Tuesday, February 15, 2022

प्रगट भई तपपुंज सही

 प्रगट भई तपपुंज सही 

          गत दिनों जब हम बैठे चर्चा कर रहे थे तब एक सज्जन ने कहा कि सनातन धर्म ग्रंथों में नारी के साथ उचित व्यवहार नहीं किया गया है | नारी भले ही कितनी ही पवित्र हो, उसको अपवित्र करने वाले अथवा दुर्वचन कहने वाले पुरुष प्रथमतः तो साफ छूट जाते हैं अथवा फिर उस पुरुष के साथ नारी को भी प्रताड़ित होना पड़ता है | सीता का उदाहरण देते हुए वे कहने लगे कि रावण के यहाँ एक वर्ष तक अकेले रहने पर भी उसके सतीत्व पर किसी प्रकार की आंच नहीं आयी थी, फिर भी लंका युद्ध के बाद उन्हें अग्नि परिक्षा तक देनी पड़ी | अवध के एक धोबी के द्वारा स्वयं के घर में अपनी पत्नी को सीता को उद्घृत कर कुछ दुर्वचन कहे गए थे | उसके कारण जनकसुता को गर्भावस्था में अकेले ही वनगमन के लिए विवश होना पड़ा था जबकि उस धोबी को अपने द्वारा कहे गए दुर्वचनों के लिए कोई सजा नहीं मिली |

          वे बड़े रोष में दिखलाई पड़ रहे थे | उनको समझाते हुए मैंने कहा कि धर्म ग्रंथों में नारी के सम्मान की बात ही कही गयी है | नारी का अपमान करने का मंतव्य किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं है | हाँ, कुछेक मामलों में आपका कहना एक सीमा तक सत्य हो सकता है लेकिन यह पूर्णतः सत्य नहीं है | जब तक हम किसी वृतांत का समग्रता के साथ अध्ययन नहीं कर लेते और यह नहीं जान लेते कि उस बात के पीछे क्या उद्देश्य था, तब तक सनातन धर्म-ग्रंथों के बारे में ऐसी राय बना लेना उचित नहीं है | 

          मैंने सीताहरण से पहले जनकसुता के द्वारा अग्निप्रवेश करने की बात को स्पष्ट करते हुए कहा कि जिस सीता का अपहरण रावण ने किया था वह वास्तविक सीता न होकर उसकी छाया मात्र थी | लंका युद्ध के बाद श्री राम ने सबके समक्ष छाया सीता को अग्नि में प्रवेश कराकर वास्तविक सीता को पुनः प्रकट किया गया था | रही बात अयोध्या के धोबी की, तो भगवान् श्रीराम अपनी प्रजा का पालन करने वाले राजा थे और एक राजा का कर्तव्य होता है कि वह प्रजा के हित का ध्यान रखे और साथ ही उसे संतुष्ट भी रखे | धोबी के द्वारा अपनी पत्नी को सीता को इंगित करते हुए कहे गए वचन भगवान् ने सुन लिए थे | धोबी नहीं जानता था कि वास्तविक सीता रावण के यहाँ कभी गयी ही नहीं थी | फिर भी राम ने प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सीता का त्याग करना उचित समझा, क्योंकि एक राजा का यही धर्म होता है कि वह प्रजा को निःस्वार्थ भाव से उचित आचरण करते हुए उदाहरण प्रस्तुत करे |

           परन्तु वे सज्जन तो आज कुछ अलग ही सोचकर आये थे | आगे फिर अहिल्या का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उसके सतीत्व भंग के लिए केवल इंद्र दोषी थे, अहिल्या का इसमें कोई दोष नहीं था, फिर भी इंद्र की करतूत का दंड उसके साथ-साथ अहिल्या को भी भोगना पड़ा | ऋषि गौत्तम के श्राप के कारण बेचारी अबला को सूने आश्रम में जडवत होकर कई वर्षों तक रहना पड़ा | मैंने उनको यथासंभव स्पष्ट करते हुए संतुष्ट करने का प्रयास किया परन्तु वे तो जैसे न समझने की शपथ ही लेकर आए थे | खैर, उनके साथ हुए वार्तालाप ने मुझे अहिल्या के बारे में कुछ लिखने को प्रेरित अवश्य कर दिया |   

           रामायण में मुझे केवट-चरित्र के बाद जिसने प्रभावित किया है, वह है शबरी-चरित्र | शबरी के बाद अगर कोई महत्वपूर्ण नारी-चरित्र रामायण में है तो वह अहिल्या-चरित्र है | वैसे अहिल्या का सही नाम अहल्या है जिसका अर्थ है अजोत भूमि अर्थात वह भूमि जो जोती न जा सके या जिसको जोतना कठिन हो | देखा जाये तो रामायण में शबरी, अहिल्या के अतिरिक्त तारा (बाली की पत्नी) और मंदोदरी (रावण की पत्नी), इन दो नारियों के चरित्र भी बड़े प्रभावशाली है | परन्तु आज बात करते हैं, अहिल्या की |

      ब्रह्मपुराण में लिखा है –

       अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा |

       पंचकन्या: स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ||ब्रह्मपुराण-3/7/219 ||

     अहिल्या, तारा, मंदोदरी के अतिरिक्त कुंती और द्रौपदी को भी प्रातः स्मरणीय बताया गया है | इनके स्मरण मात्र से ही सभी महापाप नष्ट हो जाते हैं | इन्हें कन्यायें इसलिए बतलाया गया है कि इन्होने कामवासना के अधीन होकर अपने जीवन में कभी भी कोई कार्य नहीं किया था | सभी पतिपरायाणा थी और परमात्मा से उनका अतुलनीय प्रेम था | मंदोदरी भले ही रावण की पत्नी रही हो परन्तु वे जानती थी कि जिस राम से द्वेषभाव उसके पति रख रहे हैं, वे स्वयं परमब्रह्म हैं |  

           तारा अपने पति बाली के वध से क्षुब्ध होकर कुछ समय के लिए विचलित अवश्य हुई थी | इस उद्वेग में उसने श्रीराम को दो श्राप दे डाले थे | पहला श्राप था कि आपने मुझे अपने पति से अलग कर दिया है, अतः इस जीवन में आपकी पत्नी भी भविष्य में आपके साथ न रह सकेगी | इसी श्राप के कारण धोबी के द्वारा कहे गए वचनों के आधार पर श्रीराम को अपनी पत्नी सीता का त्याग करना पड़ा था | दूसरा श्राप तारा ने दिया कि जिस प्रकार छिपकर आपने मेरे पति को बाण से मारा है उसी प्रकार अगले जन्म में आपकी मृत्यु भी किसी के द्वारा छिपकर चलाये गए बाण से होगी | द्वापर के अंत में भगवान् श्रीकृष्ण की मृत्यु भी बाली के द्वारा बहेलिये के रूप में पुनः जन्म लेकर, छिपकर चलाये गए बाण से हुयी थी |  

           श्राप देने के बाद भगवान् श्रीराम के द्वारा प्रदत्त ज्ञान ने तारा की आँखें खोल दी थी | तारा और मंदोदरी रामायण के ही दो पात्र हैं | द्रौपदी और कुंती महाभारत के दो पात्र हैं, उनकी बात फिर कभी | आज अहिल्या के बारे में चिंतन करते हैं | 

       अहिल्या ब्रह्माजी की मानस पुत्री थी | बहुत ही सुन्दर कन्या थी, अहिल्या | जब वह युवा हुयी तब ब्रह्माजी ने उनके लिए उचित वर ढूँढने के लिए एक योग्यता आवश्यक कर दी | वह आवश्यक योग्यता थी कि जो कोई सबसे पहले त्रिलोकी की परिक्रमा पूरी कर लौटेगा उसके साथ ही अहिल्या का विवाह संपन्न कर दिया जायेगा |  

          स्वर्ग का राजा इन्द्र अहिल्या की सुन्दरता पर पहले ही मुग्ध था | उसकी आसक्ति अहिल्या के प्रति इतनी अधिक थी कि वह किसी भी प्रकार उनको प्राप्त करना चाहता था | स्वर्ग लोक भोग का स्थान है | वहां सुख ही सुख है, दुःख लेशमात्र भी नहीं है | इतना सब होते हुए भी मुक्ति/मोक्ष नहीं है | भोग पूरे हो जाने के बाद सभी को फिर से इसी संसार में लौटना पड़ता है |

             स्वर्ग में किसी भी प्रकार के भोग की कोई कमी नहीं है | फिर भी इन्द्र काम-भोग से संतुष्ट नहीं है | सत्य है, आज तक भोगों से कोई संतुष्ट नहीं हुआ है | भोग भोगते भोगते अंततः एक दिन यह शरीर ही भोग बन जाता है परन्तु हम हैं कि जीवन भर विभिन्न भोगों के पीछे भागते रहते हैं | भोगों की अग्नि भोग भोगने से और अधिक प्रज्वलित हो जाती है और नए-नए भोगों की मांग करने लगती है | देवताओं के राजा इन्द्र भी हमसे भिन्न नहीं है |   

          अहिल्या के प्रति आसक्त इन्द्र ने सबसे पहले पृथ्वी त्रिलोकी का चक्कर लगाने के लिए बड़ी तेज दौड़ लगाई | साथ में कई अन्य देवता भी दौड़ रहे थे परन्तु दौड़ पूरी करने में एक मात्र इन्द्र ही सफल हुए | ब्रह्माजी, अहिल्या का विवाह इन्द्र के साथ निश्चित करने ही वाले थे कि नारायण-नारायण करते नारद मुनि वहां पहुँच गए |

              नारदजी भी ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं | उन्होंने आते ही कहा कि ‘पिताजी, तीनों लोकों की परिक्रमा तो सबसे पहले महर्षि गौत्तम ने सम्पूर्ण की है इसलिए आप द्वारा रखी गयी आवश्यक योग्यता उन्होंने इन्द्र से पहले ही अर्जित कर ली है | अतः अहिल्या का विवाह गौत्तमजी के साथ ही होना चाहिए |’ ब्रह्माजी ने पूछा कि ‘ऋषि गौत्तम तो यहाँ आये ही नहीं फिर वे कब त्रिलोकी की परिक्रमा को गए थे ?’ नारदजी ने उत्तर दिया कि ‘उनके आश्रम में एक गाय ने बछड़े को जन्म दिया था और गौत्तम ऋषि उस समय प्रतिदिन की तरह उस गाय की परिक्रमा कर रहे थे | प्रसव करती गाय की परिक्रमा करना तीनों लोकों की परिक्रमा करने के समकक्ष है | प्रसव करती गाय की परिक्रमा ऋषि गौत्तम ने इन्द्र के द्वारा त्रिलोकी की परिक्रमा पूरी करने से पहले ही पूरी कर ली है | अतः अहिल्या का विवाह ऋषि गौत्तम के साथ ही होना चाहिए |’  

          नारदजी की बात ब्रह्माजी को उचित और न्यायसंगत जान पड़ी । उन्होंने ऋषि गौत्तम के साथ अहिल्या का विवाह करने का  निश्चय कर लिया | उचित अवसर पर अहिल्या का विवाह अत्रि के पुत्र ऋषि गौत्तम के साथ कर दिया गया | विवाह उपरांत ऋषि अपनी पत्नी को लेकर आश्रम में चले आये | अहिल्या विवाह के उपरांत अपने पति की सेवा बड़े मनोयोग से करने लगी |

           अहिल्या का विवाह ऋषि गौत्तम के साथ हो जाने का सुनकर इन्द्र को बहुत बुरा लगा | उसने मन ही मन ठान लिया कि वह अहिल्या को किसी भी प्रकार प्राप्त करके ही रहेगा | कामांध व्यक्ति कभी भी किसी बात का भला-बुरा नहीं सोचता | इसी कारण से उस व्यक्ति का एक न एक दिन पतन होना निश्चित है परन्तु यह बात किसी भी कामी के आज तक समझ में नहीं आई है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि काम में बाधा पड़ने से क्रोध पैदा होता है | क्रोध से सम्मोह (मूढभाव) पैदा होता है, सम्मोह से स्मृतिभ्रम और स्मृतिभ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है | बुद्धि का नाश होने से मनुष्य पतन को प्राप्त होता है |(2/62-63)।ऐसा ही अब इंद्र के साथ होने जा रहा है। 

          बात उस समय की है जब आज के दरभंगा (बिहार) जिले में गंगा नदी से कुछ ही दूरी पर ऋषि गौत्तम का आश्रम था | ऋषि अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहां एक कुटिया में निवास करते थे | एक दिन इन्द्रदेव ने चन्द्रमा को अपने साथ लिया और पृथ्वी के भ्रमण पर निकल पड़े | ऋषि गौत्तम का आश्रम देखकर उसके भीतर उपस्थित अहिल्या का स्मरण कर उनके मन में काम-वासना जाग उठी | अहिल्या की सुन्दरता पर इन्द्रदेव पहले से ही मुग्ध थे | आज उनको अवसर मिल ही गया | वे अपनी काम-वासना पूरी करने के लिए अहिल्या के पास जाने की युक्ति लगाने लगे | आश्रम के पास आकर उन्होंने देखा कि आश्रम में अहिल्या के साथ तो गौत्तम ऋषि भी शयन कर रहे हैं | तब गौत्तम ऋषि को कुटिया से बाहर भेजने के लिए इन्द्र ने चन्द्रमा के साथ मिलकर एक चाल चली |

          इन्द्र अपनी माया से चन्द्रमा को मुर्गा बनाकर उनसे ऋषि गौत्तम को भोर होने की सूचना देने के लिए बांग दिलाई | ऋषि गौत्तम समझे कि ब्रह्म-मुहूर्त हो गया है | वे प्रतिदिन ब्रह्म-मुहूर्त में गंगा-स्नान करने जाया करते थे | भोर होने वाली है, यह जानकर वे उठे, पृथ्वी को प्रणाम किया और गंगा-स्नान के लिए चल दिए | काम-वासना पूर्ति हेतु उचित अवसर जानकर इन्द्रदेव ने गौत्तम ऋषि का वेश धारण किया और आश्रम में प्रवेश कर गए | चंद्रदेव बाहर खड़े होकर पहरा देने लगे ।  

           इधर कुटिया में ऋषि गौत्तम के रूप में इन्द्र ने अहिल्या को अपनी काम-वासना शांत करने के लिए तैयार कर लिया और उधर ऋषि गौतम गंगा के तट पर पहुँच गए | स्नान करने के लिए ज्योंही वे गंगा की धारा में प्रवेश करने लगे कि मां गंगा प्रकट हो गयी | उन्होंने ऋषि को बताया कि अभी ब्रह्म-मुहूर्त में बहुत समय शेष है | इस समय अर्धरात्रि में स्नान करना वर्जित है | गंगा मां ने बताया कि अहिल्या का सतीत्व भंग करने के लिए इद्रदेव ने यह मायावी चाल चली है | इतना सुनते ही ऋषि के तन-बदन में आग लग गयी | वे क्रोधित होते हुए अपनी कुटिया पर लौटे |

          कुटिया के बाहर चंद्रदेव पहरेदारी कर रहे थे | चंद्रदेव पर दृष्टि पड़ते ही ऋषि ने उसको अपना कमंडल फैंक मारा और शाप दिया कि तुम्हारे ऊपर राहू की सदैव कुदृष्टि रहेगी और अवसर मिलते ही कुछ समय के लिए तुम्हें ग्रस लेगा | पूर्णिमा के दिन होने वाला चंद्रग्रहण उस शाप का ही परिणाम है | कहा जाता है कि चन्द्रमा पर जो दाग दिखलाई पड़ता है, वह दाग ऋषि गौत्तम के द्वारा फैंक कर मारे गए कमंडल की चोट का निशान है | हालाँकि आज विज्ञान ने चंद्रग्रहण का और चन्द्रमा में होने वाले दाग का रहस्य जान लिया है परन्तु एक कथा अगर अपने अन्दर कोई महत्वपूर्ण सन्देश छिपाए हुए है तो कोई भी अतिशयोक्ति स्वीकार्य है |

         इधर इन्द्रदेव को कुटिया के भीतर जब ऋषि गौत्तम की आवाज़ सुनाई दी तो वे बाहर निकलने को दौड़ पड़े | बाहर निकलते समय इन्द्रदेव अपने वास्तविक स्वरुप में आ गये | गौतम ऋषि के वेश में स्वयं इन्द्र थे, यह जानकर अहिल्या अपने पति ऋषि गौत्तम के संभावित क्रोध की कल्पना कर सिहर उठी | दुम दबाकर भागते इन्द्र को गौत्तम ऋषि ने नपुंसक होने का श्राप दे डाला | साथ ही कहा कि आज से न तो कोई इन्द्र को सम्मान की दृष्टि से देखेगा और न ही इसकी कोई पूजा करेगा |

       गौत्तम ऋषि ने जब कुटिया के भीतर प्रवेश किया तो देखा कि सामने खड़ी अहिल्या भय के मारे थर-थर कांप रही है | वह हाथ जोड़े अपने पति से क्षमा याचना का भाव लिए खड़ी है और बार-बार अपने निर्दोष होने का स्पष्टीकरण दे रही है | परन्तु क्रोधित ऋषि ने उसकी प्रत्येक बात को अनसुना कर दिया | क्रोध में व्यक्ति को मूढ़ता घेर लेती है | मूढ़ता से स्मृति भ्रम हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाता है | बुद्धि का नाश होने पर उस व्यक्ति का पतन होना निश्चित है | क्रोधित गौत्तम ऋषि ने अपनी पत्नी को कहा कि “मेरे साथ रहते हुए तुम्हें इतने वर्ष हो गए हैं | क्या तुम मेरे स्पर्श को अभी तक भी नहीं पहचान सकी ? हाँ, मेरे स्पर्श को नहीं पहिचानती तभी तो तू छद्म वेशधारी इन्द्र के स्पर्श को भी न पहिचान सकी | कहीं न कहीं तुम्हारे मन में भी कुछ खोट अवश्य था | इस जगत में केवल जड़ को ही स्पर्शादि इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता इसलिए जा, जडवत हो जा और एक शिला की तरह इस कुटिया के कोने में पड़ी रह |” 

          इस प्रकार ऋषि गौत्तम ने अपने तीनों अपराधियों को श्राप दे डाले | इन्द्र और चन्द्र तो वहां से भाग लिए परन्तु अहिल्या बेचारी भाग कर जाती भी तो कहाँ तक जाती ? अहिल्या ने अपने पति से स्वयं के निष्पाप होने का बार-बार कहा परन्तु एक ब्राह्मण और वह भी तपस्वी ऋषि, उसका दिया हुआ शाप वापिस तो हो नहीं सकता था | 

       क्रोध के कारण ऋषि का तप नष्ट हो चुका था। फिर से तप करने के लिए हिमालय की ओर निकलने से पहले ऋषि ने अपनी पत्नी को इस शाप से मुक्त होने का एक उपाय अवश्य बता दिया | कहा कि त्रेता में जब श्री हरिः दशरथ पुत्र राम के रूप में अवतार लेंगे और विश्वामित्रजी के साथ राक्षसों का वध करते हुए इधर से निकलेंगे तब उनके चरणों की रज से तुम अपने वास्तविक स्वरुप में लौट आओगी | तब तक तुम यहीं पर जड़ बनी तपस्या करती रहो |” इतना कहकर ऋषि गौत्तम आश्रम को छोड़ हिमालय में तप करने निकल पड़े |    

         अहिल्या अपने पति से हुए अलगाव से व्यथित होकर जड़ बन कर रह गयी | ऋषि गौत्तम के श्राप के कारण वह शिला बनकर तपस्या में लीन हो गयी |

            अहिल्या के जडवत होते ही आश्रम प्राणीविहीन हो गया | पशु पक्षी धीरे धीरे आश्रम को छोड़कर चले गए | सूना आश्रम देखकर भय के मारे कोई पथिक भी वहां नहीं रूकता था | एक कामांध पुरुष के कारण सब के साथ-साथ इस आश्रम को भी सजा मिल गयी थी |

      गौत्तम ऋषि के आश्रम को इसी अवस्था में छोड़ तनिक इन्द्र की अवस्था की ओर भी दृष्टिपात कर लेते हैं | ऋषि गौत्तम से नपुंसक होने का शाप मिलते ही इन्द्र के दोनों वृषण (Testes) वहीँ गिर जाते हैं | वाल्मीकिजी रामायण में लिखते हैं –

        गौतमेनैवमुक्तस्य सुरोषेण महात्मना |

        पेततुर्वृषणो भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात् ||बालकाण्ड - 48/28||

    अर्थात रोष से भरे हुए महात्मा गौत्तम के ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्र के दोनों अंडकोष उसी क्षण पृथ्वी पर गिर पड़े | इस श्लोक में इन्द्र को सहस्राक्ष अर्थात हजार आँखों वाला बताया गया है |उसे सहस्राक्ष क्यों कहा जाता है, इसको अध्यात्म रामायण में स्पष्ट किया गया है।

      ऋषि गौतम के द्वारा इंद्र को दिए गए शाप का उल्लेख पद्मपुराण और अध्यात्म रामायण में भी मिलता है –

       योनिलम्पट दुष्टात्मन्सहस्रभगवान्भव |

       शप्त्वा तं देवराजानं प्रविश्य स्वाश्रमं द्रुतम् ||अ.रा.-बालकाण्ड-5/26||

     इस श्लोक का अर्थ है कि गौत्तम ऋषि शाप देते हैं कि इन्द्र, तू योनिलम्पट है, इसलिए तेरे शरीरमे एक हजार भग (vulva) हो जायं | ऐसा कहकर ऋषि ने अपने आश्रम में प्रवेश किया |

         दोनों ही ग्रंथों में श्राप का मंतव्य इन्द्र के नपुंसक हो जाने से ही है | आधुनिक विज्ञान के अनुसार किसी पुरुष में उपरोक्त दोनों में से कोई एक प्रकार का भी परिवर्तन हो जाता है तो वह नपुंसक हो जाता है |

       ऋषि के श्राप से तत्काल ही इन्द्र के शरीर पर एक हजार स्त्री-जननांग निकल आये | जिसके कारण उत्पन्न हुई अपनी कुरूपता देखकर उन्होंने ऋषि से इन अंगों को नेत्रों के रूप में बदलने की याचना की | ऋषि द्वारा आग्रह स्वीकार करते ही ये सभी अंग नेत्रों के रूप में बदल गए | इसी कारण से इन्द्र का एक नाम सहस्राक्ष भी है |

        इन्द्र के चाहे दोनों वृषण गिर गए हों अथवा उनके शरीर पर एक हजार भग (vulva) निकल आयी हों, दोनों ही स्थितियों में एक पुरुष नपुंसक हो जाता है | वृषणहीन हो जाने की स्थिति में शरीर में पुरुष-हार्मोन बनना बंद हो जाते है, जिससे पुरुष नपुंसकता को प्राप्त हो जाता है | दूसरी स्थिति में एक ही शरीर में दोनों प्रकार के जननांग हो जाने पर पुरुष और स्त्री दोनों हार्मोंस का आपसी संतुलन बिगड़ जाता है और पुरुष नपुंसक हो जाता है |

      शापित इन्द्र ने अपने लोक में प्रवेश कर देवताओं से कहा कि मैंने आप सबके हित में ऋषि गौत्तम के प्रति अपराध किया है | आप मुझे इस नपुसंकता के शाप से मुक्ति दिलाएं | तब अग्निदेव के सानिध्य में पितृ देवों से प्रार्थना की गयी | पितृ देवताओं ने मेढे के वृषण काटकर इन्द्र के शरीर में यथास्थान लगा दिए और इस प्रकार वे नपुसंकता के शाप से मुक्त हुए | मेढ़े के वृषण लग जाने के कारण इन्द्र का एक नाम मेषवृषण भी है |

        कहा जाता है कि ऋषि गौत्तम ने इतना अधिक तप किया था कि इन्द्रदेव को अपने  सिंहासन पर संकट नज़र आने लगा था | अहिल्या पर वह पहले से ही आसक्त था और इधर ऋषि के तप ने उसकी अपने सिंहासन की सुरक्षा के प्रति चिंता बढा दी थी | अंततः उसने एक तीर से दो शिकार करने की युक्ति निकाली | अहिल्या को भ्रमित कर उसने अपनी काम-वासना शांत की और ऋषि गौतम को क्रोध दिलाकर उनके तप को नष्ट कर दिया | 

       जरा सोचिये, इससे इन्द्र को क्या लाभ हुआ ? सिवाय पतन के अतिरिक्त उसको कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ | सबसे अधिक हानि तो अहिल्या को उठानी पड़ी जो निर्दोष होते हुए भी आश्रम के एक कोने में जडवत होकर इन्द्र के द्वारा किये गए पाप का प्रायश्चित करती रही | वाल्मीकि-रामायण में इंद्र द्वारा कारित इस पाप में अहिल्या को भी सहभागी बताया गया है।

       एक नारी जिसे अबला भी कहा जाता है किसी पुरुष के सामने कितनी विवश हो जाती है, अहिल्या के साथ हुई यह घटना इसका प्रमाण है, फिर चाहे सामने वह पुरुष इंद्र हो या ऋषि गौत्तम अथवा कोई अन्य।पाप इंद्र ने किया और उस पाप में कथित रूप से सहभागी होने का परिणाम इंद्र के साथ अहिल्या को भी भुगतना पड़ रहा है।

            सूने आश्रम में भला कोई जीव भी कब तक निवास कर सकता है ? गौत्तम ऋषि का आश्रम प्राणी-विहीन हो चूका था | न तो वहां पक्षियों का कलरव था और न ही रंभाती गायों की पुकार | वहां था तो केवल एक सन्नाटा और उस सन्नाटे में अबला का जड़ होकर पत्थर हुआ  शरीर, जिसके मुख से कोई बोल तक भी नहीं निकल पाते थे | शिला बन जाने का अर्थ पत्थर बन जाना नहीं है बल्कि चलते फिरते शरीर का जड़वत हो जाना है। 

       पति परित्याग के कारण जड़ हो गई अहिल्या मन ही मन भगवान् का नाम लेकर तप कर रही थी और प्रतीक्षा कर रही थी कि कब राम आयेंगे और कब वह पुनः चेतन अवस्था को प्राप्त होगी |

             भगवान् अंतर्यामी भी है और सर्वत्र भी | एक सूई की नोंक जितना भी स्थान इस ब्रह्मांड में नहीं है जहाँ श्री हरि का वास न हो | प्रभु बड़े दयालु हैं | वे अपने भक्तों पर कृपा करते हैं, इसीलिए उन्हें करुणानिधान कहा जाता है | अपने प्रत्येक भक्त पर उनकी दृष्टि प्रतिक्षण बनी रहती है | ऐसे में भला, वे अहिल्या को कैसे भूल सकते हैं ? विश्वामित्र मुनि के साथ जनकपुरी में सीता स्वयंवर देखने जा रहे है | वे जानते हैं कि वहां जनकपुरी में क्या होना है ? सीता उनका ही वरण करेगी, जानते हैं | फिर भी कोई जल्दी नहीं है | सीता तो जन्म जन्मान्तर की भार्या है, उससे मिलना कठिन नहीं है परन्तु उन्हें पहले अपने भक्त की कामना पूरी करनी है |  

               ऐसा सोचकर वे चल पड़े जनकपुरी के रास्ते से थोडा हटकर,अलग रास्ते से | भक्त की भगवान् से कभी कोई दूरी नहीं होती | आश्रम को सूना और एक कोने में जड़वत बैठी नारी सी प्रतिमा को देखकर श्री राम ने मुनि से उसका कारण पूछ बैठे | मुनि विश्वामित्र जानते हैं कि राम सर्वज्ञ है फिर भी मेरा मान रखने के लिए पूछ रहे हैं | चलो, मैं ही बता देता हूँ | विश्वामित्र कहते हैं –“राम ! यह अहिल्या है | अपने पति ऋषि गौत्तम के शाप से यह जड़ हो गयी है | शिला बनी तप में लीन है | परित्यक्त होकर पत्थर बन गयी है, इस कारण से आपसे आग्रह भी नहीं कर सकती कि आप उसे अपने चरणों से छूकर, उसे अपनी चरण रज देकर उसका उद्धार करें | आपके चरणों के छूने से ही आपके चरणों की रज उसे मिलेगी और यह पुनः अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त होगी |’ विश्वामित्र मुनि कहते हैं कि राम, आगे बढ़ो और अपने चरणों की रज का स्पर्श देकर इस नारी का सम्मान लौटा दो |

         राम कह रहे हैं – “ नहीं गुरूजी, मैं भला पुरुष होकर एक नारी को अपने चरणों से स्पर्श कैसे कर सकता हूँ ? नारी तो सदैव वन्दनीय होती है | मैं तो उनको केवल प्रणाम ही कर सकता हूँ |” अनुकरणीय है उनका ऐसा कहना। ऐसा है भगवान् श्री राम का एक नारी के प्रति सम्मान | आज इसी सम्मान के अभाव में नारी दुराचार की शिकार होती जा रही है | जब तक हम अपने बच्चों को संस्कार नहीं देंगे तब तक नारी-सम्मान वापिस अपनी गरिमामय स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकेगा | कलियुग का प्रभाव है यह | 

        द्वापर में एक नारी के अपमान ने महाभारत रच दिया था फिर इस कलियुग में नारी के साथ जो कुछ भी हो रहा है, वह क्या नहीं करेगा? हाँ, कोई भी युग तभी परिवर्तित हो सकता है जब हम स्वयं अपने आप को परिवर्तित करेंगे |

           श्री राम एक-टक दृष्टि से शिला बनी नारी को निहारते हुए भाव-विह्वल हो उठे | कहा जाता है कि उसी समय वायु का प्रवाह तीव्र गति से हुआ और श्री राम के चरणों को स्पर्श करती हुई रज उड़कर शिला बनी अहिल्या को छू गयी | तत्काल ही वह शिला एक सुन्दर नारी में परिवर्तित हो गयी ।  

           माता अहिल्या को अपने वास्तविक स्वरुप में देखते ही राम-लखन ने आगे बढ़कर उस देवी के चरण छू लिए | राम कहते हैं –‘देवी अहिल्या, सारा दोष इन्द्र का था | वह अपनी करनी भुगत रहा है | आज इन्द्र का वह पहले वाला सम्मान नहीं रहा है और न ही अब कोई उसकी पूजा करता है | चन्द्रमा उसका सहयोगी था, जब तक यह ब्रह्मांड है तब उसको अपने किये की सजा मिलती रहेगी | तुम्हारा कोई दोष नहीं था | तुम्हें बिना कोई अपराध किये सजा मिली थी | ऋषि गौत्तम भी आपसे हुए अलगाव से दुखी हैं | अब आप भी उनके पास चली जाओ | वे आपको सहर्ष स्वीकार कर लेंगे |”

         भगवान् श्री राम की बातें सुनकर अहिल्या गद् गद् हो गयी | वह उनकी स्तुति करने लगी | स्तुति को गोस्वामीजी ने मानस में एक छंद के रूप में बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में पिरोया है |  ’परसत पद पवन सोक नसावान प्रगट भई तपपुंज सही |’ अर्थात जो शोक का नाश करने वाले हैं ऐसे आपके चरणों की रज का स्पर्श पाते ही शिला से तपपुंज के रूप में एक नारी प्रकट हो गयी | अहिल्या कह रही है कि ‘प्रभु ! मैं तो आपके दर्शन कर कृतार्थ हो गयी | भला हुआ, जो ऋषि ने मुझे शाप दिया | मेरे पति ने मेरा कितना ध्यान रखा था कि क्रोध में कहे गए वचनों में भी उन्होंने मेरा हित देखा, तभी तो मुझे आपके दर्शन हुए हैं | मुझे कोई भी दुःख-शोक नहीं है कि मेरे पति ने मेरे निष्पाप होने की बात का विश्वास क्यों नहीं किया ? मेरा तो उनके द्वारा दिए गए शाप से भी भला ही हुआ है, जो आपके दर्शन का सौभाग्य मिल सका।   

        अहिल्या को भगवान् ने प्रेमाभक्ति का वरदान दिया और उनको अपने पति ऋषि गौत्तम के पास भेज दिया | भगवान् राम इसके बाद आगे की यात्रा पर निकल पड़े जहाँ सीता उनका इंतजार कर रही है | जनकपुर में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम भेंट होती है, सतानन्द से | सतानन्द, जनकपुरी के राजपुरोहित | श्री राम को देखते ही पूछ बैठते हैं –“प्रभु, क्या आपने मेरी मां का उद्धार कर दिया है ? क्या उन्होंने पुनः अपना वास्तविक स्वरुप प्राप्त कर लिया है ? क्या वह अब मेरे पिता ऋषि गौत्तम के पास चली गयी हैं ?”

         भगवान् श्री राम इन प्रश्नों के उत्तर में केवल मुस्कुरा देते हैं | सतानन्द आगे कह रहे हैं-“भगवन, मैं जानता हूँ आपने सब कार्य सिद्ध कर दिए हैं, तभी आप मुस्कुरा रहे हैं | भगवान् भक्त को कृतार्थ कर ही मुस्कुराते हैं | भक्त के दुःख को भगवान् अपना दुःख मानते हैं | दुखी होकर प्रभु मुस्कुरा नहीं सकते | आज आपने मेरी मां का उद्धार कर दिया है, तभी तो आप इतने अधिक मुस्कुरा रहे हो | मैं आपका बहुत बड़ा उपकार मानता हूँ |” भगवान् श्री राम ने आगे बढकर राजपुरोहित सतानन्द के चरण स्पर्श कर लिए |

            भला, एक भक्त की भगवान् सुध नहीं लेंगे तो कौन लेगा ? इस संसार में भगवान् के अतिरिक्त भक्त का होता ही कौन है ? इस प्रकार आज भगवान् ने एक भक्त को जड़त्व से मुक्त किया है । तभी गोस्वामीजी कहते हैं – “प्रगट भई तपपुंज सही |”

प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||  


           


No comments:

Post a Comment