भक्ति-विज्ञान
Science of Devotion
भक्ति-विज्ञान
अभी गत दिनों हमने अपने शरीर में स्थित ‘ऊर्जा-चक्र’ के बारे में विवेचन किया था। ऊर्जा-चक्र को साधने के लिए किसी सिद्ध पुरुष के सान्निध्य में साधना करनी पड़ती है। इस साधना का आधार विभिन्न मंत्रों से लेकर अष्टांग योग तक, कुछ भी हो सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊर्जा-चक्रों के आपसी समन्वय के लिए बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ता है,जोकि एक सामान्य व्यक्ति के लिये लक्ष्य तक पहुँचने में लंबा समय लगने के कारण बहुत ही थकाऊ है।दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊर्जा-चक्रों के आपसी समन्वय, जिसको कुण्डलिनी जागरण भी कहा जाता है, में मनुष्य को परिणाम स्वरूप जो सिद्धियाँ मिलती है, उन सिद्धियों के माया-जाल में फँसकर मनुष्य पुनः सांसारिकता में उलझ सकता है, जोकि उसे अपने उद्देश्य अर्थात् परमात्मा प्राप्ति के मार्ग से भटका सकती है।तीसरी बात, कुंडलिनी जागरण के कई बार भयावह परिणाम भी सामने आ सकते हैं,जिसके कारण व्यक्ति मनोरोग से ग्रस्त हो सकता है, पागल हो सकता है और कभी-कभी तो मृत्यु को भी प्राप्त हो सकता है ।
जब कुंडलिनी जागरण में लक्ष्य तक पहुँचने के लिये परिश्रम करने के साथ-साथ उसके दुष्परिणाम भी मिलने की संभावना रहती है, तो फिर मनुष्य क्या करे जिससे सुगमता से वह अपने लक्ष्य तक पहुँच सके ? उसे ऐसे मार्ग की आवश्यकता महसूस होती है,जिसमें बिना किसी परिश्रम के वही उपलब्धि मिल जाये जैसी उपलब्धि ऊर्जा-चक्रों के संयोजन के लिए अत्यधिक परिश्रम करने के उपरांत मिलती है। इस प्रकार का एक ही मार्ग है - भक्ति । जिस प्रकार कुंडलिनी जागरणमें विज्ञान की भूमिका है अर्थात् जैसे कुंडलिनी जागरण का एक वैज्ञानिक आधार है, क्या उसी प्रकार का वैज्ञानिक आधार भक्ति का भी है? मेरा स्पष्ट उत्तर है - हाँ। शायद आप मेरे इस कथन से सहमत नहीं होंगे क्योंकि हमारी सोच कुछ ऐसी हो गयी है कि हम शास्त्रीय ज्ञान और आधुनिक विज्ञान को आपस में एक दूसरे के विरोधी समझने लगे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि आधुनिक विज्ञान का आधार भी हमारे शास्त्रों में समाहित ज्ञान ही है।अतः किसी भी प्रकार के भ्रम में न रहें, हमारे शास्त्रों में वर्णित प्रत्येक बात का, यहाँ तक कि उनमें लिखे गए प्रत्येक शब्द का वैज्ञानिक आधार अवश्य है, भले ही विज्ञान आज तक उसको सिद्ध नहीं कर सका हो परंतु भविष्य में वह सिद्ध अवश्य ही हो जाएगा। तो हम बात कर रहे थे, ऐसे किसी सरल मार्ग की, जिस पर चलकर मनुष्य बिना किसी परिश्रम के अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। ऐसे ही एक मार्ग को गीता में भक्ति-योग नाम से कहा गया है। भक्ति केवल एक साधन ही नहीं, साध्य भी है।
इस भक्ति का वैज्ञानिक आधार क्या है अर्थात् विज्ञान भक्ति के कारण शरीर में होने वाली क्रियाओं के बारे में क्या कहता है, उसी का विवेचन हम लेख में करेंगे |
भक्ति, एक ऐसा शब्द है, जिसके बारे में अभी भी कई भ्रांतियां बनी हुई है | किसी भी प्रकार की क्रिया अर्थात् प्रत्येक प्रकार की पूजा-पाठ और कर्म-कांड को भक्ति की श्रेणी में रख दिया जाता है, जो कि नितांत ही अनुचित है | परमात्मा की भक्ति और परमात्मा के लिए किए जा रहे कर्म-कांड तथा पूजा-अर्चना में मौलिक रूप से बहुत अंतर है| केवल मात्रात्मक (Quantitative) ही नहीं, गुणात्मक (Qualitative) अंतर भी है | आज के इस भौतिक युग में ईश्वर की पूजा उपासना भी दिखावा बनती जा रही है | समयाभाव के कारण आज ईश्वर के लिए प्रार्थना करने के लिए भी मूल्य देकर प्रार्थी तक खरीदे जा रहे हैं | ऐसे व्यक्ति, जिनके लिए प्रार्थना की जाती है, वे तो स्वयं सांसारिक गतिविधियों व्यापार आदि में इतने गहरे उलझे हुए हैं कि उन्हें इस बात का ज्ञान भी नहीं रहता कि प्रार्थी द्वारा प्रार्थना कैसे और किस प्रकार की जा रही है ? प्रश्न यही है कि क्या ऐसी प्रार्थना को भक्ति और प्रार्थी को भक्त कहा जा सकता है ? प्रार्थी ने भी तो अपनी उदरपूर्ति के लिए पूजा-पाठ को व्यवसाय बना रखा है |
यह ऐसे लोगों का एक उदाहरण है, जिनके पास प्रत्येक अप्राप्य को प्राप्त करने की आर्थिक और सामाजिक क्षमता तो है, परन्तु स्वयं के द्वारा परमात्मा का स्मरण करने का समय तो क्या अपने व अपने परिवार तक के लिए समय नहीं है | परमात्मा के भावपूर्ण स्मरण और दिखावे के लिए किये जा रहे पूजा-पाठ के अंतर को भगवान् ने भागवत में स्पष्ट किया है | भागवत में भगवान कहते हैं-
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा |
तमवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेSर्चाविडम्बनम् ||
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् |
हित्वार्चा भजते मौढ्याद्भस्मन्येव जुहोति सः ||3/29/21-22||
अर्थात् मैं आत्मा रूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वांग मात्र है | मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोह वश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है |
दूसरी श्रेणी उन भक्तों की है, जो भगवान के स्मरण को केवल मात्र समय और स्थान तक सीमित कर देते हैं और इसको प्रतिदिन का एक नियम बना लेते हैं | एक निश्चित स्थान और समय से आगे वे बढ़ना ही नहीं चाहते | सांसारिकता में रमते हुए भी वे परमात्मा को याद रखने का कार्य जारी रखना चाहते हैं | समय और स्थान निश्चित करना अनुचित नहीं है, बल्कि इसमें बंध जाना गलत है | संसार में इतने रत रहते हैं कि वे पूजा अर्चना और स्मरण भौतिक रूप से तो कर रहे होते हैं परन्तु मन संसार में ही कहीं भटक रहा होता है | कई बार जीवन में ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाती है, जब किसी अन्य कार्य के कारण निश्चित स्थान और समय तक पूजा-पाठ, स्मरण इत्यादि सम्भव नहीं हो पाता | ऐसे में भक्त को किसी भी प्रकार की ग्लानि मन में नहीं रखनी चाहिए | तभी इसकी सार्थकता है | अगर कभी ऐसी परिस्थिति आ भी जाये तो जितनी और जहाँ, जैसी सुविधा उपलब्ध हो, परमात्मा का स्मरण कर लेना चाहिए | महत्वपूर्ण तो परमात्मा में मन लगाकर उसका स्मरण करना है, स्थान और समय जहां और जैसा भी उपलब्ध हो |भगवान् ने गीता में कहा है -”मामनुस्मर युद्ध च” | उनके कहने का अर्थ है कि कर्मेन्द्रियों से कर्म तो होते ही रहेंगे क्योंकि कर्म होना प्रकृति के गुणों के अधीन है, आप के अधीन नहीं | आपकी क्षमता तो केवल परमात्मा का स्मरण करने की है, वह आप सतत करते रहें | स्मरण में महत्वपूर्ण भूमिका आपकी है, कोई दूसरा आपकी भूमिका नहीं निभा सकता | आप के हाथ में केवल परमात्मा का स्मरण ही करना है , कर्म करना नहीं | फिर हम परमात्मा का स्मरण छोड़ कर्मों को करने में क्यों उलझें ?
भक्ति के लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण (Surrender) का भाव होना आवश्यक है | गीता में इसे अनन्य भक्ति कहा गया है | भक्ति में आंतरिक रूप से यह स्वीकार किया जाता है कि मेरे लिए परमात्मा ही सर्वस्व है | परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | एक स्थिति ऐसी आती है जब परमात्मा के अतिरिक्त कहीं पर, कुछ भी नज़र नहीं आता | जो व्यक्ति इस अवस्था को उपलब्ध हो जाता है, उसे भक्त कहा जाता है और भक्ति को अनन्य भक्ति | संसार और परमात्मा दोनों एक साथ उपलब्ध नहीं हो सकते | परमात्मा को भी पाना चाहें और संसार में भी मन लगायें, दोनों एक साथ कैसे संभव हो सकते हैं ?
संसार में रहना अनुचित नहीं है और न ही परमात्मा प्राप्ति के लिए संसार से पलायन (Escape) करना आवश्यक है | केवल भीतर के संसार के स्थान पर परमात्मा को बिठाना है | इसके लिए आवश्यक है कि मन में संसार के स्थान पर केवल और केवल परमात्मा को ही प्रवेश मिले | संसार को बाहर ही रहने दे, अपने भीतर प्रवेश न करने दें | संसार को बाहर रखने का अर्थ है, संसार में रहते हुए उसमें उलझे नहीं | कौन क्या करता है, क्या कहता है, कहाँ आता-जाता है ? इन सांसारिक बातों से हमें क्या मतलब ? अनन्य भक्ति का मूल मंत्र यही है |
प्रश्न है कि भक्त कौन है और भक्ति किसे कहते हैं ? जानने के लिए, चलिए विवेचन को आगे बढ़ाते हैं |
भक्त और भक्ति-( Devotee and devotion )
भक्त कौन है ? भक्ति किसे कहते हैं ? इसे स्पष्ट किए बिना हम भक्ति के विज्ञान को उचित प्रकार से नहीं समझ सकेंगे | भक्ति उस प्रक्रिया अथवा विधि को कहते है, जिसके कारण व्यक्ति का योग परमात्मा के साथ हो जाता है | इस प्रक्रिया के सम्पूर्ण होने पर ही व्यक्ति भक्त कहलाता है | कहने का अर्थ है कि हमारे भीतर भक्ति का अवतरण पहले होता है और भक्त का जन्म उसके तत्काल बाद | आजकल हम हर किसी को भी भक्त कह देते हैं, जबकि भक्ति की परिणति होने पर जब परमात्मा के साथ योग हो जाता है, तभी व्यक्ति भक्त बनता है | भक्ति अर्थात् परमात्मा के साथ संयुक्त होने की प्रक्रिया को भक्ति-योग कहा जाता है | भक्ति-योग के कारण व्यक्ति एक साधारण मनुष्य की श्रेणी से ऊपर उठते हुए भक्त बन जाता है | इस स्थिति में आकर भक्त का परमात्मा के साथ सीधा संपर्क हो जाता है | भक्ति चार प्रकार की कही जाती है । भक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार होते हुए भी सभी में भक्त का परमात्मा से मिलन अवश्य हो जाता है |
भक्ति से भक्त बनने की पूरी प्रक्रिया एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है | हम चाहे कर्म मार्ग को अपनाएं अथवा परमात्मा तक पहुँचने के लिए ज्ञान मार्ग का अनुसरण करें, अंततः सबका परिणाम परमात्मा की भक्ति करना ही है | रास्ते भले ही भिन्न भिन्न दृष्टिगत हो रहे हों, लक्ष्य तक सब मार्ग ले जाते हैं | ये सभी उपमार्ग हैं। सभी उपमार्ग मिलकर एक मुख्य मार्ग बनाते हैं और उस मुख्य मार्ग का नाम ही भक्ति है |
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मुझे चार प्रकार के व्यक्ति भजते हैं- आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी |
चतुर्विद्याभजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। गीता 7/16 ।।
अर्थात् हे अर्जुन, उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के जन मुझको भजते हैं | अर्थार्थी यानि सांसारिक सुख सुविधा के साधन प्राप्त करने के लिए भजने वाला, आर्त यानि सांसारिक दुखों के निवारण हेतु भजने वाला, जिज्ञासु का अर्थ है परमात्मा के बारे में मन में जिज्ञासा के कारण उसे जानने के लिए भजने वाला और ज्ञानी वह व्यक्ति जो परमात्मा को जानता है, उसे ही सर्वस्व मानकर भजने वाला |
गीता के इस श्लोक (7/16) में भक्त शब्द नहीं आया है, जनाः शब्द आया है जिसका अर्थ जन यानि व्यक्ति ही होता है | आज की परिस्थितियों को देखते हुए जो भी व्यक्ति परमात्मा का स्मरण करता है, उस को भक्त कह दिया जाता है | श्रीकृष्ण कहते हैं कि आर्त व्यक्ति तो स्वार्थवश अपने दुःख को दूर करने के लिए मुझे याद करते हैं और लगभग कुछ ऐसा ही अर्थार्थी के साथ है, जो अपनी सुख सुविधा की कामना पूरी करने के लिए तथा संसार की विभिन्न भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए मेरा स्मरण करते है | ये दोनों मुझे प्रिय हैं | जिज्ञासु के मन में यह इच्छा होती है कि मेरे स्वरूप और प्रकृति को जाने और समझे | ऐसा स्मरण करने वाला व्यक्ति भी मुझे प्रिय है | परन्तु सबसे अधिक प्रिय मुझे ज्ञानी (Intellectual) व्यक्ति हैं | इसका कारण भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि इन चारों में केवल ज्ञानी व्यक्ति ही एक मात्र ऐसा है जो मुझे अनन्य प्रेम भाव से स्मरण करता है | ज्ञानी तो मेरी आत्मा है अर्थात ज्ञानी में और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है। अतः ज्ञानी व्यक्ति, अनन्य भक्ति से परमात्मा को पाकर एक भक्त की श्रेणी में आ जाता है | भगवान ने कहीं पर यह नहीं कहा है कि शेष तीन प्रकार के व्यक्ति मुझे प्रिय नहीं है, कहते हैं कि वे भी उदार हैं परन्तु उनके भीतर मेरे अतिरिक्त कुछ अन्य भी है, इस कारण से उन्हें अनन्य भक्त नहीं कहा जा सकता | उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान उन्हें वह सब उपलब्ध करा देंगे, जिस कामना के वशीभूत होकर वे उनका स्मरण करते हैं |
प्रथम तीन प्रकार के (अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु ) जनों का परमात्मा को भजना, अपने स्वार्थ के लिए है, संसार के लिए है, जबकि ज्ञानी व्यक्ति परमात्मा का होकर परमात्मा को भजता है | अतः ऐसा भजने वाला व्यक्ति ही वास्तव में भक्त कहलाने का अधिकारी होता है | ऐसे अनन्य भक्त को भी कई जन्म लग जाते हैं, उस स्थिति में पहुँचने के लिए जब वह आत्मा से महात्मा बन सके | भगवान स्पष्टतः गीता में अर्जुन को कहते है-
बहुनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || गीता 7/19 ||
अर्थात् बहुत जन्मो के अंत के जन्म में यानि अंतिम मानव जन्म में तत्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मुझको भजता है. वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है |
अर्जुन, जो साक्षात् परमात्मा के सान्निध्य में था, फिर भी वह गीता ज्ञान पाने से पूर्व किस प्रकार व्यवहार कर रहा है , वह भी एक आश्चर्य की बात है |उसका कारण है कि वह युद्ध भूमि में उतरने से पहले श्री कृष्ण को, अपना ममेरा भाई, एक साधारण मनुष्य ही मान रहा था | परमात्मा को जानने, समझने के लिए ज्ञान आवश्यक है, उसके प्रति समर्पण भाव आवश्यक है तथा उनके अतिरिक्त कोई है भी नहीं, यह मानना भी आवश्यक है | अगर ऐसा नहीं है तो चाहे साक्षात् परमात्मा भी उसके सामने आ जाये, उनको पाना असंभव है | कुछ-कुछ ऐसा ही अर्जुन के साथ भी हुआ था | केवल अर्जुन ही क्यों, हम सबके साथ भी तो ऐसा ही हो रहा है | परमात्मा हमारे सामने खड़े होकर हमें पुकार रहे हैं, वे सर्वत्र उपस्थित है, इतना सब कुछ जानते हुए भी, हम इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं है |परमात्मा की स्वीकार्यता के लिए सबसे पहले उनके प्रति पूर्ण समर्पण आवश्यक है | अर्जुन ने युद्ध से पूर्व उनके प्रति समर्पण किया था, तभी तो उसे गीता ज्ञान उपलब्ध हुआ, जोकि उसे पूर्ण ज्ञान की अवस्था तक ले जा सका । देखा जाए तो गीता-ज्ञान, समर्पण करने से लेकर शरणागत होने तक की यात्रा है | यह यात्रा जीवात्मा को महात्मा बना देता है |
इतने विश्लेषण के बाद यह स्पष्ट है कि आत्मा से महात्मा बनने की प्रक्रिया को भक्ति कहते हैं | महात्मा, भक्त की उच्चतम अवस्था है, जिसे भक्ति-योग से ही प्राप्त किया जा सकता है | महात्मा से परमात्मा की अवस्था को उपलब्ध होना सुगम है | महात्मा की अवस्था प्राप्त करने के बाद, भक्त में एक ठहराव सा आ जाता है | वह अपने आपको अलग और परमात्मा को अपने से अलग मानने लगता है | इस अवस्था में ठहराव आने का एक महत्वपूर्ण कारण है | भक्त को इस अवस्था में परमात्मा को स्मरण करने में बड़ा आनंद आता है | वह इस अतुल्य आनन्द से अपने आपको वंचित होने देना नहीं चाहता | हाँ, इस अवस्था से वह कभी भी तत्काल परमात्मा हो सकता है | कबीर ने इस आनंद को अपनी एक प्यारी सी रचना में व्यक्त भी किया है-
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |
जो सुख है सत्संग में, सो वैकुण्ठ न होय ||
जो आनंद परमात्मा के सत्संग में है, वह वैकुण्ठ में भला कैसे उपलब्ध हो सकता है ? इसी कारण से महात्मा की अवस्था को उपलब्ध हुआ भक्त, स्वयं ही परमात्मा से अपना मिलन नहीं चाहता | इसीलिए उपरोक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने महात्मा की अवस्था को अंतिम जन्म कहा है | इसी से स्पष्ट होता है कि महात्मा बनने के बाद पुनर्जन्म की सम्भावना पूर्णतया समाप्त हो जाती है |
गीता के आधार पर हम यह मान सकते हैं कि भक्ति-योग का प्रारंभ व्यक्ति की आर्त अवस्था से होता है | दुःखी होने पर परमात्मा को भजना व्यक्ति के भक्ति मार्ग पर चलने का प्रथम कदम होता है | यहीं से व्यक्ति का संसार से विमुख और परमात्मा के सम्मुख होना प्रारंभ होता है | परमात्मा से प्रार्थना के बाद जब उसका दुःख दूर हो जाता है, तब वह वापिस संसार में लौट जाता है | जब उसके साथ ऐसा अनेकों बार हो जाता है, तब वह परमात्मा और संसार दोनों में ही रत रहना चाहता है | यहाँ अब वह परमात्मा को भजने का प्रतिदिन का नियम बना लेता है | इस स्थिति में आकर वह अर्थार्थी हो जाता है | वह नित्य परमात्मा से अपनी सुख-सुविधा की कामना करता है | अभी भी वह एक भक्त की श्रेणी में नहीं आ पाया है | जब उसे सब सुख उपलब्ध हो जाते हैं, तब वह समझने लगता है कि वास्तव में परमात्मा नामक कोई शक्ति अवश्य है | उसके भीतर परमात्मा को जानने और समझने की उत्कंठा पैदा होती है | यह उसकी जिज्ञासु अवस्था है | इन तीनों अवस्थाएं भक्ति-योग के मुख्य मार्ग तक पहुँचने हेतु प्रयास मात्र है |
जब व्यक्ति की जिज्ञासा शांत हो जाती है, उस स्थिति में आ जाने पर व्यक्ति परमात्मा के अस्तित्व को तो स्वीकार कर लेता है परन्तु आगे उसके बारे में और ज्यादा ज्ञान प्राप्त करना चाहता है या नहीं, यह उसके विवेक पर निर्भर करता है | यहाँ तक की यात्रा के पश्चात या तो व्यक्ति ज्ञान-मार्ग पर चलते हुए भक्ति-योग में लग जाता है अथवा इसी स्थिति में आकर पुनः संसार में लौट जाता है | यह संसार इतना अधिक लुभावना है कि व्यक्ति को अपने जीवन का सारा सार यहीं पर ही नज़र आता है | वह यह समझने का प्रयास भी नहीं करता कि जो भी उसे आज तक उपलब्धियां प्राप्त हुई है, उनका आधार क्या है ? वह इनको अपना व्यक्तिगत प्रयास ही मानता है | यहीं से उसमें कर्ताभाव (Doerness) पैदा हो जाता है | इस स्थिति में वह परमात्मा को भजता तो अवश्य है, परन्तु केवल मात्र प्रदर्शन यानि दिखावे के लिए | वह इस ईश्वर भजन को एक दैनिक क्रिया (Routine) मात्र मानता है | ऐसे में इसको भक्ति कैसे माना जा सकता है ? यह तो स्वयं के साथ एक छलावा मात्र है, ईश्वर-भक्ति नहीं |
प्रश्न उठता है कि भक्ति को उपलब्ध होने के मार्ग कौन कौन से हैं ? अब हम भक्ति-योग के मार्ग पर विवेचन प्रारंभ करते हुए इस श्रृंखला को आगे बढ़ाएंगे।
भक्ति-योग के मार्ग –(Paths to achieve devotion) --
जब तक व्यक्ति अपनी जिज्ञासु प्रकृति से आगे नहीं बढ़ता, तब तक वह भक्ति-योग को उपलब्ध नहीं हो सकता | परमात्मा ने अपनी भक्ति प्राप्त करने के लिए कई मार्ग सुझाये हैं, जिन पर चलकर व्यक्ति उसे प्राप्त कर सकता है | संक्षेप में बता देता हूँ कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने परमात्मा प्राप्ति के तीन मार्ग बताएं है – ज्ञान-मार्ग (Path of knowledge), ध्यान-मार्ग (Path of mediation) और कर्म-मार्ग (Path of act) | ये तीनों मार्ग भक्ति के उपमार्ग कहे जा सकते हैं | देखा जाए तो सभी तीनों मार्ग आगे जाकर भक्ति-मार्ग पर ही खुलते हैं | अगर कर्म मार्ग भक्ति तक नहीं ले जाता तो इसका अर्थ है कि कर्म सकाम हैं, निष्काम नहीं | अगर ध्यान मार्ग आपको भक्ति के लिए प्रेरित नहीं करता तो ऐसा ध्यान केवल दिखावे के लिए है अथवा ध्यान की अवस्था में आप संसार से मुक्त नहीं हुए हैं | इसी प्रकार ज्ञान भी तभी तक व्यर्थ है जब तक वह भक्ति की और नहीं ले जाता | ज्ञान में अहंकार भाव ही व्यक्ति को भक्त बनने से वंचित कर देता है |
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं -
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मनमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। गीता 13/24 ।।
अर्थात् परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में रखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञान योग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं | उपरोक्त तीनों मार्ग ही भक्ति-योग के अंतर्गत आ जाते हैं क्योंकि सभी मार्गों पर चलते हुए परमात्मा से भक्त हुआ जा सकता है | सभी, मार्ग एक दूसरे के पूरक (Supportive) हैं | यहाँ पर हम जिज्ञासु से आगे बढ़ते है और तीनों मार्गों से अलग उस मार्ग की चर्चा करेंगे, जो उपरोक्त तीनों मार्गों का मुख्य मार्ग होते हुए भी इन तीनों से बिल्कुल ही अलग है | यह उन भक्तों के लिए है, जो जिज्ञासु से सीधे छलांग लगाते हुए परमात्मा के साथ प्रेम-बंधन में बंध जाते हैं और शरणागत होते हुए अनन्य भक्ति को प्राप्त होते हैं | उनके लिए ऊपर वर्णित तीनों मार्गों में से किसी एक मार्ग पर चलने की कोई आवश्यकता नहीं रहती | भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसका वर्णन भक्ति-योग नामक अध्याय में विस्तृत रूप से किया है | इस अध्याय में भगवान ने शुरुआत में निराकार पर साकार भक्ति को महत्व दिया है | तत्पश्चात ध्यान, ज्ञान, कर्म मार्ग के बारे में समझाते हैं और साथ में अभ्यास योग की भी बात करते हैं |
गीता के भक्ति-योग नामक 12 वें अध्याय के अंत में भगवान श्री कृष्ण एक आदर्श भक्त के लक्षण बताते हुए अपनी बात को इस प्रकार विराम देते हैं-
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते |
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेSतीव में प्रियाः || गीता 12/20 ||
अर्थात् परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर उपरोक्त धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझे अतिशय प्रिय हैं |
इस श्लोक (गीता - 12/20) में भगवान ने भक्ति-योग के लिए चार महत्वपूर्ण बातें कही है | प्रथम तो इस मार्ग पर चलने वाले के मन में परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा (Devotion) होनी आवश्यक है | बिना श्रद्धा के आप चाहे जितना परमात्मा का स्मरण कर लें, आपका भक्त होना असंभव है | दूसरी बात, इस मार्ग पर चलने वाले को परमात्मा के परायण होना आवश्यक है | परायण (Dependent) का अर्थ है, समर्पण (Surrender), परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण | तीसरी बात, इस अध्याय (12वें) में जो भी लक्षण एक भक्त (Characteristics of a devotee) के बताये गए हैं, उनको जीवन में उतारना, उनके अनुरूप अपना जीवन बनाना | अंत में अति महत्वपूर्ण चौथी बात कि जीवन में जो भी कार्य स्वयं को भक्त बनाने के लिए करें, वे सभी निष्काम भाव (Selfless act) से करें | निष्काम भाव से अभिप्राय है कि जो भी कर्म आप भक्ति-मार्ग पर चलते हुए एक भक्त होने के लिए करते हो, उनको करने के लिए किसी भी प्रकार की कामना न करें, यहाँ तक कि मन में परमात्मा से योग की भी कामना ( Wishes) नहीं होनी चाहिए | बड़ी अजीब बात है, भगवान ऐसे कैसे कह रहे हैं? मैं कहता हूँ कि श्रीकृष्ण एकदम सही कह रहे हैं | कामनाएं ही तो परमात्मा के साथ योग में बाधक है, चाहे वह कामना ईश्वर प्राप्ति की ही क्यों न हो ?
गीता के इस श्लोक (12/20) में भगवान ने पहले ही कह दिया है कि मेरे परायण होकर इस धर्म मय (Ethnic) अमृत (Elixir) का निष्काम प्रेम भाव से श्रद्धायुक्त होकर सेवन कर | जो ऐसा करते है, वे भक्त मुझे अतिशय प्रिय ( Extremely Affectionate) है अर्थात् बहुत ही अधिक प्रिय हैं| जब आपके जीवन में यह सभी लक्षण उतर आयेंगे, तब आप अपने आप को परमात्मा के अति निकट पाएंगे | ऐसे में फिर किसी प्रकार की कामना करने की आवश्यकता ही नहीं है | इस योग के लिए आपको न तो किसी भी प्रकार के ज्ञान (Knowledge) अथवा ध्यान (Meditation) की आवश्यकता है और न ही किसी विशेष कर्म (Specific act) की | आवश्यकता है, मात्र परमात्मा के प्रति श्रद्धा और समर्पण की |
आदर्श भक्त के लक्षण –(Characteristics of an ideal Devotee) --
मनुष्य जब भक्त की अवस्था को प्राप्त करता है तब एक भक्त में जो लक्षण प्रकट हो जाते हैं, उनका वर्णन भगवान श्री कृष्ण गीता में भक्ति-योग नामक 12वें अध्याय में बहुत ही सुन्दर तरीके से बताते हैं । उनके अनुसार निम्न प्रकार के लक्षण एक भक्त में होने चाहिए । जिस भक्त में यह लक्षण होते है, वही भक्त मुझे प्रिय है । ये लक्षण हैं -
किसी भी प्राणी के लिए द्वेष भाव न होना (No discrepancies), सबके साथ मैत्री पूर्ण व्यवहार रखना (Friendly), बिना स्वार्थ के, सबके प्रति दयालु होना ( Kindness), ममता रहित होना (Without endearment), अहंकार रहित होना (No Egocentric), सुख-दुःख में समान रहना (Even and smooth in each and every situation), क्षमा भाव का होना (Forgiveness), सभी प्रकार से संतुष्ट रहना (Satisfied in life), दृढ निश्चयी होना (Determined), मन और बुद्धि को परमात्मा में अर्पित कर देना (Dedication), किसी भी जीव को उद्वेलित नहीं करना (Not to impulse any one), किसी भी जीव से उद्वेलित न होना (Not be impulsive from any one), हर्ष, अमर्ष(दूसरे की उन्नति देखकर परेशान होना), भय और उद्वेग से रहित होना ( Above from all fears), आकांक्षा से रहित होना (Without any ambition), बाहर और भीतर दोनों में शुद्ध रहना (Purity), प्रत्येक कार्य में दक्ष होना (Expert), पक्षपात से रहित होना (No pros and cons), दुःख में दुखी न होना (No sadness), सभी कार्य के प्रारंभ करने का श्रेय न लेना (No wish for credit), अधिक हर्षित न होना (No excessive delights), द्वेष न करना (No bitterness), शोक न करना (No sorrow), किसी भी प्रकार की कामना न करना (No expectations), शुभ-अशुभ सभी कर्मों का त्याग कर देना (Abandon all acts), शत्रु और मित्र में सम रहना (Treat equally friends and enemy), मान-अपमान में सम रहना (Smooth in respect and disrespect), सर्दी-गर्मी में सम रहना (Even in hot and cold) अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में सम रहना, आसक्ति-रहित होना (No attachment), निंदा और प्रशंसा को एक समान समझना (Even in criticism and praises), मननशील होना (Contemplative) और भक्तिमान होना (Religious) |
गीता के भक्ति-योग अध्याय में भक्त के लक्षण जो भगवान् ने बताये हैं, आज के समय उनमें से किसी एक का अनुसरण करना मनुष्य के लिए कितना असंभव होता जा रहा है, यह हम सब जानते हैं | यही कारण है कि आज के समय आदर्श भक्त का मिलना असंभव सा होता जा रहा है | फिर भी भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य जितना भी हो सकता है और मेरे परायण होकर निष्काम भाव से इनकी पालना करता है, वह भक्त मुझे प्रिय है |
हमारे शास्त्रों में भक्ति नौ प्रकार की बताई गयी है | श्रीमद्भागवत महापुराण और श्रीरामचरितमानस में इनका वर्णन किया गया है | गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में भक्ति की अवस्थाओं के बारे में बड़ी ही साधारण भाषा में स्पष्ट किया है, जिसे नवधा-भक्ति कहा गया है | अरण्य कांड में भगवान श्री राम के द्वारा शबरी को भक्ति की नौ अवस्थाओं के बारे में बताते है | गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में अरण्य काण्ड में भक्ति के बारे में कहते हैं-
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा | दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ||
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान |
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ||35||
मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा | पंचम भजन सो बेद प्रकासा ||
छठ दम सील बिरति बहु करमा | निरत निरंतर सज्जन धरमा ||
सातवं सम मोहि मय जग देखा | मोतें संत अधिक कर लेखा ||
आठवं जथालाभ संतोषा | सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ||
नवम सरल सब सन छलहीना | मम भरोस हियँ हरष न दीना ||
नव महुं एकउ जिन्ह कें होई | नारि पुरुष सचराचर कोई ||
सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरें | सकल प्रकार भगति दृढ तोरें ||
श्री रामचरितमानस के आरण्यकाण्ड में भगवान श्री राम ने शबरी को जो नवधा भक्ति बतायी है, वे नौ भक्ति इस प्रकार है -
प्रथम भक्ति- संत महात्मा और तत्व ज्ञानी गुरु की सेवा में रहना | दूसरी भक्ति- परमात्मा की ही चर्चा करना | तीसरी भक्ति- अभिमान रहित होकर गुरु की सेवा करना | चौथी भक्ति- सब कपट त्यागकर परमात्मा का गुणगान करना | पांचवीं भक्ति- परमात्मा में दृढ़ विश्वास रखते हुए उसके मन्त्र का जाप करना | छठी भक्ति- इन्द्रिय निग्रह, अच्छा चरित्र और सज्जन पुरुषों जैसा आचरण करना | सातवीं भक्ति – संसार को सम भाव से देखना और सब में परमात्मा को ही देखना | आठवीं भक्ति- जो मिल जाये उसी में संतोष करना और सपने में भी दूसरों के दोष न देखना | नौवीं भक्ति- सरलता, सबके साथ कपट रहित व्यवहार, हृदय में परमात्मा का विश्वास और किसी भी बात से मन में हर्ष या विषाद का न होना | इन में से कोई भी एक भक्ति जिस किसी में होती है, वह परमात्मा को अतिशय प्रिय होता है |
इसी प्रकार भागवतजी में भक्त प्रह्लाद अपने पिता को नौ प्रकार की भक्ति से अवगत कराते हैं -
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् || 7 /5 /23 ||
ये नौ प्रकार की भक्ति है - भगवान् के गुण-लीला आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके नाम-रूप का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन |
जब एक सांसारिक व्यक्ति, जीवन में बार बार दुखों का सामना करता है, तब उसे परमात्मा याद आते हैं | वह आर्त भाव से उन्हें पुकारता है | परमात्मा को प्रत्येक वह व्यक्ति प्रिय है, जो उसका स्मरण (Remembrance) करता है, चाहे स्मरण वह किसी भी भाव (Aspects) से करता हो | इसी प्रकार अन्य भावों से स्मरण करने वाले चाहे अपने स्वार्थ (Selfishness) पूर्ति के भाव हो, चाहे जिज्ञासा (Willing to know) के भाव से ज्ञान (Knowledge) प्राप्त करने के लिए या बिना किसी कामना ( Selflessly ) के स्मरण करते हो, परमात्मा को ऐसे सभी व्यक्ति प्रिय हैं | अतः भक्ति-योग के लिए इनमें से कोई भी परिस्थिति, किसी भी समय प्रेरक की भूमिका में आ सकती है |
इस प्रकार हमने अब तक भक्ति के बारे में शास्त्रों के अनुसार अल्प रूप से विवेचन किया है | अब शास्त्रों और आधुनिक विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए इस विवेचन को नया मोड़ देने का प्रयास करते हैं | इस अध्ययन से हमारे यह समझ में आ जायेगा कि भक्ति कोई साधारण सी बात नहीं है बल्कि विज्ञान सम्मत एक साधन है, स्वरुप तक पहुँचने के लिए |
विज्ञान ने यह स्वीकार किया है कि संसार में चारों और ऊर्जा ही ऊर्जा है | जो कार्य हो रहा है, जो यह कार्य कर रहा है और जिसके लिए यह कार्य हो रहा है, सब ऊर्जा के ही विभिन्न रूप है अर्थात् सब जगह केवल ऊर्जा का ही स्वरूप परिवर्तित हो रहा है। सनातन धर्म शास्त्र, इसी सत्य को सदियों से कहते आ रहे है |
हमारे ऋषियों और मुनियों ने ऊर्जा को शक्ति कहा है | दोनों ही शब्द एक दूसरे के पर्याय (Synonym) है | अतः सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि यहाँ जो भी कुछ हो रहा है वह सब इस ऊर्जा का ही खेल है | ऐसा मानने के लिए कोई अधिक ज्ञान की आवश्यकता भी नहीं होती, केवल मात्र इतना ज्ञान ही पर्याप्त है | परमात्मा इसी ऊर्जा, इसी शक्ति का पर्याय है | यह ज्ञान है |
ऊर्जा अर्थात शक्ति से परे भी कुछ है तथा इस ऊर्जा का अस्तित्व जिसके कारण है, वह परमात्मा है | यह विज्ञान है । शक्ति से परे होना शक्ति से भिन्न होना नहीं है बल्कि शक्ति का परमात्मा से अभिन्न होना है | कहने का अर्थ है कि परमात्मा की जो शक्ति है और वह शक्ति जब अक्रिय अवस्था में रहती है तब वह स्थतिज ऊर्जा (Potential energy ) कहलाती है । यही शक्ति जब सक्रिय हो जाती है, तब वह गतिज ऊर्जा (Kinetic energy ) कहलाती है | यह सक्रिय ऊर्जा ही प्रकृति कहलाती है | प्रकृति सक्रिय ऊर्जा होते हुए भी परमात्मा से अभिन्न है क्योंकि उसकी जनक गतिज ऊर्जा है, जोकि परमात्मा से अभिन्न है |
आधुनिक विज्ञान का कहना कि इस ब्रह्माण्ड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जो दिखलाई दे रहा है, वह सब ऊर्जा का व्यक्त रूप है और जो दिखलाई नहीं पड़ रहा, वह ऊर्जा का अदृश्य रूप है | परन्तु आज का विज्ञान यह नहीं जान सका है कि ऊर्जा का उद्भव कहाँ से हुआ है ? इस प्रश्न पर वह मौन है | परन्तु हमारे शास्त्र, कहते हैं - “वासुदेव सर्वम्” अर्थात परमात्मा सब जगह है और यह शक्ति परमात्मा के प्रत्येक अंश में स्थित है | ऐसे में आधुनिक विज्ञान की सोच लगभग वही हुई जो हमारे शास्त्रों ने कहा है | शास्त्रों में इसी शक्ति को सती और ऊर्जा को उमा नाम से कहा गया है | बौद्धिक रूप से हम इसको परमात्मा की प्रकृति कहते हैं | हमारे शास्त्र आधुनिक विज्ञान से भी आगे हैं क्योंकि वे कहते हैं कि शक्ति परमात्मा की है परन्तु परमात्मा केवल शक्ति तक ही सीमित नहीं है | हमें यह सब ज्ञान कहाँ से उपलब्ध होगा ? हमारे लिए इसे जानना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है |
गीता का ज्ञान हमें “वासुदेव सर्वम्” तक ले जा सकता है, जोकि इस महान ग्रन्थ का सार है | “वासुदेव सर्वम्” के भाव तक किस प्रकार पहुंचा जा सकता है ? एक मात्र भक्ति ही इसके लिए सर्वोत्तम मार्ग है | भक्ति को उपलब्ध होने के लिए तीन प्रेरक हैं, जो हमें सुगमता से भक्त बना सकते हैं |
1.किसी ज्ञानी और विवेकी पुरुष के सानिध्य से |( Consort of intellectual )
2.परिस्थितियों से समझ पैदा होना| ( Circumstances )
3.पूर्व जन्म के संस्कार से |( Acts of past life )
आइये ! अब इन भक्ति-योग के तीनों प्रेरकों पर थोड़ी चर्चा करते हुए विवेचन को गति दें ।
1.किसी ज्ञानी और विवेकी पुरुष के सानिध्य से – (Guru ) --
जब व्यक्ति अपने जीवन यापन के लिए सांसारिक गतिविधियों (Worldly Acts) में अत्यधिक उलझा रहता है, तब उसे परमात्मा के बारे में जानने और समझने की जिज्ञासा तक नहीं होती | वह आर्त (Repentance) और अर्थार्थी (Willing to gains) की स्थिति से जरा सा भी आगे गति नहीं कर पाता | यहाँ तक जो स्थिति होती है वह जन्म जन्मान्तरों (Many lives) तक परिवर्तित हो नहीं पाती | यह स्थिति ऐसी होती है जब व्यक्ति को एक तत्व ज्ञानी पुरुष से मार्गदर्शन ( Guidance) की आवश्यकता होती है | इसीलिए हमारे यहाँ सदियों से गुरु-शिष्य परम्परा चली आ रही है | यहाँ गुरु तत्व ज्ञानी पुरुष होने के साथ-साथ शास्त्रों का मर्मज्ञ भी होता है | इसी कारण से उसकी भूमिका एक कुशल मार्गदर्शक (Expert guide) की होती है ।
आज इस कलियुग में एक आदर्श गुरु मिलना भी दुर्लभ (Inaccessible) है | गुरु की प्रथम और आधारभूत योग्यता उसका तत्व ज्ञानी (Expert in the field of elemental knowledge ) होना है | बिना तत्व ज्ञान के न तो गुरु परमात्मा तक पहुंचेगा और न ही शिष्य को सही मार्ग दिखला सकेगा | आज के तथाकथित गुरु (So called Guru) केवल अपना कुनबा (Community) बढाने में ही लगे है, शिष्यों से अपनी ही पूजा करवाने में लगे है | ऐसे व्यक्ति कैसे एक सच्चे मार्गदर्शक हो सकते है? अतः आवश्यकता है, एक सच्चे गुरु की जो परमात्मा को प्राप्त करने का सही मार्ग और उस पर चलने का तरीका बता सके |
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते |
तेSपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः || गीता 13/25 ||
अर्थात् ऐसा पुरुष जो ज्ञान, ध्यान और कर्म मार्ग के बारे में नहीं जानते हैं, वे दूसरे तत्वज्ञान रखने वाले पुरुषों से सुनकर तदनुसार (Accordingly) उपासना करते हैं ,वे श्रवण परायण पुरुष भी मृत्यु रुपी संसार सागर को निःसंदेह ( No doubt in it ) तैर कर पार कर जाते हैं |
यहाँ पर श्रीकृष्ण यही समझा रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह परमात्मा को ज्ञान, ध्यान या कर्म मार्ग से प्राप्त कर सके | ऐसे व्यक्ति तत्व ज्ञानियों के सत्संग से भी जानकर उनके बताये उपासना पद्धति को अपनाकर भी इस संसार से मुक्त हो सकते हैं | इस उपासना पद्धति में तत्व ज्ञानी पुरुषों के अनुभव (Experience) और उनके द्वारा अपनाये गए मार्ग का लाभ अनुसरणकर्ता (Followers) को मिल सकता है | परन्तु यहाँ पर भी परमात्मा के प्रति परायणता यानि समर्पण भाव आवश्यक है |
जैसाकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चूका है कि उपमार्ग (ज्ञान, ध्यान, कर्म आदि) चाहे कोई सा भी हो मुख्य मार्ग (भक्ति) तो एक ही होता है | आप चाहें तो उपमार्ग पर चलते हुए मुख्य मार्ग पर आकर लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं और अगर उपमार्ग पर चलना कठिन प्रतीत होता हो तो सीधे मुख्य मार्ग पर भी आकर लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है | मुख्य मार्ग (भक्ति) की विशेषता है कि उस पर चलकर सीधे लक्ष्य तक भी पहुंचा जा सकता है और उपमार्ग पर भी जाया जा सकता है | मुख्य मार्ग से उपमार्ग पर तो फिर भी जाया जा सकता है परन्तु उपमार्ग से केवल मुख्य मार्ग पर ही आया जा सकता है | अतः यह स्पष्ट होता है कि भक्ति मार्ग से ज्ञान को भी उपलब्ध हुआ जा सकता है | ज्ञान, ध्यान और कर्म तभी सफल माने जा सकते हैं जब वह आपको भक्ति तक ले जाए।
चलिए ! अब भक्ति के दूसरे प्रेरक की चर्चा करते हैं |
2.परिस्थितियों से समझ पैदा होना—( Circumstances) --
परमात्मा का ज्ञान सदैव ही मनुष्य को विपरीत परिस्थितियां पैदा होने पर ही होता है | अगर इस संसार में सदैव सुख ही सुख मिलता रहे तो शायद ही कभी कोई परमात्मा को याद करे | सुखी व्यक्ति को दुःख का एक दंश ही परमात्मा का ज्ञान कराने के लिए पर्याप्त होता है | युवराज सिद्धार्थ को जन्म के बाद से ही दुःख से दूर रखने के सभी उपाय किए गए | एक दिन राजकुमार रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण को निकले | अचानक उनके सामने से शवयात्रा निकली | उन्होंने अपने सारथी से पूछा कि यह क्या हो रहा है ? इसको कहां ले जा रहे हैं ? सारथी ने बताया कि यह व्यक्ति मर गया है, उसके रिश्तेदार उसको जलाने के लिए ले जा रहे हैं | तब युवराज सिद्धार्थ ने पूछा-“क्या ऐसा मेरे साथ भी होगा ? सारथी बोला-“हाँ युवराज, इस धरती पर जन्म लेने वाले को एक न एक दिन सबको मरना ही पड़ता है |“
तभी रथ के सामने से एक कृशकाय व्यक्ति, कमर से झुका हुआ, लाठी के सहारे गुजरा | राजकुमार ने सारथी से फिर पूछा-“इस व्यक्ति को क्या हुआ”? सारथी ने जवाब दिया- “यह व्यक्ति वृद्ध हो गया है | फिर यह भी एक दिन मर जाएगा ।” सिद्धार्थ ने फिर पूछा-“क्या मैं भी एक दिन वृद्ध होऊंगा ?” सारथी ने कहा-“हाँ युवराज. प्रत्येक युवा एक दिन वृद्ध होगा |” सिद्धार्थ उसी समय रथ से उतरा और बोला-“जब सबको एक दिन वृद्ध होना और मर जाना है. तो फिर इस मरणधर्मा शरीर से मोह ही क्यों ?” वे राजभवन लौट गए | उन्होंने रात को ही अपने राजसी वस्त्र त्याग दिए और सोती हुई पत्नी को छोड़ कर राजभवन से निकल गए- सत्य की खोज में | यही राजकुमार सिद्धार्थ सत्य पाकर भगवान बुद्ध कहलाए |
लगभग कुछ ऐसा ही गोस्वामी तुलसीदास जी के साथ हुआ, जो आप सब जानते ही है | धर्मपत्नी ने अपने पीहर में तुलसीदास जी को आते ही कह दिया- “तुम्हारी जितनी आसक्ति मेरे इस शरीर में है, उतनी अगर परमात्मा में होती, तो तुम्हारा कल्याण हो गया होता |” गोस्वामीजी को तत्काल ज्ञान हो गया | वे उसी समय पत्नी को छोड़कर सत्य की खोज में निकल गए | आज उनकी राम-भक्ति हमारे सामने श्री रामचरितमानस ग्रन्थ के रूप में है |
पत्नी द्वारा हृदय को घायल कर देने वाले वचन सुनकर तुलसीजी परमात्मा की खोज में निकल पड़े । नाम जप के द्वारा परमात्मा की भक्ति को प्राप्त हुए तुलसीदास जी ने स्वयं के बारे में मानस में लिखा है –
नामु राम को कल्पतरु, कलि कल्याण निवासु |
जो सुमिरत भयो भाँग ते, तुलसी तुलसीदास || (रामचरितमानस बालकाण्ड-26 )
यहाँ तुलसीदास जी कहते हैं कि कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (कामना पूरी करने वाला एक वृक्ष) और कल्याणकारी है, जिसके स्मरण करने से भाँग सा निकृष्ट मैं तुलसीदास भी तुलसी के समान पवित्र हो गया |
कहने का अर्थ यह है कि एक छोटी सी घटना और परिस्थिति भी व्यक्ति को परमात्मा की तरफ ले जाने के लिए पर्याप्त होती है | आपको ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे, जिसमें परिस्थितियों ने व्यक्ति को संसार से विमुख कर परमात्मा का ज्ञान करवा दिया | किसी भी व्यक्ति को जब ऐसी विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, तब वह अपने कर्मों को उत्तरदाई न मानकर परमात्मा को ही उत्तरदाई बताता है | हाँ, यह बात एक सीमा तक सही भी है | परमात्मा उसके सामने ऐसी परिस्थितियां उसके कल्याण के लिए ही पैदा करते हैं | जीवन में दुःख न हो तो शायद ही कोई परमात्मा के सम्मुख होने की सोचे | संसार के भोगों का आकर्षण हमें इस प्रकार बांधे रखता है कि सुख के अतिरिक्त किसी और की कामना हमारे मन में भी नहीं उठती | कुंती ने भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने से पूर्व उनकी स्तुति करते हुए कहा भी है -
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो |
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् || (भागवत-1/8/25)
अर्थात हे जगद्गुरु ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियां आती रहे; क्योंकि विपत्तियों में ही आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता | विपरीत परिस्थितियां भी भगवान् पैदा करते हैं | जीवन में दुःख भी उसी को मिलता है जिस पर भगवत्कृपा होती है | तभी मनुष्य भगवान् की और चलने को उद्यत होता है | गोस्वामी तुलसी दासजी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है –
सोई जानइ जेहि देहु जनाई | जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ||(श्रीरामचरितमानस अयोध्या कांड127/3)
यहाँ इस चौपाई से स्पष्ट है कि परमात्मा जिसको स्वयं के बारे में जनाना चाहता है, वही व्यक्ति परमात्मा को जान सकता है | परमात्मा को जानते ही वह उससे भक्त होकर स्वयं परमात्म स्वरूप हो जाता है | अतः परमात्मा को जानने के लिए भगवत कृपा होना आवश्यक है |
3.पूर्व जन्म के संस्कार से—( Good acts of past life ) --
गीता में भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन पूछते हैं कि जिस का मन योग से विचलित हो गया हो, वह भगवान को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त होता है| क्या ऐसा पुरुष बादलों की तरह छिन्न भिन्न होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ? प्रत्युतर (In reply) में श्रीकृष्ण कहते हैं कि नहीं, ऐसा नहीं होता | ऐसे व्यक्ति का न तो इस लोक में और न ही परलोक में विनाश होता है| भगवत प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता| ऐसा पुरुष किसी शुद्ध आचरण वाले पुरुष (Person with good conduct) के घर में पुनर्जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान योगियों (Intellectual) के कुल (Family) में, जिससे वह अपने पूर्व संग्रहित योग के संस्कारों (Acts collected in past life) को प्राप्त होकर भक्ति-मार्ग पर पुनः आगे की यात्रा शुरू कर देता है | इसीलिए सनातन धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि जीवन में किए गए कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते हैं | उनका कर्म फल कभी न कभी भोगना ही पड़ता है | सत्कर्मों के फलस्वरूप व्यक्ति नए जन्म में भक्ति की राह पर आगे बढ़ सकता है | गीता में भगवान कहते हैं-
प्रयत्नाद्यतमनस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः |
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ||गीता 6/45 ||
अर्थात् प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मो के संस्कार-बल से इसी जन्म में संसिद्ध (Perfect) होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो तत्काल ही परम गति को प्राप्त हो जाता है |
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट कर रहे हैं की कोई भी व्यक्ति जो परमात्मा से योग करने का प्रयास करता है, वह अगर मार्ग के मध्य में विचलित (Deterioration) भी हो जाता है तो भी इसके द्वारा किया हुआ यह प्रयास कभी भी निष्फल ( Waste) नहीं जायेगा | वह नया जन्म लेकर फिर से उस मार्ग पर अग्रसर होगा | कितने ही जन्मों के संस्कार उसे इस पथ पर निरंतर तब तक आगे बढ़ाते रहेंगे, जब तक वह परमात्मा तक नहीं पहुँच जाता | प्रत्येक परिस्थिति में यह आवश्यक है कि मनुष्य संसार के विषय भोगों में पुनः न उलझे |
भक्ति का विज्ञान - (Science of devotion ) -
जैसा कि हम जानते हैं कि संसार में जो भी दृश्यमान (Visible) है, वह सब ऊर्जा का ही व्यक्त रूप है तथा जो अदृश्य ( Invisible) है, हम जिसे देख नहीं पा रहे है फिर भी जो ‘है’, वह इसी ऊर्जा का अदृश्य अव्यक्त रूप है | ऊर्जा का जो व्यक्त (visible) रूप है, वास्तव में दिखलाई पड़ते हुए भी वह “नहीं” है क्योंकि यह ऊर्जा प्रतिपल अपने आप को परिवर्तित कर रही है। ऊर्जा का जो अदृश्य (invisible) रूप है, वह वास्तव में “है” है क्योंकि यह ऊर्जा स्वयं को परिवर्तित नहीं करती है। दोनों ऊर्ज़ाएँ अर्थात् उनका “है” और “नहीं” रूप आपस में सम्बन्धित है क्योंकि ऊर्जा एक ही है। हम जो “नहीं” है फिर भी दिखलाई पड़ रही है, उसको ही सत्य समझने लगते है, जबकि यह भ्रांति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है क्योंकि इसमें स्थायित्व का अभाव है । इस संसार में, समस्त ब्रह्माण्ड में ऊर्जा (Energy) ही है जो कभी भी समाप्त नहीं होती, केवल अपना स्वरूप बदल लेती है | स्वामीजी इस बात को स्पष्ट एक दोहे के माध्यम से किया करते थे -
“है” सो सुन्दर है सदा, “नहीं” सो सुन्दर नाहीं |
“नहीं” सो प्रगट देखिये, “है” सो दिखे नाहीं ||
हम सब जानते है कि विद्युत (Electricity) से चुम्बकत्व पैदा होता है और चुम्बक ( Magnet) से विद्युत पैदा की जा सकती है | इसी प्रकार, ईंधन (Fuel) में उपस्थित ऊर्जा से पानी को गर्म किया जा सकता है, मोटर और वायुयान चलते हैं, ध्वनि तरंगों (Sound waves) को रेडियो तरंगों (Radio waves) में बदलकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर तेजी के साथ भेजा जा सकता है आदि | ऐसे अनेकों उदाहरण आपके आसपास देखने को मिल जायेंगे, बस देखने की दृष्टि होनी चाहिए | मुख्य बात यह है कि यह सब उस एक ऊर्जा का ही व्यक्त रूप है जो प्रतिपल बदल भी रही है।जो प्रतिपल बदलता है, उसका होना न होकर “नहीं” होना ही है। प्रत्येक दिखलाई पड़ने वाली वस्तु में आकर्षण अवश्य ही होता है, उस ओर हमारा ध्यान अवश्य ही जाता है। दृश्यमान को देखने के कारण ही हमारा उसके प्रति आकर्षण हो जाता है और “है” इस प्रकार “नहीं” के निरंतर परिवर्तित होने वाले रूप को देखकर उसके साथ बंध जाता है। “नहीं” के साथ बंधकर भी “है” कभी नहीं बदलता परंतु “नहीं” को बदलते देखकर “है” स्वयं में वह परिवर्तन अनुभव करने लगता है । यही माया है । इस माया के अनुभव से स्वयं को अलग कर लेने का नाम ही मुक्ति है।
परमात्मा या परम ब्रह्म या परम पुरुष जब विभक्त होता है तब उसके तीन स्वरूप बन जाते हैं- 1.ब्रह्मा - पुरुष या आत्मा, चेतना 2. विष्णु- प्रकृति व उसके गुण 3.शिव –पदार्थ, शरीर | परा चुम्बकीय क्षेत्र में ऊर्जा का वह रूप स्थित है जो स्थायित्व (Stability) लिए हुए है, इस क्षेत्र को ही हम परम ब्रह्म, परम पुरुष कह सकते है | ऊर्जा का यह स्वरूप जिसमें स्थित है वही परमात्मा कहलाता है | इस चुम्बकीय क्षेत्र में ही इसी से कई अनगिनत लघु चुम्बकीय क्षेत्र पैदा होते है, जिन्हें ब्रह्म, पुरुष अथवा आत्मा (Soul) कहा जाता है | एक आत्मा के वही गुण धर्म होते हैं, जो परमात्मा के होते हैं, कहीं किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं | परमात्मा की ऊर्जा से आत्मा के अतिरिक्त प्रकृति और उसके गुण विकसित होते हैं, जो जीवन के लिए भरण-पोषण करने के लिए (विष्णु) आवश्यक है क्योंकि अंततः इस ऊर्जा को पदार्थ और भौतिक शरीर (शिव) के रूप में भी विकसित होना होता है | पदार्थ और शरीर की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते ऊर्जा के गुण धर्म अलग हो जाते हैं | यह आत्मा रुपी चुम्बकीय ऊर्जा (ब्रह्म) भौतिक शरीर की चेतना है | भौतिक शरीर का भी अपना एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है, जिसे जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र ( Bio electric magnetic field ) कहा जाता है | जब आत्मा इस भौतिक शरीर के ऊर्जा क्षेत्र (Energy field) के साथ आकर योग कर लेती है तब वह परमात्मा के ऊर्जा क्षेत्र से अपने आपको विभक्त (Detach) मानने लग जाती है, वास्तव में होती नहीं है | अपने को अलग मान लेने के कारण, परमात्मा की ऊर्जा के द्वारा विकसित होने वाले अगले जो दो रूप है ( प्रकृति और पदार्थ), से वह अपना सम्बन्ध होना मान लेती है | जबकि आत्मा की ऊर्जा का स्वभाव और उसके गुण धर्म (Properties) परमात्मा की ऊर्जा के समकक्ष (Equal level) ही होते हैं | भक्ति-योग में, आत्मा रुपी इस ऊर्जा को प्रकृति और शरीर की ऊर्जा से अपने आपको मुक्त कर पुनः परमात्मा के साथ संयुक्त (Attach) करना होता है |
भौतिक शरीर की ऊर्जा को परमात्मा की ऊर्जा में मिलाना कैसे संभव हो सकता है ? इसको जान और समझ लेना ही भक्ति का विज्ञान है | इसे कैसे और कहाँ से प्रारम्भ किया जाये ? यही जानना आवश्यक है । गीता में इसके लिए तीन मार्ग बताते हुए उन पर चलने के बारे में पूर्व में चर्चा की गई है | ये तीन मार्ग हैं- ध्यान-मार्ग, ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग | ये तीनों मार्ग भी भक्ति के मार्ग ही हैं | परन्तु जो इनसे अलग मार्ग है वह ऐसा मार्ग है जिसमें तीनों साधन ही उपयोग में लिए नहीं जाते है, फिर भी लक्ष्य की प्राप्त हो जाती है | इस मार्ग पर चलकर व्यक्ति निष्काम कर्म, ज्ञान और ध्यान को भी परमात्मा के साथ ही प्राप्त कर लेता है | इस मार्ग पर चलकर परमात्मा तक पहुँचने वालों के नाम अमर है, जिसमें भक्त ध्रुव से लेकर मीरा बाई तक सम्मिलित है | भारतीय इतिहास का एक युग तो ऐसे भक्तों के कारण भक्ति-काल कहा जाता है | इस काल में भक्त कबीर, रैदास. राम दास, सूरदास, रसखान, गोस्वामी तुलसी दास, मीरा बाई इत्यादि अनगिनत भक्त पैदा हुए | ये सभी भक्त, एक साधारण मनुष्य के रूप से छलांग लगाते हुए सीधे परमात्मा को उपलब्ध हुए | इन्होंने कभी भी ज्ञान, कर्म या ध्यान मार्ग का प्रारंभिक स्तर पर उपयोग नहीं किया, फिर भी ध्यान और ज्ञान को प्राप्त करते हुए निष्कर्मता का पालन किया | वे भक्त परमात्मा के साथ उसी प्रकार संवाद करते थे, जैसे दो व्यक्ति आपस में करते हैं |
शरीर में स्थित इन्द्रियों ( Senses ) का अपना ऊर्जा क्षेत्र होता है और मन का अपना | इस भौतिक शरीर में प्रवेश करते ही आत्मा की ऊर्जा परमात्मा की ऊर्जा से स्वयं को अलग मानकर मन की ऊर्जा के आकर्षण में बंधकर उसके साथ सामंजस्य स्थापित कर लेती है | आत्मा की ऊर्जा, मन की ऊर्जा के साथ लगभग एक अटूट सम्बन्ध बना लेती है | यह सम्बन्ध प्रकृति के गुणों (Properties ) और उनके विषयों (Subjects) के कारण ही बनता है | जब तक इस सम्बन्ध का कारण साधारण व्यक्ति के संज्ञान (Knowledge) में नहीं आता है, तब तक वह इस बंधन को ही अपने जीवन का आनंद समझता रहता है | साधारण पुरुष इस बंधन को ऊपर उल्लेख किए गए, तीन मार्गों में से किसी भी एक मार्ग पर चलते हुए अपने अथक प्रयास से ही समझ पाता है | कोई तत्व ज्ञानी व्यक्ति यानि गुरु का सान्निध्य या व्यक्ति के समक्ष कोई भी प्रतिकूल परिस्थिति अथवा उसके पूर्व जन्म के संस्कार ही उसे इस बंधन के बारे में समझा सकते हैं | जब व्यक्ति इस बंधन को अनुचित मान लेता है, तब वह भक्ति-योग के लिए तत्पर हो जाता है | भक्ति के लिए प्रारम्भिक स्तर (Primary level) पर इस बंधन की गांठें खोलना शुरू करना होता है | इसके लिए ज्ञान, ध्यान या फिर कर्म-मार्ग अपनाना पड़ता है | एक साधारण व्यक्ति के लिए हो सकता है कि उपरोक्त तीनों मार्ग ही अनुपयुक्त हो | ऐसे में उसके सामने मात्र एक ही रास्ता बचता है, और वह है श्रद्धा और विश्वास का, परमात्मा के शरणागत होने का | इसी मार्ग से छलांग लगाकर भी सीधे परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है |
आत्मा, जो कि व्यक्ति स्वयं है, को अपने आपको इन्द्रियों के गुणों और विषयों से एकात्मता समाप्त करनी होगी | इन्द्रियों के विषयों के भोगों से अपने आप को पृथक करना होगा | इसका अर्थ यह नहीं है कि इन्द्रियों से, मन से, विषयों आदि से दूरी बनाकर रखें | उनकी कार्य पद्धति और प्रकृति को समझे | यह समझते ही आपको आभास हो जायेगा कि आप शरीर नहीं है, शरीर में ही तो मन और इन्द्रियां है |जब आप एक शरीर नहीं है, तो क्या हैं ? आप स्वयं एक आत्मा है, अपने आपको परमात्मा से विभक्त माना हुआ उसी का ऊर्जा क्षेत्र | जब आत्मा की ऊर्जा अलग है और शरीर की ऊर्जा अलग, तो फिर इस ऊर्जा का शरीर की ऊर्जा से योग क्यों ? जब यह बात एक बार येन केन प्रकारेण (Any How) व्यक्ति के समझ में आ जाती है तो फिर उसका भौतिक शरीर में रहते हुए ही, इस शरीर से, इसके भोगों से और इस असत् संसार से मोह समाप्त हो जाता है | हमें शरीर, इन्द्रियों, विषयों, भोगों आदि की आलोचना नहीं करनी है क्योंकि ये सब भी परमात्मा की ही देन है | इनमें आसक्त न होना ही इनसे मुक्त होना है | इसी अवस्था को प्राप्त कर लेने के पश्चात ही परमात्मा की भक्ति प्रारम्भ होती है |
शरीर में ऊर्जा का संचरण आत्मा की ऊर्जा से होता है और आत्मा में परमात्मा की ऊर्जा से | एक दिन शरीर की ऊर्जा को भी आत्मा में विलीन होना है और अंततः आत्मा की ऊर्जा को परमात्मा की ऊर्जा में | यही भक्ति का विज्ञान है | कहने का अर्थ है कि परमात्मा की ऊर्जा का जब विकेन्द्रीकरण (Decentralization) होता है तब ऊर्जा का प्रकटीकरण प्रकृति, संसार और शरीर के रूप में होता है और जब इसी ऊर्जा का पुनः केन्द्रीकरण (Centralization) हो जाता है, तब समस्त ऊर्जा पुनः परमात्मा तक पहुँच जाती है | विज्ञान के अनुसार भक्ति में ऊर्जा का पुनः केंद्रीकरण होता है ।
ऊर्जा के केन्द्रीकरण के इसी सिद्धांत पर कुण्डलिनी जागरण आधारित है, जिसमें शरीर के छहों ऊर्जा चक्रों की ऊर्जा का समन्वय करते हुए शरीर के उच्चतम चक्र (आज्ञा-चक्र) तक पहुँचाया जाता है। यह आज्ञा-चक्र मनुष्य के मध्य मस्तिष्क (midbrain) में स्थित होता है । सनातन धर्म-शास्त्रों में इसी आज्ञा-चक्र को बुद्धि कहा गया है । आज्ञा-चक्र में केंद्रित हुई इस ऊर्जा को सहस्रार चक्र तक ले जाना है, जिसे चेतना अर्थात् आत्मा कहा जाता है। जहाँ से ऊर्जा का परमात्मा से पुनः मिलन होना संभव होता है । कुंडलिनी जागरण की राह, बड़ी कठिन राह है । इसकी तुलना में भक्ति कहीं अधिक सुगम और परिश्रम रहित है ।
भक्ति-मार्ग में आत्मीय ऊर्जा (Energy of the soul) के क्षेत्र को शरीर से अलग कर, परमात्मा के साथ योग करना होता है | यही भक्ति-योग का वैज्ञानिक आधार है |भक्ति-योग में आत्मा के चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field) को (आत्मीय ऊर्जा को) प्रारम्भिक अवस्था में मन और इन्द्रियों से पृथक करते हुए बुद्धि के क्षेत्र में केन्द्रित (Centralize ) किया जाता है | आत्मा के इस केन्द्रित हुए ऊर्जा क्षेत्र को जब स्थायित्व (Stability} प्राप्त हो जाता है, तब उस ऊर्जा क्षेत्र का संचलन (Conduction) परा चुम्बकीय क्षेत्र यानि परमात्मा (Para magnetic field) की और होता है, यह ऊर्जा की मध्यम (Intermediate) अवस्था परिवर्तन है | अंतिम परिवर्तन की अवस्था में इस आत्मा की ऊर्जा के चुम्बकीय क्षेत्र का संगम (Conjunction) परा चुम्बकीय क्षेत्र के साथ हो जाता है | यह सम्पूर्ण प्रक्रिया एक साधारण व्यक्ति से स्थितप्रज्ञ बनते हुए भक्त और महात्मा बन जाने की है |
भक्ति-विज्ञान की सम्पूर्ण प्रक्रिया को तीन हिस्सों में बाँट सकते हैं –
1.ऊर्जा संघटन (Energy composition)
2.ऊर्जा संचलन (Energy conduction)
3.ऊर्जा संगम (Energy conjunction)
आइये ! अब इन तीनों प्रक्रियाओं का अलग अलग विस्तृत रूप से आध्यात्मिक (Spiritual) और वैज्ञानिक (Scientific) स्तर पर तुलनात्मक अध्ययन करते हैं |
ऊर्जा संघटन – ( Energy composition)--
जब भक्ति का मार्ग व्यक्ति अपना लेता है तब उसके सामने केवल उसका लक्ष्य ही होता है, इसीलिए इस मार्ग पर छलांग लगाना सुगम है | ध्यान में रखने की बात यही है कि आँखों के सामने केवल लक्ष्य ही हो, अन्य कुछ भी नहीं | इसी को परमात्मा के प्रति श्रद्धा और परायण होना कहते हैं | यहाँ आकर आत्मा अपने चुम्बकीय क्षेत्र को सीमित करना अर्थात केन्द्रित करना प्रारम्भ करती है, जिससे मन से उसका सम्बन्ध विच्छेद हो सके | मन और शरीर आत्मा से ही ऊर्जा ग्रहण करते हैं | जब आत्मा में ऊर्जा का संघटन होता है तब मन और शरीर की ऊर्जा घटने लगती है जिससे कामनाएं स्वतः ही नियंत्रित होने लगती है और मनुष्य निष्काम होने लगता है | यहाँ इस स्थिति में आत्मा की ऊर्जा का संघटन उसके केंद्र में होने लगता है | यह ऊर्जा-संघटन मस्तिष्क के शीर्ष भाग में होता है । शास्त्रों के अनुसार यह भाग ब्रह्म-रंध्र कहलाता है। आत्मा का शरीर के साथ संपर्क भी मस्तिष्क (Brain) के इसी भाग से होता है |
यह भक्ति की प्रारंभिक अवस्था है, जिसमें व्यक्ति की रुचि (Interest) सांसारिक क्रिया कलापों (Worldly acts) में धीरे धीरे कम होती जाती है और वह अपने आप में ही संतुष्ट रहता है | जब आत्मा का ऊर्जा क्षेत्र इतना सीमित हो जाता है कि वह मन के ऊर्जा क्षेत्र का अतिक्रमण न करता हो, ऐसी स्थिति में आत्मा अपने आप को मन के बंधन से मुक्त कर लेती है | यहाँ आकर मनुष्य अपना सारा ध्यान संसार से हटाकर केवल अपनी आत्मा में ही केन्द्रित कर लेता है | इस अवस्था को जो व्यक्ति प्राप्त कर लेता है, उसे स्थितप्रज्ञ (Philosophical) कहा जाता है |
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते || गीता 2/55 ||
अर्थात् हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस स्थिति में उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।
स्थितप्रज्ञ होने की स्थिति ऐसी होती है, जब आत्मा अपनी ऊर्जा को एक स्थान पर केन्द्रित कर लेती है जिससे उसका सम्बन्ध मन से लगभग समाप्त हो जाता है | ऐसे में उसका इंद्रियों से भी कोई संपर्क नहीं रह पाता और न ही उनके विषयों से | आत्मा की सारी ऊर्जा बुद्धि के क्षेत्र में आकर केन्द्रित हो जाती है | इस स्थिति में इन्द्रियों और मन से संपर्क तो कट जाता है परन्तु शेष शरीर की ऊर्जा से संपर्क तो जीवनपर्यंत (Throughout Life) बना ही रहेगा | जैसा कि हम जानते हैं कि भौतिक शरीर से सूक्ष्म इन्द्रियां है, इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है, मन से सूक्ष्म बुद्धि है और बुद्धि से सूक्ष्म अहम् है अर्थात सबसे सूक्ष्म अहम् है | अहम् में समस्त ऊर्जा के आ जाने से वह संसार और संसार से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार संसार से मुक्त हुए अहम् को ही आत्मा कहा जाता है।
ऊर्जा संघटन की स्थिति में व्यक्ति के शरीर की ऊर्जा का सीधा सम्बन्ध बुद्धि और आत्मा की ऊर्जा से रह जाता है | हालांकि मन, इन्द्रियों और विषयों से निवृति (Abstention) इस अवस्था में हो जाती है, परन्तु भोगों अर्थात इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति (Affection) पूर्णतया समाप्त नहीं हो पाती | इसका कारण यह होता है कि बुद्धि की प्रकृति भी अपरा (Macro) है, जैसे शरीर, मन, और इन्द्रियों की प्रकृति है, जबकि आत्मा की प्रकृति परा यानि सूक्ष्म (Micro) है | ऊर्जा संघटन हो जाने के बाद में आत्मा की समस्त ऊर्जा बुद्धि के क्षेत्र में केन्द्रित हो जाती है, अतः पुरुष में प्रकृति वश भोगों के प्रति आसक्ति कुछ समय तक बनी रह सकती है | परन्तु भक्ति-योग में व्यक्ति का एकमात्र लक्ष्य परमात्मा प्राप्ति का होता है, अतः ऐसे व्यक्तियों में यह विषयों के प्रति आसक्ति भी कुछ समय बाद समाप्त हो जाती है | आसक्ति से निवृति (Abstention from affection) होते ही यह व्यक्ति वास्तव में स्थितप्रज्ञ (Philosophical) हो जाता है |
इस (स्थितप्रज्ञ की) स्थिति में पुरुष अपने आप में ही संतुष्ट रहता है | इसको गीता में आत्मा को आत्मा में संतुष्ट रहना कहा गया है | यहां व्यक्ति को सांसारिक गतिविधियां बिलकुल भी प्रभावित नहीं करती है | आत्मा द्वारा अपनी ऊर्जा को समेट लेने को एक कछुए के उदाहरण से भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत ही सुन्दर तरीके से अर्जुन को समझाया है | वे कहते हैं –
यदा संहरते चायं कूर्मोSन्गानीव सर्वशः |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || गीता 2/58 ||
अर्थात् जैसे कछुआ सब और से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब पुरुष इन्द्रियों को उसके विषयों से सब प्रकार से हटा लेता है, तब समझ लेना चाहिए कि उसकी बुद्धि स्थिर हो गई है |
एक कछुआ विपरीत परिस्थितियों में सभी अंगों को समेटकर अपने मजबूत कवच के नीचे छुप जाता है, उसी प्रकार जो पुरुष भक्ति-मार्ग पर चलता है वह अपनी सब इन्द्रियों को उनके सभी विषयों से समेट लेता है | विषयों से समेटते ही उसकी बुद्धि भी स्थिर हो जाती है | बुद्धि स्थिर हो जाने के कारण ही ऐसे पुरुष को स्थितप्रज्ञ कहा जाता है |
एक साधारण व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ की अवस्था प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए ? साधारण ज्ञान रखने वाले सांसारिक व्यक्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने “अभ्यास-योग” को ही उत्तम बताया है | अभ्यास-योग का अर्थ है, निरंतर अभ्यास करते हुए परमात्मा के साथ योग करना | परमात्मा के नाम का निरंतर स्मरण करते रहना सबसे श्रेष्ठ अभ्यास है | इसे नाम-जप कहा जाता है | इस प्रकार परमात्मा के नाम का स्मरण करने से ऊर्जा प्रवाह (Energy flow) को नियंत्रित (Control) करने में सहायता मिलती है | निरंतर नाम स्मरण से आत्मीय ऊर्जा संघटित होकर मस्तिष्क में केन्द्रित हो जाती है और व्यक्ति की आत्मा का उसके शरीर के साथ सम्बन्ध नाम मात्र का रह जाता है |
नाम-जप के अतिरिक्त भी अभ्यास के अंतर्गत कई अन्य उपासना पद्धतियां भी है, परन्तु सबका उद्देश्य और प्रक्रिया लगभग समान है | ये सभी अभ्यास-योग के अंतर्गत ही आती है | सभी पद्धतियों में परमात्मा का नाम ही आवश्यक रूप से सम्मिलित होता है | नाम जप की महिमा के बारे में मानस में गोस्वामीजी ने विस्तृत रूप से बालकाण्ड के प्रारंभ में दोहा संख्या 18 से 27 तक चर्चा की है |
ऊर्जा संघटन के बाद ऊर्जा संचलन की अवस्था आती है, जिसमें ऊर्जा का एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर गमन होता है।
ऊर्जा संचलन – ( Energy Conduction )--
भक्ति-विज्ञान के अनुसार जब आत्मा का ऊर्जा क्षेत्र मस्तिष्क में संघटित हो जाता है, तब उस क्षेत्र में कुछ समय में ही स्थायित्व (Stability) आ जाता है | तदुपरांत इस आत्मा के ऊर्जा क्षेत्र का संचलन परमात्मा के ऊर्जा क्षेत्र की ओर होना प्रारम्भ होता है | इस प्रक्रिया में आत्मा के चुम्बकीय क्षेत्र का गमन शरीर से ठीक विपरीत दिशा की ओर होता है | यह गमन असत् से सत की और होता है | जो कि इसका सही और वास्तविक मार्ग है | ऊर्जा के एक स्थान पर संघटित होने के कारण इसका परमात्मा की तरफ संचरण बड़ी तेज गति (Speedy) के साथ और प्रभावी (Effective) होता है | ऊर्जा संचलन में व्यक्ति को अलग से किसी भी प्रकार का प्रयास नहीं करना होता है | भक्ति-योग में पहली प्रक्रिया ही सबसे कठिन है | नाम-जप की प्रक्रिया इस अवस्था में भी अनवरत चलती रहती है. अंतर बस इतना ही होता है कि प्रारंभिक अवस्था में नाम-जप में होंठ हिलने के साथ-साथ मुंह से आवाज भी निकलती है और धीरे धीरे आवाज़ निकालनी बंद हो जाती है | इस दूसरी अवस्था में होंठ हिलने भी बंद हो जाते है. परन्तु मन ही मन में स्मरण चलता रहता है और इस स्मरण का ज्ञान व्यक्ति को रहता है | संचलन की प्रक्रिया में आत्मीय ऊर्जा का गमन परमात्मा की तरफ उसकी ऊर्जा के साथ संगम करने के लिए किया जाने वाला प्रयास मात्र है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं |
जैसा कि हम जानते हैं कि परमात्मा का ऊर्जा क्षेत्र सर्वत्र व्याप्त है, समस्त ब्रह्माण्ड में सूई की नोक जितना स्थान भी ऐसा नहीं है जहां परमात्मा की ऊर्जा नहीं हो। इसलिए आत्मा की ऊर्जा का परमात्मा की तरफ गमन मात्र उनकी ऊर्जा को आत्मसात करने का प्रयास है | भक्ति-योग में जब एक व्यक्ति में भक्त के सभी लक्षण प्रकट हो जाते हैं, तभी समझ लेना चाहिए कि परमात्मा से साक्षात्कार होना अति निकट है ।
जब आत्मा की ऊर्जा का संचलन प्रारम्भ होता है, तब आत्मा की ऊर्जा का प्रभाव बुद्धि क्षेत्र से बाहर निकलता है | तब वह परमात्मा की ऊर्जा की खोज करता है | परमार्थ, परमात्मा की दिशा में बढ़ने का सबसे सरल साधन है, क्योंकि परमात्मा सब जीवों में उपस्थित है | सभी भूतों की सेवा भी परमात्मा की सेवा है |
ऊर्जा संघटन की प्रक्रिया में व्यक्ति अपनी आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, जबकि इस प्रक्रिया में व्यक्ति परमार्थ के कार्य (निष्काम कर्म) में लग जाता है | प्रत्येक व्यक्ति,वस्तु और स्थान में उसे एक परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ता।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || गीता 6/30 ||
अर्थात् जो पुरुष समस्त भूतों में सबके आत्म स्वरूप मुझको ही देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ के अंतर्गत ही देखता है , उसके लिए तो मैं और मेरे लिए वह कभी भी अदृश्य नहीं होता |
ऊर्जा संचलन की प्रक्रिया के बाद इस ऊर्जा की अंतिम और तीसरी गति होती है, जिसमें आत्मा की ऊर्जा और परमात्मा की ऊर्जा समान स्तर पर आ जाती है | इस प्रक्रिया को ऊर्जा संगम कहा जाता है |
ऊर्जा संगम – ( Energy conjunction ) --
ऊर्जा-संगम भक्ति-योग की पराकाष्ठा (Height) है | इस अवस्था में आत्मा की ऊर्जा का क्षेत्र, परमात्मा के ऊर्जा क्षेत्र के साथ संगम कर लेता है | यह ठीक उसी प्रकार होता है, जैसे दो नदियों का संगम होता है | जैसे विशाल नदी की जलधारा में एक छोटी नदी की जलधारा अपने आप को मिलाकर खो देती है, उसी प्रकार आत्मा भी अपना अस्तित्व खोकर परमात्मा हो जाती है | ऐसे संगम स्थल को प्रयाग कहा जाता है | सनातन धर्मशास्त्रों में संगम में, प्रयाग में स्नान करने का महत्व है | इसका कारण भी यही है कि हमारे भीतर भी ऐसी भावना का पदार्पण हो जिससे हम भी परमात्मा में अपने आपको इसी प्रकार विलय कर दें | जिस प्रकार दो नदियों के संगम के बाद केवल विशाल नदी का नाम ही रह जाता है, उसी प्रकार परमात्मा में आत्मा के मिल जाने के बाद वह भी परमात्मा हो जाती है | संगम करने के बाद, जब एक धारा के रूप में नदी आगे बढती है, तब वह मुख्य नदी के नाम से ही पहचानी जाती है, इसी प्रकार शरीर से मुक्त हो कर परमात्मा में विलय हो जाने पर ही आत्मा परमात्मा होता है, संगम स्थल से पूर्व तक वह महात्मा और भक्त ही कहलाता है |
आत्मा के ऊर्जा क्षेत्र का परमात्मा के ऊर्जा क्षेत्र के साथ संगम तभी होता है, जब दोनों का स्तर एक समान हो | दो नदियों का संगम भी तभी हो पाता है, जब दोनों एक ही स्तर पर और एक समान पथ पर आगे बढ़ रही हो | परमात्मा की ऊर्जा का स्तर तो अपरिवर्तनीय है | अतः संगम के लिए आत्मा को ही अपना ऊर्जा का स्तर बढ़ाना होता है और अपना ऊर्जा क्षेत्र भी | श्रीकृष्ण ने गीता के भक्ति-योग अध्याय में भक्त के 31 लक्षण बताये है | वे सभी आत्मा की ऊर्जा के स्तर और क्षेत्र को परमात्मा के ऊर्जा क्षेत्र के स्तर पर लाने के लिए एक व्यक्ति में होने आवश्यक है | जिस समय यह स्तर समान हो जाता है, तब परमात्मा और आत्मा की ऊर्जाओं में सामंजस्य (Coordination) स्थापित हो जाता है | यह प्रक्रिया लगभग उसी प्रकार की है जैसे हम किसी प्रसारण केंद्र (Transmission centre) के प्रसारण को स्पष्ट सुनने या देखने के लिए रेडियो और टेलीविजन की ट्यूनिंग (Tuning) करते हैं |
जब दोनों ऊर्जाओं में सामंजस्य स्थापित हो जाता है तब ऊर्जा का संवहन एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से होने लगता है | ऐसी स्थिति में भक्त और भगवान के बीच एक ऐसा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, जिस कारण भक्त के अंतर्मन की बात बिना प्रार्थना किए ही भगवान के संज्ञान में आ जाती है | भगवान को भक्त विस्मृत नहीं करता और न ही भक्त को भगवान | नाम जप, भक्त के भीतर मन की गहराई में अभी भी अनवरत (Continue) चलता रहता है, परन्तु इसका भान भक्त को कभी भी नहीं रहता है |
चलता दिखे ना चन्द्रमा, बढती दिखे ना बेल |
साधु दिखे ना सुमिरता, यह कुदरत का खेल ||
चंद्रमा चलायमान ( Movable ) होते हुए भी कभी चलता हुआ दिखाई नहीं देता, लता सतत बढती ( Growth) रहती है, परन्तु अपने को वह बढती हुई नज़र नहीं आती, उसी प्रकार साधु के भीतर परमात्मा का सुमिरन (Chanting) लगातार चलता रहता है परन्तु उसका सुमिरन किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता | साधु महात्मा कभी भी परमात्मा को विस्मृत नहीं होने देते, ऐसे में उसके सुमिरन का दिखाई देना या नहीं देना कोई महत्व नहीं रखता |
परमात्मा की ऊर्जा के साथ भक्त की ऊर्जा के संगम से भक्त भी ऊर्जावान होकर, भक्त से महात्मा बन जाते हैं | जिस स्थान पर ऐसे महात्मा गण निवास करते हैं, वहां एक ऊर्जा क्षेत्र का निर्माण हो जाता है | इसी कारण से महात्माओं के सान्निध्य से साधारण व्यक्ति भी अपने आप में एक नई ऊर्जा का अनुभव करता है | जहां जहां ऐसे ही कई महात्माओं ने तपस्या की है, वहां वहां ऊर्जा के कई विशाल क्षेत्र बन गए हैं | उन स्थानों को हम तीर्थ कहते हैं |
भारतीय संस्कृति में तीर्थ-यात्रा का महत्व है | किसी भी तीर्थ-स्थल पर जाकर आप इस ऊर्जा को अनुभव कर सकते हैं | तीर्थ-यात्रा और महात्माओं के सान्निध्य से किसी भी साधारण व्यक्ति में परमात्मा की भक्ति के लिए तीव्र भावना पैदा हो सकती है | इसी कारण से हमारे यहाँ तीर्थ-यात्रा और सत्संग को महत्वपूर्ण माना गया है |
इस स्थिति में भक्त और भगवान के मध्य सीधा संपर्क होता है | ऊर्जा संगम होने के बाद भक्त में इस ऊर्जा का अनुभव एक साधारण मनुष्य भी कर सकता है | इस अवस्था में आकर भक्त, भगवान से सब कुछ करवा सकता है | भगवान अपने भक्त के लिए नंगे पाँव दौड़ कर आ सकते है, जूठे बेर खा सकते है, घर में जूठे बर्तन तक साफ कर सकते है, खम्भा फाड़कर नरसिंह रूप धारण कर सकते है और यहाँ तक कि वे अपने भक्त के द्वारपाल (Guard ) और सारथी (Chariot) तक बन जाते है | ऐसे सैकड़ों और उदाहरण मिल जायेंगे | तभी भगवान कहते हैं- “मैं भक्तों का दास, भक्त मेरा मुकुट मणि |” यह अनन्य भक्ति की पराकाष्ठा है | यह तो भक्त के विवेक पर निर्भर करता है कि वह परमात्मा से आग्रह कर सांसारिक कार्य करवाता है अथवा सभी कामनाओं का त्याग कर अध्यात्म के रास्ते पर ही आगे बढ़ता रहता है | सांसारिक कामनाओं को पूरी करने में भगवान को लगा दोगे तो कामनाओं की पूर्ति तो हो जाएगी परन्तु मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो पाओगे और परमात्मा से होने वाला संगम भी संकट में पड जायेगा | ऐसे में भक्त का ऊर्जा स्तर धीरे धीरे गिरना शुरू हो जाता है और परमात्मा से उसका सम्बन्ध उस स्तर का नहीं रह पाता |
ऊर्जा संगम की स्थिति प्राप्त होने के बाद केवल मात्र पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् मोक्ष ही शेष रहता है | जो इस जन्म में मिले शरीर से, पूर्वजन्म के कर्मों के फल भोग लेते ही प्राप्त हो जाता है | ज्यों ही पूर्वजन्म के कर्मफल भुगत लिए जाते हैं, यह शरीर भी छूट जायेगा | यही मुक्ति या मोक्ष है और परमात्मा की प्राप्ति भी | आत्मा निर्मल होकर परमात्मा में विलीन हो जाती है | यही भक्ति का विज्ञान है ।
सार-संक्षेप -
परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना स्वयं में की स्वयं से बाहर नहीं |कहने का अर्थ है कि परमात्मा स्वयं ही सब कुछ बन गए | इसीलिए कहा जाता है - “बन गए आप अकेले सब, कुछ नाम धरा संसार” | इस संसार की रचना के लिए परमात्मा ने सर्वप्रथम अपने में स्थित ऊर्जा जो कि अक्रिय अवस्था में थी, को सक्रिय किया |अक्रिय ऊर्जा को वैज्ञानिक भाषा में स्थितिज ऊर्जा (Potential energy ) कहा जाता है और सक्रिय ऊर्जा को गतिज ऊर्जा (kinetic energy )| सक्रिय ऊर्जा अपना स्वरुप बार-बार परिवर्तित करती रहती है इसलिए शास्त्रों में इसे असत कहा गया है |संसार अथवा यह कहूं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों में कोई भी पदार्थ अथवा स्थान ऐसा नहीं है जहाँ ऊर्जा इन दोनों में से किसी एक रूप में भी उपस्थित न हो | साथ ही यह भी सत्य है कि ऊर्जा की उपस्थिति को परोक्ष रूप से परमात्मा की उपस्थिति भी माना जा सकता है | इसीलिए हमारे पूर्वजों ने सृष्टि के ‘कण-कण में भगवान्’ को माना है | ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अर्थ भी यही है कि सारा विश्व एक परमात्मा की संतान है इसलिए यह एक परिवार ही है |
परमात्मा से उत्पन्न हुई ऊर्जा ही अक्रिय से सक्रिय और सक्रिय से पुनः अक्रिय हो सकती है | इस ‘होने’ की प्रक्रिया से ही संसार गतिमान बना हुआ है | प्रत्येक पदार्थ में इसी एक ऊर्जा के दोनों रूप रहते हैं | संसार में जितने भी जीव हैं, वे सब हैं तो पदार्थ ही और पदार्थ होने के कारण उनमें उपस्थित सक्रिय ऊर्जा उसके रूप को परिवर्तित करती रहती है | इस रहस्य को केवल मनुष्य नामक जीव ही जान सकता है, अन्य कोई नहीं | परमात्मा ने इसीलिए जीव को सब योनियों में भटकाने के बाद सबके अंत में मनुष्य योनि दी है | अगर मनुष्य बनकर भी जीव इस रहस्य को नहीं जान सका तो उसका मनुष्य होना ही व्यर्थ है | मनुष्य दोनों प्रकार की ऊर्जाओं के भेद को जानकर स्वयं जब अक्रियता को उपलब्ध हो जाता है तब वह परमात्मा के अति निकट पहुँच जाता है | इस शरीर की सक्रिय ऊर्जा को अक्रिय ऊर्जा की अवस्था तक पहुँचाने के कई साधन हैं, जिनमें सबसे सुगम रास्ता भक्ति का है | भक्ति में सब कुछ परमात्मा पर छोड़कर केवल उससे प्रेम करना होता है | परमात्मा पर सब कुछ छोड़ देने का अर्थ है, अपनी ओर से कुछ भी न करना | परमात्मा से प्रेम करने का अर्थ है सभी जीवों में और सब स्थान पर उस परमात्मा को देखना | जब सब कुछ एक वही है तो फिर किससे तो राग होगा और किससे द्वेष | यही परमात्मा से प्रेम करना है, जो मनुष्य को शांति की अवस्था तक ले जाता है |
परमात्मा की ऊर्जा को पुनः परमात्मा में विलीन कर देने का नाम ही भक्ति है |सक्रिय ऊर्जा के कारण ही हमारे मन के भीतर कामनाओं की उठापटक चलती रहती है, जिसके कारण प्रतिपल मन कुछ न कुछ करने की सोचता रहता है | इसी कारण से यह सक्रिय ऊर्जा हमें संसार के साथ बांध देती है | इस सक्रिय ऊर्जा को पुनः अक्रिय अवस्था तक ले जाना है | विज्ञान की भाषा में कहूं तो गतिज ऊर्जा को स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित करना है | ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती केवल अपना रूप परिवर्तित करती है | सक्रिय ऊर्जा में परिवर्तन होना अवश्यम्भावी है जिसके कारण प्रकृति में स्थायित्व नहीं रह पाता | इसी अस्थाई भाव के कारण इसे असत कहा गया है | जिस दिन स्थूल और सूक्ष्म शरीर की यही ऊर्जा अक्रियता को प्राप्त हो जाती है, तब यह आत्मा के साथ परमात्मा में विलीन हो जाती है | हमारे शरीर की ऊर्जा को गतिज से स्थितिज में परिवर्तित करने के लिए कई उपाय हैं, जिनको योग नाम से गीता में कहा गया है |
योग का अर्थ है-परमात्मा के साथ योग | परमात्मा में स्थितिज ऊर्जा है, गतिज नहीं | इन योग में एक योग कर्म-योग है, जिसमें निष्काम भाव से कर्म करते हुए गतिज ऊर्जा को स्थितिज ऊर्जा में बदलने का प्रयास किया जाता है | दूसरा योग है - ज्ञान-योग, जिसमें परमात्मा से सृष्टि तक के सृजन का ज्ञान लिया जाता है, जिससे संसार की गतिविधियों से मुक्त होकर अक्रियता को उपलब्ध हुआ जाता है | इन दोनों ही योगों में परिश्रम और पराश्रय है | भक्ति-योग में किसी भी प्रकार के प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है | भक्ति में केवल भगवान् के प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हुए उनके प्रति पूर्ण समर्पण करना होता है | इसमें शरीर और अंतःकरण की समस्त सक्रिय ऊर्जा धीरे-धीरे आत्मा की और गमन करती है और अक्रिय होकर स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है | यह ऊर्जा परमात्मा में उपस्थित ऊर्जा के समान है, जिससे उनका आपस में योग होना अवश्यम्भावी है अर्थात आत्मा ही परमात्मा हो जाती है, होना क्या है, वास्तव में आत्मा और परमात्मा एक ही हैं | भौतिक शरीर के रहते इस अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति ‘जीवन्मुक्त’ कहलाता है | उसकी दृष्टि में “वासुदेव सर्वम्” के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहता | भक्ति-विज्ञान इसी अवस्था तक ले जाने का नाम है, जब एक परमात्मा के अतिरिक्त शेष कुछ भी नहीं रहता |आधुनिक विज्ञान की भाषा में यह गतिज ऊर्जा को स्थितिज ऊर्जा में बदलना है और आध्यात्मिक रूप से इसे आत्मा का परमात्मा हो जाना कहा जाता है |वास्तव में न तो ऊर्जा दो है और न ही परमात्मा और आत्मा दो हैं | केवल एक परमात्मा ही है और दूसरा कोई नहीं | जो ‘वासुदेव सर्वम्’, इतना जानता है, वह महात्मा दुर्लभ है, ऐसा गीता में भक्ति की इसी उच्च अवस्था तक पहुँचने के बारे में ही कहा गया है |
|| हरिः शरणम् ||
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
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