सर्वबुद्धिदृक्
अपरा प्रकृति के एक महत्वपूर्ण तत्व ‘बुद्धि’ पर चाहे जितना चिंतन कर लें, शायद कम ही होगा । बुद्धि ही एक मात्र ऐसा तत्व है, जिसका आश्रय ले परमात्मा के आश्रय को प्राप्त किया जा सकता है । इसे मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना कही जा सकती है कि उसके पास बुद्धि जैसा अमूल्य तत्व होने के बाद भी वह उसका समुचित उपयोग न करते हुए अपने मन के अनुसार ही चलता है । जिस दिन वह बुद्धि के अनुसार चलना प्रारंभ कर देगा, परमात्मा उसकी पहुँच में होंगे ।
परमात्मा स्वयं सभी बुद्धियों के द्रष्टा हैं । आपकी बुद्धि सांसारिक है, तो भी वे उसके द्रष्टा हैं और आध्यात्मिक बुद्धि है तो भी वे ही द्रष्टा हैं । संसार को बुद्धि के माध्यम से देखें तो उसमें भी परमात्मा दिखलाई पड़ेंगे । इस प्रकार देखने से सांसारिक बुद्धि शीघ्र ही आध्यात्मिक बुद्धि में परिवर्तित हो जाती है । गीता के दूसरे अध्याय में भगवान ने अर्जुन को बुद्धि का आश्रय लेने का कहा है, उसका कारण भी यही है कि बुद्धि का सदुपयोग कर मनुष्य अपने कर्म सुधार सकता है और विवेक का सदुपयोग कर परमात्मा की शरण में जा सकता है ।
श्रीमद् भागवत महापुराण में वसुदेवजी को पता है कि उनकी आठवीं संतान के रूप में स्वयं परमात्मा का अवतरण होगा । श्रीकृष्ण के जन्म लेने पर उन्होंने अपनी बुद्धि को स्थिर रखा, तभी वे पुत्र मोह में नहीं फँसे और उन्होंने नवजात शिशु को परमात्मा जानकर उनकी स्तुति भी की । इस स्तुति में उन्होंने कहा है कि आप सभी बुद्धियों के द्रष्टा, ज्ञानी और साक्षी हैं । इसका अर्थ है कि परमात्मा का मनुष्य की बुद्धि से सीधा सम्बन्ध है । तभी तो उन्होंने मनुष्य को अपना आश्रय लेने से पूर्व बुद्धि का आश्रय लेने का कहा है ।
बुद्धि का आश्रय लेने से क्या संसार से मुक्त हुआ जा सकता है ? ऐसा होगा या नहीं, इसमें संशय करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह भगवान का कथन है, इसलिए विश्वसनीय है । बुद्धि का आश्रय लेने का अर्थ समबुद्धि के आश्रय से है । बुद्धि का आश्रय अंततः आपको परमात्मा तक ले जाएगा ही, यह निश्चित है । परमात्मा स्वयं कहते हैं कि मैं सभी बुद्धियों का द्रष्टा हूँ । इसका अर्थ है कि बुद्धि का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से है । अतः बुद्धि के आश्रय और परमात्मा के आश्रय में ज़्यादा अंतर नहीं है ।
स्रष्टा ही सृष्टि बना है, इसका अर्थ है कि स्रष्टा और सृष्टि में कोई भेद नहीं है । जब परमात्मा स्वयं ही सृष्टि के रूप में अवतरित हैं तो जो भिन्नता इस जगत् में दिखलाई देती है, वह क्यों और कैसे है ? परमात्मा जब सृष्टि के सृजक बने तब महतत्व की अवस्था में आकर उनमें क्षोभ उत्पन्न हुआ । महतत्व में क्षोभ होने पर अहंकार का जन्म हुआ । अहंकार के तीन भेद हैं अर्थात् अहंकार तीन प्रकार का है - वैकारिक, तैजस और तामस । परमात्मा में कोई विकार नहीं है बल्कि उनका वैकारिक अहंकार के रूप में विकृत होता दिखलाई पड़ना भी उनकी ही लीला है । अहंकार के इन तीन प्रकार (वैकारिक, तैजस और तामस) से क्रमशः मन, इंद्रियों और पांच महाभूतों की उत्पत्ति हुई ।
इस प्रकार अहंकार के तीन भेद (प्रकार) से ही उनमें आपस में मन, इंद्रियाँ और पाँच तत्वों के रूप में भिन्नता दिखलाई पड़ती है । इस भिन्नता को देखते हुए आसानी से समझा जा सकता है कि इस अवस्था में आकर निराकार परमात्मा साकार रूप में परिवर्तित हो रहे हैं । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इस अवस्था को पाकर निराकार परमात्मा का साकार रूप में प्रकट होने के लिए घनीकरण (solidification) होना प्रारम्भ होता है । इसीलिए परमात्मा के साकार रूप को सच्चिदानन्दघन कहा जाता है ।
निराकार का साकार में परिवर्तित होना वैसा ही है जैसे वाष्प (Steam) जब साकार रूप ग्रहण करती है तो पहले तरल (जल) और फिर ठोस अर्थात् बर्फ (Ice) के रूप में परिवर्तित हो जाती है । समग्र रूप से देखा जाए तो वाष्प, जल और बर्फ में तात्त्विक रूप से कोई भिन्नता नहीं है परंतु नाम, रूप और आकार को लेकर तीनों में भिन्नता अवश्य दिखाई देती है । इसी प्रकार सृष्टि के सृजन में उसकी प्रत्येक अवस्था में सृजक (परमात्मा) का उपस्थित रहना माना गया है ।
परमात्मा सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, अर्थात् सृष्टि का प्रत्येक कण अपने आप में परमात्मा है । इस कण की इकाई है, परमाणु । परमाणु में भी तीन कण हैं - इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन । ज्यों ज्यों इनका घनीकरण (solidification) होता है पहले परमाणु (Atom) बनते हैं फिर अणु/कण (Molecule) । अणुओं से तत्व (Element) और फिर उनके घनीकरण से पदार्थ (Matter) और यौगिक (Compound) । स्थूल दृष्टि से हम केवल पदार्थ और यौगिक ही देख सकते हैं, जो विभिन्न आकार लिए शरीर और वस्तुओं के रूप में हमारे सामने प्रकट रूप में हैं । इसका अर्थ है कि अप्रकट (Invisible) से जो प्रकट (Visible) हुआ है, उसमें स्वयं अप्रकट ही प्रकट के रूप में है । इसीलिए सन्त कहते हैं कि साकार (Embodied) के अन्तर्गत निराकार (Formless) भी आ जाता है परंतु निराकार में साकार दिखलाई नहीं पड़ता क्योंकि निराकार (formless) स्वयं अप्रकट है ।
प्रायः लोग निराकार की उपासना को ही परमात्मा की वास्तविक उपासना मान लेते हैं जबकि सहज और सरल उपासना तो साकार की ही होती है । साकार की उपासना करते हुए निराकार तक अधिक सुगमता से पहुँचा जा सकता है । निराकार की उपासना में निराकार तक पहुँचना दुर्गम है क्योंकि ऐसी उपासना में व्यक्ति को अपना मन केंद्रित करने के लिए साकार जैसा कोई आधार नहीं मिलता । बुद्धिमान मनुष्य इस अन्तर को शीघ्र समझ जाता है, जिससे उसको सृष्टि के प्रत्येक कण में वह उस निराकार परमात्मा को साकार रूप में देख लेता है ।
बुद्धिमान मनुष्य परमात्मा को साकार रूप में कैसे देख लेता है ? भगवान इस बात को गीता के विभूति-योग नामक अध्याय में अर्जुन के समक्ष स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं -
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वम् प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता ।। गीता -10/8 ।।
मैं संसार मात्र का प्रभव ( मूल कारण) हूँ, मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है । ऐसा मानकर मुझमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान मेरा ही भजन करते हैं अर्थात् मेरा ही आश्रय लेते हैं ।
संसार के सृजक निःसंदेह परमात्मा है । इस प्रकार संसार परमात्मा का साकार रूप हुआ । संसार का साकार रूप पदार्थ के कारण है । संसार के प्रत्येक पदार्थ का निर्माण क्रियाओं से हुआ है और ये क्रियाएँ पदार्थ के बनने के बाद भी उसमें सतत चलती रहती है । इन क्रियाओं का कारण प्रकृति के तीन गुण हैं । भगवान कह रहे हैं कि मुझसे ही सारा संसार प्रवृत हो रहा है उसका अर्थ है कि पदार्थ में जो क्रियाएँ हो रही है, उन क्रियाओं से ही प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में विभिन्न प्रयास करता है । मूल में बात यह निकलकर आती है कि संसार का प्रभव होना और संसार का प्रवृत्त होना, दोनों ही परमात्मा के कारण सम्भव होते हैं ।
भगवान इसी श्लोक में आगे कह रहे हैं कि जो मनुष्य यह बात जान लेता है, वह मुझमें श्रद्धा रखते हुए मेरा ही भजन करते हैं अर्थात् मुझे ही मूल जानकार संसार में आसक्त नहीं होते बल्कि मुझसे ही प्रेम करते हैं । इस सत्य को समझना केवल बुद्धि के कारण ही संभव होता है । इसीलिए भगवान ने अर्जुन को बुद्धि का आश्रय लेने का कहा है ।
साकार में निराकार को देख पाना सहज नहीं है । जल में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को आप देख नहीं सकते परंतु जल को आप देख सकते हैं । जल साकार रूप है और उसका निराकार रूप हाइड्रोजन और ऑक्सीजन है । साकार (जल) में निराकार (H व O) आ जाता है परंतु निराकार (H व O) में साकार (जल) का अभाव है । इसका अनुभव होना ज्ञान की गुणवत्ता (quality) पर निर्भर करता है । ज्ञान दो प्रकार का होता है - सैद्धांतिक (Theory) और प्रायोगिक (Practical)। सैद्धांतिक ज्ञान ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है । वह आपको केवल प्रखर वक्ता/लेखक तो बना सकता है परन्तु अनुभव नहीं करा सकता । मनुष्य को केवल प्रायोगिक ज्ञान ही अनुभव प्रदान करता है ।
सैद्धांतिक ज्ञान (theoretical knowledge) और प्रायोगिक ज्ञान (practical knowledge) में बड़ा भारी अन्तर है । केवल सैद्धांतिक ज्ञान से सृष्टि में परमात्मा दिखलाई नहीं पड़ते, इसके लिए तो प्रायोगिक ज्ञान की आवश्यकता होती है । सैद्धांतिक ज्ञान, शास्त्रीय मोह का जनक है । शास्त्रीय ज्ञान से वाक्-पटुता आ जाती है, लोगों को प्रवचन और लेखन के माध्यम से बाँधने की क्षमता मिल जाती है परन्तु सृष्टि के प्रत्येक जीव, प्रत्येक स्थान और सृष्टि के प्रत्येक कण में परमात्मा को देखने की क्षमता प्राप्त नहीं होती । सैद्धांतिक ज्ञान के विपरीत प्रायोगिक ज्ञान अनुभव आधारित होता है और यह अनुभव ही आध्यात्मिक बुद्धि कहलाती है ।
हम सब जानते हैं कि जल हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन के एक परमाणु के मिलने से बनता है परंतु क्या इतना ज्ञान होने से मनुष्य की प्यास बुझ सकती है ? नहीं बुझ सकती, क्योंकि प्यास जल के सूत्र को रटते रहने से नहीं बुझती, जल पीने से बुझती है । आज प्रत्येक पिपासु (thirsty) और जिज्ञासु (curious) को सभी ज्ञानीज़न केवल जल का सूत्र ही समझा रहे है, जल उपलब्ध नहीं करा रहे हैं । फिर यह प्यास बिना जल मिले केवल जल के ज्ञान से कैसे बुझे ? इसलिए आवश्यकता है कि सैद्धांतिक ज्ञान को प्रायोगिक ज्ञान में परिवर्तित कर दोनों के मध्य के अन्तर को समझते हुए स्व-विवेक को जाग्रत किया जाये । ज्ञान जल के सूत्र को समझाता है परन्तु विवेक केवल जल के सूत्र को ही नहीं समझाता बल्कि वह जल भी उपलब्ध करवाता है । यह विवेक ही वह आध्यात्मिक बुद्धि है, जो साकार में छिपे निराकार को भी देख लेती है ।
मथुरा नरेश कंस के पास सांसारिक बुद्धि है, जबकि वसुदेवजी के पास आध्यात्मिक बुद्धि । कंस श्रीकृष्ण को ग्वाला समझ रहा था जबकि वसुदेवजी जानते थे कि वे साक्षात् परमात्मा हैं । परमात्मा के श्रीकृष्ण रूप में अवतरित होते ही आध्यात्मिक बुद्धि रखने वाले वसुदेवजी उन्हें पहचान जाते हैं । वे कहते हैं -
विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृते: पर: ।
केवलानुभवानन्दस्वरूप: सर्वबुद्धिदृक् ।। भागवत- 10/3/13 ।।
वसुदेवजी कह रहे हैं कि मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं ।
अपरा प्रकृति का मुख्य गुण उसकी परिवर्तनशीलता है । बुद्धि अपरा प्रकृति के अन्तर्गत है, इसलिए वह भी परिवर्तनशील है । वह मन को अपने अधीन रखते-रखते कभी भी मन के अधीन हो सकती है । इसके सम्बन्ध में स्वामीजी स्वयं के अनुभव के आधार पर कहते हैं कि केवल अपनी बुद्धि से ही शास्त्र पढ़कर स्वयं को ज्ञानी मत समझ बैठना । इसके लिए शास्त्रों के साथ-साथ संतों का सान्निध्य लेना भी आवश्यक है । वसुदेवजी ने शास्त्र और सत्संग के माध्यम से ज्ञान लिया था । इसलिए उनकी बुद्धि आध्यात्मिक रूप से विकसित थी अर्थात् उनका विवेक (Discrimination) अपने चरम (Peak) पर था तभी तो वे कारागृह (Jail) के दुःखों से तनिक भी प्रभावित नहीं हुए । ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति (Adverse situation) में भी श्रीकृष्ण उन्हें अपने सांसारिक पुत्र (Biological son) दिखलाई नहीं पड़े । वसुदेवजी के स्थान पर कोई सांसारिक बुद्धि वाला होता तो वह सब कुछ जानते हुए भी उसी समय पुत्र-मोह में फँस जाता । उसके लिए देवकी-वसुदेवजी के विवाह के समय हुई आकाशवाणी भी कोई मायने नहीं रखती ।
वसुदेवजी को इस बात से कोई समस्या नहीं हुई कि एक अबोध शिशु, जिसने अभी-अभी जन्म लिया है, उसे कंस के हाथों मरने से कैसे बचाया जाय ? जो परमात्मा पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हुए उनके प्रति पूर्ण समर्पित होता है, उसकी प्रत्येक समस्या का समाधान (Solution) प्रकृति के माध्यम से परमात्मा स्वयं करते हैं । आवश्यकता है, उनके प्रति पूर्ण समर्पण (Surrender) की । हम श्रद्धा के साथ अश्रद्धा और विश्वास के साथ अविश्वास का मिश्रण रखते हैं, तभी हम समस्या में उलझ जाते हैं ।
कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान ।
घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।।
प्रत्येक समस्या का समाधान तो केवल परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण में ही निहित है ।
पुनः चलते हैं, भागवतजी के उस श्लोक (10/3/13) की ओर जिसमें वसुदेवजी कह रहे हैं कि मैं समझ गया, आप प्रकृति से अतीत (Far from nature) साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं, द्रष्टा हैं । परमात्मा का न तो आदि (beginning) है और न ही अन्त (End)। प्रकृति उनमें है परंतु वे प्रकृति/प्रकृति में नहीं है । इसीलिए उन्हें प्रकृति से अतीत कहा जाता है । वे स्वयं ही प्रकृति बने हैं परंतु प्रकृति बनकर उसमें लिप्त (indulge) नहीं हुए । प्रकृति के तीनों गुण (सत्व, रज और तम) भी उन्हीं के कारण होते हुए भी वे उनसे परे हैं, वे गुणातीत है । प्रकृति के गुण हमें बाँध सकते हैं क्योंकि हमने प्रकृति का संग (Attach) कर लिया है । परमात्मा ने प्रकृति में गुण डाले अवश्य हैं परन्तु उन्होंने प्रकृति के गुणों का संग नहीं किया, इसलिए वे मुक्त हैं । हम भी इन गुणों के संग का त्याग कर गुणातीत अवस्था को उपलब्ध हो सकते हैं, इसमें कोई दो मत नहीं है । गुणातीत होकर हम भी साक्षात् पुरुषोत्तम हो सकते हैं ।
पुरुषोत्तम कैसे हैं, उनका स्वरूप कैसा है, वे कैसे पहचान में आते हैं ? भागवतजी के इस श्लोक का उत्तरार्ध (10/3/13) इस बात को स्पष्ट करता है । वसुदेवजी कह रहे कि आपका स्वरूप केवल (शुद्ध) अनुभव से समझ में आता है और आप शुद्ध आनन्द स्वरूप (Pleasureful) हैं । अगर हम जल को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के रूप में देखेंगे तो न तो हमें जल का अनुभव होगा और न ही जल के आनन्द स्वरूप को देख पाएँगे । हाइड्रोजन और ऑक्सीजन, दोनों का एक साथ अनुभव और आनन्द लेना है तो जल का सेवन कर के ही लिया जा सकता है । संसार ही परमात्मा का साकार सगुण रूप है, इसका सही रूप से सेवन करने से ही परमात्मा का अनुभव होता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि परमात्मा का केवल अनुभव ही हो सकता है । वे सुख-दुःख से अतीत केवल आनन्द स्वरूप हैं, उन्हें केवल अनुभव ही किया जा सकता है । उनका अनुभव ही मनुष्य को आनन्दित कर देता है । उनके स्वरूप का वर्णन (Describe) नहीं किया जा सकता । वे अवर्णननीय (Indescribable) हैं ।
श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
अत्र मां मार्गयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम् ।
गृह्यमाणैर्गुणैर्लिंगैरग्राह्यमनुमानतः ।। भागवत - 11/7/23।।
इस मनुष्य शरीर में एकाग्रचित्त तीक्ष्ण बुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किए जाने वाले हेतुओं (कारण) से जिनसे कि अनुमान होता है, अनुमान से अग्राह्य अर्थात् अहंकार आदि विषयों से भिन्न मुझ सर्वप्रवर्त्तक ईश्वर को साक्षात् अनुभव करते हैं ।
बुद्धि से पहले अनुमान और फिर परमात्मा का जो अनुसंधान होता है, वह दो प्रकार से हो सकता है -
1.किसी एक प्रकाश तत्व के बिना बुद्धि प्रकाशित नहीं हो सकती अर्थात् बुद्धि को प्रकाशित कोई अन्य प्रकाश स्रोत ही करता है । यह अनुमान है । कहने का अर्थ है कि बुद्धि स्वयं के स्तर पर कुछ निर्णय नहीं कर सकती, निर्णय लेने की क्षमता बुद्धि से भी अतीत है ।
2.जैसे कोई औज़ार (instrument) कर्ता के द्वारा ही उपयोगी हो सकता है । इसी प्रकार बुद्धि आदि औज़ार भी किसी कर्ता (doer) के माध्यम से उपयोगी हो रहे हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि आत्मा केवल अनुमानिक है बल्कि यह तो देह आदि से विलक्षण है । यह अनुसन्धान हुआ ।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि बुद्धि का जो भी कार्य है, उसमें महत्वपूर्ण भूमिका उस द्रष्टा, उस साक्षी, उस ज्ञानी की है । उस ज्ञानी के कारण ही बुद्धि कुछ अनुभव कर सकती है । कोई भी औज़ार कितनी ही तीक्ष्ण धार रखता हो, उससे कोई वस्तु तभी काटी जा सकती है, जब उसका उपयोग करने वाला कोई हो । प्रत्येक औज़ार, कर्ता के अभाव में कार्य संपन्न करने में असहाय होता है, उसी प्रकार बुद्धि भी अपने साक्षी की अनुपस्थिति में कुछ भी नहीं कर सकती ।
परमात्मा के अनुभव को गूँगे का गुड़ भी कहा जाता है । “गूँगा केरि सर्करा खाय और मुसकाय”, जैसे गूँगा व्यक्ति गुड़ खाकर उसका स्वाद नहीं बता सकता, केवल मुस्कुरा देता है वैसे ही परमात्मा का अनुभव कर केवल आनन्दित ही हुआ जा सकता है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ।
वसुदेवजी कहते हैं कि आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं । बुद्धि अपरा प्रकृति के अन्तर्गत है । अपरा का एक तत्व होने के बाद भी केवल बुद्धि ही एक मात्र ऐसा तत्व है, जिससे हम अपरा, परा और परम, तीनों का अनुभव एक साथ कर सकते हैं । परमात्मा समस्त बुद्धियों के साक्षी है, इसका अर्थ है कि बुद्धि के माध्यम से ही परमात्मा तक पहुँच बनाई जा सकती है । जिस प्रकार आँख सब कुछ देख सकती है किंतु स्वयं को नहीं देख सकती, स्वयं आँख को देखने के लिए कोई दूसरी आँख ही चाहिए । इसी प्रकार स्वयं के स्वरूप को देखने के लिए एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति में स्वयं को आरोपित (Replant) करना होता है अर्थात् सामने वाले व्यक्ति में स्वयं को देखना होता है । इस प्रकार देखने से समस्त भेद (Differences) मिट जाते हैं । सारांश है कि जब मैं और तू का भेद मिट जाता है, तभी हमें ऐसी अभिन्नता (Integrality) का अनुभव होता है ।
सांसारिक बुद्धि हो अथवा आध्यात्मिक बुद्धि, परमात्मा दोनों ही बुद्धियों के साक्षी हैं । कोई भी भेद, बुद्धि में अवश्य हो सकता है परंतु द्रष्टा (The Seer) की दृष्टि (Vision) में कोई भेद नहीं होता । सांसारिक बुद्धि से जो भिन्नता (Separation) नज़र आती है वह भिन्नता बुद्धि के आध्यात्मिक (Spiritual) होते ही समाप्त हो जाती है । मुख्य बात यह है कि आध्यात्मिक बुद्धि अपरा, परा और परम को भिन्न-भिन्न न देखकर सर्वत्र एक परमात्मा को ही देखती है ।
शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ है, उनसे सूक्ष्म मन है और मन से सूक्ष्म बुद्धि है । इंद्रियों पर मन का नियंत्रण होता है और मन पर बुद्धि का । बुद्धि के जो साक्षी हैं, केवल उनकी कृपा से ही बुद्धि द्वारा सब कुछ जानना संभव होता है । बुद्धि, ज्ञान के प्रभाव से मन पर भी नियंत्रण स्थापित कर सकती है और अपने से सूक्ष्म परम का भी अनुभव कर सकती है । बुद्धि ही अपरा प्रकृति का एक मात्र ऐसा तत्व है, जो हमें परमात्मा तक ले जा सकता है । बुद्धि में ज्ञान का उपजना आवश्यक है अन्यथा अज्ञान के कारण व्यक्ति भ्रमित भी हो सकता है । केवल ज्ञान से ही उस अज्ञानज़नित भ्रम का निवारण हो सकता है ।
इसी बात को ब्रह्माजी स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
आत्मानमेवात्मतयाविजानतां
तेनैव जातं निखिलं प्रपंचितम् ।
ज्ञानेन भूयोऽपि च तत् प्रलीयते
रज्ज्वामहेर्भोगभवाभवौ यथा ।। भागवत-10/14/25 ।।
जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही नाम, रूप, आकार आदि समस्त प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है । किंतु ज्ञान होते ही इसका आत्यंतिक प्रलय हो जाता है जैसे रस्सी में भ्रम के कारण ही साँप की प्रतीति होती है और भ्रम से निवृत्त होते ही उसकी निवृत्ति हो जाती है ।
बुद्धि की भूमिका इस शरीर में सबसे महत्वपूर्ण है । दुःख की बात है कि व्यक्ति केवल मन के मत को ही मानता है और बुद्धि की उपेक्षा करता है । बुद्धि केवल अपने साक्षी के अधीन होती है और जब मनुष्य उस बुद्धि के माध्यम से होने वाले अनुभव का उपयोग करता है, तब सारा संसार स्वप्न मात्र बनकर रह जाता है ।
परमात्मा सभी बुद्धियों के साक्षी है, यह बात सत्य है । बुद्धि प्रत्येक प्राणी के पास होती है लेकिन विकसित बुद्धि का मालिक तो केवल मनुष्य ही है । सभी मनुष्यों की बुद्धि प्रायः विकसित अवस्था में ही होती है फिर भी बुद्धि से होने वाला अनुभव भिन्न भिन्न क्यों होता है ? जब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल जाता तब तक बुद्धि को समझना बड़ा मुश्किल है । बुद्धि का कार्य है, जानना । जानना उस अज्ञात को, जो उपस्थित तो है परंतु हमारे अज्ञान के कारण हम उसे देख नहीं पाते । अज्ञात तभी तक अज्ञात है, जब तक हमारी दृष्टि उस तक पहुँचती नहीं है । किसी स्त्री के गले में पड़ा हार तभी तक विस्मृत होकर खोया हुआ रहता है, जब तक उसके गले में होने का उसे अनुभव नहीं हो जाता । हार तो गले में प्रारंभ से ही पड़ा है परन्तु किसी दिन उसकी विस्मृति हो जाती है, तब उसे स्नानागार से लेकर अटारी तक ढूँढना पड़ता है, (स्वयं से बाहर) यह जानते हुए भी कि रात तक हार गले में ही था । इसे ही अज्ञान कहा जाता है ।
जिस दिन गले में पड़े हार की स्मृति को कोई व्यक्ति आकर जगा देगा, तत्काल ही हार के खोने का भ्रम दूर हो जाएगा । यह स्मृति किसी पहुँचे हुए व्यक्ति के द्वारा ही जाग्रत होना संभव है जो स्वयं भी अज्ञान के अंधकार से निकलकर ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो चुका हो । इसी योग्यता से युक्त व्यक्ति को गुरु कहा जाता है । ऐसा गुरु भी बुद्धि के साक्षी परमात्मा की कृपा से ही मिलता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि बुद्धि से अनुभव होना पूर्ण रूप से उस साक्षी पर ही निर्भर है, जिसे परमात्मा नाम से कहा जाता है । बुद्धि का कार्य “जानना” है और “जनाना” कार्य है साक्षी का । तभी तो श्री रामचरित मानस में वाल्मीकि जी परमात्मा श्री राम को कह रहे हैं -
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।। मानस -2/127/3 ।।
हे राम ! आपको वही जान सकता है, जिसको आप जनाना चाहते हैं । आपको जानते ही वह भी “आप” (राम) ही हो जाता है ।
सार बात यह है कि बुद्धि के कारण “जानना” होता अवश्य है परंतु ऐसा जानना भी बिना परमात्म- कृपा के संभव नहीं है ।
सार-संक्षेप -
मानव जीवन परमात्मा का आशीर्वाद है । इस जीवन का सदुपयोग एक मात्र यही है कि हम संसृति को छोड़ अपने मूल स्वरूप तक पहुँचे । मूल स्वरूप तक पहुँचने के लिए बुद्धि में उपजने वाले ज्ञान, विवेक का समुचित उपयोग करना आवश्यक है । परमात्मा सभी बुद्धियों के साक्षी हैं । उस साक्षी की कृपा से ही हमें इस सृष्टि का सर्वोत्तम शरीर मिला है । उसकी कृपा से ही सभी प्राणियों से अधिक विकसित बुद्धि हमें उपहार स्वरूप मिली है । इस भगवद्कृपा का हमें मनुष्य जीवन में लाभ उठाना चाहिए और अपनी बुद्धि से उसकी कृपा का अनुभव लेना चाहिए ।
परमात्मा की कृपा का अनुभव सत्संग के माध्यम से सुगम हो जाता है । जीवन में सत्संग की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है । शास्त्र हमें सैद्धांतिक ज्ञान उपलब्ध करवा सकते हैं परंतु ऐसा ज्ञान प्रायः अहंकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता । संतों का संग शास्त्रीय ज्ञान को अनुभवजन्य बनाता है, जिससे मूल स्वरूप तक पहुँचना सुगम हो जाता है ।
परमात्मा की कृपा का अनुभव होने पर परमात्मा के अस्तित्व पर किसी प्रकार का संशय शेष नहीं रह जाता । उसके अस्तित्व को स्वीकार कर उसकी शरण ले लेना ही मानव जीवन का उद्देश्य है । ज्ञान आपको संसार से मुक्त कर सकता है परंतु परमात्मा तक पहुँचना ज्ञान के अनुभव से ही हो सकता है । बुद्धि के साक्षी स्वयं परमात्मा है, बुद्धि को जो भी अनुभव होता है, उसमें उनकी भूमिका ही मुख्य है । बुद्धि से ही उसका अनुभव हो सकता है और अनुभव करने वाला साक्षी भी वही है ।
आप सभी जो भी अनुभव कर रहे हैं उन सबके पीछे केवल एक परमात्मा ही है । इस शरीर का संचालन करने वाली शक्ति (जिसकी अनुपस्थिति में यह शरीर मात्र शव बनकर रह जाता है) जीवात्मा है । वही साक्षी है और वही बुद्धि के माध्यम से अनुभव करता है । जीवात्मा ही परमात्मा है । संसार को परमात्मस्वरूप देखना भी बुद्धि का अनुभव है । हमारी बुद्धि तो सर्वत्र परमात्मा का अनुभव करने का केवल एक माध्यम है, जिसका इसी रूप में सदुपयोग करना हमारे हाथ में है । सभी बुद्धियों के साक्षी केवल परमात्मा ही हैं । इसीलिए वसुदेवजी शिशु कृष्ण की स्तुति में उन्हें कहते हैं - ‘ सर्वबुद्धिदृक्’ अर्थात् सभी बुद्धियों के साक्षी ।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
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