, आज तो सब कुछ गडमड हो रहा है । ऐसे में हम इन कथित संतों के पतन के अलावा और देख भी क्या सकते हैं ? किसी एक अथवा दो सम्मानित व्यक्तियों के पतन को हम सनातन धर्म से नहीं जोड़ सकते । सनातन धर्म तो सदैव साधना पथ में आ रही ऐसी बाधाओं को प्रमुखता के साथ कहता आया है और उनसे बच के रहने को आवश्यक बताता है । अब यह तो व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है कि वह ऐसी बाधाओं से पार निकल जाये अथवा इनमें उलझकर अपने स्तर से नीचे गिर जाये ।

           भाव-रस से प्रेम-रस की ओर जाने पर ऐसी बाधाएं निश्चित रूप से आएँगी ही । इसका भी एक कारण है । भाव रस में दो का होना आवश्यक है, भक्त और भगवान का, जबकि प्रेम-रस में इनमें से किसी एक का अर्थात स्वयं का अंत कर देना होता है । जहां दो है, उनमें अखंड-रस तो हो सकता है, परन्तु अनंत-रस नहीं । भाव-रस आपको प्रसिद्धि की ओर लेकर जायेगा ही, इसमें कोई दो मत नहीं है । प्रसिद्धि की अवहेलना करेंगे और स्वयं को अहंकार से मुक्त रखेंगे तो आपका “मैं” समाप्त हो जायेगा । प्रायः जहाँ प्रसिद्धि होती है वहां अहंकार का आगमन हो ही जाता है और अहंकार के आते ही दो में से एक अर्थात गोविन्द का साथ छूट जायेगा और अनेकों का साथ बढ़ता जायेगा । यह अनेक उसी संसार के हैं, जिसे आप कुछ समय पूर्व छोड़कर आये हैं । इस प्रकार आप जहां से सब कुछ छोड़कर आयें हैं, पुनः उसी स्थान पर लौट जाते हैं । केवल लौट ही नहीं जाते बल्कि उससे भी निम्न स्तर को प्राप्त हो जाते है । जहां आप भगवान को पाने से पूर्व  ही स्वयं को भगवान मानने लगते हों, वहां पतन के अतिरिक्त और कुछ शेष बचता ही कहाँ है ? 

              आप स्वयं भगवान तभी हो सकते हो जब आपने अपने “मैं” का अंत कर दिया हो । प्रेम में व्यक्ति के “मैं” का अंत हो जाता है और फिर किसी प्रकार की बाधा उसे प्रभावित नहीं कर सकती । अतः हमें भोग और प्रेम में अंतर को सपष्ट रूप से जानते हुए स्वयं की “मैं” को त्यागकर परमात्मा में लीन हो जाना होगा तभी परमात्मा की यात्रा सफल होगी ।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

       यह कबीर का एक प्रसिद्ध दोहा है । कबीर कहते हैं कि सारा संसार पुस्तकों में ज्ञान खोज रहा है परन्तु शास्त्र पढ़कर भी आज तक कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सका है, पंडित नहीं बन सका है । परन्तु जिसने ‘प्रेम’ शब्द के ढाई अक्षर पढ़ लिए, जो प्रेम-रस में डूब गया वह तत्काल ही पंडित हो गया अर्थात ज्ञान को उपलब्ध हो गया । आत्म-ज्ञान हो जाना ही परमात्मा को पा लेना है ।

                 आत्म-ज्ञान होते ही सभी में परमात्मा नज़र आने लगते हैं । प्रेम और परमात्मा में कोई भेद नहीं है । कबीर कहते हैं – 

सुन्न मरे अजपा मरे, अनहद ही मर जाय ।

रामस्नेही ना मरे, कहत कबीर बुझाय ।।

                 कबीर कहते हैं कि जो परमात्मा को शून्य कहते हैं, जो उसे अजपा कहते हैं और जो उसे अनंत मानते हैं, वे सभी मरेंगे क्योंकि वे प्रेम-भाव में अभी डूबे नहीं हैं । जो राम का प्रिय है और राम से प्रेम करता है, वह कभी नहीं मर सकता । जो सभी से प्रेम-भाव रखता है, वह सभी प्राणियों में परमात्मा को देखता है अर्थात राम को ही देखता है । भला, सभी प्राणियों से प्रेम करने वाला कभी मर सकता है ? यहाँ मरने का अर्थ केवल शरीर के मरने और बार-बार जन्म लेने से नहीं है । जो संसार में सब को राम समझता है और सबसे प्रेम करता है वह जीतेजी ही मुक्त है, उसका पुनर्जन्म नहीं हो सकता । वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है और परमात्मा कभी मरता नहीं है । 

                         एक बहुत ही प्रसिद्ध भजन की पंक्तियाँ मैं यहाँ उद्घृत करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ । इन पंक्तियों से प्रेम-रस को सुगमता से समझा जा सकता है । प्रायः यह भजन प्रत्येक संत जन अपने प्रवचन कार्यक्रमों में गाते गुनगुनाते हैं । बहुत ही सारपूर्ण यह भजन कहता है –

प्रेम जब अनंत हो गया, रोम रोम संत हो गया ।

देवालय बन गया बदन, मन (हृदय) महंत हो गया ।।

       प्रेम जब अपनी उत्कर्ष अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब उसे प्रेम का अनन्त होना कहते हैं । इस सर्वोत्कर्ष अवस्था में व्यक्ति का रोम-रोम अर्थात शरीर की प्रत्येक कोशिका संत बन जाती है । संत का अर्थ है जो सत की राह पर चलता हो, जिसके सभी संकल्पों-विकल्पों का अंत हो गया हो । संत की अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति का शरीर और उसकी सभी इन्द्रियां शांत हो जाती है और फिर उस पर किसी भी प्रकार के सांसारिक आकर्षण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । देवालय बन गया बदन, अर्थात संत की अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति का भौतिक शरीर ही मंदिर बन जाता है, जहाँ किसी भी प्रकार के कुत्सित विचारों का प्रवेश संभव नहीं हो पाता है । प्रेम की अनंतता की अवस्था में व्यक्ति का मन महंत बन जाता है । महंत अर्थात वह व्यक्ति जिसने अपनी सभी महत्वकांक्षाओं का अंत कर दिया हो । व्यक्ति के मन में ही कामनायें उठती हैं, पलती हैं और विस्तार पाती है । प्रेम-रस से सरोबार व्यक्ति के मन की सभी कामनाओं का अंत हो जाता है, यहाँ तक कि मन भी अमन हो जाता है, जिसके कारण ही वह महंत कहलाता है । शरीर में मन स्थित है । मन में कामनाओं के समाप्त होते ही भौतिक शरीर देवालय बन जाता है और मन उस देवालय का महंत । उसके इस देवालय रुपी शरीर का रोम रोम सत्य को ही पुकारकर संत बन जाता है । प्रेम की अनंतता सांसारिक व्यक्ति को अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचा देती है ।

      अनन्त-रस का अर्थ है, कभी भी समाप्त न होने वाला रस । यह रस समाप्त न होकर नित्य वर्धमान रस है । प्रेम का रस एक क्षण के लिए भी कम नहीं होता बल्कि प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है । रस स्वयं परमात्मा है और परमात्मा से प्रेम करना नित्य इस रस को बढ़ावा देने वाला ही होता है । इस रस की महिमा को व्रज की गोपियों के अतिरिक्त भला और कौन जान सकता है ?

            अनन्त रस की चर्चा हो और भगवान की गोपियों के संग रास-लीला को भूल जाएं, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता ।  भागवत के दशम स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों को अनन्त-रस प्रदान किया है, उसी को रास- लीला कहा जाता है ।  व्यासजी महाराज की कृपा से हमें श्रीमद्भागवत महापुराण जैसा विलक्षण ग्रंथ मिला है । भगवान के प्रति व्रज की गोपिकाओं का जो प्रेम है, उसे प्रेम की सर्वोच्च अवस्था कहा जा सकता है । अनंत-रस को समझाने के लिए रास-लीला के प्रसंग में अधिक विस्तार से नहीं जाना चाहूंगा क्योंकि इस प्रसंग की कई पहुँचे हुए संत महात्माओं ने अपने- अपने विवेक के अनुसार व्याख्या की है । उनकी व्याख्याओं की विवेचना करना मेरी क्षमता के बहुत बाहर है । मैं तो केवल यही स्पष्ट करना चाहूँगा कि दशम स्कन्ध के रास के इन पाँच अध्यायों में ऐसी क्या विशेष बात है, जिसने भगवान के प्रति गोपियों के प्रेम को अतुल्य बना दिया ।

              भागवत में दशम अध्याय के 29 वें से लेकर 33 वें तक के पाँच अध्याय अतिमहत्वपूर्ण अध्याय हैं, जिनमें भगवान के प्रति गोपिकाओं के अतिशय प्रेम की झलक मिलती है । इन अध्यायों में क्रमशः रासलीला का प्रारंभ, श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा, गोपिका-गीत, भगवान का प्रकट होकर गोपियों को सांत्वना देना और महारास का वर्णन मिलता है । इन पाँच अध्यायों को रास पंचाध्यायी भी कहा जाता है । प्रेम-रस को पूर्ण रूप से समझने के लिए इन पाँचों अध्यायों को गंभीरता पूर्वक पठन कर समझना होगा । बहुधा लोग (मैं उनको बेहूदा लोग कहना चाहूँगा) इस रास लीला में वर्णित प्रेम के सर्वोच्च स्तर को न समझते हुए केवल इसे स्त्री-पुरुष के मध्य वासना के स्तर तक सीमित मान लेते हैं, जोकि पूर्णतः अनुचित है । परमात्मा की लीला पर अंगुली उठाना सरल है, परमात्मा होना बड़ा कठिन है ।

      रास-पंचाध्यायी का प्रत्येक अध्याय अपने आप ही बहुत कुछ कह देता है । प्रेम की उच्चावस्था तक पहुँचने के लिए हरेक अध्याय एक सोपान है । रास-पंचाध्यायी के प्रथम अध्याय में रासलीला का वर्णन है । वास्तव में देखा जाए तो परमात्मा का प्रेम-रस प्राप्त करने के लिए गोपियों की जो दशा इस अध्याय में वर्णित है, उसे प्रेम के रास्ते का पहला सोपान कहा जा सकता है ।

            सर्वप्रथम गोपियों को श्रीकृष्ण की ओर से आमंत्रण मिलता है । वांसुरीवादन करते हुए इस प्रेम भरे आमंत्रण को ही गोपियाँ परमात्मा की आतुरता समझ लेती है । वे समझती हैं कि भगवान उनके बिना नहीं रह सकते । उनकी इसी सोच ने गोपियों को अहंकार से भर दिया । उनके इसी भ्रम को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण उनके बीच ही सहसा अन्तर्धान हो जाते हैं । यह भागवतजी के उनतीसवें अध्याय का सार है ।

        तीसवें अध्याय में श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा का वर्णन आता है । भक्त को भगवान एक झलक दिखाकर किस प्रकार व्याकुल कर देते है, इसको जानने के लिए गोपियों की मनोदशा को समझना पर्याप्त है । भगवान के इस प्रकार अन्तर्धान हो जाने पर गोपियां उनका अनुसन्धान करती है । वे सोचती हैं कि अभी अभी तो हमारे बीच थे,अचानक वे हमें छोड़कर कहाँ चले गए ? 

           परमात्मा बाहर खोजने से भला किसी को मिले हैं ? वे तो सबके हृदय में निवास करते हैं । वे बाहर खोजने से कभी मिलते भी नहीं हैं । उनको ढूँढना हो तो स्वयं के भीतर प्रवेश करना होगा । भीतर भी वे तभी मिलेंगे जब आपकी व्याकुलता इतनी अधिक बढ़ जाए और उनको विवश होकर आपके सामने आना पड़े । जब गोपियों के अथक प्रयास से किए जा रहे अनुसंधान का कोई परिणाम नहीं निकला तब उनकी अकुलाहट बढ़ने लगी । उनकी परमात्मा के प्रति बढ़ती इस अकुलाहट का वर्णन भागवतजी के इकतीसवें  अध्याय में किया गया है ।

           परमात्मा का बांसुरी बजाकर गोपियों को आमंत्रित करने ने उनको अहंकारी बना दिया क्योंकि वे समझ रही थी कि श्रीकृष्ण उनके बिना नहीं रह सकते । उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान उनके मध्य ही अन्तर्धान हो गए । भगवान कहीं गए नहीं थे बल्कि गोपियों के अहंकार ने श्रीकृष्ण को देख पाने की दृष्टि उनसे छीन ली थी ।अहंकार व्यक्ति को अंधा बना देता है । गोपियाँ अपने अहंकार को पहचानने के स्थान पर उनको आस-पास ढूँढने का प्रयास कर रही हैं । कितना ही अनुसंधान कर लें, भगवान तो तभी मिलेंगे जब हमारा अहंकार समाप्त होगा, उससे पहले नहीं । अहंकार समाप्त करने के लिए मनुष्य को परमात्मा के प्रति समर्पित होना होता है । परमात्मा की शरण लेते ही उसको पाने के लिए भक्त की अकुलाहट बढ़ने लगती है । गोपियों की इस व्याकुलता का वर्णन व्यासजी महाराज ने गोपिका-गीत के रूप में किया है । विरह गीत है यह । इस गीत में गोपियों की अकुलाहट के साथ परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण की झलक मिलती है ।

             गोपियों की अतिशय व्याकुलता देखकर अंततः भगवान को उनके मध्य अवतरित होना पड़ा । भगवान अपने भक्त की व्याकुलता को अधिक समय तक सहन नहीं कर सकते ।आख़िर वे भी अपने भक्तों से मिलने के लिए व्याकुल हो उठते हैं । उनको अपने भक्तों को दर्शन देना ही पड़ता है । भक्तों को दर्शन देना ही पर्याप्त नहीं है, वे उन पर प्रेम-रस की वर्षा भी करते हैं ।

           गोपियों पर प्रेम-रस की वर्षा करने के लिए वे उनके साथ महारास करते हैं । महारास का वर्णन भागवतजी के दशम स्कन्ध के तेतीसवें अध्याय में बड़े ही सुंदर और अद्भुत रूप से किया गया है । बस, हमारे पास इस महारास को समझने के लिए दिव्य दृष्टि होनी चाहिए । भक्त का भगवान से मिलन है यह महारास । यह महारास अद्वितीय आनन्द की अनुभूति कराता है । 

    श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं - 

          नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्

                भज़ाम्यमीषामनुवृत्तिवृतये ।

         यथाधनो लब्धधने विनष्टे

              तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद ।। भागवत-10/32/20 ।।

अर्थात् मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए । मैं ऐसा केवल इसलिए करता हूँ कि उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी रहे । जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत सा धन मिल जाय और फिर वह धन खो जाय तो उसका हृदय खोए हुए धन की चिंता से भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाया करता हूँ ।

           अंत में शुकदेव जी महाराज द्वारा कहा गया कथन उद्धृत करना चाहूँगा ।

       यत्पादपंकजपरागनिषेवतृप्ता

                 योगप्रभावविद्युताखिलकर्मबन्धा: ।

        स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमाना-

                स्तस्येच्छयाऽऽत्तवपुष: कुत एव बन्ध: ।।10/33/35 ।।

         वे कहते हैं - जिनके चरण कमलों की रज का सेवन कर भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभाव से योगी-जन अपने सारे कर्मबंधन काट डालते हैं और विचारशील ज्ञानीज़न जिनके तत्व का विचार करके तत्वस्वरूप हो जाते हैं तथा सभी कर्म-बंधनों से मुक्त होकर स्वच्छंद विचरण करते हैं, वे ही भगवान अपने भक्तों की इच्छा से अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं ; तब भला उनमें कर्मबन्धन की कल्पना ही कैसे हो सकती है ।

          संसार का भोग-रस सुख- दुःख देने वाला है । हालांकि रस स्वयं परमात्मा ही है और वे भोग-रस के रूप में कामना करने वाले को मिल जाते हैं । वे कभी नहीं चाहते कि मुझे पाकर कोई मनुष्य सुख- दुःख को भोगता रहे  परंतु भगवान सभी की कामना पूरी करने वाले होने के कारण उसे विषय-भोग  प्रदान कर देते हैं । मनुष्य की विडंबना है कि वह विषय-भोग से मिलने वाले सुख को ही जीवन का आनंद समझ लेता है । जब यही सुख एक दिन दुःख में परिवर्तित होता है, तब वह सकाम कर्म छोड़ निष्काम कर्म की ओर चलता है । जिस दिन हम स्वयं के सुख को एक किनारे रख दूसरे को सुख पहुँचाना प्रारंभ कर देंगे उसी दिन हमारे जीवन में परमात्मा शान्त-रस के रूप में अवतरित होने लगते हैं । कर्मयोग हमें शान्त-रस उपलब्ध कराता है ।

          संसार की वास्तविकता का ज्ञान संसार से भिन्न होने पर ही होता है । जिस दिन संसार से भिन्न हो जाएंगे, परमात्मा से अभिन्नता का अनुभव होने लगेगा । संसार में सर्वत्र एक परमात्मा ही दिखलाई पड़ेंगे । फिर सभी को अपना जैसा ही अनुभव करने लगेंगे । प्रत्येक जीव का सुख अपना सुख और दुःख स्वयं का दुःख प्रतीत होगा । ज्ञान की इस उच्चावस्था में परमात्मा का अवतरण भाव-रस के रूप में होता है । भाव-रस अखण्ड-रस है । ज्ञान-योग हमें अखण्ड-रस प्रदान करता है ।

         जब सभी में परमात्मा है तब भाव-रस, प्रेम-रस में परिवर्तित होने लगता है । प्रेम में अनन्त-रस है, जो दिन-प्रतिदिन निरंतर बढ़ता रहता है । भागवत जी में महारास के माध्यम से प्रेम-रस का वर्णन किया गया है । इस प्रेम को पाकर भक्त भगवान के साथ योग कर लेता है । प्रेम-रस के रूप में परमात्मा के दर्शन हों अथवा न हो, भक्त का उनके प्रति प्रेम कभी भी कम नहीं होता ।  भगवान श्रीकृष्ण गोपियों को छोड़कर मथुरा चले गये थे, फिर भी गोपियों का उनके प्रति प्रेम कभी भी कम नहीं हुआ ।

        इतने विवेचन से स्पष्ट है कि परमात्मा ही रस है । उनको जिस भाव से हम चाहते हैं, वे उसी रस के रूप में हमारे जीवन में आ जाते हैं ।

सार- संक्षेप -

       मनुष्य नाम का ही एकमात्र जीव ऐसा है, जो अपना उत्थान करते हुए स्वयं को परमात्मा के स्तर तक ले जा सकता है । संसार से मुक्त होकर परमात्मा की ओर उन्मुख होना ही इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करने का उद्देश्य है । मनुष्य का जीवन ही रसमय हो सकता है । रस को परमात्मा कहा गया है । हाँ, भोग-रस भी परमात्मा है परंतु  सुख-दुःख के रूप में वे हमारे जीवन में आते हैं । सुख-दुःख का द्वन्द्व मनुष्य को अशांत करता है । इसलिए शांत जीवन की आकांक्षा को पूरा करने के लिए हमें कर्मयोग की राह पकड़नी है । कर्मयोग का अर्थ है, स्वयं के सुख के लिए कर्म न कर सब की सेवा के लिए कर्म करना । 

             शांत-रस से भाव-रस की राह निकलती है, जिसके लिए ज्ञानयोग की आवश्यकता है । ज्ञानयोगी में व्यक्ति सबसे पहले स्वयं में जगत् को देखता है और फिर स्वयं सहित संपूर्ण जगत् को एक परमात्मा में देखता है । ऐसा दर्शन करना भाव-रस प्रदान करता है । भाव-रस में स्वयं और अन्य जीव में कोई अंतर नहीं रहता है । प्रत्येक जीव का सुख-दुःख स्वयं का ही सुख- दुःख हो जाता है । भाव-रस को अखंड-रस भी कहा जाता है । भाव-रस में द्वैत है । द्वैतभाव मिटने पर शेष एक परमात्मा ही रह जाते हैं । यह प्रेम-रस है, जो कभी भी समाप्त नहीं होता । यह प्रेम-रस ही भक्तियोग है । वास्तव में देखा जाए तो भक्तियोग में ही अद्वैत है । ज्ञानयोग में तो द्वैत किसी न किसी रूप में अवश्य बना रहता है ।

           जीवन रसमय होना चाहिए । रस विहीन जीवन बोझिल जीवन होता है । बोझिल जीवन के कारण व्यक्ति आनंद को कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकता । भोग-रस सांसारिक जीवन के लिए आवश्यक अवश्य है क्योंकि भोग पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है और हमें उन्हें अपने जीवन में भोगने ही होंगे । भोग-रस से बाहर निकलकर ही व्यक्ति शांत-रस को उपलब्ध होगा । भोगों की कामनाओं पर नियंत्रण पाकर ही व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो सकता है । शांत-रस के बाद भाव-रस की ओर अग्रसर होकर मनुष्य परमात्मा की भक्ति को प्राप्त होता है । भाव-रस की पराकाष्ठा मनुष्य को प्रेम-रस की ओर ले जाती है । प्रेम-रस से व्यक्ति संत और महंत की अवस्था प्राप्त कर परमात्म-तत्व तक पहुँच जाता है । प्रेम-रस अनंत है । आनन्द की यह अवस्था मनुष्य को सच्चिदानंद स्वरूप तक ले जाती है | प्रेम-रस ही आत्मा को परमात्मा बना देता है । 

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल 

।। हरिः शरणम् ।।

 


No comments:

Post a Comment