असुर भक्त - वृत्रासुर
दैव - असुर
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दैवी और आसुरी संपदाओं के बारे में विस्तार से बताया है । प्रत्येक मनुष्य में दोनों ही प्रकार की सम्पदा रहती है, बस उनकी मात्रा में अन्तर अवश्य रहता है । दैवी सम्पदा अधिक हो तो उसका स्वभाव दैव की तरह होगा और आसुरी सम्पदा अधिक हो तो वह असुर स्वभाव का होगा । हमारे अंतःकरण में इन दोनों के मध्य सदैव संग्राम चलता रहता है । दोनों में कौन विजयी होगा, वह इस बात से निश्चित होगा कि उस परिस्थिति में कौन सी सम्पदा प्रभावशाली रहती है ।
एक ब्राह्मण कथाकार की खूब प्रसिद्धि थी । लोगबाग प्रायः उनकी ईमानदारी की प्रशंसा करते थे । वे भगवान की कथा में केवल ज्ञान देते ही नहीं थे बल्कि उस ज्ञान को जीते भी थे । एक बार वे किसी गांव से अपने निवास स्थान पर बस से लौट रहे थे । उन्होंने परिचालक को टिकिट के पैसे दिए । परिचालक ने टिकिट काटकर पंडितजी को शेष राशि लौटा दी । पंडितजी ने देखा कि परिचालक ने ज्यादा पैसे लौटाए हैं । उन्होंने चुपचाप पैसे अपनी जेब में रख लिए । रास्ते भर उनके मन में द्वंद्व चलता रहा। दैवी सम्पदा कहती कि अधिक राशि को लौटा दो, आसुरी सम्पदा कहती कि त्रुटि परिचालक से अनजाने में हुई है, पैसा नही लौटाऊंगा, तो भी उसको पता नहीं चलेगा । इसी द्वंद्व में उनका गांव आ गया ।
वे बस से उतर ही रहे थे कि अचानक परिचालक की ओर पलटे और कहा - "बेटा ! संभवतः तुमने मुझे अधिक पैसे लौटाए हैं । ये लो तुम्हारे पैसे ।" परिचालक ने पंडितजी के पैर छू लिए और बोला -" मैने जैसी आपकी प्रशंसा सुनी थी, वैसा ही आपको पाया। मैंने आपकी परीक्षा लेने के लिए ही अधिक पैसे लौटाए थे । धन्य हैं आप ।" इतना सुनकर पंडितजी के पसीने छूट गए । अपने घर की ओर लौटते हुए वे परमात्मा को धन्यवाद दे रहे थे कि आज आपने मेरी लाज रख ली अन्यथा आसुरी सम्पदा ने तो अपना प्रभाव दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी ।
परिस्थितियां कई बार दैवी सम्पदा वाले को भी असुर बना देती है । ऐसे ही एक दैवी सम्पदा वाले महात्मा को श्राप वश असुर बनना पड़ा और असुर भी ऐसा, सबको त्रास देने वाला - वृत्रासुर।
वृत्रासुर
भक्ति पर सबका समान अधिकार है; चाहे वह मनुष्य हो, देवता हो अथवा असुर | हाँ, तभी तो असुर भी भगवान का परम भक्त हो सकता है । भक्ति के तीन प्रेरक जो पिछली श्रंखला (भक्ति-विज्ञान) में बताये गए हैं, उनमें से किसी एक के होने से शीघ्र ही परमात्मा की ओर उन्मुख हुआ जा सकता है | ये तीन प्रेरक एक बार पुनः आपको स्मरण करा देता हूँ — पहला - किसी योग्य महापुरुष का सान्निध्य, दूसरा- जीवन में विपरीत परिस्थितियां आने के कारण और तीसरा- पूर्वजन्म के भक्ति संस्कार से । मनुष्य जन्म को भक्ति के लिए सर्वोत्तम बताया जाता है क्योंकि इस जन्म में भक्ति के तीनों प्रेरक एक साथ मिलने की सम्भावना सर्वाधिक रहती है | देवता भक्ति से प्रायः विमुख ही रहते हैं क्योंकि स्वर्ग में सुख भोग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, वहाँ विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न होने का भी कोई प्रश्न ही नहीं है | अगर कभी विपरीत परिस्थिति उत्पन्न भी होती है तो सब देवता सीधे परमात्मा के पास चले जाते हैं | वे मार्ग सुझा देते हैं और उनका विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलना संभव हो जाता है | उस विपरीत परिस्थिति के टलते ही देवता लोग पुनः भोगों में रत हो जाते हैं |
असुरों के सामने भी विपरीत परिस्थिति कभी कभी ही आती है क्योंकि वे प्रायः अपने तपोबल से समय समय पर ब्रह्माजी, शिवजी आदि से वर प्राप्त करते रहते हैं | उन्हें देवताओं से प्रायः युद्ध करना पड़ता है क्योंकि असुर सब जगह अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं । दूसरा कारण है कि असुरों की कामनाओं का कोई अंत नहीं है | असुरों में विकार भरे रहते हैं जिनमें राग-द्वेष मुख्य हैं | उनके जीवन में संतुष्टि का कोई स्थान नहीं है | इसी का परिणाम है कि वे युद्ध करके देव-लोक पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते हैं । अपनी पराजय निकट देखकर देवता लोग भगवान् के पास जाकर उनसे युद्ध जीतने के गुर प्राप्त कर ही लेते हैं | इस प्रकार देवताओं के सामने असुरों की दाल कभी नहीं गलती |
असुर होना प्रायः किसी श्राप का परिणाम होता है | ऐसे किसी श्रापित असुर के पास केवल पूर्वजन्म के संस्कार ही एक मात्र ऐसा प्रेरक होता है जो उसको भक्ति उपलब्ध करा देता है | असुरों में कई भगवद्भक्त हुए हैं, जिनमें से एक है - वृत्रासुर । यह लेख वृत्रासुर की "पुष्टि-भक्ति" पर आधारित है ।
संसार में वैसे तो सात लोक हैं परन्तु आज मैं जिन दो लोकों की चर्चा करने जा रहा हूँ, वे हैं - दैव-लोक और असुर-लोक | दैव-लोक में जीवन के समस्त सुख है, अगर नहीं है तो केवल परमात्मा की चाह नहीं है | परमात्मा को प्राप्त करने की चाह केवल मनुष्य में ही उत्पन्न हो सकती है । सांसारिक चाहना हो तो मनुष्य संसार के आवागमन के चक्र में उलझ कर रह जाता है और अगर चाह परमात्मा की हो तो मुक्त भी हो सकता है | मुक्त होना है, संसार के बंधनों से । संसार से मुक्त होते ही परमात्मा के साथ सम्बंध स्वतः ही हो जाएगा ।
मनुष्य ही एक मात्र ऐसा जीव है, जो परमात्मा को प्राप्त कर सकता है । इसी कारण से देवता भी इस मृत्यु लोक में मनुष्य के रूप में जन्म लेना चाहते हैं। देवताओं के गुरु हैं - वृहस्पति । उनके सान्निध्य से ही दैव-लोक सुरक्षित है । सुख-भोग में देवता इतने अधिक डूबे रहते हैं कि जब तक उन पर कोई विपत्ति न आ जाये तब तक परमात्मा का स्मरण नहीं करते । फिर भी योग्य गुरु का साथ होने के कारण युद्ध जैसी विपरीत परिस्थितियों में भगवान् उनकी सहायता करना स्वीकार कर ही लेते हैं |
असुर-लोक की एक विशेषता है कि ये लोग बड़े कठोर से कठोर तप कर लेते हैं और बदले में परमात्मा से वरदान प्राप्त कर लेते हैं । यही कारण है कि वे युद्ध भी प्रचंड वेग से लड़ते हैं । असुरों के गुरु हैं - शुक्राचार्य । असुरों का युद्ध प्रायः देवताओं से ही होता है । तप के फलस्वरूप मिले वरदान से असुरों को युद्ध में पराजित करना लगभग असंभव होता है । देवता तो सदैव भोगों में रत रहते हैं, इसलिए कठोर परिश्रम से दूर रहते हैं | यही कारण है कि वे असुरों से होने वाले युद्ध में प्रायः मात खाने के करीब पहुंच जाते हैं । अंततः अपनी आसन्न पराजय देखकर देवता लोग परमात्मा की शरण लेते हैं | परमात्मा के पास सहायता के लिए जाने का एक ही अर्थ होता है कि देवताओं की ओर से या तो परमात्मा स्वयं युद्ध करे अथवा उन्हें युद्ध में जीत का कोई मंत्र दे दे | आखिर परमात्मा को कुछ न कुछ करके युद्ध में असुरों को पराजित करना ही पड़ता है |
देवता भगवान् की सहायता से युद्ध भले ही जीत जाते हों परन्तु वे अहंकारवश इसे अपनी जीत मान बैठते हैं | मनुष्यों के जीवन में भी ऐसा ही होता है | जब सांसारिक जीवन में सफलता मिलती है तो हमें अभिमान हो जाता है और उस सफलता का श्रेय हम स्वयं को देने लगते हैं | जब किसी कार्य में असफल हो जाते हैं, तब जाकर ही भगवान् की शरण लेते हैं |
दैव-लोक के राजा इंद्र हैं | एक तो उनको अपने पद का मद होता है और दूसरा जब देवताओं को युद्ध में जीत मिलती है तब उनका यह मद कई गुना बढ़ जाता है | आइये ! देवताओं के राजा इंद्र के मद में चूर होने की एक कथा से इस श्रृंखला को गति प्रदान करते हैं |
एक बार इन्द्रदेव ने मद में आकर, अपने गुरु बृहस्पति को सभा में आया हुआ देख कर भी अनदेखा कर दिया। राजमद, भला किसी से क्या नहीं करवा सकता ? मद सब कुछ करवा सकता है । उपेक्षा ! और वह उपेक्षा भी एक गुरु की । लेकिन गुरु तो गुरु ही होता है। जिसके कारण इंद्र का सिंहासन सुरक्षित है, उसी गुरु का घोर अपमान । गुरु तो धैर्यवान होते हैं, उचित समय की प्रतीक्षा करते हैं। उस समय तो वृहस्पति अपमानित हो कर रह गए कुछ बोले नहीं, तत्काल ही चुपचाप सभा से चले गए। गुरु के इस प्रकार बिना कुछ कहे चले जाने के बाद इन्द्र को बड़ा पश्चाताप हुआ । सोचने लगे कि मैंने कैसा अनुचित काम कर दिया ? वे गुरु को ढूँढने गए लेकिन गुरु चले गए तो चले ही गए, पता भी नहीं चला कि वे गए तो आखिर कहाँ गए ?
गुरु की कृपा चाहिए तो गुरु की सेवा करना और उनको सम्मान देना आवश्यक है | गुरु सम्मान के भूखे नहीं होते परन्तु कृपा की आवश्यकता हो तो गुरु की पूजा और सम्मान करना ही चाहिए | इधर दैव-लोक में गुरु की सेवा ही क्या, उनका तो सम्मान तक नहीं किया गया था | गुरु की कृपा जैसे ही कम हुई, देवताओं की शक्ति धीरे धीरे घटती गई और असुरों की शक्ति बढ़ती गई ।
देवताओं की शक्ति क्षीण होने का समाचार जब असुरों को मिला तो वे बड़े प्रसन्न हुए । उचित अवसर जानकर उन्होंने तत्काल ही देवताओं पर आक्रमण कर दिया। अब इन्द्र बहुत घबराए। जब गुरु की कृपा नहीं रहती तो बड़ी हानि होने लगती है | इंद्र सोचने लगे कि अब क्या करें ? अपने गुरु का तो कोई अता पता नहीं, ऐसे समय किससे सहायता मिले ? असुरों के पास शुक्राचार्य के अतिरिक्त एक दूसरे गुरु भी हैं - विश्वरूप । देवराज इन्द्र को सहायता मांगने असुरों के इन्हीं दूसरे गुरु के पास जाना पड़ा ।
विश्वरूप, बारह आदित्य में एक, त्वष्टा के पुत्र परन्तु साथ ही दैत्यों की पुत्री रचना के गर्भ से उत्पन्न | इस प्रकार वे दैत्यों के नवासे हुए | इस कारण से वे दैत्यों से भी सम्बन्ध रखते थे | "विश्व यानि जगत, विश्वरूप यानि विष्णु भगवान"। विश्व के प्रत्येक पदार्थ में, कण कण में जो विष्णु के दर्शन करे,वही गुरु है, वही विश्वरुप है | "विश्वरूप" सभी जड़-चेतन में ईश्वर की झलक देखता है। उसके लिए कौन अपना है और कौन पराया, यह बात कोई मायने नहीं रखती । उनके लिए तो जैसे असुर, वैसे ही देवता । दोनों एक समान । गुरु वही, जो सभी शिष्यों के साथ एक समान व्यवहार करे । जैसा राजपुत्र के साथ व्यवहार, वैसा ही गरीब के पुत्र के साथ ।
विश्वरूप ने इंद्र को नारायण कवच दिया । नारायण कवच धारण करके इन्द्र ने युद्ध शुरु किया तब जाकर उनकी असुरों पर विजय हुई ।
विश्वरूप, जो असुरों के पक्ष के थे, वे यज्ञ में आहुति देते समय एक बार देवताओं को देते तो एक बार (छिप-छिपकर) असुरों को भी दे दिया करते थे । गुरु के लिए तो सभी शिष्य समान, क्या सुर, क्या असुर । देवता बड़े स्वार्थी होते हैं । अपना स्वार्थ पूरा हुआ नहीं कि सामने वाले में विकार नज़र आने लगते हैं । 'सब कुछ हमें ही चाहिए, दूसरे को कुछ भी नहीं मिले' ऐसी सोच का परिणाम कुछ भी निकल सकता है । आगे देखिए, देवताओं ने विश्वरूप के साथ क्या किया ?
जिन गुरु के कारण देवताओं का असुरों के विरुद्ध विजय अभियान सफल हुआ, उन्हीं गुरु पर अविश्वास कर बैठे । इन्द्र को जब मालूम पड़ा कि यज्ञ के बीच में गुरु विश्वरूप दृष्टि बचाकर एक आहुति असुरों की ओर से भी दे रहे हैं, तो उसने विश्वरूप का सिर काट डाला । अपने पुत्र के वध की बात सुनकर विश्वरूप के पिता त्वष्टा को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने इन्द्र को मारने के लिए एक बड़ा यज्ञ किया, लेकिन मंत्र बोलने में उनसे भी कुछ त्रुटि हो गई। क्रोध में भरकर किए जाने वाले कार्य में कुछ न कुछ त्रुटि हो ही जाती है । इसी त्रुटि के कारण उस यज्ञ से एक भयंकर प्राणी उत्पन्न हुआ, उस प्राणी का नाम था, वृत्रासुर । त्रास देने वाला असुर - वृत्रासुर | जल तक को सुखा देने वाला - वृत्रासुर ।
वृत्रासुर अर्थात् त्रासदायक । हमारी बहिर्मुख वृत्ति अर्थात् सांसारिक रुचि ही त्रासदायक है । हमारी बहिर्मुखी वृति हमें बड़ा कष्ट देती है | इस प्रकार की त्रासदायक बहिर्मुख वृत्ति ही वृत्रासुर है । वृत्ति अन्तर्मुख हो जाये, संसार से विरक्त होकर स्वयं के भीतर प्रवेश कर जाएँ तभी जीव का ईश्वर से मिलन होता है | बहिर्मुख वृति तो मनुष्य को उलझा देती है, जिसका परिणाम विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता । बहिर्मुख-वृत्ति को "ज्ञानरूपी वज्र" से काटना चाहिए | ज्ञान से असंगता आती है और असंगता से अहंता, ममता आदि जड़ों को काटा जा सकता है क्योंकि यही जड़ें हमें संसार रुपी वृक्ष से बांधती है | गीता के पुरुषोत्तम योग नामक अध्याय में भगवान कहते हैं - ‘असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा” |
वृत्रासुर इतना भयंकर था कि उसके कार्यों से सारे देवता लोग व्याकुल हो गए । वृत्रासुर का बल असीम था । उससे मुक्ति पाना देवताओं के वश की बात नहीं थी ।अब प्रश्न था कि इस वृत्रासुर को मारें तो कैसे मारें ? देवताओं के सामने फिर एक नई समस्या आ खड़ी हुई | पहले तो अपने गुरु बृहस्पति को अपमानित करके विमुख कर दिया और बाद में मिले दत्तक गुरु विश्वरूप का शीश काट डाला |
अब देवगण क्या करेंगे?
देवताओं ने अपने अहंकार से पहले तो गुरु बृहस्पति को क्षुब्ध कर दिया और फिर स्वार्थ भावना से दूसरे गुरु विश्वरूप का भी शीश काट डाला । अब वृत्रासुर से निपटने का कोई रास्ता उनकी दृष्टि में नहीं आ रहा था । जब कोई रास्ता दिखलाई नहीं पड़ता तब जाकर सब को भगवान् ही याद आते हैं |
ऐसे विपरीत समय में जैसे सबको भगवान याद आते हैं, उसी प्रकार इंद्र को भी याद आए | भगवान ने देवताओं को वृत्रासुर जैसे संकट से मुक्ति पाने का उन्हें एक उपाय बताया । वह उपाय है कि दधीचि ऋषि की हड्डियों से जो वज्र बनेगा, उसी से वृत्रासुर मारा जा सकता है, अन्य कोई रास्ता नहीं है | भगवान् ने कहा कि तुम लोग ऋषि दधीचि के पास जाओ और उनसे अपनी हड्डियां देने की प्रार्थना करो |
देवता सबसे अधिक स्वार्थी होते हैं, मनुष्य से भी कहीं अधिक | असुरों से मिली पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए कभी तो वे गुरुपुत्र कच्च को असुरों के गढ़ में भेजकर उसके जीवन को दांव पर लगा देते हैं और कभी उन्हें ऋषि दधीचि की हड्डियां चाहिए । इंद्र को अपना राज्य बचाना है, चाहे इसके लिए गुरुपुत्र का जीवन संकट में पड़े अथवा किसी ऋषि का । देवताओं ने सोचा ही नहीं कि दधीचि के बाद उनकी पत्नी और पुत्र का क्या होगा ?
भगवान के आदेशानुसार देवता लोग दधीचि ऋषि के पास गए। दधीचि ऋषि बड़े तपस्वी हैं । समस्त देवताओं को एकसाथ आया देखकर दधीचि ऋषि पूछते हैं, “आप का आना कैसे हुआ ?” देवता कहते हैं कि महाराज हमारे ऊपर संकट आया है। हमें कहते हुए भी संकोच होता भी है, लेकिन क्या करें ? कहना ही पड़ेगा, “हमें आपकी अस्थियाँ चाहिए ।”
देवता ऋषि दधीचि से कहते हैं -”आप तो ब्रह्मज्ञानी हैं, आपको ज्ञान हो गया है कि आप देह नहीं हैं - (‘नाहं देहो न मे देहो”) । आप देह नहीं है और न यह देह आपके लिए है, तो इस देह की अस्थियाँ किसी और को दे दें, तो क्या अन्तर पड़ता है ? हम लोग तो स्वार्थी हैं, हमको किसी का दुःख नहीं दिखाई देता परन्तु आप तो संत हैं न, आपको हमारा दुःख अवश्य दिखाई देगा।“
देखिए ! देवता कैसे हैं और क्या बोल रहे हैं?
“किं नु तद् दुस्त्यजं ब्रह्मन् पुंसां भूतानुकम्पिनाम् |
भविद्वधानां महतां पुण्यश्लोकेड्यकर्मणाम् ||” (भागवत-6 /10 /5)
ब्रह्मन् ! आप जैसे उदार और प्राणियों पर दया करने वाले महापुरुष, जिनके कर्मों की बड़े-बड़े यशस्वी महानुभाव भी प्रशंसा करते हैं, प्राणियों की भलाई के लिए कौन सी वस्तु न्योछावर नहीं कर सकते ।
“यह जगत बड़ा स्वार्थी है |” दधीचि ऋषि हँसते हुए कहते हैं, “तुम जो बात कहते हो, वह सही है,आखिर फिर जीने का लाभ क्या है?” ऋषि दधीचि की हंसी में भी रहस्य छिपा है । उनको अपनी देह को रखने की कोई कामना नहीं है, अगर होती तो उनको रोना आता । उनको हंसी आ रही है, देवताओं के स्वार्थीपन पर । वे जानते हैं कि इस मरणधर्मा देह को तो एक दिन जाना ही है फिर क्यों न इस देह का सदुपयोग हो ।
करबद्ध होकर इंद्र के नेतृत्व में खड़े देवताओं से ऋषि दधीचि कह रहे हैं -
“एतावानव्ययो धर्मः पुण्यश्लोकैरुपासितः |
यो भूतशोक हर्षाभ्यामात्मा शोचति हृष्यति ||” (भागवत -6 /10 /9)
बड़े-बड़े महात्माओं ने इस अविनाशी धर्म की उपासना की है | इसका स्वरुप बस इतना ही है कि मनुष्य किसी भी प्राणी के दुःख में दुःख का अनुभव करे और सुख में सुख का |
ऋषि दधीचि कहते हैं - “संसार में सबसे बड़ा धर्म यही है कि हमारा यह जीवन किसी के अथवा समष्टि के कोई काम आता हो तो पीछे नहीं हटना चाहिए। इसलिए मैं अपनी देह त्यागने के लिए तैयार हूँ।” दधीचि ऋषि का त्याग बड़ा प्रसिद्ध है, वे ब्रह्म समाधि में चले गए, देह त्याग हो गया । ऋषि पत्नी अपने एकमात्र पुत्र को पीपल के पेड़ में बने कोटर में भगवान भरोसे छोड़ अग्नि में प्रवेश कर गयी ।
ऋषि दधीचि की हड्डियों से "वज्र" बनाकर इन्द्रदेव वृत्रासुर के साथ युद्ध करने के लिए खड़े हो जाते हैं। वृत्रासुर बड़ा भयंकर युद्ध करता है,पर उसकी सेना भागने लगती है | जो भगवान् से विमुख है वे शीघ्र ही उत्साह रहित हो जाते हैं | असुरों के साथ भी ऐसा ही हुआ | वे युद्धभूमि छोड़कर भागने लगे | परंतु वृत्रासुर तो भगवान का परम भक्त है, वह अनासक्त भाव से युद्ध भूमि में डटा हुआ है । वृत्रासुर उनसे कहता है, तुम भागते कहाँ हो ? एक बार युद्ध में आए हो तो मर जाओ | वह कह रहा है - "जो पैदा हुआ है, निःसंदेह उसको एक न एक दिन मरना अवश्य है | ऐसे ही मरने से तो युद्ध में मरना श्रेयस्कर है |"
देवताओं के सामने जल्दी ही असुरों के पैर उखड़ने लगते हैं और वे युद्ध करना छोड़ भागने लगते हैं । तब वृत्रासुर अपने सैनिकों को कह रहा है -
द्वौ संमताविह मृत्यु दुरापौ
यद् ब्रह्मसंधारणया जितासुः |
कलेवरं योगरतो विजह्याद्
यदग्रणीर्वीरशयेSवृतः ||
(भागवत - 6 /10 /33)
संसार में दो प्रकार की मृत्यु दुर्लभ और श्रेष्ठ मानी गई है- एक तो योगी पुरुष का अपने प्राणों को वश में करके ब्रह्मचिन्तन के द्वारा शरीर का परित्याग (दधीचि) और दूसरा युद्धभूमि में सेना के आगे रहकर बिना पीठ दिखाए जूझ मरना |
वृत्रासुर बहुत ज्ञान की बात कह रहा है लेकिन सेना मानती नहीं है, वह देवताओं की सेना से डरकर भाग जाती है ।
इन्द्रदेव जब उसके साथ युद्ध करते हैं, तो एक बड़ी विचित्र बात देखने को मिलती है। वृत्रासुर के हृदय में भगवान के लिए जो भक्ति है, वह वहाँ पर प्रकट होने लगती है | वह कहता है, ”इन्द्र, तुम मुझे मार डालो,मेरा मन भगवान में लगा हुआ है, भगवान के लिए मेरा मन व्याकुल है।“
वृत्रासुर की भक्ति "पुष्टि-भक्ति" है अर्थात "अनुग्रह-वृत्ति" है | इन्द्र के हाथ में वज्र है,जिसमें नारायण है, किन्तु इन्द्र को दिखाई नहीं देते,पर वृत्रासुर को इंद्र के हाथ में विद्यमान वज्र में नारायण दिखाई देते हैं, क्योंकि वह "पुष्टि-भक्त" है। वह इन्द्र से कहता है - “इन्द्र, तुम मुझ पर वज्र का प्रहार करो। चाहे तुम्हारी जीत हो, किन्तु ईश्वर की मुझ पर विशेष कृपा है। तुम्हें स्वर्ग का राज्य मिलेगा पर मैं तो अपने ठाकुर जी के धाम में जाऊँगा, जहाँ से मेरा पतन कभी नहीं होगा | तुम्हें स्वर्ग में समस्त सुख मिलेंगे | तुम्हारा स्वर्ग से एक दिन पतन हो सकता है किन्तु मेरा नही | भले ही मुझे लौकिक सुख न मिले, किन्तु मै तो प्रभु के धाम में जाऊँगा, वहाँ आनंद ही आनंद है |”
सांसारिक सुख एक दिन दुःख में अवश्य ही परिवर्तित होगा, यह शाश्वत सत्य है । दुःख में सुख की कामना करना और सुख के समय उसका भोग करना - ये दोनों ही मनुष्य को आवागमन से मुक्त नहीं होने देते । इन्द्र को भले ही स्वर्गलोक का राज्य मिला हो और वह वहाँ सुख भोग रहा हो, एक न एक दिन इस इंद्र का राज्य कोई दूसरे इंद्र के पास चला जाएगा । परंतु भगवान के भक्त का परमधाम पहुँचने के बाद पतन नहीं होगा, यह निश्चित है । वृत्रासुर इंद्र का राज्य नहीं चाहता, वह तो अपने ठाकुरजी के धाम जाना चाहता है । इन्द्र को भले ही अपने राज्य की चिंता हो, वृत्रासुर उस राज्य की ओर देखना तक नहीं चाहता । जब परमधाम मिल रहा हो तो वह इंद्र का स्वर्ग क्यों चाहेगा ?
अपनी सम्भावित पराजय जान, युद्धभूमि में ही वृत्रासुर श्रीहरि की स्तुति करने लगा । इस स्तुति की भागवतजी ने खूब प्रशंसा की है--
अहं हरे तव पादैक मूल,
दासानुदासो, भवितास्मि भूय:|
मन: स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते,
गृणीत् वाक्कर्म करोतु काय ||
(भागवत-6 /11 /24)
हे श्री हरि ! मैं सदा आपके चरणारविंद का आश्रय करने वाले आपके दासों का भी दास बनूं। हे मेरे प्राणपति ! मेरा मन सदैव आपके ही गुणों का स्मरण करता रहे। मेरी वाणी आपके गुणों का गान करती रहे और मेरी देह आपकी सेवा का कार्य करता रहे ऐसी कृपा करें।
“अहं हरे तव, पादैक मूल”
प्रभो ! आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्य भाव से आपके चरण कमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का अवसर मुझे अगले जन्म में भी प्राप्त हो |
देखिए ! कितनी भावपूर्ण अश्रुपूरित नैत्रों से वृत्रासुर भगवान की स्तुति कर रहा है -
"दासानुदासो भवितास्मि भूयः"
मैं दासों का दास बन जाऊं अर्थात् "दासत्व की पराकाष्ठा", लेकिन बनाओ मुझे अपना ही दास |
“मनः स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते”
मैं मन से ही आपके गुणों का चिंतन करूं, वाणी से आपके गुणों को गाऊं |
”गृणीत् वाक्कर्म करोतु काय”
और शरीर से आपके लिए कर्म करूं।
इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि वृत्रासुर परमात्मा के शरणागत है |
आगे वृत्रासुर परमात्मा की स्तुति करते हुए कह रहा है-
न नाकपृष्ठं, न च पारमेष्ठ्यं,
न सार्वभौम, न रसाधिपत्यम् |
न योगसिद्धिर्पुनर्भवम् वा,
समंजसत्वा विरहय्य कांक्ष ||
(भागवत-6 /11 /25)
हे समग्र ऐश्वर्य के भंडार भगवान ! मैं आपको छोडकर स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक, चक्रवर्तीपद, रसातल का स्वामित्व, अणिमादि योगकी सिद्धियों या मोक्ष की भी इच्छा नहीं रखता | मैं तो केवल आपके शरण होने की ही कामना करता हूँ |
सांसारिक वस्तुओं की कामना रखना ईश्वर की चाहना रखने के सामने तुच्छ है । संसार के पदार्थ आपको तात्कालिक सुख दे सकते हैं परंतु भविष्य में ये सभी दु:ख देने वाले ही सिद्ध होते हैं । वृत्रासुर अपने पूर्व मनुष्य जीवन में यह सब देख चुका है । अब इस असुर जीवन में आकर वह अपना और पतन होने देना नहीं चाहता ।
इस श्लोक में वृत्रासुर का वैराग्य प्रकट हो रहा है |
असुर होते हुए भी वृत्रासुर की भक्ति इतनी उच्च कोटि की है कि उसकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती । वृत्रासुर भक्ति में आकण्ठ डूबा हुआ है और भरे गले से भगवान को पुकार रहा है, सहायता के लिए नहीं, बल्कि उनके प्रेम को पाने की व्याकुलता को व्यक्त करने के लिए ।
"अजातपक्षा इव मातरं खगाः
स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्।।"
( भागवत-6 /11 /26)
वृत्रासुर द्वारा इस प्रकार कहे गए अतुलनीय कथन पर जरा दृष्टि डालिए - (भागवत - 6/11/26) -
वृत्रासुर के मन में ऐसी भक्ति प्रकट हुई कि वह कहने लगा, "अरविन्दाक्ष अर्थात् हे कमलनयन भगवान ! मेरा यह मन आपको देखने के लिए अत्यंत व्याकुल हो रहा है।" वृत्रासुर का मन किस प्रकार व्याकुल हो रहा है -
"अजातपक्षा इव मातरं खगाः"
जैसे पक्षियों के छोटे-छोटे बच्चे जिनके अभी पंख भी न उगे हों, उनकी माँ कहीं गई हो, तब वे जिस प्रकार उसके वापस आने की प्रतीक्षा करते हुए छोटे से घोंसले में बैठे रहते हैं कि माँ आएगी, कुछ दाना देगी, उस प्रकार से।
"स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः"
देखो, गाय कहीं चरने के लिए चली गई हो, बछड़ा भूख से व्याकुल हो रहा हो, तब वह अपनी माँ की जितनी तीव्रता से प्रतीक्षा करता रहता है, वैसे ही मैं आपके लिए व्याकुल हो रहा हूँ । कभी जिसने गाय और बछड़े के मिलन को देखा हो वह इस बात को समझ सकता है। उस समय गाय को देखना चाहिए कि किस तरह से वह दौड़कर आती है, फिर बछड़ा भी किस प्रकार से दौड़कर उस से लिपट जाता है।
तनिक वृत्रासुर की व्याकुलता की गहराई तो देखिए, वह क्या कह रहे हैं ? -
"प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा"
या फिर जो अत्यन्त निष्ठावान्, अपने पति से अत्यंत प्रेम करने वाली स्त्री हो, उसका पति कहीं दूर चला गया हो, उसको विरह हो रहा है, तब वह जिस प्रकार से अपने पति के लौटने की प्रतीक्षा करती रहती है |
“मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्”
उसी प्रकार से, हे भगवन ! मेरा मन भी आप आपको देखने के लिए व्याकुल हो रहा है।
इस श्लोक में वृत्रासुर की परमात्मा से मिलन की व्याकुलता, उसकी तीव्रतम प्यास दृष्टिगोचर हो रही है |
वृत्रासुर परमात्मा की भक्ति में आकंठ डूबा हुआ कह रहा है -
ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं,
संसारचक्रे भ्रमत: सवकर्मभि: |
त्वन्माययाSSत्मात्मजदार गेहे-
ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात् ||
(भागवत-6 /11 /27)
हे नाथ ! मैं मुक्ति नहीं चाहता | अपने कर्मो के अनुसार इस संसार चक्र में भ्रमण करता हुआ मुझे उत्तम कीर्ति प्राप्त आपके भक्तों की ही मैत्री प्राप्त हो; परंतु जो आपकी माया के वश होकर देह, पुत्र, स्त्री और घर में ही आसक्ति रखते हो उनसे मेरा कदापि सम्बन्ध न हो, यदि मैं दु:संग से बचूँगा तो ही आपकी कृपा का अधिकारी बनूँगा ।
कुसंग संसार से मुक्ति में सबसे बड़ा बाधक है । सत्संग मुक्ति का द्वार खोलता है परंतु आजकल सत्संग में लोगों की रुचि नहीं है । संसार में आकर्षण अधिक है और इसी आकर्षण के कारण व्यक्ति कुसंग में पड़ता है । गोस्वामीजी कहते हैं - “गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ।” वायु का संग पाकर मिट्टी भी आकाश की ऊँचाइयाँ छू लेती है और वही मिट्टी जल का कुसंग कर कीचड़ में मिल जाती है ।
इस प्रकार वृत्रासुर द्वारा की गई इस स्तुति में - भागवत जी के छठे स्कंध के ग्यारहवें अध्याय के ये चार श्लोक महत्वपूर्ण हैं, जिनका यहाँ विवेचन किया गया है |
24 वें श्लोक में वृत्रासुर ने शरणागति की है।
25 वें श्लोक में उसका वैराग्य प्रकट होता है।
26 वें श्लोक में प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु ! आपके दर्शन के लिए मुझे आतुर बनायें।
अंतिम 27 वें श्लोक में वृत्रासुर ने सत्संग की अभिलाषा व्यक्त की है। पाप के कारण अगर कोई निम्न वर्ण/योनि में जन्म मिले तो भी उस जन्म में सत्संग मिले - ऐसा वर माँगा है।
अपने महान ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस के समापन दोहे में तुलसी बाबा कहते हैं-
कामिहि नारी प्रियारि जिमि,लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहुँ मोहि राम।।
किसी कामी पुरूष को जिस प्रकार नारी प्रिय है, ऐसे राम जी मुझे क्यों प्रिय हो ? गोस्वामीजी कह रहे हैं, क्योंकि कामी पुरुष को स्त्री से असीम प्रेम होता है | कामी पुरुष की कामना कभी शांत नहीं होती क्योंकि एक बार भोगने के बाद उसकी उसी भोग को बार-बार भोगने की इच्छा बढ़ती ही जाती है | इसलिए कामी पुरुष को नारी सदैव प्रिय ही लगती है | जब तक काम भोग से त्तृप्ति नहीं होगी तब तक उसे स्त्री प्रिय लगती रहेगी | आज तक काम भोग से कोई तृप्त हुआ ही नहीं है |
जितना अधिक स्त्री को भोगोगे, उतनी ही उस भोग के प्रति प्यास बढ़ती जाएगी । कामभोग की पूर्ति के लिए व्यक्ति कितना गिर सकता है, कल्पनातीत है । राजा ययाति को देखिए, उसने काम भोग से तृप्ति पाने के लिये अपने पुत्र पुरु से उसकी युवावस्था तक ले ली थी । फिर भी वह तृप्त नहीं हुआ । काम के बारे में ययाति ने क्या कहा ? आइए, उधर भी तनिक दृष्टि डाल लेते हैं ।
श्रीमद्भागवत महापुराण में ययाति प्रसंग आता है । जीवन भर काम से तृप्ति नहीं हो सकती, यही बात ययाति कह रहे हैं -
न जातु कामा: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।
(भागवत - 9/19/14)
भोग करने से कभी भी कामवासना शांत नहीं होती । जिस प्रकार हवनकुण्डमें जलती अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और अधिक प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही काम भी भोग मिलने से अधिकाधिक बढ़ती है । मनुष्य का शरीर तो वृद्ध होता है किंतु वासना, तृष्णा कभी वृद्ध नहीं होती ।
तभी कामी व्यक्ति को नारी प्रिय लगती है। जिस दिन स्त्री जितना व्यक्ति परमात्मा को चाहने लगेगा, उसके कल्याण में विलम्ब नहीं होगा ।
”लोभिही प्रिय जिमी दाम" तो लोभी को जैसे धन से प्रेम होता है | लोभी व्यक्ति के पास कितना ही धन इक्कठा हो जाये वह कभी संतुष्ट नहीं होता | जितना उसके पास धन आता है, उसका लोभ उतना ही बढ़ता जाता है | “केन किं वर्धते” अर्थात किससे क्या बढ़ता है ? वैसे इस प्रश्न के उत्तर कई हो सकते है परन्तु यहां सम्बंधित उत्तर है - "लाभेन लाभेन वर्धते लोभः" जितना लाभ बढ़ेगा जितना धन बढ़ेगा उतना ही लोभ भी बढ़ेगा। तो गोस्वामीजी यहां कह रहे हैं कि कामी को जैसे स्त्री प्रिय होती है, लोभी को जिस प्रकार धन प्रिय है। राघवेंद्र सरकार बस आप भी मुझे इसी प्रकार प्रिय लगो |
जब संसार से दृष्टि हटकर परमात्मा की ओर हो जाती है, तब पहले जितनी स्त्री प्रिय लग रही थी, उतने ही प्रिय परमात्मा लगने लग जाते हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो तुलसीदासजी जैसा संत भी नहीं होता । पत्नी के हृदयस्पर्शी वचन सुनकर उनकी दृष्टि यकायक स्त्री से घूमकर परमात्मा पर जाकर टिक गई । इसी प्रकार धन पर से दृष्टि हटते ही परमात्मा प्रिय लगने लगते हैं ।
देखिये ! श्रीमद्भागवत महापुराण में वृत्रासुर क्या कह रहा है ? “मैं कीट पतंगा बनूँ अथवा अन्य कुछ भी बनूं, पर मुझे सत्संग मिलता रहे, ऐसी मुझ पर कृपा करो”| यूं कहकर वृत्रासुर जोर जोर से रोने लगा। “इस भौतिक शरीर का क्या, इसको तो एक न एक दिन नष्ट होना ही है । यह जितना शीघ्र गिर जाए उतना ही ठीक है । इस असुर शरीर के रहते मुझे परमात्मा कैसे मिलेंगे ?” वृत्रासुर रणभूमि में अपना शरीर छोड़ना चाहता है क्योंकि उसके विचार से इंद्र पर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पाने की अपेक्षा भगवान् को प्राप्त करना श्रेष्ठ है |
वह इन्द्र से कहता है, ”इन्द्र यह तो भौतिक संसार है। इसमें लाभ-हानि, यश-अपयश, हार-जीत, जीना-मरना आदि सब चलता रहता है। तुम मुझे मार भी दोगे तो मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला क्योंकि मैं भगवान में पूर्ण रूप से रमा हूँ।“ जब एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा दिखाई नहीं दे रहा होता, तो इसे भक्ति की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा ।
वृत्रासुर की स्तुति क्या थी, उसके कहे प्रत्येक शब्द में परमात्मा के प्रति उसका अतिशय प्रेम झलक रहा था । अन्य किसी की स्तुति से उसकी इस स्तुति से तुलना नहीं की जा सकती । परमात्मा के लिए व्याकुल एक हृदय की पुकार । इतनी व्याकुलता भरी पुकार सुनकर भी क्या ठाकुर निश्चिंत बैठे रहेंगे ? नहीं, वे दौड़कर आएँगे और अपने भक्त से लिपट जाएंगे । जब वृत्रासुर जैसा असुर इतना व्याकुल हो सकता है, तो हम क्यों नहीं हो सकते । परंतु हमारे भीतर तो संसार के पदार्थों को प्राप्त करने की व्याकुलता है, परमात्मा को पाने की नहीं । जिस दिन हम भी वृत्रासुर जितने व्याकुल हो जाएंगे, परमात्मा आकर खोज लेंगे, हमें उनको ढूँढने जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । परमात्मा से मिलन की जिस छटपटाहट को वृत्रासुर व्यक्त कर रहा है, वह निःसंदेह अतुलनीय है । असुर मुख से परमात्मा की स्तुति में ऐसे शब्द भी निकल सकते है, सोचना भी कल्पना से परे हैं, परंतु वृत्रासुर ने ऐसा कर दिखाया ।
वृत्रासुर द्वारा की गयी इस स्तुति को सुनकर देवराज गदगद हो गए। बोले-
"अहो दानव सिद्धोसि यस्य ते मतिरीदृशी |
भक्तः सर्वात्मनाSSत्मानं सुहृदं जगदीश्वरम ।।"
(भागवत-6 /12 /19)
"अहो दानवराज ! सचमुच तुम सिद्ध पुरुष हो | तभी तो तुम्हारा धैर्य, निश्चय और भगवद्भाव इतना विलक्षण है | तुमने समस्त प्राणियों के सुहृद आत्मस्वरूप जगदीश्वर की अनन्यभाव से भक्ति की है |"
इन्द्र देव उसकी भक्ति देखकर आश्चर्यचकित होते हैं । वहां दोनों के मध्य बड़ा भारी युद्ध होता है। शरीर से युद्ध तो शरीर के रहते करना ही पड़ता है परंतु जब हृदय में परमात्मा हो और उसकी शरण में रहते सब कार्य कर रहे हों तो परिणाम भी परमात्मा की इच्छानुसार मिलता है । फिर शरणागत भक्त और परमात्मा की इच्छा के मध्य अंतर नहीं रह जाता ।
वृत्रासुर के हृदय में परमात्मा विराजमान है । उसको तो इन्द्र द्वारा हाथ में लिए वज्र में भी नारायण दिखलाई पड़ रहे हैं । इससे बढ़कर उसके जीवन में ऐसा क्षण कब आएगा जब शरीर छोड़ना उचित होगा अर्थात् उसके लिए शरीर त्यागने का यही उचित समय है ।
भगवान ने वृत्रासुर को पुष्टि भक्ति प्रदान की अर्थात उसके उपर महान कृपा की | इंद्र ने दधीचि ऋषि की अस्थियों से बने वज्र से वृत्रासुर का वध किया | इन्द्र को स्वर्ग का राज्य मिला | वृत्रासुर के शरीर से निकला हुआ तेज भगवत स्वरुप में लीन हो गया | इस प्रकार भगवान ने वृत्रासुर का उद्धार किया |
वृत्रासुर में इतनी भक्ति कहां से और कैसे आई ? वृत्रासुर पूर्व जन्म में कौन था ? उसके साथ ऐसा क्या घटित हुआ कि उसे असुर योनि में आना पड़ा ? सबसे महत्वपूर्ण बात, असुर होकर भी वह भगवान का भक्त कैसे बना ? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए हमें वृत्रासुर के पूर्वजन्म में जाना होगा । तो चलते हैं, शूरसेन नाम के राज्य में, जहां चित्रकेतु नाम का राजा शासन कर रहा है ।
अत्यंत राजसिक और तामसिक स्वभाव वाले वृत्रासुर के हृदय में ऐसी भक्ति कहां से आई? वृत्रासुर
पहले (पूर्व जन्म में) राजा चित्रकेतु था। शूरसेन नामक राज्य में शासन करते हुए उसका जीवन आनंदपूर्वक बीत रहा था | उसके जीवन में कमी थी तो केवल एक बात की, असंख्य रानियों के होते हुए भी अभी तक वह संतानहीन था | जैसा कि होता है, मनुष्य चाहे कितना ही अपने को कामना रहित होने का कहे, पुत्र की कामना उसके मन में सदैव रहती ही है | चित्रकेतु भी उनसे अलग नहीं था |
एक बार अंगिरा ऋषि भ्रमण करते करते शूरसेन राज्य में पहुँच गए | राजा चित्रकेतु ने उनका यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया | तदोपरांत राजा उनके चरणों में बैठ गए | स्वागत से अभिभूत ऋषि अंगिरा ने राजा से उसकी कुशलता पूछी | चित्रकेतु ने कहा - “आप तो युगदृष्टा हैं, प्रत्येक के मन की बात जानते हैं | मेरे जीवन में क्या कमी हैं, उसको भी आप भलीभांति जानते हैं |” ऋषि ने अंतर्दृष्टि से जान लिया कि चित्रकेतु के जीवन में संतान की कमी है | ऋषि ने राजा को बहुत समझाया कि पुत्र होने से उसमें आपका मोह हो जाएगा और यह मोह आपको सुख-दुःख के चक्रव्यूह में फंसा देगा, परंतु चित्रकेतु नहीं समझा।
अंततः चित्रकेतु की कामना पूरी करने के लिए ऋषि अंगिरा ने एक यज्ञ का आयोजन किया | यज्ञ सफलता पूर्वक संपन्न हुआ | यज्ञ का अवशेष प्रसाद चित्रकेतु की प्रिय रानी कृतद्युति को देते हुए चित्रकेतु से अंगिरा ऋषि ने कहा - “राजन ! होने वाला पुत्र आपको हर्ष और शोक दोनों ही देगा |” इतना कहकर अंगिरा ऋषि वहां से चले गए | परन्तु चित्रकेतु ने अंगिरा ऋषि की इस बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया | उसे तो भविष्य में पुत्र प्राप्त होने की ख़ुशी जो थी | मनुष्य की जब कोई कामना पूरी होने को होती है तब उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ कहीं खो जाती है | उसकी बुद्धि विवेक पर भारी पड़ती है और वह ख़ुशी में सब कुछ भूल जाता है | राजा चित्रकेतु के साथ भी यही हुआ | आसन्न दुःख की आहट को वे सुन नहीं सके |
समय आने पर रानी कृतद्युति ने एक सुन्दर से राजकुमार को जन्म दिया | राजा चित्रकेतु यह सुनकर बड़ा ही आनंदित हुआ | उसने दास-दसियों को बड़े उपहार दिए | पूरे राजमहल में कई दिनों तक उत्सव का वातावरण बना रहा | चित्रकेतु एक योग्य राजा था | वह अपनी प्रजा का पूरा ध्यान रखा करता था | राजा को पुत्र प्राप्ति की बात सुनकर प्रजा भी अपने राजा की ख़ुशी में पूर्ण रूप से सम्मिलित रही |
हंसी-ख़ुशी के वातावरण में समय को भी पंख लग जाते हैं | पता भी नहीं चलता कि आज, कल में कब परिवर्तित हो गया ? दिन महीनों में और महीने वर्षों में बदल जाते हैं | शूरसेन राज्य में भी राजकुमार को पैदा हुए चार वर्ष बीत गए | राजकुमार की बाल सुलभ क्रीड़ाओं को देखकर उसके माता-पिता बड़े प्रसन्न हो रहे थे | जीवन में सुख के बाद दुःख का आना अवश्यम्भावी है | हम जितना अधिक सुख का भोग करते हैं, उतनी ही तीव्रता का दुःख हमें झेलना पड़ता है । हम जीवन में आए सुख में इतने अधिक खो जाते हैं कि आने वाले दुःख की आहट तक नहीं सुन पाते | काल की गति को कोई नहीं जानता | समय सब के जीवन में बदलता ही है, यह शाश्वत सत्य है |
कृतद्युति और चित्रकेतु के जीवन में भी समय ने करवट ली | रानी कृतद्युति के पुत्र होने से वह चित्रकेतु की चहेती रानी बन गयी थी | शेष रानियों को इस बात का बड़ा बुरा लगता था | वे सोचती थी कि जब से रानी कृतद्युति मां बनी है, तब से हमारी उपेक्षा होना शुरू हो गया है | अब तो हमारे साथ दास-दासियों से भी बुरा व्यवहार किया जाता है | जब स्त्री की बुद्धि फिरती है, तब वह प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगती है | चित्रकेतु के यहां राजमहल में कोई एक स्त्री तो थी नहीं, हज़ारों स्त्रियां उसकी रानियां थी | प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही रानियों ने एक दिन एक मत होकर राजकुमार को जहर देकर सुला दिया | रानी कृतद्युति को इसका कुछ भी ज्ञान नहीं था | वह बीच बीच में आकर सोये हुए राजकुमार को देखकर पुनः अपने काम में लग जाती |
राजकुमार को लम्बे समय तक सोते देखकर रानी को संशय हुआ | उसने धाय को राजकुमार को देखने के लिए भेजा | धाय ने देखा कि राजकुमार की आंखों की पुतलियां तक स्थिर हो चुकी है | यह देखकर धाय के मुंह से चीख निकल गयी | सभी रानियां वहां दौड़ती हुई आई | चित्रकेतु भी देखने पहुंचा | पूरे राजमहल में राजकुमार की मृत्यु से कोहराम मच गया | दुःख के मारे कोई किसी को संभाल नहीं पा रहा था | रानी कृतद्युति और राजा चित्रकेतु का तो बड़ा बुरा हाल था | वे विलाप करते हुए बार बार राजकुमार के मृत शरीर से लिपट रहे थे | कृतद्युति राजकुमार से एक बार आंखें खोलने का कह रही थी | वे नहीं जानते कि राजकुमार अब कभी भी आंख नहीं खोलेगा ।
एक बार जब जीवात्मा शरीर का त्याग कर देती है, वह पुनः उस शरीर में लौट कर नहीं आती | उस जीवात्मा को अपने कर्मानुसार आगे की यात्रा पर निकलना ही पड़ता है |
इधर राजा चित्रकेतु के राजमहल में कोहराम मचा हुआ था और उधर अंगिरा ऋषि नारद मुनि के साथ वायुमार्ग से कहीं जा रहे थे | अंगिरा ऋषि समझ गए कि चित्रकेतु का पुत्र उनको शोक दे गया है |
राजमहल से उठ रही चीत्कार से ऋषि भी व्यथित हो गए । वे और नारदजी राजा-रानी को सांत्वना देने राजमहल में पहुंचे | राजा चित्रकेतु को वे विभिन्न प्रकार से समझा रहे हैं परन्तु पुत्र वियोग में दोनों ही समझ नहीं पा रहे हैं | चित्रकेतु और कृतद्युति शोक विह्वल हो रहे थे | वे बार-बार पुत्र के उठ-बैठने की कामना कर रहे थे | राजा-रानी पर ऋषि के समझाने का कोई प्रभाव नहीं दिखाई दे रहा था । तब अंगिरा ऋषि उनको उपदेश देना प्रारम्भ करते हैं -
कोSयं स्यात् तव राजेंद्र भवान् यमनुशोचति |
त्वं चास्य कतमः सृष्टौ पुरेदानीमतः परम् ||
(भागवत - 6 /15 /2)
राजेंद्र ! जिसके लिए तुम इतना शोक कर रहे हो, वह बालक इस जन्म, और पहले के जन्मों में तुम्हारा कौन था ? उसके तुम कौन थे ? और अगले जन्मों में भी उसके साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध रहेगा ?
ऋषि अंगिरा राजा चित्रकेतु को जीव के संसार में आवागमन को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं -
यथा प्रयान्ति संयान्ति स्त्रोतोवेगेन बालुकाः |
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिनः ||
(भागवत- 6/15/ 3)
जैसे जल के वेग से बालू के कण एक-दूसरे से जुड़ते-बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह में मनुष्यों का मिलन-बिछोह होता रहता है |
अंगिरा ऋषि और नारदजी राजा को विभिन्न प्रकार से समझा रहे थे | ऋषि अंगिरा बोले -”मैं तुम्हारे पास जब पहले आया था तब उपदेश देना चाहता था परन्तु तुम्हें उस समय समझ में नहीं आता क्योंकि तब तुम्हारे भीतर पुत्र की प्रबल कामना थी | तुम्हारी वह कामना पूरी हो चुकी है । तुम्हें अब समझ में आ जाना चाहिए कि कामनाओं के जाल में उलझकर ही मनुष्य सुखी-दुःखी होता रहता है । तुम बहुत ही समझदार और भगवद्भक्त हो | अब तुम्हें भगवान् की भक्ति में रत हो जाना चाहिए |”
राजा चित्रकेतु एकटक दोनों ऋषियों को देखते हुए उनका उपदेश सुन रहा था | उसे मोह से मुक्ति मिल गयी थी | दोनों के उपदेश से राजा चित्रकेतु को शरीर की नश्वरता का ज्ञान हो गया | वहां उपस्थित सभी जन दोनों ऋषियों की बातों से प्रभावित हो रहे थे | रानी कृतद्युति अभी भी समझ नहीं पा रही थी । ममत्व उसके विवेक पर भारी पड़ रहा था । मां की ममता, अपना हित नहीं सोच सकती । रानी बार-बार ऋषियों से एक बार राजकुमार की जीवात्मा से बात करा देने का आग्रह कर रही थी ।
तभी अंगिरा ऋषि ने सभी के सामने उस राजकुमार की जीवात्मा को वहां बुलाया | जीवात्मा को बुलाने का मंतव्य रानी कृतद्युति के बचे खुचे मोह को नष्ट करना था | मोह के नष्ट हुए बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती और बिना भक्ति के परमात्मा तक पहुंचना सरल नहीं है ।
इस प्रकार दोनों ऋषियों के आग्रह पर राजकुमार की जीवात्मा वहां आ गयी | जीवात्मा के आते ही अंगिरा ऋषि कहते हैं - “हे जीवात्मा ! तुम इस राजकुमार के शरीर में पुनः प्रवेश करो | देखो तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे बिना कितने व्याकुल हो रहे हैं ?” जीवात्मा ने कहा -”आप मेरे कौन से माता-पिता की बात कर रहे हैं | न जाने अब तक मेरे कितने ही जन्म हो चुके उन जन्मों में मेरे माता-पिता भी अनेकों हो चुके हैं | मैं कभी पशु बना, कभी पक्षी, कभी शिकार बना, कभी शिकारी, कभी नर बना, कभी नारी । इस प्रकार मैंने अनेकों शरीरों में अनेक जीवन देखे हैं । आप मेरे कौन से जीवन के माता-पिता की बात कर रहे हैं ? मैं अब अपने पूर्व जन्म के प्रारब्ध अनुसार आगे की यात्रा पर निकल चूका हूं | मैं पुनः इस शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता |” इतना कहकर जीवात्मा वहां से चली गयी |
इतना सुनकर राजा-रानी का बचा-खुचा मोह भी जाता रहा | उनका स्नेह-बंधन कट गया। पुत्र मोह से वे बाहर निकल आये थे । संसार की नश्वरता का उन्हें ज्ञान हो गया था । इस प्रकार अंगिरा और नारदजी के उपदेश से विवेक-बुद्धि जाग्रत हो जाने से राजा चित्रकेतु घर-गृहस्थी के अंधे कुएं से उसी प्रकार बाहर निकल पड़े जैसे फंसा हुआ कोई हाथी तालाब के कीचड से बाहर निकल आता है | राजा ने दोनों ऋषियों की चरण-वंदना की | नारदजी ने देखा कि चित्रकेतु भगवद्भक्त, जितेन्द्रिय और शरणागत है, तब उन्होंने राजा को उपदेश दिया | उपदेश अनुसार आचरण करने से चित्रकेतु को विद्याधरों का अखंड आधिपत्य प्राप्त हुआ |
इस प्रकार तप के द्वारा चित्रकेतु विद्याधर लोक को प्राप्त हुआ। शेष भगवान के द्वारा दिए गए विमान में बैठकर विचरण करता हुआ, एक दिन वह कैलाश पर्वत पर पहुँच गया। वहाँ उसने देखा कि पार्वतीजी शिवजी की गोद में बैठी हैं और अनेक ऋषि मुनि भी वहाँ पर बैठे हैं | दोनों को आलिंगन बद्ध देखकर चित्रकेतु अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रख सके ।
कैलाश पर्वत पर अनेकों ऋषि-मुनियों के सामने शंकर भगवान ने अपनी पत्नी पार्वती को गोद में बिठा रखा था । यह देखकर विद्याधर चित्रकेतु ने भगवान शंकर की हँसी उड़ाई और कहा कि “एक सामान्य व्यक्ति भी सबके सामने अपनी पत्नी को गोद में लेकर नहीं बैठता, लगता है इनको तो सामान्य धर्म का भी ज्ञान नहीं है। तत्त्वज्ञान की, धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और भरी सभा में पत्नी को गोद में बिठाते हैं”। सुनकर पार्वतीजी को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने कहा -
नायमर्हति वैकुण्ठपादमूलोपसर्पणम् |
सम्भावितमतिः स्तब्धः साधुभिः पर्युपासितम् || (भागवत-6/17/14)
इस चित्रकेतु को अपने बड़प्पन का घमंड है | यह मूर्ख भगवान् श्रीहरिः के उन चरण कमलों में रहने योग्य नहीं है, जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं |
पार्वतीजी इतना कह कर यहीं पर नहीं रुकी | क्रोध में चित्रकेतु को असुर हो जाने का शाप देते हुए वह कहती है -
अतः पापीयसीं योनिमासुरीं याहि दुरमते |
यथेह भूयो महतां न करता पुत्र किल्बिषम् ||
(भागवत - 6/17/15)
अतः दुर्मते ! तुम पापमय असुर योनि में जाओ | ऐसा होने से बेटा ! तुम फिर कभी किसी महापुरुष का अपराध नहीं कर सकोगे |
इतना सुनते ही चित्रकेतु का विवेक जाग्रत हो गया । शाप अंगीकार करते हुए चित्रकेतु ने कहा - "माताजी क्षमा करें, आपको मेरे इस कथन से दुःख हुआ | इस बात का मुझे बहुत दुःख है | मैं असुर बनने को तैयार हूँ। आपने शाप दिया तो वैसा ही होगा क्योंकि देवता लोग मिथ्या भाषण नहीं करते | वे जैसा कहें वैसा ही होना होता है |" ऐसा कहकर चित्रकेतु चला गया।
चित्रकेतु के वहां से चले जाने के पश्चात् शिवजी ने पार्वती जी की ओर देखते हुए कहा, ”देखा, भक्त कैसा होता है ? उसने क्षमा तो माँगी परन्तु यह नहीं कहा कि मुझे शाप से मुक्त कर दीजिए । क्षमा भी इसलिए मांगी कि उसकी बात से आपको दुःख हुआ, उसे इसी बात का दुःख है।“
भक्त परमात्मा की प्रत्येक इच्छा में अपना हित ही देखता है | वह कभी परमात्मा के निर्णय पर प्रश्न नहीं उठाता | भक्त परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देता है । मनुष्य ही एक मात्र ऐसा जीव है जो जीवन में आई विपरीत परिस्थितियों के लिए परमात्मा को दोष देने लगता है | भक्ति में भक्त स्वयं की इच्छा को परमात्मा की इच्छा में मिला देता है । यही एक भक्त की विशेषता है |
इस प्रकार मां पार्वती द्वारा दिए गए श्राप से चित्रकेतु असुर बन गया | असुर भी कैसा ? त्रासदायक - वृत्रासुर । त्रासदायक क्यों, इसलिए जिससे शीघ्र ही इस असुर शरीर से मुक्त हो सके । असुर बनकर भी उसकी पूर्व जन्म की भक्ति नष्ट नहीं हुई और वह प्रकट हो ही गई | चित्रकेतु जो विद्याधर बनकर आया था, उसने क्या कहा ? यही कि सामान्य पति भी पत्नी से एकान्त में मिलता है। सबके सामने थोड़े ही इस प्रकार पत्नी को लेकर बैठता है | सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में अनेक हैं, उसको सर्वत्र उस एक के होने का भान ही नहीं होता | ज्ञान की पराकाष्ठा में ही व्यक्ति सब जगह केवल उस एक की उपस्थिति अनुभव कर सकता है अन्यथा नहीं |
साधारण व्यक्ति अगर चित्रकेतु के स्थान पर होता तो वह भी यही कहता जो चित्रकेतु ने कहा था | चित्रकेतु ने भी कुछ अनुचित नहीं कहा था परन्तु एक भगवान् के भक्त द्वारा ऐसा कहा जाना अनुचित ही है | भक्त होते हुए भी विद्याधर चित्रकेतु को शंकर-पार्वती दो दिखलाई दे रहे थे । कम से कम भगवान् का भक्त तो जानता है कि इस संसार में कहीं दो है ही नहीं | एक परमात्मा ही विभिन्न रूपों में दिखलाई पड़ रहे हैं | सर्वत्र परमात्मा ही हैं, कोई अन्य है ही नहीं, फिर शिव-पार्वती दो कैसे हो सकते हैं ? यही बात गीता में ‘वासुदेव सर्वम्’ कहकर कही गई है |
वृत्रासुर -24
शिवजी कहते हैं - ”अरे भाई मेरे अलावा दुनिया में दूसरा है ही कौन ? जरा सोचो तो सही,तुम सोचते हो, यह समाज मुझसे अलग है, मेरे लिए तो यह सब मैं ही हूँ | तो ऐसे किसी से क्या छिपाना? मैं ही शिव और मैं ही पार्वती | वह सिर्फ पास में ही तो बैठी थी | हम दो दिख रहे हैं, परन्तु दो हैं नहीं | केवल दो तुम्हें ही दिख रहे हैं।”
मानस में गोस्वामीजी ने लिखा है -
"गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न |
बंदउँ सीता राम पद, जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ।।"
(मानस-बालकाण्ड-18)
जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान है परन्तु वे कहने में ही अलग-अलग है, वास्तव में वे अभिन्न हैं | उन सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दु:खी बहुत ही प्रिय हैं |
शंकर यही तो कह रहे हैं | जल और जल की लहर भिन्न नहीं है | वे कहते हैं - "पहली बात तो यह है कि मैं और पार्वती दो नहीं हैं, एक ही हैं और यह संसार भी मुझसे अलग नहीं है। ऐसे में इससे बढ़कर और कौन सा एकान्त हो सकता है ?" यह भीड़ है और यह एकान्त है, ऐसी भेद - दृष्टि हम सांसारिक लोगों की होती है, सिद्ध पुरुषों की नहीं |
भेद-दृष्टि के कारण वही चित्रकेतु वृत्रासुर बन गया | उसकी पूर्व भक्ति भी प्रकट हो गई और फिर वह मुक्त हो गया | पूर्व में की गयी भक्ति कभी नष्ट नहीं होती, समय पाकर प्रकट हो ही जाती है फिर चाहे शरीर मनुष्य का हो अथवा असुर का | भक्ति पर अधिकार सबको समान रूप से है |
और समापन करने से पूर्व-
“वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये |
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ||"
(महाकाव्य रघुवंश -1/1)
अर्थात वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत के माता-पिता, शिव-पार्वती की वाणी और अर्थ की प्राप्ति के लिए मैं वंदना करता हूँ ।
वृत्रासुर -25-समापन कड़ी
कथा-सार
हमारे अठारह पुराण हैं । सभी पुराण में ज्ञान के साथ-साथ इतिहास की कथाएं भी हैं । कथाओं को कहने के पीछे एक ही उद्देश्य रहा था कि जो ज्ञान को सीधे आत्मसात न कर सकें वे कथा के माध्यम से ज्ञान को ग्रहण कर लें । श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित वृत्रासुर की इस कथा का भी यही उद्देश्य रहा है ।
चित्रकेतु भला चंगा राजा बना बैठा शूरसेन राज्य का संचालन कर रहा था । वह परम भगवद्भक्त था । उसकी पुत्र की कामना ने ज्ञान देने के उद्देश्य से पधारे अंगिरा ऋषि को पुत्र का वरदान देने को विवश कर दिया था । अंगिरा ऋषि ने फिर भी उसको पुत्र मोह से दूर रहने का ज्ञान दिया था, यह कहकर कि राजन ! यह पुत्र आपको सुख और दुःख दोनों ही देगा । परन्तु चित्रकेतु कहाँ इस बात को समझ सका था । इसका परिणाम यह हुआ कि जब राजकुमार की असामयिक मृत्यु हो गयी तब राजा अत्यंत शोक में डूब गया । अंगिरस ऋषि और देवर्षि नारद जी ने आकर राजा को ज्ञान देकर शोकमुक्त किया । तत्पश्चात् तपस्या करते हुए चित्रकेतु ने विद्याधर का पद प्राप्त किया ।
साधना के परिणाम स्वरूप जब उन्नति होती है, तब साधक अहंकार ग्रस्त हो सकता है । इस बात को एक तपस्वी साधक को सदैव ध्यान में रखना चाहिए । तप के परिणाम में मिले विद्याधर के पद पर पहुँचकर चित्रकेतु भी यही भूल कर बैठा । इसी अहंकार के कारण उसने शंकर और पार्वती को साधारण मनुष्य समझ लिया । अहंकार के वशीभूत होकर उसने शंकर का अपमान कर दिया । शंकर तो इस अपमान को सहन कर गए परंतु उनकी भार्या सहन नहीं कर सकी । पार्वतीजी ने विद्याधर चित्रकेतु को असुर होने का श्राप दे डाला । श्राप को सुनते ही चित्रकेतु को ज्ञान का स्मरण हो आया । उसने असुर बनना स्वीकार कर लिया ।असुर होकर भी उसको पूर्वजन्म का ज्ञान रहा । उसने इस बार कोई गलती नहीं की और भगवान की स्तुति करते हुए शरीर त्यागकर भगवान को पा लिया ।
देवराज इंद्र को भी अपने पद का अभिमान हो गया था । उसने पहले तो मद के करण अपने गुरु बृहस्पति का अपमान किया और फिर दूसरे गुरु विश्वरूप का सिर काट डाला । विश्वरूप के पिता त्वष्टा ने अपने पुत्र की हत्या से क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए पुत्र की कामना से यज्ञ किया । क्रोध में किया गया कार्य उचित परिणाम नहीं देता । त्वष्टा के साथ भी यही हुआ । क्रोध के कारण यज्ञ में आहुति अनुचित लग गई । आहुति देनी थी -“इन्द्र को मारने वाला पुत्र” प्राप्त करने के लिए और आहुति लग गई - “इन्द्र से मरने वाले पुत्र” को प्राप्त करने की । जिसके परिणाम स्वरूप वृत्रासुर जैसा असुर उत्पन्न हुआ । अतः क्रोध के वशीभूत होकर कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि क्रोध से बुद्धि का नाश हो जाता है ।
समापन करने से पहले कथा से मिली एक अति महत्वपूर्ण सीख - “ मरणधर्मा यह शरीर नष्ट होने से पहले संसार के काम आ जाए, इसका इससे बढ़कर कोई दूसरा उपयोग नहीं हो सकता।” ऋषि दधीचि ने देवताओं को अपनी देह देकर इस बात को सिद्ध किया है।
।। हरिः शरणम्।।
प्रस्तुति डॉ. प्रकाश काछवाल
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