Monday, June 10, 2024

छोड़ मन तू मेरा-मेरा.....

 छोड़ मन तू मेरा-मेरा 

         रेल यात्रा के अनुभव भी बड़े रोचक होते हैं । संसार के आवागमन की तरह कोच में यात्री चढ़ते है, बैठते हैं, आपस में बतियाते हैं और गंतव्य आने पर उतरकर चले जाते हैं ।  फिर किसी को कुछ भी याद नहीं रहता कि कौन कब मिला था ? समय पाकर जब किसी से फिर मिलना होता है, तब तक सब कुछ परिवर्तित हो चुका होता है । रेल भी नई, कोच भी नया और सहयात्री भी नए । सब कुछ बदला हुआ सिवाय आपके और उसके । इस प्रकार अनन्त यात्राएं जीवन में होती रहती है, कुछ स्मृति में बनी रहती है और कुछ यात्राओं की यादें धुंधली पड़ जाती है । 

         प्रत्येक यात्रा का अपना अलग ही अनुभव होता है । प्रत्येक अनुभव से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है । सीखना तभी संभव होता है, जब हमारी सीखने की प्रबल इच्छा हो । सीख संसार की भी मिलती है और अध्यात्म की भी । इन यात्राओं से सांसारिक सीख तो प्रायः हम सभी लेते हैं परन्तु कभी कभी आध्यात्मिक जीवन को ऊँचाई देने की सीख भी मिल जाती है । गत दिनों ऐसी ही एक यात्रा के दौरान किसी के मोबाइल पर बज रहा भजन मेरे कानों में पड़ा -“छोड़ मन तू मेरा-मेरा, अन्त में कोई नहीं तेरा” । सुनकर मेरे भीतर से एक आवाज़ आई कि अन्त में ही क्यों, अभी भी मेरा कौन है ? यह “मेरा-तेरा” मानना हमारा भ्रम ही तो है । गोस्वामीजी ने मानस में लिखा भी है - “ मैं अरु मोर तोर तें माया” । फिर अभी तक हम अपने “मैं” और “मेरा” को छोड़ क्यों नहीं पाए हैं ? 

       अपने अल्प से जीवन में यह मनुष्य नाम का जीव ताउम्र क्या करता है ? वह केवल दूसरों पर दृष्टि रखता है, उसे अपनी कोई सुध नहीं है । यह जीवन मिला है - स्वयं को जानने के लिए, आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने के लिए । परन्तु वह करता क्या है ? स्वयं के भीतर न देखकर दूसरों के भीतर झांकने का प्रयास करता है । ऐसे में कहा जा सकता है कि ऐसा मनुष्य जो केवल दूसरे पर दृष्टि रखता है, वह स्वयं को नहीं देख सकता, वह कभी भी आत्म-बोध को उपलब्ध नहीं हो सकता । कभी कभार यदि वह आत्म-बोध की दिशा में  चलने का थोड़ा सा प्रयास करता भी है, तो सांसारिक लोगों की कथित सुखमय दशा देखकर बीच रास्ते से वापस लौट पड़ता है । सांसारिक व्यक्ति का जीवन तभी तक सुखमय प्रतीत होता जब तक इस शरीर में शक्ति और पूर्वजन्म का सुखद प्रारब्ध साथ है । अपनी स्मृति में एक बात सदैव बनाए रखें कि सुखद प्रारब्ध और शरीर में शक्ति, दोनों सदा के लिए साथ नहीं रह सकते ।

               आत्म-बोध को उपलब्ध हुए महात्मा को देखकर उनकी तरह कपड़े बदल लेने से कभी महात्मा नहीं हुआ जा सकता । आज हम अपने चारों ओर इधर उधर फिर रहे लोगों को चोले बदलकर महात्मा बने घूमते देख रहे हैं । चोला बदल लेने से अहंकार छूटता नहीं है, अहंकार को छोड़ने के लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ता है । जैसे रंग बदल जाने से सियार शेर नहीं हो जाता वैसे ही केवल वेश बदलने से व्यक्ति की मानसिकता नहीं बदल जाती । जब दृष्टि दूसरों पर होगी तो परिवर्तन भी बाहरी होगा, केवल दिखावे भर का होगा । व्यक्ति जब तक स्वयं को भीतर से नहीं बदलेगा तब तक उसका उद्धार नहीं हो सकेगा । 

            अगर इस शरीर के रहते व्यक्ति स्वयं को नहीं बदल लेता तो इसका अर्थ है कि उसका यह मनुष्य जीवन भी व्यर्थ चला जाएगा । एक मनुष्य जीवन के व्यर्थ चले जाने का अर्थ है, पुनः चौरासी लाख योनियों में भटकना । इस भटकन का अन्त कब होगा ? कहना बड़ा मुश्किल है । जब तक मनुष्य अपने अहंकार को सिर पर उठाए घूमता रहेगा, तब तक संसार का भँवर उसे अपने भीतर ही घुमाता रहेगा । अतः मनुष्य जीवन का सदुपयोग कर इस संसार-चक्र से बाहर निकलना ही सबसे महत्वपूर्ण है ।

     हम इस संसार-चक्र में आकर फँसे ही इसलिए है क्योंकि हम स्वयं (“मैं”) किसी न किसी दूसरे (“तू” ) को देखकर जीवन जी रहे हैं । यह “मैं” और “तू” का चक्कर ही संसार को चला रहा है । आपने सिक्का तो देखा ही है । प्रत्येक सिक्के की दो सतह होती है । एक तरफ़ उसका मूल्य लिखा होता है और दूसरी ओर उस देश का कोई प्रतीक चिन्ह । असली सिक्के की यह एक निश्चित पहचान होती है । जिस सिक्के की दोनों सतह एक समान होती है, उसको चलन से बाहर कर दिया जाता है । सिक्के की तरह ही यह संसार है, जहां एक ओर किसी का “ मैं” है तो साथ ही दूसरी और कोई “तू” भी है, तभी तो यह संसार चल रहा है । इस दूसरे “तू” का “मैं” भी कोई कम नहीं है । सभी का “मैं” इतना विशाल है कि उनमें आपस में “तू-तू” “मैं-मैं” चलती रहती है, वह कभी ख़त्म नहीं होती । इस आपस की  “तू-तू-मैं-मैं” से ही यह संसार गतिमान बना हुआ है ।

              जब भी “मैं” अथवा “तू” में से किसी एक का अस्तित्व मिटेगा, दूसरे का अस्तित्व स्वतः ही समाप्त हो जाएगा । वास्तव में देखा जाए तो “तू” का अस्तित्व “मैं” पर ही टिका है क्योंकि मैं का तो अपना “मैं” है ही, तू का भी अपना “मैं” है । प्रश्न उठता है कि आख़िर यह “मैं” है क्या ?

            “मैं” को जानना बहुत मुश्किल है । स्वामीजी मैं और मेरा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि शरीर को सब कुछ मान लेना ही व्यक्ति का ‘मैं’ है । मैं सुंदर हूँ, मैं बलशाली हूँ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ , ये ‘मैं’ की कुछ बानगी है । ‘मैं और मेरा’, संयुक्त रूप से शरीर, इंद्रियों, मन आदि के लिए कहा जाता है, जैसे मेरा मन पवित्र है, मेरी दृष्टि अच्छी है, मेरे हाथ सब कुछ कर सकते हैं, मेरा मन चाहे वह सब मैं कर सकता हूँ आदि । इसी प्रकार ‘मेरा’ स्वयं के शरीर से अलग का स्वयं के शरीर के साथ माने गए सम्बन्ध के लिए प्रयुक्त होता है जैसे मेरा धन, मेरी सम्पति, मेरी गाड़ी, मेरा महल, मेरा पुत्र, मेरा मित्र आदि ।

         “मैं और मेरा” अर्थात् शरीर, मन सहित इंद्रियाँ और शरीर के साथ माने गए सम्बन्ध - इन तीनों स्थितियों की समीक्षा करें तो निष्कर्ष निकलता है कि इनको अपना और अपने लिए मानना हमारे अहंकार को पोषित करने का प्रयास भर है । “मैं और मेरा” की आड़ में हमारा अहंकार ही फलता फूलता है । ‘मैं और मेरा’ की विपरीत अवस्था ‘तू और तेरा’ है । स्वयं की तुलना दूसरे से करने पर ही “तू-तेरा” का जन्म होता है । इसी तुलना के वशीभूत होकर मनुष्य भोग और संग्रह में उलझ जाता है ।

           जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसकी दो सतह होती है । दोनों सतह एक समान नहीं हो सकती और यदि किसी सिक्के की दोनों सतहें एक समान होती हैं तो उसे चलन से बाहर कर दिया जाता है । सिक्के की तरह ही मानव भी दो स्तर पर जीता है । एक स्तर तो ‘मैं और मेरा’ का है तथा दूसरा स्तर ‘तू और तेरे’ का है । जिस दिन मैं समाप्त हो जाता है, मेरा, तू और तेरा भी स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं । फिर जैसे सिक्का चलन से बाहर हो जाता है, वैसे ही आप भी संसार-चक्र से बाहर निकल जाते हैं ।

                  मनुष्य के “मैं-मेरा” के पीछे मन की भूमिका मुख्य है । इसी मन के कारण मनुष्य संसार के आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता । शरीर को स्वयं होना मान लेना ही उसका “मैं” है और शरीर से सम्बन्धित सब को अपने लिए मान लेना इसका “मेरा” है । इस प्रकार मन और इंद्रियां ही मुख्य रूप से उसके “मैं-मेरा” की जनक है । मन और इंद्रियों से “मेरा” का विस्तार जब शरीर के बाहर की भौतिक वस्तुओं तक हो जाता है तब मनुष्य धन, जन आदि भौतिक वस्तुओं और व्यक्तियों में आसक्त हो जाता है । वह सोचता है कि इन सबसे मुझे शारीरिक सुख मिलेगा । यह सुख की चाहना उसकी भोग-पदार्थों के प्रति आसक्ति है । यह आसक्ति और अधिक विस्तार पाकर धीरे-धीरे अपने शरीर के संबंधियों तक अपना अधिकार स्थापित कर लेती है । इस प्रकार मनुष्य प्रत्येक सम्बन्ध में अपने सुख को देखने लगता है । सुख की आशा रखना ही मनुष्य के दुःख का सबसे बड़ा कारण है । सुख बाहर से और किसी दूसरे से मिल ही नहीं सकता, सुख तो मनुष्य के भीतर स्वयं में छिपा है, जिसे ज्ञानीज़न आनन्द कहते हैं । 

          आनंद की अवस्था को प्राप्त करना ही इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य है । यह व्यक्ति की आत्म-बोध की अवस्था होती है । आत्म-बोध को उपलब्ध होने का सबसे सरल साधन यही है कि हम अपने “मैं” को समाप्त कर दें । अपना “मैं” समाप्त होते ही “तू” कहीं आस-पास दिखलाई तक नहीं पड़ेगा । “मैं” के समाप्त होने पर आपको इस बात की फ़िक्र तक नहीं होगी कि पास बैठा व्यक्ति क्या कर रहा है ? कोई आपके बारे में क्या सोच रहा है ? जब “मैं” ही समाप्त हो गया तो फिर भला “तू” कहाँ टिक पाएगा । जब तक “मैं” है, तब तक ही “तू” है, अन्यथा तो केवल एक परमात्मा ही है, दूसरा कोई है ही नहीं । 

              “मैं” से “मेरा” का जन्म होता है और “तू” से “तेरा” का । यह “मैं” का “मेरा”, “तू” के “तेरा” को भी पैदा कर देता है । कहने का अर्थ है कि मेरा, तेरा और तू के मूल में सबके अपने-अपने “मैं” ही है । इससे स्पष्ट होता है कि “मैं” ही इस संसार के अस्तित्व को बनाए रखता है । “मैं” के समाप्त होते ही संसार भी ओझल हो जाता है और सर्वत्र परमात्मा की झलक मिलने लग जाती है । संसार का अस्तित्व तभी तक है; जब तक मेरा, तेरा और तू का अस्तित्व है । इसलिए इन तीनों को समूल मिटा डालने के लिए “मैं” को मिटाना आवश्यक है ।

            “मैं” को मिटाना क्यों आवश्यक है ? “मैं-मेरा” और “तू-तेरा” के कारण आपस में सदैव ईर्ष्या और द्वेष चलता रहता है क्योंकि “मैं” और “मेरा” का राग कभी छूटता नहीं है । जीवन में यह राग-द्वेष ही मनुष्य को संसार से मुक्त नहीं होने देता । राग कभी अकेला नहीं रहता, द्वेष सदैव ही उसके साथ चिपका रहता है । जब किसी एक के प्रति राग होता है तो यह निश्चित है कि किसी दूसरे के प्रति द्वेष अवश्य होगा । 

        राग-द्वेष का कारण क्या है, यह मनुष्य के जीवन में कैसे प्रवेश करता है ? मनुष्य के इस शरीर में इंद्रियाँ है और इन इंद्रियों में ही राग-द्वेष स्थित हैं । मनुष्य के शरीर में दस इंद्रियाँ है, जिनके माध्यम से हमें किसी विषय-वस्तु का ज्ञान होता है और साथ ही उनको पाने के लिए कर्म भी इन्हीं इंद्रियों द्वारा ही किए जाते हैं । इन इंद्रियों का राजा है, हमारा मन । मन विषय-वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर इंद्रियों को उनको उपलब्ध कराने का आदेश देता है । जो विषय-वस्तु मन को अच्छी लगती है उसके प्रति तो मनुष्य को राग हो जाता है और जो ख़राब लगती है, उसके प्रति द्वेष ।

         मनुष्य का मन ही “मेरा-तेरा” करता है । मन को सत्ता मिलती है अहं से, अर्थात् “मैं” से । हमारा वास्तविक स्वरूप जो है, वह असीम है परंतु उसको शरीर उपलब्ध होते ही वह संकुचित हो जाता है यानी एक निश्चित सीमा तक (शरीर को) ही वह स्वयं का होना मानने लगता है । अनन्त का अर्थ ही है कि जिसका कोई अन्त नहीं है, जिसको किसी सीमा में बांध नहीं सकते । असीम कभी ससीम नहीं हो सकता । परन्तु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है, वह अपनी अनन्तता को विस्मृत कर एक सीमा में बन्ध जाता है । इस विस्मृति का कारण क्या है ?

           इस विस्मृति का कारण है कि जो शरीर एक निश्चित आकार का है, उसने उस असीम को मोहित कर लिया है । मोह से ज्ञान ढक जाता है । इस अज्ञान के कारण वह स्वयं को उस शरीर की सीमा में बांध लेता है और अपनी असीमता को भूला बैठता है । 

         इस शरीर रूपी “मैं” को जो अच्छा लगता है, इसे जिस किसी से भी सुख-दुःख मिलता है, उसे वह “मेरा” मानने लग जाता है । मनुष्य का मन अपने शरीर के लिए सुख की चाहना करता है । इस चाह को पूरा करने के लिए वह भोग पदार्थ और व्यक्तियों का सहारा लेता है । जिनसे उसे सुख मिलता है अथवा जिनसे उसे सुख मिलने की संभावना नज़र आती है, उनको वह अपना और अपने लिए मानने लगता है । इस प्रकार मनुष्य का “मैं” अपना एक “मेरा” बना लेता है । स्पष्ट है कि यह शरीर ही “मैं” हो जाता है और इसका बनाया संसार ही “मेरा” कहलाता है । जिससे उसे दुःख मिलता है अथवा सुख मिलने में बाधा पहुँचती है, उसके प्रति द्वेष पैदा हो जाता है और इस प्रकार “तू-तेरा” का जन्म होता है । फिर मैं और तू के मध्य तू-तू, मैं-मैं होने लगती है और मनुष्य संसार में उलझ कर रह जाता है । यही संसार-बंधन है । 

          जब तक “मेरा” (संसार) से सम्बन्ध नहीं छूटता तब तक “मैं” भी (शरीर से) मुक्त नहीं होता । “मैं” जब तक अपने वास्तविक स्वरूप तक नहीं पहुँचेगा तब तक जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियां आती-जाती रहेगी । इन परिस्थितियों के निर्माण में हमारे मोह (अज्ञान) की भूमिका ही है । यह अज्ञान जिस दिन मिट जाएगा, मोह भी समाप्त हो जाएगा । जब शरीर और संसार के प्रति मोह समाप्त हो जाएगा, तत्काल ही वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाएगा । सबसे बड़ी समस्या है कि मनुष्य का यह मोह छूटना ही असंभव है ।

          शरीर और संसार के प्रति मोह को स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त दे रहा हूँ । मोहग्रस्त एक व्यक्ति अपने जीवन में सदैव ही अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से दो-चार होता रहता था । जब व्यक्ति के सामने प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती है, तब वह उनसे बाहर निकलने के लिए प्रायः शास्त्र और सन्त का सहारा ढूँढता है । यह व्यक्ति भी प्रतिकूलता से मुक्ति पाने के लिए प्रायः संतों के पास जाता रहता था, शास्त्र भी पढ़ता था परंतु फिर भी वह इनसे मुक्त नहीं हो पा रहा था । वह चाहता तो बहुत कुछ था परंतु अथक प्रयास करने के बाद भी वह ऐसा करने में सफल नहीं हो सका ।

             सत्संग और स्वाध्याय करने वह बैठता तो था, परंतु उसका ध्यान इस ओर पूर्ण रूप से नहीं लग पा रहा था । सत्संग के समय उसका मन कहीं किसी दूसरी दिशा की ओर भटकने निकल पड़ता था । बार- बार प्रयास करके मन को सत्संग में लगाता भी था, परन्तु कोई न कोई नई बाधा उसके मन को फिर से किसी नई दिशा की ओर ले जाती थी । इस प्रकार वह मन के पूर्ण रूप से अधीन हो गया था ।

           उस व्यक्ति की समस्या बड़ी गंभीर थी और उस समस्या से बाहर निकलने का वह प्रयास भी कर रहा था । अंततः किसी व्यक्ति ने उसे एक पहुँचे हुए संत का नाम और पता बताया । एक दिन वह उन पहुँचे हुए सन्त के पास अपनी समस्या लेकर पहुँचा । सन्त जंगल में एक पहाड़ के पास एकान्त में कुटिया बनाकर रहते थे । सन्त ने उसकी समस्या को गंभीरता से सुना । 

                    सन्त ने पूछा कि वह अपने घर-परिवार में सबसे अधिक किसको चाहता है, किसमें उसका मन लगा रहता है, पत्नी में, पुत्र में, पुत्री में या किसी और में ? वह व्यक्ति बोला कि न तो उसका मन पत्नी में रमता है और न ही किसी संतान में । उसका मन तो सदैव अपनी भैंस में लगा रहता है । दिनभर वह भैंस की देखभाल में ही अपना समय बिता देता है । वह उसको चारा-पानी देता है, प्रेम से उसकी पीठ सहलाता है और सुबह-शाम उसका दूध दूह लेता है । भैंस को तनिक भी असुविधा होने पर उसका मन व्यथित हो जाता है । सब कुछ सुनकर सन्त को उसकी पूरी बात समझ में आ गई ।

           व्यक्ति के पास अपनी समस्या थी और सन्त के पास उस समस्या का समाधान । सन्त जानते थे कि इस व्यक्ति का सत्संग में ध्यान न लगने का एक मात्र कारण उसकी भैंस है । भैंस को वह अपने मन से निकाल नहीं पा रहा है । सन्त ने उस व्यक्ति से कहा कि पहले एक काम करो, तुम इस पहाड़ की गुफा में तीन दिन के लिए जाकर बैठ जाओ । परमात्मा का ध्यान करना छोड़ो, वह तुमसे नहीं हो पाएगा । मन को केवल अपनी भैंस में लगाओ । ध्यान केवल भैंस का करो और एक ही बात बार-बार कहते रहो - “भैंस-भैंस”; “भैंस-भैंस” “मेरी भैंस”, “मेरी प्यारी प्यारी भैंस” । इस प्रकार भैंस में तेरा ध्यान लग जाएगा, फिर मन इधर-उधर नहीं भटकेगा । तीन दिन तक न भूख की चिंता करो, न प्यास की । व्यक्ति बोला कि महात्माजी, इसमें मेरी समस्या का समाधान कहाँ है ? सन्त ने कहा कि समस्या के समाधान की बात हम तीन दिन बाद करेंगे, अभी तो तुम जाकर गुफा में बैठ जाओ और अपनी भैंस का चिंतन करो, उसी के ध्यान में रमे रहो ।

        जब आपका ध्यान, आपका चिन्तन आपके मन चाहे पदार्थ (विषय) का होता है, तब न तो आपको भूख लगती है और न ही प्यास सताती है । इसे ही राग होना अथवा आसक्ति होना कहते हैं । धन में आसक्ति रखने वाला भोजन, पानी, उत्सर्जन की क्रियाएँ आदि सब कुछ भूल जाता है । हाँ, उसके पास धन आते रहना चाहिए । जितना ध्यान उसका धन पर रहता है, उसका थोड़ा सा भी अंश अगर परमात्मा पर रहे, तो उस मनुष्य का कल्याण होना निश्चित है । धन के चिन्तन में परमात्मा की स्मृति नहीं रहती परंतु परमात्मा में ध्यान के समय भी धन का चिंतन भीतर सदैव चलता रहता है ।

         सन्त तो उस व्यक्ति को गुफा में भेजकर परमात्मा के चिंतन में लीन हो गए । वे भूल भी गए कि कोई उनके पास अपनी समस्या के समाधान के लिए आया है । तीन दिन बीतने पर सन्त को उस व्यक्ति का ध्यान आया । उन्होंने गुफा की ओर देखते हुए आवाज़ लगाई कि तीन दिन हो गए है, अब बाहर आ जाओ । आवाज़ देने के बाद भी वह व्यक्ति गुफा से बाहर नहीं आ रहा था ।

           जब बहुत समय बीत जाने के बाद भी गुफा के भीतर से उस व्यक्ति ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तब सन्त ने गुफा के प्रवेश द्वार की ओर दृष्टि डाली । सन्त ने देखा कि वह व्यक्ति गुफा के द्वार तक आता है, बाहर निकलना भी चाहता है, फिर भी बाहर निकल नहीं रहा है । उन्होंने उसको आवाज़ भी दी परन्तु प्रत्येक बार “आ रहा हूँ” कहकर भी वह बाहर निकल नहीं रहा था ।

            आख़िर सन्त उस गुफा के द्वार पर जाकर उसको पूछते हैं कि वह गुफा से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहा है ? व्यक्ति ने सन्त को जो उत्तर दिया, उसे हम सबके लिए जानना बड़ा ही महत्वपूर्ण है । वह व्यक्ति कहता है कि मैं गुफा से बाहर निकलने का प्रयास तो करता हूँ, पर क्या करूँ, हर बार मेरे सींग इसके दरवाज़े में अटक जाते हैं । बड़ा ही हास्यास्पद है उसका यह कथन ! एक इंसान के भला सींग कैसे हो सकते हैं ? जब कोई मनुष्य ऐसा कह रहा है, तो उसके कथन में कुछ न कुछ विशेष अवश्य है । सन्त ने कहा कि तुम्हारे सींग कहाँ है, जो गुफा के दरवाज़े में अटक जाते हैं । उस व्यक्ति ने कहा - “मेरे तो सींग नहीं है परन्तु मेरी भैंस के तो है न । वे सींग ही तो दरवाज़े में अटक रहे हैं ।” सन्त समझ गए कि भैंस के चिंतन ने इस व्यक्ति को भी भैंस बना दिया है । वास्तव में व्यक्ति भैंस बनता नहीं है बल्कि सतत चिंतन से अपने आप को भैंस अवश्य ही समझने लगता है ।

           मनुष्य का मन जिसका ध्यान करता है, वह मानसिक रूप से वैसा ही हो जाता है । चित्रकार को जब चित्र बनाना होता है, तो वह उस चित्र की कल्पना को साकार करने के लिए कुछ समय उसी प्रकार के वातावरण, व्यक्तियों और जीवों के आस-पास समय बिताता है, तब जाकर वह जीवन्त चित्र बनाने में सफल होता है ।

          सन्त तत्काल ही अपनी कुटिया में गए और दर्पण लाकर उस व्यक्ति के सामने करते हुए बोले - “ देख इस दर्पण में अपना चेहरा और बता कहाँ है इसमें सींग ?”  व्यक्ति ने दर्पण में अपना चेहरा गंभीरता से देखा और आश्चर्यचकित रह गया कि वास्तव में उसके चेहरे पर सींग है ही नहीं । सींग नहीं है तो फिर इस गुफा के दरवाज़े में अटक क्या रहा है ? 

       गुफा के दरवाज़े में व्यक्ति के न तो सींग अटक रहे थे, न वह स्वयं ही अटक रहा था । सतत भैंस का चिंतन करते रहने से दरवाज़े में उसका मन अटक रहा था । उसका मन भैंस में आसक्त था । यह सत्य है कि व्यक्ति जिसका चिन्तन करता है, उससे उसका पीछा कभी नहीं छूटता । जिसका चिंतन होता है, वह व्यक्ति फिर वही हो जाता है । पुनर्जन्म में मिलने वाले शरीर का आधार भी यही चिन्तन है । तभी तो भगवान गीता में कहते हैं कि शरीर के अंतकाल में जो मनुष्य जिसका चिंतन करता है, नए जन्म में उसे उसी अनुरूप शरीर मिलता है । 

        संसार के चिंतन का त्याग कर देना ही ध्यान की पराकाष्ठा है । सांसारिक चिन्तन के कारण मनुष्य का मन संसार और उसके भोग-पदार्थों में अटका रहता है । इस संसार में मन की यह अटकन ही व्यक्ति को चौरासी में भटकाती है और अनेकों मानव जन्म लेकर भी उसकी संसृति से निवृति नहीं हो पाती । चिंतन मन को निर्मल नहीं होने देता । केवल अमल मन के द्वारा ही आत्म-बोध को उपलब्ध हुआ जा सकता है ।

        “मैं” उसका मन है और “मेरा” उसका सांसारिक राग है अर्थात् भैंस है । मन से जब भैंस निकल जाएगी, तब वह संसार से मुक्त हो सकेगा उससे पूर्व नहीं । परन्तु मन से भैंस का निकलना इतना सरल नहीं है । जिसका ताउम्र हम चिंतन करते हैं, उसी चिंतन ने हमें असीम होते हुए भी एक सीमा में बाँध दिया है । यह निश्चित सीमा का बंधन ही हमारा संसार अर्थात् “मेरा” बन जाता है और इस संसार में आसक्त यह शरीर ही “मैं” बन  जाता है । वास्तव में देखा जाए तो “मैं” ससीम नहीं है बल्कि असीम है ।

           अहं अर्थात् “मैं” (जीवात्मा) असीम है परन्तु उसमें जब “ मेरा” का भाव पैदा हो जाता है, तब वह शरीर में आकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर स्वयं को मन (अंतःकरण) के रूप में परिवर्तित कर लेता है । मन को संसार के विषय-भोग रुचते हैं । विषय-भोग सांसारिक पदार्थों से मिलते हैं । पदार्थ में क्रियाएँ चलती रहती हैं और इन क्रियाओं से मनुष्य को पदार्थ में व्याप्त रस का अनुभव होता है । जब तक अनासक्त होकर विषयों को भोगेगा, तब तक वह मुक्त ही है । परन्तु मनुष्य का मन भोगों को त्यागपूर्वक भोगने में विश्वास ही नहीं करता, तभी तो विषय उसके मन से जीतेजी निकल नहीं पाते । जीतेजी ही क्या, शरीर छोड़ने के बाद भी नए शरीर को पाकर वह पुनः उन्हीं विषयों में आसक्त हो जाता है ।

              इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त भोग-रस का वह स्वाद लेने लगता है, जिसके कारण वह इनके विषयों के प्रति आसक्त हो जाता हैं । वह चाहता है कि उसे ये भोग सदैव मिलते रहें । भोगों की निरंतरता बनाए रखने के लिए वह इन पदार्थों के (जोकि इस रस के मूल है) संग्रह में लग जाता है । परिग्रह अर्थात् पदार्थों के संग्रह पर अधिकार जताने के लिए उनको “ मेरा” कहा जाता है । क्या इनको “मेरा” कहा जाना उचित है ?

                    संसार स्वयं परिवर्तनशील है । आज जो हमारी दृष्टि में जैसा है, वह कल वैसा नहीं रहेगा । नदी की बहती जलधारा की तरह ही यह संसार है । जिस जल-धारा में अभी-अभी आपने डुबकी लगायी है, तत्काल ही आप उसी जल में दुबारा डुबकी नहीं लगा सकते । इतने से अल्प समय में ही वह जल बहते हुए आपसे दूर, बहुत दूर चला गया है । संसार की यह परिवर्तनशीलता ही आपके द्वारा “मेरा” कहने पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है । 

           इसी प्रकार समय के बारे में कहा जा सकता है, वह भी बहता रहता है । समय भी मुट्ठी में भरी रेत की तरह हाथ से फिसलता जा रहा है । जो कार्य आप अभी कर रहे हो, उस समय को आप बांध कर नहीं रह सकते । निकला हुआ समय लौटकर वापस नहीं आता । परमात्मा सृष्टि के रूप में व्यक्त हुए है, उनका यह सृजन ऐसा है कि उसमें प्रतिपल परिवर्तन होता रहता है, यहाँ तक कि ब्रह्मांड के तारों और उनके सौरमण्डल में स्थित ग्रहों और उपग्रहों की एक स्थिति को भी फिर दुबारा उसी स्थिति में कभी भी नहीं देखा जा सकता । 

             इस संसार में इतनी अनिश्चितता भरी है कि उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती । यहाँ इतनी अनिश्चितता भरी है और एक हम हैं जो “तेरा-मेरा” के चक्कर में पड़कर संसार और शरीर को ही स्थाई समझने लगे हैं । ऐसे में प्रश्न उठता है कि “मैं” का “मेरा” क्या है ? 

                       संसार-चक्र सदैव घूमता रहता है । इसको गतिमान बनाए रखने के लिए “ मैं और तू” तथा “मेरा और तेरा” की भूमिका महत्वपूर्ण है । संसार सदैव गतिमान रहता है, इसीलिए इसको जगत् कहा जाता है । परमात्मा स्वयं सृष्टि के रूप में व्यक्त हुए हैं जिसे जगत् नाम से कहा जाता है । जगत् अर्थात् जो सदैव गतिमान रहता है । इस जगत् को संसार भी कहते हैं । भगवान का अंश आत्मा (जीवात्मा) का जगत् में पदार्पण होता है, आनन्द की अनुभूति के लिए । परन्तु क्या जीवात्मा ने कभी उस आनन्द की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास किया है ?

       आनन्द प्राप्त करने के लिए परमात्मा ने उसे मानव शरीर उपलब्ध कराया है । दुर्भाग्यवश वह इस शरीर को पाकर प्रकृति के गुणों से मिलने वाले सुख को ही आनन्द समझ बैठा है और उस सुख की निरंतरता के लिए उसने अलग से अपना एक संसार बना लिया है । संसार के पदार्थ, व्यक्ति अथवा साधन, जिनसे भी उसे सुख मिला है, मिल रहा है अथवा मिलने की अपेक्षा है, वे सब उसके संसार के अन्तर्गत हैं ।

          उसके स्वनिर्मित संसार में व्यक्ति के रूप में माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, अन्य परिवार जन, मित्र और हितैषी आ जाते हैं । पदार्थ के रूप में वे सभी पदार्थ जिनसे उसे सुख मिलता है जैसे स्वादिष्ट भोजन, पेय पदार्थ और सुगंधित वस्तुएँ आदि आ जाते हैं । साधन में धन, मकान, गाड़ी आदि हैं । ये सभी मनुष्य को इंद्रियों के माध्यम से सुख पहुँचाते हैं । इनके अर्जन के लिए वह विभिन्न कर्म करता है । कर्म के पश्चात् मिलने वाली सुख-सामग्री को वह अपने द्वारा और केवल अपने लिए ही मानता है । अपने द्वारा मानना ही “मैं” है और अपने लिए मानना ही “मेरा” है । अपने द्वारा कर्म कर सुख-सामग्री अर्जित करना उस मनुष्य में अहंकार को जन्म देता है । उसका यह अहंकार ही “मैं” है । स्वार्थ की भावना का जन्म अहंकार से ही होता है जो कि “मेरा” की जनक है । इस स्थिति में अपना और पराया का भाव पैदा होकर “तू” “तेरा” को उत्पन्न करता है ।

           व्यक्ति वह है जो अव्यक्त से व्यक्त हुआ है और मनुष्य वह व्यक्ति है, जो मन के अधीन होकर अपना अव्यक्त स्वरूप भूल गया है । यहाँ मन का अर्थ अंतःकरण से है । वास्तव में अंतःकरण एक ही है । उसके चार विभाग हैं । 

          अंतःकरण के चार विभाग हैं । जिस भाग से व्यक्ति सोचता, विचारता और चिंतन करता है, वह उसका मन है । जिस भाग में जाकर विचार, कर्म, कामनाएं आदि संचित होते हैं, वह व्यक्ति का चित्त है । जो भाग जीवन से संबंधित सभी निर्णय करता है, वह बुद्धि है और जो भाग शरीर के आकार के साथ स्वयं का तादात्म्य स्थापित कर लेता है, वह अहंकार है । 

             अहंकार के तीन प्रकार हैं -  वैकारिक, तैजस और तामस । वैकारिक अहंकार से मन, तैजस अहंकार से इंद्रियों आदि का और तामस अहंकार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्द तन्मात्र आदि  का विकास होता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि अव्यक्त परमात्मा से व्यक्त होने की प्रक्रिया में ही अहंकार की उत्पत्ति हो जाती है । इसका अर्थ है कि अहंकार का अहं ही वह जीवात्मा है, जिसने शरीर को ही अपना होना मान लिया है । शरीर के साथ माने गए बंधन से मुक्त होते ही जीवात्मा अहं से ‘स्व’ हो जाती है । यह स्व ही उसका मूल स्वरूप है अन्यथा आकार (शरीर) तो उसका छद्म रूप है ।

            परमात्मा का इस प्रकार सृष्टि रूप में परिवर्तित होने का उद्देश्य आनन्द को प्राप्त करना था । अव्यक्त से व्यक्त होकर व्यक्ति मन के अधीन होकर मनुष्य बन गया । यह मनुष्य शरीर और संसार के सुख में आसक्त होकर आनन्द को प्राप्त करना भूल गया । जब मनुष्य अपने मूल उद्देश्य को विस्मृत कर देता है, तब भला उसे अपने स्वरूप की स्मृति कैसे रहेगी ? यही मनुष्य जीवन की विडम्बना है ।

          अहं का शरीर के आकार में मोहित हो जाना उसकी बाह्य दृष्टि है । जब यही अहं, स्वयं के भीतर प्रवेश करता है तब उसका अहंकार समाप्त हो जाता है और अहं, स्व के रूप में प्रकट हो जाता है । यह स्व ही उसका वास्तविक स्वरूप है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की यात्रा “अहं” से “स्व” तक की यात्रा होनी चाहिए न कि केवल अहंकार में जीते हुए अपना जीवन समाप्त कर देना ।

            कहाँ तो परमात्मा ने सृष्टि के रूप में जगत् बनकर व्यक्ति को आनन्द प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता दी थी और कहाँ वही मनुष्य अब अपने मन के वशीभूत होकर “मैं-मेरा” और “तू-तेरा” करते करते पदार्थों और भोगों के चक्कर में पड़ गया है । संसार में आकर शारीरिक सुख को ही आनन्द समझ लेना, मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है । जगत् का अर्थ है कि जो सदैव गतिमान रहता है । इस कारण से यहाँ सुख एक न एक दिन दुःख में परिवर्तित अवश्य ही होता है । सूर्य भी उदय होकर अस्त होता है । सर्दी के भी बीत जाने पर गर्मी और फिर बरसात का आगमन होता है । इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का आना-जाना लगा रहता है, जिसके कारण वह बेवजह ही सुखी-दुःखी होता रहता है ।

          सुख-दुःख से परे आनन्द की अवस्था है । मनुष्य का स्वरूप भी चिदानन्द स्वरूप है । वह चैतन्य रहकर ही आनन्द को उपलब्ध हो सकता है । शरीर और संसार में आसक्ति उसकी सुषुप्ति अवस्था की द्योतक है । जाग्रत अवस्था तभी मानी जाएगी जब वह संसार से विमुख हो जाए । संसार से विमुखता ही उसको चैतन्य कर सकती है और चैतन्य अवस्था को उपलब्ध होना ही आनन्द तक पहुँचना है ।

                 समस्या के मूल में राग-द्वेष है । अहंकार के कारण राग-द्वेष पैदा होता है । राग-द्वेष कैसे पैदा होता है, यह जानना महत्वपूर्ण होगा । जो अपने अहं में जीता है, वह संसार में रहकर अपने आप को जिस रूप में दिखाता है, वास्तव में वह वैसा होता नहीं है । साथ ही वह वैसा होना भी छिपाता है, जैसा वास्तव में वह होता है । उदाहरणार्थ व्यक्ति भीतर से जितना क्रूर होगा, बाहर से वह उतना ही सौम्य दिखलाई पड़ेगा । तनिक उसकी छद्म सौम्यता को चिकोटी काट कर देखिए, तत्काल ही उसका क्रूर रूप आपके सामने आ जाएगा ।  अहं में जीने वाले का अहंकार तब तक समाप्त नहीं होगा, जब तक वह दूसरों से अपनी तुलना करना बंद नहीं कर देता । दूसरे की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ समझना ही उसका अहंकार है । 

         मनुष्य दूसरे में कमियां ढूँढता है, स्वयं की ओर उसकी दृष्टि जाती ही नहीं है । जिस दिन वह दूसरों को देखना छोड़ स्वयं को देखना प्रारंभ कर देगा, प्रत्येक प्रकार के राग-द्वेष से ऊपर उठ जाएगा । हम दूसरों को देखकर ही जीते हैं । राग-द्वेष होना यहीं से प्रारंभ होता है । इस प्रकार हमारे पास जो कुछ भी उपलब्ध है, हम उसका आनन्द लेने से वंचित हो जाते हैं ।

         इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मनुष्य स्वयं को न देखकर दूसरे को देखकर जीता है । इसी के कारण पहले अहंकार और फिर  “मैं” और “तू” का जन्म होता है । “मेरे पास जो कुछ है”, यह उसमें उसकी आसक्ति है । आसक्ति ही उसका राग है । जो मेरे पास है, वह किसी दूसरे के पास नहीं होना चाहिए, यह द्वेष है । जो दूसरे के पास है, वह मेरे पास क्यों नहीं है, यह भी राग है और मेरे पास न होकर उसके पास क्यों हैं, यह उसका द्वेष है । इस प्रकार “मेरा-तेरा” के कारण राग-द्वेष का जन्म होता है ।

        राग से कामनाओं का जन्म होता है जो पूरी होने पर लोभ को बढ़ाती है । कामनाओं के पूरी न होने पर बाधक तत्वों के प्रति द्वेष पैदा होकर उनके प्रति क्रोध उत्पन्न होता है । इस प्रकार देखें तो सबके मूल में हमारी आसक्ति, हमारा राग है । यह आसक्ति ही संसार में आवागमन के लिए उत्तरदायी है ।जब तक भोग और पदार्थ के प्रति मन में वैराग्य नहीं होगा, तब तक न तो राग-द्वेष ही समाप्त होगा और न ही चौरासी का चक्कर कभी समाप्त होगा ।

               राग में जीते रहना, मनुष्य का नींद में सोते रहना है । जीवन में वैराग्य का प्रवेश उसके जागरण की घोषणा है । यह जागरण तभी होना संभव है, जब ज्ञान का प्रकाश मनुष्य के अंतःकरण पर पड़े मोह के आवरण को छिन्न भिन्न कर देगा । यह व्यक्ति की चैतन्य अवस्था होगी । चैतन्य अवस्था तक तभी पहुँचा जा सकता है, जब मोह (अज्ञान) मिट जाए । व्यक्ति का मोह तभी मिट सकता है जब उसका “मैं” “मेरा” समाप्त हो जाए ।

          राग और द्वेष, इन दोनों में से किसी एक का समाप्त होना ही पर्याप्त है क्योंकि किसी एक के समाप्त होते ही दूसरा स्वतः समाप्त हो जाता है । “मैं-मेरा” की समाप्ति कैसे होगी, यह जानना ही इस लेख का उद्देश्य है ।   

             मन से अहंकार को बाहर निकाल फैंकने से ‘मेरा’ को निकालना सम्भव हो जाएगा । इसके लिए मनुष्य को अहं की बाहरी दृष्टि को अपने भीतर ‘स्व’ की ओर ले जाना होगा । जो ‘स्व’ का ज्ञान करा दे, वही अध्यात्म-ज्ञान है । अहं में स्थित हुए मनुष्य को ज्ञान का अनुपालन करते हुए ‘स्व’ में स्थित होना होगा । ‘स्व’ में स्थित व्यक्ति ही स्वस्थ कहलाता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के अनुसार “केवल उस व्यक्ति को ही स्वस्थ नहीं कहा जा सकता जो शारीरिक रूप से रोगमुक्त है । बल्कि स्वस्थ व्यक्ति वह है, जो भौतिक, सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी सामान्य है ।” ‘स्व’ में स्थित व्यक्ति ही स्वास्थ्य के इस मापदंड पर खरा उतरता है । इसलिए मैं और मेरा के त्याग के लिए मनुष्य का अहं को त्यागकर ‘स्व’ में स्थित होना आवश्यक है ।

             ‘स्व’ में स्थित व्यक्ति कभी भी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता और न ही उसमें राग-द्वेष ही रहता है । ‘स्व’ ही जीवात्मा के रूप में परमात्मा है । ‘स्व’ में स्थित होने पर ही वास्तविक स्वरूप अर्थात् “अहं ब्रह्मास्मि” प्रकट हो जाता है ।

         ‘स्व’ में स्थित व्यक्ति पहले स्वयं (मैं) में परमात्मा को देखता है, यह “अहं ब्रह्मास्मि” की अवस्था है । उसके बाद व्यक्ति दूसरों (तू) में भी परमात्मा को देखता है, यह “तत्त्वमसि” की अवस्था है । फिर सब जगह और सबमें परमात्मा को देखता है । यह “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” की अवस्था है । यह ज्ञान के द्वारा ब्रह्म तक पहुँचना है, जिससे व्यक्ति व्यष्टि से ऊपर उठकर समष्टि के साथ एकाकार हो जाता है और उसका “मैं-मेरा” बहुत पीछे छूट जाता है ।

        ज्ञान का रास्ता थोड़ा कठिन है क्योंकि ‘स्व’ में स्थित होना कोई हंसी खेल नहीं है । जब तक संसार में सुख दिखलाई पड़ रहा है, तब तक ‘अहं’ का त्याग कर ‘स्व’ की ओर दृष्टि जाना असंभव प्रतीत होता है । ऐसे में व्यक्ति के पास दूसरा रास्ता क्या हो सकता है ? इस सुगम रास्ते को जानने के लिए थोड़ा बुद्धि का उपयोग करना होता है ।

          अगर हम अपने संसार पर दृष्टि डालें तो अनुभव होगा कि जो पदार्थ हमने भोग के लिए इकट्ठे किए हैं, वे कल किसी अन्य के पास थे और भविष्य में वे किसी और के पास चले जाएँगे । ऐसे में उन्हें  अपने “मैं” के कारण “मेरा” कहना अनुचित है । जो व्यक्ति हमारे अपने हैं, वे भी पूर्वजन्म में किसी और के अपने थे और भावी जन्म किसी अन्य के अपने होंगे।

                राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति के बच्चे की अकाल मृत्यु हो जाने पर उनके अनुरोध पर अंगिरा ऋषि और देवर्षि नारद ने उस बच्चे की जीवात्मा को वापस बुलाया था । उस जीवात्मा ने जो कुछ कहा, वही सत्य है । जीवात्मा ने कहा था - “ मेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं । प्रत्येक जन्म में मुझे माता-पिता अलग अलग मिले हैं । मैं अब आपका पुत्र नहीं हूँ, किसी और का पुत्र हूँ । आप यहाँ मेरे जाने का शोक मना रहे हैं और उधर मेरे जन्म पर उत्सव मनाया जा रहा है ।”

            कहने की मूल बात है कि जो भी सगे-संबंधी, माता-पिता, संतान-मित्र आदि हैं, वे पूर्व-जन्म के कर्मों (प्रारब्ध) से मिले हैं और प्रारब्ध पूरा होते ही बिछड़ जाएँगे । सब ऋणानुबंध के कारण एक दूसरे से बंधे हैं, लेन देन समाप्त होते ही सब अपने रास्ते चल देंगे। फिर कब मिलना होगा, कहा नहीं जा सकता । इसलिए उनमें ममता करना उचित नहीं है ।  

          व्यक्ति का “ मैं” और “ मेरा” का जो निर्माण करता है, उसमें उसकी ममता होती है । ममता, राग और आसक्ति होना, एक ही बात है । इनके मूल में मन ही होता है । मन जहां भी लगता है राग के कारण ही लगता है । इस प्रकार मन ही मनुष्य के बंधन का कारण बन जाता है । किसी के प्रति राग न हो तो फिर मन भी अमन हो जाता है । ऐसे अमन हुए मन में चंचलता नहीं टिकती । 

          जिसमें आसक्ति होती है, मन वहीं लगता है ।  परमात्मा के प्रति राग/आसक्ति नहीं होती बल्कि उनके प्रति श्रद्धा होती है । यही कारण है कि मन को परमात्मा में नहीं लगाया जा सकता । मन की चंचलता ही उसे परमात्मा की ओर जाने नहीं देती । परमात्मा श्रद्धा का विषय है और श्रद्धा बुद्धि में होती है । इस श्रद्धा के कारण बुद्धि तो परमात्मा में लग सकती है परंतु मन नहीं । मन चंचल है, उसको तो परमात्मा में स्थिर (fix) करना पड़ता है और उसका इस प्रकार स्थिर होना केवल बुद्धि के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है । श्रद्धा होने के कारण बुद्धि का परमात्मा में निवेश होता है और मन में चंचलता रहने के कारण उसको बुद्धि के माध्यम से परमात्मा में स्थिर करना होता है । इस प्रकार परमात्मा में श्रद्धा रखते हुए अपने आप को उनके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर देने से ‘मैं’ और ‘मेरा’ से मुक्त हुआ जा सकता है ।

           परमात्मा में स्वयं को समर्पित कर देने का नाम ही शरणागति है । शरणागत, केवल भक्ति के माध्यम से ही हुआ जा सकता है । भक्ति का प्रारंभ ही श्रद्धा के साथ होता है । परमात्मा कोई जानने की वस्तु नहीं है । जिसने इस जगत् को बनाया है अथवा जो स्वयं जगत् बना है, भला उससे बनने वाली वस्तु से बनाने वाले को कैसे जाना जा सकता है ? परमात्मा को तो केवल माना ही जा सकता है और उसकी स्वीकार्यता में महत्वपूर्ण भूमिका बुद्धि में स्थित श्रद्धा की होती है । श्रद्धा ही व्यक्ति को परमात्मा के प्रति समर्पित कर सकती है अन्यथा मन तो सदैव “मेरा-तेरा” करने में ही लगा रहेगा । बुद्धि को परमात्मा में निवेश करने का अर्थ ही स्वयं को परमात्मा के प्रति समर्पित कर देना है ।

            संसार को जानना बुद्धि का विषय है और परमात्मा को मानना भी बुद्धि का विषय है । परमात्मा की स्वीकार्यता और संसार का ज्ञान, दोनों ही बुद्धि के माध्यम से होने सम्भव होते हैं क्योंकि उचित अनुचित का निर्णय करने का कार्य बुद्धि के पास ही है । एक निश्चयात्मक बुद्धि ही ये कार्य कर सकती है । मनुष्य की बुद्धि का अपने निश्चय से डांवाडोल हो जाना तभी संभव है, जब मन बुद्धि पर प्रभावशाली हो । देखा जाए तो मन से सूक्ष्म बुद्धि है । इस कारण से बुद्धि का मन पर प्रभाव होना चाहिए परंतु मन की चंचलता बुद्धि की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित कर देता है । इस स्थिति में मन बुद्धि पर प्रभावी हो जाता है ।

         मन का बुद्धि पर प्रभावी हो जाना एक प्रकार से विपरीत धारा प्रवाह है क्योंकि प्रभाव उच्च पद का सदैव ही निम्न पद वाले पर रहता है । यह विपरीत धारा-प्रभाव तब प्रारंभ होता है जब जीवात्मा संसार और शरीर के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है । इस विपरीत धारा प्रवाह के कारण अहं (जीवात्मा) पर बुद्धि का, बुद्धि पर मन का और मन पर इंद्रियों का प्रबल प्रभाव स्थापित हो जाता है । 

                विपरीत दिशा में हो चुके प्रभाव के कारण इंद्रियाँ स्वतन्त्र होकर विचरण करती हुई विषयों की ओर दौड़ पड़ती है । इंद्रियों के माध्यम से ही शरीर को विषय भोग प्राप्त होते हैं । ज्ञानेंद्रियों से विषय का ज्ञान होता है और कर्मेन्द्रियों के कारण भोग प्राप्त होते हैं  । इससे निष्कर्ष निकलता है कि हमारी इंद्रियाँ कर्ता भी हैं और भोक्ता भी । चूंकि प्रभाव का धारा प्रवाह विपरीत दिशा में हो रहा है, इस कारण परोक्ष रूप से जीव इन भोगों का कर्ता और भोक्ता बन जाता है । वास्तव में जीवात्मा अकर्ता है । अकर्ता का कर्ता बन जाना ही मनुष्य को आवागमन से मुक्त नहीं होने देता । इसके लिए पुनः प्रभाव की धारा को सही दिशा देनी होगी ।

                 इंद्रियाँ विषय-भोग उपलब्ध करवाती है और मन के माध्यम से जीव उसका भोक्ता बनता है । जीव भोक्ता इसलिए है क्योंकि उसकी चाहना से ही इंद्रियों द्वारा भोग प्राप्ति के लिए कर्म किए जाते हैं । इंद्रियों को अपना मानकर उनसे कर्म करवाने वाला कर्ता बन जाता है । इस प्रकार भोग प्राप्त करने के लिए कर्ता बनने वाला ही उन भोगों का भोक्ता हो जाता है । 

             दसों इंद्रियों और जीव (जोकि शरीर को स्वयं होना मानने लग कर अपने आप को ‘मैं’ कहने लगा है) के मध्य मन और बुद्धि, दो तत्व हैं जिनमें मन का कार्य तो जीव की आज्ञा का पालन करते हुए भोग उपलब्ध कराना है और बुद्धि का कार्य जीव की चाहना के अनुसार उपयुक्त निर्णय लेकर मन को निर्देशित करना है । इस प्रकार बुद्धि, मन और जीव के मध्य की कड़ी है, जो उसके भले-बुरे का ध्यान रखते हुए उचित निर्णय लेती है और फिर उसी निर्णय के अनुसार मन को निर्देशित करती है ।

             मन इंद्रियों का सिरमौर है । मन के माध्यम से ही इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित होता है परंतु भोगों की चाहना में डूबा जीव मन को स्थिर ही नहीं होने देता । इस दशा में फिर मन भी विवश हो जाता है । मन पर बुद्धि का प्रभाव रहता है परन्तु जीव द्वारा की जाने वाली विषयों की चाहना मन को इंद्रियों की तरफ़ ले जाती है । इस स्थिति में मन भी इंद्रियों के वश में हो जाता है । इसका प्रत्यक्ष प्रभाव बुद्धि पर पड़ता है और बुद्धि भी विचलित हो जाती है । प्रश्न उठता है कि इंद्रियों के वश हुआ मन ऐसा क्या करता है, जिसके कारण बुद्धि भी विचलित हो जाती है ? इसका उत्तर है - चिन्तन, मन में सतत चलने वाला विषय-चिंतन ।

        मन का विषय-चिंतन बुद्धि को विचलित कर देता है । मन की चंचलता मन को स्थिर नहीं होने देती । विषयों के चिंतन से उस विषय के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है ।आसक्ति से मन में कामना जन्म लेती है । कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध उत्पन्न होता है । फिर मन में “कभी यह करूँ, कभी वह करूँ” ऐसा चिंतन सदैव चलता रहता है जिसके कारण मूढ़ता का जन्म होता है । मूढ़ता से स्मृति-भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है । स्मृति-भ्रम के कारण बुद्धि की निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है । इसको बुद्धि का नाश होना कहते हैं अर्थात् बुद्धि भले-बुरे का निर्णय नहीं कर पाती । बुद्धि का नाश होते ही जीव और मन के मध्य की कड़ी टूट जाती है अर्थात् निष्क्रिय हो जाती है और जीव मन के अनुसार और मन इंद्रियों के अनुसार चलने लगता है । ऐसी स्थिति में इंद्रियाँ विषयों में स्वतंत्र विचरण करने लगती है ।

        इतने विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में अंतःकरण (मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार) की भूमिका बड़ी ही महत्वपूर्ण है । इंद्रियों के वश में हुए मन के कारण ही मैं-मेरा, तू-तेरा की भावना प्रबल होकर रागद्वेष को जन्म देती है । इसलिए अंतःकरण को अपने अधीन करना आवश्यक है और ऐसा करना स्वयं के हाथ में है । शरीर रूपी रथ के स्वामी आप स्वयं हैं । बुद्धि की भूमिका सारथी की है जोकि मन रूपी लगाम के माध्यम से इंद्रिय रूपी घोड़ों को नियंत्रण में रखती है । बुद्धि का निश्चयात्मक होना ही मन को नियंत्रित कर सकता है और नियंत्रित हुआ मन इंद्रियों को विषयों में विचरण करने नहीं देगा ।

               विषय-चिंतन से ही विषयासक्ति और फिर कामना से होते-होते बात मेरा-तेरा तक पहुँच जाती है । अतः एक पल के लिए भी मन में विषय-चिंतन न होने दें । प्रश्न उठता है कि मन को विषय-चिंतन से दूर कैसे रखा जा सकता है ?

       प्रश्न है कि मन को विषय-चिंतन से दूर कैसे रखें ? इस प्रश्न का उत्तर तभी मिलेगा जब हम जान लेंगे कि मन विषयों का चिंतन क्यों करता है ? विषय और शरीर, दोनों ही इस संसार के अन्तर्गत है परंतु जीवात्मा का इस संसार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । जीवात्मा इस संसार के अन्तर्गत जो शरीर है, उसको निरपेक्ष भाव से संचालित करती है । निरपेक्षता सापेक्षता में तब परिवर्तित हो जाती है जब शरीर के द्वारा होने वाली क्रियाओं को वह अपने द्वारा और अपने लिए होना मानकर स्वयं को शरीर समझने लग जाती है । जीवात्मा चैतन्य है और शरीर जड़ । चेतन के अभाव में शरीर मात्र शव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । चैतन्य (जीवात्मा) जब जड़ (शरीर) के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेती है, तब इनके मध्य एक बन्धन बन जाता है, चैतन्य और जड़ का बंधन । इस बंधन के कारण स्वतंत्र जीवात्मा परतंत्र होकर स्वयं को शरीर होना ही समझने लगती है ।

         जड़ शरीर में मन, बुद्धि आदि तो सूक्ष्म शरीर हैं और इंद्रियाँ आदि स्थूल शरीर हैं । इंद्रियाँ तब तक कुछ नहीं कर पाती जब तक उनका विषयों के साथ संयोग नहीं होता । एक बार संयोग होते ही मन को वह विषय अच्छा अथवा बुरा लगने लगता है । इस प्रकार उस विषय का मन में सदैव चिंतन चलता रहता है । चूँकि  जीवात्मा स्वयं को शरीर मानने लग गई है, अतः वह उस विषय में रुचि लेने लगती है । यह विषय के प्रति ही आसक्ति है । यह रुचि ही मन में कामना उठने का कारण है । 

           विषय के प्रति आसक्ति के कारण ही उस विषय को प्राप्त करने की कामना पैदा होती है । उस विषय को बार-बार प्राप्त करने की कामना और उस विषय के प्रति आसक्ति का भाव, दोनों ही मन को उस विषय का चिंतन करने को विवश कर देते हैं । मन उस विषय का चिंतन करते हुए परोक्ष रूप से उसको भोगता रहता है । यह विषय भोग की कामना, उसके प्रति आसक्ति और उसका सतत चिंतन ही मन (मनुष्य) के पुनर्जन्म का आधार है । पुनर्जन्म मन का ही होता है, जीवात्मा तो मन के साथ तादात्म्य होने के कारण उसके साथ दूसरे शरीर में जाने को विवश है ।

      मन के विषय-चिंतन में लगे रहने का कारण जानकर अब आगे बढ़ते हैं, यह जानने के लिए कि मन को विषय- चिंतन से दूर कैसे रखें ? विवेचन से स्पष्ट हुआ है कि मन का विषय-चिंतन बुद्धि को निष्प्रभावी बना देता है । मन से विषय चिंतन रोकने के लिए पहला रास्ता तो बुद्धि को मन पर प्रभावी बनाना आवश्यक है । दूसरा रास्ता है, विषयों से सुख़ न लेना । तीसरा रास्ता है, विषयों को अनासक्त भाव से भोगना । आसक्ति पूर्वक विषयों को भोगने से ही मन में उन विषयों का सतत चिंतन चलता रहता है ।

           ये तीनों मार्ग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को विस्तार से समझाए है । ये तीनों मार्ग हैं - ज्ञान, कर्म और भक्ति । इन तीनों मार्गों की अल्प रूप से चर्चा कर लेते हैं । ज्ञान मार्ग में बुद्धि को स्थिर और एक ही दिशा वाली बनाते हुए मनुष्य को स्थितप्रज्ञ होना होता है । संसार के सभी विषय-भोग अस्थायी और दुःख के कारण है । इनके प्रति आसक्ति रखना ही मनुष्य का बंधन में बंधना है । संसार और शरीर एक ही विभाग (जड़) के अन्तर्गत है जबकि हम स्वयं उनसे अलग है । हमारा उनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । संसार से विमुख हो जाना ही स्वयं को जान लेना है । यही वास्तविक ज्ञान है । शरीर और संसार क्रियाशील है और हम स्वयं अक्रिय हैं । शरीर की क्रियाओं के साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । यह स्वीकार करते हुए हमें किसी क्रिया का कर्ता नहीं बनना है । कर्ता बनना ही बंधन है और आवागमन का रास्ता भी ।

       सबसे महत्वपूर्ण बात, शरीर के साथ जिनका सम्बन्ध है, वह अस्थाई और केवल इस शरीर के रहते ही है । इसलिए शरीर को “मैं” नहीं मानना है और न ही यह “ मेरा” है । जब यहाँ मैं और मेरा कोई है ही नहीं तो फिर तू और तेरा होने का प्रश्न ही शेष नहीं रह जाता ।

           मन को विषय-चिंतन से दूर रखने का दूसरा मार्ग है - कर्म का । वैसे तो सभी प्राणी संसार में रहते हुए कर्म करने को विवश है परंतु मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है, जो कर्मों की दिशा को परिवर्तित कर सकता है । यह दिशा परिवर्तन ही मनुष्य को मेरा-तेरा से मुक्त कर सकता है । मनुष्य अपने जीवन में स्वभावानुसार कर्म करता है । कर्म फल के रूप में प्रथम बार जो विषय-भोग प्राप्त होते हैं, उनसे उसको एक प्रकार के सुख की अनुभूति होती है । यह छद्म सुख ही उसकी आसक्ति और कामनाओं की जनक है । बार-बार कामना पूर्ति के लिए कर्म करना मन में विषय-चिंतन को बढ़ा देता है ।

        जब ज्ञान मार्ग से हमें अनुभव होता है कि मैं शरीर नहीं हूँ और यह शरीर मेरा नहीं है, फिर इसका अर्थ है कि यह शरीर मेरे लिए भी नहीं है । फिर यह शरीर और इससे होने वाले कर्म किसके लिए है ? शरीर संसार में है और संसार का ही एक भाग है । इस प्रकार यह शरीर संसार के लिए ही हुआ, अपना तो इस शरीर के साथ कोई संबंध है ही नहीं । अतः शरीर और इससे होने वाले कर्मों के माध्यम से इस संसार की सेवा करना ही इसका सदुपयोग करना है । 

       स्वयं के लिए कर्म करना मैं और मेरा को जन्म देगा जिससे राग- द्वेष उत्पन्न होकर तू और तेरा को जन्म देंगे । इससे बचने का एक ही उपाय है कि स्वयं के लिए कर्म न कर संसार के जीवों को सुख पहुँचाने के लिए कर्म करें । स्वार्थ बुद्धि का त्याग और समष्टि के कल्याण का भाव कर्म के प्रमुख आधार होने चाहिए । ऐसे कर्म, कभी भी बंधन पैदा नहीं करते बल्कि आत्म साक्षात्कार में सहयोगी होते हैं । इन कर्मों को निष्काम कर्म कहा जाता है । निष्काम कर्म से मनुष्य शान्ति को शीघ्र ही उपलब्ध हो जाता है । संसार की सेवा करते हुए कर्म करने से शरीर में आसक्ति समाप्त हो जाती और साथ ही संसार से विमुखता भी हो जाती है जोकि आत्म- बोध के लिए आवश्यक है ।

            संसार के सभी विषय मनुष्य को सुख-दुःख देने वाले होते हैं । जब विषय का स्पर्श किसी इंद्रिय के साथ होता है, तभी सुख-दुःख का अनुभव होता है । शब्द का स्पर्श श्रोतेन्द्रिय के साथ, रूप का स्पर्श नेत्र के साथ, रस का स्पर्श जिह्वा के साथ, गन्ध का स्पर्श घ्राणेंद्रिय के साथ, स्पर्श का स्पर्श त्वगेन्द्रिय अर्थात् त्वचा के साथ हुए बिना किसी भी विषय का अनुभव नहीं हो सकता । आप इस होने जा रहे स्पर्श को चाहकर भी नहीं रोक सकते । स्पर्श होगा तो इंद्रिय उसका विश्लेषण करेगी ही और फिर किए गए विश्लेषण का संकेत मस्तिष्क तक पहुँचेगा । बुद्धि उस विश्लेषण के अनुरूप निर्णय करेगी कि यह विषय, सुख प्रदान करने वाला है अथवा नहीं । बुद्धि अपना यह निर्णय मन तक पहुँचाती है और मन उसको कैसे भोगता है, यह मन के साथ संलग्न जीवात्मा के ऊपर निर्भर करता है ।

        जीवात्मा को अच्छा लगने पर वह उसी विषय-भोग को पुनः प्रदान करने का आदेश मन को देता है । अगर वह विषय बुद्धि के अनुसार शरीर के लिए उपयुक्त नहीं है, तो बुद्धि मन को वह विषय उपलब्ध करवाने से मना कर देगी । परन्तु जब जीवात्मा बार-बार मन को उसी भोग को उपलब्ध कराने के लिए निर्देशित करती है, तो बुद्धि भी आख़िर मना करते करते थक जाती है । इस अवस्था में आकर मन में उस विषय के प्रति गहरी आसक्ति हो जाती है, जो नित नई कामनाओं को जन्म देती है । इस स्थिति में पहुँचने से पहले ही अगर सचेत हो जाते हैं, तो फिर मनुष्य पतन से बच जाता है अन्यथा पतन होना अवश्यंभावी है । बुद्धि में जब ज्ञान का उदय हो जाता है, तब बुद्धि मन पर प्रभावी हो जाती है । इस प्रकार मनुष्य विषयासक्त होने से बच सकता है ।

         विषय का इंद्रियों से संयोग हमें स्पर्शजन्य सुख उपलब्ध करवाता है । हम चाहे लाख प्रयास कर लें, इंद्रिय और विषय के संयोग को रोकना असंभव है क्योंकि संसार में शरीर भी है और विषय भी । प्रश्न उठता है कि फिर विषय भोग से कैसे बचा जा सकता है ? नहीं, विषय-भोग से बचना भी असंभव है ।

 क्या मनुष्य विषय-भोग के सम्बन्ध में इतना असहाय है ? नहीं, मनुष्य सभी प्राणियों में बुद्धिमान जीव है, वह असहाय हो ही नहीं सकता । 

प्रश्न उठता है कि ऐसे में भला मनुष्य विषय-भोग को भोगते हुए भी सुरक्षित कैसे रह सकता है ?

           प्रत्येक विषय-भोग को परमात्मा की देन मानकर अनासक्त भाव से त्यागपूर्वक भोगना तो मनुष्य के हाथ में है । इस प्रकार भक्ति मार्ग पर चलने वाला इन विषय भोगों में कभी आसक्त नहीं होता । उसे भोगों से मिलने वाले सुख-दुःख तनिक भी प्रभावित नहीं करते । वह न तो भोगों में आसक्त होकर उनकी मन में कामना ही रखता है और न ही भोग के न मिलने पर उद्वेलित होता है । संसार की प्रत्येक रचना में उसे परमात्मा ही दिखलाई देते हैं । “वासुदेव सर्वम्”, जब सब कुछ परमात्मा ही हैं तो ऐसे में वह किससे तो राग करे और किससे द्वेष । भोग भी परमात्मा, भोग पाने वाला भी परमात्मा । फिर ‘मैं-मेरा’ और ‘तू-तेरा’ का जन्म भला कैसे होगा ?

           इस विवेचन के अन्तर्गत मन में विषयासक्ति और कामनाओं के प्रवाह पर अंकुश लगाने के तीन मार्गों का संक्षेप में वर्णन किया गया है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कभी भी संसार से पलायन होकर कर्मों से विमुख हो जाने का नहीं कहा है बल्कि उन्होंने तो अनासक्त भाव से कर्म करने का प्रमुखता से विवेचन किया है । कर्म का परिणाम भोग के रूप में अवश्य मिलता है परंतु अनासक्त रहकर किए गए कर्म से प्राप्त होने वाले भोग भी भक्त को विचलित नहीं करते जिससे राग-द्वेष पैदा नहीं होते ।

          “मैं” अहंता है और “मेरा” ममता है । अहंता और ममता के कारण ही संसार दुःखमय बना हुआ है ।  संसार में सुख की चाहना में हम दुःख को प्राप्त कर रहे हैं । जो जीवन में दुःख नहीं चाहता उसको अहंता और ममता से दूर रहना होगा । इसके लिए पहले ममता का त्याग करना आवश्यक है । ममता अर्थात् शरीर और संसार को ‘मेरा और मेरे लिए’ होना मान लेना । 

          विनाशशील में स्थायित्व का अभाव होता है । उसमें सतत परिवर्तन होता रहता है । जो परिवर्तित होता है, वह कभी आपकी पकड़ में नहीं आ सकता । जिसको आप पकड़ कर नहीं रख सकते, उसको ‘मेरा’ कैसे कह सकते हैं ? जब शरीर ही ‘मेरा’ नहीं है तो भला यह संसार ‘मेरा’ कैसे हो सकता है ? यह बात जिस दिन समझ में आ जाएगी, ममता का त्याग स्वतः ही हो जाएगा ।

          ममता के त्याग के बाद ‘मैं’ की समाप्ति होगी । जब यह शरीर ही ‘मेरा’ नहीं है तो प्रश्न उठेगा कि फिर ‘मैं’ कौन है ? जो विनाशशील है, वह ‘ मेरा’ नहीं है, इसका अर्थ है कि ‘मैं’ अविनाशी है । जब शरीर विनाशशील है तो फिर उसमें अहंता अर्थात् मैं-पना रखे ही क्यों ? इसी भाव के साथ अहंकार का समापन होता है और व्यक्ति की अहंता का त्याग हो जाता है । फिर जो ‘मैं’ बचता है वह अविनाशी और मेरापन की भावना से मुक्त शुद्ध ‘अहम्’ है । शुद्ध अहम् (स्व) ही हमारा वास्तविक स्वरूप है ।

     अहंता-ममता के त्याग का परिणाम ? प्रश्न आया है कि ‘मैं-मेरा’ के त्याग से जो उपलब्धि होती है, उसका जीवन में प्रभाव कैसा परिलक्षित होता है ? अहंता-ममता के त्याग का जीवन में जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है वह है, व्यक्ति का भयरहित हो जाना । मनुष्य के भय का सबसे बड़ा कारण है कि जिसे वह ‘मेरा’ कहता है उसके खो जाने का भय । परिवर्तनशील संसार इतनी अनिश्चितता से भरा हुआ है कि कल क्या होगा, कोई नहीं जानता । अहंता और ममता रखकर जीने वाला कभी वर्तमान में नहीं जीता बल्कि या तो वह भूतकाल के जीवन का स्मरण करता है अथवा भविष्य की कोई योजना बनाता है । भूत और भविष्य, दोनों में डूबे रहना ही उसे भयग्रस्त कर देता है । 

          अहं और मम से मुक्त मनुष्य न तो भूत का शोक करता है और न ही भविष्य की कल्पना । वह सदैव वर्तमान को पूरी संजीदगी, पूरी चेतनता के साथ जीता है । चैतन्य होकर वर्तमान में जीने का अर्थ है, संसार के मोह में नहीं फंसना। संसार के विकार उसको छू नहीं सकते । राग-द्वेष क्या होते हैं ? वह नहीं जानता । अहंकार से वह कोसों दूर होता है । उसे किसी प्रकार की शंका नहीं होती ।

          ‘मैं-मेरा’ और ‘तू-तेरा’ से मुक्त पुरुष निशंक, निशोक, निर्दोष और निर्भय बना रहता है । किसी से उसकी विषमता नहीं रहती । वह सदैव समता में रहता है । समत्व की अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति परमात्मा के समकक्ष होता है क्योंकि उसमें कोई दोष नहीं रहता । “निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता:” अर्थात् ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिए वह ब्रह्म में स्थित है ।

       गीता का मुख्य संदेश “वासुदेव सर्वम्” है । इस संदेश को आत्मसात् कर लेने से सभी प्रकार के भेद मिट जाते हैं । फिर अपने-पराए का भेद कहाँ तक टिकेगा ? संसार और शरीर में आसक्त व्यक्ति ही दो में भेद करता है ।  “मैं-तू” और  “मेरा-तेरा”  के मूल में भेद-भाव है और यह भेद शरीर को ही अपना आत्मा मान लेने से है अन्यथा इस संसार में सभी समान हैं । अपना-पराया का भेद ही राग-द्वेष का जनक है । जब यह भेद अपने चरम पर होता है, तब विषमता के कारण आपसी मनमुटाव बढ़ता है । एक को दूसरे से प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है जिसके कारण मानसिक पीड़ा से भी दो-चार होना पड़ता है ।

         यही बात श्रीमद्भागवत महापुराण में नारदजी युधिष्ठिर को कह रहे हैं -

                  हिंसा तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा ।

                  वैषम्यमिह भूतानां ममाहमिति पार्थिव ।। 7/1/23 ।।

         अर्थात् जब इस शरीर को ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है । यही सारे भेदभाव का मूल है । इसी के कारण ताड़ना मिलती है और दुर्वचन सुनने पड़ते हैं, जिनके कारण पीड़ा होती है ।

         शरीर का होना दृष्टिगोचर अवश्य हो रहा है, इसी कारण से उसे “मैं” मान लिया जाता है । शरीर प्रकृति का है, इसमें परिवर्तन होना अवश्यम्भावी है । जबकि “मैं” अर्थात् आत्मा अविनाशी और अपरिवर्तनशील है । अतः शरीर का आत्मा (मैं) से सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । इस बात का ज्ञान होते ही “ मैं-मेरा” समाप्त हो जाते हैं । “मैं-मेरा” का अस्तित्व केवल माया के कारण प्रतीत होता है अन्यथा उनका अस्तित्व है ही नहीं ।

            “मैं-मेरा” और “तू-तेरा” ही माया है और इस माया को न समझ पाना ही मनुष्य के मुक्त होने में बाधक है । मनुष्य का मन ही उसके बन्धन का कारण है और मन ही उसे मुक्त कर सकता है । मन में आसक्ति और कामना को प्रश्रय मिलता रहेगा तो वह मनुष्य को शरीर और संसार के साथ बांधे रखेगा । जिस दिन अनासक्ति का भाव पैदा होगा, मन निर्मल हो जाएगा । निर्मल मन ही जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जीवात्मा ही संसार और शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर मन के रूप में प्रकट होती है । मन बनकर ही वह कर्ता और भोक्ता बन जाती है । वास्तविकता में जीवात्मा न तो कुछ करती है और न ही भोगों में लिप्त होती है । मन में भोगों के प्रति आसक्ति ही उसे मैं-मेरा और तू-तेरा में उलझा देती है अन्यथा मैं और तू में कोई भेद ही नहीं है, सबका स्वरूप एक ही है ।

          मन को मैं-मेरा और तू-तेरा  को छोड़ने के लिए आसक्ति और कामना, दोनों का ही त्याग करना होगा । यह त्याग कैसे होगा ? इसके लिए तीन मार्ग बताए गए हैं । प्रथम - शरीर को संसार की सेवा में लगा दो, अपना और अपने लिए मानो ही मत । दूसरा - संसार और शरीर की परिवर्तनशीलता का ज्ञान हो जाना । हमारे पास जो कल नहीं था, वह आज है और जो आज पास में है, वह कल नहीं रहेगा । ऐसे में क्या तो मेरा और क्या तेरा ? तीसरा - संसार में सब कुछ परमात्मा है । संसार, विषय, शरीर सब कुछ परमात्मा । फिर मेरा-तेरा का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? जो कुछ आपको मिला है वह अपना नहीं है । हमें सब कुछ सदुपयोग करने के लिए मिला है, उसमें आसक्त होकर उसको मेरा और मेरे लिये कहना अनुचित है । जो विषय भोग मिले हैं उनसे सुख लेते हुए आसक्त न हों बल्कि उन्हें अनासक्त रहते हुए त्याग पूर्वक भोगें । आपके पास किसी वस्तु (धन, ज्ञान आदि) की उपलब्धता अधिक है तो उसे सबमें बाँटे । यही उसका सदुपयोग है ।

अनासक्ति को समझने के लिए एक दृष्टान्त -

               एक बार तीन बौद्ध भिक्षु भिक्षा लेने के लिए किसी गांव में जा रहे थे । रास्ते में पड़ने वाली नदी को पार करने का कोई साधन नहीं थे । उसमें उतरकर ही पार करना पड़ता था । नदी के किनारे पर एक षोडशी उस पार स्थित गांव को जाने के लिए खड़ी थी । जल के तीव्र प्रवाह को देखते हुए उसकी हिम्मत नदी में उतरने की नहीं हो रही थी ।  उसने सबसे आगे चल रहे पहले भिक्षु से हाथ पकड़ कर नदी पार कराने को कहा ।  उस भिक्षु का कन्या की ओर ध्यान ही नहीं गया । कन्या ने उसके पीछे चल रहे दूसरे भिक्षु से हाथ पकड़कर नदी पार कराने को कहा । भिक्षु ने इस प्रकार एक कन्या को हाथ पकड़कर नदी पार कराने को एक साधु के लिए अनुचित मानकर इनकार कर दिया । लाचार युवती ने तीसरे युवा भिक्षु से ऐसा ही आग्रह किया ।  तुरंत ही उस युवा भिक्षु ने युवती का हाथ पकड़ा और कन्धे पर बिठाकर नदी पार करा दी ।  पार जाकर युवती ने उस भिक्षु का बड़ा आभार माना और अपने रास्ते चल दी ।

           अब तीनो भिक्षु गांव में प्रवेश कर रहे हैं । पहला भिक्षु निर्विकार भाव से आगे आगे अपने रास्ते पर चल रहा है । दूसरा भिक्षु बार बार उस तीसरे भिक्षु को युवती का हाथ पकड़कर नदी पार कराने को अनुचित बतला रहा है । बीच बीच में वह उस युवा भिक्षु की शिकायत भगवान बुद्ध से करने की धमकी भी दे रहा है । आख़िर युवा भिक्षु से रहा नहीं गया । युवा भिक्षु ने दूसरे भिक्षु को कहा कि मैंने तो उस युवती को नदी पार कराते ही कन्धे से उतारकर उसका हाथ छोड़ दिया था परंतु आप तो मन में उस युवती को अभी भी अपने कंधे पर ऊँचे हुए चल रहे हैं ।

             पहला भिक्षु जो कि निर्विकार भाव से अपने रास्ते चल रहा है, वह विरक्त है । दूसरा भिक्षु जिसने युवती को नदी पार कराने से इनकार कर दिया था, जिसके मन में अभी भी वह स्त्री बसी हुई है, वह उस युवती के प्रति आसक्त है ।  तीसरा युवा भिक्षु अनासक्त है, उसने युवती की सहायता करने के लिए उसे कन्धे पर उठाकर उसका हाथ पकड़ा था परंतु उसके मन ने स्त्री को नहीं पकड़ा था । विरक्ति, आसक्ति और अनासक्ति में यही मूलभूत अंतर है । अनासक्ति का अर्थ है, न तो विरक्ति और न ही आसक्ति, एक दम मध्य में रहना । भगवान बुद्ध ने इस साम्य अवस्था प्राप्त कर लेने को मंझिम निकाय कहा है । सनातन धर्म के संतों ने इसे ही साम्यावस्था और सहज-योग कहा है । एक गृहस्थ के लिए अनासक्त होना ही सर्वोत्तम मार्ग है । फिर मन में आसक्ति और कामना उत्पन्न नहीं होगी कि हमें कहना पड़े -“छोड़ मन तू मेरा- मेरा” ।

          संसार में बार-बार नए-नए शरीर लेकर लौटने का कारण यह ‘मैं और मेरा’ ही है । संतजन जिस मुक्ति की बात करते हैं, वे सभी इस ‘ मैं और मेरा’ से मुक्त होने की बात करते हैं । व्यक्ति का यह व्यक्तिगत संसार है जो उसने अपनी स्त्री और पुत्र आदि में आसक्ति रखते हुए बनाया है । भागवतजी में नारद मुनि इसी सांसारिक बंधन की बात करते हुए कह रहे हैं -

           ममैते मनसा यद्यदसावहमिति ब्रुवन् ।

           गृह्णीयात्तत्पुमान् राद्धं कर्म येन पुनर्भव: ।। भागवत- 4/29/62।।

    अर्थात् इस मन के द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादि को ‘ये मेरे हैं’ और देहादि को ‘यह मैं हूँ’ ऐसा कहकर मानता है, उनके द्वारा किए गए पाप-पुण्यादिरूप कर्मों को भी यह अपने ऊपर ले लेता है, उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है ।

             मन ही ‘मैं और मेरा’ करता है और संसार में आवागमन भी मन ही करता है । मन से मुक्त होना ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है, इसलिए अपने मन को मार डालें । मन को मार डालने से तात्पर्य है, किसी को अपना और अपने लिए न मानें । जब यहाँ कोई अपना नहीं है, ऐसे में  हमें अपने लिए भी कुछ नहीं चाहिए । चाहना होती है, अपने द्वारा बनाए गए संबंधों से सुख प्राप्त करने की । अपनों से अपने लिए सुख की चाहना करना ही संसार में सबसे बड़ा बंधन है ।

सार-संक्षेप 

       मनुष्य के जीवन में बंधन के तीन कारण हैं - मैं, मेरा और मेरे लिए । “मेरे लिए” हमारा भोक्ता भाव दर्शाता है, “मेरा” हमारी किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति आसक्ति प्रदर्शित करता है और “मैं” हमारा कर्ता होने का अहंकार है । तीनों ही हमारे मन की गहराई से जुड़े हैं । इन्हीं के कारण हमारा किसी विशेष वस्तु अथवा व्यक्ति के प्रति राग होता है । जिनमें हमारा राग होता है, उसी से हम सुख की आशा रखते हैं । जब उनसे सुख नहीं मिलता अथवा वे सुख में बाधक बनते हैं, तब उनके प्रति द्वेष भाव उत्पन्न होकर तू और तेरा का जन्म होता है । कहने का अर्थ है कि “ मैं- मेरा” की विपरीत अवस्था का नाम “तू” और “तेरा” है । 

           “मैं और मेरा” के प्रति हमारा राग होता है तथा “तू और तेरा” के प्रति हमारा द्वेष भाव होता है । जब तक जीवन में राग और द्वेष है, तब तक मनुष्य को जीवन में शांति उपलब्ध नहीं हो सकती । शान्त जीवन के लिए त्याग आवश्यक है । त्याग करना है -अहंकार का । जब अहं शरीर के आकार को स्वयं का होना समझ लेता है, तब अहंकार का जन्म होता है । अहंकार कहता है , “मैं हूँ” । जब तक “मैं” का अस्तित्व है तब तक कोई न कोई “तू” अवश्य है । शान्ति के लिए इसी ‘तू’ का मिटना आवश्यक है और ‘तू’ तब तक नहीं मिटेगा, जब तक ‘मैं’ रहेगा । इसलिए शान्त जीवन के लिए पहले “मैं” का समाप्त होना आवश्यक है ।

       “मैं” समाप्त करने के तीन मार्ग हैं । प्रथम - स्वयं के लिए कुछ भी न चाहें बल्कि संसार की सेवा में समर्पित हो जायें । दूसरा- हम कुछ भी लेकर नहीं आए हैं और न ही कुछ साथ लेकर जाएंगे । अतः किसी को मेरा न माने अर्थात् 'मेरा‘ का त्याग। ऐसा करने पर आसक्ति से दूर रहेंगे । तीसरा - संसार में जो कुछ दिखने, सुनने, सूंघने, चखने अथवा स्पर्श अनुभव में आ रहा है, सब माया है । माया थिर नहीं रह सकती, वह प्रतिपल परिवर्तित हो रही है । इसको कभी पकड़ा नहीं जा सकता । जो सदैव है, वे परमात्मा हैं और उनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । अतः जो भी करें, परमात्मा के लिए करें । जब एक परमात्मा ही है, क्या तो “मैं-मेरा” और क्या “तू-तेरा” ?  फिर कहना ही नहीं पड़ेगा -“छोड़ मन तू मेरा-मेरा” ।

।। हरि:शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल





No comments:

Post a Comment