Wednesday, June 1, 2022

करिष्ये वचनं तव -61से85

 करिष्ये वचनं तव-61से 85

                  सभी सजीव प्राणियों में एक बात की समानता अवश्य होती है-भूख की | सभी जीवित प्राणियों को भूख लगती ही है, चाहे वह चर हो अथवा अचर | भूख पर विजय पाने के लिए आहार (Food) की आवश्यकता होती है | आहार पाने के लिए ही पेड़-पौधों में वृद्धि होती है | उसकी जड़ें (Roots) भूमि की गहराई को नापते हुए भोजन के लिए जल व आवश्यक तत्व जुटाती है | तना (Stem) बढ़कर आकाश की ऊँचाइयों को छूने लगता है, जिससे पत्तियों (Leaves) को अधिक से अधिक सूर्य का प्रकाश (Sunlight) उपलब्ध हो सके | सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में भोजन का निर्माण जल और अन्य आवश्यक तत्वों से किया जाता है, जिसे प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) कहा जाता है |               

             चर प्राणियों में पेड़-पौधों की तरह स्वयं के द्वारा भोजन बनाने की सुविधा परमात्मा ने प्रदान नहीं की है | अतः उन्हें भोजन प्राप्त करने के लिए अपने स्तर पर प्रयास करना पड़ता है | किसी भी प्रकार से अपनी क्षुधा शांत करने के लिए भोजन प्राप्त करने की इच्छा चर सजीव को हिंसक (Violent) बना देती है | हिंसा (Violence) चर प्राणी को भोजन तो प्रदान करा देती है परन्तु साथ ही साथ स्वयं के द्वारा की गयी उस हिंसा के कारण वह भयग्रस्त (Frightened) भी हो जाता है क्योंकि वह समझ जाता है कि जिस प्रकार उसने हिंसा के माध्यम से भोजन प्राप्त किया है, एक दिन वह भी इसी प्रकार अन्य किसी भूखे प्राणी का भोजन बन सकता है | 

               भूख के कारण भय (Fear) पैदा होता है | भय पैदा होने का मुख्य कारण होता है मृत्यु, स्वयं के अस्तित्व के मिट जाने का भय | यह भय दो कारणों से होता है-निराहार (Starvation) रहने से हो सकने वाली संभावित मृत्यु से तथा किसी निराहारी का आहार बन जाने की सम्भावना से | दोनों ही परिस्थितियों के कारण से प्राणियों में असुरक्षा (Insecurity) की भावना भी पैदा हो जाती है | यह भय (Fear) इसलिए भी पैदा होता है क्योंकि वह यह सोचता है कि जिस प्रकार उसने शिकारी (Predator) बनकर किसी अन्य प्राणी का शिकार किया है, उसी प्रकार वह स्वयं भी कभी न कभी किसी का शिकार (Prey) भी बन सकता है | इस प्रकार उसकी प्रजाति का,उसके परिवार का एक न एक दिन विलुप्त होना संभव हो सकता है | इसकी प्रतिक्रिया में वह स्वयं की प्रजाति और परिवार को संसार में बनाये रखने के लिए संतान उत्पत्ति में रत हो जाता है | जो प्राणी सबसे अधिक शिकार बनता है, प्रकृति (Nature)  के इस नियम के अनुसार उसमें संतान उत्पत्ति की दर (Rate) भी सर्वाधिक होती है |

                    आहार प्राप्ति के लिए एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी को शिकार बनाना उनकी प्रकृति है | इसमें किसी प्रकार की हिंसा नहीं है | इसमें हिंसा हम मनुष्यों को इसलिए प्रतीत होती है क्योंकि हम मानते हैं कि स्वयं के आहार के लिए दूसरे जीव के जीने के अधिकार को छीन लेना एक प्रकार की हिंसा ही है |

               आहार के लिए एक प्राणी दूसरे प्राणी पर निर्भर रहता है | एक मेंढक छोटे-मोटे कीड़ों का शिकार करता है और वही मेंढक स्वयं एक सर्प का भोजन बन जाता है | इसी प्रकार एक सांप भी बाज, चील आदि पक्षियों का शिकार है | एक बड़ी मछली का भोजन समुद्र में तैर रही छोटी मछलियाँ ही होती है | इस प्रकार की कथित हिंसा में न तो कोई अपराधी है और न ही कोई पीड़ित | एक प्राकृतिक नियम के अनुसार सब एक दूसरे का आहार बनते हैं | ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ अथवा अर्थात जीव ही जीव का भोजन है | भागवतजी में कहा गया है-‘जीवो जीवस्य जीवनम्” अर्थात जीव ही जीव का जीवन है | बिना आहार के जीवन जिया नहीं जा सकता | इस प्रकार एक जीव ही दूसरे जीव का आहार बनकर जीव का जीवन जीना संभव बनाता है |

             एक शेर जब मृग का शिकार आहार के लिए करता है, तब उसके भीतर किसी प्रकार की हिंसा का भाव नहीं होता | वह तो अपनी भूख मिटाने के लिए यह सब कर रहा होता है | क्षुधा की तृप्ति के लिए शेर के सामने चाहे मृग आये अथवा भैंस; उसको तो वह केवल आहार नज़र आता है |  एक बार शिकार कर लेने के पश्चात चाहे उसके सामने मृग आये अथवा कोई अन्य जानवर, उसके भीतर इस प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं होती कि वह उसका शिकार करे | ‘बुभुक्षितः किम् न करोति पापम्”, यह उक्ति यही स्पष्ट करती है कि भूखा प्राणी अपनी क्षुधा शांत करने के लिए किसी भी प्रकार का पाप (हिंसा) कर सकता है |

                    अभी तक आहार के सम्बन्ध में हमने चर्चा की वह तो हुई मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की बात | मनुष्य इन सब प्राणियों से अलग है | वह बुद्धिमान और विवेकी है |एक मनुष्य के अनुसार आहार प्राप्ति के लिए की जाने वाली हिंसा भी दो प्रकार की होती है | एक जीव को स्वयं की क्षुधा शांत करने के लिए आहार बनाना पहली प्रकार की हिंसा है | दूसरे प्रकार की हिंसा है स्वयं की भूख मिटाने के लिए येन केन प्रकारेण किसी दूसरे से आहार को छीनने का प्रयास करना | पहली प्रकार की हिंसा में एक जीव दूसरे जीव को मारकर उससे अपनी भूख मिटाता है जबकि दूसरे प्रकार की हिंसा में वह प्राणी किसी दूसरे प्राणी से उसका आहार छीनने का प्रयास करता है | इस प्रकार छीनने के प्रयास में एक प्राणी अपराधी (Accused)  बन जाता है और दूसरा प्राणी पीड़ित (Victim) हो जाता है, जबकि इसके विपरीत पहली प्रकार की हिंसा में न कोई अपराधी होता है और न ही कोई पीड़ित |

            इस प्रकार हम विवेकवान मनुष्य समझ सकते हैं कि किसी एक जीव का दूसरे जीव को आहार बनाना उसके लिए हिंसा नहीं है बल्कि हिंसा होती है किसी दूसरे के आहार को स्वयं की उदर पूर्ति के लिए छीनने का प्रयास करना | हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि एक के अधिकार को छीनने का प्रयास जो कोई भी करता है, उसको रोकने का प्रयास करना | महाभारत में भगवान श्री कृष्ण यही तो बात अर्जुन को कह रहे हैं | पांडवों का अधिकार कौरवों ने छीन लिया था जो कि अनुचित था | इसी कारण से भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों को पुनः अपना अधिकार प्राप्त कर लेने के लिए अंतिम विकल्प के रूप में युद्ध करने का सुझाव दिया था |

                   दूसरे का आहार छीन लेने का एक सटीक उदाहरण प्रस्तुत है | एक बार एक चील को एक मरा हुआ चूहा दिखलाई पड़ गया | वह भूख से बुरी तरह तड़प रही थी | उसने उस मरे हुए चूहे को अपने पंजों में जकड़ा और आकाश की अनंत ऊँचाइयों की तरफ उड़ चली | वह तलाश में थी एक ऐसे स्थान की, जहाँ शांति के साथ बैठ कर वह उस चूहे को उदरस्थ कर सके | परन्तु दुर्भाग्य, कुछ चीलों ने उसे चूहा ले जाते हुए देख लिया | अब तो सभी चीलें उसके पीछे पड़ गयी | एक-एक कर प्रत्येक चील उस अकेली चील को अपनी नुकीली चोंच और पंजों से आक्रमण कर घायल कर रही थी | जिस चील के पंजों में मरा हुआ चूहा था वह समझ ही नहीं पा रही थी कि आज अचानक ही अन्य सभी चीलें उसकी दुश्मन क्यों बन गयी है ? उस चील ने अपने जीवन में आज तक इस प्रकार के किसी संघर्ष का सामना नहीं किया था और आज अनायास ही उसके समक्ष ऐसी परिस्थिति बन गयी थी | वह समझ ही नहीं पा रही थी कि आखिर उसके साथ ऐसा हो क्यों रहा है ?

                   इसी संघर्ष में आखिर उस चील के पंजों से वह चूहा छूट गया | चूहे के छूटते ही अन्य चीलों ने भी उस चील पर आक्रमण करना छोड़ दिया | घायल चील संघर्ष करते-करते थक गयी थी | वैसे वह पहले से ही भूख से निढाल हो रही थी | थककर वह एक पेड़ की चोटी पर बैठ गयी और विचार करने लगी कि आखिर अन्य चीलों ने उस पर आक्रमण क्यों किया था ? वह तो केवल अपना आहार ही तो ले जा रही थी, उसने किसी का कुछ बुरा तो नहीं किया था | उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उससे कहाँ और क्या भूल हुई जिसके कारण वह इस प्रकार हिंसा का शिकार बनी ?

          थकी-हारी उस चील की दृष्टि अन्य चीलों पर गयी जो कुछ समय पहले तक उसके साथ संघर्ष कर रही थी | उसने देखा कि अब वे सभी चीलें उस मरे हुए चूहे को पाने के लिए एक दूसरे से संघर्ष कर रही थी | सभी चीलें सबसे पहले उस चूहे तक पहुँचने के लिए एक दूसरे का रास्ता रोक रही थी | उनके मध्य बड़ी ही रोचक प्रतिस्पर्धा चल रही थी | थोड़े से चिंतन से ही उस चील को स्वयं के विरुद्ध हुयी उस हिंसा का उत्तर मिल गया | वह समझ गयी कि उसके विरुद्ध अन्य चीलों के हिंसक होने का एक मात्र कारण वह मरा हुआ चूहा था | चूहे के छूटते ही उसके विरुद्ध होने वाली हिंसा भी छूट गयी थी | अब उसको एक दम स्पष्ट हो गया था कि उसके विरुद्ध हो रही हिंसा का कारण था, वह मरा हुआ चूहा और उससे मिट सकने वाली भूख |

         भूख नहीं होती तो हिंसा भी नहीं होती | कहने का अर्थ है कि भूख हिंसा को जन्म देती है | किसी से आहार छीन लेने के लिए हिंसा अथवा शिकार कर आहार पाने के लिए हिंसा | दोनों ही प्रकार की हिंसा के मूल में भूख ही है | इस दृष्टान्त से मूल बात यह निकल कर हमारे सामने आती है कि हिंसा का आधार भूख है | भूख का आधार है बिना आहार के जीवन के नष्ट हो जाने का भय क्योंकि बिना आहार के जीवन जीना असंभव है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि भय का आधार हिंसा है | अतः परोक्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि भय की जननी भूख है | 

             अभी तक हमने अन्य प्राणियों की बात की है, परन्तु क्या मनुष्य के साथ भी ऐसा ही होता है ? क्या मनुष्य भी भूख शांत करने के लिए हिंसक हो सकता है ? भूख क्या सिर्फ और सिर्फ भोजन मिलने मात्र से ही मिट जाती है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर हम सभी जानते हैं | प्रथम प्रश्न का उत्तर है, हाँ, मनुष्य भी अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं है | दूसरे प्रश्न का उत्तर है, मनुष्य भी भूख को शांत करने के लिए हिंसक हो सकता है | तीसरे और अंतिम प्रश्न का उत्तर है कि सभी प्राणियों में पेट की भूख तो आहार मिलने से मिट जाती है परन्तु मनुष्य की भूख केवल आहार की नहीं होती बल्कि अन्य कई प्रकार की होती है, जो सब कुछ प्राप्त हो जाने के बाद भी मिट नहीं पाती | अतः सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य ही सभी जीवों में एक मात्र जीव ऐसा है, जिसकी भूख भोजन पाकर भी शांत नहीं होती | यही कारण है कि मनुष्य जीवन भर भय से मुक्त नहीं हो पाता |

                 मनुष्य के अतिरिक्त कोई अन्य प्राणी इस भय से मुक्त होने का विचार नहीं कर सकता | वह सदैव भयग्रस्त ही बना रहता है | मनुष्य ऐसे किसी भी प्रकार के भय से मुक्त होने की मन में इच्छाएं (Desires) पैदा करता है | वह भय से मुक्त होने के लिए मन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ लिए भोग सामग्री को एकत्रित (संग्रह) करने में लग जाता है | उसके द्वारा इस प्रकार भोग-सामग्री को संग्रह करने का कारण बनता है, अब तक उसको जो कुछ भी मिला है, उसको अपर्याप्त मानना अर्थात सदैव एक प्रकार के अभाव में जीना | यह कृत्रिम अभाव फिर से किसी नए भय को उत्पन्न कर देता है |

             इस प्रकार भूख, भय, संग्रह और अभाव का कभी न टूट सकने वाला चक्र (Vicious cycle) बन जाता है, जो व्यक्ति को जीवन में कभी भयमुक्त नहीं होने देता | इस अभाव से उत्पन्न हुए भय के कारण मनुष्य अपने वर्चस्व (Dominancy) को बनाये और व्यक्तित्व (Personality) को बचाये रखने के लिए विभिन्न प्रकार के भोगों में लिप्त होकर संतान उत्पत्ति (Reproduction) में लग जाता है | वह समझता है कि संतान उत्पन्न करने से वह अल्प रूप से ही सही, इस संसार में सदैव के लिए विद्यमान अवश्य ही रह सकेगा | परन्तु क्या केवल यही मार्ग है- भयमुक्त होने का ? ऐसा तो भयमुक्त होने के लिए मनुष्य ही क्या, संसार के सभी प्राणी करते हैं | फिर चर प्राणियों के अंतर्गत आने वाले बुद्धिमान प्राणी मनुष्य और अन्य प्राणियों में अन्तर ही कहां रह जायेगा ? भयमुक्त होने के लिए संतानोत्पति, भोग सामग्री का संग्रह और स्वार्थ पूर्ति के लिए की जाने वाली हिंसा के अतिरिक्त जो मार्ग है, उसी मार्ग को गीता में अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं |

             गीता की सार्थकता तभी है, जब हम भय मुक्त हो जाएँ और इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लें कि हिंसा कब और किस परिस्थिति में आवश्यक हो जाती है ? कहने का अर्थ है कि केवल अपनी भूख मिटाने के लिए की गयी हिंसा भूख और भय दोनों को बढ़ाती ही है, उनसे हमें मुक्त नहीं कर सकती | 

                 सभी चर प्राणी आहार(Feed), निद्रा(Sleep), भय (Fear) और मैथुन (Sex) में लीन है और मनुष्य भी इनसे अलग नहीं है | परन्तु मनुष्य के पास इनसे अलग एक क्षमता औऱ  है, विचार करने की क्षमता। वह इस क्षमता का उपयोग कर भयमुक्त हो सकता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि बिना भयमुक्त हुए और अहंकार को त्यागे बिना मनुष्य के जीवन में शांति नहीं आ सकती | अगर भय और अहंकार का त्याग मनुष्य नहीं कर सकता तो वह जीवन में कभी भी मुक्त नहीं हो सकता | हालाँकि इन दो का त्याग करने के लिए मुक्ति की कामना पैदा करना आवश्यक है परन्तु अंततः मुक्ति के लिए भी मुक्ति की कामना सहित सभी कामनाओं का त्याग करना आवश्यक है |

          भय और अहंकार से मुक्त होने के लिए भगवान ने गीता में तीन मार्ग बताएं हैं,  जिन्हें क्रमशः कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग कहा जाता है | बिना कर्म किये व्यक्ति क्या तो किसी को देगा और क्या किसी से प्राप्त कर सकेगा ? अतः कर्म करने भी आवश्यक है | बिना ज्ञान के मनुष्य अपने होने का उद्देश्य ही नहीं जान पायेगा | अतः व्यक्ति के लिए ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है | बिना भक्ति की भावना के मनुष्य मात्र एक मशीन बन कर रह सकता है, वह केवल एक प्रकार का यांत्रिक जीवन ही जी सकता है, जिस जीवन की कोई उपयोगिता नहीं है | अतः मनुष्य का भावना प्रधान होना भी आवश्यक है | भावना से सम्बंधित भक्ति-योग नाम से भगवान ने इसका वर्णन गीता में किया है |

                      मनुष्य के लिए आहार का अर्थ व्यापक है, इसे केवल पेट की क्षुधा शांत करने से ही न लें | मनुष्य को अपना पेट भरने के अतिरिक्त भी अन्य कई प्रकार के आहार चाहिए क्योंकि उसने अपनी क्षुधा को विस्तार दे दिया है | प्रत्येक इन्द्रिय-भोग की अपनी भूख होती है | जब मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान की प्राप्ति के स्थान पर केवल विषय-भोग की प्राप्ति की ओर लगा देता है, तब उसकी भूख का विस्तार पेट के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी हो जाता है |

         इस प्रकार जब मनुष्य में तृष्णा बढ़ती है तब प्रत्येक इन्द्रिय के माध्यम से मिलने वाले आहार की आवश्यकता भी बढ़ जाती है | जीवन में किसी न किसी की आवश्यकता बने रहने का नाम ही अभाव है | आज के इस भौतिक युग में समस्या यह है कि हम विलासिता और आवश्यकता में अंतर नहीं कर पा रहे हैं और विलासिता को ही आवश्यकता समझ बैठे हैं | साथ ही यह भी सत्य है कि आज की विलासिता भविष्य में एक दिन आवश्यकता बन ही जाती है | विलासिता ही अभाव को जन्म देती है जो सभी प्रकार का आहार पाकर भी तृप्त नहीं हो सकती | इस प्रकार असंतुष्टि का भाव जीवन में दुःख उत्पन्न करता है | इसीलिए गीता हमें अपनी आवश्यकताएं सीमित रखने को कहती है, जिससे मन में किसी प्रकार की निरर्थक कामनाओं का जन्म ही न हो |

            श्रीमद्भगवद्गीता में आहार और शयन के बारे में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते है कि –

         युक्ताहारविहारस्य  युक्तचेष्टस्य कर्मसु |

         युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||गीता-6/17||

        भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि दुखों का नाश करने वाला योग तो उचित आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने-जागने वाले का ही सिद्ध होता है |

                  दुःख का कारण है- भय | भय मनुष्य को सदैव दुःखी बनाये रखता है | मनुष्य को अगर कभी सुख की प्राप्ति हो भी जाती है तो वह थोड़े समय बाद उस सुख को अपर्याप्त मानते हुए दुःखी हो जाता है | अभाव सभी प्रकार के भय का जनक है और भय दुःख का प्रमुख कारण है | अगर हम आहार केवल अपने प्राण की रक्षा के लिए करते हैं तब तो वह निश्चित ही उपलब्ध होगा |

          हमें इस संसार में जन्म देने से पहले ही परमात्मा ने हमारे प्राणों की रक्षा करने के लिए हमारे लिए उचित आहार की व्यवस्था कर रखी है | जब कोई स्त्री गर्भधारण करती है, तब गर्भ की प्रारम्भिक अवस्था में ही उसके स्तनों का विकास दूध-स्राव के लिए होना प्रारम्भ हो जाता है जिससे नौ माह बाद पैदा होने वाले शिशु को तत्काल ही उचित आहार मिल सके |

           इस संसार में केवल मनुष्य नाम का ही एक प्राणी है, जो आहार के अतिरिक्त पैदा की हुयी क्षुधा को शांत करने के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं, भविष्य के न देखे जा सकने वाले हजारों वर्षों की व्यवस्था करने में लगे हुए हैं | हमें आहार चाहिए केवल अपने प्राणों की रक्षा के लिए और प्राण चाहिए इस शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए | स्वस्थ शरीर चाहिए तत्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए, आत्म-बोध के लिए | अतः हमारे जीवन का उद्देश्य केवल मात्र एक आत्म-बोध का ही होना चाहिए, केवल आहार प्राप्त करते रहने का नहीं |

      इसी बात को योगवासिष्ठ में वसिष्ठ मुनि भगवान श्री राम को उपदेश देते हुए स्पष्ट कर रहे हैं –

             अन्न्नाहार्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं कुर्यादाहारं प्राणसंधारणार्थम् |

       प्राणा संधार्यास्तत्वजिज्ञासनार्थं तत्त्वं जिज्ञास्यं यें भूयो न दुःखम् ||नि.प्र.उ.21/10||

              अर्थात मनुष्य को चाहिए कि इस संसार में आहार की प्राप्ति के लिए शास्त्रानुकूल अनिंद्य कर्म करे | आहार भी उतना ही करे, जितने से प्राणों की रक्षा हो सके | प्राण रक्षा भी तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही करे | तत्त्व-ज्ञान की इच्छा सब के लिए अत्यंत आवश्यक है, जिससे फिर से जन्म-मरण आदि दुखों की प्राप्ति न हो | 

              आत्म-ज्ञान प्राप्त करके ही अभय हुआ जा सकता है | भय से मुक्ति ही व्यक्ति को शांति उपलब्ध करवा सकती है | कहने का अर्थ है कि मनुष्य को ज्ञान अभय करता है जबकि अज्ञान भय और दुःख प्रदान करता है | परन्तु ज्ञान प्राप्ति की मुमुक्षा है कहाँ ? आधुनिकता के नक्कारखाने में ज्ञान के शब्द तूती की आवाज़ बनकर दबते जा रहे हैं | इसलिए आधुनिकता को प्रभावहीन करते हुए ज्ञान प्राप्त करने की भूख जगानी होगी | ज्ञान प्राप्ति की भी एक प्रकार की भूख होती है परन्तु यह भूख भोजन से नहीं मिटती बल्कि भजन से मिटती है | ज्ञान की भूख-प्यास को मिटाने के लिए मनुष्य में लगन का होना आवश्यक है |

           ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि परमात्मा-प्राप्ति के लिए व्यक्ति में लगन का होना सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है | वे कहा करते थे कि अगर आपमें लगन (Devotion) है, परमात्मा-प्राप्ति की उत्कृष्ट इच्छा है तो फिर परमात्मा आपको प्राप्त होकर ही रहेंगे | ये संत भी कभी-कभी बड़ी विलक्षण (Remarkable) बातें कह जाते हैं | कभी-कभी कोई ऐसी बात कह जाते हैं कि हमारे जैसे साधारण व्यक्ति सोच में पड़ जाते हैं कि उनके कहने का मंतव्य क्या है ? अपने प्रातःकालीन उद्बोधन में हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा सदैव ही संत-वाणी के अंतर्गत स्वामी जी के प्रवचनों का विवेचन करते हुए उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं | उस समय तो हमें वह बात स्पष्ट हो जाती है परन्तु कुछ समय बाद स्मृति से बाहर हो जाती है । 

                एक ओर तो स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि लगन हो तो परमात्मा भी मिल सकते हैं और दूसरी और वे ही संत कहते हैं कि परमात्मा खोए कहाँ है, जो मिल जायेंगे ? वे तो पहले से ही मिले हुए है | जब सुनते हैं तो लगता है कि दोनों बातों में बहुत विरोधाभास हैं | नहीं, विरोधाभास बिलकुल भी नहीं है | ‘परमात्मा मिल सकते हैं’, यह कहना हमारी उस अवस्था को प्रदर्शित करता है जब हमें ज्ञान नहीं हुआ है और हम आत्म-ज्ञान के लिए प्रयास कर रहे हैं | ‘परमात्मा खोए कब हैं, वे तो पहले से ही मिले हुए हैं’, इस कथन का अर्थ है कि परमात्मा हमारे भीतर ही हैं | आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाने के बाद ही हमें आभास होता है कि जिसके मिलने के लिए हम प्रयास कर रहे थे वे तो पहले से ही मिले हुए हैं |

         पहली अवस्था उस कृष्ण-मृग की अवस्था है, जो स्वयं की नाभि में ही स्थित कस्तूरी को बाहर जंगल में घास को सूंघ-सूंघ कर ढूंढ रहा है और उसे वह नहीं मिल रही है | दूसरी अवस्था में बाहर की खोज बंद कर दी जाती है और विश्राम की अवस्था को प्राप्त कर लिया जाता है | विश्राम की अवस्था का नाम ही आत्म-ज्ञान है, जहाँ पहुंचकर व्यक्ति को अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते है, उसके मन में कोई प्रश्न शेष नहीं रहता | उसे भली-भांति अनुभव हो जाता है कि जिसको वह बाहर ढूंढ रहा था वह तो उसके भीतर पहले से ही मौजूद है, केवल स्वयं के भीतर ही नहीं सब जगह उपस्थित है, सार्वभौमिक है, सर्वदेशीय है | उसमें और परमात्मा में कोई भिन्नता है ही नहीं , फिर कौन तो ढूंढें और किसको ढूंढें ?

              आत्म-ज्ञान की स्थिति में व्यक्ति स्वयं के होने की स्मृति को पुनः प्राप्त कर लेता है | मोह वश वह अपनी स्मृति खो बैठा है, इतने दिनों तक स्वयं को एक शरीर मान बैठा था परंतु मोह के नष्ट होते ही स्मृति प्राप्त कर वह अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है | केवल प्रश्न यही है कि वह इस बात को अपनी स्मृति में कब तक और कैसे बनाये रखे ?

           शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए आहार की आवश्यकता होती है | आहार को प्राप्त करने लिए कर्म करने आवश्यक है (कर्म-योग), तत्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है (ज्ञान-योग) और अहिंसक बनने के लिए हमारा भावना-प्रधान (भक्ति-योग) होना आवश्यक है | तीनों योग मिलकर ही हमें आत्म-बोध को उपलब्ध करा सकते हैं | अकेला एक योग मनुष्य को आत्ममुग्ध बना सकता है | यही कारण है कि केवल ज्ञान व्यक्ति के अहंकार का कारण बनता है और अकेला कर्म व्यक्ति को कर्तापन की ओर ले जाता है | परन्तु भक्ति के साथ ऐसा नहीं है | भक्ति में न तो अहंकार रहता है और न ही कर्तृत्वाभिमान पैदा होता है | भक्ति में अहंकाररहित ज्ञान भी होता हैं और बिना कर्ताभाव के कर्म भी होते रहते हैं |

        श्रीमद्भगवद्गीता में इन तीनों विषयों पर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में सारगर्भित ज्ञान दिया है | हम सब अज्ञान के कारण अपने जीवन में सदैव किसी न किसी बात का अभाव मानकर अभय नहीं हो पा रहे हैं | दुःख का कारण भय है और भय का मूल कारण अज्ञान है | जीवन में गीता की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हम भावना-प्रधान रहते हुए कर्म करें और ज्ञान को भी उपलब्ध हों |        

    इतने लम्बे विवेचन से स्पष्ट है कि गीता-ज्ञान के आधार पर चलें और भगवान् श्री कृष्ण की बातों को जीवन में विस्मृत न होने दें तो जीवन में सभी विकारों से मुक्त होकर निर्भय हुआ जा सकता है | हमारा भयरहित हो जाना ही इस बात की पुष्टि करता है कि हम विकार मुक्त हो गए हैं | अब इस विषय का समापन करते हुए कुछ कड़ियों में इसका उपसंहार करते हैं |

             एक गृहस्थ को अपने जीवन कैसे जीना चाहिए, यह बात हमें गीता से अधिक अच्छे तरीके से कोई अन्य समझा नहीं सकता | हम अपने मन की शुद्धि के लिए न जाने कितने प्रपंच करते रहते हैं | निरुद्देश्य भटकते रहते हैं और जीवन का संध्या-काल आ जाता है और मन की अशांति मिट नहीं पाती | गीता मन को शांत करने का सुगम मार्ग बतलाती है | मनुष्य जीवन में इस भौतिक शरीर से कर्म होंगे ही | सकाम कर्म विकारों के जनक हैं जो विषय-भोगों अर्थात सांसारिक सुख प्राप्त करने की इच्छा से किये जाते हैं | हम अपने जीवन में यह तो इच्छा रखते हैं कि परमात्मा हमें सभी दोषों और विकारों से मुक्त रखे परन्तु कर्म ऐसे करते हैं और इस प्रकार के करते हैं कि विकारों का त्याग न होकर दिन प्रतिदिन उनमें वृद्धि ही होती जाती है | ऐसी स्थिति में हमें अपने कर्मों के स्वरूप के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा | कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन करके ही हम समस्त विकारों से दूर हो सकते हैं | यही कर्म-योग है और इस कर्म-योग को साधने का सर्वोत्तम मार्ग है, भक्ति और ज्ञान | ज्ञान इस बात का सदैव बना रहे कि कर्म हम नहीं करते है बल्कि प्रकृति के गुणों के द्वारा ही होते हैं | जिस दिन हमें इस बात का ज्ञान हो जायेगा तो हम स्वयं को किसी भी कर्म का कर्ता नहीं मानेंगे | कर्ता-भाव रखना ही समस्त विकारों की जड़ है |

                  अब प्रश्न यह है कि हम विकार से मुक्त एक बार तो हो जाते हैं परन्तु वही विकार हमारे भीतर क्यों पुनः प्रवेश पा जाता है ? मोह ही ऐसा विकार है, जो मन के बाहर भीतर होता रहता है | इसका कारण है कि हमें अभी तक कर्म का विज्ञान पूर्ण रूप से समझ में नहीं आया है | जब तक कर्म-विज्ञान पूर्ण रूप से समझ में नहीं आएगा तब तक विकार बार-बार आते जाते रहेंगे | ज्ञान जब आत्मसात नहीं हो सके तो अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर दें | संसार से प्रेम करने के स्थान पर परमात्मा से प्रेम करें | इससे आपका कर्ता-भाव भी समाप्त हो जायेगा और आपको ज्ञान भी प्राप्त हो जायेगा | इसीलिए भक्ति-योग को ज्ञान-योग से श्रेष्ठ बताया गया है | भक्ति योग से आपके भीतर के कामादि सभी विकार चले जायेंगे और आप परम शांति को उपलब्ध हो जायेंगे |

                      गीता-ज्ञान की सार्थकता को मैंने अल्प रूप से समझाने का प्रयास किया है | मैं जानता हूँ कि गीता की सार्थकता को शब्दों के एक निश्चित क्षेत्र में बाँध पाना असंभव है फिर भी एक प्रयास किया है |

            गीता-ज्ञान को अर्जुन पूर्ण रूप से सार्थक नहीं कर सका, यह सत्य है | हम भी तो अर्जुन की तरह ही हैं | हम गीता के प्रति श्रद्धा भाव तो रखते हैं परन्तु उस ज्ञान के अनुसार चलते नहीं है | हमें गीता से ज्ञान मिलता है, कुछ ज्ञान आत्मसात भी करते हैं और साथ ही कुछ संशय ग्रस्त भी रहते हैं | ऐसे में भला गीता-ज्ञान की क्या कमी है ? हम परमात्मा की सेवा, पूजा अर्चना सब कुछ मन लगाकर करते हैं परन्तु उसी परमात्मा के बनाये और बताये हुए सिद्धांतों का अनुगमन करने के प्रति सदैव संशयग्रस्त बने रहते हैं | हमें लगता है कि गीता-ज्ञान अलग बात है, उस ज्ञान के अनुसार इस संसार में रहकर जीवन चलाना मुश्किल है | हमारी सोच ही कुछ इस प्रकार की हो गयी है कि हम मानने लगे हैं कि संसार में रहना केवल संसार के अनुसार चलने से ही संभव है | मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इस बात से | 

            गीता-ज्ञान एक व्यावहारिक ज्ञान है और इसे व्यवहार में लाए जाने से ही आनंद की अनुभूति होगी | हमने इस ज्ञान को अब तक केवल एक किताबी ज्ञान बना रखा है, इस ज्ञान को जीवन में उतारने का प्रयास तक नहीं किया है | अतः सभी प्रकार के संशय छोडिये और इस ज्ञान को एक-एक कर जीवन में उतारना प्रारंभ कीजिये | विज्ञान की पुस्तकों में लिखा है कि प्रत्येक क्रिया के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया अवश्य और उसी अनुपात में होती है | इसी बात को सनातन शास्त्र शताब्दियों से कहते आ रहे हैं कि प्रत्येक कर्म का उसी अनुपात में फल अवश्य प्राप्त होता है | हमारी प्रत्येक क्रिया ही कर्म है | हम शताब्दियों तक इस बात को पढ़ते आये हैं परन्तु व्यवहार में नहीं ला सके | जिस एक व्यक्ति ने इस ज्ञान को भौतिक रूप से व्यवहार में लिया, तो उसने इस ज्ञान का उपयोग करते हुए रॉकेट बना डाला जिसके कारण आज अंतरिक्ष की यात्रा संभव हुई है | इसी ज्ञान का आध्यात्मिक स्तर पर उपयोग किया जाये तो व्यक्ति का कल्याण हो जाये |

              ज्ञान और नाम, दोनों को केवल रटते रहने से कुछ नहीं होने वाला | रटते रहने से ही ज्ञान अगर सार्थक होता तो राम-राम रटते रहने वाला तोता कभी का जीवन-मुक्त हो गया होता | हमें गीता के प्रति श्रद्धा रखने के साथ-साथ उसमें समाहित ज्ञान को जीवन में उतारकर उपयोगी बनाना होगा तभी यह ज्ञान सार्थक सिद्ध होगा | कृषि-भूमि चाहे कितनी ही उपजाऊ हो, उस पर हल चलाने से ही उपज मिल सकती है अन्यथा केवल बैठे –बैठे उस भूमि को निहारते रहिये, उपज मिलने से रही | हम गीता को उपजाऊ भूमि मानते अवश्य हैं परन्तु उसमें समाहित ज्ञान को हल चलाकर उसका दोहन करना नहीं जानते |

          समस्त ज्ञान भी अर्जुन को मुक्त नहीं कर सका, फिर हमें कैसे मुक्त करेगा ? भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कर्म और ज्ञान योग कहने के बाद भक्ति और शरणागति पर जाने से पहले एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है | गीता 7/14 में भगवान ने कहा है कि मेरी यह माया बड़ी दुस्तर है अर्थात मेरी माया को समझना और इससे पार हो जाना बड़ा कठिन है | इस माया के कारण ही हम गीता-ज्ञान को ग्रहण करके भी उसको बार-बार भूल जाते हैं | यह सब उस माया का ही प्रभाव है | अगर हम इस त्रिगुणी माया को भली भांति समझ लें तो तीनों गुणों का उल्लंघन कर गुणातीत हो सकते हैं | अर्जुन भी इस ज्ञान को पाकर सत्व गुण की अवस्था तक पहुँच गया था परन्तु गुणातीत नहीं हो सका क्योंकि वह परमात्मा के साथ रहते हुए भी उसकी इस माया से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया था | वह कुछ समय के लिए माया-जाल से निकलता और कुछ समय बाद पुनः उसी माया में उलझ जाता | उसके साथ ऐसा क्यों हुआ ? कारण- मोह और अहंकार | मोह, परिवार का, अहंकार अपने आपको कर्ता मानने का | यह दो विकार ही हमें अर्जुन की तरह बार-बार गीता-ज्ञान से दूर ले जाते हैं और पुनः सांसारिक मोह-माया में उलझा देते हैं |

         मोह आदि विकार चला जाता है परन्तु पुनः लौट आता है, ऐसे में क्या करना चाहिए जिससे कि विकार वापिस नहीं आये ? अगर बाहर किया हुआ विकार वापिस लौट आता है इसका एक ही अर्थ है कि विकार का त्याग मन से नहीं किया गया था बल्कि यह एक सम सामयिक किया गया त्याग था, जिसे साधारण भाषा में मसानिया वैराग (किसी मृतक की अंत्येष्टि में जाने से उत्पन्न हुआ वैराग्य ) कहा जाता है | जीवन में विषम परिस्थितियां बन जाने पर हम एक बार उस विकार को त्याग तो देते है परन्तु बार-बार विषय-चिंतन से वह विकार पुनः लौट आता है | विकारों के इस आवागमन को रोकने का एक मात्र उपाय है, समस्त विषयों के प्रति अनासक्त हो जाना | विषय-भोग उपलब्ध हुए तो अच्छा, नहीं मिल पाए तो भी ठीक | न विषयों के प्रति आसक्ति और न ही इनसे विरक्ति | ऐसे में अनासक्त रहकर जीना ही एक मात्र उपाय है, विकारों को नियंत्रित करने के लिए |

                      विकारों के शरीर में प्रवेश करने से रोकने के भी वही तीन मार्ग-कर्म, ज्ञान और भक्ति | कर्म हमारे भीतर कर्तापन पैदा कर सकता है यानि मोह (अज्ञान) और अहंकार स्वयं के कर्ता होने का | ज्ञान अहंकार ला सकता है, स्वयं के ज्ञानी हो जाने का | शेष रहा एक- भक्ति-मार्ग | इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के सामने विकार ग्रस्त होने के कम अवसर हैं, हालाँकि इसमें भी व्यक्ति कभी–कभी संशय ग्रस्त हो सकता है | इसीलिए गीता के अंतिम और समापन चरण में संशयग्रस्त अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण सब कुछ छोड़-छाड़ कर शरणागत होने का कह देते हैं –‘सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’| अतः सरलतम उपाय हुआ, शरणागति | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा शरणागति पर एक भजन सुनाया करते हैं – ‘नाथ थार शरण आयो जी, जच जिस तरह खेल खिलाओ, थे मन चाह्यो जी, नाथ मैं शरण आयो जी .......|'  शरणागत हो जाने से कोई भी विकार भीतर रह ही नहीं सकता और न ही उसके पुनः लौट आने का खतरा रहता है | शरणागति अर्थात न तो कुछ करने का राग, न कुछ जान लेने का अहंकार और न ही परमात्मा के बारे में किसी प्रकार का संशय | कर्म आपको रजस में भटका सकते हैं, ज्ञान राजसिक गुणों से सात्विक गुणों की ओर ले जाता है, भक्ति सत्व गुणों से भरकर आपको सात्विक गुणों के उच्चत्तम स्तर पर पहुंचा सकती है परन्तु शरणागति आपको सभी गुणों से परे ले जाकर गुणातीत कर सकती है | इस प्रकार शरणागति सर्वश्रेष्ठ हुई, तभी तो मीरा भी बोल उठी थी -‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ...|’

                     कहने का अर्थ है कि हमें परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा-भाव रखना होगा और समर्पण के साथ अनन्य भक्त बनना पड़ेगा | किसी भी प्रकार का संशय मन में न रखते हुए शरणागत हो जाएँ | कर्म करना छोड़ना नहीं है बल्कि उनमें सुधार करते हुए नैष्कर्म्यता को अपनाना होगा | किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनना है | ज्ञान-योग यही बात तो कहता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं | गुणों में सुधार करते हुए उनके अनुसार कर्म करते रहना ही कर्म-योग है | सद्गुणों से किये जाने वाले कर्म ही निष्काम-कर्म हैं | माया का अर्थ है भ्रम | भ्रम इस बात का कि मैं कर्म करता हूँ जबकि सत्य बात यह है कि हम कर्म करते नहीं हैं बल्कि हमारे माध्यम से कर्म होते हैं | पुत्र हमारा नहीं है, बल्कि हमारे माध्यम से इस संसार में उसका आगमन हुआ है | इस बात को हम स्वीकार करें तो पुत्र में मोह पैदा नहीं होगा, परिवार में मोह पैदा नहीं होगा | भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट रूप से कह दिया था कि इस युद्ध में खड़े सभी योद्धाओं का मरना मेरे द्वारा पहले ही निश्चित किया जा चूका है, तू तो इनको मारने का केवल निमित्त मात्र  बन जा | हुआ भी वही, जो श्री कृष्ण ने कहा था परन्तु अर्जुन ने स्वयं को निमित्त मात्र माना ही कहाँ था ? वह तो महाभारत युद्ध के उपरांत श्री कृष्ण द्वारा दिया गया समस्त ज्ञान भूलकर उन योद्धाओं को मारने के लिए स्वयं को कर्ता मान बैठा था | यही अर्जुन का अहंकार था और हम भी अपने जीवन में ऐसे एक नहीं अनेकों अहंकार पाले हुए बैठे हैं |

               हम भोजन करते हैं और भोजन पचाने की क्रिया हमारे उदर में स्वतः होती है | क्या हम कह सकते हैं कि किये गए इस भोजन को मैं पचा रहा हूँ ? नहीं कह सकते क्योंकि भोजन स्वतः ही प्रकृति प्रदत्त गुणों के कारण पचता है | हम केवल इतना कह सकते हैं कि मेरी पाचन शक्ति अच्छी/ख़राब है | इसी प्रकार जब हमारा विवाह हो जाता है, पत्नी आ जाती है और फिर पुत्र पैदा हो जाता है तब उनमें मोह हो जाता है और कहने लग जाते हैं-यह मेरी पत्नी/पुत्र है । क्यों कहते हैं ? व्यवहारिक दृष्टि से तो कह सकते हैं परंतु मोहवश नहीं कहना चाहिए | हम किसी भी कर्म को करने के लिए केवल एक माध्यम मात्र हैं, कर्ता नहीं हैं |

         गोस्वामीजी मानस में कहते हैं –

मैं अरु मोर तोर तैं माया | 

जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया ||

गो गोचर जहँ लगि मन जाई |

 सो सब माया जानेहु भाई ||

                           (अरण्यकाण्ड -15/2-3)

भगवान राम अपने अनुज लक्ष्मण को कह रहे हैं कि मैं और मेरा, तूं और तेरा – यही माया है; जिसने सभी जीवों को अपने वश में कर रखा है | इन्द्रियों के विषय और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई ! उस सबको माया जानना |

                  इस माया को जान लेने और फिर उसी अनुसार अपने जीवन को बना लेने से ही हम गीता-ज्ञान को सार्थक कर पाएंगे अन्यथा आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो पाएंगे | माया के कारण ही हमारी कभी श्रद्धा बढ़ती है और कभी दुष्टता; कभी हम ज्ञान को मानने लगते हैं, फिर उसी ज्ञान पर संशय भी करने लगते है | हमारी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसी एक धोबी के कुत्ते की होती है | आया के साथ आया, गए के साथ गया | ऐसे में यह आवागमन कैसे मिटे ? माया भगवान ने बनाई ही हमें उलझाने के लिए है | अगर हम सभी माया का उल्लंघन कर जाये तो फिर यह संसार कैसे अनवरत रूप से चलेगा ? इस माया में हम स्वयं ही जानबूझकर उलझते हैं | एक मृग को जब दोपहर में प्यास लगती हैं तब वह मृग-तृष्णा को देखकर दूर कहीं पानी होना समझकर उस और दौड़ पड़ता है परन्तु वहां पहुँचने पर उसे पानी मिलता नहीं है | जल के होने का भ्रम तो कहीं और आगे बढ़ चूका होता है | इस प्रकार का भ्रम ही तो व्यक्ति को इधर से उधर, उधर से इधर दौड़ता रहता है | यह माया ही मृग-तृष्णा है | हमें सब कुछ अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर लेने का भ्रम होता है और इस प्रकार हम किसी न किसी को और कुछ न कुछ पाने के लिए जीवन भर दौड़ते रहते हैं | 

            एक जीवन, फिर दूसरा जीवन, ऐसे ही न जाने कितने जीवन, अनंत जीवन | फिर भी प्यास कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जाती है | इस अनंत यात्रा में हम उलझते जाते हैं परन्तु हमें प्राप्त कुछ भी नहीं होता | जिस दिन हम इस माया को पूर्णरूप से समझ जायेंगे फिर इसमें नहीं उलझेंगे | हमारी दौड़ भी थम जाएगी |

                माया को समझकर सभी विकारों से हम स्वयं को मुक्त रख सकते हैं | विकार-मुक्त जीवन ही आनंददायक होता है | शेष सभी सुख-दुःख केवल भ्रम जाल हैं, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हमें गीता-ज्ञान के अनुसार स्वयं को ही बदलना होगा तभी इस ज्ञान की सार्थकता होगी |

                 प्रश्न यह उठता है कि भगवान ने यह माया फिर बनाई ही किस लिए ? अगर माया नहीं होती तो यह संसार अस्तित्व ही नहीं लेता | अगर माया को समझकर सभी व्यक्ति इससे पार चले जाते तो फिर अब तक यह संसार कभी का समाप्त हो चूका होता | माया उस परम पिता ने बनाई ही इसलिए है कि वह देखना चाहता है कि कौन इस माया को समझकर इसमें उलझने से बच जाता है ? माया में उलझने से बचने का अर्थ है, मायातीत हो जाना जो कि साक्षात् परमात्मा हैं | पूरे एक वर्ष तक हम एक कक्षा में अध्ययन रत रहते हैं | वर्ष के अंत में एक परीक्षा होती है, जिसमें प्रश्न पत्र के माध्यम से कई प्रश्न पूछे जाते हैं | जो इन सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर दे देता है, वह विद्यार्थी सर्वोत्तम सिद्ध होता है | वह परीक्षक के द्वारा पूछे जाने वाले घुमावदार प्रश्नों के जाल में नहीं उलझता बल्कि उन प्रश्नों को समझकर उनका उत्तर देकर उनसे बाहर निकल जाता है | यह माया भी ऐसे ही घुमावदार उलझाने वाले प्रश्नों की तरह एक प्रश्न-पत्र है | हमें इसको समझकर इस भौतिक जगत में अपनी भूमिका निभाते हुए इस माया रुपी संसार के पार चले जाना है |

                आपको सदैव अपने भीतर जन्म ले रहे विकारों पर पैनी दृष्टि रखनी होगी | क्रोध आता है, तो क्रोध को ध्यान से देखें | पता लगाओ कि क्रोध किस कामना के पूरा न होने से आया है | उस कामना का विश्लेषण करो कि क्या आपकी यह कामना शुभ थी अथवा अशुभ | अशुभ कामना है तो भविष्य में ऐसी कामना  करें ही नहीं और शुभ कामना है तो यह समझें कि जिस व्यक्ति पर क्रोध आया है, वह आपकी शुभ कामना को सही रूप से समझ नहीं पाया है | इस क्रोध से आपका ही नुकसान हो रहा है, सामने वाले का नहीं | इस प्रकार के क्रोध को करने से क्या लाभ ? धीरे-धीरे आप देखेंगे कि आपका क्रोध कम हो रहा है, उसकी आवृति और तीव्रता दोनों ही कम होती जा रही है | कामनाओं पर भी नियंत्रण स्थापित होता जा रहा है | इस प्रक्रिया के सतत चलते रहने से धीरे-धीरे दूसरे दोष और विकारों से भी आप मुक्त होते चले जायेंगे | प्रारम्भ में कुछ असुविधा हो सकती है, परन्तु धैर्य के साथ ऐसा करते रहेंगे तो विकारों से दूर रहने में सफलता मिलने लगेगी | इस प्रकार आप अपनी स्वयं की प्रगति का आकलन कर सकते हैं |

               हम भी गीता से ज्ञान प्राप्त कर कह सकते हैं-‘करिष्ये वचनं तव’ परन्तु मात्र इस प्रकार कहने का कोई अर्थ नहीं है जब तक गीता के अनुसार किया नहीं जाये | अर्जुन ने भी ये शब्द तभी कहे थे जब कर्म, ज्ञान और भक्ति पर लम्बा चौड़ा व्याख्यान देने के बाद भी अर्जुन के प्रश्न समाप्त नहीं हो रहे थे | अंततः भगवान् को कहना पड़ा – ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ अर्थात तू इतना सब छोड़ केवल मेरी शरण में आ जा | कर्म और ज्ञान को समझना और उनकी अनुपालना करना बड़ा ही मुश्किल कार्य प्रतीत होता है | भक्ति में हम लोग क्रिया से आगे नहीं बढ़ पाते हैं, ऐसे में एक परमात्मा की शरण में जाना ही सरल और सर्वोत्तम मार्ग रह जाता है | परन्तु वह शरण उसी प्रकार की होनी चाहिए जैसी मीरा ने ली थी, तुलसी ने ली थी, सूर ने ली थी | शरणागति से ही मुक्ति की राह निकलती है और जीवन मुक्त हुआ जा सकता है।

       अंत में मैं बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि मैंने स्वयं के स्तर पर कोई राह नहीं सुझाई है बल्कि विभिन्न धर्म ग्रंथ विशेष रूप से गीता को पढ़कर यह राह जो कुछ मेरे समझ में आई है वह आपके साथ साझा की है | मैं स्वयं अभी भी इस राह पर चलने का प्रयास कर रहा हूँ और मैंने पाया है कि गीता-ज्ञान के आधार पर अगर जीवन जिया जाये तो इन विकारों से धीरे-धीरे मुक्त हुआ जा सकता है और जीवन में आनंद की अनुभूति की जा सकती है | मैं यह तो नहीं कहता कि मैंने उस तत्व को प्राप्त कर लिया है जिसको प्राप्त करने की कामना प्रत्येक कोई इस मार्ग पर चलने वाला करता है परन्तु इतना सत्य अवश्य है कि जीवन में 180 डिग्री (अक्षांश) का परिवर्तन अवश्य ही इस मार्ग पर चलने से आया है |

            हमारे शरीर की परिधि पर स्थित इन्द्रियां बाहर की तरफ विषय प्राप्त करने को दौड़ती रहती है | विषयों के साथ हमारे भीतर विकार प्रवेश करेंगे ही |अध्यात्म की यात्रा में इन इन्द्रियों की दौड़ को पूर्ण रूप से बदलना होता है | इन्द्रियों को विषयों की भूख से मोड़कर आत्म-बोध की भूख की ओर लगाना होगा | परिधि पर स्थित इन्द्रियों की बाह्य दृष्टि को आंतरिक दृष्टि देनी होगी | यह कार्य गीता-के ज्ञान से संभव हो सकता है | ‘करिष्ये वचनं तव’ की पूर्ण रूप से पालना करते हुए ज्ञान को कभी विस्मृत नहीं होने देना है, तभी आत्मा तक पहुंचकर परमात्मा को पा सकेंगे |

            अध्यात्म की राह परमात्मा की राह है और इसका अनुगमन जीवन पर्यंत करने से ही आनंद की अवस्था को उपलब्ध हुआ जा सकता है | इसका अनुपालन करने की मन में दृढ इच्छा होनी चाहिए, फिर जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है | केवल उस एक का आश्रय ही महत्वपूर्ण है फिर किसी अन्य का आश्रय लेने की आवश्यकता ही नहीं है।"करिष्ये वचनं तव" तभी सिद्ध होगा,जब हम करना,जानना छोड़ एक परमात्मा को मानते हुए पूर्ण रूप से श्रद्धा रखते हुए उसके प्रति समर्पित हों ।स्वीकर करें -"अब तो केवल उस एक की ही शरण ....... अन्य कुछ भी नहीं |"

     इसी के साथ यह महत्वपूर्ण श्रृंखला समाप्त करने की आज्ञा चाहूँगा | 

|| हरिः शरणम् ||

प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल 


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