Tuesday, May 3, 2022

करिष्ये वचनं तव -31से60

 करिष्ये वचनं तव-31से60

                अर्जुन को मोह और मद, ये दो विकार ही ले डूबे | भगवान श्री कृष्ण जैसे गुरु भी उसे इन दो प्रमुख विकारों से मुक्ति नहीं दिला सके | इधर हम है, जो इन दो ही नहीं बल्कि समस्त विकारों के साथ जीवन की गाड़ी को खेचे चले जा रहे हैं | ऐसे में हमारा भविष्य कैसा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है | अर्जुन के दो विकार उसे बैकुण्ठ ही नहीं, सीधे स्वर्ग तक को भी उपलब्ध नहीं करा सके, स्वर्ग से पहले उन्हें कुछ दिनों के लिए नरक में जाना ही पड़ा था | अर्जुन के लिए बैकुण्ठ तो दिवास्वप्न ही बना रहा | हम इस देह को त्यागने के बाद कहाँ होंगे, इस बात की तो बस केवल कल्पना ही की जा सकती है |

            महाभारत युद्ध से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि मनुष्य को चाहे परमात्मा से ही ज्ञान क्यों न मिल जाये, उसके लिए उस ज्ञान को जीवन भर स्मृति में बनाये रखना आवश्यक है | अगर क्षण भर के लिए भी ज्ञान को विस्मृत किया तो मनुष्य किसी भी विकार से ग्रस्त हो सकता है | इन विकारों में से किसी भी एक विकार के प्रवेश करते ही शेष सभी विकार मनुष्य में एक-एक कर आ ही जायेंगे | इसीलिए आध्यात्मिक जीवन को सावधानीपूर्वक जीना पड़ता है | ‘महाभारत’ में जब कुरुक्षेत्र-युद्ध के बाद श्री कृष्ण द्वारिका जा रहे होते हैं तब अर्जुन उनसे गीता-ज्ञान को एक बार फिर से दोहराने को कहते हैं |

          उसी ज्ञान को दोहराने के लिए कहने का अर्थ है कि अर्जुन कुरुक्षेत्र में दिए गए ज्ञान को विस्मृत कर चूका है | ज्ञान विस्मृत विपरीत परिस्थितियों में तो हो जाता है परन्तु अर्जुन के तो महाभारत के उपरांत सभी परिस्थितियां अनुकूल थी | ऐसे में ज्ञान के विस्मृत हो जाने का कारण क्या रहा होगा ?

      भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका लौटने के लिए राजमहल से निकलने की तैयारी कर रहे हैं तभी अर्जुन भगवान् को वही ज्ञान पुनः कहने का कह रहे हैं -

यत्तु तद्भवता प्रोक्तं तदा केशव सौहृदात् |

तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र नष्टं में नष्टचेतसः ||अनुगीता–1/6||

अर्जुन कह रहे हैं कि हे पुरुषव्याघ्र ! जो उस समय आपके द्वारा बताया गया था वह सब मुझ नष्टचित्त का नष्ट हो गया है |

              तब भगवान् कहते हैं कि हे पार्थ ! मेरे द्वारा तुम्हें रहस्यात्मक बात सुनायी गयी थी,सनातन तत्व के बारे में भी बताया था, धर्म का स्वरुप और सभी शाश्वत लोकों के बारे में भी बताया था | हे पाण्डव ! तुमने उस समय सम्पूर्ण रूप से बुद्धिहीन होकर नहीं सुना, वह मेरे लिए अत्यंत अप्रिय है | अब आज उस ज्ञान को दुबारा याद करना मेरे लिए भी संभव नहीं है | कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर दिया वह ज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्म को जानने के लिए पर्याप्त था | उसे पूरी तरह दोहरा पाना अब मेरे लिए संभव नहीं है क्योंकि अब परिस्थितियां बदल गई है |

नूनम श्रद्धानोSसि दुर्मेधा ह्यासि पाण्डव |

न च शक्यं पुनर्वक्तुमशेषेण धनंजय || अ.गी.-1/11||

            निश्चय ही तुम श्रद्धाहीन हो और मूढ़ भी | हे धनञ्जय ! मैं तुम्हें अब पूरी तरह से दुबारा न बता पाउँगा |

        इससे स्पष्ट है कि अर्जुन युद्ध की परिस्थिति में तो अपने मित्र को गुरु मान रहा था परन्तु उस समय उसमें गुरु के प्रति श्रद्धाभाव स्थाई रूप से नहीं बन पाया था | जिस मनुष्य की गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और समर्पण नहीं होता, उसका ज्ञान विस्मृत हो सकता है |

            उसी ज्ञान को दोहराने का अर्जुन द्वारा आग्रह होने पर भगवान श्री कृष्ण व्यथित हो जाते हैं, फिर भी वे एक बार अर्जुन को वही ज्ञान दुबारा देते हैं | इस ज्ञान के संकलन को ‘अनु-गीता’ कहा जाता है | अनु-गीता में भक्ति-योग को नहीं कहा गया है | ज्ञान और कर्म-योग को पुनः कहा गया है | इसका पहला कारण है कि अर्जुन अब युद्ध की मानसिकता से पूर्णतया बाहर निकल आया है और संसार में रम गया है | ऐसे में उसको अधिक आवश्यकता कर्म-योग और ज्ञान-योग की है | दूसरा कारण है कि कर्म और ज्ञान के अंतर्गत भक्ति-योग भी आ जाता है | अतः भगवान ने उसे अब भक्ति-योग के स्थान पर कर्म और ज्ञान पर निर्देश देना अधिक उचित समझा, जिससे कि वह पुनः सांसारिक विकारों में न फंस पाए |

        मनुष्य कितना ही सात्विक प्रवृति वाला हो, कब उसके भीतर तामसिक अथवा राजसिक गुण प्रभावशाली हो सकता है, कहा नहीं जा सकता | इसलिए मनुष्य को समस्त जीवन में सावधान रहना पड़ता है क्योंकि इस संसार में फिसलकर पतित होने के बहुत से आकर्षण है | जब तक अपने लक्ष्य तक पहुँच नहीं जाएँ तब तक सावधान बने रहने की आवश्यकता है | लक्ष्य तक सकुशल पहुँचना तभी माना जायेगा जब हमारे सभी प्रारब्ध समाप्त हो जायेंगे | प्रारब्ध समाप्त होते ही यह शरीर भी गिर जायेगा और नए शरीर की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी | कहने का तात्पर्य है कि जब तक यह भौतिक शरीर है तब तक हमें सावधानी रखनी होगी अन्यथा पतन होते देर नहीं लगेगी | जब तक शरीर है तब तक बाहर खड़े विकार उसके भीतर प्रवेश पाने की प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं |

          विकार ही बंधन है, विकार ही वह जाल है जिसके कारण हम संसार में उलझे रहते हैं | विकार ही हमें कर्म-बंधन में डाल देता है | विकार ही सब समस्याओं की मूल में है | विकार से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है ? जब तक हम उन विकारों को भली भांति समझ नहीं लेंगे तब तक उनसे मुक्त होने का विचार तक नहीं कर सकते | गीता-ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब हम इस ज्ञान को सदैव स्मृति में बनाए रखें तथा उसी ज्ञान के अनुसार चलें और अपने जीवन को विकार-मुक्त बनायें |

                  अर्जुन के जीवन को समझ लेने के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि हम चाहे कितनी ही पूजा-पाठ जैसी विभिन्न क्रियाएं कर लें और चाहे भगवान श्री कृष्ण स्वयं भौतिक रूप से आकर हमारे साथ जीवन भर रह लें, मुक्त होने के लिए तो उनके द्वारा दिए गए ज्ञान को अपने हृदय में सदैव के लिए बनाये रखना होगा | समस्या ज्ञान को सुनने और जानने की नहीं है, ज्ञान तो सार्वकालिक और प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध है | समस्या है उस ज्ञान को स्मृति में बनाये रखने की | ज्ञान विस्मृत हुआ नहीं कि मन में विकार प्रवेश पा जाते हैं | अर्जुन ज्ञान को विस्मृत करता गया और विकार उसमें एक एक कर प्रवेश करते गए | भगवान उस ज्ञान का फिर से स्मरण कराते, अर्जुन पुनः सक्रिय होकर अस्थाई रूप से समता धारण कर लेता परन्तु कुछ समय उपरांत वही ढाक के तीन पात | ये मानसिक विकार ही मुक्ति में बाधक है, परमात्मा-प्राप्ति में बाधक है, आत्म-ज्ञान में बाधक है | तो आइये, अब सबसे पहले हम उन मानसिक विकारों की तरफ चलकर उनकी खबर लेते हैं |

                परमात्मा ने हमें विकार रहित ही बनाया है परन्तु संसार में आकर हम कर्म-जाल में इस प्रकार उलझ गए हैं कि विकार ग्रस्त हो गए हैं | हमारे शास्त्रों में मुख्यरूप से छः विकार माने गए हैं | इन्हें षट्-विकार के नाम से कहा गया है | ये छः विकार हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य | वैसे शास्त्रों में कई स्थानों पर सात विकार भी बताये हैं | उपरोक्त छः विकारों में अंतिम विकार मात्सर्य के स्थान पर राग और द्वेष विकार मिलाने पर मुख्य विकारों की संख्या सात हो जाती है | वृहद् रूप से (Broadly) देखा जाये तो विकार अनगिनत है परन्तु इनके अतिरिक्त किसी न किसी विकार का आधार इन मुख्य विकारों में से कोई एक विकार अवश्य होता है | 

          विकार, विकार ही होते हैं और आत्म-ज्ञान के लिए समस्त विकारों का त्याग करना आवश्यक है | मन का शुद्धिकरण समस्त प्रकार के विकारों के त्याग करने से ही संभव हो सकता है | इसे भीतर की शुद्धि अर्थात आत्म-शुद्धि भी कहा जाता है | शुद्ध मन से ही मनुष्य जीवन-मुक्त हो सकता है अन्यथा उसको आवागमन से कभी मुक्ति नहीं मिल सकती | शुद्ध मन और आत्मा में कोई अंतर नहीं है | शुद्ध मन ही आत्मा कहलाता है। प्रकाश में सात रंग होते हैं परन्तु वह हमें सफ़ेद यानि रंगहीन ही दृष्टिगत होता है | हमारा चैतन्य भी प्रकाश स्वरूप होता है | हमारा शरीर जिसमें हमारी जीवात्मा रहती है, वह भी उसी चैतन्य से प्रकाशित होती है | इसी प्रकार शुद्ध मन भी प्रकाश स्वरूप होता है ।

                 किसी वस्तु पर जब प्रकाश पड़ता है, तब वह किसी एक विशेष रंग की दिखलाई पड़ती है | इसका क्या कारण है ? संसार की सभी वस्तुओं पर प्रकाश समान रूप से पड़ता है ? प्रत्येक वस्तु प्रकाश के सात रंगों में से कुछ रंग को अवशोषित (Absorb) कर लेती है और शेष बचे रंग को परावर्तित (Reflect) कर देती है | जिस रंग को वह परावर्तित करती है, हमें उस वस्तु का वही रंग दिखलाई पड़ता है | परावर्तित अर्थात त्यागा गया रंग ही उस वस्तु का रंग होता है, अवशोषित किया हुआ नहीं | इसी प्रकार इस संसार में आने के उपरांत हमारे मन के भीतर भी विकार रुपी रंग प्रवेश कर जाते हैं | जिस प्रकार सभी सातों रंगों को परावर्तित कर दिया जाता है तो वह वस्तु हमें प्रकाश के रंग की अर्थात (सफ़ेद) रंगहीन दिखलाई पड़ती है | इसी प्रकार अगर हम सभी विकारों को त्याग देते हैं, तो हमारा जीवन भी प्रकाशित हो सकता है | केवल एक या दो विकार त्याग भी दिए जाएँ तो भी हमारा कोई न कोई रंग त्याग के रूप में तो दिखाई दे सकता है परन्तु इसका अर्थ है कि वास्तव में हम विकार-मुक्त नहीं हुए हैं | मन के भीतर प्रवेश कर गए समस्त विकारों का त्याग किये बिना हमारा प्रकाशित होना असंभव है | अतः आत्म-ज्ञान के लिए समस्त विकारों का त्याग करना आवश्यक है |

                  विकार (Disorder) क्या है और मनुष्य में आखिर प्रवेश कैसे करते हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर मिल जाने पर ही हम विकार-मुक्त होने की सम्भावना तलाश सकते हैं अन्यथा नहीं | गीता-ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब हम समस्त विकारों से मुक्त हो जाएँ | जब कोई वस्तु अपने मूल स्वरूप को खो देती है, तब कहा जा सकता है कि उस वस्तु में विकार आ गया है | इस भौतिक शरीर में विकार आने से हम रोग-ग्रस्त हो जाते हैं और विकार के जाते ही रोग-मुक्त ।

               दूध में विकार आ जाने पर वह फट जाता है | दूध में पैदा हुए इस विकार को दूध का खट्टा हो जाना कहते हैं, अर्थात खटास (Acid) ही वह विकार है, जो दूध का स्वरूप परिवर्तित कर देता है | लेकिन अगर दूध में खमीर मिला दिया जाये तब भी उसका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है और वह दही बन जाता है | दूध का स्वरूप खमीर से भी परिवर्तित होता है परन्तु खमीर (Yeast) विकार नहीं है | इस दूध के उदाहरण से विकार को समझने में हमें सहायता मिलती है | खमीर विकार नहीं है क्योंकि इससे हमें दूध में छुपे मक्खन को पाने में सहायता मिलती है जबकि खटास दूध में आया विकार है क्योंकि उससे दूध अनुपयोगी हो जाता है | इस प्रकार विकार की परिभाषा स्पष्ट हो जाती है |

          विकार मनुष्य के भीतर मन में प्रवेश करने वाला वह दोष है, जो उसे पतन की ओर ले जाता है | विकार के स्थान पर मनुष्य में जब भक्ति प्रवेश करती है, तब मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए आत्म-ज्ञान की और अग्रसर होता है | विकार के प्रवेश करने से व्यक्ति के स्वरूप में परिवर्तन होता है जबकि भक्ति के प्रवेश करने से व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है | व्यक्ति में विकार संसार के प्रति आसक्ति रखने से प्रवेश पाते हैं जबकि भक्ति का प्रवेश संसार के प्रति अनासक्त होने से होता है | अनासक्ति परमात्मा की और ले जाएगी और आसक्ति पतन की ओर।

                पूर्व में सभी विकार बतला दिए गए हैं, फिर भी एक बार पुनः स्मरण करा दूं कि मुख्य विकार छः हैं | ये षट्-विकार हैं - काम (Desires), क्रोध (Anger), लोभ/तृष्णा (Greed / Lust), मोह (Fascination), मद (Arrogance)  मात्सर्य (Envy, Jealousy) | इन मुख्य विकारों के बारे में आप सभी जानते ही हैं | मनुष्य के भीतर ये विकार प्रवेश कैसे करते हैं, यही विचारणीय है | जब तक हम इन विकारों की प्रकृति को नहीं समझेंगे तब तक इन विकारों से स्वयं को दूर नहीं रख पाएंगे अथवा भीतर से बाहर नहीं निकाल पाएंगे | एक विकार दूसरे विकार से सम्बंधित (Inter related) होता है और एक दूसरे का पोषक (Nourisher) भी | सम्बंधित तो इस मायने में है कि जब एक विकार हमारे भीतर प्रवेश करता है, तब दूसरा विकार धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे हमारे मन में प्रवेश पा लेता है | एक विकार किसी दूसरे विकार का पोषक इस मायने में है कि एक विकार दूसरे विकार को शक्ति प्रदान करता है, जिससे वे विकार व्यक्ति पर प्रभावी हो जाते हैं और अपनी पकड़ को मजबूत बना लेते हैं |

            एक बार जब इन विकारों का प्रभुत्व व्यक्ति पर स्थापित हो जाता है, तो फिर उन विकारों का त्याग करना लगभग असंभव हो जाता है | उदाहरण स्वरूप जब एक (काम) कामना पूरी होती है तो व्यक्ति में लोभ उत्पन्न होता है | लोभ फिर एक नए काम (कामना) को जन्म देता है और फिर उसकी पूर्ति हो जाने पर लोभ और अधिक बढ़ कर तृष्णा बन जाता है | इस प्रकार धीरे-धीरे दोनों विकार मन पर अपनी पकड़ को मजबूत कर लेते हैं |

                   जब (काम) कामना पूरी नहीं होती तो क्रोध और दुःख उत्पन्न होता है | क्रोध उस कामना को पूरा करने के लिए फिर अधिक जोश से प्रयास करने की इच्छा पैदा करता है और अगर इस बार भी काम पूर्ण नहीं हुआ तो क्रोध और अधिक बढ जाता है | काम पूर्ण हो जाने की दशा में व्यक्ति सुख के मद/अहंकार/दर्प में चूर हो जाता है और अपने आपको सभी कामनाओं को पूर्ण करने की क्षमता वाला और एक मात्र कर्ता समझ बैठता है | इस प्रकार स्वयं के द्वारा किये गए कर्म से काम के पूर्ण होने पर दूसरा विकार मोह पैदा हो गया है | यह मोह फिर एक नई कामना (काम) को जन्म देगा | इसके साथ ही कर्म करने का राग भी हमारे भीतर प्रवेश पा जाता है |

         मोह वह विकार है, जो सुख प्रदान करने वाले व्यक्ति (ममता) व वस्तुओं आदि से होता है | कहने का अर्थ है कि हमें अपने द्वारा स्वयं के लिए बनाये संसार से मोह हो जाता है | मोह को अज्ञान भी कहा जाता है | हम जानते हैं कि यह संसार और इसकी सभी वस्तुएं व व्यक्ति अस्थाई और परिवर्तनशील है तथा उनसे हमारा सम्बन्ध केवल तात्कालिक है, सार्वकालिक नहीं है, असत है; फिर भी हम उन्हीं को स्थाई, सदैव के लिए व सत्य समझ बैठते हैं और उन्हीं से सुख पाना चाहते हैं | इस प्रकार संसार के जाल में उलझाकर रख देने वाले ये काम और मोह नामक दो विकार प्रमुख हुए | काम और मोह दोनों ही विकार मनुष्य को एक प्रकार का सुख प्रदान करते हैं परन्तु वास्तव में यह सुख न होकर सुखी होने का भ्रम मात्र ही होता है ।

                जब कोई नया काम पूर्ण नहीं हो पाता अथवा वह मनोवांछित फल प्रदान नहीं करता तो व्यक्ति के इस मद अर्थात अभिमान को ठेस पहुँचती है, जो उसे दुःख पहुँचाती है | कामना को पूरा न कर पाने से हमारा क्रोध और अधिक बलवान होता जाता है | इसी प्रकार जब हमें सतत प्रयास के बाद भी कामना को पूरा करने में विफलता हाथ लगती है, तो हमारे भीतर उस कार्य को पूर्ण करने के लिए कर्म के प्रति राग भी पैदा हो जाता है | जिस अन्य व्यक्ति के पास अगर कोई वस्तु है और हमारे पास नहीं है अथवा उस व्यक्ति के अल्प प्रयास से भी वह कामना पूर्ण हो गयी हो जो हमारी पूरी नहीं हुई है तथा अगर कोई व्यक्ति हमारी कामना को पूर्ण करने में बाधक बना हो तो हमारे भीतर उस व्यक्ति के प्रति मात्सर्य (ईर्ष्या) और द्वेष पैदा हो जाता है | इस प्रकार काम पूरा होने अथवा न होने से उत्पन्न होने वाले ये दोनों विकार सामूहिक रूप से राग-द्वेष कहलाते हैं | जब कामना पूर्ण नहीं हो, तब अगर विवेक बुद्धि का उपयोग किया जाये तो व्यक्ति परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकता है | सुख की अपेक्षा दुःख हमें शीघ्र ही आध्यात्मिक बना सकता है | इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में जब दुःख आये तो समझ लेना चाहिए कि परमात्मा की ओर चलने का समय आ गया है |

            इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि प्रत्येक विकार एक दूसरे का जनक (Procreator) भी है और पोषक (Nourisher) भी | एक विकार के आने से व्यक्ति में एक-एक कर सभी विकार उत्पन्न हो जाते हैं | इतने विवेचन से स्पष्ट है कि इन छह विकारों में भी दो मुख्य विकार है, जो सभी विकारों के जनक भी है और पोषक भी | वे दो विकार हैं - काम और मोह | इन दोनों में से एक विकार अधिक महत्वपूर्ण है और वह विकार है, काम | इसलिए काम को थोडा विस्तार से जानना आवश्यक है |

                काम अर्थात कामना | मनुष्य में कामना मन में उठती है और मन के होने व उसे अपने अनुसार चलाने की क्षमता के कारण से ही यह प्राणी मनुष्य कहलाता है | कामनायें  दो प्रकार की होती हैं - शुभ कामना और अशुभ कामना | स्मरण रखें कि दोनों ही कामनाएं विकार हैं | हाँ, शुभ कामनाएं हमें उत्थान और मुक्ति की ओर ले जाती है और अशुभ कामनाएं पतन व आवागमन के चक्र की ओर | शुभ कामना को जानने से पहले अशुभ कामनाओं के बारे में जान लेते हैं | अशुभ कामनाएं इस संसार से सुख प्राप्त करने की अपेक्षा से मन में जन्म लेती है | अशुभ कामनाएं सांसारिक कामनाएं होती है और इन्हें दो प्रकार से पूरा किया जा सकता है | अशुभ कामना को पूरा करने के लिए प्रथम रास्ता है स्वयं के द्वारा कर्म (सकाम अथवा विकर्म) करके पूरा करना | अशुभ कामनाओं को पूरा करने के लिए दूसरा मार्ग है किसी अन्य व्यक्ति से उस कामना को पूरी करने की आशा अथवा अपेक्षा रखना | दोनों ही रास्तों से जब अशुभ कामना अर्थात सांसारिक कामना पूरी नहीं होती तो फिर क्रोध पैदा होता है | इन सांसारिक कामनाओं का पूरा होना बहुत कुछ आपके भाग्य अर्थात प्रारब्ध पर ही निर्भर करता है |

                 शुभ कामना व्यक्ति के उत्थान के लिए होती है, इसे आध्यात्मिक कामना भी कहा जा सकता है अर्थात ये कामनाएं परमात्मा अथवा आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए होती है | अगर पूर्ण रूप से समर्पित होकर मानसिक प्रयास किये जाएँ तो यह शुभ कामना परमात्मा की प्राप्ति करवा देती है | शुभ कामना को पूरा करने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है | स्वयं के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति जैसे गुरु अथवा शास्त्र अध्ययन के माध्यम से शुभ-कामना पूरी नही की जा सकती, वे तो केवल आपके लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं |

            "मैं संसार के समस्त सुख पा लूँ", इसका अर्थ है, मन में अशुभ कामनाओं का आगमन हो रहा है। आत्मज्ञान की दिशा की ओर चलने का मन कर रहा है,इसकाअर्थ है कि मन में शुभ कामनाओं का पदार्पण हो रहा है।संतजन शुभ कामना को पूरा करने के लिए चार प्रकार की कृपा का होना आवश्यक बताते हैं | पहली है, स्व-कृपा अर्थात परमात्मा को पाने के लिए स्वयं के द्वारा प्रयास करना आवश्यक है, स्वयं की लगन आवश्यक है | हम अगर स्वयं अपना उत्थान नहीं चाहते तो कोई दूसरा चाहकर भी हमारा भला नहीं कर सकता | ज्ञान तो सभी प्राप्त करना चाहते हैं परन्तु ज्ञान के लिए सर्वप्रथम स्वयं को तैयार करना पड़ता है | स्वयं को आत्म-ज्ञान के लिए तैयार करने को ही परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज स्व-कृपा होना कहते हैं | वे परमात्म प्राप्ति के लिए हमारी लगन को सर्वाधिक महत्व देते हैं।

                 दूसरी है, गुरु-कृपा | स्व-कृपा से जब व्यक्ति शुभ कामना को पूरा करने का प्रयास करता है तो उस पर गुरु-कृपा होना आवश्यक है | गुरु की कृपा व्यक्ति को आत्म-ज्ञान के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती है | जब हम आत्म-ज्ञान के लिए प्रयास करते हैं तो गुरु की खोज अधिक समय तक नहीं करनी पड़ती, गुरु मिल ही जाते हैं | जिसकी स्वयं पर कृपा नहीं होती, उसको गुरु लाख ढूँढने से भी नहीं मिल पाते |

           तीसरी कृपा है, शास्त्र-कृपा | गुरु आपको शास्त्रों के माध्यम से मार्गदर्शन देता है | शास्त्रों को पढ़कर और गुरु के द्वारा उसका सही विवेचन सुनकर ही आप आत्म-ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं  | शास्त्र और गुरु हमारे भीतर से सभी विकार बाहर कर इस प्रकार प्रकाशित कर देते हैं जैसे किसी बर्तन को बाहर-भीतर से साफ कर चमका दिया जाता है | शास्त्र अध्ययन और गुरु का मार्गदर्शन आपको ऐसी राह दिखा देते हैं, जहाँ से परमात्मा मिलने बहुत ही सहज हो जाते हैं । 

          चौथी और अंतिम कृपा है, भगवत-कृपा | परमात्मा की कृपा के बिना कोई भी कामना फल प्रदान नहीं कर सकती, चाहे वह किसी भी प्रकार की कामना हो | जिस दिन हमें आत्म-ज्ञान हो जायेगा हम स्वयं के भीतर बैठे परमात्मा को पा लेंगे | उस दिन कृष्ण-मृग की तरह वन-वन, पत्ते-पत्ते में कस्तूरी को ढूँढना नहीं पड़ेगा |

                काम (कामना) को विकार कहा गया है, इसका अर्थ हुआ कि शुभ कामना भी एक विकार है | यह सत्य है कि काम एक विकार है परन्तु एक विकार होते हुए भी शुभ-कामना व्यक्ति के लिए उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है | प्रारम्भिक स्तर पर आध्यात्मिकता के लिए यह कामना भी आवश्यक है, जिससे हम संसार से विमुख हो सकें अर्थात संसार में रहते हुए भी उससे लिप्त न हों, आसक्त न हों | अगर आत्म-बोध को पूर्णतः उपलब्ध होना है, तो अंततः इस शुभ कामना का भी त्याग करना होगा | मन के भीतर किसी भी प्रकार की कोई कामना है तो इसका अर्थ है कि अभी हम मुक्त नहीं हुए हैं।भक्त प्रह्लाद से जब नरसिंह भगवान ने कहा कि वत्स ! कोई वरदान मांगो तो भक्त प्रह्लाद ने कहा कि मैं कोई वर नहीं चाहता | प्रह्लाद ने आगे कहा कि अगर फिर भी आपको वरदान के रूप में मुझे कुछ देना ही है तो आप मेरे पर इतनी कृपा कीजिये कि इस जीवन में मेरे मन में कभी कोई कामना ही न उठे | इससे भक्त प्रह्लाद ने स्पष्ट कर दिया है कि काम रुपी विकार के रहते परमात्मा से पूर्ण मिलन अर्थात मोक्ष असंभव है | इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा के द्वार पर पहुँचते पहुँचते आपकी समस्त कामनाएं गिर जानी चाहिए अर्थात आपकी सभी कामनाएं समाप्त हो जानी आवश्यक है।

                   इस प्रकार इस विवेचन से हमने काम को संक्षेप में जाना है | वैसे अकेले इस विकार काम पर ही बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु इस विषय को समझने के लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त है | काम के कारण जो दूसरा प्रमुख विकार हमारे मन में प्रवेश करता है | आइये ! उसके बारे में भी संक्षेप में जान लेते हैं |

             दूसरा प्रमुख विकार है मोह | मोह का अर्थ हैं ममता | जहाँ काम है वहां मोह अवश्य ही होगा | जिस किसी भी वस्तु या व्यक्ति से हम कोई कामना रखते हैं या कोई अपेक्षा करते हैं तो हमारा उस वस्तु अथवा व्यक्ति के प्रति मोह हो जाता है। हम उसको मेरा व मेरे लिए कहना प्रारम्भ कर देते हैं।यही मोह और ममता है।बिना किसी कामना अथवा अपेक्षा के मोह पैदा हो ही नहीं सकता।जब उस वस्तु अथवा व्यक्ति के माध्यम से हमारी कामना पूरी होने की संभावना नहीं रहती,तत्काल ही उसके प्रति हमारा मोह समाप्त हो जाता है। कहने का अर्थ है कि काम ही मोह का जनक है।

        किसी एक विषय, स्थान, व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति लगाव का होना ही मोह है | हम जिस व्यक्ति, वस्तु अथवा विषय-भोग से सुख का अनुभव करते हैं, उसके प्रति हमारा विशेष लगाव हो जाता है | हम जानते हैं कि भौतिक संसार की सभी वस्तुएं व जीव अस्थाई और परिवर्तनशील है, माया है और इनके प्रति आकर्षण रखना अंत में दुःख ही देने वाला है, फिर भी हम अपने मोह (अज्ञान) के कारण उनसे बंधन को छोड़ नहीं पाते | मोह काम के कारण पैदा होता है | परमात्मा की माया हमें काम के माध्यम से एक प्रकार के आकर्षण में बाँध लेती है | यह माया का आकर्षण ही मोह (अज्ञान ) है | इस आकर्षण से छूटने का एक मात्र उपाय है, भक्ति | भक्ति अर्थात परमात्मा के प्रति प्रेम अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना |

                 सभी विकारों का अग्रणी (नायक) काम है | अतः हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि हम हमारी कामनाओं पर अंकुश रखें और धीरे-धीरे उस अवस्था को उपलब्ध हो जाएँ जहाँ पर मन में किसी काम का जन्म ही न हो पाए | इसके लिए हमें हमारे सुख-भोग के साधनों के प्रति आसक्ति को कम करना होगा | विषय-भोग हमारी कामनाओं को हवा देते हैं, जिससे हमें कर्म करना पड़ता है | प्रत्येक कर्म जब सुख प्रदान करता है तब पुनः उस सुख के प्रति आसक्ति बढ़ती है और आसक्ति फिर एक नए काम को जन्म देती है ।

              अब प्रश्न यह पैदा होता है कि मुख्य विकार अर्थात काम का जनक कौन है और यह कहाँ पैदा होता है ? काम का जनक है, विषय-भोग (सांसारिक सुख) तथा विषय-भोग मिलते हैं, कर्म करने से | अतः कर्म ही परोक्ष रूप से मुख्य कारण बनते हैं-काम को जन्म देने में और काम के जन्म लेने का स्थान होता है, मन |  मन में विषय-भोग के प्रति आसक्ति के कारण काम जन्म लेता है अर्थात भोगों के कारण मन में काम उत्पन्न होता है | बिना किसी कर्म के किये भोग उपलब्ध हो नहीं सकते | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि बिना कोई कर्म किये मन में काम पैदा हो ही नहीं सकता परन्तु क्या जीवन में कर्म का त्याग करना संभव है ? नहीं, कर्म करना हम छोड़ ही नहीं सकते, जीवन में हमें कर्म करने ही पड़ते हैं क्योंकि इस जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कर्म करने आवश्यक हैं | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते भी हैं कि मनुष्य अपने जीवन में एक क्षण के लिए भी कर्म किये बिना रह भी नहीं सकता |

               मनुष्य कर्म करना क्यों और कैसे प्रारम्भ करता है ? इसको जानने के लिए हमें मन को जानना होगा क्योंकि मन के बिना कोई भी मनुष्य कर्म करने को विवश नहीं हो सकता | मन के दो भाग होते हैं | एक भाग शरीर के साथ संलग्न होता है और दूसरा भाग आत्मा के साथ | शरीर के साथ लगा मन का भाग तभी सक्रिय होता है जब व्यक्ति कर्म करना प्रारम्भ करता है अन्यथा नए जन्मे शिशु में मन सदैव निर्मल (Pure) ही होता है, विकार ग्रस्त नहीं | 

             विकार तो कर्म करने के साथ ही भोग मिलने पर मन के भीतर उत्पन्न होते हैं, जिसे विकार का व्यक्ति में प्रवेश होना कहते हैं | मनुष्य अपने जीवन में कर्म करना प्रारम्भ करता है, अपने पूर्व जन्म के पुरुषार्थ अर्थात प्रारब्ध के कारण | अगर प्रारब्ध में कुछ भी लिखा ही नहीं गया हो तो फिर देह धारण करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।प्रारब्धवश देह मिली है तो फिर बिना कर्म किये रहना जीवन में संभव ही नहीं है | कुछ न कुछ कर्म (क्रियाएँ) स्वतः ही इस शरीर में होते रहते हैं | प्रत्येक कर्म का एक निश्चित फल अवश्य ही होता है | वह फल हमें या तो सुख पहुंचाता है या दुःख | दोनों ही प्रकार के कर्म-फल को भोग कहा जाता है | इन विषय-भोग (सांसारिक सुख) के प्रति व्यक्ति आसक्त हो जाता है | यह विषयासक्ति हमारे जीवन में विकारों को आमंत्रित करती है |

             मन के भीतर जब काम बढ़ता है, तब नए जीवन के लिए प्रारब्ध बनना प्रारम्भ हो जाता है | परन्तु ऐसा किसी भी व्यक्ति के मनुष्य जीवन में संभव ही नहीं है कि उसका प्रारब्ध बना ही नहीं हो | प्रारब्ध के कारण ही तो मनुष्य जीवन मिलना संभव होता है | प्रारब्ध के कारण ही हम आवागमन से मुक्त नहीं हो पाते हैं | इतने विवेचन से कर्मों के बारे में एक अति महत्वपूर्ण बात निकलकर हमारे समक्ष आती है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन में प्रारब्ध के कारण कर्म तो अवश्य करे परन्तु नया प्रारब्ध बनाने के लिए कर्म नहीं करे |

             कर्म के कारण ही विकार एक-एक कर मनुष्य के भीतर प्रवेश करते हैं क्योंकि कर्म भोग उपलब्ध कराते हैं और भोग हमें सुख प्रदान करता है | वास्तव में देखा जाये तो वह सुख न मिलना होकर केवल उसके मिलने का भ्रम होता है | जब मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ में कर्म करना प्रारम्भ करता है, तब उन कर्मों के प्रारम्भ करने में प्रारब्ध की भूमिका होती है | कोई भी कर्म भले ही वह प्रारब्ध के कारण फल प्राप्त करने के लिए ही होता हो परन्तु उस फल का मिलना वर्तमान जीवन में बिना पुरुषार्थ किये संभव ही नहीं है | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना क्षण मात्र भी नहीं रह सकता अर्थात प्रत्येक क्षण कोई न कोई कर्म हम करते ही रहते हैं | इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की अपने जीवन में कर्म करने की एक आदत बन जाती है | इसलिए मनुष्य के द्वारा अपने जीवन में कोई भी कर्म न करना लगभग असंभव सी बात है |

         जब प्रारब्ध के अनुसार कर्म-फल प्राप्त करने के लिए कर्म किये जाते हैं तब व्यक्ति को यह आभास होता है कि वह जो कर्म अपने वर्तमान जीवन में कर रहा है उसके कारण ही वह अपनी इच्छानुसार फल (भोग) प्राप्त कर रहा है | यह पूर्णतः सत्य नहीं है | इसी को संत जन कर्म के प्रति मोह होना कहते हैं, यह मोह होना ही अज्ञान है | इस मोह के कारण ही हमें लगता है कि हमारे प्रयास से, हमारे कर्म करने से उपयुक्त फल प्राप्त हो रहे हैं | एक ही प्रकार के फल को पुनः प्राप्त करने के लिए काम का जन्म होता है तथा उसी फल को बारम्बार और अधिक से अधिक मात्रा में प्राप्त करने की चाह को लोभ कहा जाता है | यह लोभ उस भोग की तृष्णा (प्यास) को जन्म देता है | यह तृष्णा हमें उस कर्म के प्रति आसक्त बना देती है | जब हम कर्म करते हुए अपनी रुचि के अनुसार फल प्राप्त करते जाते हैं तो हमारे भीतर मद/अहंकार नाम के विकार का जन्म हो जाता है | इस प्रकार प्रारब्ध से कर्म के रास्ते चलते हुए हम चार विकारों अर्थात मोह, काम, लोभ और मद को अपने भीतर पैदा कर चुके होते हैं |

                ये चारों विकार (काम,लोभ,मोह तथा मद)कर्म का फल इच्छानुसार प्राप्त होते जाने से पैदा हुए हैं | परन्तु जब कर्म करने के बाद भी इच्छानुसार फल प्राप्त नहीं होता तब पांचवां विकार क्रोध पैदा होता है | क्रोध से सम्मोह (मूढ भाव) और फिर मूढ़भाव से स्मृति भ्रम हो जाता है जो बुद्धि का नाश कर देता है | बुद्धि का नाश होने का अर्थ है, मोह(अज्ञान) का और अधिक बढ़ जाना | क्रोध से पैदा हुए स्मृति-भ्रम के कारण मात्सर्य पैदा होता है | मात्सर्य का अर्थ है, ईर्ष्या | ईर्ष्या उस व्यक्ति से जिसके पास वह सब कुछ उपलब्ध है जो आप चाहते हैं परंतु आपके पास वह नहीं है |

            इस प्रकार एक कर्म के प्रति आसक्ति का भाव हमें काम से मात्सर्य तक समस्त छः विकारों से ग्रस्त कर देता है | कर्मासक्ति ही कर्म बंधन पैदा करती है | हम केवल उस कर्म के प्रति ही अधिक आसक्ति भाव रखते हैं, जिस कर्म को करने से हमें इच्छित फल प्राप्त होता है | यह आसक्ति ही हमें उस कर्म के साथ बाँध देती है | इस प्रकार इतने विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि अप्रत्यक्ष रूप से हमारे कर्म ही विकार का कारण बनते हैं | गीता को कर्मयोग का ग्रन्थ कहा ही इसलिए जाता है क्योंकि यही एक मात्र ग्रन्थ है, जो हमें कर्म-बंधन से मुक्त होने की राह दिखलाता है | गीता की सार्थकता तभी है जब हम कर्म के रहस्य को समझकर इस कर्म-बंधन को तोड़कर समस्त विकारों से मुक्त हो जाएँ | समस्त विकारों से मुक्त हो जाना ही जीवन- मुक्त हो जाना है |

                 नए मानव जीवन में प्रारब्ध से सीधे ही कर्म करने प्रारम्भ नहीं होते बल्कि सर्वप्रथम मनुष्य के पूर्व मानव जीवन में अपूर्ण रही कामनाएं सक्रिय होती हैं | ये अपूर्ण कामनाएं सूक्ष्म शरीर में स्थित चित्त में संग्रहित की हुई रहती है जो शिशु के जन्म के साथ ही सूक्ष्म शरीर के भौतिक शरीर में प्रवेश करते ही उसके मन में स्थानांतरित हो जाती है | इसलिए कहा जा सकता है कि नए जन्म में पूर्व जन्म की कामनाएं अथवा काम ही कर्म प्रारम्भ होने का मुख्य कारण बनती है | उन अपूर्ण रही कामनाओं को पूरा करने के लिए  हमारा मन शरीर की कर्मेन्द्रियों से कर्म संपन्न करवाता है और पूर्वजन्म का इच्छित फल हमें बिना अधिक प्रयास किये सुगमता के साथ इस जन्म में प्राप्त हो जाता है | कहने का अर्थ है कि प्रारब्ध (भाग्य) के कारण कुछ इच्छित फल कम प्रयास से अथवा अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं |

         ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुख दास जी महाराज इसके लिए एक सत्य घटना बताया करते थे | यह घटना आंध्र-प्रदेश की है | चोरों ने किसी व्यापारी के घर से एक तिजोरी चोरी कर ली परन्तु वे उस तिजोरी को खोल नहीं पाए थे | चोरी की सूचना मिलने पर पुलिस भी सक्रिय हो गयी थी | वह चोरों का पीछा करने लगी | चोरों से तिजोरी खुल नहीं पा रही थी | पुलिस से बचने के लिए उन चोरों ने वह तिजोरी राह में पड़ने वाली एक नदी में फेंक दी | इस प्रकार वे चोर पुलिस से बच निकलने में सफल हो गए | नदी के बहाव की दिशा में स्थित एक गाँव से एक व्यक्ति उस नदी में नियमित स्नान करने आया करता था | उस दिन उसने उस तिजोरी को बहते देखकर उसे बाहर निकाला | घर ले जाकर उसने तिजोरी खोली तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी | उस तिजोरी में अथाह धन राशि और महंगे आभूषण आदि भरे पड़े थे | इस प्रकार उस व्यक्ति को पूर्व जन्म के पुरुषार्थ (भाग्य) के अनुसार केवल दैनिक शौच-कर्म करते हुए भी विपुल धन-सम्पति प्राप्त हो गयी |

                   हमारे जीवन में भी भाग्य इसी प्रकार के खेल कई बार खेलता है | जब हमारे भाग्य में कुछ बहुत अच्छा होना लिखा होता है, तब कम प्रयास से अल्प मात्रा में कर्म करते हुए हमारी पूर्व जन्म की कामना पूर्ण हो जाती है | कामनाओं को पूरा करने के लिए थोड़ा-बहुत पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा चाहे उन कामनाओं को पूरा होना हमारे भाग्य में लिखा ही क्यों न हो | कर्म करने से हमें चार पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है जिन्हें चार पदार्थ भी कहा जाता है | ये चार पुरुषार्थ हैं-काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष | कहने का आशय यह है कि बिना कर्म किये न तो कामनाएं पूरी हो सकती हैं, न ही अर्थ प्राप्त हो सकता है, न ही धर्म की प्राप्ति होती है और न ही मुक्त हुआ जा सकता है | काम और अर्थ की प्राप्ति हमारे पूर्व जन्म के पुरुषार्थ यानि प्रारब्ध (भाग्य) हैं और धर्म और मोक्ष इस जन्म के पुरुषार्थ हैं | अर्थ और काम हमें पूर्व जन्म के पुरुषार्थ के कारण इस जन्म में अल्प कर्म करके ही सुगमता से प्राप्त हो जाते हैं | धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ को वर्तमान मानव जीवन में कर्म करते हुए इसी जीवन में ही प्राप्त किया जा सकता है | धर्म और मोक्ष की प्राप्ति में प्रारब्ध का योगदान कम ही रहता है |

          जीवन में सर्वप्रथम कर्म प्रारम्भ करने का आधार तो हमने खोज लिया-प्रारब्ध | प्रारब्ध पूर्व मानव जन्म में किया गया पुरुषार्थ अर्थात पूर्व मनुष्य योनि में किये गए कर्म | इससे स्पष्ट है कि समस्त योनियों में जो चक्राकार हम घूम रहे हैं उसका आधार मूलतः कर्म ही है | अर्जुन की तरह एक गृहस्थ के लिए इस आवागमन के चक्र से बाहर निकलने का सर्वोत्तम रास्ता, जिसे गीता में प्रमुखता के साथ स्पष्ट किया गया है, वह है - कर्म-योग का | कर्म-योग को समझने के लिए हमें कर्मों की मूल को जानना होगा | कर्म का मूल क्या है ? इसको जाने बिना हम कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर सकते |

                कर्म का आधार कामना और कामना का आधार कर्म | इतना जान लेना अपर्याप्त है | केवल इतना जान लेने मात्र से तो आवागमन से मुक्ति नहीं मिलेगी | कामना जिस कारण से मन में जन्म लेती है, वही कारण होगा कर्म प्रारम्भ करने का | कामना जन्म लेती है, विषय-भोग के कारण अर्थात मन के विषयासक्त हो जाने के कारण | विषय-भोग वह शारीरिक सुख है, जो हम इस भौतिक संसार में खोजते हैं और जिसे हमारा मन बार-बार भोगने की कामना करता है | प्रारम्भ में सभी विषय-भोग अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं परन्तु अंत में ये विष तुल्य हो जाते हैं अर्थात प्रत्येक विषय-भोग प्रारम्भ में शारीरिक सुख प्रदान करता हुआ प्रतीत अवश्य होता है परन्तु अंत में यही विषय-भोग शरीर को दुःख देता है | विषय-भोग को बार-बार प्राप्त करने की कामना मन के कारण और मन में ही उत्पन्न होती है और केवल एक मात्र बुद्धि ही मनुष्य में ऐसा साधन है, जिससे कामनाओं और मन दोनों को नियंत्रित किया जा सकता है |

               विषय पाँच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बंधित है | प्रत्येक  ज्ञानेन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण कर मन को उपलब्ध करवाती है | उस विषय को प्राप्त करने के लिए कर्म हमारी पाँचों कर्मेन्द्रियाँ करती है | इस प्रकार विषय-भोग मन के माध्यम से हमें उपलब्ध होता है | मन के प्रिय विषय-भोग को पुनः और बारम्बार प्राप्त करने के लिए मन में अनेकों प्रकार की कामनाओं का जन्म होता है | फिर कामनाओं के पूरा होते जाने से मन में लोभ आ जाता है | लोभ पुनः एक नई  कामना को जन्म देता है | इस प्रकार यह विषय-भोग से प्रारम्भ हुआ चक्र मन से कामना के माध्यम से कर्म कर वापिस विषय-भोग पर लौट आता है | इस प्रकार से यह विषय-भोग से कर्म और पुनः विषय-भोग तक चलते रहने वाला अटूट चक्र मनुष्य के जीवन में सदैव चलता रहता है |

             जब विषय-भोग वृद्धावस्था अथवा अन्य किन्हीं कारणों से उपलब्ध नहीं हो पाते अथवा अपर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं, तो विषय-भोग की कामनाएं सूक्ष्म शरीर के चित्त में संग्रहित हो जाती है | देह की समाप्ति के बाद यही कामनाएं हमारे सूक्ष्म शरीर के माध्यम से नए जीवन में मिलने वाले स्थूल शरीर में स्थानांतरित हो जाती है | फिर नई योनि के नए जीवन में पुनः उन कामनाओं से विषय-भोग प्राप्त करने के लिए कर्म प्रारम्भ हो जाते हैं | कभी न मिट पाने वाले आवागमन के पीछे केवल यही एकमात्र रहस्य है |

         विषय-भोग, विकार (कामादि), कर्म, कर्म-फल और पुनः विषय-भोग भोगना, यह अटूट चक्र कैसे टूट सकता है ? इस चक्र को तोड़ने के लिए हमें इसकी कमजोर कड़ी पर तीव्र प्रहार करना पड़ेगा | इस चक्र की सबसे कमजोर कड़ी है-विकार | हम स्वयं के मन से विकार को बाहर निकाल सकते हैं और फिर पुनः प्रवेश करने से भी रोक सकते हैं | मुख्य विकार है-काम और मोह | सर्वप्रथम जानते हैं कि हमें इन दोनों विकारों को बाहर निकाल फेंकने के लिए क्या करना होगा ? इसके लिए विकार की मूल उत्पत्ति कैसे होती है, इसको जानना होगा | कर्म करने के कारण फल के रूप में हमें विषय-भोग प्राप्त होते हैं और ये भोग हमारे भीतर विभिन्न विकारों (दोषों) को जन्म देते हैं | अतः किसी भी विकार को उत्पन्न होने से रोकने के लिए हमें कर्म का सहारा लेना पड़ेगा | कर्म का सहारा लेने के दो कारण है | प्रथम कारण, मनुष्य ही एक मात्र ऐसी योनि है, जिसमें मनुष्य कर्म करने को स्वतन्त्र है यानि वह स्वयं की इच्छानुसार कर्म कर सकता है | स्वयं की इच्छा को नियंत्रित कर हम कर्म का स्वरूप परिवर्तित कर सकते हैं अर्थात सकाम कर्म के स्थान पर निष्काम कर्म कर सकते हैं | दूसरा कारण, मनुष्य अपने जीवन में कभी भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता | इसलिए कर्म करने को हम विवश है | ऐसा जीवन में कभी भी नहीं हो सकता कि हम किसी प्रकार का कर्म ही न करें | अतः कर्म तो करने ही पड़ेंगे, तो फिर ऐसे कर्म क्यों न करें, जिससे हमारा जीवन विकार-मुक्त जीवन बन सके।

                 हमने इस अटूट चक्र में से केवल विकार और कर्म को ही क्यों चुना, अन्य में विषय-भोग को भी तो चुन सकते थे ? इसका कारण है कि जिस संसार में हम रहते हैं, उसमें विभिन्न विषय प्रचुर मात्रा में भोग के लिए उपलब्ध हैं | अतः हम विषयों से किसी भी प्रकार से दूर नहीं भाग सकते | जीवन में समय-समय पर इन विषयों से आमना-सामना होता रहेगा ही | कामना को इसलिए नहीं चुना क्योंकि अपने जीवन में कोई भी व्यक्ति कामना को उठने से रोक नहीं सकता | हाँ, कामनाओं पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है | इस जीवन की वास्तविकता यही है कि 'मन में बिना किसी कामना के रहे' इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती | सबसे महत्वपूर्ण बात, बिना कामना के हम आत्म-ज्ञान को भी उपलब्ध नहीं हो सकते | अतः कामनाएं जीवन से बाहर नहीं हो सकती और न ही विषय बाहर हो सकते हैं |

                 इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पूर्व मानव जीवन में की गयी विषय-भोग की कामना इस जीवन में कर्म करते हुए भोग अवश्य ही उपलब्ध कराएगी | उन भोगों को भोगे बिना आप कहीं पर भी भाग कर नहीं जा सकते | इसी सांसारिक सुख को प्राप्त करने के लिए परमात्मा ने हमें ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और मन दिया है | मनुष्य भोगों से शारीरिक सुख प्राप्त करते हुए केवल एक कार्य अवश्य ही कर सकता है | वह इन भोगों के प्रति आसक्त न हो |

               भोगों में आसक्ति तभी पैदा नहीं होगी जब हम प्रारब्ध स्वरूप प्राप्त हो रहे भोगों को त्याग पूर्वक भोगें | त्याग पूर्वक भोगने का आशय है कि प्रारब्ध स्वरूप मिले सुख को परमात्मा का प्रसाद मानते हुए ग्रहण करें परन्तु उन भोगों को पकडे नहीं, उनमें डूबे नहीं | भोगों से सुख लेना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है परन्तु जब प्रारब्ध स्वरूप मिलने वाले सुख समाप्त हो जाएँ, तब दुःखी न हो | दुःखी होना फिर से नई कामना को जन्म देगा और फिर पुनः वैसे ही सुख को प्राप्त करने के लिए हम कर्म के माध्यम से प्रयास करने लगेंगे | आपको ऐसा आभास होगा कि आपके प्रयास एक न एक दिन अवश्य रंग लायेंगे और आप वैसे ही सुख पुनः प्राप्त कर लेंगे जैसे सुख पूर्व में प्राप्त हुए थे | बस, यहाँ पर आकर स्थिति आपके जीवन को एक तीव्र मोड़ दे देती है | आप इच्छानुसार कर्म अवश्य कर सकते हैं परंतु इच्छानुसार उनका फल प्राप्त नहीं कर सकते | यही इस मनुष्य जीवन की वास्तविकता है |

                 अभी भी आप जीवन की वास्तविकता से अपरिचित हैं | काम और अर्थ केवल उतना ही इस जीवन में प्राप्त होगा जितना उनको पाने के लिए आपने पूर्वजन्म में प्रयास किया था, उससे रत्ती भर भी अधिक अथवा कम नहीं | मनुष्य जीवन की वास्तविकता यह है कि आपको इस जीवन में अपने प्रारब्ध (भाग्य) में लिखे से अधिक केवल धर्म और मोक्ष ही उपलब्ध हो सकता है, काम और अर्थ नहीं | परन्तु हम मोहग्रस्त मनुष्य धर्म और मोक्ष की तरफ झांकते तक नहीं है और जीवन भर केवल काम और अर्थ को प्राप्त करने के लिए दौड़ते रहते हैं |  

                   विषय-भोग मनुष्य को शारीरिक सुख प्रदान करते हैं | सुख की अधिक से अधिक कामना रखना ही सबसे बड़ा विकार है | इन विकारों को मन के भीतर प्रवेश करने व पलते रहने से बचने का क्या उपाय है ? आज के इस आधुनिक युग में जहाँ प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, साधन और व्यवस्था प्रतिपल बदल रहे हैं, वहां इन सुखों के पीछे दौड़ते रहना कोई बुद्धिमानी नहीं है | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त सुनाते हैं | एक बार गाँव के ठाकुर ने अपने पास जमीन पाने की कामना लिए आये एक व्यक्ति को कह दिया कि आज सूर्यास्त से पहले तुम जितनी जमीन को अपने कदमों से नाप लोगे, उतनी जमीन तुम्हें दे दूंगा | इतना सुनते ही वह व्यक्ति जमीन नापने को दौड़ पड़ा | जरा सा भी विलम्ब करना उसको उचित नहीं लगा | वह बिना विश्राम किये लगातार दौड़ता रहा | दोपहर हुई परन्तु वह नहीं रुका | थक कर चूर-चूर हो रहा था परन्तु उसकी दौड़ समाप्त नहीं हुई | सूरज उसके सिर पर तेज चमकता हुआ अपनी गर्मी से उसे और अधिक थका रहा था परन्तु वह व्यक्ति भला कहाँ रुकने वाला था ? वह क्षण भर के लिए भी विश्राम किये बिना लगातार दौड़ता जा रहा था | उसे अभी भी अपने द्वारा नापी  गयी जमीन बहुत ही कम प्रतीत हो रही थी | थोड़ी देर बाद धरती पर शाम भी उतरने लगी | लगातार दौड़ते-दौड़ते वह व्यक्ति अब तक बुरी तरह से थक चूका था | उसने ऊपर आसमान पर दृष्टि डाली | देखा, सूर्यास्त होने में अभी भी कुछ समय शेष था | उसने अपनी बची-खुची शक्ति बटोरी और पूरे जोश से दौड़ लगा दी | आखिर शरीर की शक्ति की भी एक सीमा होती है | तभी उसकी शारीरिक शक्ति ने उसका साथ छोड़ दिया | वह गश खाकर जमीन पर गिर पड़ा | अपने घोड़े पर सवार हुआ ठाकुर उसके पीछे-पीछे चला आ रहा था |

              ठाकुर ने जब उसको जमीन पर थककर गिरते हुए देखा, तो तुरंत अपने घोड़े से उतरकर उस व्यक्ति तक पहुंचा | उसने देखा कि जमीन पर गिरे व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं | दिन भर उस साधारण से व्यक्ति ने दौड़ते हुए कई मील जमीन नाप डाली थी परन्तु देखा जाए तो वास्तव में उसे केवल छः फीट जमीन ही चाहिए थी, जिस पर वह अभी मृत अवस्था में पड़ा था | उसकी असंतुष्टि ने उसके प्राण ले लिए थे | उसकी इस असंतोषी प्रवृति ने कि "अब तक जो कुछ मिला है, वह अपर्याप्त है", उसे मार डाला था | यह है, लोभ प्रवृति | संतोष लोभ को उत्पन्न होने ही नहीं देता और इस प्रकार परोक्ष रूप से नई कामना पर भी अंकुश लग जाता है।काम, भोग को प्राथमिकता देता है और लोभ, संग्रह को बढावा देता है |इस प्रकार मनुष्य जीवनभर केवल भोग और संग्रह में ही लगा रहता है।अतः जो मिल जाता है उसमें संतुष्ट हो जाना ही हमें काम और लोभ से मुक्त कर देता है।

                  लोभ काम को पैदा करता है और काम लोभ को | अतः हमें सर्वप्रथम लोभ से दूर रहने के लिए संतोष धारण करना होगा | परमात्मा ने प्रारब्ध स्वरूप हमें जितना दिया है वह बहुत है, पर्याप्त है; यही संतोष है | संतोष धारण करने के लिए किसी प्रकार का विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता | संतोष की अवस्था को उपलब्ध होने के लिए न ज्ञान चाहिए, न भक्ति | जीवन में संतोष के पदार्पण के साथ ही भक्ति स्वतः ही प्रवेश पा लेती है | 

     ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दासजी महाराज कहा करते थे-

दौड़ सके तो दौड़ ले जब लगि तेरी दौड़ |

दौड़ थक्या धोखा मिट्या, वस्तु ठौड़ की ठौड़ ||

            हमारे जीवन की यही वास्तविकता है, इससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते | एक न एक दिन इसको स्वीकार करना ही होगा, तो फिर अभी क्यों नहीं स्वीकार कर लेते कि 'संतोषी सदा सुखी' |

                प्रारब्ध से मिलने वाले भोग और सुख को प्राप्त करने के लिए कर्म करने आवश्यक हैं | विषय-भोग को परमात्मा का प्रसाद मानकर त्याग पूर्वक भोगें और न तो उन भोगों के प्रति आसक्त हों जो हमें भाग्य से उपलब्ध हुए हैं और न ही उन कर्मों के प्रति आसक्त हों जो प्रारब्ध के कारण हमारे शरीर को करने पड़ रहे हैं | प्रारब्ध से मिलने वाले भोगों को भोग लेने के लिए किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त भी अन्य कर्म करने को मनुष्य विवश है | ऐसा प्रत्येक कर्म नए जीवन के लिए प्रारब्ध बनाता है | ऐसे कर्मों को करने में हमारी भूमिका किस प्रकार की होनी चाहिए, यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है |  इसके लिए दो विकल्प हैं | प्रथम विकल्प है, ज्ञान का और दूसरा विकल्प है, भक्ति का | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्म-योग को आधार बनाते हुए ज्ञान-योग और भक्ति योग कहा है | गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा आधारभूत सांख्य-योग के पश्चात् सर्वप्रथम कर्म-योग, उसके बाद ज्ञान योग और अंत में भक्ति और शरणागति को स्पष्ट किया गया है | श्री कृष्ण का उद्देश्य एक गृहस्थ को इस संसार में रहते हुए और कर्म करते हुए संन्यस्थ करने का था, जिससे वह कर्म करते हुए भी परमात्म-तत्व को पा सके | संन्यासी होने का अर्थ संसार से भागकर जंगल में चले जाना नहीं है बल्कि कर्मों के प्रति आसक्त न होने से है अर्थात एक गृहस्थ का इस संसार में रह कर कर्म करते हुए संन्यासी बन जाना है |

            ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुख दासजी महाराज ने इन तीनों योगों को बहुत ही अल्प शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा है कि आप जो भी कर्म कर रहे हो उन्हें संसार की सेवा में अर्पित कर दो (कर्म-योग), उन कर्मों को प्रकृति में अर्पण कर दो (ज्ञान-योग) अथवा सभी किये जाने वाले कर्मों को परमात्मा के द्वारा होना मानो (भक्ति-योग) अर्थात सभी कर्मों को परमात्मा को समर्पित कर दो | इनसे कम शब्दों में कर्म-बंधन से मुक्त होने को स्पष्ट नहीं किया जा सकता | स्वामीजी की इस बात का सार यह है कि “कर्म हम अपने लिए नहीं कर रहे है, इस बात का सदैव ध्यान रखें | कर्म या तो संसार की सेवा के लिए हो रहे हैं या प्रकृति के अनुसार हो रहे हैं अथवा फिर परमात्मा के लिए किये जा रहे हैं |” जब कर्म हम स्वयं के लिए नहीं कर रहे हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि हम कर्म के प्रति आसक्त भी नहीं है | जब कर्मासक्ति नहीं होगी तो कर्म-बंधन भी नहीं होगा | कर्म बंधन नहीं है तो कामादि विकार उत्पन्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | जब हमारे जीवन में कोई कर्म-बंधन ही नहीं है, इसका अर्थ है कि हम जीवन-मुक्त हैं |

                गीता-ज्ञान की सार्थकता जीवन-मुक्त होने में है | इस संसार में रहते हुए हम कर्म भी करेंगे और कर्मासक्त भी नहीं होंगे | इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भक्ति है | भागवत में कहा गया है कि भक्ति के दो पुत्र हैं, ज्ञान और वैराग्य | जब व्यक्ति संसार के स्थान पर परमात्मा से प्रेम करने लगता है, उसका नाम ही भक्ति है | जब व्यक्ति में भक्ति का पदार्पण होता है, ज्ञान और वैराग्य दोनों भक्ति के पीछे-पीछे स्वतः ही आ जायेंगे | ज्ञान का अर्थ है, बुद्धि का उपयोग करते हुए मन पर नियंत्रण करना | यह ज्ञान-योग हुआ | वैराग्य का अर्थ है, कर्म करने में राग का न होना अर्थात कर्मों के प्रति आसक्ति का न होना | यह कर्म-योग हुआ | एक गृहस्थ के जीवन में गीता की सार्थकता अधिक है क्योंकि इसमें समाहित ज्ञान हमें संसार में रहकर कर्म करते हुए भी परमात्मा तक ले जाने की क्षमता रखता है |

    अभी तक हमने एक कोण से इस विषय का विवेचन किया | अब जरा दूसरे कोण से भी इस विषय को देख लेते हैं | मन में उठती कामना का कारण है, जीवन में मिलने वाले विषय-भोग के प्रति हमारी आसक्ति और यह आसक्ति हमें विवश करती है, कर्म करने के लिए | कर्म का आरंभ भले ही प्रारब्धवश होता हो परन्तु देखा जाये तो कर्म प्रारम्भ करने का मुख्य कारण प्रकृति है |      

             कर्म करने के पीछे भी केवल प्रकृति के गुणों की ही मुख्य भूमिका रहती है | यही कारण है कि मनुष्य में चाहे तीनों में से किसी भी एक गुण की प्रधानता हो, वह कर्म करने को विवश अवश्य होता है | प्रकृति के उपरोक्त तीनों गुण प्रत्येक व्यक्त हुए सजीव अथवा निर्जीव, सभी में उपस्थित रहते हैं | फिर क्या कारण है कि इनमें से केवल मनुष्य ही कर्म करने को विवश है ? आधुनिक विज्ञान के अनुसार शरीर की इकाई को तत्व (Element) कहा जाता है क्योंकि सबका शरीर (सजीव हो चाहे निर्जीव) केवल तत्वों से ही आकार ग्रहण करता है | ये तत्व स्वेच्छा से कहीं पर भी आ जा नहीं सकते इसीलिए इनको जड़ कहा जाता है | उनमें गति प्रदान करने के लिए बाह्य बल की आवश्यकता होती है |

             प्रत्येक तत्व में भी प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित रहते हैं | किसी भी एक तत्व में उपस्थित प्रकृति के तीन गुण विद्युतीय (Electrical), भौतिक (Physical) और रासायनिक (Chemical) गुण कहलाते हैं | सजीव में यही गुण क्रमशः सात्विक, राजसिक तथा तामसिक गुण कहलाते हैं | सजीव का शरीर भी पदार्थ से (Matter) बना होता है, जिसकी इकाई (Unit) भी यह तत्व ही है | सजीव प्राणियों में फिर से दो विभाग किये जा सकते हैं – चर (Motile) और अचर (Non-motile)| चर प्राणी वे होते हैं जो किसी भी माध्यम में अपनी इच्छा से विचरण कर सकते हैं और अचर प्राणी वे प्राणी होते हैं, जो किसी भी माध्यम में स्वेच्छा से विचरण नहीं कर सकते | अचर प्राणियों के अंतर्गत सभी प्रकार के पेड़-पौधे आ जाते हैं तथा चर प्राणियों के अंतर्गत मनुष्य और अन्य सभी इधर उधर घूम-फिर सकने वाले प्राणी आते हैं |

                    पदार्थ (Matter) की इकाई (Unit) तत्व (Element) है | पदार्थ से ही प्राणी की कोशिका (Cell) का निर्माण होता है | कई कोशिकाएं मिलकर उत्तक (Tissue) बनाती है | उत्तकों से अवयवों (Organs) का निर्माण होता है और विभिन्न अवयव मिलकर भौतिक शरीर (Physical body) का निर्माण करते हैं | इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राणी के शरीर की इकाई कोशिका हुई और कोशिका की इकाई तत्व हुआ | इससे यह समझा जा सकता है कि बिना तत्व के प्राणी के शरीर की कल्पना नहीं की जा सकती | बिना किसी तत्व के योगदान के शरीर का बनना असंभव है |

          तत्व में उपस्थित प्रकृति के गुण ही इस भौतिक शरीर में क्रिया करने के लिए उत्तरदाई है | जिस प्रकार एक तत्व में उपस्थित प्रकृति के गुणों की आपस में क्रियाओं का एक निश्चित परिणाम होता है, ठीक उसी प्रकार प्राणी के भौतिक शरीर में होने वाली क्रियाओं का भी एक निश्चित परिणाम होता है | मनुष्य के शरीर में होने वाली ये क्रियाएं कर्म कहलाती हैं क्योंकि अपने शरीर में वह स्वयं इन क्रियाओं को करने के लिए स्वतन्त्र है | जो क्रियाएं स्वतः होती रहती है और हमारे नियंत्रण में नहीं (Involuntary acts) होती है, उसके परिणाम का हमें पूर्णतः ज्ञान नहीं हो सकता परन्तु जो क्रियाएं अर्थात कर्म हम स्वेच्छा (Voluntary acts) से करते हैं, उनका परिणाम निश्चित होता है और जो हमारे ज्ञान में भी होता है | इससे स्पष्ट है कि जो क्रियाएं व्यक्ति अपनी इच्छानुसार संपन्न करता है, उन कर्मों के परिणाम भी उन क्रियाओं के अनुसार उसे अवश्य ही प्राप्त होते हैं | किसी भी कर्म के परिणाम कभी भी नष्ट नहीं हो सकते अर्थात प्रत्येक कर्म का कोई न कोई परिणाम अवश्य ही मिलता है |

क्रमशः

प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल

।।हरि:शरणम्।।

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