Sunday, July 31, 2022

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

 धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे 

         मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है | परमात्मा ने मनुष्य को दो प्रकार की दृष्टि दी है - बाह्य दृष्टि और आन्तरिक दृष्टि | बाह्य दृष्टि से वह संसार को देखता है और आन्तरिक दृष्टि से स्वयं का अवलोकन करता है | प्रायः मनुष्य बाह्य दृष्टि का ही सर्वाधिक उपयोग करते हैं | कोई कोई बिरला मनुष्य ही आन्तरिक दृष्टि का उपयोग कर पाता है | इन दोनों दृष्टियों से अलग एक तीसरी दृष्टि भी होती है – दिव्य दृष्टि | दिव्य दृष्टि किसी संत महात्मा की अनुकम्पा से ही प्राप्त होती है | इस दृष्टि को पाकर मनुष्य ब्रह्मांड में सब कुछ देख सकता है | कोई भी वस्तु, किसी प्रकार के शब्द उससे अपरिचित नहीं रह सकते | वह किसी दूरस्थ स्थान पर हो रही घटनाओं को भी देख और सुन सकता है |

            हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र के एक मंत्री थे – संजय | संजय महर्षि वेदव्यासजी के शिष्य थे | वैसे संजय विद्वान गावाल्गण नामक सूत के पुत्र थे और जाति से बुनकर | धृतराष्ट्र के मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण स्थान रखने के कारण एक बार राजा ने महाभारत युद्ध से ठीक पहले पांडवों के पास उन्हें वार्तालाप के लिए भी भेजा था | एक-एक कर युद्ध को रोकने के जब सभी प्रयास विफल होते गए और युद्ध होना अवश्यम्भावी हो गया था, तभी एक दिन महर्षि वेदव्यास का हस्तिनापुर आगमन हुआ | राजा धृतराष्ट्र को उन्होंने बहुत प्रकार से समझाया कि युद्ध होना किसी के भी हित में नहीं है | परन्तु राजा ने उनके समक्ष दुर्योधन को युद्ध से रोक पाने में अपनी विवशता प्रकट कर दी |

           पुत्र मोह में अंधे राजा को युद्ध का परिणाम जानने की बहुत उत्सुकता थी | दुर्योधन के क्रियाकलापों को देखते हुए वे जानते थे कि युद्ध का परिणाम क्या होगा ? परन्तु हृदय के किसी कोने में एक आशा की किरण भी होती है, जो व्यक्ति को जीवन भर आशान्वित बनाये रखती है कि परिणाम उसके मनोनुकूल ही होगा | महर्षि वेदव्यासजी उन्हें राजमहल में बैठे-बैठे ही युद्ध देखने के लिए दिव्यदृष्टि प्रदान करना चाहते थे परन्तु धृतराष्ट्र ने यह कहकर मना कर दिया कि जीवन भर वे अंधे ही बने रहे तो अब ज्योति मिल भी जाए तो क्या लाभ ? क्योंकि युद्ध की विभीषिका को देखने में वे अपने आपको असमर्थ समझ रहे थे | धृतराष्ट्र की युद्ध के प्रति उत्सुकता को देखते हुए अंततः व्यासजी महाराज ने अपने शिष्य संजय को वह दिव्यदृष्टि दे दी, जिससे वह राजा धृतराष्ट्र को युद्ध का सत्य और तत्काल विवरण दे सके |

       दिव्यदृष्टि से दूर बैठकर भी युद्धभूमि का हाल जानना और स्वयं युद्धभूमि में उपस्थित रहकर युद्ध को देखना, दोनों में बड़ा अंतर होता है | वह वैसे ही है जैसे दूरदर्शन के सामने बैठकर खेल का सीधा प्रसारण देखने के स्थान पर खेल मैदान में उपस्थित रहकर खेल देखना | संजय युद्धभूमि में उपस्थित रहकर युद्ध को प्रत्यक्ष रूप से देखना चाहता था | इसलिए वह युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही कुरुक्षेत्र चला गया | युद्ध का क्या परिणाम होगा ? युद्ध के 9 वें दिन तक यह संजय को स्पष्ट नहीं हो सका था | 10 वें दिन जब महाप्रतापी भीष्म शरशायी हो गए, तब संजय को युद्ध का परिणाम स्पष्ट रूप से दिखने लगा था | वह जान चूका था कि जिनके साथ स्वयं परमात्मा श्री कृष्ण है, उनकी विजय होना निश्चित है | यह जानकर वह तत्काल ही हस्तिनापुर लौट आया |  

       संजय जब हस्तिनापुर लौटा तो राजा धृतराष्ट्र मानो उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे | संजय के व्यवहार को लेकर धृतराष्ट्र कई बार उससे पहले भी क्षुब्ध हो चुके थे, फिर आज तो उनके पास क्षुब्ध हो जाने का पर्याप्त कारण भी था | जो व्यक्ति धर्म के मार्ग का अनुसरण करता हो और भगवान् के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित हो वह सत्य से कभी भी विमुख नहीं हो सकता | संजय भी सदैव सत्य के मार्ग पर चलता था इसलिए कई बार राजा धृतराष्ट्र, उसकी सत्य बात सुनकर उससे नाराज हो जाते थे | धृतराष्ट्र जानते थे कि संजय सही कह रहा है परंतु मोह में अंधे व्यक्ति को सत्य सुनना भी अच्छा नहीं लगता | मोहित व्यक्ति को केवल वही बात सुनने में अच्छी लगती है, जो उसके मोह को तुष्टि और पुष्टि प्रदान करने वाली हो | राजा धृतराष्ट्र ऐसे ही व्यक्ति थे परन्तु साथ ही उनकी संजय को सुनने की विवशता भी थी |

            एक राजा अपने मंत्री के समक्ष विवश कैसे हो सकता है ? पुत्रमोह ने राजा को विवश कर दिया था क्योंकि वे युद्धभूमि का सही सही हाल जानना चाहते थे | संजय ही इस सम्बन्ध में एक मात्र व्यक्ति था जो उनकी यह इच्छा पूरी कर सकता था | एक तो संजय सत्यभाषी थे और दूसरी बात, दिव्यदृष्टि केवल उसके पास ही थी ।

         युद्ध को प्रारम्भ हुए भले ही दस दिन बीत गए हों परन्तु धृतराष्ट्र तो युद्ध का हाल पहले दिन से ही अर्थात युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व का भी हाल जानना चाहते थे | चूंकि संजय ने दस दिन तक का युद्ध अपनी भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्ष होकर देखा था इसलिए प्रारम्भ से ही युद्ध का वर्णन करने में उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होनी थी | पास में दिव्यदृष्टि होने से वह युद्ध के शेष आठ दिनों का हाल भी बता देगा |

      श्री मद्भगवद्गीता का प्रारम्भ ही धृतराष्ट्र के एक प्रश्न से ही होता है | धृतराष्ट्र जन्मांध तो थे ही, साथ में पुत्रमोह ने उनकी आन्तरिक दृष्टि भी छीन ली थी | इस प्रकार हस्तिनापुर नरेश के पास न तो बाह्य दृष्टि थी और न ही आंतरिक दृष्टि | इसलिए अब उनका एक मात्र सहारा केवल संजय ही था क्योंकि संजय के पास स्वयं की बाह्य और आन्तरिक दृष्टियाँ तो थी ही, साथ में अपने गुरु द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि भी थी |

         गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र के एक प्रश्न से होता है, जो वे संजय से कर रहे हैं –

      धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |

      मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ||गीता-1/1|| 

        युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले अर्जुन के मन में अपने कुटुम्बियों के प्रति जो मोह पैदा हो गया था, उसके बारे में सुनकर राजा धृतराष्ट्र बड़े प्रसन्न हुए | उन्होंने संजय को पूछा कि क्या अर्जुन ने युद्ध करने से स्पष्ट मना कर दिया है ? संजय ने कहा –“महाराज ! थोडा धैर्य रखिये, अभी युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ है | अभी तो में आपको युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य होने जा रहा वार्तालाप सुना रहा हूँ | इस वार्तालाप को सुनकर आप समझ जायेंगे कि युद्ध होगा अथवा नहीं | साथ ही यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि युद्ध का परिणाम क्या होगा ?” परन्तु धृतराष्ट्र के पास इतना धैर्य था ही कहाँ ? वे तो चाहते थे कि अर्जुन मोहवश अपने हथियार डाल दे, जिससे उनके पुत्र का विजयी होना सुनिश्चित हो जाये |

         ”मेरे और पांडु पुत्रों ने युद्धभूमि में क्या किया?” ऐसा प्रश्न करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि राजा के मन में ‘मेरे-तेरे’ की भावना कितनी प्रबल है । मेरे तेरे की इस  भावना के कारण वह मन ही मन केवल अपने पुत्र को ही विजयी होता देखना चाहता है |

           सम्पूर्ण गीता संजय और धृतराष्ट्र के मध्य हुए वार्तालाप में ही सिमटी हुयी है | गीता के बारे में स्वामीजी द्वारा कहा गया है कि वेदों का सार उपनिषद् है और उपनिषदों का सार गीता है | इतना महान ग्रन्थ है गीता और यह सम्पूर्ण ग्रन्थ केवल राजा धृतराष्ट्र के द्वारा संजय से किये गए एक प्रश्न पर आधारित है | संजय के द्वारा अपने राजा के प्रश्न का उत्तर देने के अंतर्गत ही श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद आ जाता है जो कि गीताजी के प्राण है | गीता का प्रारम्भ ही धर्म शब्द से होता है | 

      धृतराष्ट्र द्वारा धर्म शब्द का उपयोग करने के बाद, अर्जुन ने भी भगवान् श्री कृष्ण से धर्म के विषय में ही प्रश्न पूछा था कि मैं धर्म को लेकर संशयग्रस्त हूँ |  उसके बाद सारी गीता ज्ञान, कर्म और भक्ति पर विवेचन करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ पर अर्थात धर्म शब्द पर ही आकर समाप्त हो जाती है |

        महाभारत कुरुक्षेत्र की भूमि पर ही होना क्यों निश्चित हुआ ? कुरुवंश के दो परिवार अपने-अपने अधिकार के लिए आज इस स्थान पर एकत्रित हुए हैं | महाराज कुरु ने कभी इस भूमि पर हल चलाते हुए अपने कर्म को सर्वोच्च वरीयता दी थी | कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र में प्राण त्यागने वाला स्वर्ग की गति प्राप्त करता है | महाभारत में असंख्य प्राणियों के प्राण जाने वाले थे, यह निश्चित था | उनकी मरणोपरांत होने वाली गति को ध्यान में रखते हुए कुरुक्षेत्र की भूमि का चयन युद्ध के लिए किया गया था |

              कुरु शब्द का एक अर्थ करना भी होता है | करने का अर्थ है, कर्म करना। कर्म करने से सम्बधित होने के कारण इस भूमि को कुरुक्षेत्र कहा जाता है | दो पक्षों की आपसी अनबन से उनके मध्य होने वाली संघर्ष की स्थिति को युद्ध कहा जाता है | युद्ध में दोनों में से कोई एक पक्ष धर्म के विपरीत अवश्य ही होता है | अगर दोनों ही पक्ष धर्मानुकूल हो तो फिर युद्ध होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता | इसलिए कहा जाता है कि धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए युद्ध होता है | इससे स्पष्ट है कि धर्म का पक्ष ही प्रत्येक युद्ध में विजयी होता है और भविष्य में भी होता रहेगा | अतः धर्मक्षेत्र का अर्थ हुआ धर्म का क्षेत्र और कुरुक्षेत्र का अर्थ हुआ कर्म का क्षेत्र |इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रत्येक युद्ध में धर्म की विजय होना निश्चित है और धर्म की स्थापना के लिए कर्म (युद्ध) करने आवश्यक है |

           हमारी दृष्टि में ‘धर्म क्या है ?’ सर्वप्रथम यह स्पष्ट होना आवश्यक है | धर्म को जब तक हम नहीं जान पाएंगे तब तक कर्म की बात नहीं समझ सकते | धर्म और कर्म, ये दो शब्द ऐसे हैं जो एक दूसरे से गहरे सम्बंधित है | हमारे ऋषि-मुनियों ने कर्म करने और उसके मिलने वाले परिणाम पर बहुत शोध किए हैं | कौन से कर्म व्यक्ति को पतन की ओर ले जाते हैं और किस प्रकार के कर्म उसे उत्थान की ओर उन्मुख कर देते हैं ? उन पर उन्होंने बहुत माथापच्ची की है | जो कर्म व्यक्ति को परमात्मा की ओर ले जाए, वे सभी कर्म, धर्म के अंतर्गत आ जाते हैं | जो कर्म पतन की ओर ले जाते हैं, वे सब धर्मविरुद्ध माने जाते हैं और अधर्म कहलाते हैं |

          इस प्रकार कहा जा सकता है कि कर्म से ही धर्म का निर्धारण होता है | एक बार धर्म का निर्धारण कर दिया गया है तो फिर धर्म के अनुसार जो कर्म किये जाते हैं वे ही कर्म मनुष्य के लिए कर्तव्य कर्म बन जाते हैं | हमारे पूर्वजों ने इस शोध में स्पष्ट करते हुए प्रत्येक व्यक्ति का एक धर्म निश्चित कर दिया है | उस धर्म का आचरण करते हुए ही मनुष्य अपने जीवन में प्रगति करता रहता है | धर्म के विरुद्ध चलने वाले का पतन होना अवश्यम्भावी है |

          गीता में धर्म शब्द से आशय कर्तव्य कर्म से ही है | अर्जुन एक क्षत्रिय वंश में पैदा हुआ था | उसका धर्म अर्थात कर्तव्य-कर्म था युद्ध करना | परन्तु वह अपने परिवारजनों को युद्धभूमि में देखकर मोहग्रस्त हो गया था और युद्ध से पलायन करने की सोचने लगा था | यह तो उनके साथ भगवान् श्री कृष्ण थे, नहीं तो अर्जुन युद्धभूमि छोड़ कभी का भाग खड़ा होता | श्री कृष्ण ने उसे उसका धर्म स्मरण कराया | जब अर्जुन को अपने कर्तव्य का बोध हुआ तब वह समझ गया कि कर्तव्य कर्म से विमुख होना ही अधर्म है | गीता को इसीलिए कर्मयोग का ग्रन्थ कहा जाता है क्योंकि यह स्पष्ट करती है कि कर्तव्य-कर्म करना ही वास्तव में धर्म का पालन है |

      धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ है, धारण करना | शास्त्रों में भी कहा गया है –‘धार्यते इति धर्मः” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है | सनातन धर्म के अनुसार लोक परलोक के सुखों की सिद्धि हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और धर्मों का धारण व सेवन करना ही धर्म है |

         धर्म के स्वरुप के बारे में मनु अपने ग्रन्थ मनुस्मृति में कह रहे हैं कि –

  कर्मणां च विवेकार्थं धर्माधर्मौ व्यवेचयत् |

  द्वन्दैरयोजयच्चेमाः सुखदुःखादिभिः प्रजाः || मनुस्मृति-1/28||

                 अर्थात अनादि परमेश्वर ने कर्मों के विवेक (करणीय-अकरणीय कर्मों में विचार करने तथा करणीय कर्मों में प्रवृति और अकरणीय कर्मों से निवृति) के लिए एक ओर धर्म-अधर्म का स्वरुप निश्चित किया और दूसरी ओर अपने द्वारा सृष्ट प्रजा को यह जतलाया कि धर्म से सुख की और अधर्म से दुःख की प्राप्ति होती है | इस प्रकार परब्रह्म परमेश्वर ने प्रजा को सुख-दुःख आदि (हानि-लाभ, यश-अपयश, जीवन-मरण तथा मान-अपमान) द्वंद्वों से युक्त कर दिया |

           धर्म का स्वरुप कर्मों से निर्धारित होता है | जिस कर्म को करने से जो भी परिणाम निकल कर सामने आता है, वह अगर सुखदाई है तो वे सभी कर्म, धर्म के अंतर्गत आ जाते हैं और अगर उन कर्मों के परिणाम में दुःख मिलता है, तो वे सभी कर्म अधर्म कहलाते हैं | इससे निश्चित होता है कि धर्म का मूल कर्म है | आदिकाल से हमारे ऋषि-मुनियों को कर्म करने से जैसा अनुभव हुआ उसी अनुसार उन्होंने धर्म का निर्धारण कर दिया | धर्म के निर्धारण के बाद एक साधारण मनुष्य को केवल सुख प्रदान करने वाले कर्म करने में सुविधा हो गयी | जो धर्म के आधार पर कर्म नहीं करता और अधर्म के मार्ग पर चलते हुए कर्म करता है, वह दुःख को प्राप्त होता है |

       हमारे ऋषि-मुनि जीवन भर केवल क्रियात्मक पूजा-पाठ में ही नहीं लगे रहे थे | उन्होंने विज्ञान के उच्चतम स्तर तक पहुँचने का सतत प्रयास किया और सभ्यता को सर्वोच्च स्तर तक ले जाने में सफलता प्राप्त की | आज मानव सभ्यता जिस स्तर पर है, उसमें हमारे इन पूर्वजों का महत्वपूर्ण योगदान है | आज मानव सभ्यता का जो पतन होता हम देख रहे हैं, उसका एक मात्र कारण मनुष्य का धर्म को छोड़कर अधर्म के मार्ग पर चल पड़ना है |

           मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं –       

धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः |

 धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ||

       अर्थात धैर्य, क्षमा, दम (अपनी वासनाओं पर नियंत्रण रखना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (आतंरिक व बाह्य शुद्धि), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धिमता का प्रयोग), विद्या (ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन करना) और क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं | धर्म के ये दस लक्षण स्पष्ट करते हैं कि स्वयं पर नियंत्रण रख कर जो भी कर्म किये जायेंगे, वे सभी कर्म धर्म के अंतर्गत आ जायेंगे | इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने कर्मों के आधार पर धर्म का निर्धारण किया, जिससे फिर धर्म के आधार पर कर्म निश्चित हो गए |

           जितने भी कर्तव्य कर्म हैं, वे सभी कर्म धर्म के अनार्गत आ जाते हैं | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि व्यक्ति द्वारा अपने जीवन में कर्तव्य कमों का निर्वहन करना ही उसका धर्म है | हमारी जीवन पद्धति धर्म के लक्षणों पर आधारित हो और हमारे जीवन में कर्म धर्म के अनुसार हों | इस प्रकार अपने कर्तव्य को निभाने के लिए कर्म करना ही धर्माचरण है |  

            शास्त्रों में धर्म के चार चरण बतलाये गए हैं जिनका अनुसरण करके ही मनुष्य को जीवन में सुख प्राप्त होता है | ये चार चरण हैं- तप, ज्ञान, यज्ञ और दान | कहा जाता है कि चार युगों के अंतर्गत प्रथम सतयुग में धर्म अपने चारों चरणों – तप, ज्ञान, यज्ञ और दान – से युक्त सदैव सत्य रूप में रहता है | इसका कारण यह है कि इस युग में लोगों को अधर्म द्वारा धन की प्राप्ति नहीं होती | मनुष्य न्यायपूर्वक अर्जित धन का ही उपभोग करते हैं | अतः उनके दुराचरण में प्रवृत होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता |

      अन्य तीन – त्रेता, द्वापर और कलि-युगों में मनुष्यों के द्वारा क्रमशः चोरी, झूठ और माया को अपनाने के कारण वेद-प्रतिपादित धर्म एक-एक चरण से रहित होता जाता है | त्रेता युग में मनुष्य चौर्यकर्म में प्रवृत हो जाता है, तब धर्म का एक चरण ‘तप’ नष्ट हो जाता है और धर्म ‘त्रिपाद’ रह जाता है | द्वापर युग में मनुष्य चोरी के साथ-साथ झूठ अर्थात असत्य भाषण को भी अपना लेता है, इस कारण से धर्म का दूसरा चरण ‘ज्ञान’ भी चला जाता है और धर्म ‘द्विपाद’ रह जाता है | कलियुग में मनुष्य चोरी और असत्य के साथ-साथ माया (छल-कपट) को भी अपना लेता है, जिससे धर्म का तीसरा चरण ‘यज्ञ’ भी चला जाता है और धर्म ‘एकपाद’ रह जाता है |  

           धर्म के इन चार चरणों में से प्रत्येक युग में एक चरण प्रधान होता है | सतयुग के प्राणियों का मुख्य धर्म ‘तप’ है, त्रेता युग का प्रधान धर्म ‘ज्ञान’ है, द्वापर में ‘यज्ञ’ ही मुख्य धर्म है और कलियुग का प्रधान धर्म ‘दान’ है | अभी कलियुग चल रहा है | इस युग में दान देते हुए धर्म का पालन करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है | आज चोरी, झूठ और छल-कपट में प्रायः सभी लोग लगे हुए हैं | आधुनिक युग में मनुष्य ने जीवन का एक ही उद्देश्य बना रखा है कि जैसे- तैसे, कैसे भी हो, अधिक से अधिक धन अर्जित कर लें | इसके लिए उसने चोरी, झूठ और छल-कपट का मार्ग अपना लिया है, जोकि अधर्म की श्रेणी में आते हैं | इसीलिए आज के युग में तप और यज्ञ मात्र क्रियात्मक बनकर रह गए है | ज्ञान से तो हमने बहुत पहले से ही कोसों दूरी बना रखी है ।

          जिस प्रकार प्रत्येक युग के अनुसार धर्म का निर्धारण किया गया है उसी प्रकार चारों वर्णों के भी धर्म, कर्मों के आधार पर निर्धारित किये गए हैं | भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि मैंने ही चारों वर्णों की सृष्टि गुण और कर्मों के अनुसार की है | जिन गुण और कर्मों के अनुसार भगवान् ने वर्ण बनाये हैं, वे ही कर्म उस वर्ण के धर्म कहलाते हैं |

            एक ब्राह्मण का धर्म है - वेदों का पठन-पाठन, यज्ञों का करना-कराना तथा दान लेना और देना आदि | ये सभी ब्राह्मण के कर्तव्य-कर्म हैं, जिनका पालन करना ही उसका धर्म है | इसी प्रकार एक क्षत्रिय का धर्म है - प्रजा की रक्षा करना, ब्राह्मणों और दीन-दुखियों को दान देना, यज्ञानुष्ठान में प्रवृत होना, सद्ग्रंथों का अध्ययन करना तथा विषय-भोगों में आसक्त न होना | एक वैश्य का धर्म है – पशुपालन, कृषि व्यापार, साहूकारी करना और इसके अतिरिक्त दान देना, यज्ञ करना तथा स्वाध्याय – वैश्य के लिए निर्धारित कर्तव्य-कर्म हैं | एक शूद्र का धर्म है - निर्द्वंद्व तथा निर्विकार भाव से तीनों वर्णों की सेवा करना |

             आज के युग में कोई सा भी वर्ण अपने धर्म के अनुसार कर्म करता दिखलाई नहीं पड़ रहा है | यही कारण है कि सनातन धर्म अपने पतन की ओर धीरे-धीरे अग्रसर होता जा रहा है | सनातन धर्म का अर्थ सनातन सत्य से न लें | सनातन सत्य पर ही धर्म आधारित है और जब सत्य का पालन नहीं होगा तो फिर सनातन धर्म कहाँ से बचेगा ? आज जो सनातन धर्मियों की दुर्दशा होती दिखलाई पड़ रही है, उसका एक मात्र कारण अपने धर्म से विमुख हो जाना है | शास्त्रों में कहा गया है ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अर्थात धर्म की रक्षा करने पर रक्षा करने वाले की धर्म रक्षा करता है | दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि रक्षित धर्म ही रक्षक की रक्षा करता है | अतः आज की विपरीत परिस्थतियों से बाहर निकलना है तो हम सभी को अपने अपने धर्म के अनुसार चलना होगा |

           धर्म और अधर्म का विभाजन एक सूक्ष्म रेखा द्वारा होता है | इस कारण से कई बार एक संशय की सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि धर्म का निर्णय किस आधार पर हो अर्थात किसी भी प्रकार की संशय की स्थिति पैदा होने पर अपने धर्म को कैसे पहिचाने ? महर्षि मनु ने धर्म के निर्णय के बारे में कहा है -   

   वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीत्ने च तद्विदाम् |

     आचारश्चैव साधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च ||मनुस्मृति-2/6||

             वेद ही सम्पूर्ण धर्मों का मूल आधार है अर्थात धर्म का पूर्ण प्रतिपादन वेदों में हुआ है और उसकी प्रतीति भी वेद से ही होती है, फिर भी धर्म के तत्व को जानने वाले शास्त्रों, चरित्र की उत्कृष्टता, साधू पुरुषों का आचरण तथा आत्मा की संतुष्टि को भी धर्मतत्व का आधार मानते हैं |

      कहने का अर्थ है कि सर्वप्रथम धर्म-अधर्म का निर्णय वेदों के आधार पर करना चाहिए | वेदों से इसकी प्रतीति नहीं होती हो तो फिर शास्त्रों को प्रामाणिक मानना चाहिए | फिर भी यदि किसी तत्व का निर्णय शास्त्र से नहीं हो पाता तो अतीत के महापुरुषों के चरित्र का अध्ययन करना चाहिए | यदि वहां से भी सफलता नहीं मिलती तो साधू पुरुषों के आचरण को देखकर निर्णय करना चाहिए | यदि फिर भी धर्म की स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती है तो अपनी आत्मा को साक्षी मानकर सत्य का निश्चय कर लेना चाहिए |

       पुरुष के लिए अभीष्ट चार पदार्थ (पुरुषार्थ) – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, में से प्रायः पुरुष धर्म और मोक्ष की उपेक्षा करते हैं और अर्थ-लाभ और काम-भोग में आसक्त हो जाते है | अर्थ और काम में आसक्त प्राणियों के लिए ही धर्मोपदेश का विधान किया गया है | धर्म के तत्व को जानने के इच्छुक लोगों के लिए तो वेद ही अंतिम प्रमाण है |

           गीता में भी स्वधर्म के पालन करने को कहा गया है | भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को युद्धभूमि में उपदेश करते हुए कहते हैं –

            श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |

           स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||18/47||

       अर्थात अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे धर्म से गुणरहित होते हुए भी अपना धर्म श्रेष्ठ है; क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करते हुए मनुष्य पाप (अधर्म) को प्राप्त नहीं होता |

           दोष युक्त होते हुए भी सहज कर्म का कभी त्याग नहीं करना चाहिए | सहज कर्म जन्म के साथ ही मनुष्य के स्वभाव में आते है और उसी अनुसार उसको कर्म करने चाहिए | स्वभाव पूर्वजन्म के संचित कर्म से बनता है, जो जीवन में कर्मों के प्रारभ का कारण बनते हैं | इसलिए इनको सहज कर्म कहा जाता है | सहज कर्म को किये बिना व्यक्ति पूर्वजन्म की शेष रही कामनाओं से मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि पूर्व मानव जीवन में रही अधूरी कामना को पूरा करने के लिए ही सहज कर्म का नए शरीर के साथ आगमन हुआ है | भगवान् तो गीता में यहाँ तक कह गए हैं कि स्वधर्म का पालन करते हुए मर जाना भी कल्याणकारी है जबकि दूसरे का धर्म भय को देने वाला है (गीता-3/35) |

          आज जो धर्म के समक्ष चुनौती है, वह धर्म का पालन न करने के कारण से ही उपस्थित हुई है | हमें दूसरे का धर्म अधिक श्रेष्ठ लगता है और हम स्वधर्म छोड़कर दूसरे के धर्म के अनुसार कर्म करने लगे हैं | आज ब्राह्मण अँगुलियों पर गिनने लायक बचे है, सभी धनोपार्जन और संग्रह के लिए वैश्य बन गए हैं | क्षत्रिय अपना धर्म छोड़कर अहिंसा के नाम पर प्रजा की रक्षा करने से बच रहे हैं | ऐसे में जरा सोचिये ! सनातन धर्म का भविष्य कैसा होगा ?

         हमारे लिए निर्धारित धर्म ही हमें स्वकर्म करने के लिए प्रेरित करता है | स्वकर्म करने में आप किस प्रकार की रुचि रखते हैं, उससे आपको सिद्धि किस प्रकार मिल सकती है, इसको गीता में भगवान् स्पष्ट करते हुए कहते हैं –

       स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः |

       स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ||18/45|||

         अर्थात अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक-सिद्धि अर्थात भगवत्प्राप्ति को उपलब्ध हो जाता है | साथ ही भगवान् कहते हैं कि अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके सिद्धि को प्राप्त होता है; उस विधि को सुन |  

        इस श्लोक के अनुसार मनुष्य स्वकर्म में प्रीतिपूर्वक रत तो है और उससे परमात्म तत्व की प्राप्ति भी हो जाती है परन्तु यह प्राप्ति केवल प्रीतिपूर्वक कर्म करने मात्र से ही नहीं होती | फिर अपने अपने कर्म में लगे हुए व्यक्ति को परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?

       स्वाभाविक कर्म को निःस्वार्थ भाव से करना कर्म योग के अंतर्गत है | इससे भी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है | ज्ञान और कर्म योग दो ऐसे लौकिक साधन हैं, जिससे परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है परन्तु जो कार्य अथवा कर्म परमात्मा की पूजा समझ कर किया जाता है, उससे सिद्धि शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है | इस बात को भगवान् ने इससे आगे के श्लोक में स्पष्ट किया है |

    यतः प्रवृतिर्भूतानां यें सर्वमिदं ततम् |

    स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||18-46||

     अर्थात जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है ।

       भगवान् कहते हैं कि जो भक्त अपने स्वाभाविक कर्मों से मेरी अर्चना करता है वह परमसिद्धि को प्राप्त कर लेता है | परमात्मा की अपने स्वाभाविक कर्मों से पूजा करना संभव तभी हो सकता है, जब हम सम्पूर्ण सृष्टि में केवल एक परमात्मा को ही देखें | जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि सम्पूर्ण सृष्टि में केवल एक परमात्मा ही व्याप्त है, तब तक अपने स्वाभाविक कर्मों से उस परमेश्वर की पूजा होना लगभग असंभव है | इसलिए प्रथमतः समस्त संसार में परमात्मा को देखते हुए अपने कर्मों से उनकी पूजा करना आवश्यक है और वैसी पूजा ही हमें परमसिद्धि तक ले जा सकती है |

         भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी के लिए कर्म करने आवश्यक हैं | प्रत्येक कर्म में अग्नि में धुएं की उपस्थिति की तरह दोष भी रहते है | इसके बाद भी कर्म का त्याग करने की सलाह भगवान् ने गीता में कहीं पर भी नहीं दी है | कर्म इस प्रकार करने चाहिए कि कर्म करने वाले को अनुभव ही नहीं हो कि कोई कर्म उसके द्वारा किया भी जा रहा है | स्वधर्म के अनुसार कर्म करने में तो मनुष्य को ध्यान रहता है कि वह धर्मानुसार कर्म कर रहा है | यह मनुष्य को सात्विक अवस्था तक तो ले जा सकता है परन्तु गुणातीत नहीं होने देता | गुणातीत की अवस्था को उपलब्ध हुए बिना मनुष्य मुक्त नहीं हो सकता |

            भगवान् ने कर्म की अभिरत अवस्था में जिस सिद्धि प्राप्ति की बात कही है वह नैष्कर्म्यसिद्धि है | यह ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है, जिसमें व्यक्ति को पता ही नहीं रहता कि कोई कर्म उसके द्वारा किया भी जा रहा है | वह कर्म जिसका कोई फल उत्पन्न नहीं होता वह कर्म-अवस्था  नैष्कर्म्यता की अवस्था कहलाती हैं | यह कर्मों की सर्वोच्च अवस्था है जिसको प्राप्त करना बिना भक्ति के संभव नहीं है | भगवान् जिस ‘स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’ की बात कर रहे हैं, वही मनुष्य की  नैष्कर्म्य सिद्धि की अवस्था है |

         बड़ी जटिल अवस्था में पहुँच गए हैं हम | क्या करें, यह धर्म-कर्म का विषय कुछ ऐसा ही है | कर्म भी करने पड़ेंगे और वे भी स्वधर्म का पालन करते हुए और महत्वपूर्ण बात तो यह है कि कर्म को त्यागा भी नहीं जा सकता | ऐसे में प्रश्न उठता है कि हमारे द्वारा न चाहते हुए भी कर्म क्यों होते जाते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें जरा अपनी इन्द्रियों की ओर चलकर देखना होगा | बाह्य दृष्टि से यह अनुभव नहीं हो सकता कि कर्म होते क्यों हैं ? जरा अपनी आंतरिक दृष्टि से भीतर झांकें, तभी कर्म के कारण को स्पष्ट रूप से जान पाएंगे |

       भगवान् ने प्रत्येक प्राणी को दस इन्द्रियां दी है | इनमें से पांच तो ज्ञानेन्द्रियाँ है और पांच ही कर्मेन्द्रियाँ | ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के मध्य एक सेतु है, जिसका नाम है मन | इसको भी इन्द्रियों के साथ जोड़ लिया जाये तो समस्त इन्द्रियों की संख्या हो जाती है, ग्यारह | ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य वस्तुओं के बारे में ज्ञान तो करा सकती है परन्तु उस ज्ञान के अनुसार अपने द्वारा किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं दे सकती | इसी प्रकार कर्मेन्द्रियाँ प्रतिक्रिया तो दे सकती है पर उसे जब तक ज्ञान का संकेत नहीं मिले तब तक वे भी निष्क्रिय बनी रहती हैं | ज्ञानेन्द्रियों से बाह्य ज्ञान का अनुभव मन करता है और मन कर्मेन्द्रियों से उस ज्ञान के अनुसार प्रतिक्रिया करवाता है, जिसको हम कर्म करना कहते हैं |

       मन को अगर वास्तविक ज्ञान उपलब्ध हो जाये कि बाहर के विषय विष के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है तो फिर कर्मेन्द्रियों द्वारा की जाने वाली प्रतिक्रिया का स्वरुप भी परिवर्तित हो सकता है | सांसारिक विषय का ज्ञान हमें हमारी ज्ञानेन्द्रियों से मिलता है | अगर हमें स्वधर्म का ज्ञान है तो फिर कर्मेन्द्रियाँ उसी धर्म के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करेगी | इसलिए स्वधर्म का ज्ञान होना प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य के लिए आवश्यक है |

        कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती है, मन के आदेश पर | ज्ञानेन्द्रियों की कर्म करने में प्रत्यक्ष रूप से किसी प्रकार की भूमिका नहीं होती | धर्म क्या है और अधर्म क्या है, यह अहम् जानता है अर्थात हम स्वयं को इनका ज्ञान है | धर्म का समुचित ज्ञान होने के लिए और धर्म को दृढ़ता भक्ति से मिलती है | जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति में रत रहता है, वह सदैव धर्म का पालन करते हुए ही कर्म करेगा | भक्ति में रत मनुष्य के मन का आचरण भी धर्मानुकूल हो जाता है |

            बार-बार प्रश्न आता है कि मन को परमात्मा में कैसे लगायें ? जब तक हमें धर्म और अधर्म का ज्ञान नहीं होगा तब तक परमात्मा में मन लगना कठिन है | धर्म का ज्ञान कैसे हो सकता है ? पूर्व में इसका विवेचन किया जा चूका है, फिर भी विस्मृत हो गया हो तो एक बार फिर से बतला देता हूँ | वेद ही धर्म के बारे में निर्णायक है | वेद से अगर स्थिति स्पष्ट नहीं होती तो शास्त्रों से धर्म का निर्णय किया जा सकता है | शास्त्रों से भी अगर धर्म स्पष्ट नहीं हो सके तो महात्माओं के जीवन और उनके आचरण से धर्म का ज्ञान ले सकते हैं | फिर भी कोई संशय रह जाए तो संतों के साथ सत्संग कर धर्म का निर्णय किया जा सकता है | इन चारों से ही आपकी धर्म के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं होती तो मनु महाराज कहते हैं कि आपके भीतर हृदय में बैठी आत्मा से पूछो | वह अगर प्रथम बार में ही किसी कर्म को करने की स्वीकृति दे देती है तो फिर उसी कर्म को अपना धर्म समझें |

            मनु महाराज ने बहुत ही सुगम उपाय बताएं हैं, धर्म के बारे में निर्णय करने में | परन्तु मनुष्य जीवन की विडंबना है कि वह अपने शारीरिक सुख के लिए आत्मनिर्णय की भी अवहेलना कर देता है | जीवन में पहली बार शराब के गिलास को हाथ लगाने पर भीतर से एक आवाज़ आती है – “नहीं” | तत्काल ही मनुष्य अगर उस आवाज़ को आत्मा की आवाज़ मानकर आचरण कर लेता है तो फिर शराब को जीवन में कभी भी हाथ नहीं लगाएगा | एक छद्म मानसिक सुख के लिए अगर अंतर्मन के कहे की अवहेलना कर दी जाती है तो फिर भगवान ही मालिक है | इसलिए अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर जो व्यक्ति धर्म का निर्णय कर लेता है, वह फिर जीवन में कभी भी दुःख को प्राप्त नहीं हो सकता |  

            इस विषय पर ही कुछ स्पष्टीकरण चाहा गया है अतः यहाँ आकर उनका निराकरण करना आवश्यक है | स्वामीजी ने गीता प्रबोधनी में एक श्लोक की व्याख्या करते हुए कहा है कि सहज कर्म और स्व-कर्म ही स्व-धर्म है | स्व-कर्म और सहज कर्म ही हमारा स्व-धर्म निर्धारित करते हैं | सहज कर्म वे कर्म होते हैं जिनको सम्पादित करने के लिए जन्म के साथ ही प्राकृतिक गुण हमें मिले हैं | इन कर्मों को करने में विशेष परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती है | जिस वर्ण में हमारा जन्म हुआ है उसी वर्ण के अनुसार हमारे भीतर प्रकृति के तीनों गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता अवश्य रहती है | उसी प्रधान गुण के अनुसार जो कर्म करना हम प्रारम्भ करते हैं, वही हमारे लिए सहज कर्म है और उस गुण के अनुसार जीवन के प्रारम्भ में किये जाने वाले वे कर्म ही हमारे स्व-कर्म हैं | इस प्रकार जीवन के प्रारम्भ में सहज कर्म और स्व-कर्म में किसी प्रकार का अंतर नहीं है और ये ही हमारे स्व-धर्म होते हैं |

            पूर्व मानव जीवन में अधूरी रह गयी कामना के अनुसार हमें उसी वर्ण में जन्म मिलता है, जिस वर्ण में जन्म लेने से वह अधूरी कामना पूरी हो सकती हो | पूर्व मनुष्य जीवन में किसी कामना की पूर्ति के लिए किये गए कर्मों से जब वह कामना पूर्ण नहीं होती है तो वे सभी कर्म हमारे चित्त में संचित हो जाते हैं | मनुष्य जीवन में किये जाने वाले कर्म के आधार पर ही मनुष्य का स्वभाव बनता है | शरीर के छूट जाने पर नया मनुष्य जीवन मिलने पर उसी स्वभाव के अनुसार सहज कर्म होने प्रारम्भ होते हैं, जो जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में स्व-कर्म भी कहलाते हैं | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वे कर्म जो सहजता और बिना अधिक परिश्रम किये हो जाते हैं वे ही सहज कर्म हैं | सहज कर्म बिना अधिक परिश्रम किये संपन्न इसलिए हो पाते हैं क्योंकि उन कर्मों को करने की भूमिका पूर्व मानव जीवन में पहले ही निर्धारित कर दी गयी थी | अब अपनी बात को कुछ उदाहरण देकर स्पष्ट करूँगा |

                 कुछ उदाहरणों के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करता हूँ | जैसे कि वैश्य वर्ण में जन्म लेने वाले मनुष्य के लिए सहज कर्म है- कृषि, गौरक्षा और व्यापार करना | यही इस वर्ण के धर्म भी हैं | इन कर्मों को उसे अपने जीवन में सदैव करते रहना चाहिए, कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए | हाँ, वह अपने स्वभाव को परिवर्तित कर अपने स्व-कर्म अवश्य ही बदल सकता है | स्व-कर्म चाहे तो जीवन में हम कभी भी परिवर्तित कर लें परन्तु सहज कर्म को तो उनके साथ-साथ फिर भी करते रहना चाहिए | अर्जुन वर्ण से क्षत्रिय था | युद्ध से मोहवश पलायन करने जा रहा था | उस समय भगवान् श्री कृष्ण ने उससे क्या कहा ? यही कहा कि तू मोहवश जिस युद्ध को नहीं करना चाहता एक दिन तेरा क्षत्रिय स्वभाव ही तुम्हें युद्धभूमि में खींच ले आएगा |      

                  गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को सहज कर्म का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए चाहे उनमें कितना ही दोष प्रतीत होता हो | सहज कर्म जन्म के वर्ण से सम्बंधित है, इसलिए उनको तो कभी भी परिवर्तित नहीं किया जा सकता | सहज कर्म जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में स्व-कर्म बनते अवश्य ही हैं परंतु अपने स्वभाव को बदलते हुए जीवन में कभी भी इनको परिवर्तित किया जा सकता है | कहने का अर्थ है कि स्व-कर्म मनुष्य के स्वभाव से सम्बंधित है और स्वभाव को नए कर्म करते हुए परिवर्तित किया जा सकता है | इससे स्पष्ट है कि मनुष्य को जन्म-वर्ण से जो स्वभाव मिला है, उसे वह नए कर्म करते हुए परिवर्तित कर सकता है | भगवान् श्री परशुराम ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेकर भी क्षत्रिय के कर्म करते थे | विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे फिर भी अपना स्वभाव परिवर्तित कर वे ब्रह्म ऋषि बन गए थे |

           महर्षि वाल्मीकिजी का उदाहरण हमारे सामने है | ब्राह्मण वर्ण में रत्नाकर के रूप में उनका जन्म हुआ था | बाल्यकाल में ही उनका अपहरण एक भीलनी द्वारा कर लिया गया था | भीलनी ने उनका पुत्रवत लालन-पालन किया | उसके साथ पलते-बढ़ते रत्नाकर का स्वभाव भी परिवर्तित हो गया था | वे एक डाकू बन गए थे और आते-जाते लोगों को लूटा करते थे | सत्व गुण प्रधान कुल में जन्म लेने के उपरांत भी उनका स्वभाव तमस प्रधान कुल के अनुसार परिवर्तित हो गया था | एक संत के सानिध्य के मिलते ही उनका स्वभाव फिर एक बार बदल गया और वे सत्व प्रधान स्वभाव के बन गए | इस परिवर्तन में उनके सहज कर्म की भूमिका भी अवश्य रही होगी, तभी वे एक झटके के साथ अपने अपने पूर्व के स्वभाव में सहजता से लौट आये |

           आधुनिक युग में मनुष्य चाहे किसी भी वर्ण में पैदा हुआ हो वह अपना स्वभाव परिवर्तित कर स्व-कर्म को बदलने में लगा हुआ है | प्रायः सभी वैश्य वर्ण के अनुसार आचरण करने लगे हैं और व्यापार के क्षेत्र में उतरने लगे हैं | वैश्य वर्ण के अतिरिक्त शेष तीनों वर्णों की व्यापार क्षेत्र में सफलता संदिग्ध अवश्य हो सकती है परन्तु व्यापार में सतत रत रहकर उसे ही स्व-कर्म बना लेने से सफलता भी सुनिश्चित की जा सकती है | परन्तु ध्यान रहे, सहज कर्म वे ही रहेंगे जो जन्म से उसे मिले हैं | भिखारी से महारानी बनी कन्या का स्वभाव भी परिवर्तित होना असंभव होता है | एक राजा ने एक भिखारी की सुन्दर कन्या से विवाह तो कर लिया था परन्तु वह कन्या राजमहल में आकर भी दिन प्रतिदिन कृशकाय होती गयी | राजा ने राजवैद्य से उसका कारण पूछा | वैद्यजी ने बताया कि इसका भीख मांगकर खाने का स्वभाव है | आप राजभवन में ऐसी व्यवस्था करवा दें कि यह प्रत्येक दरवाजे पर आवाज लगाकर कुछ मांगे | फिर वही माँगा हुआ भोजन खाकर यह पुनः अपना वही रूप-रंग प्राप्त कर स्वस्थ हो जाएगी | राजा ने ऐसा ही किया और इस प्रकार महारानी के स्वास्थ्य में धीरे-धीरे सुधार दृष्टिगोचर होने लगा |   

           अब आते हैं एक और महत्वपूर्ण प्रश्न पर | स्व-कर्म ही कर्तव्य-कर्म हैं तो क्या उन कर्त्तव्य कर्मों का निर्वहन करते हुए भी परमात्मा को पाया जा सकता है ? भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के 18 वें अध्याय के 45 वें और 46 वें श्लोक में इसको स्पष्ट किया है कि हाँ, स्व-कर्म करते हुए भी परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है | इस श्लोकों का मैंने इसी श्रृंखला में पूर्व में भी विवेचन किया है | भगवान् कहते हैं कि जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्मों द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है | इसलिए सिद्धि के लिए महत्त्व कर्मों को परमात्मा की पूजा समझ करने का है |

             प्रायः लोग उस श्लोक का अर्थ अलग प्रकार से ले लेते हैं जिसमें कहा गया है कि सहज कर्मों का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए | सहज कर्म का त्याग तो कोई चाह कर भी नहीं कर सकता | अगर ऐसा होता तो अर्जुन कभी भी युद्ध के लिए तैयार नहीं होता | एक ब्राह्मण जिसने अपने व्यापार को ही स्व-कर्म बना लिया है उसे या तो कर्म-योग के अनुसार उस वाणिज्य-कर्म को परमात्मा की पूजा करने की तरह करना चाहिए अथवा अपने सहज कर्म को अपनाते हुए अपने धर्म का निर्वाह करना चाहिए | दोनों ही प्रकार से वह परमात्मा को प्राप्त कर लेगा |

          जिस प्रकार वर्ण के धर्म-कर्म निश्चित है उसी प्रकार आश्रम के भी धर्म-कर्म निश्चित किये हुए हैं | हमें अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार अपने धर्म का निर्वहन करना चाहिए | ब्रह्मचर्याश्रम जिस प्रकार विद्याध्ययन के लिए है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम जीविकोपार्जन और अपने कर्तव्य कर्मों में लगे रहने का है | वानप्रस्थ आश्रम परमात्मा में लगने का है और चौथा आश्रम परमात्मा तक पहुँच जाने का है | 

           प्रथमो नार्जितो विद्या द्वितीये नार्जितं धनम् |

           तृतीये नार्जितं पुण्यं चतुर्थे किम् करिष्यते ||

अर्थात जीवन के प्रथम आश्रम में जिसने विद्या नहीं पायी, दूसरे में धन नहीं पाया, तीसरे आश्रम में पुण्य नहीं कमाया, ऐसे में वह भला चौथे आश्रम में आकर भी क्या कर लेगा ?

            अब प्रश्न उठता है कि जब सब व्यापार में ही लगे हुए हैं तो क्या आश्रम के धर्म के अनुसार उन्हें व्यापार छोड़ उससे अलग होकर भगवान् की आराधना में लग जाना चाहिए ? मेरा उत्तर है कि सब कुछ मनुष्य की प्रकृति पर निर्भर करता है | गृहस्थाश्रम में तो कर्म और परमात्मा की उपासना साथ-साथ चल सकती है | इससे भी हम कर्म में प्रीतिपूर्वक लगे रहकर और कर्मों से परमात्मा की पूजा करते हुए उन तक पहुँच सकते हैं परन्तु गृहस्थाश्रम में व्यापार करते हुए हमारा आचरण तुलाधार वैश्य की तरह होना चाहिए |

                 भगवान् बुद्ध के पास एक व्यापारी आया | उसने पूछा कि मैं व्यापार करते हुए भी मुक्त कैसे हो सकता हूँ ? बुद्ध ने उसको तुलाधर वैश्य के पास भेज दिया और कहा कि उसके पास जाकर इस प्रश्न का उत्तर ले लो | व्यापारी पहुँच गया तुलाधर वैश्य के पास | तुलाधर आगंतुक ग्राहकों को सौदा तौलकर दे रहा था और इस बात का पूरा ध्यान रख रहा था कि तुला की डंडी साम्यावस्था में आ जाये | तभी वह सौदा ग्राहक को देता था, उससे पहले नहीं |

                      आगंतुक व्यापारी ने वहां आने का प्रयोजन बताया और अपने प्रश्न का उत्तर चाहा | वैश्य तुलाधर ने कहा कि मैं ज्यादा तो नहीं जानता परन्तु इतना कह सकता हूँ कि तुला की डंडी को साम्यावस्था में रखते रखते मैं स्वयं भी समता में आ गया हूँ | जीवन में आई  इस समता के कारण मैं सदैव आनंद में रहता हूँ। 

     ब्रह्म ही निर्दोष और सम है | इस प्रकार तुलाधार वैश्य भी परमात्मा के पास तक पहुँच गया है, ऐसा कहा जा सकता है | भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं –

इहैव तैर्जितं सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि स्थिताः || गीता-5/19 ||

अर्थात जिनका अंतःकरण समता में स्थित है, उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है अर्थात वे जीवन्मुक्त हो गए हैं ; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिए वे ब्रह्म में ही स्थित है |            

             इस प्रकार यदि व्यापार करने को ही अपना कर्तव्य कर्म मानते हैं और उसे छोड़ने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं तो फिर वैश्य तुलाधार की तरह व्यापार करना चाहिए | इस प्रकार व्यापार करने से ही समता आ पायेगी अन्यथा तो लोभ अपना जोर लगाएगा और परमात्मा से दूरी बनी रहेगी।इस युग में अवसर का लाभ न उठाते हुए किसी ने एक भी व्यापारी को देखा है क्या ?

            कुछ कर्तव्यकर्म ऐसे अवश्य हैं जिनको वास्तव में कर्तव्य कर्म कहा जा सकता है | जैसे चिकित्सक, अभियंता, वकील, राजनीतिज्ञ आदि | इनको अवश्य ही अपने कर्तव्य को परमात्मा की पूजा समझते हुए करना चाहिए केवल धन अर्जित करने की दृष्टि से नहीं | परन्तु आज ऐसी बात कहाँ देखने को मिलती है, जहाँ सेवा को अपने कर्तव्य कर्म निभाने में महत्वपूर्ण स्थान मिला हो | आज तो चारों ओर धन लूटने की होड़ मची हुई है, जिसमें समाज के प्रमुख मार्गदर्शक राजनीतिज्ञ तो अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखलाई पड़ रहे हैं |

                     इसीलिए वानप्रस्थ आश्रम की अवस्था में आकर सभी कर्मों का त्याग करते हुए एक परमात्मा को पाने का उद्देश्य रखते हुए सक्रिय रहना चाहिए | कर्म अवश्य करें लेकिन वे कर्म केवल परमात्मा के लिए ही हों और जिनसे संसार की सेवा हो रही हो | शेष सभी प्रकार के कर्मों से विमुख हो जाना चाहिए | पुरातन काल में 50 वर्ष की अवस्था पार करते ही हमारे पूर्वज वन का रुख कर लेते थे,उसके पीछे एक मात्र कारण भी यही था कि सांसारिक मोह से सुगमता से दूर हो सकें | इस वानप्रस्थ की अवस्था में भी अगर हम अपना व्यापारिक कार्य करते रहेंगे तो फिर परमात्मा की प्राप्ति कैसे होगी ?

             एक राजा का दायित्व प्रजा को सुख देना है, उसकी रक्षा करना है | वह अपने कर्तव्य कर्म से पलायन नहीं कर सकता | वह अपना राज कार्य करते हुए भी आध्यात्मिक हो सकता है | राजा जनक इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं | इसलिए अपने वर्ण के अनुसार धर्म का पालन करते हुए परमात्मा को पाने का उद्देश्य रखें, चाहे इसके लिए हमें अपनी आजीविका के लिए किये जाने वाले कर्मों का त्याग भी क्यों न करना पड़े |  

              जब एक गृहस्थ अपने कर्तव्य कर्म से निवृत हो जाता है फिर वह अपने परिवार के लिए किसी प्रकार का कर्म करने को बाध्य नहीं है | फिर भी अगर कोई जीवन भर कर्म में रत ही रहना चाहता है तो उसको सांसारिक आवागमन से मुक्ति भला कैसे मिल सकती है ?

                          गीता में कहा गया है –

          आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारण मुच्यते |

          योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते || गीता-6/3||

       अर्थात जो योग अर्थात समता में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिए कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगरूढ़ हुए मनुष्य का शम अर्थात शांति धारण कर लेना परमात्मप्राप्ति में कारण कहा गया है |

          इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि कर्म आपको समत्व तक अवश्य ले जाते हैं परन्तु कर्म करने की ओर से शांत हो जाना अर्थात कुछ करने से सम्बन्ध तोड़ लेना ही आपको परमात्मा की प्राप्ति कराएगा | स्वामीजी कहते हैं कि कर्म करने का सम्बन्ध प्रकृति से है और प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखने से आपका सम्बन्ध क्रिया से बना रहेगा | परमात्मा अक्रिय है जबकि प्रकृति क्रियाशील है | क्रियाशील से समता को तो प्राप्त किया जा सकता है परन्तु परमात्मा को नहीं | अक्रियता से अक्रिय प्राप्त हो जायेगा | व्यवसाय को सहज कर्म मानते हुए उससे सम्बन्ध विच्छेद नहीं करेंगे तो परमात्मा से दूरी ही बनी रहेगी | इस प्रकार स्पष्ट है कि परमात्मा को पाने के लिए अक्रिय होना आवश्यक है | अतः व्यापार को कर्तव्यकर्म मानकर करते रहने को वानप्रस्थ में उचित नहीं ठहराया जा सकता |

         आइये ! अब  पुनः चलते हैं श्री मद्भगवद्गीता की ओर, जिसमें संजय-धृतराष्ट्र के मध्य वार्तालाप हो रहा है | दूसरे अध्याय में आगे अब संजय अपने राजा को कहते हैं कि अपने अनुसार बहुत सी धर्मयुक्त बाते कहकर अर्जुन श्री कृष्ण के सामने दुखी होकर खड़े हो गए हैं | तब श्री कृष्ण असमय इस मोह के आ जाने का कारण अर्जुन से पूछते हैं और साथ ही कहते हैं कि आसन्न युद्ध के समय तुम्हारे द्वारा ऐसा व्यवहार करना उचित नहीं है | तब अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण, जो कि उनका सखा है, का शिष्यत्व स्वीकार कर उनकी शरण ले लेता है | भले ही 18 अध्यायों तक गीता चलती हो परन्तु गंभीरता से देखें तो अर्जुन दूसरे अध्याय में ही परमात्मा की शरण ले लेता है | अंततः भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को भलीभांति समझा कर  18 वें अध्याय के 66 वें श्लोक में उसको शरणागत होने का कह देते हैं |

         युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले ही अर्जुन में ‘कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः’, अर्जुन में कृपणता रुपी दोष आ गया है | कृपण कौन है ? कृपण वह है जो सब कुछ होते हुए भी अपने पास में कुछ भी होना नहीं मानता अर्थात वह कंजूस होता है | कंजूस प्रायः कायर भी होता है।अर्जुन के पास युद्धभूमि में आने से पहले पराक्रम के रूप में सब कुछ था | अपने समय का वह विश्व का एक मात्र श्रेष्ठ धनुर्धर था | अपने परिवारजनों को युद्ध में खड़ा देखकर अर्जुन मोह के कारण युद्ध से हटने का मन बना रहा है | युद्धभूमि में आज उसकी निर्बलता ही उसका कृपण स्वभाव बन गयी है | इस कृपणता का कारण है कि वह अपनी वास्तविक क्षमता को विस्मृत कर चूका है |

      ‘पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः’- यहाँ भी अर्जुन धर्म के विषय में मोहग्रस्त है | मोह के कारण 'धर्म क्या है और अधर्म क्या है', इस बारे में वह सही निर्णय नहीं कर पा रहा है | ‘यच्छ्रेय स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’- अर्जुन भगवान् को पूछ रहा है कि मेरे लिए जो भी साधन उचित हो, कल्याणकारी हो, वह कहिये | ‘शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’- यहाँ आकर शरणागत हो गया है अर्जुन और भगवान् श्री कृष्ण का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया है | यहाँ अर्जुन भगवान् के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाते हैं | इसी प्रकार गुरु के सामने समर्पित होने पर धर्म के बारे में हमारे भी सारे द्वंद्व मिट जाते हैं |

       अर्जुन का दूसरे अध्याय में जो भगवान् के प्रति समर्पण भाव है, वह विपरीत और द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में हुआ है | अन्तिम अध्याय में जब वे कहते हैं कि ‘करिष्ये वचनं तव’, तब उनका निर्द्वंद्व अवस्था में आकर परमात्मा को किया हुआ समर्पण है | दूसरे अध्याय में अर्जुन धर्म के सम्बन्ध में मोहित है, जबकि अंतिम अध्याय में वह 'धर्म के आश्रय' को युद्धभूमि के एक कोने में रख चूका है अर्थात धर्म-अधर्म के बारे में कोई विचार तक नहीं कर रहा है | वास्तव में देखा जाये तो धर्म ही कर्म है और कर्म का आश्रय वही व्यक्ति लेता है जिसको भगवान् से अधिक स्वयं की क्षमता, स्वयं के करने पर अधिक विश्वास होता हो अन्यथा जीवन में कर्म तो सभी करते ही हैं | परन्तु जब परिस्थितियां बदलती है तब वह वैसे ही मोहित हो जाता है, जैसा कि अर्जुन अपने सगे सम्बन्धियों को युद्धभूमि में अपने सामने खड़ा देखकर हुआ था |

         स्वयं की क्षमता पर विश्वास करना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है | अनुचित है केवल स्वयं की शक्ति पर ही विश्वास रखना | यह अहंकार की स्थिति है | तीनों लोक पर अधिकार कर लेने के बाद दैत्यराज बलि के साथ भी तो यही हुआ था।परमात्मा के शरणागत होकर, सब कुछ उन पर छोड़ देना ही मनुष्य को अहंकार से मुक्त रख सकता है |

           ‘स्व-कर्म’ का आश्रय ही धर्म का आश्रय है | इसलिए गीता में भगवान् कहते हैं कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ अर्थात हे अर्जुन ! जिसे तू ‘धर्म-धर्म’ कहकर व्यथित हो रहा है, उसका आश्रय छोड़ दे और एक मेरी शरण में आ जा | मेरी शरण में आने के बाद जिसको तू अधर्म अर्थात पाप कह रहा है, वह तुझे तनिक सा भी छू न सकेगा | फिर भी तुम्हें जरा सा भी संदेह है कि इन सभी को मारने से तुम्हें पाप लगेगा तो यह मान ले कि मेरी शरण में आये को मैं सभी पापों से मुक्त कर देता हूँ | इस प्रकार सारी गीता का सार ही एक परमात्मा की शरण में चले जाना है | सभी धर्म-अधर्म और कर्म आदि तभी तक प्रभावशाली प्रतीत होते हैं, जब तक हम परमात्मा की शरण नहीं होते | शरण होने के बाद न तो कोई पाप आपको प्रभावित कर सकता है और न ही धर्म | ऐसे में कर्ताभाव से कर्म करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता |

             गीता में अर्जुन का भगवान् का शिष्यत्व ग्रहण कर उनकी शरण में चले जाने का कारण ही धर्म है | धर्म-अधर्म के द्वंद्व के कारण ही तो अर्जुन मोहग्रस्त हो गया था | इसीलिए धर्म-अधर्म के बारे में विभिन्न कोणों से भगवान् को ज्ञान देना पड़ा | सांख्य-योग से प्रारम्भ किये गए ज्ञान को अंततः सभी धर्मों के आश्रय के त्याग तक ले जाना पड़ा | ज्ञान-योग नहीं कहते तो अर्जुन की मोहग्रस्त हुई बुद्धि में कोई बात तनिक सी भी नहीं घुसती | कर्म योग इसलिए कहना पड़ा क्योंकि धर्म का आधार कर्म है और कर्म से विमुख व्यक्ति स्वयं का पतन ही करता है | जब जीवन में कर्म करने आवश्यक है, तो फिर क्यों न परमात्मा को समर्पित होकर कर्म किये जाएँ |

           प्रत्येक कर्म को करने में कामना की मुख्य भूमिका होती है, जो जीवन में किसी की भी पूरी नहीं होती | मन ही उस कामना के पीछे एक मात्र कारण होता है | उस मन पर नियंत्रण करने के लिए आत्मसंयम योग भी अर्जुन को भगवान् ने बतलाया है | ज्ञान विज्ञान योग में इस सृष्टि के सृजन को भगवान् ने स्पष्ट किया है और दिव्य दृष्टि प्रदान करते हुए अपने विश्वरूप दर्शन कराने की अवस्था तक अर्जुन को ले कर गए हैं |

        जब अर्जुन की बुद्धि ज्ञान को ग्रहण करने की अवस्था में आ गयी तब भगवान् ने प्रकृति और पुरुष का ज्ञान भी दिया जो अक्षर-ब्रह्म योग, राज विद्या राज गुह्य योग, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग से होता हुआ पुरुषोत्तम योग तक चलता गया | बीच में भक्ति योग भी अर्जुन को कहा है जिसमें बताया गया है कि कौन से लक्षणों से युक्त भक्त भगवान् को प्रिय होते हैं | सभी विषयों पर ज्ञान देते हुए भगवान् अंततः अर्जुन को कह देते हैं कि इतना सब कुछ जानकर भी सबसे महत्वपूर्ण एक बात सदैव ध्यान में रखना - "सब कुछ जान जाने का अहंकार न रखकर एक मेरी शरण में आया व्यक्ति ही कभी भी बार-बार मोहग्रस्त नहीं होता |" कितना ही जान लो, उस एक को जाने बिना सब जानना व्यर्थ है | धर्म-कर्म तब कोई मायने नहीं रखते हैं, जब आप परमात्मा की शरण लेकर कर्म करते हैं |

        गीता का प्रारम्भ धृतराष्ट्र ने ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ कह कर किया है और संजय से युद्ध का प्रतिपल का विवरण चाहा है | इसी प्रकार अर्जुन ने भी भगवान् श्री कृष्ण को अपना गुरु मानते हुए उनकी शरण होकर ‘धर्मसम्मूढचेताः’ कहते हुए ज्ञान चाहा है | दोनों ने ही ‘धर्म’ का नाम लिया है | एक ओर राजा है जो अपने पुत्र मोह में अँधा होकर उस बात की कामना कर रहा है जोकि उसके लिए पूरी होना संभव नहीं है | दूसरी ओर अर्जुन है जो युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही अपने सगे सम्बन्धियों के मारे जाने को लेकर, धर्म-अधर्म का विचार कर मोहग्रस्त हो रहा है | इस प्रकार दोनों के साथ ही मोह रुपी बंधन है, जिसमें बंधकर वे इस संसार में उलझे हुए हैं |

        संसार की इस उलझन को सुलझाने का बीड़ा भगवान् ने उठाया है | एक तरफ संजय के पास दिव्य दृष्टि है, जिसके माध्यम से राजा धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल सुनाया जा रहा है और दूसरी तरफ अर्जुन है जिसको दिव्यदृष्टि भगवान् ने दी है और वह उस दृष्टि का उपयोग ज्ञान प्राप्त करने में कर रहा है | लेकिन धृतराष्ट्र और अर्जुन, दोनों में इस दिव्यदृष्टि का उपयोग कर पाने में भिन्नता है | संजय की दिव्यदृष्टि राजा के लिए थी, जिसका सदुपयोग उनको करना चाहिए था | धृतराष्ट्र भी धर्म की बात कर रहे हैं कि कुरुवंश का वरिष्ठ पुत्र होने के बाद भी जन्मांध होने के नाम पर कभी पूर्व में उसका यह अधिकार उससे छीन लिया गया था | पुत्र मोह होते हुए भी वह युद्ध को टालने में विश्वास तो करता है परन्तु स्वयं इसके बारे में अपने स्तर पर किसी प्रकार का प्रयास नहीं करता | वह तो अर्जुन के हथियार डालकर रथ के पीछे के भाग में बैठ जाने से बड़ा प्रसन्न होता है कि अब यह युद्ध नहीं होगा | इधर युद्ध भूमि में अर्जुन भी धर्म की बात कर रहा है | वह भी युद्ध नहीं करना चाहता क्योंकि उसके सम्बन्धी और मित्र के मारे जाने को वह स्वीकार नहीं कर सकता | जबकि सत्य यह है कि आज तक कोई भी युद्ध बिना नरसंहार के कभी समाप्त नहीं हुआ है और न ही कभी भविष्य में होगा |

      सम्पूर्ण गीता धर्म-कर्म का विवेचन करते हुए अंततः इस बात पर आकर अपना समापन करती है कि धर्म-कर्म का आश्रय लेने से भी कोई लाभ नहीं होना है | मनुष्य को केवल एक परमात्मा का आश्रय ही स्वीकार करना चाहिए जिसके आश्रय से बड़ा और कोई आश्रय नहीं है | परमात्मा की शरण में चले जाने पर आपके सभी कार्य देखना, केवल उस एक के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है | फिर जैसा और जो भी उसने आपको दिया है, वह प्रसाद मानकर ग्रहण कर लेना चाहिए अर्थात जिस स्थिति में भी परमात्मा आपको रखे, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए |

           धर्म से प्रारम्भ हुई गीता उस धर्म का भली-भांति विवेचन करते हुए जब समाप्त होती है तब उस ज्ञान को किसने किस प्रकार लिया ? यह जान लेना भी आवश्यक है | गीता सीधे तौर पर भगवान् के द्वारा अर्जुन को कही गई और  धृष्टराष्ट्र को सुनाने के लिए माध्यम बना संजय । इस प्रकार गीता कही गयी भगवान के द्वारा और इसको सुनने वाले तीन व्यक्ति थे – अर्जुन, संजय प्रत्यक्षतः और परोक्ष रूप से धृतराष्ट्र | युद्धभूमि में दोनों ओर अठारह अक्षौहिणी सेना खड़ी थी, युद्ध के लिए तत्पर | इन तीन के अतिरिक्त किसी और ने गीता क्यों नहीं सुनी ? जबकि इसे सुनने केलिए किसी को प्रतिबंधित नहीं किया गया था। सबकी दृष्टि युद्ध के प्रारम्भ होने पर लगी हुई थी, इसलिए किसी का ध्यान इस ओर तनिक भी गया ही नहीं कि युद्धभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य खड़े अर्जुन और श्री कृष्ण आपस में किस विषय पर बात कर रहे हैं ? कल्पना कीजिये कि सभी ने युद्धभूमि में गीता ज्ञान को सुन लिया होता तो क्या युद्ध होता ? प्रश्न आपके विचारार्थ छोड़े जा रहा हूँ, उत्तर जानने का प्रयास कीजिये |

         धृतराष्ट्र ने इस गीता-ज्ञान को कोई महत्त्व नहीं दिया क्योंकि वे प्रारम्भ से ही श्री कृष्ण के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे | यह उनकी सोच थी कि श्री कृष्ण पांडवों का पक्ष ले रहे है | जब आप पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं तब कोई भी ज्ञान आपको प्रभावित नहीं कर सकता | पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्ति को अगर भगवान् स्वयं भी ज्ञान देने आ जाये तो वह उनकी भी एक न सुनेगा | अर्जुन ने उस ज्ञान को आत्मसात किया था परन्तु कब तक ? हाँ, युद्धभूमि में अवश्य ही उसने इस ज्ञान का सदुपयोग किया था |

      गीता ज्ञान को ध्यान से सुना - अर्जुन के साथ-साथ संजय ने भी | मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि संजय ने उस ज्ञान को अर्जुन से अधिक सही अर्थ में लिया क्योंकि उसकी जिम्मेवारी इस बात की अधिक थी कि वह धृतराष्ट्र को युद्धभूमि की पल-पल की सत्य जानकारी उपलब्ध कराएगा | इसलिए संजय ने अधिक ध्यान देकर इस ज्ञान को सुना | हाँ, युद्ध के परिणाम के बारे में संजय प्रारम्भ में संशयग्रस्त अवश्य ही था, तभी तो वह युद्धभूमि में दस दिन तक युद्ध देखता रहा | जब महाप्रतापी भीष्म शर-शैया पर आ गए तब उनको सहज ही विश्वास हो गया कि युद्ध का परिणाम किस ओर जाने वाला है ? उसको तत्काल ही वह बात स्मरण हो आई जोकि युद्धभूमि के मध्य में भगवान् ने उस दिन युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही अर्जुन को कही थी । वह महत्वपूर्ण बात थी- ‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’। भगवान अर्जुन को कह रहे थे कि ये सभी योद्धा पूर्व में ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं इसलिए तू तो केवल इनको मारने में निमित्त मात्र बन जा |

        संजय को इस बात पर उस समय तो विश्वास नहीं हुआ था परन्तु जब 10 वें दिन महाप्रतापी भीष्म, बाणों की शैया पर आ गए तब वह समझ चूका था कि युद्ध का परिणाम तो पाडवों के पक्ष में ही जा रहा है | तत्काल ही वह युद्धभूमि छोड़कर वहां से राजमहल लौट आया । आते ही पहले तो उसने 10 दिनों का हाल सुनाया और फिर युद्ध समाप्त होने तक का |

       संजय समझ चूका था कि धर्म-कर्म की बात करने वाले भले ही महान योद्धा हों परन्तु जिसके साथ परमात्मा होते हैं, अंततः जीत उसी की होनी निश्चित है | ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ से प्रारम्भ होने वाली गीता संजय की इसी भविष्यवाणी के साथ समाप्त होती है कि -

      यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |

      तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||18/78||

    संजय कहते हैं कि जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण है और जहां धनुर्धर अर्जुन है, वहीँ पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है-ऐसा मेरा मत है | अपना मत वही दे सकता है जिसने ज्ञान को बड़ी लगन के साथ सुना हो और जिसने परमात्मा को पहिचान लिया हो |

            युद्धभूमि में जाने से पहले क्या भीष्म नहीं जानते थे कि श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं ? भीष्म ने श्रीकृष्ण को बहुत पहले ही जान लिया था कि ये साक्षात परमात्मा हैं फिर भी वे स्व-धर्म के आधार पर कौरवों के साथ खड़े रहे। कौरवों के साथ खड़े रहने का कारण उनका स्वार्थ नहीं था बल्कि अपने पिता शान्तनु को दिए गए वचन के कारण वे हस्तिनापुर राज्य के सिंहासन से बंधे हुए थे। जब तक राज्य पर संकट था, तब तक उसकी रक्षा करना उनका कर्तव्य कर्म था। सतही तौर पर देखें तो भीष्म पितामह का यह निर्णय उचित जान पड़ता है परंतु अपने पिता को दिए केवल एक वचन की आड़ में उन्होंने  सत्य-धर्म की अनदेखी भी की। भरी राजसभा में उनके सामने द्रोपदी का चीरहरण होता रहा और वे विवश होकर सब कुछ देखते रहे। 

        युद्धभूमि में अर्जुन ने भगवान को पहिचान लिया था और पहिचानते ही वे शरणागत की मुद्रा में आ गए। युद्ध प्रारम्भ होने से पहले भले तो वे धर्म-अधर्म में द्वंद्वग्रस्त होकर समर्पित हुए थे परंतु अंततः ज्ञान प्राप्त कर वे निर्द्वन्द्व होकर परमात्मा की शरण हो गए थे। शरण तो भीष्म भी ले सकते थे परंतु अपने कर्तव्य-कर्म को अपना धर्म मानते हुए उन्होंने उसे परमात्मा पर वरीयता दे दी थी। परमात्मा को पाना है और कर्तव्य कर्म को भी निभाना है, तो ऐसी द्वंद्वात्मक अवस्था में परमात्मा के प्रति समर्पण को वरीयता देनी चाहिए। युद्ध मनोयोग से भीष्म भी लड़े लेकिन फिर भी वे राज सिंहासन की रक्षा न कर सके । 

         सारा खेल परमात्मा का है, वे चाहेंगे तभी आपके वचन की रक्षा होगी, वे चाहेंगे तभी आपके धर्म की रक्षा होगी। अतः अपने कर्मों का आश्रय न लेकर उस एक के प्रति समर्पित हो जाएं, उनकी इच्छा में अपनी इच्छा मिला दें फिर सब कुछ सही ही होगा। 

सार संक्षेप -

       कर्म हमारा धर्म निर्धारित करता है और फिर उस धर्म के आधार पर हम कर्म करते हैं। प्रत्येक वर्ण और आश्रम का धर्म पूर्व निर्धारित  है जिसका निर्धारण हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने गहन शोध करके किया है। धर्म का अर्थ है, कर्तव्य कर्म। जो कर्म हमारे वर्ण और आश्रम के अनुसार करने निश्चित है, उनको करने से ही हम सही राह पर चल सकते हैं।आज के युग मे हम अपने वर्ण और आश्रम व्यवस्था को तिलांजलि देकर दूसरे प्रकार के ही कर्मों को करने में उलझ गए हैं।इसी का परिणाम जीवन में असंतोष और दुःख के रूप में सामने आ रहा है।

       द्वंद्व की स्थिति में हमें इन कर्तव्य कर्मों के आश्रय को छोड़कर एक परमात्मा का आश्रय ले लेना चाहिए, फिर हम निर्द्वन्द्व होकर अपने कर्म भलीभांति कर सकते हैं।

          श्रृंखला का सारांश यह है कि एक परमात्मा की शरण ले लेने के बाद धर्म-कर्म की बात करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है | जिसने भी परमात्मा का आश्रय लिया है, वे धर्म मार्ग पर ही चलेंगे यह भी निश्चित है | उनसे कोई अधार्मिक कर्म जीवन में कभी हो ही नहीं सकता | इसलिए परमात्मा की शरण लेकर पूर्ण रूप से धार्मिक हो जाएँ और पाप-पुण्य की चिंता छोड़ दें |

     इसी के साथ यह श्रृंखला समाप्त होती है। आप सभी का साथ बने रहने के लिए आभार।

प्रस्तुति –डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment