Wednesday, May 31, 2023

ऊर्जा - चक्र

 ऊर्जा-चक्र  

         अध्यात्म का अर्थ है स्वयं को जानना और स्वयं को जानना ही परमात्मा को जानना है | जीव ही अध्यात्म है और इस प्रकार जीव व परमात्मा में कोई भेद नहीं है | स्वयं के द्वारा, स्वयं में ही, स्वयं को जान लेना कठिन है | जब तक परमात्मा की असीम कृपा न हो, स्वयं को जान पाना असंभव ही है | स्वयं को जान लेना इसलिए कठिन है क्योंकि हम स्वयं को शरीर समझने लगे हैं, जबकि हम स्वयं शरीर से अलग हैं | इसलिए शरीर से अभिन्न रहते हुए हम स्वयं को कभी भी नहीं जान पाएंगे, हमें स्वयं को शरीर से भिन्न मानना ही होगा |
       शरीर अपरा प्रकृति के अंतर्गत है जबकि हम स्वयं परा प्रकृति के है | परा का अपरा से संयोग होने से परा तो अपरा नहीं हो जाती, परन्तु अपरा से संयोग उपरांत भ्रमवश परा ऐसा मानने अवश्य लगती है | अपरा और परा का जिसमें उद्भव हुआ है, वह परमात्मा है | इसलिए स्वयं को जानने के लिए हमें परमात्मा से अभिन्न होना होगा | परमात्मा से अभिन्न होने से ही हम स्वयं को जान पाएंगे | इस प्रकार स्वयं को जान लेने का अर्थ हुआ - अपरा, परा और परम, तीनों को जान लेना | अध्यात्म की उच्च अवस्था तक पहुँच जाने पर अपरा और परा, दोनों ही खो जाते हैं और शेष केवल एक परम ही रह जाता है |
      मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य ही परम तक पहुंचना है परन्तु वह अपने उद्देश्य तक पहुंचने में विफल इसलिए हो जाता है क्योंकि वह स्वयं को जीवन भर अपरा से मुक्त ही नहीं कर पाता | इसलिए यह आवश्यक है कि अपरा से मुक्त होने का प्रयास करें और स्वयं को जानें |
          परमात्मा को जानने के प्रयास में ही व्यक्ति विभिन्न प्रकार की क्रियाएं करने लगता है और ये क्रियाएं मनुष्य को कहां तक ले जाएगी, कहा नहीं जा सकता | क्रियाओं में असफल रहने का कारण है कि सभी क्रियाएं परमात्मा से अभिन्न और संसार से भिन्न हुए बिना संपन्न की जा रही है | ऐसी की जाने वाली क्रियाओं में भटकाव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है क्योंकि इन क्रियाओं का परिणाम व्यक्ति को मोहित करने वाला होता है जोकि उसे केवल उलझा ही सकता है, परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकता | आवश्यक नहीं है कि सभी के साथ ऐसा हो, परन्तु प्रायः यह देखा गया है कि क्रियाओं के परिणाम में मिली सिद्धियां व्यक्ति को अहंकारित कर उनका दुरुपयोग करने को विवश कर देती है, जिसका परिणाम उस स्थिति से नीचे गिरने के अतिरिक्त दूसरा नहीं होता | अगर क्रियाओं को करने में आप सावधान रहें और सिद्धियों के बियावान में भटकने से बच निकलें, तो यही क्रियाएं आपको सर्वोच्च स्थिति तक भी पहुंचा सकती है | ऐसी ही एक क्रिया है – कुण्डलिनी जागरण |
         कुण्डलिनी जागरण से अर्थ है, शरीर में स्थित ऊर्जा के सभी चक्रों पर नियंत्रण रखते हुए उसको अपने मूल अर्थात सर्वोच्च स्तर तक ले जाना | इस भौतिक शरीर को जानना शरीर-विज्ञान का क्षेत्र है और यह शरीर अपरा प्रकृति से सम्बंधित है | इस शरीर की शारीरिकी (Anatomy) और कार्यिकी (Physiology) को जानने के लिए हमें शरीर-विज्ञान की ओर जाना होगा | आधुनिक विज्ञान, आज जिस पर पश्चिम अपना पूर्ण आधिपत्य जमा चूका है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे यहां विज्ञान का कभी अस्तित्व था ही नहीं | आधुनिक विज्ञान जहां तंत्रिका तंत्र (Nervous system) और उससे संचालित होने वाले अंगों, उनके कार्यों और परिणाम की बात करता है, उससे कहीं आगे बढकर हमारे पुरातन ग्रन्थ तंत्रिकाओं और अन्तः स्रावी (Endocrine Glands) ग्रंथियों से संचालित होने वाले कार्यों तथा उनसे उत्पन्न होने वाले प्रभावों की बात करते हैं | केवल इतना ही नहीं, हमारे ऋषि-मुनियों ने इनको नियंत्रण में रखने की विभिन्न विधियां भी प्रतिपादित की है, आधुनिक विज्ञान में जिनका नितांत अभाव है |
         आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इन तंत्रिकाओं में आए विकार का उपचार (Treatment) करता है जबकि हमारे यहां तंत्रिका तंत्र को इन विकारों से मुक्त रखने के लिए बचाव (Prevention) की विधियां भी हैं |
            पश्चिम का अन्धानुकरण और अपनी विरासत की उपेक्षा, हमें आज इस अवस्था तक ले आयी है, जहाँ सत्य को जानने के लिए भी हमें पश्चिम की ओर ताकना पड़ता है | ईसा से 500-1500 वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज इन ऊर्जा चक्रों के बारे में स्पष्ट रूप से जानते थे | इस बात का उल्लेख सबसे पुराने ग्रन्थ – वेदों में भी मिलता है | चक्रों का उल्लेख श्री जाबाल दर्शन उपनिषद, योग चूड़ामणि उपनिषद, योग-शिखा उपनिषद् और शाण्डिल्योपनिषत् में भी मिलता है |
            सबसे पहले हम इन ऊर्जा चक्रों और कुण्डलिनी के बारे में जान लेते हैं, तत्पश्चात इनसे सम्बंधित तंत्रिका तंत्र और अन्तःस्रावी ग्रंथियों का इन चक्रों से क्या सम्बन्ध है, यह जानेंगे | हमारे शरीर में ऊर्जा के 100 से भी अधिक चक्र हैं | चक्र इनको इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस क्षेत्र में आकर तंत्रिकाएं (Nerves) आपस में मिलती है और सूचनाओं का आदान-प्रदान करती है, जिससे शरीर का कुशल सञ्चालन हो सके | इस कारण से वहां ऊर्जा का एक प्रबल क्षेत्र बन जाता है, जो आस पास के क्षेत्र को प्रभावित करता है | वैसे इनको चक्र केवल कहा ही जाता है, वास्तव में यहाँ तंत्रिकाओं का संगम होकर एक त्रिकोण (Triangle) का निर्माण होता है | जब विभिन्न मूल (Roots) से निकलने वाली तंत्रिकाएं एक साथ आ मिलती है तब उनके आस-पास भी एक प्रबल उर्जा क्षेत्र का निर्माण हो जाता है | यही ऊर्जा-चक्र कहलाता है |
         हमारे ग्रंथों में मुख्य रूप से सात चक्र बताये गए हैं, जिनमें से छः चक्र तो इस शरीर के अन्दर ही स्थित है और सातवाँ चक्र इस शरीर से परे है परन्तु वह चक्र इस शरीर के जन्म लेने के साथ ही ब्रह्म-रंध्र के स्थान पर आकर स्थापित हो जाता है | मृत्यु के समय इस सातवें चक्र अर्थात ऊर्जा क्षेत्र से ऊर्जा तिरोहित (Disapear) हो जाती है | यह सातवाँ चक्र ही शेष चक्रों को ऊर्जा प्रसारित करता है |
           मनुष्य के शरीर में जो सात चक्र हैं, वे नीचे से ऊपर के क्रम में निम्न प्रकार स्थित रहते हैं –
1.मूलाधार चक्र –यह चक्र गुदा (Anus) और जननेद्रिय (Genitalia) के मध्य स्थित है |
2.स्वाधिष्ठान चक्र- यह चक्र जननेंद्रिय के ठीक ऊपर स्थित होता है |
3.मणिपूरक चक्र – यह चक्र नाभि (Umblicus) के ठीक नीचे होता है |
4.अनाहत चक्र- यह चक्र ह्रदय स्थान में (वक्ष में) पसलियों के मिलने वाली जगह के ठीक (Sternum) नीचे होता है |
5.विशुद्धि चक्र – यह चक्र गले अर्थात कंठ (Neck) के गढ्ढे में होता है |
6.आज्ञा चक्र – यह चक्र दोनों भौंहों (eye brows) के मध्य होता है |
7 सहस्रार चक्र – यह चक्र सिर के शीर्ष पर होता है, जिसे ब्रह्म-रंध्र भी कहा जाता है |
ऊर्जा-चक्र के आयाम –
            प्रत्येक ऊर्जा-चक्र के अपने अपने आयाम (Dimensions) होते हैं और उन आयामों के अनुसार उनकी भूमिका (Role) निश्चित होती है | मुख्य रूप से ये आयाम चार स्तर (Levels) के होते हैं, यथा – शारीरिक स्तर (Gross body level), मानसिक स्तर (Subtle body level), भावनात्मक स्तर (Sentimental level) और आध्यात्मिक स्तर (Spiritual level) | किसी एक चक्र का कोई एक मुख्य आयाम होता है | आयाम के अनुसार ही उस चक्र की क्रिया (Action) और परिणाम (Result) होते हैं | चक्र के आयाम एक से दूसरे स्तर में परिवर्तित किए जा सकते हैं | भौतिक आयाम अगर प्रबल है तो मनुष्य सांसारिक क्रियाओं में ज्यादा उलझा रहता है |अगर इस भौतिक आयाम (शारीरिक आयाम) को परिवर्तित करते हुए अध्यात्मिक आयाम से विस्थापित (Replace) कर दिया जाए तो मनुष्य परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाता है | कुछ मनुष्यों में भावनात्मक आयाम प्रबल हो जाता है तो ऐसे मनुष्य प्रेम और सम्बन्ध बनाने में अन्य व्यक्तियों से अधिक क्षमता रखते हैं |
            शरीर को चलाने के लिए परमात्मा की सारी ऊर्जा सहस्रार चक्र के माध्यम से शरीर में प्रवेश करती है और इसका प्रसार ऊपर से नीचे की ओर होता है, जो अंततः मूलाधार चक्र तक जाता है | जिस प्रकार शांत बैठा सर्प कुण्डली मारे बैठा रहता है, उसी प्रकार शरीर की उर्जा मूलाधार चक्र में पहुंचकर कुण्डली मारे गोल गोल घूमती रहती है | जब यह ऊर्जा उर्ध्वगामी होकर ऊपर (Vertical) की ओर उठते हुए  आज्ञा-चक्र तक पहुंच जाती है, तब उसे कुण्डलिनी जागरण हुआ कहा जाता है | कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य प्रत्येक उर्जा चक्र के आयाम को परिवर्तित करना है, जिससे इस उर्जा को समुचित उपयोग किया जा सके |
           मानव के भीतर एक रहस्यमयी शक्ति (ऊर्जा) निवास करती है, जो गहरे आवरण में छिपी हुई है | जो एक सर्प (Snake) की तरह कुण्डलिनी के रूप में मूलाधार-चक्र में गोल गोल घूम रही हैं | हमारे ऋषि-मुनियों ने सहस्त्र वर्षो के अनुसंधान (Research) से अपने भीतर की इस शक्ति को ढूंढ निकाला है | यह शक्ति मानव के भीतर मूलाधार चक्र से लेकर मस्तिष्क तक को प्रकाशित होती रहती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात, यह शक्ति ब्रह्मांड से भी जुड़ी है | इस प्रकार संपूर्ण ब्रह्मांड एक ही ऊर्जा-चक्र से जुडा हुआ है, जिसे सहस्त्रहार-चक्र कहा जाता है |
             इस कुण्डलिनी रुपी ऊर्जा के जागरण के कई उपाय है, जिसमें महर्षि पतंजलि के अष्टांग-योग से लेकर कई प्रकार के मन्त्र और ध्यान, आसन आदि बताये गए हैं | कुण्डलिनी जागरण में ये कितने सहायक सिद्ध होते हैं, इसके बारे में मैं कुछ भी कहना नहीं चाहता क्योंकि मुझे इस विषय में कुछ भी अनुभव नहीं है |
            मेरी दृष्टि में कुण्डलिनी जागरण के लिए किये जानी वाली क्लिष्ट क्रियाओं से अच्छा तो भक्ति-मार्ग है जो कष्ट साध्य तो बिलकुल भी नहीं है, साथ ही साथ परिणाम में कुण्डलिनी जागरण से कहीं उत्तम और श्रेष्ठ भी है | मैं ऐसे किसी विवाद में पड़ना नहीं चाहता जो किसी एक पक्ष को अनुचित लगे | जिसको कुण्डलिनी जागरण करना हो और ऐसा करने की योग्यता भी रखता हो, उसे ऐसा अवश्य ही  करना चाहिए |
          भक्ति और कुण्डलिनी जागरण, दोनों ही मनुष्य का वास्तविक जागरण करने में सहायक है, यह बात प्रत्येक प्रकार के संदेह से परे है | आइये ! अब हम शरीर के तंत्रिका-तंत्र (Nervous system) के बारे में जान लेते हैं | आयुर्वेद में तंत्रिका तंत्र में तीन प्रकार की नाड़ियों (Nerves) का उल्लेख है जिन्हें इडा, पिंगला और सुषुम्ना कहा गया है | आधुनिक विज्ञान में इन तीनों को क्रमशः संवेदी (Sympathetic), सहसंवेदी (Parasympathetic) केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (CNS) कहा जाता है | ये सभी नाड़ियाँ एक वक्र पथ (Curve Route) लेती हुई मेरुदंड (Vertebral column) से होकर निकलती है और कई बार एक दूसरे को पार (Cross) करती है | प्रतिच्छेदन के बिंदु (Inter section point) पर ये अत्यंत शक्तिशाली ऊर्जा केंद्र बनाती है, उसी केंद्र को ऊर्जा-चक्र कहा जाता है |
           मनुष्य में ये चक्र मेरुदंड में स्थित होते हैं – सबसे निम्न चक्र मेरुदंड के अंत में होता है (मूलाधार चक्र) जबकि सर्वोच्च चक्र मेरुदंड के शिखर और मस्तिष्क के शीर्ष (सहस्रार चक्र) अर्थात ब्रह्म रंध्र पर होता है |
            इन ऊर्जा चक्रों को ही सभी क्रिया कलापों का केंद्र माना जाता है जो जीवन शक्ति ऊर्जा को ग्रहण (Accept), आत्मसात (Assimilation) और अभिव्यक्त (Express) करता है | चक्र का शाब्दिक अर्थ है, चक्का यानि पहिया (Wheel)| यह चक्र, चक्कर काटते जैविक उर्जा (Biological energy) का वृत्त (Circle) है, जो प्रमुख तंत्रिका गैन्गलिया (Nerve gangalia) से निकलकर मेरुदंड में विभिन्न शाखाओं में बंटते हुए आगे बढ़ता है | सामान्य रूप से कहा जाता है कि मेरुदंड (Spinal cord) एक उर्जा स्तम्भ (Energy tower) की तरह खड़ा है जो रीढ़खंभ (Vertebral column) के आधार (Coccyx) से उठता हुआ सिर के मध्य भाग (Mid brain) तक विस्तारित (Extended) है | इस सम्पूर्ण स्तम्भ में कुल छः चक्र होते हैं | सातवाँ चक्र (सहस्रार-चक्र) जो है, वह इस कायिक क्षेत्र (Somatic field) से बाहर है, ऐसा माना जाता है |
             इस प्रकार कायिक क्षेत्र में जो मूल रूप से छ: चक्र ही बताये गए है, वे चेतना (Consciousness) के स्तर पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं | मेरुदंड में स्थित इन चक्रों से शरीर की प्रत्येक क्रिया (Action) जुडी हुई है और ये चक्र मेरुदंड के निकट बने क्षेत्र को केवल प्रभावित (Affect) ही नहीं करते बल्कि नियंत्रित (Control) भी करते हैं |
         इन छः कायिक ऊर्जा चक्रों को शल्य क्रिया (Surgery) द्वारा नहीं देखा जा सकता और न ही मनुष्य के शव परीक्षण (Postmortem) में भी इन चक्रों का कोई प्रमाण (Evidence) मिलता है, परन्तु हमारे पूर्वजों की उर्वर कल्पना (Fertile hypothesis) को केवल इस आधार पर ख़ारिज (Reject) भी नहीं किया जा सकता | हमारे शास्त्रों में तो इन चक्रों को, इनके अस्तित्व (Existance) को और इनके प्रभाव (Effect) को प्रमाणित तक किया गया है | ये चक्र मानव शरीर के प्राण अर्थात कायिक-जैविक ऊर्जा (Bio-somatic energy) के बिंदु माने गए हैं | हमारी स्थूल देह (Gross Body) ही नहीं बल्कि सूक्ष्म देह (Subtle body) का आधार भी यही ऊर्जा और प्राण है |
             इसी विषय को हम शरीर शास्त्र के अनुसार देखें तो पाएंगे कि शरीर में स्थित ऊर्जा के जो छः चक्र बताये गए हैं, वे सब मानव मस्तिष्क और मेरुदंड में स्थित हैं | यह बात अलग है कि आधुनिक विज्ञान, चक्र के रूप में इन्हें परिभाषित (Define) नहीं करता | परन्तु गंभीरता से देखें तो हमारे शास्त्रों में वर्णित चक्र और वैज्ञानिकों द्वारा बताए गए तंत्रिकाओं के जाल में केवल उनको दिए गए नाम भर का ही अंतर है, वास्तव में अंतर कहीं है ही नहीं |
           मनुष्य की मेरुदंड में पांच प्रकार की कशेरुकी (vertibrae) होती हैं | नीचे से ऊपर ये पांच निम्न क्रम में होती हैं – पुच्छास्थि (coccyx), त्रिकास्थि (sacrum), कटिस्थि (lumbar), वक्षास्थि (thoracic) और ग्रीवास्थि (cervical) | इन कशेरुकी (vertibrae) के मध्य बने छेद में सुषुम्ना नाड़ी (Spinal cord) रहती है जो शीर्ष पर मस्तिष्क (Brain) से जुडी रहती है | पांच प्रकार की कशेरुकी (vertibrae) पांच ऊर्जा चक्रों का निर्माण करती है, जबकि छठा चक्र (आज्ञा चक्र) मस्तिष्क के मध्य भाग (Mid brain) में स्थित होता है जहाँ से सुषुम्ना नाड़ी का प्रारम्भ होता है | इस प्रकार जो मनुष्य के शरीर में मुख्य रूप से छः ऊर्जा-चक्र बताये गए हैं, वे सभी सुषुम्ना नाड़ी (Spinal cord) और मध्य मस्तिष्क (Mid brain) में स्थित माने जा सकते हैं |   
          हमारे शास्त्रों में सात लोक और सात ही तल बताये गए हैं | ये सात लोक हैं- भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक और ब्रह्मलोक | इसी प्रकार सात तल हैं – पाताल, वितल, अतल, तल, तलातल, सुतल और रसातल | ये सातों संयुक्त रूप से  पाताल ही कहलाते हैं | इनके आदि, मध्य और अंत में रूद्र रहते हैं | ये सभी इसी ब्रह्माण्ड के अंतर्गत आते है | शरीर में ऊर्जा के जो सात चक्र बताये गए हैं, वही सात चक्र लोक और तल आदि में समान रूप से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं |
             हमें सदैव एक ही बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ऊर्जा का अभाव कहीं पर भी नहीं है | वैज्ञानिक कहते हैं कि ऊर्जा ही भगवान् है । हमारे शास्त्र कहते हैं कि ऊर्जा भगवान् की है और भगवान् के कारण है परंतु भगवान नहीं है। भगवान् तो ऊर्जा से भी परे हैं | जो एक सूक्ष्म से कण में है, वही सब कुछ सम्पूर्ण ब्रहमांड में भी है | कहीं पर कोई भिन्नता नहीं है | “यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे” कथन भी इसी ओर संकेत करता है |
                  इस प्रकार हमने अब तक ऊर्जा-चक्र, कुण्डलिनी और तंत्रिका तंत्र के बारे में चर्चा की | अब चर्चा करते हैं अन्तःस्रावी ग्रंथियों की, जिनका परोक्ष (Indirect) रूप से इन चक्रों से सम्बन्ध अवश्य है, जैसा कि हमारे शास्त्र कहते हैं | आधुनिक विज्ञान इनके आपसी सम्बन्ध को संभवतः स्वीकार नहीं करता | जब हम ऊर्जा-चक्र की बात करते हैं तब तंत्रिका तंत्र का तो इनसे प्रत्यक्ष (Direct) सम्बन्ध होता ही है परन्तु उस ऊर्जा को कार्य रूप में परिवर्तित करने में अन्तःस्रावी ग्रंथियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है | संक्षेप में आपको बताना चाहूँगा कि हमारे शरीर में दो प्रकार की ग्रंथियां होती है – बाह्य-स्रावी (Exocrines) और अन्तःस्रावी (Endocrines) | हमारे शरीर के लिए दोनों ही प्रकार की ग्रंथियां उपयोगी है परन्तु अन्तःस्रावी ग्रंथियां अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि ये ऊर्जा-चक्र के साथ सहयोग करती हैं |
             बाह्य स्रावी ग्रंथियां वे ग्रंथियां होती है जो अपने द्वारा उत्पादित रस (Secretions) को स्वयं के बाहर यानि किसी नली (Duct) अथवा शरीर के बाहर डालती है जैसे यकृत अपने द्वारा स्रावित पाचन रस (Digestive enzymes) को आँतों (Intestines) तक पित्त नली (Bile duct) के माध्यम से पहुंचाता है | इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण स्वेद ग्रंथियों (Sweat glands) का है, जो गर्मी में पसीने को शरीर से बाहर निकालती है |
              अन्तःस्रावी ग्रंथियां वे ग्रंथियां होती है, जो स्वयं के द्वारा उत्पादित रस (Hormones) को सीधे रक्त में उड़ेलती है जो शरीर के द्वारा किए जाने वाली विभिन्न क्रियाओं के संपादन में सहायक सिद्ध होते हैं |
              मानव शरीर की अन्तःस्रावी प्रणाली (Endocrynal System) में मुख्य ग्रंथि पियूष (Pitutary) ग्रंथि है | यह ग्रंथि ही सहस्रार चक्र के संपर्क से ऊर्जा ग्रहण करती है।अतः एक प्रकार से ऐसा कहा जा सकता है कि यह ग्रंथि शरीर में सहस्रार चक्र की भूमिका निभाती है | पियूष ग्रंथि सिर के शीर्ष स्थान में स्थित रहती है | यह शरीर के लिए मुख्य ऊर्जा का स्रोत है, जो अपने स्राव अर्थात हार्मोंस के माध्यम से अन्य ग्रंथियों को उत्तेजित अथवा शांत करती है अर्थात इसी ग्रंथि से अन्य सभी अन्तःस्रावी ग्रंथियां निर्देशित होती है | पियूष ग्रंथि अन्य सभी अन्तःस्रावी ग्रंथियों को सक्रिय करने में भूमिका निभाती है | यह मस्तिष्क से अधःचेतक (Hypothalamus) के माध्यम से जूडी रहती है | अधःचेतक (Hpothalamus) को मन का प्रतीक भी कहा जाता है ।
         हमारे ऋषि-मुनि कहते हैं कि मन शरीर का कोई एक अंग नहीं है बल्कि यह अवस्था का नाम है | मन वैसे ही एक अवस्था का नाम है जैसे जल के जमने से उसका नाम बर्फ हो जाता है | इसी प्रकार जब विचार (Thoughts) और स्मृतियाँ (Memories) जम जाती है तब मन अस्तित्व में आ जाता है | मस्तिष्क का यह भाग़ अर्थात अधःचेतक (Hypothalamus) ही मन है | इसी में ही स्मृतियाँ (Memories) संचित (Store) रहती है और समय पाकर पुनः सक्रिय हो उठती है | इसलिए मैंने मस्तिष्क के इस भाग को मन कहा है | मन सक्रिय हो तो मनुष्य अशांत हो जाता है क्योंकि संचित स्मृतियाँ और विचार जाग्रत हो जाते हैं | अगर मन को नियंत्रित कर लिया जाये तो फिर ये स्मृतियाँ और विचार व्यक्ति को व्यथित नहीं कर सकते और वह शांति का अनुभव करने लगता है | देखा जाए तो यह एक मास्टर स्विच बोर्ड की भांति है, जो पूरे शरीर को पियूष ग्रंथि के माध्यम से नियंत्रित करता है |
             इस प्रकार स्पष्ट है कि पियूष ग्रंथि और मन का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है | पियूष अर्थात सहस्रार चक्र से निकलकर अन्य सभी चक्रों तक प्रवाहित होने वाली ऊर्जा मन की स्थिति से निश्चित ही प्रभावित होती है | इसलिए मन को नियंत्रण में रखने के लिए ध्यान किया जाता है | ध्यान कुण्डलिनी जागरण में मुख्य भूमिका निभाता है | ध्यान से मन के नियंत्रित होते ही पियूष ग्रंथि अपने द्वारा स्रावित होने वाले हारमोंस में परिवर्तन कर लेती है,जिससे सभी ऊर्जा-चक्र नियंत्रित होते हैं |
              दूसरी अन्तःस्रावी ग्रंथि है – पीनियल | यह मध्य मस्तिष्क में अवस्थित होती है और मध्य मस्तिष्क से ही सुषुम्ना नाड़ी निकलती है | यह आज्ञा चक्र के अंतर्गत है | तीसरी ग्रंथि है – थाइरोइड (Thyroid) | यह हमारे गले के अग्र भाग में स्थित है और विशुद्ध चक्र के अंतर्गत आती है | इसका उर्जा क्षेत्र ग्रीवास्थियों (Cervicals) के मध्य से निकलने वाली तंत्रिकाएं निश्चित करती हैं, जोकि कंठ में विशुद्ध ऊर्जा-चक्र बनाती है | चौथी अन्तःस्रावी ग्रंथि है – थाइमस (Thymus) जोकि वक्ष (Chest) के मध्य में हृदय और फेंफडों के पास स्थित रहती है, जो बाल्यकाल में अधिक सक्रिय रहती है | यह अनाहत चक्र के अंतर्गत है और मेरुदंड के वक्षास्थि(Thoracic) क्षेत्र में स्थित है |
      पांचवीं ग्रंथि है – अग्नाशय (Pancreas) | यह मेरुदंड के कटिस्थि (Lumbar) क्षेत्र में है और मणिपूरक उर्जा चक्र के अंतर्गत है | छठी ग्रंथि है – अधिवृक्क ग्रंथि (adrenal gland), जो आती तो कटिस्थि (Lumbar) क्षेत्र में ही है परन्तु है यह अधिष्ठान चक्र के अंतर्गत | सातवीं और अंतिम ग्रंथि है- जनन ग्रंथियां (Testes/ Ovaries) | ये ग्रंथियां भी अधिष्ठान चक्र के अंतर्गत है परन्तु इनका क्षेत्र मेरुदंड का त्रिकास्थि (sacrum) है | सबसे नीचे मूलाधार चक्र होता है, जिससे सम्बंधित कोई भी अन्तःस्रावी ग्रंथि नहीं है और यह मेरुदंड के पुच्छास्थि (Coccyx) के क्षेत्र में स्थित है | किसी एक ग्रंथि विशेष से सम्बन्ध न होने पर भी मूलाधार चक्र त्रिकास्थि क्षेत्र में स्थित दोनों ग्रंथियों से कार्य ले लेता है |
         तंत्रिका तंत्र, अन्तःस्रावी ग्रंथियों, दोनों का ही इन ऊर्जा चक्रों से घनिष्ठ सम्बन्ध है | क्रिया रूप से तंत्रिका तंत्र और अन्तःस्रावी ग्रंथियों में अंतर अवश्य है | तंत्रिका तंत्र और अन्तःस्रावी ग्रंथियों में मुख्य अंतर क्या है ? यह भी जान लेना आवश्यक है | मुख्य रूप से दोनों में निम्न अंतर हैं-
1.तंत्रिका तंत्र में सन्देश का विद्युत् तरंगों (Electric waves) के रूप में संप्रेषण (Transmission) होता है जबकि अन्तःस्रावी ग्रंथियों में रसायनों (Chemicals) के रूप में |
2.तंत्रिका तंत्र में न्यूरॉन (Nurone) के माध्यम से संकेत (Signal) भेजे जाते हैं जबकि अन्तःस्रावी ग्रंथियों में माध्यम रक्त (Blood) होता है |
3.तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण स्वैच्छिक (Voluntary) और अनैच्छिक (Involuntary) दोनों ही प्रकार का है, जबकि अन्तःस्रावी ग्रंथियों का नियंत्रण अनैच्छिक है |
4.तंत्रिका तंत्र की प्रतिक्रियाएं स्थानीय (Local) होती है जबकि अन्तःस्रावी ग्रंथियों की प्रतिक्रियाएं व्यापक (General) होती है |
      इसके अतिरिक्त भी विज्ञान की दृष्टि में बहुत से अंतर है, परन्तु विषय को सरल बनाये रखने के लिए हमारे द्वारा इतने अंतर जान लेना ही पर्याप्त है |
            इस प्रकार हमने अब तक कुण्डलिनी चक्र, तंत्रिका तंत्र और अन्तःस्रावी ग्रंथियों के आपस के सम्बन्ध की चर्चा की | अब प्रत्येक चक्र की इस शरीर में क्या भूमिका रहती है? आइए! इसे जानने का प्रयास करते हैं |
मूलाधार चक्र –
       इसे आधार चक्र भी कहा जाता है | एक भवन के कंगूरे चाहे कितने ही सुन्दर और आकर्षक दिखलाई पड़ते हो, उसे मजबूती उस घर की नींव ही प्रदान करती है | इसी प्रकार मूलाधार चक्र ही सभी चक्रों का मुख्य आधार है | इसी आधार चक्र पर शेष चक्र टिके हुए हैं | यह चक्र प्रवृत्ति (Attitude), सुरक्षा (Safety), अस्तित्व (Existence) और मानव की मौलिक क्षमता (Underivative capacity) से संबंधित है | यह केंद्र गुप्तांग (Genitals) और गुदा (Anus) के बीच अवस्थित होता है | हालांकि यहां कोई अंत:स्रावी अंग नहीं होता फिर भी कहा जाता है कि यह जननेन्द्रिय (Genital glands) और अधिवृक्क ग्रंथियों (Adrenal glands) से जुड़ा होता है और प्राणी का अस्तित्व जब संकट में होता है तो मरने या मारने अथवा सुरक्षित रखने का दायित्व इसी उर्जा चक्र का होता है |
           इस चक्र के पुच्छास्थि क्षेत्र में एक मांसपेशी (Muscle) होती है जो यौन क्रिया में स्खलन (Ejaculation) को नियंत्रित करती है | मूलाधार का प्रतीक लाल रंग और चार पंखुडि़यों वाला कमल है | मूलाधार चक्र शारीरिक रूप से काम-वासना (Sexual desire) को, मानसिक रूप से स्थायित्व (Stability) को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख (Pleasure) को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा (Safety) की भावना को नियंत्रित करता है |
               मूलाधार चक्र तंत्र और योग साधना की चक्र संकल्पना (Hypothesis of energy wheel) का प्रथम चक्र है | यह अनुत्रिक (Coccyx) के आधार में स्थित है। इसे पशु और मानव चेतना के बीच सीमा निर्धारित करने वाला भी माना जाता है | इसका सम्बन्ध अचेतन मन से है, जिसमें पिछले जीवन के कर्म और अनुभव संचित रहते हैं | कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह चक्र प्राणी के भावी प्रारब्ध (Destiny) को भी निर्धारित करता है |
स्वाधिष्ठान चक्र –
         इसको त्रिक चक्र (Sacral wheel) भी कहा जाता है क्योंकि यह मेरुदंड (Vertebral column) के त्रिक क्षेत्र (Sacral region) में अवस्थित होता है | इसके कारण ही पुरुष में अंडकोष (Testes) अथवा स्त्री में अंडाशय (Ovary) से विभिन्न तरह के यौन अंत:स्राव (Sex hormones) उत्पन्न होते हैं, जो प्रजनन चक्र (Reproductive cycle) से सम्बंधित है | इनके साथ ही स्वाधिष्ठान को मूत्र तंत्र (Renal system) और अधि:वृक्क ( Suprarenal or Adrenals) से संबंधित भी माना जाता है |
             त्रिक चक्र का प्रतीक छह पंखुडि़यों वाला और उससे परस्पर जुड़ा नारंगी रंग का एक कमल है | स्वाधिष्ठान का मुख्य विषय संबंध (Relation), हिंसा (Violence), व्यसन (Addiction), मौलिक भावनात्मक आवश्यकताएं (emotional needs) और सुख (Pleasure) है | स्वाधिष्ठान चक्र शारीरिक रूप से प्रजनन (Reproduction), मा‍नसिक रूप से रचनात्मकता (Creativity), भावनात्मक रूप से खुशी (Delight) और आध्यात्मिक रूप से उत्सुकता (Eagerness) को नियंत्रित करता है |
मणिपूर चक्र –
         इसे सौर स्नायु-जाल चक्र (Solar plexus) भी कहा जाता है | यह चक्र चयापचय (Metabolism) और पाचन तंत्र (Digestive system) से संबंधित है। माना जाता है कि मणिपुर में स्थित ऊर्जा चक्र लैंगरहैंस की द्वीपिकाओं (Islets of lengerhens) से मेल खाता है, जो कि अग्नाशय (Pancreas) में कोशिकाओं का एक समूह (Group of cells) है | यह कोशिका समूह इन्सुलिन नामक हार्मोन स्रावित करता है जोकि रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है।इस हार्मोन की कमी से मधुमेह (Diabetes mellitus) नामक बीमारी हो जाती है।इसके अतिरिक्त अग्नाशय से कई पाचक रस भी स्रावित होकर आंत में जाते हैं और खाद्य पदार्थों में मिल जाते हैं।ये पाचक रस खाद्य पदार्थों के पाचन (Digestion) में और फिर उन्हीं पचे हुए  खाद्य पदार्थों को ऊर्जा में रूपांतरित (Transformation) करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं |
             इसका प्रतीक दस पंखुड़ियों वाला एक कमल है | मणिपूर से मेल खाता रंग पीला है | मुख्य विषय जो मणिपूर चक्र द्वारा नियंत्रित होते हैं, वे विषय है - निजी बल (Personal power), भय (Fear), व्यग्रता (Restlessness), मत निर्धारण (Determination), अंतर्मुखी स्वभाव (Intero verted) और सहज या मौलिक से लेकर जटिल भावनात्मक (Sentiments) परिवर्तन | क्रोध का मूल कारण भी मणिपुर चक्र की ऊर्जा का अनियंत्रित हो जाना है। मणिपुर चक्र शारीरिक रूप से पाचन (Digestion), मानसिक रूप से निजी बल (power), भावनात्मक रूप से व्यापकता (Prevalence) और आध्यात्मिक रूप से सभी उपादानों (Ingredients) के विकास को नियंत्रित (Control) करता है |
अनाहत चक्र –
            इस उर्जा चक्र को हृदय चक्र भी कहा जाता है | यह चक्र थायमस ग्रंथि से संबंधित है जोकि वक्ष (chest) में स्थित है | बाल्यग्रंथि (Thymus) प्रतिरक्षा प्रणाली (Immunity) से सम्बंधित है और साथ ही साथ यह अंत:स्त्रावी तंत्र का भी हिस्सा है | यहां टी कोशिकाएं (T-cells) परिपक्वता (Maturity) को प्राप्त होती हैं जो कि बीमारी (Illness) से बचाव में तो सहायक है ही, साथ ही साथ तनाव (Tension) के प्रतिकूल प्रभाव से भी बचाव का काम करती हैं | अनाहत का प्रतीक बारह पंखुड़ियों का एक कमल है | अनाहत हरे या गुलाबी रंग से संबंधित है |
          अनाहत से जुड़े मुख्य विषय जटिल भावनाएं (Emotions), करुणा (Mercy), सहृदयता (Thoughtfulness), समर्पित प्रेम (Dedicated love), संतुलन (equilibrium), अस्वीकृति (Rejection) और कल्याण (Welfare) है | अनाहत चक्र शारीरिक रूप से सक्रियता (Activities) को नियंत्रित (Control) करता है, भावनात्मक रूप से अपने और दूसरों के प्रति समर्पित प्रेम, मानसिक रूप से आवेश (Zeal) और आध्यात्मिक रूप से समर्पण (Dedication) को नियंत्रित (Control) करता है ।
विशुद्ध चक्र -
             इस चक्र को अभिव्यक्ति के माध्यम से संप्रेषण (Transmission) और विकास (Evolution) के साथ जोड़कर समझा जा सकता है | यह चक्र गले में स्थित होता है जिसका गलग्रंथि (Thyroid) से सम्बन्ध है जो थायरॉयड हारमोन उत्पन्न करती है, जिससे शरीर का विकास होता है और जीवन में परिपक्वता (Maturity) आती है | इसका प्रतीक सोलह पंखुड़ियों वाला कमल है | विशुद्ध चक्र की पहचान पीलापन लिये हुए हल्के नीले या फिरोजी रंग से है | यह आत्माभिव्यक्ति (Personal expression) और संप्रेषण जैसे विषयों को नियंत्रित करता है | विशुद्ध चक्र शारीरिक रूप से संप्रेषण (Transmission) और शरीर विकास, भावनात्मक रूप से स्वतंत्रता (Independence), मानसिक रूप से उन्मुक्त विचार (Free thoughts) और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है |
आज्ञा-चक्र -
         आज्ञा-चक्र हमारी अंतर्दृष्टि को प्रकट करती है | पीनियल ग्रंथि (Pineal gland) रोशनी के प्रति संवेदी (Sensitive) ग्रंथि होती है, जो मेलाटोनिन हार्मोन (Melatonin hormone) का निर्माण करती है | यह हार्मोन सोने या जागने की क्रिया को नियंत्रित करता है | यह ग्रंथि प्रकाश के प्रति बड़ी ही संवेदी (Sensitive) है | आज्ञा चक्र का प्रतीक दो पंखुडि़यों वाला कमल है और यह श्वेत, नील या गहरे नीले रंग से मेल खाता है | आज्ञा चक्र का मुख्य विषय उच्च और निम्न अहम (Ego) को संतुलित रखना और अन्तःस्थ (Internal) मार्गदर्शन पर विश्वास करना है अर्थात आत्मविश्वास को दृढ़ता प्रदान करना है | आज्ञा चक्र की मुख्य भूमिका अंतर्ज्ञान (Intuition) को जीवन के लिए उपयोगी बनाने में है | मानसिक रूप से, आज्ञा चक्र दृश्य चेतना (Visible consciousness) के साथ जुड़ा होता है | भावनात्मक रूप से, आज्ञा चक्र शुद्धता के साथ सहज ज्ञान (Intuition) के स्तर से जुड़ा होता है |    
सहस्रार चक्र –
          सहस्रार चक्र को मुख्य रूप से शुद्ध चेतना (Pure consciousness) का चक्र माना जाता है | हो सकता है इसकी भूमिका कुछ सीमा तक पीयूष ग्रंथि (Pitutary gland) जैसी हो, जो समस्त  अंत:स्रावी प्रणाली (Endocrynal system) के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए विभिन्न हार्मोन स्रावित करती है और साथ में अध:श्चेतक (Hypothalamus) के माध्यम से केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (CNS) से भी जुड़ी रहती है | माना जाता है कि प्राणी की चेतना के दैहिक आधार (soul) में इस चक्र की मुख्य भूमिका होती है |
            इसका प्रतीक कमल की एक हजार पंखुडि़यां हैं और यह सिर के शीर्ष पर अवस्थित होता है | सहस्रार बैंगनी रंग का प्रतिनिधित्व करती है और यह आतंरिक बुद्धि और दैहिक मृत्यु से जुड़ी होती है | सहस्रार का आंतरिक स्वरूप नैष्कर्म्यता से, दैहिक क्रिया रूप से ध्यान (Meditation) से, मानसिक क्रिया सार्वभौमिक चेतना (Universal consciousness) और एकता से तथा भावनात्मक क्रिया अस्तित्व (Existence) से जुड़ा होता है |
प्रत्येक चक्र में उपस्थित ऊर्जा का प्रभाव -
1.मूलाधार-चक्र –
     अगर आप की ऊर्जा मूलाधार में प्रबल है, तो आपके जीवन में भोजन और निद्रा का सबसे प्रमुख स्थान होगा | वैसे प्रत्येक चक्र के एक से ज्यादा आयाम होते है | प्रत्येक चक्र का मुख्य आयाम उसका भौतिक अस्तित्व तो है ही, साथ ही उसका आध्यात्मिक आयाम भी होता है | एक आयाम से दूसरे आयाम में परिवर्तन किया जा सकता है जोकि कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है | इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक चक्र को पूरी तरह से रूपांतरित किया जा सकता है | उदाहरण के लिए, मूलाधार चक्र, जो भोजन और नींद के लिए लालायित रहता है, अगर आपने सही तरीके से जागरूकता पैदा कर ली है, तो वही चक्र इन चीजों से आप को पूरी तरह से मुक्त भी कर सकता है |
2.स्वाधिष्ठान चक्र – (त्रिक-चक्र)-
       दूसरा चक्र है - स्वाधिष्ठान । अगर आपकी ऊर्जा स्वाधिष्ठान में सक्रिय है, तो आपके जीवन में आमोद प्रमोद की प्रधानता होगी | आप भौतिक सुखों का भरपूर आनंद लेने के प्रयास में रहेंगे | आप जीवन में हर चीज का आनंद उठाएंगे | यह कामुकता की ऊर्जा का निवास स्थान है | यह चक्र मनुष्य के अवसाद (Depression) के लिए उत्तरदाई होता है | इस चक्र में उपस्थित अधिवृक्क ग्रंथियां (Adrenals) तनाव हार्मोन (Adrenaline) स्रावित करती है, जो कि मनुष्य के जीवन में तनाव के लिए जिम्मेदार है |
3.मणिपूरक-चक्र
अगर आपकी ऊर्जा मणिपूरक में सक्रिय है, तो आप कर्मयोगी होंगे | आप दुनिया में हर तरह का काम करने को तैयार रहेंगे | यह सौर जाल चक्र (Solar plexus) अहंकार (Ego), क्रोध (Anger) और आक्रामकता (Aggeression) जैसी भावनाओं का केंद्र है | यह आपके आत्म सम्मान से जुड़ा चक्र है | यह चक्र अग्नि तत्व से बंधा है |
4.अनाहत-चक्र
        अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे |
5.विशुद्धि चक्र
   आपकी ऊर्जा अगर विशुद्धि चक्र में सक्रिय है, तो आप अति शक्तिशाली होंगे |
6.आज्ञा चक्र
         अगर आपकी ऊर्जा आज्ञा-चक्र में सक्रिय है अथवा आप आज्ञा-चक्र तक पहुंच गये हैं, तो इसका मतलब है कि बौद्धिक स्तर पर आपने सिद्धि पा ली है | बौद्धिक सिद्धि आपको शांति देती है | आपके अनुभव में यह भले ही वास्तविक न हो, लेकिन जो बौद्धिक सिद्धि आपको प्राप्त हुई है, वह आपमें एक प्रकार की स्थिरता और शांति लाती है | आपके आस-पास चाहे कुछ भी हो रहा हो, या कैसी भी परिस्थितियां हों, उस से कोई फर्क नहीं पड़ेगा | आज्ञा-चक्र को तीसरा नेत्र भी कहा जाता है | इसके जाग्रत होने से आपका अपने अंतर्ज्ञान और कल्पना पर अडिग विश्वास पैदा हो जाता है, जिसके कारण आप जीवन में संतुलित निर्णय ले सकते हैं |
      आज्ञा-चक्र तक पहुंचकर मनुष्य थम सा जाता है क्योंकि आज्ञा-चक्र से सहस्रार-चक्र तक पहुँचना ही सबसे मुश्किल है | इसके लिए बड़े धैर्य और हिम्मत के साथ लम्बी छलांग लगाने के लिए स्वयं को तैयार करना पड़ता है | इसे ऊपर की ओर गिरना भी कहते हैं |
"ऊपर की ओर गिरना" अर्थात सहस्रार तक पहुंचना।
कुण्डलिनी जागरण और उसका उद्देश्य
             जैसा कि हम जानते हैं कि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती और न ही नष्ट की जा सकती है | ऊर्जा का केवल स्वरुप ही परिवर्तित होता है अथवा ऊर्जा का स्वरुप परिवर्तित किया जा सकता है | ऊर्जा अर्थात ऊष्मा यानि उमा अर्थात प्रकृति | प्रकृति का अस्तित्व परमात्मा से है और परमात्मा की अध्यक्षता में ही प्रकृति चराचर जगत का सृजन करती है | परमात्मा ने स्वयं को ही प्रकृति अर्थात ऊर्जा रूप में विस्तृत किया है और इसी ऊर्जा से संसार गतिमान बना हुआ है | हमारा शरीर भी इसी प्रकृति का भाग है, जो परमात्मा के इस विस्तारित रूप से संचालित हो रहा है |
         ऊर्जा के दो रूप है – स्थितिज (Static) और गतिज (Kinetic) | परमात्मा में लीन ऊर्जा स्थितिज है और प्रकृति रूप में अवतरित होकर यही ऊर्जा गतिज हो जाती है | भौतिक देह गतिज ऊर्जा से संचालित होती है | इसी ऊर्जा के छः चक्र इसी शरीर में स्थित है, जिनमें यह ऊर्जा कुण्डलिनी के रूप में चक्कर लगा रही है | ये वही चक्र है, जिनका हम इस श्रृंखला में विवेचन कर रहे हैं |
          शरीर में स्थित इस गतिज ऊर्जा चक्रों का हमें वैसे ही उपयोग करना है जिस प्रकार से हमारे घर में आ रही विद्युत् का हम विभिन्न साधनों के माध्यम से उपयोग करते हैं | एक ही प्रकार की विद्युत् ऊर्जा फ्रिज के भीतर रखे जल को ठंडा कर देती है और वही विद्युत् गीज़र के माध्यम से जल को गर्म भी कर देती है | इस प्रकार शरीर के ऊर्जा चक्रों में घूम रही ऊर्जा का समुचित उपयोग करने के लिए जो प्रयास किया जाता है, उसको कुण्डलिनी जागरण करना कहा जाता है |
        कुण्डलिनी जागरण का सिद्धांत है कि ऊर्जा के इन छः चक्रों का आपस में इस प्रकार संयोजन किया जाए जिससे उनमें विचरण कर रही ऊर्जा का सर्वाधिक और सुयोग्य उपयोग किया जा सके | कुण्डलिनी जागरण में शरीर के इन छः चक्रों में चक्कर लगा रही इस ऊर्जा को सक्रिय करते हुए इन चक्रों का आपस में सामंजस्य बिठाया जाता है, जिससे इनमें बह रही ऊर्जा का समुचित उपयोग किया जा सके | इसी सिद्धांत के आधार पर विदेशों में चक्र-संरेखांकन केंद्र (wheel allignment center) तक खुल गए हैं | इन केन्द्रों पर इन चक्रों में बह रही ऊर्जा को इस प्रकार सक्रिय किया जाता है कि प्रत्येक चक्र की ऊर्जा और उसमें स्थित अन्तःस्रावी ग्रंथियों का आपस में तालमेल हो जाता है | इस सामंजस्य के फलस्वरूप व्यक्ति में स्थिरता, सोचने-समझने की क्षमता और मानसिक तथा भावनात्मक रूप से स्थिरता का जीवन में पदार्पण होने लगता है | इससे जीवन में शांति और सुख का आगमन होता है |
       कुण्डलिनी जागरण का दूसरा उद्देश्य है कि चक्रों में बह रही ऊर्जा को सक्रिय करते हुए सभी चक्रों में आपसी सामंजस्य बैठाने के साथ-साथ इस ऊर्जा-चक्र के आयाम में भी परिवर्तन लाया जाए | प्रत्येक चक्र के चार आयाम होते है – भौतिक अथवा शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक | इस ऊर्जा का उपयोग केवल शरीर और मन के स्तर तक ही नहीं करना है बल्कि इस ऊर्जा को आध्यात्मिक स्तर तक ले जाना है ।
          ऊर्जा-चक्र के आयाम को शारीरिक स्तर से आगे बढाते हुए आध्यात्मिक स्तर तक ले जाना है | अगर केवल कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से ही अपने शरीर और मन को हम सही अवस्था में रख सके, तो यह जागरण अपने उद्देश्य में आंशिक रूप से ही सफल हुआ है, ऐसा कहा जाएगा | पूर्ण सफल तभी कहा जाएगा, जब इस ऊर्जा को हम आध्यात्मिक स्तर तक ले जाते हुए परमात्मा तक पहुंच जाएंगे |
         सहस्रार चक्र को हमारे सिर में ब्रह्म-रंध्र के पास माना गया है | शरीर से स्पर्श करते हुए भी इसे शरीर अर्थात हमारे कायिक क्षेत्र से बाहर माना गया है | सहस्रार चक्र में बह रही गतिज ऊर्जा का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से माना गया है | सहस्रार-चक्र में भले ही गतिज ऊर्जा हो परन्तु वह परमात्मा की स्थितिज ऊर्जा से परिवर्तित हुई गतिज ऊर्जा का नवीनतम संस्करण है | इस कारण से सहस्रार-चक्र का सीधा संपर्क परमात्मा से माना जाता है | इसलिए कुण्डलिनी जागरण का मुख्य उद्देश्य शरीर में स्थित छः ऊर्जा-चक्रों का इस कायिक क्षेत्र से बाहर स्थित सहस्रार-चक्र की ऊर्जा से समन्वय करना है | यह समन्वय केवल ऊर्जा-चक्रों के आध्यात्मिक आयाम के स्तर पर ऊर्जा को ले जाने से ही संभव हो सकता है अन्यथा नहीं | इस स्तर को छूते ही व्यक्ति की ऊर्जा मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाती है | इसे ही अपने वास्तविक स्वरुप को जान लेना अर्थात परमात्मा तक पहुंच जाना कहते हैं |आइए!अब श्रृंखला को समापन की ओर ले जाने से पूर्व सहस्रार-चक्र के बारे में थोड़ी चर्चा कर लें।
सहस्रार-चक्र –
         एक बार व्यक्ति की ऊर्जा जब सहस्रार तक पहुंच जाती है, तो वह पागलों की तरह परम आनंद में झूमने लगता है | अगर आप बिना किसी कारण ही आनंद में झूमते हैं, तो इसका मतलब है कि आपकी ऊर्जा ने उस सर्वोच्च शिखर को छू लिया है, जिस तक पहुंचने के लिए आप इतने समय तक प्रयास कर रहे थे | इस अवस्था में पहुंचकर आप परमात्मा के साथ एकाकार हो जाते हैं | 
          वास्तव में, किसी भी आध्यात्मिक यात्रा को हम मूलाधार से सहस्रार की यात्रा कह सकते हैं, चाहे यह यात्रा कुण्डलिनी जागरण के लिए किए जा रहे प्रयासों से संभव हो अथवा भक्ति-मार्ग में शांत होकर बैठ जाने से हो | यह ऊर्जा की एक आयाम से दूसरे आयाम में विकास की यात्रा है, इसमें तीव्रता के सात अलग-अलग स्तर होते हैं |
            आपकी ऊर्जा को मूलाधार से आज्ञा-चक्र तक ले जाने के लिए कई तरह की आध्यात्मिक प्रक्रियाएं और साधनाएं हैं, लेकिन आज्ञा-चक्र से सहस्रार-चक्र तक जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है, कोई भी एक विशेष विधि नहीं है | आपको या तो एक छलांग लगानी पड़ती है या फिर आपको उस गड्ढे में गिरना पड़ता है, जो अथाह है, जिसका कोई तल नहीं होता | इसे ही ‘ऊपर की ओर गिरना‘ कहते हैं | योग में कहा जाता है कि जब तक आपमें ‘ऊपर की ओर गिरने’ की ललक नहीं है, तब तक आप वहां तक पहुंच नहीं सकते |
           आप आनंद में मग्न हो सकते हैं, इतने मग्न कि पूरा विश्व आपकी समझ में एक मजाक जैसा लगने लगता है | यह आपका अपना ही अनुभव होगा | जो चीजें दूसरों के लिए बड़ी गंभीर है, वह आप के लिए केवल एक मजाक होती है | यही कारण है कि कई तथाकथित आध्यात्मिक लोग इस सोच तक ही पहुंचे हैं कि जीवन में शांति ही परम संभावना है, क्योंकि वे सभी आज्ञा-चक्र में ही अटके पडे़ हैं | वास्तव में देखा जाए तो जीवन में केवल शांति ही परम संभावना नहीं है |
              लोग अपने मन को छलांग लगाने के लिए तैयार करने में लंबे समय तक आज्ञा-चक्र पर अटके रहते हैं | इसी कारण से आध्यात्मिक परंपरा में गुरु-शिष्य के सम्बंध को महत्व दिया गया है | इसका कारण केवल इतना ही है कि जब आपको छलांग मारनी हो तो आपको अपने गुरु पर अथाह विश्वास होना चाहिए | 99.9 प्रतिशत लोगों को इस विश्वास की जरूरत पड़ती है, नहीं तो वे छलांग मार ही नहीं सकते | गुरु-शिष्य के संबंधों को इतना महत्व दिया ही इसलिए गया है, क्योंकि बिना विश्वास कोई भी लम्बी छलांग लगाने को तैयार ही नहीं होगा ।
        इसीलिए कहा जाता है कि कुण्डलिनी जागरण किसी योग्य गुरु की देख- रेख में ही किया जाना चाहिए अन्यथा इसके दुष्परिणाम भी सामने आ सकते हैं | कई बार तो जीवन शक्ति भी टूट जाती है और शरीर का साथ छूट सकता है | कुण्डलिनी जागरण के लिए गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण आवश्यक है और साथ ही ऊर्जा चक्रों को पूर्ण रूप से सक्रिय करने की मन में ललक भी होनी चाहिए | अन्त में एक महत्वपूर्ण बात, आज्ञा चक्र के पूर्ण सक्रिय होते ही मनुष्य को सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं | इन सिद्धियों को भुनाने के लिए उसी चक्र पर अटकना भी हो सकता है | अतः सिद्धियों के मोह में न फंसे बल्कि एक लम्बी छलांग लगाते हुए परमात्मा से एकाकार हो जाएँ |  
कुण्डलिनी जागरण का परिणाम –
        जब सभी चक्र खुल (Unblock) जाते हैं, तब आत्मा, मन और शरीर के सामंजस्य  और पूर्ण मिलन को अनुभव करेंगे | वास्तव में देखा जाए तो गीता का मुख्य सार “वासुदेव सर्वम्” है, उसका अर्थ यही है कि न परा (आत्मा) है, न अपरा (मन और शरीर) है, बल्कि सब कुछ परमात्मा ही है | एक परमात्मा के सिवाय कोई दूसरा है ही नहीं | कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से हम बड़े थकाऊ प्रयास के उपरांत जहाँ तक पहुँचने की कल्पना करते हैं, भक्ति-मार्ग से बिना किसी प्रयास के सहज ही पहुँच सकते हैं | निर्णय मनुष्य की योग्यता पर निर्भर करता है कि वह अपने लिए इन दोनों में से कौन सा मार्ग चुनता है ?
      कुण्डलिनी जागरण में इन चक्रों को इस प्रकार एक सीधी और सरल रेखा में लाना होता है जिसे संरेखन (Align) करना कहा जाता है. जिससे ऊर्जा मुक्त रूप से और प्रत्येक प्रकार से प्रवाहित हो और उस उर्जा का अधिकतम उपयोग हो सके | पश्चिमी देशों में कुण्डलिनी जागरण के लिए चक्र संरेखांकन केंद्र (wheel alignment center) तक खुल गए हैं | इन केन्द्रों से कितनों को क्या लाभ मिला है ? इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता |
     कुण्डलिनी जागरण कैसे किया जा सकता है ? इसके लिए किसी योग्य गुरु तक अपनी पहुंच बनाएं | इसी के साथ इस श्रृंखला के समापन की आज्ञा चाहूंगा |
|| हरिः शरणम् ||
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

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