न किञ्चिदपि चिन्तयेत्
जो कुछ भी पढ़ा और संतों के सान्निध्य में रहकर सीखा उस पर मेरे द्वारा बहुत कुछ लिखा जा चुका है । जैसा कि आप जानते है, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। परमात्मा भी असीम है, ज्ञानपूर्ण है। उनको जानना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। उसे श्रम करके नहीं जाना जा सकता। उस तक पहुंचने के लिए तो विश्राम की आवश्यकता है। विश्राम के लिए बाहर भीतर से मौन होना एक मात्र विकल्प है।
भगवान गीता में कहते हैं -
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।।6.25।।
शनैःशनैः अर्थात् सहसा नहीं क्रम- क्रम से उपरतिको प्राप्त करें। किसके द्वारा, बुद्धि द्वारा। कैसी बुद्धि द्वारा, धैर्य से धारण की हुई अर्थात् धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा। तथा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है, उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी वस्तु का भी चिन्तन न करे। यह योगकी परम श्रेष्ठ विधि है।
इसी अवस्था की ओर अग्रसर होने के लिए सभी क्रियाओं को त्यागना होगा, लेखन को भी।तभी आगे की यात्रा पर बढ़ा जा सकेगा। इसलिए लेखन से कुछ समय के लिए विश्राम लेना आवश्यक है।
।। हरिः शरणम्।।
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