न तेषु रमते बुध:
प्रश्न है कि क्या बुद्धि का आश्रय लेकर ही व्यक्ति संसार के सुख-दुःख से मुक्ति पा लेता है ? हाँ, भगवान का यह कथन उचित है । इसके साथ एक बात हमें सदैव स्मृति में बनाए रखनी होगी कि बुद्धि भी परमात्मा की अपरा प्रकृति है । अपरा प्रकृति नाशवान तो है ही, साथ ही उसमें स्थिरता का अभाव भी होता है । संसार में बिखरे पड़े अनेक विषयों का आकर्षण मन के साथ-साथ बुद्धि का भी हरण कर लेती है । बुद्धि के हरण से तात्पर्य है, मन का बुद्धि पर प्रभावी हो जाना । चंचल मन के कारण ही मनुष्य संसार के साथ बंधता है । मन को नियंत्रण में रखने के लिए व्यक्ति का स्थितप्रज्ञ होना आवश्यक है ।
बिल्ली को देखकर कबूतर के आँखें बंद कर लेने से बिल्ली दूर नहीं चली जाती । विषयों के भोग को अनुचित मानकर इंद्रियों को बलात् रोक लेने से विषयों का भोग समाप्त नहीं होता । संसार का प्रत्येक विषय (material) रस (enjoyment) से ओतप्रोत है और वह रस मनुष्य को बिना विषयों के उपलब्ध हुए भी मिल सकता है । मनुष्य मन ही मन उन विषय भोगों की कल्पना कर उसका रस ले सकता है, जिस रस को उसने पूर्व में कभी अनुभव किया है । इस प्रकार मन ही मन उस विषय-रस को भोगने को उस रस में रमण (enjoying) करना कहते हैं । मन ही मन किसी विषय में रमण करने से उस रस की अनुभूति उससे कहीं बेहतर और अंतहीन होती है, जैसी उस विषय-रस को प्रत्यक्ष भोगने से होती है । इसलिए कहा जाता है कि विषय को मन ही मन भोगना, उसे प्रत्यक्ष भोग लेने से भी निकृष्ट है ।
जिसकी बुद्धि स्थिर है, केवल एक ही लक्ष्य की ओर रहती है, ऐसी बुद्धि वाला मनुष्य किसी भी प्रकार के विषय-रस में रमण नहीं करता । स्थितप्रज्ञ की बुद्धि का हरण कोई भी विषय-रस नहीं कर सकता क्योंकि वह उसमें रमता नहीं है । बुद्धि की इतनी महत्त्वता कैसे है ? विस्तार से इस विषय पर चिन्तन प्रारम्भ करते हैं ।
आदिमानव के जीवन की तुलना कभी विकसित मनुष्य के जीवन से करके देखिए, आपको कई आश्चर्य देखने को मिलेंगे । आदिकाल में उसके पास सुखी दुःखी होने के लिए कुछ भी साधन नहीं थे । हाँ, आज से तुलना करें तो अनुभव होगा कि उस समय का जीवन बड़ा कठिन था, जो उसे दुःख का अनुभव करा सकता था, फिर भी वह उतना दुःखी नहीं था, जितना आज है । उस कठिन जीवन को सुगम बनाने में मनुष्य की विकसित हो रही बुद्धि ने बहुत सहयोग किया । एक जीव जो अन्य जीवों से तनिक सा भी भिन्न नहीं था, उसने अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए स्वयं को उन सबसे भिन्न अवश्य बना लिया है । भिन्नता किस स्तर पर ? यह जानना हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होगा ।
प्रत्येक जीव के जीवन में आहार (food), निद्रा (sleep), भय (fear) और मैथुन (sex) अपना विशेष स्थान रखते हैं । इनसे हट कर जीवन में कुछ भिन्न करना, केवल मनुष्य के लिए ही संभव है । जीव को सदैव अपने जीवन को बचाए रखने का भय रहता है क्योंकि मरना कोई भी नहीं चाहता । जीवन को बचाने के लिए आहार आवश्यक है । आहार के लिए आदिमानव के पास क्या था ? वही, जो अन्य जीवों के पास था - अपने से कमजोर जीव । इसीलिए भागवत में कहा गया है - “जीवो जीवस्य जीवनम्” । जीवन को बचाए रखने के लिए दूसरा आवश्यक तत्व है, निद्रा । दिन भर आहार की खोज के लिए की जाने वाली भागदौड़ शरीर को क्षतिग्रस्त कर देती है । शरीर को हुई इस क्षति को पुनः सही करने के लिए निद्रा की आवश्यकता पड़ती है । बार बार पहनने पर जिस प्रकार कपड़ा धीरे धीरे फटने लगता है और हमें उसे सुधारना पड़ता है उसी प्रकार प्रतिदिन शरीर में होने वाली क्षति को भी ठीक करना पड़ता है । कपड़े को पहनोगे तो फटेगा (wear and tear) ही और फटने पर उसकी मरम्मत (repair) करनी ही पड़ती है । ऐसी ही दशा हमारे शरीर की होती है । हमने शरीर को कपड़े की भाँति ही तो पहना है । उसे भी मरम्मत की आवश्यकता पड़ती है और इस मरम्मत के लिए विश्राम अर्थात् निद्रा आवश्यक है । निद्रावस्था में शरीर की सभी भौतिक क्रियाएँ (activities) या तो रुक जाती है अथवा मंद पड़ जाती है । ऐसी अवस्था में शरीर में उपस्थित तत्व क्षतिग्रस्त अवयवों को सुधारकर पुनः पूर्ववत् स्थिति प्रदान कर देते हैं ।
भय और आहार के पश्चात् शरीर के लिए आवश्यक तीसरा तत्व, जो जीवन को बचाए रखने में उपयोगी माना जाता है, वह है - मैथुन । प्रकृति प्रत्येक जीव की प्रजाति (species) को बनाए रखने का यथा संभव प्रयास करती है । प्रत्येक जीव के शरीर की एक आयु होती है । ‘शरीर को समाप्त होने से कोई युक्ति नहीं रोक सकती’, यह जानते हुए भी प्रत्येक जीव मृत्यु के नाम से ही भयभीत हो जाता है । “शरीर का जाना अवश्यंभावी है” (death is inevitable), यह जानकर ही मनुष्य संतानोत्पत्ति करता है, जोकि केवल मैथुन से ही होना संभव है । ऐतरेयोपनिषद् कहती है कि प्रत्येक पिता, अपने ही स्वरूप में पुत्र के रूप में जन्म लेता है । इस प्रकार जीव संतान पैदा कर अपने जीवन को एक प्रकार से सुरक्षित (safe) कर लेना मान लेता है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जीव अपने जीवन में भय से मुक्त होने के लिए ही सभी कार्य करता है । आदिम युग में मनुष्य भी किसी अन्य जीव से भिन्न नहीं था । उसमें और अन्य जीवों में भिन्नता आना तब प्रारम्भ हुआ, जब उसने भययुक्त होने के लिए प्रकृति के संसाधनों (resources) का उपयोग करना प्रारंभ किया । इसके लिए उसकी बुद्धि (intelligence) के विकास की भूमिका महत्वपूर्ण रही । आदिमानव की विकसित हो रही बुद्धि ने प्रकृति के माध्यम से ही प्रतिकूल परिस्थितियों पर विजय पायी और कठिन जीवन को सुगम तरीक़े से जीने का प्रयास किया । आइये ! आदिमानव की इस विकास यात्रा पर एक दृष्टि डालते हुए इस लेख में आगे बढ़ते हैं ।
भय, प्रत्येक जीव के जीवन का एक अंग बन गया है । भय, शरीर की सुरक्षा का । सुरक्षा के लिए प्रकृति ने जीव को विभिन्न अंग दिए हैं , जैसे साँप में ज़हर, हिरण को तेज दौड़ने के लिए लंबी-पतली टांगे, बंदर को तीखे नाखून और पैने दाँत आदि । पहले मनुष्य के पास भी ऐसे सब साधन थे, फिर भी वह उनसे संतुष्ट नहीं था । भय से मुक्ति पाने के लिए उसने सबसे पहले पत्थर के हथियार बनाए । उनको फेंककर वह अपनी रक्षा करने के साथ साथ आहार के लिए शिकार भी कर लिया करता था । इस प्रकार वह अन्य जीवों से धीरे-धीरे भिन्न होने लगा ।
हथियार बनाकर उससे अपने लिए आहार जुटाना और अपने जीवन की रक्षा कर लेना, उसकी बुद्धिमत्ता का प्रथम उदाहरण था । इस अवस्था के बाद उसे प्रथम बार संयोगजन्य सुख का अनुभव हुआ । शिकार को पत्थर से तोड़ते हुए संयोगवश एक चिंगारी निकली, जिससे आस-पास पड़ी सूखी घास ने आग पकड़ ली । इसे आग का आविष्कार माना गया । शिकार को पत्थर से तोड़ते समय मांस का एक टुकड़ा उस जल रही आग में गिर पड़ा । उसने उस टुकड़े को निकालकर खाया । खाते ही उसे वह बड़ा स्वादिष्ट लगा । इससे पूर्व भी उसने कई बार मांस खाया था, परंतु आज इस भूने हुए टुकड़े के स्वाद ने तो उसका मन ही मोह लिया । इस प्रकार मनुष्य ने अपने जीवन में प्रथम बार संयोगजन्य सुख का अनुभव किया । अग्नि और हथियार (fire and arms), दोनों ने ही उसके जीवन की रक्षा करने में सहयोग किया, जिससे उसका भय कुछ सीमा तक कम हुआ ।
मनुष्य के विकास को देखें तो समझा जा सकता है कि उसने अपने कठिन समय को कैसे मात दी है ? सर पर बोझा ढोने वाले पशुवत् मनुष्य ने एक लुढ़कते पत्थर को गतिमान देखकर पहिए (wheel) का निर्माण कर लिया था । यह आदि मानव की हथियार और अग्नि के बाद तीसरी महत्वपूर्ण खोज थी । तीनों ही आविष्कार ऐसे थे, जिनसे मनुष्य भयमुक्त होने की दिशा में आगे बढ़ रहा था और सुख का अनुभव कर रहा था । भय से मुक्त तभी हुआ जा सकता है, जब उसको मिलने वाले शारीरिक सुख में निरन्तरता (continuity) बनी रहे । सुख निरन्तर नहीं मिल सकता, इस बात को मनुष्य आज तक नहीं समझ सका है । अपरा विनाशशील है, उसका एक दिन अन्त होना निश्चित है । जिसका आदि है, उसका अन्त भी एक दिन होना है, तब भला सुख भी स्थाई कैसे रह सकता है ?
आज पहिए के बिना मनुष्य के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । एक पहिए रूपी चक्र से उसके जीवन में जो परिवर्तन आया, उस परिवर्तन से मनुष्य सांसारिक चक्र में उलझ कर रह गया है । वह संसार चक्र में इतना अधिक उलझ गया है कि आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो पा रहा है ।
मनुष्य की विकास यात्रा को देखें तो अनुभव होता है कि जितने भी साधन उसने भय से मुक्त होने के लिए विकसित किए हैं, सब संयोगवश (coincidence) ही हुए हैं । ऐसा संयोग लगभग सभी जीवों के साथ होता आया है और भविष्य में भी होता रहेगा । परन्तु मनुष्य नाम के जीव ने इन संयोगों का अपनी बुद्धि के स्तर पर विश्लेषण किया और वह एक से बढ़कर एक नए आविष्कार करता गया । आज भी मनुष्य नए-नए आविष्कार कर अपनी कल्पना की उड़ान को वास्तविकता में परिवर्तित कर रहा है ।इन संयोगवश हुए आविष्कारों ने मनुष्य के जीवन को कितना सुखी किया, यह विवाद का विषय हो सकता है । मनुष्य ने जितने सुख के साधन खोजें है, सभी ने उसको सुख से अधिक दुःख पहुँचाया है, यह निश्चित मत है । साथ ही यह भी निश्चित है कि कोई भी साधन किसी को सुखी-दुःखी नहीं करता । सुख के इतने साधन होते हुए भी मनुष्य सुखी होने के स्थान पर दुःखी क्यों है ? आज मनुष्य-जीवन का मूल प्रश्न यही है ।
एक पहिए के निर्माण ने ऐसा क्या कर दिया कि मनुष्य इस संसार में उलझ कर रह गया है । पहिए ने मनुष्य को उसके जीवनकाल में अतिशय सुख का अनुभव कराया । यह केवल आवागमन में ही सहायक नहीं बना बल्कि आज यह प्रत्येक मशीन का एक आवश्यक अंग भी हो गया है । आदि मानव सहस्रों वर्षों से जीवन में सुख क्या है, नहीं जानता था । पहले पत्थर के औजारों ने उसका शिकार करना सुगम बनाया, फिर अग्नि ने उसे प्रथम बार रस का भोग कराया और अब उसके जीवन का सारा बोझ एक पहिए ने उठा लिया । इस प्रकार वह शरीर के समस्त बोझों से भी मुक्त हो गया । वह भौतिक बोझ से तो मुक्त हो गया परंतु पहिए से मिले सुख के साथ मानसिक रूप से बंध गया । पहिए का गोल चक्र अब उसे इसी संसार में गोल-गोल घुमाते हुए दुःखी कर रहा है और आवागमन के चक्र से मुक्त भी नहीं होने दे रहा ।
डार्विन का विकासवाद मनुष्य के आकार, चाल-ढाल, जीवनशैली आदि के विकसित होने को ही स्पष्ट करता है, उससे आगे नहीं ।“बन्दर (rhesus monkey) की पूँछ हट जाने से मनुष्य बना है”, ऐसा डार्विन का विकासवाद (theory of evolution) कहता है । प्रश्न उठता है कि फिर आज भी पूँछ वाले बंदरों का अस्तित्व क्यों बना हुआ है ? उन सभी पूँछधारी बंदरों को तो अब तक मनुष्य बन जाना चाहिए था । डार्विन की बात मानें, तो अब तक सभी बन्दर मनुष्य के रूप में विकसित हो जाने चाहिए थे, लेकिन नहीं हुए । बन्दर अभी भी बंदर ही हैं । इसका अर्थ कहीं यह तो नहीं कि डार्विन का विकासवाद अपूर्ण है, एक ढकोसला है, सत्य से कोसों दूर है ।
सनातन धर्म भी विकासवाद की बात करता है । सनातन धर्म-शास्त्र चौरासी लाख जीव योनियों की बात करता है । सनातन शास्त्रों के अनुसार अगर मनुष्य जीवन में अपने बनाए संसार से मुक्त नहीं हो पाता तो उसे चौरासी लाख योनियों की यात्रा करनी पड़ती है, तब जाकर कहीं उसे फिर से मनुष्य जीवन मिलता है । ये चौरासी लाख योनियाँ ही उन प्राणियों की विभिन्न प्रजातियां है, जिनकी बात आधुनिक विज्ञान करता है । कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो मनुष्य अपने जीवनकाल में बुद्धि-विवेक का सदुपयोग नहीं कर पाता, उसे वे योनियां उपलब्ध होती है जो बुद्धि में मनुष्य की तुलना में कमतर हैं ।
सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार जीवों के विकास का क्रम केवल एक प्रजाति से ही प्रारंभ नहीं हुआ है बल्कि समय और परिस्थिति अनुसार एक-एक कर कई प्रजातियां उत्पन्न होती गई, जो आज चौरासी लाख की संख्या तक पहुँच गई है । इसकी आधी संख्या में जीव की प्रजातियाँ तो विज्ञान अभी तक खोज ही नहीं पाया है । इस प्रकार डार्विन के विकासवाद की तुलना में सनातन शास्त्रों का आकलन कहीं अधिक सटीक प्रतीत होता है ।
आदिमानव से प्रारम्भ हुई मनुष्य की यह यात्रा आज विकसित मानव के रूप में हमारे सामने है । इस दीर्घावधि में न केवल मनुष्य का आकार, चाल-ढाल आदि ही बदली है बल्कि उसकी सम्पूर्ण जीवनशैली (life style) ही परिवर्तित हो गई है । जंगल में नंगधड़ंग घूमने वाला आदिमानव आज सभ्य (cultured) तरीक़े से कपड़ों के आवरण में लिपटा हुआ वातानुकूलित स्थान पर निवास करने लगा है ।
आज मनुष्य अपने शारीरिक सुख के लिए नए-नए संसाधन जुटा रहा है । सब कुछ उसे एक प्रकार का छद्म सुख (pseudo pleasure) प्रदान कर रहा है । छद्म सुख इसलिए कहता हूँ क्योंकि इससे कहीं अधिक सुखी तो आदिमानव संसाधन विहीन होकर भी था । क्या इसका अर्थ यह लिया जाय कि नए-नए आविष्कार कर जो संसाधन सुख लेने के लिए खोजे गए हैं, वे ही मनुष्य को दुःखी कर रहे हैं ? एक सीमा तक यह बात सत्य भी है । जितना अधिक हम सुख प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, वह प्रयास हमें एक न एक दिन उतने ही अधिक दुःख का अनुभव अवश्य ही कराता है । ‘जीवन की भागदौड़ से सुख नहीं मिलने वाला’, इस बात को हम समझ ही नहीं पा रहे हैं । जो सुख विश्राम में मिलता है, परिश्रम से उस सुख को प्राप्त नहीं किया जा सकता । आदिमानव ने जिस दिन विश्राम से निवृत्ति ली और परिश्रम करने लगा, सुख मिलने के बाद भी वह और अधिक दुःखी होता चला गया । आधुनिक मानव के पास आदिमानव से अधिक संसाधन होते हुए भी वह सुख भोगने के स्थान पर अधिक दुःख का अनुभव कर रहा है । विकास के नाम पर आज मनुष्य कहाँ से कहाँ पहुँच गया है ? यह सब कैसे हो गया ?
हाँ, सुख-दुःख को एक किनारे पर रख दें तो एक बात मनुष्य के जीवन में अवश्य ही बड़ी महत्वपूर्ण हुई है । उसकी बुद्धि का विकास होते-होते उसका ज्ञान अपने सर्वोच्च स्तर विवेक (discretion) तक पहुँच गया है । अब वह आदिमानव की तरह विवेकहीन नहीं रहा है । अपने विवेक का वह किस प्रकार उपयोग कर रहा है, यह प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति (स्वभाव) पर निर्भर करता है । विवेकशील (wise) मनुष्य विवेक का सदुपयोग करते हुए अपने जीवन को सुख-दुःख से परे ले जाते हुए आनन्दमय बना लेता है । इसका अर्थ है कि मनुष्य की विकसित बुद्धि ने ही उसे अन्य जीवों पर वरीयता (priority) प्रदान की है ।
सनातन धर्म-शास्त्र कहते हैं कि जीव के आकार, रूप-रंग आदि में परिवर्तन होना ही उसके विकसित होते जाने का प्रमाण नहीं है । बन्दर से मनुष्य नहीं बना है बल्कि बन्दर जितनी बुद्धि रखने वाले मनुष्य की बुद्धि का विकास हुआ है । आज भी मनुष्य की बुद्धि का निरंतर विकास हो रहा है, यही वास्तविक विकासवाद है । जिस दिन मनुष्य की बुद्धि का विकास अपने चरम (peak) पर पहुंच जाएगा और साथ ही उसका सदुपयोग करना भी सीख जाएगा तब उसमें और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाएगा । जिस मनुष्य की बुद्धि अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच चुकी है, निस्संदेह वह परमात्मा की अवस्था को उपलब्ध हो चुका है ।
बुद्धि तो प्रत्येक मनुष्य की विकसित हुई है, तो क्या प्रत्येक मनुष्य भी परमात्मा होने की राह पर अग्रसर है ? यही मूल प्रश्न है, जिसका उत्तर मनुष्य को खोजना है । मनुष्य की बुद्धि के विकास ने दो राह पकड़ी है, उस पकड़ी गई राह के अनुसार ही मनुष्य का भविष्य निर्धारित होता है । दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि मनुष्य की बुद्धि का विकास मुख्य रूप से जिस दिशा को पकड़ता है, उसी दिशानुसार उसकी बुद्धि कार्य करती है । वैचारिक शक्ति (power of thinking) के अनुसार मनुष्य की बुद्धि दो प्रकार की हो सकती है - सांसारिक बुद्धि (materialistic intelligence) और आध्यात्मिक बुद्धि (spiritual intelligence) ।
जो बुद्धि संसार में रुचि रखती है, शरीर के सुख के लिए कार्य करती है, वह बुद्धि सांसारिक है । जो बुद्धि स्वयं को जानने, स्वयं के स्वरूप को पहिचानने और जीवन के उद्देश्य को पाने में प्रयासरत रहती है, वह बुद्धि आध्यात्मिक है । सांसारिक बुद्धि बहुर्मुखी (extroverted) होती है जबकि आध्यात्मिक बुद्धि अंतर्मुखी (introverted) । सांसारिक बुद्धि शरीर और शरीर से बाहर के सुख को महत्व देती है जबकि आध्यात्मिक बुद्धि अपने आनंद के लिए शरीर में बैठे अंतर्यामी को जानने का प्रयास करती है ।
सांसारिक बुद्धि केवल संसार और शरीर के बारे में ही सोच-विचार करती है । मनुष्य की यह बुद्धि प्रतिपल अपने शरीर को सुख कैसे मिले, अपने संसार के साथ सम्बन्ध किस प्रकार प्रगाढ़ हो, उसके अतिरिक्त अन्य विषय पर विचार तक नहीं करती । कहने का अर्थ है कि सांसारिक बुद्धि का विकास संसार के सुख और संबंधों तक ही सीमित होकर रह गया है । जब तक मनुष्य को संसार के सभी सुख नहीं मिलेंगे, तब तक उसकी सांसारिक बुद्धि का विकसित होना नहीं रुकेगा। संसार से उसे कभी सुख मिलने वाला नहीं है, इसलिए उसकी केवल सांसारिक बुद्धि ही विकसित होती रहेगी, आध्यात्मिक बुद्धि का विकास होना असम्भव है।
आध्यात्मिक बुद्धि रखने वाले मनुष्य मननशील (thinker) होते हैं । वे प्रतिपल स्वयं के होने के उद्देश्य को प्राप्त करने के बारे में चिंतन करते रहते हैं । जिस सृष्टि के रूप में स्वयं परमात्मा अवतरित हुए है, उस सृष्टि (creation) का एक अंग मनुष्य जब तक सृष्टि के मूल अर्थात् परमात्मा तक नहीं पहुँच जाता तब तक उसकी आध्यात्मिक बुद्धि का विकसित होना चलता रहेगा ।
कौरवों और पाण्डवों के मध्य सत्ता का विवाद अपने चरम तक पहुँच चुका था । एक-एक कर दोनों पक्षों के मध्य समझौते के सभी प्रयास विफल हो गए थे, यहाँ तक कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया प्रस्ताव तक ठुकराया जा चुका था । अब सत्ता के अधिकार के लिए युद्ध ही एक मात्र और अंतिम विकल्प रह गया था । कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध की तैयारियाँ प्रारंभ हो चुकी थी । दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी सेना को मज़बूत करने में लगे हुए थे । इसी प्रयास में एक अवसर सबके समक्ष स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ रहा था, भगवान श्रीकृष्ण की नौ अक्षौहिणी नारायणी सेना । किस पक्ष को श्रीकृष्ण की यह सेना मिलेगी ? अभी भी स्पष्ट नहीं था । प्रत्येक कोई मान रहा था कि जिसके पास ही यह सेना होगी, अंततः विजय उसी पक्ष की होगी ।
भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध में सहायता माँगने के लिए कौरव पक्ष ने दुर्योधन को और पाण्डव पक्ष ने अर्जुन को श्रीकृष्ण के पास भेजा । दोनों में से पहले दुर्योधन श्रीकृष्ण के कक्ष में पहुँचा । भगवान उस समय निद्रावस्था में थे । दुर्योधन ने उनके विश्राम में बाधा न डालते हुए स्थान देखकर उनके सिरहाने की ओर बैठ गया । तभी अर्जुन ने कक्ष में प्रवेश किया । उसने भी भगवान के विश्राम में कोई अवरोध (obstruction) उत्पन्न नहीं किया और उचित स्थान देखकर पैरों की ओर बैठ गया । दोनों ही भगवान के जागने की प्रतीक्षा करने लगे ।
कुछ समय की प्रतीक्षा के बाद भगवान जागे । उन्होंने अपने नेत्र खोले । प्रथम दृष्टि अर्जुन पर टिकी । भगवान बोले - “ अरे अर्जुन ! तुम कब आए ?” तभी सिरहाने की ओर बैठा दुर्योधन बोल पड़ा - “ यह तो अभी-अभी आया है वासुदेव, मैं तो बहुत पहले से आपके जागने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।” भगवान ने कहा - “अवश्य ही आप पहले आए होंगे, परंतु मैंने तो अर्जुन को सबसे पहले देखा है ।” थोड़ी देर के बाद श्रीकृष्ण ने दोनों से ही आने का प्रयोजन पूछा । दोनों एक साथ बोल पड़े कि हम युद्ध में आपसे सहायता माँगने आये हैं ।
भगवान ने कहा - “आपकी सहायता करने के लिए मेरे पास दो विकल्प (options) है । एक ओर मैं रहूँगा और दूसरी ओर मेरी नारायणी सेना । जो जिसको लेना चाहे ले सकता है परंतु एक बात दोनों के ही ध्यान में रहे - मैं जिस ओर भी रहूँगा, युद्ध नहीं करूँगा, हथियार नहीं उठाऊँगा । अर्जुन ! मेरी दृष्टि पहले तुम पर गयी थी इसलिए तुम ही इन दोनों में से एक विकल्प चुन लो ।” भगवान के मुख से यह सुनकर दुर्योधन तनिक चिंतित होकर बोला - “वासुदेव ! पहले मैं आया था, इसलिए विकल्प चुनने का प्रथम अधिकार मेरा होना चाहिए ।” श्रीकृष्ण ने कहा - “निस्संदेह तुम पहले आये होंगे परंतु एक तो मेरी दृष्टि ने पहले अर्जुन को देखा है और दूसरी बात, अर्जुन तुमसे छोटा भी है । इसलिए विकल्प चुनने का प्रथम अधिकार अर्जुन का बनता है । इसलिए यह प्रथम चुनने का अधिकार मैं अर्जुन को दे रहा हूँ । तुम्हें इसमें किसी प्रकार कि आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।” भगवान का उत्तर सुन दुर्योधन चुप हो गया ।
इस प्रकार अर्जुन को नारायणी सेना अथवा भगवान श्रीकृष्ण, दोनों में से किसी एक को चुनने का प्रथम अधिकार मिला । भगवान कह रहे हैं - 'चल अर्जुन ! पहले तू बता, इन दोनों में से किस एक को लेना पसन्द करेगा ?' कृष्ण के मुख से ऐसा सुनते ही इधर तो दुर्योधन चिंतित हो रहा है कि कहीं अर्जुन भगवान से उनकी नारायणी सेना न माँग ले और उधर अर्जुन यह सोच रहा है कि नारायणी सेना लेकर भी मैं क्या करूँगा ? मैं अपने सखा कृष्ण के बिना युद्ध कैसे कर सकूँगा ? तभी भगवान ने फिर से अर्जुन को इन दोनों में से किसी एक विकल्प को चुनने का कह दिया । अर्जुन बोले - “मैं तो वासुदेव आपको ही लूँगा । युद्ध में आप ही मेरे साथ रहेंगे ।” भगवान ने अर्जुन को पुनः स्मरण कराया कि वे युद्ध में उसके साथ रहेंगे अवश्य परंतु हथियार नहीं उठाएँगे, इसलिए चाहे तो अर्जुन अपने विकल्प को चुनने में पुनर्विचार कर ले । लेकिन अर्जुन ने अपना विचार नहीं बदला । यह सुनकर दुर्योधन मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ और भगवान से बोला कि कोई बात नहीं वासुदेव, मैं ही आपकी नारायणी सेना ले लेता हूँ । इस प्रकार युद्ध में श्रीकृष्ण, पाण्डव-पक्ष में अर्जुन के सारथी (charioteer) बने और उनकी नारायणी सेना ने कौरव-पक्ष की ओर से युद्ध में भाग लिया ।
दुर्योधन की बुद्धि सांसारिक थी, वह सत्ता पाने को व्याकुल (restless) था । इसके लिए उसे भगवान नहीं बल्कि नारायणी सेना चाहिए थी । सांसारिक व्यक्ति ही शरीर के सुख के लिए, संसार के पदार्थों के लिए भगवान की अवहेलना (disregard) कर सकता है । अर्जुन की बुद्धि आध्यात्मिक थी । वह जानता था कि संसार के सामने भगवान को वरीयता (preference) मिलनी ही चाहिए । भगवान है तो संसार है, भगवान साथ नहीं तो फिर कुछ भी नहीं । “होना” तो केवल भगवान का ही होता है, संसार का “होना” दिखलाई पड़ते हुए भी वास्तव में उसका “नहीं होना” ही है ।
विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी का स्मरण करना बुरा नहीं है परन्तु दिन-रात केवल उनके ही ध्यान में मग्न रहकर भगवान को भूल जाना अनुचित है । स्वयं लक्ष्मीजी दिनभर नारायण की सेवा में लगी रहती है, फिर हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? हमें भी नारायण का ध्यान ही करना चाहिए । नारायण जहाँ-जहाँ जाएँगे, वहाँ-वहाँ लक्ष्मीजी को जाना ही होगा । जहां नारायण रहेंगे, लक्ष्मीजी उनकी पादसेवा के लिए निश्चय ही उनके पीछे-पीछे दौड़ी चली आएगी । इसलिए आप संसार के सुख के लिए भले कितना ही धन का आदर करते रहें परंतु परमात्मा को विस्मृत कभी भी न करें क्योंकि परमात्मा है तो धन है, परमात्मा के अभाव में धन का कोई मूल्य नहीं है ।
संसार और परमात्मा में भिन्नता बुद्धि के आयाम (dimension) से ही स्पष्ट होती है । बुद्धि सांसारिक है तो आपके लिए संसार और शरीर ही सब कुछ है और बुद्धि आध्यात्मिक है तो आपके लिए परमात्मा ही सर्वस्व है । निर्णय आपको करना है कि बुद्धि का उपयोग किस प्रकार करें । संसार की वस्तुएँ और व्यक्ति क्षणभंगुर है, वे इस पल हैं, अगले ही पल वे नहीं रहेंगे परन्तु परमात्मा अभी हैं, पहले भी थे और आगे भी रहेंगे । बुद्धि के आयाम को परिवर्तित करना आपके (अहं के) हाथ है । भगवान ने गीता में कहा भी है कि इंद्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे अहं है । मन, इंद्रियों का संचालक है, बुद्धि मन का और अहं बुद्धि का । अतः आप स्वयं को ही निश्चित करना है कि बुद्धि का उपयोग किस स्तर (level) पर करना है, सांसारिक स्तर पर अथवा आध्यात्मिक स्तर पर । सांसारिक बुद्धि को आध्यात्मिक बुद्धि में परिवर्तित करने के अनेक कारक हो सकते हैं परंतु उन कारकों (factors) का विश्लेषण अहं को अर्थात् आपको ही करना होगा । इस विश्लेषण से (analysis) आप बुद्धि के आयाम को परिवर्तित करने में सफल हो सकते हैं ।
सांसारिक बुद्धि जिस दिन अध्यात्म की ओर जाने को उत्सुक होती है तभी उसमें परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जाता है । यह परिवर्तन बुद्धि के स्वरूप को परिवर्तित कर देता है, जिससे मनुष्य की वैचारिक क्षमता और मननशीलता में चमत्कारिक परिवर्तन होता है । बुद्धि में ऐसे परिवर्तन के आने से सांसारिक मनुष्य भी अपने स्वरूप तक पहुँचने को उत्सुक हो जाता है ।
बुद्धि का विकास तो समग्र रूप (whole) से ही होता है । यह मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है कि वह बुद्धि को संसार के सुख को प्राप्त करने में लगाता है अथवा आत्मबोध (realization) की अवस्था को उपलब्ध करने में । सांसारिक बुद्धि कभी भी आध्यात्मिक बुद्धि में परिवर्तित हो सकती है और कभी ठीक इसके विपरीत भी हो सकता है । संसार के आकर्षण से मुक्त होना सरल नहीं है । संसार के आकर्षण से ही मनुष्य की बुद्धि शरीर को सुख उपलब्ध कराने के साधन खोजने में लगी रहती है । सुख-दुःख, मनुष्य के जीवन में आते जाते रहते हैं । जो स्थाई रूप से रहता नहीं, उसके साथ चिपक जाना ही मनुष्य को अंत में दुःखी करता है ।
आदिमानव ने अपने जीवन में पहले कभी सुख का अनुभव नहीं किया था । पत्थर के हथियार/औज़ार, पत्थर से उत्पन्न की गई अग्नि और लुढ़कते पत्थर से बने पहिए ने उस चैतन्य (conscious) जीव को जड़ता (unconsciousness) की ओर ही धकेलने का कार्य किया है । सुख की आसक्ति ने (attachment) उसको बंधन में डाल दिया । सदैव उन्मुक्त जीवन (free life) जीने वाला मनुष्य बुद्धि के विकास का समुचित उपयोग नहीं कर पाया और संसाधनों (संसार) के साथ बन्ध गया । प्रारम्भ में मिला सुख धीरे-धीरे एक दिन गौण (negligible) हो ही जाता है और मनुष्य फिर उससे अधिक सुख प्राप्त करने की दौड़ में लग जाता है । इस प्रकार मनुष्य ने बुद्धि के विकास का उपयोग केवल संसार और शरीर-सुख के लिए ही किया है ।
भूखे व्यक्ति को भोजन का प्रथम निवाला (first bite) बहुत ही सुखदायी प्रतीत होता है परन्तु ज्यों-ज्यों भूख शान्त होती जाती है, प्रत्येक निवाले के साथ सुख भी कम होता जाता है । जब भूख समाप्त हो जाती है, तब उसी भोजन का एक कण भी अरुचिकर और दुखदाई लगने लगता है । कहने का अर्थ है कि जीवन में मिला वही सुख, एक दिन दुःख में बदल जाता है । इस प्रकार जो मनुष्य जीवन में मिलने वाले सुख की वास्तविकता से परिचित हो जाता है, वह बुद्धि का उपयोग अध्यात्म के लिए करने लगता है । जीवन में मिलने वाले सुख की वास्तविकता यह है कि वह सदैव एकसा नहीं रहता । वह कभी कम, कभी अधिक और कभी उसका विलोप (disappear) भी हो सकता है । उसके कम अथवा विलोपित होने को ही दुःख कहा जाता है ।
जब आध्यात्मिक बुद्धि प्रभावशाली होने लगती है, तब इस बुद्धि को स्थिरता (stability) मिलना आवश्यक है । अस्थिर (unstable) बुद्धि पुनः संसार की ओर मुड़ सकती है । इसलिए बुद्धि के आध्यात्मिक होने पर भीतर जन्म लेने वाले विविध प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करना चाहिए । इसके लिए ज्ञान प्राप्ति के सभी साधनों का सहारा लेना चाहिए । ये साधन गुरु और शास्त्र से लेकर सत्संग तक हो सकते हैं ।
मनुष्य में आध्यात्मिक बुद्धि का विकसित होना इस बात से सिद्ध होता है कि अपने जीवन से संम्बधित कई नए-नए प्रश्न प्रतिदिन उसके भीतर जन्म लेते रहते हैं । उन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए वह पुनः अपनी बुद्धि का उपयोग करता है । कहने का अर्थ है कि जहां से प्रश्न जन्म लेता है, उसका उत्तर भी वहीं से मिलना सम्भव है । कई ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे मनुष्य को बड़ा भारी आश्चर्य भी होता है ।आइए ! ऐसे ही आश्चर्यचकित करने वाले कुछ प्रश्नों की तरफ़ चलते हैं ।
आश्चर्य की बात है कि कैसे एक निर्गुण-निराकार विभिन्न प्रकार के सगुण-साकार रूपों में प्रकट हो जाता है ? कैसे किसी जीव का एक डिम्ब (ovum) एक शुक्राणु (sperm) के साथ एकीकरण कर संपूर्ण अवयवों को धारण करने वाला एक सुन्दर शिशु बन जाता है ? धीर-गम्भीर समझे जाने वाले सागर में प्रचण्ड तूफ़ान कैसे पैदा होकर किनारों पर तबाही मचा देते हैं ? वह कौन है जो पवन को गति प्रदान कर जीव के लिए जीवनदायिनी बना देता है ? संसार के प्रत्येक कण के भीतर अग्नि को कौन समेटे रखता है, जिसकी इच्छा से वह प्रकट होकर वनों को भी लील जाती है ? शान्त स्वभाव और अपने ऊपर सब जीवों को धारण करने वाली धरा (earth), क्यों अपने तनिक से कंपन (vibration) से पलभर में सब कुछ मटियामेट कर देती है ? ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं, जिनके उत्तर तक पहुँचना मनुष्य के लिए असम्भव नहीं तो सुगम भी नहीं है ।
जब इन सभी प्रश्नों के उत्तर तक पहुँचना सुगम नहीं है, तब सबसे बड़ा प्रश्न उठता है कि फिर मनुष्य का अर्थात् हमारा जीवन कैसा होना चाहिए ? यह प्रश्न भी पहले वाले प्रश्नों की तरह अनुत्तरित (unanswered) हो सकता है, इसमें दो मत नहीं है, फिर भी सभी जीवों में केवल मनुष्य ही इसका समाधान (solution) खोज सकता है । केवल मनुष्य मैंने इसलिए कहा है क्योंकि मनुष्य नाम के जीव के पास ही वह विकसित बुद्धि होती है, जो समस्त पहेलियों को हल कर सकती है । जिस दिन मनुष्य को इस अनुत्तरित प्रश्न का उचित समाधान मिल जाएगा, उसके जीवन की धारा (stream of life) ही परिवर्तित हो जाएगी ।
अभी तक हुए विवेचन से स्पष्ट हुआ है कि मनुष्य की विकास यात्रा ने उसके जीवन को बहुत प्रभावित किया है । सांसारिक बुद्धि से हुए विकास का उद्देश्य सुख की प्राप्ति था, परंतु उस सुख का अंतिम परिणाम मनुष्य को दुःख के रूप में मिला । यही कारण है कि इस संसार को दुःखालय कहा जाता है । मनुष्य द्वारा नए-नए आविष्कार सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से किए गए थे, वही संसाधन उसे आज दुःखी कर रहें हैं । इसका कारण क्या है ?
मनुष्य सुखी-दुःखी होता है, अपनी सोच के कारण, बुद्धि का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण । यह एकदम स्पष्ट है कि मनुष्य की बुद्धि का विकास हुआ है, जिससे वह अन्य जीवों से भिन्न अनुभव में आता है । बुद्धि के विकास के दो आयाम हैं - सांसारिक और आध्यात्मिक । सांसारिक आयाम के अनुसार मनुष्य की सोच संसार और शरीर के सुख के लिए होती है जबकि आध्यात्मिक आयाम में स्वयं के होने और स्वरूप तक पहुँचने की सोच होती है । बुद्धि का सांसारिक आयाम मनुष्य को संसार की भौतिकता के साथ बाँध देता है जबकि आध्यात्मिक बुद्धि उसे संसार से विमुख कर मूल स्वरूप की ओर ले जाती है ।
प्रश्न उठता है कि सांसारिक बुद्धि मनुष्य को संसार के साथ किस प्रकार बांध देती है ? विवेचन में पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि मनुष्य शारीरिक सुख की प्राप्ति के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करता आया है । ज्यों ज्यों वह शरीर के सुख के साधन जुटाता गया, उसकी और अधिक सुख प्राप्त करने की कामना बढ़ती गई । इस कामनाओं की पूर्ति (fulfilment) में सहयोग के लिए उसने अपना एक अलग ही संसार बना कर बसा लिया । इस संसार में उसका परिवार, सुहृद जन, मित्र, धन-सम्पति आदि सम्मिलित हैं । शरीर के सुख के लिए मनुष्य स्वनिर्मित संसार (world for self) के प्रति आसक्त होकर सुख के नए-नए साधन खोजता गया और आज भी खोजता जा रहा है । इन सबके साथ बंधकर वह स्वयं को भूल गया है ।
जब मनुष्य के शारीरिक सुख में बाधा उत्पन्न होती है अथवा उसे सुख अपर्याप्त और अस्थाई प्रतीत होता है, तब उसके भीतर दुःख का आगमन होता है । इस प्रकार उसे जीवन में प्रायः प्रतिकूल (adverse) परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है । प्रतिकूल परिस्थितियां मनुष्य की बुद्धि के आयाम को परिवर्तित करती है । जब बुद्धि सांसारिक से आध्यात्मिक आयाम ग्रहण कर लेती है, तब वह जीवन के वास्तविक सुख (आनन्द) की खोज प्रारंभ करता है । कहने का अर्थ है कि मनुष्य की बुद्धि के आयाम में परिवर्तन हुए बिना इस संसार चक्र से मुक्त होना संभव नहीं है ।
प्रश्न उठता है कि यह संसार चक्र क्या है और उस चक्र से बाहर कैसे निकला जा सकता है ?
मनुष्य के पास पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन है । कर्मेन्द्रियों से कर्म होते हैं और ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्येक विषय (material) का ज्ञान । मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों के माध्यम से उन विषयों का भोग करता है । उन भोगों (enjoyments) के प्रति आसक्त होकर मन के माध्यम से उन्हीं भोगों की फिर से माँग (demand) करता है । इस प्रकार भोग और माँग, माँग और भोग का चक्र अनवरत (vicious cycle) चलता रहता है । मूल रूप से संसार-चक्र यही है । संसार-चक्र में उलझकर मनुष्य चक्करघिन्नी (gibberish) बन जाता है और चौरासी लाख योनियों में घूमता रहता है । जिस दिन इस चक्र को तोड़ने का राज समझ में आ जाएगा, फिर मनुष्य कभी भी दुःखी नहीं होगा । इस राज को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को स्पष्ट किया है ।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त कौन्तेय न तेषु रमते बुध:।।5/22।।
अर्थात् जो इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले सुख हैं, वे आदि और अन्त वाले हैं और दुःख के कारण हैं। इनमें विवेकशील मनुष्य रमण नहीं करता ।
गीता के इस श्लोक (5/22) में भगवान स्पष्ट करते हैं कि इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले सुख का प्रारम्भ और अन्त होना अवश्यंभावी है । प्रश्न उठता है कि इंद्रिय का विषय से संयोग क्यों होता है ? यह संयोग होता है क्योंकि हमारे जीवन में किसी न किसी के न होने का दुःख है, कोई न कोई अभाव है । जीवन में यह दुःख है, सुख न होने का । ‘दुःखयोनय एव ते’ यानि सुख का जन्म दुःख की योनि से होता है अर्थात् दुःख के कारण ही इंद्रिय और विषय का संयोग होकर सुख का जन्म होता है । संयोग का अर्थ है कि जिसका एक न एक दिन वियोग होना निश्चित है । जिस दिन उस विषय का इंद्रिय से संयोग नहीं होगा उस दिन उस सुख का अभाव हो जाएगा । ऐसे आने-जाने वाले सुख की आशा रखना ही हमें दुःख देता है । विवेकशील मनुष्य इस बात को भलीभाँति जानता है । प्रत्येक विषय से मिलने वाले सुख का एक न एक दिन चले जाना निश्चित है, यह बात जानते तो सभी हैं परंतु भीतर से स्वीकार कोई नहीं करता । जिसकी बुद्धि विवेक में परिवर्तित हो जाती है, वह इस बात को स्वीकार शीघ्र कर लेता है । परन्तु जो इस बात को स्वीकार नहीं करता वह उस संयोग से मिले सुख में ही रमण करने लग जाता है । रमण करने का अर्थ है, उस सुख में आकण्ठ डूब जाना, उस सुख में रम जाना, लीन हो जाना, तल्लीन हो जाना । रमण अर्थात् वह सुख जो तन-मन को आनन्दित कर देता हो ।
आनन्द स्थाई भाव है , सुख में रमण (deep enjoyment) करने से अर्थ है, उस सुख को आनन्द की तरह स्थाई (forever) समझ लेना । यही अविवेकी मनुष्य की पहचान है कि आने-जाने वाले सुख को वह स्थाई मान बैठता है । अविवेकी मनुष्य ‘शरीर ही सब कुछ है और सदैव के लिए है’, ऐसा मानकर उसके सुख के लिए दिन-रात एक कर देता है ।
जिसका आदि (beginning) है, उसका अन्त (end) भी होगा, यह निश्चित बात केवल आध्यात्मिक बुद्धि रखने वाला ही समझता है । इसलिए वह ऐसे विषय-सुख से प्रभावित होकर उसमें तल्लीन (absorbed) नहीं होता । इसका अर्थ यह नहीं है कि उसको शारीरिक सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता । प्रत्येक शरीर को इंद्रिय और विषय के संयोग से उत्पन्न हुए सुख का अनुभव होगा ही, परंतु इस सुख में अविवेकी (indiscriminate) मनुष्य तो आसक्त होकर डूब जाता है और विवेकशील उस सुख से अनासक्त (detached) बना रहता है ।
जो मनुष्य विषयों से मिलने वाले सुख में रमण करने लगता है, एक दिन उस सुख के चले जाने पर वह उतना ही अधिक दुःखी होता है । विवेकी मनुष्य की सुख के प्रति अनासक्ति न तो उसको दुःखी करती है और न ही उसके भीतर बार-बार उस सुख के मिलने की कामना ही पैदा करती है ।
स्वामीजी कहते हैं - ‘'गीता में भगवान ने कहा है, ”तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्” -जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और होना सम्भव ही नहीं, ऐसे दुःखरूप संसार-शरीरके साथ सम्बन्ध मान लिया, यही 'दुःखसंयोग' है ।” मनुष्य की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह इंद्रिय-विषय संयोग को स्थाई समझ बैठता है । ऐसे संयोग से वियोग कर लेना ही हमें “योग” तक ले जाता है । योग से अर्थ है जो प्रत्येक प्रकार के संयोग और वियोग से परे और नित्य प्राप्त हो । जो इस बात को समझ रहा है, वह निश्चित ही आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर है ।
सांसारिक बुद्धि समता का आचरण नहीं कर सकती । जब जीवन में समता आती है तब सुख-दुःख का भेद समाप्त हो जाता है और आनंद की अनुभूति होने लगती है । जीवन में समता के आगमन के साथ ही बुद्धि सांसारिक से आध्यात्मिक होने की राह पर आगे बढ़ने लगती है ।
सांसारिक बुद्धि में जब समबुद्धि का विकास होने लगता है तब जीवन में समता आती है । समता से आध्यात्मिकता का पथ खुलता है और अंततः मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है । हमारा स्वरूप भेदबुद्धि के कारण छिपा रहता है । समबुद्धि प्राप्त होते ही सभी भेद समाप्त हो जाते हैं और स्वरूप स्वतः प्रकट हो जाता है । भेदबुद्धि हमें सांसारिकता की ओर धकेलती है, जबकि समबुद्धि परमात्मा से परिचय कराती है । भेदबुद्धि ही सांसारिक बुद्धि है और समबुद्धि आध्यात्मिक बुद्धि । भेदबुद्धि अनेकों शाखाओं वाली होती है जबकि समबुद्धि जीवन में एक निश्चय कर उस निश्चय पर अडिग रहती है । अडिग समबुद्धि ही परमात्मा के द्वार खोलती है ।
सांसारिक बुद्धि-युक्त मनुष्य को लगता है कि सुख उसके द्वारा एकत्रित किए गए विभिन्न साधनों से मिल रहा है । वास्तविकता यह है कि जब तक उन साधनों के माध्यम से किसी विषय का संयोग शरीर के साथ नहीं हो जाता तब तक हमें सुख/दुःख का अनुभव नहीं हो सकता । साधन अर्थात् विषय को उपलब्ध कराने का माध्यम, जैसे आवागमन के साधन, सर्दी और गर्मी से बचाव के साधन आदि । इन साधनों का उपयोग करने से मनुष्य उनका आदी/अभ्यस्त (addict) हो जाता है, उन पर निर्भर (depend) हो जाता है, जिससे भविष्य में कभी उपलब्ध न होने पर उसे इन साधनों का अभाव खलता है । इस जगत् में पाँच विषय हैं - स्पर्श, शब्द, रूप, रस और गंध । प्रत्येक जीव के शरीर में पाँच इंद्रियाँ स्थित हैं - त्वचा, कान, नेत्र, जिह्वा और नाक । जब एक विषय का संयोग एक विशेष इंद्रिय के साथ होता है तब मन के माध्यम से जीव सुख-दुःख का अनुभव करता है । बिना इंद्रिय-स्पर्श के प्रत्येक विषय शक्तिहीन (powerless) होता है ।
अकेला विषय (material) भी शक्तिहीन है और अकेली इंद्रिय (senses) भी । समस्या तो तब पैदा होती है जब इन दोनों का आपस में संयोग अर्थात् सम्पर्क (contact) हो जाता है । आदिमानव के पास भी इंद्रियाँ थी परन्तु संसार में विषय होते हुए भी उनका स्पर्श इंद्रियों से अत्यल्प (negligible) था । तभी तो आदिमानव आज के मानव से से कम दुःखी था । विषय और इंद्रियों के मध्य स्पर्श समय के साथ-साथ बढ़ता गया और उसी अनुपात में मनुष्य का दुःख भी बढ़ता गया ।
प्रश्न उठता है कि क्या विषय का इंद्रियों से स्पर्श इतना प्रभावशाली है कि मनुष्य उससे बंध जाता है ? जिस दिन मनुष्य को विषय की वास्तविकता का ज्ञान हो जाएगा उस दिन वह इंद्रियों से उसका स्पर्श होने से रोक सकेगा । विषय का इंद्रियों से स्पर्श प्रारंभ में संयोगवश ही होता है और यह संयोग बनता है, प्रारब्ध (destiny) के कारण । प्रारब्ध के कारण हमें जितना सुख मिलना निश्चित होता है, उतना मिलकर रहता है । उस सुख के प्रति आसक्ति पैदा हो जाना ही हमें उस विषय के साथ बांध देती है । विषय के आकर्षण में आसक्त हो जाना ही मनुष्य के बंधन का मुख्य कारण है ।
प्रश्न उठता है कि विषय (material) और इंद्रियों (senses) में ऐसा क्या है जोकि मनुष्य को संसार के साथ बांध देता है, उसे मुक्त ही नहीं होने देता ? न तो मनुष्य को इंद्रियाँ संसार से बाँधती है और न ही विषय । मनुष्य को संसार से बाँधता है, विषय में उपस्थित रस (interest / taste), जो कि पदार्थ में उपस्थित प्रकृति के गुणों की क्रिया का परिणाम होता है । प्रत्येक विषय में एक रस होता है जो हमें दिखलाई तभी देता है जब उसका एक बार किसी इंद्रिय से स्पर्श हो जाता है, उससे पूर्व नहीं । इंद्रिय से स्पर्श होते ही विषय का रस व्यक्ति को अनुभव होने लगता है । वह अपने अनुभव के अनुसार विषय को अच्छा अथवा बुरा समझने लगता है । जो विषय उसको अच्छा लगता है, वह उसे अनुपम सुख देता है और जो उसके लिए बुरा है, उसको पाकर वह दुःखी होता है । प्रत्येक विषय-रस न तो अच्छा होता है और न ही बुरा, वह तो सदैव उदासीन (neutral) ही रहता है । केवल मनुष्य का मन ही उसके अच्छे अथवा बुरे होने की व्याख्या करता है और उसी मन की व्याख्या के अनुसार मनुष्य को सुख-दुःख का अनुभव होता है । जैसे घृत आपके लिए अमृत (nectar) है परंतु वही घृत एक घरेलू मक्खी के लिए ज़हर (poison) बन जाता है ।
विषय-रस भी सदैव एक समान नहीं रहता । भोजन में जो कुछ भी मिष्ठान्न अथवा नमकीन आपको रस प्रदान करता है, उसकी थोड़ी सी भी अधिक मात्रा खा लेने से वह आपके लिए दुखदाई हो जाता है । उस भोजन में विषय-रस भी वही है, इंद्रिय भी वही है परंतु उससे मिलने वाला सुख उसकी मिलने वाली मात्रा के अनुपात में धीरे-धीरे कम होता जाता है । निष्कर्ष यह है कि विषय और रस की गुणवत्ता (quality) कम नहीं हुई है बल्कि भूख शांत होने पर आपकी उस विषय-रस के प्रति मानसिकता परिवर्तित हो गई है ।
संसार में मनुष्य को सबसे अधिक व्यथित विषय-रस (interest in material) ने ही किया है । उदासीन होते हुए भी जिस सुख का अनुभव प्रत्येक जीव को इस रस का होता है वह केवल जीव ही जान सकता है क्योंकि प्रत्येक जीव के पास उस विषय-रस का भोग करने के लिए इंद्रियाँ होती है । जब इंद्रिय और विषय का संयोग से आपस में स्पर्श हो जाता है, तब जीव उस विषय से मिलने वाले रस में आसक्त होकर उसके साथ बंध जाता है ।
बिना विषय और इंद्रिय के संयोग के मनुष्य को सुख-दुःख का अनुभव नहीं हो सकता । एक बार का विषय-स्पर्श शरीर द्वारा बार-बार (repeatedly) माँगा जाता है क्योंकि प्रत्येक विषय मन के माध्यम से मनुष्य के अहं (self) को तुष्ट (appease) और पुष्ट (fortify) करता है । विषय-भोग की एक बार की तुष्टि उसी भोग को बारम्बार प्राप्त करने की कामना पैदा करती है । बारम्बार भोग पाकर भी मनुष्य उससे संतुष्ट नहीं होता । जीवन में इस प्रकार की असंतुष्टि ही उसके दुःख का कारण बनती है ।
मनुष्य की इंद्रियाँ भी बार-बार के विषय-स्पर्श की जब अभ्यस्त हो जाती है, तब उस विषय-भोग से उतना सुख नहीं मिलता, जितना उसे प्रथम स्पर्श होने पर मिला था । यह निरंतर घटता सुख भी मनुष्य में असंतुष्टि पैदा करते हुए दुःख का कारण बनता है । एक विषय-स्पर्श ही इंद्रियों को बार-बार मिले, आवश्यक नहीं है । इस प्रकार विषय का इंद्रिय से स्पर्श का अभाव भी मनुष्य को दुःख देता है । और अंतिम, मनुष्य के दुःख का महत्वपूर्ण कारण बनता है कि इंद्रियों से विषय का स्पर्श सतत बना नहीं रहता अर्थात् स्पर्श आता है, जाता है, टिकता नहीं है । विषय-भोग (material enjoyment) में निरंतरता का अभाव, मनुष्य के दुःख का महत्वपूर्ण कारण है ।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मनुष्य के दुःख का कारण विषय-भोग ही है । प्रथम तो उसे भोग मिलता नहीं है और अगर मिल भी गया तो वह टिकता नहीं (unstable) है, अगर कुछ अधिक समय के लिए टिक भी गया तो थोड़े दिनों बाद वह अपर्याप्त (inadequate) लगने लगता है । कहने का अर्थ है कि मनुष्य अपने जीवन में भोगों से कभी संतुष्ट (satisfy) नहीं हो पाता । उसकी यह असंतुष्टि ही उसके दुःख का कारण है । मनुष्य जानता है कि संसार में मिलने वाले समस्त भोग, आदि और अन्त वाले हैं अर्थात् आने-जाने वाले हैं फिर भी वह उनके साथ चिपक जाता है । उसका इस प्रकार चिपकना (adhere) ही उसके दुःख का कारण है ।
क्या विषय से निवृत्ति कर लेने से मनुष्य संसार के बंधन से मुक्त हो सकता है ? हाँ, अगर मनुष्य विषय-रस से अपने आपको अलग करले तो वह मुक्त हो सकता है परंतु ऐसा होना मुश्किल अवश्य है परन्तु असंभव नहीं है । मनुष्य के पास ऐसी क्षमता (power) है कि वह चाहे तो विषय का स्पर्श इंद्रियों से होने से रोक सकता है । विषय को इंद्रियों के साथ संपर्क न होने देने के लिए विषयों से दूर हो जाना एक विकल्प है और प्रायः हम इसी विकल्प को अपनाते है । विषय से दूर चले जाना भी उचित समाधान नहीं है क्योंकि मनुष्य विषय के कारण संसार से नहीं बंधा है बल्कि उसे विषय से मिलने वाले रस ने बांधा है ।
एक बार मिले रस से मनुष्य की मानसिकता बदल जाती है । मनुष्य उस रस में आसक्त हो जाता है और उसे बार-बार पाने की कामना करता है । विषयों से इंद्रियों को हटा लेने से मानसिकता को नहीं बदला जा सकता । विषय भौतिक रुप से (physically) इंद्रियों से भले ही दूर हो गए हों परंतु मन के भीतर उसका रसास्वादन (enjoyment) चलता रहता है । जब तक हम मन के माध्यम से उस रस को भोगते रहेंगे तब तक संसार से मुक्ति होना असम्भव है । इसलिए विषयों से पूर्ण निवृत होना तभी कहा जा सकता है, जब मन से रस भी निवृत (quiet) हो गए हों ।
विषयों से भौतिक रूप से निवृत्त हो जाने का अर्थ है, इंद्रियों को निराहार कर देना । निराहार (fasting) तो हम उपवास के दिन भी रहते हैं परंतु उस उपवास को तभी सफल कहा जा सकता है जब उस दिन भोजन का विचार तक मन में न आए । अगर निराहार रहते हुए दिन भर मन में भोजन का चिंतन चलता रहे, भोजन का रस लेते रहे तो ऐसा उपवास करना व्यर्थ ही है । मुख्य बात है, विषय-रस से निवृत होना । जब रस की निवृत्ति हो जाती है, तब यदि विषय का स्पर्श इंद्रियों से हो भी जाता है तो उससे मन में किसी प्रकार का विचलन (deflection) नहीं होता । इस स्थिति को प्राप्त करने का अर्थ है, संसार में रहते हुए भी संसार में न होना अर्थात् स्वयं की संसार से निवृत्ति । हम मुक्त ही हैं, बंधे हैं तो रस के कारण बंधे हैं । रस से निवृत्ति लेते ही मुक्ति स्वतः सिद्ध है ।
सांसारिक बुद्धि रखने वाले मनुष्य में विवेक जाग्रत होने की कोई सम्भावना तब तक नहीं बनती जब तक उसकी बुद्धि में विषयों से मिलने वाले सुख का रस बैठा हुआ है । विषय-रस को बढ़ाने में सहायक बनता है, आस-पास का वातावरण और संगति । इसके लिए हमारी सभ्यता और संस्कृति में आश्रम व्यवस्था बनाई गई है । समय के साथ-साथ आश्रम व्यवस्था चरमरा रही है क्योंकि मनुष्य को न तो सत्संग मिलता है और साथ ही उसके आस-पास का वातावरण इतना अधिक दूषित हो गया है कि बुद्धि पर रस का प्रभाव कमज़ोर होने के स्थान पर अधिक दृढ़ होता जा रहा है ।
“मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता”, “चलिए ! कुछ मीठा हो जाय” आदि बानगी कुछ ऐसे विज्ञापनों की है, जो व्यक्ति की रस-बुद्धि को दृढ़ करती है । तेज गति के इंटरनेट का उपयोग करते हुए आधुनिक कंप्यूटर और सोशल मीडिया, जिज्ञासा (curiosity) शान्त और ज्ञान प्राप्त करने का बहुत ही अच्छा साधन है । क्या आप जानते हैं कि इस मुफ़्त सेवा के बदले ये आज के युवा को क्या परोसा जा रहा है ? ज़रा गूगल से ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक प्रश्न पूछ कर देखिए अथवा यूट्यूब पर जाकर जिज्ञासा शान्त करने का प्रयास कीजिए । आपकी जिज्ञासा शान्त करने के साथ-साथ कामोत्तेजक वीडियो उपहार में मिलेंगे । यह सब आपकी रसबुद्धि को बढ़ाने में सहयोग देते हैं ।
कहने का अर्थ है कि आप चाहते हुए भी विषय का इंद्रियों से संयोग होना रोक नहीं सकते । संसार में रहते हुए विषयों का इंद्रियों से होने वाले स्पर्श को केवल आप अपने संकल्प (decision) से रोक सकते हैं परन्तु आपके आस-पास के वातावरण से मिलने वाले परोक्ष (indirect) स्पर्श को नहीं । इसको रोकने के लिए तो आपको भौतिक और यान्त्रिक संसार से दूर जाना होगा । ऐसी व्यवस्था हमारी संस्कृति में पहले से ही है । तभी तो एक अवस्था के बाद वन में चले जाना होता था, जिससे स्वतः ही भौतिक और यांत्रिक (mechanical) वातावरण वाले संसार का त्याग हो जाता था ।
हमने अभी तक मुख्य रूप से सांसारिक बुद्धि युक्त मनुष्य के सुख-दुःख का विवेचन किया है । आध्यात्मिक बुद्धि रखने वाले मनुष्य की सोच इसके ठीक विपरीत होती है । वह जानता है कि जिस विषय-भोग से सुख का अनुभव हुआ है, उसका प्रारम्भ हुआ है तो एक न एक दिन अन्त आना भी निश्चित है । उसके जीवन में जब सुख का आगमन (entery) होता है तो वह अधिक उत्साहित नहीं होता क्योंकि वह जानता है कि यह सुख भी एक दिन चला जाएगा । न तो वह दुःख मिलने पर त्रस्त (afraid) होता है, त्राहि-त्राहि भी नहीं करता क्योंकि वह जानता है कि यह भी एक दिन चला जाएगा ।
विषय के इंद्रिय से स्पर्श को होने से रोकना प्राकृतिक रूप (natural) से संभव ही नहीं है । ऐसे में हमें क्या करना चाहिए जिससे हम सुखी-दुःखी न हों ? हम जानते हैं कि संसार के सभी विषय-भोग ही मनुष्य को सुख-दुःख तथा अनुकूलता-प्रतिकूलता (pro and anti) देने वाले हैं । साथ ही यह भी निश्चित है कि ये स्थाई रूप से रहने वाले (forever) न होकर आने-जाने वाले हैं । अतः इनको सहन करना ही आध्यात्मिक बुद्धि वाले मनुष्य के लिए उपयुक्त है । सांसारिक बुद्धि वाला मनुष्य ही इन परिस्थितियों में सुखी-दुःखी होता है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा भी है कि “आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत:” अर्थात् हे अर्जुन ! ये सब आने- जाने वाले और अनित्य है, अतः तू इनको सहन कर ।
इस प्रकार आध्यात्मिक बुद्धि वाला पुरुष दोनों ही प्रकार की परिस्थितियों में अपनी समता (balance) को नहीं खोता । “समत्व योग उच्यते” अर्थात् समत्व को ही योग कहा जाता है । योग का अर्थ है, स्वरूप तक पहुँचना, आत्मबोध को उपलब्ध हो जाना । इस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति में और परमात्मा में फिर कोई भिन्नता नहीं रहती ।
बुद्धि तो प्रत्येक मनुष्य की विकसित हुई है और अभी वह और अधिक विकसित होने की ओर अग्रसर है । अगर वह अपनी बुद्धि का उपयोग शरीर और संसार के सुख के लिए करता है, तो ऐसी विकसित बुद्धि उसे केवल जड़ता की ओर ही ले जा सकती है । मनुष्य का जीवन जड़ता के त्याग (sacrifice) के लिए है और उसे अपने जीवन में बुद्धि का उपयोग इसी दिशा में करना चाहिए । सांसारिक सुख तो आदि-अन्त वाले है, इनमें आसक्त होना मनुष्य को दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता । ऐसा विचार कर मनुष्य को अपनी बुद्धि की दिशा बदलनी चाहिए ।
सांसारिक बुद्धि को अज्ञान (ignorance) कहा जा सकता है और आध्यात्मिक बुद्धि को ज्ञान । अज्ञान के कारण ही मनुष्य सुख-दुःख का अनुभव करता है अन्यथा ये दोनों मानसिक अवस्था के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । जब सुख की आशा में बाधा उत्पन्न होती है तब जीवन में दुःख का आगमन होता है । मन में सुख की इच्छा न रखें तो दुःख उत्पन्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा । जब इस बात का ज्ञान मनुष्य को हो जाता है तब वह संसार के भोगों में आसक्त नहीं होता । मन के कारण सुख-दुःख शरीर को मिलता है । शरीर को अपना मान लेना ही सबसे बड़ा अज्ञान है । इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि जो इंद्रिय और विषय का संयोग है, उसमें आसक्त होकर लोग भोगों में डूब जाते हैं । मनुष्य जीवन का उद्देश्य अपने विवेक को जाग्रत कर किसी भी प्रकार के संयोगजन्य सुख में रमण नहीं करना है ।
आइए! पुनः चलते हैं, गीताजी के उस श्लोक की ओर जिसमें भगवान कह रहे हैं कि जो इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले सुख हैं, वे आदि और अन्त वाले हैं और दुःख के कारण हैं। इनमें विवेकशील मनुष्य रमण नहीं करता । (5/22) । प्रकृति परिवर्तनशील है, उसका प्रारम्भ भी है और अन्त भी । जो आज यहां आया है, वह कल यहां से अवश्य जाएगा । यहाँ रहेगा तो केवल शाश्वत (eternal), सनातन । फिर आने-जाने वाले में मन को क्या लगाना ? मन को परमात्मा में लगाएं, जो सदैव हमारे साथ रहने वाले हैं । केवल बुद्धि ही इस बात को समझ सकती है । यही कारण है कि आने-जाने वाली, बदलती परिस्थितियों में विवेक रखने वाला कभी विचलित नहीं होता ।
देखा जाए तो संसार दुःखालय ही है । सुख की अनुभूति तो क्षणिक है, बाद में तो केवल दुःख ही शेष रहता है क्योंकि सुख के प्रतिपल जाने का भय ही मनुष्य को दुःख की और धकेल देता है । आध्यात्मिक बुद्धि वाला मनुष्य इस बात को मानता है । इसीलिए वह सुख में तल्लीन नहीं होता जिससे वह दुःखी होने से बच निकलता है ।
हमारा स्थूल शरीर (gross body) जो दिखलाई पड़ता है उसे ही हम सब कुछ मान बैठे हैं । हमारे इस स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर (subtle body) भी है, जिसको अंतःकरण कहा जाता है । अंतःकरण के मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार, ये चार भाग हैं । अंतःकरण के जिस भाग में कामना (desires) उत्पन्न होती है, सुख-दुःख का अनुभव होता है, सोच-विचार (thoughts) चलते हैं, उसे मन कहा जाता है । जहां सारे कर्म संग्रहित (store) होते है, अधूरी कामनाओं का संचय होता है, अंतःकरण का वह भाग चित्त कहलाता है । अंतःकरण के जिस भाग में निर्णय लेने की क्षमता पैदा होती है, विवेक पैदा होता है, वह बुद्धि कहलाती है । अंतःकरण का जो भाग व्यक्ति के अस्तित्व (existence) से जुड़ा होता है, जो अपने को इस शरीर के आकार के साथ एकाकार कर लेता है, वह अहंकार कहलाता है । मन से सूक्ष्म चित्त है, चित्त से सूक्ष्म बुद्धि है और सबसे सूक्ष्म अहंकार है ।
अहंकार अंतःकरण में सर्वोच्च स्थान रखता है । उसके नीचे बुद्धि का स्थान है और फिर मन का । अहं बुद्धि के माध्यम से निर्णय कर मन को निर्देशित (direct) करता है और फिर मन इंद्रियों के माध्यम से अहं को विभिन्न प्रकार के विषय-भोग उपलब्ध कराता है । जीवात्मा शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर स्वयं को अहं समझने लगता है । इस प्रकार अहं जो भी इंद्रियों के माध्यम से विषय-भोग प्राप्त करता है, उसका भोक्ता अप्रत्यक्ष रूप से जीवात्मा ही है । शरीर में रहते हुए जीवात्मा भोक्ता होकर ही आवागमन के चक्र से बंध जाती है अन्यथा तो वह परमात्मा की तरह मुक्त ही है ।
अंतःकरण का सबसे महत्वपूर्ण भाग बुद्धि है क्योंकि यह अंतःकरण का एक मात्र भाग है जिसमें सटीक निर्णय लेने की क्षमता है । ज्ञान और विवेक इसी भाग में उत्पन्न होते हैं । बुद्धि को मन और अहंकार को जोड़ने वाला सेतु कहा जाता है । मन को नियंत्रित (control) करने में भी इसकी भूमिका रहती है । अहं के निर्देश पर उचित निर्णय कर उसे मन तक पहुँचाना इसका मुख्य कार्य है । मनुष्य को अपने जीवन में मिलने वाले, आदि-अंत वाले सुख-दुःख को पहिचानने में बुद्धि की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है ।
कठोपनिषद् में यम-नचिकेता संवाद वर्णित है । एक रूपक के माध्यम से यम ने नचिकेता को विषय, शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि और शरीर में स्थित जीवात्मा की भूमिका स्पष्ट की है । आइए ! इस रूपक के माध्यम से यह जानें कि इस भौतिक शरीर में बुद्धि की क्या भूमिका है ।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च ।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषीण: ।। कठोपनिषद् -1/3/3-4।।
यम कहते हैं कि हे नचिकेता ! तुम जीवात्मा को तो रथ का स्वामी समझो, शरीर को यह रथ, बुद्धि को सारथि समझो और मन को लगाम । ज्ञानीज़न इंद्रियों को घोड़े बतलाते हैं, विषयों को इन घोड़ों के विचरण का मार्ग कहते हैं और मन और इंद्रियों के साथ इस शरीर में रहने वाले जीवात्मा को भोक्ता कहते हैं ।
रथ (शरीर) के सफल संचालन (operation) में सारथि (बुद्धि) का महत्वपूर्ण स्थान है । सारथि (बुद्धि) ही लगाम (मन) के माध्यम से घोड़ों (इंद्रियाँ) को साधता है, जिससे वह ऊबड़-खाबड़ रास्तों (विषयों) की ओर अनियंत्रित होकर विचरण न करे । इस प्रकार स्पष्ट है कि बुद्धि की मज़बूत पकड़ मन पर होनी चाहिए । जब-जब बुद्धि मन के समक्ष ढीली पड़ती है, मनुष्य इंद्रियों पर अपना नियंत्रण खो देता है । रथ (शरीर) में बैठे मालिक रथी (जीवात्मा) की राह स्पष्ट है । उसे परमात्मा के साथ एकाकार होना है । इसके लिए आवश्यक है कि बुद्धि, इंद्रिय-विषय संयोग से प्राप्त भोग से मन को विचलित न होने दें । मन के विचलित होते ही इंद्रियाँ विषय-भोग प्राप्त करने के लिए इधर-उधर दौड़ने लगेगी । इस प्रकार जो जीवात्मा शरीर के माध्यम से परमात्मा तक पहुँचने का उद्देश्य रखता है, वह संसार में भटकते हुए उसमें उलझ कर बन्ध जाएगा और आवागमन के चक्र में फँस जाएगा ।
लेख के प्रारम्भ में आदिमानव के विकास की बात कही थी । आदि मानव रूप, रंग और आकार में विकसित होता हुआ आधुनिक मानव की अवस्था तक आ गया है । इस अवधि में मनुष्य के शरीर का समुचित विकास तो हुआ ही है परंतु उसकी बुद्धि का जो विकास हुआ है, वह बड़ा ही महत्वपूर्ण है । बुद्धि के विकास से मनुष्य की सोचने-विचारने की क्षमता (capacity) बढ़ी है । इस क्षमता का सदुपयोग करके ही मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है । शरीर के सुख को प्राप्त करने में बुद्धि को लगा देंगे, तो स्वरूप तक कैसे पहुँच पाएँगे ? मनुष्य को अपने समक्ष आये इस महत्वपूर्ण प्रश्न की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।
मनुष्य जीवन किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मिला है । उस उद्देश्य को प्राप्त करने में बुद्धि सहयोगी है । इसलिए बुद्धि को केवल एक ही दिशा में लगाना चाहिए । आत्मकेन्द्रित (centralized) बुद्धि आत्म-बोध (realization) कराते हुए स्वरूप तक पहुँचा देती है । बुद्धि को जब विभिन्न दिशाओं में लगाने का प्रयास करते हैं तो वह भ्रमित हो जाती है जिसके कारण मनुष्य संसार में निरुद्देश्य भटकने लगता है ।
सांसारिक व्यक्ति की बुद्धि शरीर-सुख को प्राप्त करने के लिए विभिन्न दिशाओं में भटकती है । ऐसी बुद्धि को अनेक शाखाओं (multidirectional) वाली कहा जाता है । यही कारण है कि सांसारिक बुद्धि वाला मनुष्य दुःख भोगता रहता है । दुःख मिटाने का एक ही उपाय है कि इस भटकती बुद्धि को एक ही स्थान पर केंद्रित किया जाय । मनुष्य की बुद्धि जब आत्मकेन्द्रित हो जाती है तभी उसका वांछित (desired) परिणाम मिलता है और व्यक्ति संसार की वास्तविकता से परिचित होता है । वह संसार में रहते हुए अपने समक्ष आने-जाने वाली परिस्थितियों का सदुपयोग कर दुःख से निवृत्ति पा लेता है । आत्मकेन्द्रित बुद्धि ही जानती है कि संसार के सभी सुख संयोगजन्य है और आत्मा का उनसे तनिक भी सम्बन्ध नहीं है । अब प्रश्न उठता है कि बुद्धि को आत्मकेन्द्रित करना क्यों आवश्यक है ?
प्रश्न है कि बुद्धि को आत्मकेन्द्रित करना क्यों आवश्यक है ? इसके लिए हमें पहले यह जानना होगा कि बुद्धि का विकेंद्रीकरण क्यों होता है ? बुद्धि बहुशाखाओं वाली क्यों हो जाती है ? इन्दियाँ विषय से संयोग कर मन को अपने प्रभाव में ले लेती है । हालाँकि इंद्रियों से सूक्ष्म मन है परंतु विषय-रस का प्रभाव मन पर नशे की तरह ऐसा छा जाता है कि मन भी इंद्रियों का अनुगामी बन जाता है । मनुष्य के जीवन में भटकाव होना मन के कारण ही होता है । इसीलिए कहा जाता है कि मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है । बुद्धि मन से सूक्ष्म है अर्थात् बुद्धि का स्थान मन से ऊपर है । कहने का अर्थ है कि मन पर बुद्धि का प्रभाव रहता है बुद्धि पर मन का नहीं । विषय-भोग की आसक्ति इस प्रभाव को विपरीत दिशा दे देती है जिसके कारण मन बुद्धि से अधिक शक्तिशाली होकर उस पर अपना प्रभाव जमा लेता है ।
मन के बुद्धि पर प्रभावशाली होते ही मन की चंचलता बुद्धि पर भी असर डालना प्रारंभ कर देती है जिससे बुद्धि स्पष्ट रूपसे कोई निर्णय नहीं कर पाती । वह जो भी निर्णय करती है, वह मन के अनुसार होता है और मन कभी एक निश्चित दिशा में नहीं चल सकता । मन की दिशाहीन गति बुद्धि को भी भ्रमित कर उसको निर्णय करने के लिए आत्मकेन्द्रित नहीं होने देती । निर्णय करने में चूक जाना ही बुद्धि को मन की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है । ऐसी बुद्धि वाला मनुष्य जीवन में कभी भी स्पष्ट रूप से कोई निर्णय नहीं ले पाता और वह संसार में निरुद्देश्य भटकता रहता है ।
निर्णय लेने को क्षमता केवल बुद्धि के पास है । बुद्धि को मन से अलग कर उसको मन पर प्रभावी बनाना आवश्यक है । जीवन में एक लक्ष्य निश्चित करने के लिए आवश्यक है कि बुद्धि को मन की चंचलता से बाहर निकालकर स्थिरता प्रदान की जाय । बुद्धि को स्थिरता की अवस्था तक लाना ही बुद्धि को आत्मकेन्द्रित करना है । आत्मकेन्द्रित बुद्धि ही सही निर्णय कर सकती है । उत्तल लेन्स (convex lens) के माध्यम से सूर्य की किरणों को एक स्थान पर केंद्रित करने के उदाहरण से इस बात को और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है ।
सूर्य का प्रकाश अत्यधिक ऊर्जावान होता है । उसमें किसी भी वस्तु को जला डालने तक की क्षमता होती है । परन्तु उसके प्रकाश की किरणें चारों ओर बिखरी रहती है, जिससे वह किसी वस्तु को एकदम से जला नहीं पाती । यदि उन किरणों को उत्तल लेन्स (convex lens) के माध्यम से एक बिंदु पर केंद्रित कर दिया जाए तो वह प्रत्येक वस्तु को जला डालने की क्षमता प्राप्त कर लेती है । ठीक ऐसा ही हमारी बुद्धि के साथ है । सांसारिक बुद्धि बहुत शाखाओं वाली होती है । इस बुद्धि को आत्मकेन्द्रित करना आवश्यक है । आत्मकेंद्रित बुद्धि ही सांसारिक दुःखों को हरने वाली होती है । यहाँ आकर प्रश्न उठता है कि बुद्धि को आत्मकेन्द्रित कैसे किया जा सकता है ?
बुद्धि को आत्मकेन्द्रित करने के लिए बुद्धि को संसार से हटाकर परमात्मा की ओर लगाना होता है । इस बुद्धि को आध्यात्मिक बुद्धि कहा जाता है । परमात्मा के परायण (devoted) होकर ही बुद्धि को स्थिरता मिलती है । स्थिर बुद्धि जिस व्यक्ति की होती है, वही स्थितप्रज्ञ कहलाता है । स्थितप्रज्ञ व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता और न ही वह इंद्रियजनित सुख-दुःख में रमण करता है ।
बुद्धि को परमात्मा में लगाने का अर्थ है कि मन सहित सभी इंद्रियों का शान्त हो जाना । इंद्रियों के माध्यम से हम विषय-भोग प्राप्त करने के लिए कर्म करते हैं । कर्म करने का वेग जब शान्त हो जाता है तो इंद्रियाँ शान्त हो जाती है । कर्म करने का वेग तभी शान्त होता है, जब बुद्धि स्थिर होती है । बुद्धि भी तभी स्थिर होगी जब वह अपनी दृष्टि मन से हटाकर परमात्मा की ओर कर लेगी । इस प्रकार स्पष्ट है कि बुद्धि और मन को परमात्मा में लगाने से व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो जाता है । जब तक हम कर्म से अपना सम्बन्ध बनाए हुए है, तब तक हम प्रकृति से संबंधित हैं । जब तक हमारा प्रकृति के साथ सम्बन्ध रहेगा, तब तक हम अशान्त ही बने रहेंगे ।
प्रकृति के अन्तर्गत यह संसार और शरीर है । शरीर में इंद्रियाँ हैं । शरीर से श्रेष्ठ इंद्रियों को माना गया है । इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है । मन को शरीर रूपी रथ में जुते घोड़ों (इन्द्रियों) की लगाम कहा गया है । मन के शान्त होते ही इंद्रियाँ भी उदासीन (neutral) हो जाती है । सब मन का ही तो खेल है, मन चंचलता को छोड़ जब शान्त हो जाता है तो इंद्रियाँ स्वतः ही शान्त हो जाती हैं । केवल बुद्धि की स्थिरता ही मन की चंचलता को शान्त कर सकती है ।
“मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय: ।।गीता12/8।।
जब मन और बुद्धि को परमात्मा में लगा देते हैं तब हम स्वयं ही परमात्मा में लग जाते हैं । फिर परमात्मा से हमारी दूरी शरीर रहने भर तक की ही रह जाती है । पूरे विवेचन से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रकृति में स्थित इस शरीर के पास केवल मात्र एक बुद्धि तत्व ही ऐसा है, जो हमें प्रकृति से विमुख कर परमात्मा की ओर ले जा सकता है । इसलिए मनुष्य को इस शरीर के रहते-रहते अपनी बुद्धि में विवेक को जाग्रत कर उसका सदुपयोग करते हुए संसार का साथ छोड़ परमात्मा का संग कर लेना चाहिए ।
संसार में रहते हुए इस शरीर को इंद्रियों के माध्यम से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । कुछ समय पश्चात् इस सुख में कमी आने लगती है । सुख में कमी आना, और अधिक सुख की आशा रखना अथवा सुख प्राप्त करने में बाधा आना ही मनुष्य के दुःख का कारण है । शरीर को होने वाले सुख-दुःख का कारण केवल इंद्रियों और विषयों का संयोग मात्र है । संयोगजन्य सुख-दुःख आदि-अन्त वाले और नाशवान (perishable) होते हैं । इस बात को समझते हुए बुद्धिमान मनुष्य शरीर को मिले सुख-दुःख में रमण नहीं करते । भगवान ने गीता में अर्जुन को यही बात समझाई है कि जो इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले सुख हैं, वे आदि और अन्त वाले हैं और दुःख के कारण हैं। इनमें विवेकशील मनुष्य रमण नहीं करता । ”न तेषु रमते बुध:”।
सार-संक्षेप
संसार में समस्त प्राणियों की लगभग चौरासी लाख प्रजातियां पाई जाती है, जिसमें मनुष्य भी एक है । प्रत्येक जीव का एक शरीर होता है जिसे अष्टधा प्रकृति का कहा जाता है । ये आठ प्रकृतियाँ हैं - पाँच भौतिक तत्त्व (भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश), मन, बुद्धि और अहंकार । सभी प्राणी अष्टधा प्रकृति के हैं । मनुष्य को केवल उसकी विकसित बुद्धि ही अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है । विकसित बुद्धि का ही परिणाम है कि मनुष्य आज ब्रह्मांड (universe) का ओर-छोर जानने में प्रयासरत है । वह अन्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत न रहते हुए अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में लगा हुआ है ।
इंद्रिय से जब विषय का संयोग होता है तब शरीर को सुख अथवा दुःख का अनुभव होता है । प्रत्येक संयोगजन्य सुख का आरम्भ और अन्त होना निश्चित है । ये सब नाशवान है । इंद्रिय और विषय के संयोग से सुख का अनुभव अवश्य होता है परन्तु शास्त्रों में इसे दुःख का कारण कहा गया है । शरीर को प्राप्त होने वाले सभी सुख मनुष्य को इच्छा करने से मिलते हैं । इस प्रकार सुख मिलने की आशा रखना और सुख के मिलने में बाधा उत्पन्न होना ही मनुष्य के दुःख का कारण है ।
प्रकृति के माध्यम से परमात्मा ने मनुष्य को यह उन्नत शरीर (developed body) अपने स्वरूप का साक्षात्कार करने के लिए दिया है । अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन का यही उद्देश्य रखना चाहिए । मनुष्य ने अपने जीवन का उद्देश्य क्या बनाया है, यह उसकी बुद्धि पर निर्भर करता है । सांसारिक बुद्धि शरीर के सुख के लिए कार्य करती है और आध्यात्मिक बुद्धि स्वरूप तक पहुँचने के लिए । सांसारिक बुद्धि को संसार से हटाकर परमात्मा की ओर लगाने से वह बुद्धि आध्यात्मिक हो जाती है । आध्यात्मिक बुद्धि मनुष्य को उसके स्वरूप तक ले जाती है । मनुष्य का स्वरूप भी परमात्मा की तरह सच्चिदानन्द है । परमात्म-परायण होने पर ही मनुष्य को अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का बोध होता है ।
सांसारिक बुद्धि जब आध्यात्मिक बुद्धि में परिवर्तित होती है तभी विवेक जाग्रत होता है । विवेकशील मनुष्य सांसारिक सुख में रमण नहीं करता । वह सुख की आशा का ही त्याग कर संसार से मुक्त हो जाता है ।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
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