Friday, January 28, 2022

मा शुचः

 मा शुचः 

            संसार में प्राणियों की कुल 84 लाख प्रजातियाँ है | मनुष्य नाम का एक प्राणी उन 84 लाख प्राणियों की गिनती से अलग है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणी जीवन में केवल विषय-भोग को भोगने के लिए ही उत्पन्न होते हैं और भोगते-भोगते ही शरीर को त्याग देते हैं | उन्हें अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं होता | उनके भीतर किसी भी बात पर मनन, चिंतन, विचार, शोक आदि करने की क्षमता ही नहीं होती, इसीलिए वे बेचारों की श्रेणी में आते हैं | बेचारा, वह प्राणी होता है, जिसके भीतर कभी कोई विचार उठता ही नहीं है इसलिए उनके लिए किसी कार्य के परिणाम के बारे में मनन करने के लिए कोई सोच ही पैदा नहीं होती | उनकी बेचारगी इसी से जाहिर होती है कि उनके सामने निरुद्देश्य जीवन जीते रहने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं होता |

        क्या मनुष्य नाम का जीव भी बेचारा हो सकता है ? भगवान् ने उसे बेचारा बनाया नहीं है बल्कि वह स्वयं के कारण बेचारा बना हुआ रह सकता है | जिसमें किसी कार्य के प्रति विचार पैदा कर उस पर मनन करने की क्षमता ही नहीं होती, भला ऐसा मनुष्य एक पशु से भिन्न कैसे हो सकता है ? ऐसे मनुष्य को आप बेचारा नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे ?

            स्पष्ट है कि मानव अन्य सभी प्राणियों से भिन्नता रखते हुए एक मननशील प्राणी है क्योंकि उसके भीतर मनन करने के लिए विचार उठते रहते हैं | मनुष्य के जीवन को विचित्र जीवन कहा जा सकता क्योंकि जहाँ संसार के विभिन्न प्राणियों को अपने जीवन में कुछ भी चिंता करनी नहीं पड़ती वहीँ इसके विपरीत मनुष्य को संसार भर की चिंताएं सताती रहती है | इस प्रकार विभिन्न चिंताएं ही उसके शोक का कारण बनती है |

        जीवन भर मनुष्य शोक ग्रस्त बना रहता है और लाखों चिंताओं से घिरा दुखी होता रहता है | चिंताओं के कारण उसके मन में हर समय बड़ी उथलपुथल मची रहती है | दिन-रात चिंताग्रस्त रहकर विभिन्न विषयों के बारे में वह सोच विचार करता रहता है | क्या आपने अब तक किसी गधे अथवा घोड़े को किसी बात के बारे में सोचते, विचारते, चिंता, शोक आदि करते देखा है ? नहीं न | अब मुझे इस संसार में एक भी ऐसा मनुष्य बता दीजिये जो चिंताग्रस्त नहीं हो, जो किसी प्रकार की सोच, शोक से परे हो | नहीं है न ! ऐसा एक भी मनुष्य आपको जीवन में कभी मिलेगा भी नहीं |

       मनुष्य का मस्तिष्क परमात्मा ने बनाया ही इसी प्रकार है कि वह किसी भी बात पर गंभीरता से विचार कर सके | विचार की उसे आवश्यकता ही इसलिए है क्योंकि वह अपने जीवन में सब कुछ सही प्रकार से करना चाहता है | वह सही होगा अथवा गलत, यह उसके उस कार्य से पूर्व किए जाने वाले विचारों पर निर्भर करता है | उसी सोच-विचार के आधार पर वह अपने जीवन में सुखी-दुखी होता रहता है | उसके द्वारा किये जाने वाले सोच-विचार के कारण ही वह विषादग्रस्त हो जाता है जोकि उसके शोक का कारण बनता है | मनुष्य की मुक्ति प्रत्येक विषाद और शोक से परे निकल जाने में ही है और इसके लिए प्रत्येक प्रकार की सोच और विचार पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है |

           विचारों पर अंकुश लगाने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि किसी भी कार्य से पूर्व उसके परिणाम पर विचार ही नहीं किया जाए | विचार करने की क्षमता मनुष्य को नैसर्गिक रूप से मिली है, इसलिए इस क्षमता का उपयोग करना उसका अधिकार है | परन्तु समस्या तब उत्पन्न होती है जब वह किसी एक बात पर अत्यधिक विचार करते हुए शोकग्रस्त हो जाता है | हमें सर्वप्रथम यह जानना होगा कि कौन सी बातें विचार करने योग्य है और कौन सी नहीं |

           स्पष्ट है कि मनुष्य की सोच ही शोक का कारण बनती है | अपनी सोच पर नियंत्रण रख कर ही मनुष्य शोकमुक्त हो सकता है | आइये ! सर्वप्रथम यह जानते हैं कि किस किस विषय पर सोच-विचार करना एक सीमा तक उचित है | श्रीरामचरितमानस में इसी बात को वसिष्ठ मुनि ने भरतजी को  स्पष्ट किया है | वे कहते हैं कि -  

          सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना | तजि निज धरमु बिषय लयलीना ||

              सोच तो उस ब्राहमण का करना चाहिए जो वेद नहीं जानता और अपना धर्म छोड़कर विषय-भोग में रत रहता है | विप्र ज्ञान का वाहक होता है | अगर एक ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त ही नहीं करेगा तो फिर ज्ञान को बांटेगा कैसे ? सभी वर्णों में ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वह समाज को अपने ज्ञान के माध्यम से निर्देशित करता रहता है | अगर एक ब्राह्मण अपना धर्म छोड़कर केवल विषय-भोग प्राप्त करने में ही लगा रहेगा तो फिर समाज का पतन होना निश्चित है | धर्म-ध्वजा के वाहक ब्राह्मण को अपने जीवन में मर्यादित आचरण करना होता है जिससे अन्य व्यक्ति उसको देखकर, उसका अनुसरण कर सके | इसलिए धर्म-मार्ग पर न चलने वाले ब्राह्मण के बारे में सोच-विचार करना उचित है |

        ब्राह्मण के बारे में कहने के बाद वसिष्ठ मुनि एक राजा के बारे में भरतजी को बता रहे हैं कि -

            सोचिअ नृपति जो नीति न जाना |

            जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ||

                उस राजा का सोच करना चाहिए जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है | एक क्षत्रिय का धर्म होता है, नीति अनुसार अपनी प्रजा की रक्षा करते हुए उसका उचित प्रकार से पालन-पोषण करना | जो राजा इस नीति के अनुसार नहीं चलता वह शोक करने योग्य ही है | आज संसार में प्रायः देशों में लोकतंत्र होने के कारण बहुमत के आधार पर राजा चुना जाता है | अगर चयनित राजा नीति अनुसार नहीं चलता, अपनी प्रजा को समान दृष्टि से नहीं देखता, अपनी प्रजा के हित की नहीं सोचता तो उसका भविष्य में पतन होना निश्चित है |

           क्षत्रिय का कार्य प्रजा की रक्षा और भलाई करना है | आजकल जनतंत्र में राजा वंशानुगत नहीं होता बल्कि प्रजा के द्वारा चुना जाता है, उस कारण से कुछ विकार भी आ गए हैं | प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति का राज्य करने का काल केवल कुछ वर्ष ही होता है, ऐसे में वे प्रजा के स्थान पर स्वयं का ध्यान अधिक रखने लगे हैं | प्रजा चाहे संकट झेल रही हो आज के प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति राजा शिवि जैसा उदाहरण प्रस्तुत करने में विफल रहे है।

               एक बार राजा शिवि जब यज्ञ कर रहे थे तब उनकी गोद में एक कबूतर आकर छुप गया | उसके पीछे उसका शिकार करने के लिए एक बाज पड़ा था | बाज ने राजा शिवि से अपने भोजन कबूतर को लौटने का कहा | तब राजा ने शरण में आये कबूतर की रक्षा करते हुए उसे सौंपने से मना कर दिया था |

        इधर कबूतर के जीवन का प्रश्न और उधर बाज की क्षुधापूर्ति का सवाल | ऐसे में एक राजा का कर्तव्य क्या हो सकता है ? राजा शिवि ने सोच-विचार कर उचित निर्णय लिया |

        शिवि ने बाज के समक्ष उस कबूतर के वजन जितना अपना मांस देने का प्रस्ताव रखा | तत्काल ही तराजू की व्यवस्था की गयी | एक पलड़े में कबूतर को बिठाया गया और दूसरे पलड़े में राजा शिवि अपने शरीर से काट-काट कर मांस रखते गए | परन्तु राजा के मांस से भी पलड़े बराबर नहीं हुए तो अंततः स्वयं शिवि उस पलड़े में बैठ गए | यह होता है, एक राजा का अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्य |

       इंद्र ने राजा शिवि की परीक्षा लेने के लिए यह सब किया था | इस परीक्षा में राजा शिवि खरे उतरे | सही में राज-धर्म ऐसा ही होता है, जिसका पालन करना एक आदर्श राजा के लिए महत्वपूर्ण है |   

        एक वैश्य का धर्म क्या होता है ? जो वैश्य अपने धर्म का अनुसरण नहीं करता, वह वैश्य सोच करने योग्य होता है | वसिष्ठजी कहते हैं कि -

         सोचिअ बयसु कृपन धनवानू | 

      जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ||

      वसिष्ठ मुनि कहते हैं कि उस वैश्य का सोच करना चाहिए जो धनवान होकर भी कंजूस है, जो आये अतिथि का सत्कार नहीं करता और जो शिव की भक्ति करने में कुशल नहीं है |   

      संसार में वैश्य वर्ण ही ऐसा वर्ण है जो धनोपार्जन में रत रहता है | वह बात और है कि आजकल सभी वर्ण के लोग धनोपार्जन में लगे हुए हैं। संचित धन की तीन गतियाँ बतलाई गयी है – दान, भोग और नाश | कंजूस वैश्य के धन की तीसरी गति होती है क्योंकि वह अपनी कृपण प्रवृति के कारण न तो धन का दान ही करता है और न ही उसका भोग कर पाता है | कंजूस धनवान को घर आया अतिथि भी एक बोझ लगता है | वह उसका यथायोग्य सत्कार इसी भय से नहीं करता कि कहीं धन में कमी न आ जाये | न ही वह परमात्मा की भक्ति में लग पाता है क्योंकि उसकी दृष्टि केवल धन के अर्जन और उसके संग्रह पर ही रहती है |

           धन आप चाहे जितना संग्रहित कर लें, वह आपके पास सदैव के लिए नहीं रह सकता | इसीलिए रहीमजी कहते हैं-

          पानी बाढे नाव में, घर में बाढे दाम |

          दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ||

       जिस प्रकार नाव में यात्रा की अवधि में पानी भरने लगे तो दोनों हाथों से भरकर पानी को नाव से बाहर उलीच देना चाहिए अन्यथा नाव का डूबना निश्चित है | इसी प्रकार अगर धन की वर्षा हो रही हो तो दोनों हाथों से उसका दान करते रहना चाहिए अन्यथा उसका एक दिन नाश होना निश्चित है |  दान धन की सर्वोत्तम गति है और भोग मध्यम गति है | धन को अगर दान में न दिया जाये और भोगा भी न जाये तो फिर एक न एक दिन उस धन का नाश होना निश्चित है |

    सोचनीय शूद्र कौन है ? वसिष्ठजी कहते हैं -

           सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी | 

          मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ||

      उस शूद्र का सोच करना चाहिए जो ब्राह्मणों का अपमान करता है, बहुत बोलता है और जिसे ज्ञान का अभिमान है |

         शूद्र वर्ण का कर्तव्य सेवा करना है | सेवा करने वाले व्यक्ति को अपने ज्ञान का घमंड कभी भी नहीं होना चाहिए | अभिमान सेवा करने में सबसे बड़ी बाधा है | इस संसार में ज्ञान सभी को है | वह बात और है कि यह ज्ञान किसी किसी में ही परिलक्षित होता है | ज्ञान का दिखावा करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ज्ञान तो व्यक्ति के आचरण से स्वतः ही दिखलाई पड़ जाता है |

        शूद्र वही विचार करने योग्य है जो किसी ज्ञानी व्यक्ति का अपमान करता है | किसी के सामने अपने ज्ञान का प्रदर्शन करना ही ज्ञान का अभिमान है | ज्ञान के माध्यम से दूसरे को नीचा दिखाना, उसका अपमान करना है | बहुत अधिक बोलने का अर्थ यह नहीं है कि वह व्यक्ति ज्ञानी है | ज्ञान कभी गुप्त रह ही नहीं सकता | वह तो आपके आचरण से सबके सामने स्वतः ही प्रकट हो जाता है | इसलिए कोई शूद्र अगर ज्ञानी हो और साथ ही साथ सेवाभावी भी हो तो ऐसा शूद्र प्रशंसनीय है |

       कौन सी नारी शोक करने योग्य है, इसको स्पष्ट करते हुए वसिष्ठजी कहते हैं-

         सोचिअ पुनि पति बंचक नारी | 

         कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ||

             उस स्त्री का सोच करना चाहिए जो पति को छलने वाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छाचारिणी है |

          एक पतिव्रता स्त्री पति की विश्वासपात्र, प्रिय, शांत स्वभाव वाली और पति की आज्ञानुसार आचरण करने वाली होती है | जिस स्त्री में इन चारों में से एक भी गुण का अभाव होता है तो फिर ऐसी स्त्री शोक करने योग्य ही है | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि आज नारी स्वतंत्रता के नाम पर स्त्री अपने पति की अवहेलना करने लग गयी है | गृहस्थी को सम्हालने के स्थान पर तथा आत्मनिर्भर होने के नाम पर वह नौकरी कर रही है | एक गृहस्थ के रूप में नारी केवल अपने पति के अधीन होते हुए भी स्वाधीन जीवन जीती है परन्तु कामकाजी स्त्री अपने कार्यस्थल पर बहुत से जनों के अधीन कार्य करते हुए अपनी वास्तविक स्वतंत्रता को खो रही है | इसको नारी स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता | कहा जाता है कि एक सुशील स्त्री के कारण दो घर सुधर जाते हैं परन्तु आधुनिक युग में तो नारी स्वतंत्रता के नाम पर प्रायः सभी घर उजड़ रहे हैं | ऐसी स्त्री वास्तव में सोच करने योग्य ही है |

       स्वामीजी की सोच उस समय की सोच है, जब स्त्रियों के घर से निकलने तक का विरोध किया जाता था। कहने का अर्थ है कि आज अगर सुसंस्कारित नारी बाहर नौकरी भी करती है तो उसके लिए ऐसा कहना उचित नहीं है।समस्या संस्कार के पालन न करने से होती है अन्यथा नारी तो अपने पति की प्रत्येक क्षेत्र में सहयोगिनी मानी गई है।

     नारी अगर धनोपार्जन हेतु नौकरी करते हुए भी स्वेच्छाचारी नहीं है अर्थात संस्कारों के विपरीत कोई कार्य नहीं करती है, तो वैसी नारी सोचनीय की श्रेणी में नहीं आती। पति परायण रहना और गृहस्थी को सम्हालना नारी के संस्कार है। स्वाभाविक लज्जा उसके आभूषण है। संस्कारों के अभाव से ही कलियुग में नारी की सोचनीय दशा होती जा रही है। अतः नारी का संस्कारित होना आवश्यक है ।

   ब्रह्मचारी की ओर संकेत करते हुए वसिष्ठ मुनि कह रहे हैं-

          सोचिअ बटु निज ब्रत परिहरई | 

          जो नहिं गुर आयसु अनुसरई ||

          उस ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिए जो अपने ब्रह्मचर्य-व्रत को छोड़ देता है और गुरु की आज्ञानुसार नहीं चलता |

         ब्रह्मचर्य जीवन की वह अवस्था है जब एक ब्रह्मचारी संयमित जीवन जीते हुए अपने गुरु के अधीन रहकर शिक्षा ग्रहण करता है | ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म जैसा आचरण। जीवन की इस प्रथम अवस्था में बचपन से ही ब्रह्म जैसा आचरण करना सिखाया जाता है।जो ब्रह्मचारी अपने ब्रह्मचर्य व्रत को तोड़ देता है अर्थात असंयमित जीवन जीने लगता है वह जीवन में कभी भी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता | उसको ज्ञान प्राप्त होता है, अपने गुरु के माध्यम से | इसलिए गुरु का सम्मान करना उसका प्रथम कर्तव्य बनता है | 

        काकभुशुण्डिजी गुरु के आगमन पर भी अपने आसन पर बैठे रहे थे, उनके सम्मान में उठ खड़े नहीं हुए थे, इस बात का शंकर भगवान् को बुरा लगा था | काकभुशुण्डि का यह आचरण शंकर भगवान् से देखा नहीं गया और उन्होंने तत्काल ही उसे श्राप दे दिया था |  

        ऐसा ब्रह्मचारी जो गुरु का सम्मान नहीं करता और उनके आदेशों की भी अवहेलना करने लग जाता है वह अंततः पतन को ही प्राप्त होता है | वास्तव में ऐसे ब्रह्मचारी की दशा सोचनीय है |

    नारी और ब्रह्मचारी के बाद एक गृहस्थ पुरुष के बारे में भी वसिष्ठ जी का मत जान लीजिए -

             सोचिअ गृही जो मोह बस 

            करइ करम पथ त्याग |

            सोचिअ जती प्रपंच रत 

            बिगत बिबेक बिराग ||मानस-2/172||

           उस गृहस्थ का सोच करना चाहिए जो मोहवश अपने कर्म का त्याग कर देता है |  जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है, उसके कुछ कर्तव्य होते है, जिन्हें उसे निभाना पड़ता है | जीवन में गृहस्थी अपनाई है तो ऐसे में संसार का विस्तार होना भी स्वाभाविक है | अपनी पत्नी की सुरक्षा, अपने बच्चों का पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना आदि एक गृहस्थ के कर्तव्य-कर्म हैं | कर्तव्य-कर्म को बोझ समझना मोह है | जो अपने कर्तव्य-कर्म से विमुख हो जाता है ऐसा गृहस्थ विचार करने योग्य है |

          कर्म-मार्ग का त्याग करना किसी भी गृहस्थ के लिए उचित नहीं है | हाँ, कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जाने के बाद वह अपने जीवन में संन्यास का मार्ग अपना सकता है | जो व्यक्ति अपने गृहस्थ जीवन के कर्तव्य-कर्म से पलायन कर जाता है,वह भले ही कहीं पर भी चला जाये, अशांत ही रहेगा | ऐसा गृहस्थ सोचनीय है |

             आगे वसिष्ठ मुनि कहते हैं कि उस संन्यासी का सोच करना चाहिए जो संसार के प्रपंच में अभी भी फंसा हुआ है और ज्ञान तथा वैराग्य से हीन है | संन्यास का अर्थ है, संसार से मुक्त हो जाना और परमात्मा से जुड़ जाना | ऐसे में एक संन्यासी के लिए अपने जीवन में किसी भी प्रकार का कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है | जिसने एक बार संन्यास मार्ग पर चलने का निर्णय कर लिया, फिर भी संसार के प्रपंच में लगा हुआ है, ऐसे संन्यासी का कल्याण नहीं हो सकता | संन्यासी के लिए महत्वपूर्ण दो बातें ही है - एक तो ज्ञान प्राप्त करना और दूसरा वैराग्यपूर्ण जीवन जीना | इसलिए एक संन्यासी को संसार में किसी भी प्रकार का राग नहीं रखना चाहिए |

          एक संन्यासी का जीवन सांसारिक जीवन से बिलकुल भिन्न होता है | उसको अपने पूर्व सांसारिक जीवन में किसी भी प्रकार की रुचि नहीं रखनी चाहिए | प्रायः देखा जाता है कि घर-बार छोड़कर व्यक्ति संन्यास तो ले लेता है परन्तु अपने पूर्व जीवन का चिंतन करते हुए अपने परिवार पर भी एक दृष्टि बनाये रखता है | ऐसा सन्यासी सोच करने योग्य है क्योंकि फिर उसकी दशा ‘माया मिली न राम’ वाली हो जाती है |

    गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ अवस्था को प्राप्त हुए व्यक्ति के बारे में वसिष्ठ मुनि कह रहे हैं-

           बैखानस सोई सोचै जोगू | 

           तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू ||

              वही वानप्रस्थी सोच करने योग्य है, जिसको तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं | गृहस्थ जीवन के कर्तव्य से निवृत हो जाने पर वानप्रस्थ की अवस्था आती है | यह अवस्था तप करने की अवस्था है | जिसमें सभी प्रकार के विषय-भोग छोड़ देने होते हैं | परन्तु आज के युग में ऐसा प्रतीत होता है जैसे व्यक्ति के जीवन में वानप्रस्थ अवस्था कभी आती ही नहीं है | गृहस्थ जीवन के भोगों में ही व्यक्ति लगा रहता है और जीवन का संध्याकाल आ जाता है | फिर वह तपस्या ही क्या, कुछ भी करने योग्य नहीं रहता |

          सोचिअ पिसुन अकारण क्रोधी |

          जननि जनक गुर बंधु बिरोधी ||

             सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, अकारण क्रोध करता है तथा माता-पिता,गुरु एवं भाई बंधुओं से विरोध रखता है | चुगलखोर वह व्यक्ति होता है जो एक दूसरे के विरुद्ध बात करते हुए आपस में लड़ा तक देता है | इधर की बात उधर और उधर की बात इधर करने का उसका स्वभाव होता है | चुगलखोरी संसार में सर्वाधिक निंदनीय कार्य है |

        आज छोटी-छोटी बात पर व्यक्ति क्रोधित हो जाता है | क्रोध सामने वाले को तो किसी प्रकार की कोई हानि नहीं पहुंचा सकता पर क्रोधी को अवश्य इससे शारीरिक और मानसिक संताप उठाना पड़ता है | वसिष्ठ मुनि ने ऐसे ही क्रोधी व्यक्ति को शोक करने योग्य बताया है | इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने माता-पिता, गुरु और भाई-बंधू को प्रेम नहीं करता, उनका विरोध और अपमान करता है, वे भी सोच के योग्य हैं |

           सब बिधि सोचिअ पर अपकारी |

           निज तनु पोषक निरदय भरी ||

         सब प्रकार से उनका सोच करना चाहिए जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है | दूसरे को हानि पहुँचाना जिस व्यक्ति का उद्देश्य बन जाता है, वह व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी प्रगति नहीं कर सकता | जो केवल अपने शरीर के ही पोषण में लगा रहता है वह बड़ा ही निर्दयी है | ऐसे व्यक्ति का कल्याण कैसे होगा? यह बात विचारणीय है |  

             सोचनीय सबहीं बिधि सोई | 

             जो न छाडि छलु हरि जन होई ||

              वह व्यक्ति तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता |

           वसिष्ठजी अंतिम और महत्वपूर्ण बात भरतजी को कहते हैं कि ऐसे मनुष्य का जीवन विचारणीय है जो सर्वोत्कृष्ट मनुष्य जीवन पाकर भी हरि की आराधना नहीं करता है बल्कि जीवन भर संसार में छल-कपट करने में ही लगा रहता है | मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है-आत्म-बोध अर्थात परमात्मा को प्राप्त करना | हरि को जानना है तो हरि की भक्ति करना आवश्यक है |

          संसार से मुक्त होकर हरि के साथ भक्त होना ही हरि को जानना है और यही आत्म-ज्ञान है | इसके लिए सभी प्रकार के छल-कपट से दूरी बनानी होगी | दो नावों में एक साथ सवारी कभी भी नहीं हो सकती | संसार छल-कपट से भरा हुआ है, इसीलिए वह लुभावना प्रतीत होता है | संसार के आकर्षण को छोड़कर परमात्मा की ओर उन्मुख होने में ही मनुष्य का कल्याण निहित है |

         जब दशरथ का पुत्र-वियोग में मरण हो गया तब भरतजी के मन में भी एक सोच ने जन्म लिया था | उस अत्यधिक सोच-विचार के कारण भरत भी बड़े दुखी और शोकग्रस्त हो गए थे | तब मुनि वसिष्ठ ने उनका शोक दूर करने की लिए क्या कहा था ? गोस्वामीजी लिखते हैं-

   सुनहु भारत भावी प्रबल,

   बिलखि कहेउ मुनिनाथ |

   हानि लाभु जीवनु मरनु, 

   जसु अपजसु बिधि हाथ ||मानस-2/171||

    वसिष्ठजी दुखी मन से कहते हैं कि हे भरत ! सुनो, भावी बड़ी प्रबल है | हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ है | 

          वसिष्ठजी मानस में भरतजी को कहते हैं कि सोचो और विचार करो कि दशरथ के मरने का दोष किसको दिया जाये ? क्या दशरथ के मरण का दोष कैकई को दिया जाय, जिसके वर मांगने से अयोध्या का परिदृश्य एक ही रात में बदल गया था अथवा इसका दोष राजा के पुत्र-मोह को दिया जाय जो राम के वन चले जाने से उत्पन्न हुए आघात को तनिक भी सहन नहीं कर सके | आखिर इसका दोष किसे दिया जाय ?

           वसिष्ठ मुनि भरत को पूछ रहे हैं कि क्या केवल कैकेई के दो वर ही दशरथ के मरण के कारण बने हैं ? नहीं, जिस माता कैकेयी को तुम अपने पिता के मरने का कारण मान रहे हो, वह अनुचित है | संसार में जितनी भी घटनाएँ घटित होती हैं, उनमें से प्रत्येक घटना परमात्मा के द्वारा पूर्व नियोजित होती है और उनका होना निश्चित है | प्रत्येक घटना के घटित होने के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है और वह घटना सबके हित में ही घटित होती है | घटना घटित होने के बाद हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे विधि ने हमारे साथ अन्याय किया है | इस संसार में कोई किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकता, सब प्रकृति के नियमानुसार ही घटित होता है |

       वसिष्ठजी आगे कहते हैं कि इस बात के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता और फिर दशरथ तो सोच करने योग्य है ही नहीं | उन जैसा राजा न तो अब तक कोई हुआ है, न है और न ही अब होने को है | अवधपति दशरथ ने अपने जीवन में प्रजा की भलाई के लिए ही कार्य किये हैं । अतः हे भरत ! सुनो, तुम्हें उनके मरने पर तनिक भी शोक नहीं करना चाहिए |

           त्रेता से अब चलते है द्वापर में। भरत की तरह ही द्वापर में कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में अर्जुन भी एक काल्पनिक संसार में खोकर शोकग्रस्त हो गया था | किसी छोटी सी बात पर अत्यधिक विचार करने से भी मनुष्य अपने भीतर एक काल्पनिक संसार को रच लेता है | फिर उसे वही दिखलाई पड़ता है, जैसा वह देखना चाहता है | अर्जुन द्वारा युद्ध के बारे में किये गए अत्यधिक सोच-विचार ने ही उसे अवसाद की दशा में ला खड़ा कर दिया जो कि उसके विषाद का कारण बना |

         प्रश्न उठता है कि क्या किसी व्यक्ति, किसी कार्य, किसी विषय अथवा किसी घटनाक्रम पर किसी भी प्रकार के विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है ? नहीं, ऐसा सोचना भी अनुचित है | बिना सोच-विचार के निर्विचार की अवस्था तक पहुंचा ही नहीं जा सकता | इसलिए सोच-विचार करने की आवश्यकता प्रत्येक परिस्थिति में रहती ही है | बस, हमें इस बात का ज्ञान हो जाना चाहिए कि किस विषय पर कितनी सीमा तक विचार करने की आवश्यकता है | अनावश्यक रूप से और एक सीमा से अधिक सोचना ही मनुष्य को अर्जुन और भरत की तरह विषादग्रस्त कर देता है |

        संसार में प्रतिपल लाखों घटनाक्रम घटित होते हैं, क्या हम सभी पर विचार करते हैं ? नहीं, हम स्वयं से सम्बंधित व्यक्तियों, विषयों और कार्यों पर ही अधिक विचार करते हैं | कई बार हम ऐसे ऐसे विषयों पर विचार करने लगते हैं, जिनका हमसे दूर दूर का सम्बन्ध ही नहीं होता | ऐसे प्रत्येक विचार से दूरी बनाना आवश्यक हैं | इनमें राजनैतिक विषय प्रमुख है, जिस पर एक आध्यात्मिक चिन्तक के लिए सोचना भी निरथर्क है |

   विचार क्या है ? मुख्य रूप से विचार किसी उद्देश्य और उस उद्देश्य की पूर्णता के लिए किए जाने वाले कर्म के मध्य की एक प्रतिक्रिया मात्र है। यह प्रतिक्रिया परिणाम निकलने के पहले अथवा उसके बाद में हो सकती है।कहने का अर्थ है कि कार्य प्रारंभ करने से पहले उसके संभावित परिणाम  की कल्पना करने अथवा किसी कार्य अथवा घटना के हो जाने के बाद, मस्तिष्क में जो आवेग उत्पन्न होता है, वह आवेग ही विचार का जनक है। 

            चिंता, शोक, दुःख आदि के पीछे मन में उठने वाले विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | इन विचारों पर मंथन बुद्धि करती है।इस प्रकार कहा जा सकता है कि मन और बुद्धि की भूमिका विचार करने में है। ये दोनों ही जड़ प्रकृति के हैं। जड़ से चेतन तक नहीं पहुंचा जा सकता,अतः विचारों से आगे निकल जाना आवश्यक है, तभी इस मनुष्य जीवन का कुछ अर्थ है।

       विचारों के आधार पर मनुष्य को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है | पहली श्रेणी उन मनुष्यों की है जिनके मन में किसी कार्य के परिणाम पर गहराई से सोचने का विचार ही जन्म नहीं लेता | यह बुद्धिहीन लोगों की श्रेणी है, उनकी बुद्धि कुंद है। इन लोगों के भीतर विचार जन्म ही नहीं लेते।ऐसे मनुष्य को मनुष्य न कहकर पशु-पक्षी ही कहा जा सकता है | यह मनुष्य की विचारहीनता की अवस्था है |

          कुंद बुद्धि का अर्थ है जब बुद्धि में एक बात जच जाए फिर उसी पर टिके रहना, उस पर किसी प्रकार का विचार न करना । यह प्रथम श्रेणी ऐसे ही विचारहीन मनुष्यों की श्रेणी है, जिसमें किसी बात पर किसी कार्य के परिणाम पर विचार ही नहीं किया जाता | 

       दूसरी श्रेणी में वे मनुष्य आते हैं जिनके भीतर कार्य के परिणाम पर विचार जन्म लेते हैं, इसलिए वह अपने भीतर कार्य के परिणाम को लेकर बहुत अधिक चिंतन और मनन करने लगता है | ऐसे लोगों की बुद्धि तेज होती है।अत्यधिक चिंतन मनन करने से वह "क्या करूं, क्या न करुं", इस द्वंद्व का शिकार बन जाता है, जैसा कि कुरुक्षेत्र में अर्जुन के साथ हुआ था | यह मनुष्य की वैचारिक या विचारशील (Thoughtfulness) अवस्था है |

          तीसरी श्रेणी में वे मनुष्य आते हैं, जिनके भीतर विचार तो जन्म लेते हैं, उन विचारों के अनुसार भीतर चिंतन-मनन भी होता है फिर भी वे चिंता और शोकग्रस्त नहीं होते क्योंकि विचार करते करते एक अवस्था ऐसी आती है जब उन्हें विचार करना भी व्यर्थ लगने लगता है।कहने का अर्थ है कि इस स्थिति में बुद्धिमान व्यक्ति बुद्धि का अतिक्रमण कर जाता है। अंततः वे विचार करने की अवस्था से स्वयं को अलग कर लेते हैं | यह मनुष्य की निर्विचार (Thoughtlessness) की अवस्था है | इस अवस्था में मनुष्य वैचारिक अवस्था तक पहुँचता तो है, परन्तु वहाँ पहुंचकर उसे आभास हो जाता है कि किसी विषय पर इतना अधिक विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है ।

       बुद्धि का अतिक्रमण किये बिना जीवन की वास्तविकता को नहीं समझा जा सकता। यह पूर्ण होश की अवस्था है जहां बुद्धि होते हुए भी बुद्धि का अनर्गल उपयोग नहीं है।श्री कृष्ण इस सीढ़ी पर हैं और वे अर्जुन को भी खींचकर अपनी अवस्था में लाना चाहते हैं।

         प्रथम श्रेणी (विचारहीन) और तीसरी श्रेणी (निर्विचार) एक सी प्रतीत अवश्य होती है परंतु दोनों में गुणात्मक अंतर बहुत है।प्रथम श्रेणी का मनुष्य तीसरी श्रेणी में नहीं जा सकता क्योंकि विचारहीन अवस्था से निर्विचार की अवस्था में जाना संभव ही नहीं है क्योंकि वह किसी भी बात अथवा विषय पर तनिक भी विचार करने की क्षमता खो चूका है | या तो ऐसे लोगों में बुद्धि नहीं है या वह कुंद हो चुकी है। जब उनमें बुद्धि का अभाव है तो फिर उसके अतिक्रमण करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।

        परन्तु दूसरी श्रेणी (विचारशील) का मनुष्य तीसरी श्रेणी (निर्विचार) में अवश्य ही ले जाया जा सकता है | वैचारिक अवस्था से बुद्धि से परे जाकर  निर्विचार की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है | महाभारत का दुर्योधन प्रथम श्रेणी का मनुष्य है तभी तो वह युद्ध के लिए आमादा है | ऐसा व्यक्ति बुद्धि का जरा सा भी उपयोग नहीं कर पाता। दुर्योधन युद्ध की विभीषिका के बारे में जरा भी विचार नहीं कर रहा है | वह युद्ध जैसे कार्य के बारे में विचारहीन है | प्रत्येक युद्ध चुनौती है परंतु उस चुनौती का परिणाम क्या होगा, इस पर विचार करना भी आवश्यक है।

         अर्जुन दूसरी श्रेणी का मनुष्य है, जो युद्ध भूमि में अपने सम्मुख खड़े युद्ध को देखकर, जिसको टालना अब लगभग असंभव है फिर भी उसकी विभीषिका के बारे में विचार तो कर रहा है | वह एक वैचारिक मनुष्य है |उसकी बुद्धि सोचने समझने लायक है। जब ऐसा मनुष्य एक सीमा से अधिक चिंतन मनन करता है तब वह अवसाद और विषादग्रस्त हो सकता है | जैसा कि अर्जुन के साथ हुआ था | अर्जुन को अगर सही दिशा मिले तो वह बुद्धि के पार जा सकता है। यह तो अच्छा हुआ कि उसे श्री कृष्ण जैसा गुरु मिला जिसने उसको वैचारिक स्थिति से निर्विचार की अवस्था में लाकर खड़ा कर दिया अन्यथा अर्जुन तो युद्ध से लगभग पलायन कर ही गया था |

      एक छोर पर दुर्योधन खड़ा है, दूसरे छोर पर श्री कृष्ण और दोनों के मध्य खड़े हैं, अर्जुन। अर्जुन दोनों में से किसी एक छोर पर अवश्य ही जाएगा। श्री कृष्ण जैसे गुरु मिलें है तो निर्विचार के छोर पर जाना निश्चित है।

     अर्जुन दो किनारों के मध्य में खड़ा है। विचारशील व्यक्ति बहुत संकल्प-विकल्प करता है। हथियार चलाने में संकल्प-विकल्प की कोई भूमिका नहीं होती। युद्ध के लिए या तो दुर्योधन की तरह विचारहीन होना होगा अथवा श्री कृष्ण की तरह निर्विचार की अवस्था वाला। वैचारिक मनुष्य तो केवल विचार ही कर सकता है, युद्ध नहीं।अर्जुन भी बहुत विचार कर रहा है और युद्ध से पलायन को ही सर्वश्रेष्ठ मान रहा है। देखते हैं, आगे भगवान श्री कृष्ण क्या करते हैं?

            भगवान् श्री कृष्ण ने युद्ध की विभीषिका के प्रति अर्जुन के विचार को पूर्ण रूप से धैर्य रखते हुए सुना और समझा | यही कारण है कि गीता के प्रथम अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण एक भी शब्द नहीं बोलते हैं | सब कुछ जानकर अर्जुन की दशा को समझकर ज्ञान की धारा को प्रवाहित करते हुए गीता के दूसरे अध्याय के प्रारम्भ में ही भगवान् श्री कृष्ण उसे कह देते हैं-

       अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |

        गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||गीता-2/11||

       अर्थात अर्जुन ! तूने शोक न करनेयोग्य बात का शोक किया है और विद्वता भरी बातें कर रहे हो | जिनके प्राण चले गए हैं और जिनके प्राण नहीं गए है, उनके लिए पण्डित जन शोक नहीं करते |

       अर्जुन ने अपने सम्मुख खड़े युद्ध को देखा | उसने दोनों सेनाओं के मध्य खड़े होकर देखा कि मरने वाले और मारने वाले, दोनों एक ही परिवार के सदस्य हैं | फिर ऐसे युद्ध से क्या लाभ ? इस युद्ध के परिणाम में अगर जीत मिलेगी तो भी दुःख होगा और अगर पराजय मिलेगी फिर तो दुःख मिलना अवश्यम्भावी ही है |

   क्या दोनों ओर की सेनाओं में केवल अर्जुन के ही सम्बन्धी थे, दुर्योधन के नहीं थे ? सम्बन्धी तो दोनों के ही एक दूसरे के विरुद्ध खड़े थे परंतु दुर्योधन तो विचारहीन अवस्था में है।वह भला युद्ध के परिणाम पर विचार क्यों करे?उसकी तो बुद्धि एक ही बात कह रही थी कि एक सूई की नोक जितनी जमीन भी पांडवों को नहीं देनी है।कुंद हुई बुद्धि की दशा परिवर्तित नही की जा सकती। बुद्धि की दशा परिवर्तित होते ही तो विचारों को दिशा मिल जाती है।

        विचार से अधिक महत्वपूर्ण विचार की दिशा है | तामसिक प्रवृति का व्यक्ति विचारहीन होता है अर्थात उसके मन में किसी प्रकार का कोई विचार जन्म ही नहीं लेता | अगर कभी कोई विचार जन्म ले भी लेता है तो वह अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर उस पर मनन तक नहीं करता | सात्विक प्रवृति के व्यक्ति के मन में बहुत से विचार जन्म तो लेते हैं परन्तु उन विचारों पर मनन करते करते उसको विचार करना तथ्यहीन प्रतीत होता है और एक दिन वह निर्विचार की अवस्था को उपलब्ध हो जाता है | समस्या तो राजसिक प्रवृति वाले के व्यक्ति के साथ सबसे अधिक है, जिसके विचारों का कोई अंत ही नहीं है |

        विचार राजसिक प्रवृति के व्यक्ति को सर्वाधिक हानि पहुंचाते हैं | वह किसी भी घटना के बारे में बहुत अधिक सोचने लगता है, जैसा कि भरत के साथ हुआ था अथवा फिर वह किसी कार्य के संभावित परिणाम पर बहुत सोचता है, जैसा कि अर्जुन ने किया था | दोनों ही परिस्थितियों में वह मानसिक अवसाद और विषाद का आसान शिकार बन जाता है, जो उसके जीवन को प्रभावित करता है ।

          इस प्रकार स्पष्ट है कि बहुत अधिक सोच-विचार करने से शोक और विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है | साथ ही यह भी स्पष्ट है कि निर्विचार की स्थिति को प्राप्त कर लेने से शोक और चिंता दूर हो सकती है | महर्षि पतंजलि ने अपने अष्टांग-योग में योग का एक अंग "ध्यान" भी बताया है | ध्यान-योग से निर्विचार की अवस्था उपलब्ध हो सकती है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है | परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह एक सुगम साधन नहीं है |

        अब प्रश्न उठता है कि क्या ज्ञान से शोक दूर किया जा सकता है ? ज्ञान और ध्यान-योग के सम्बन्ध में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –

   शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया |

   आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ||गीता-6/25||

    अर्थात धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा संसार से धीरे-धीरे उपराम हो जाएँ और मन-बुद्धि को परमात्मा में सम्यक प्रकार से स्थित करके फिर किसी भी प्रकार का चिंतन न करें | इस प्रकार प्रयास करने से निर्विचार की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है |

          गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग के माध्यम से अर्जुन को शोक और विषाद की अवस्था से बाहर निकाला और कह दिया कि ‘मा शुचः’ अर्थात तू किसी प्रकार का शोक या चिंता न कर | सम्पूर्ण गीता में दो ही स्थान पर ‘मा शुचः’ आया है | 

       गीता एक राजसिक प्रवृति वाले व्यक्ति अर्जुन को कही गयी है | इसका तात्पर्य है कि राजसिक व्यक्ति के लिए शोक और चिंता से मुक्त होने के लिए, निर्विचार होने के लिए ध्यान-योग से महत्वपूर्ण दो अवस्थाएं और भी हैं, जिनके लिए ‘मा शुचः’, इन दो शब्दों को उपयोग में लिया गया है | 

            प्रथम अवस्था, दैवी सम्पदा की अवस्था है जिसको स्पष्ट करते हुए गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –

    दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता |

    मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोSसि पाण्डव ||16/5||

               अर्थात दैवी सम्पति मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पति बंधन के लिए मानी गयी है | हे पाण्डव ! तुम दैवी सम्पति को प्राप्त हुए हो, इसलिए तुम शोक मत करो |     

           अपने में दैवी सम्पति की वृद्धि करते रहने से व्यक्ति धीरे-धीरे सभी प्रकार के विचारों से दूर होता चला जाता है | दैवी सम्पति कौन कौन सी है? इसको गीताजी के 16 वें अध्याय के प्रथम चार श्लोकों में स्पष्ट किया गया है |

          दैवी सम्पति से युक्त मनुष्य जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में सम रहता है | इसलिए उसके विचलित होकर शोकग्रस्त और चिन्तायुक्त होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता | इसलिए निर्विचार की अवस्था को प्राप्त करने के लिए दैवी सम्पति से सदैव युक्त रहना आवश्यक है |

         निर्विचार होने की दूसरी व्यवस्था, परमात्मा के शरणागत हो जाने की है | भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –

    सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |

   अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||18/66||

    अर्थात सभी धर्मों (कर्तव्य कर्मों) के आश्रय का त्याग कर केवल एक मेरी शरण में आजा, मैं तुम्हें सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत कर |

            राजसिक प्रवृति का व्यक्ति किसी भी कार्य को करने से पहले उसके परिणाम पर गहराई से विचार करता है | उस विचार के अनुसार ही वह परिणाम स्वरुप मिलने वाले पाप और पुण्य की गणना करता है |देखा जाए तो पाप और पुण्य का अस्तित्व केवल मानसिक विचार के कारण ही है। वास्तव में कर्म-योग के अनुसार कर्म करने से सभी कर्म पाप और पुण्य से परे हो जाते हैं। 

       एक परमात्मा की शरण में चले जाने से व्यक्ति निश्चिन्त हो जाता है, निशोक हो जाता है, निर्भय हो जाता है और निशंक हो जाता है | इन चारों अवस्थाओं को प्राप्त कर लेने वाले व्यक्ति के मन में फिर किसी भी प्रकार के विषय पर विचार और मनन करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । इस प्रकार भविष्य में फिर कोई विचार तक मन में जन्म ही नहीं लेगा |ऐसे में पाप और पुण्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यही व्यक्ति की निर्विचार की अवस्था है |

        सभी प्रकार के शोक और चिंता से मुक्त होने के लिए एक परमात्मा की शरण में चले जाना ही सुगम और सर्वश्रेष्ठ मार्ग है | अन्य सभी मार्गों में विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है परन्तु भगवान् की शरण लेने में किसी भी प्रकार के प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं होती | जब आप अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौंप देते हैं, तब आपके समस्त कार्य बिना किसी विचार करने के ही संपन्न हो जाते है |  

            परमात्मा के शरण होने का अर्थ है, परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देना | ऐसा कर लेंगे तो फिर किसी भी परिस्थिति में आप विचलित नहीं हो सकते | फिर किसी कार्य के परिणाम पर, किसी घटना, किसी विषय आदि पर किसी प्रकार का विचार करने की कोई  आवश्यकता ही नहीं होगी | हाँ, यह बात अवश्य है कि परमात्मा पर श्रद्धा और विश्वास किये बिना शरणागत हो जाना असंभव है | अतः एक परमात्मा पर ही पूर्ण विश्वास रखना महत्वपूर्ण है | जितने भी महान संत और भक्त हुए हैं, उनके जीवन का सपूर्ण भार परमात्मा ने अपने ऊपर लिया है |  

     गीता में भी भगवान् कहते हैं –

       अनन्यश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते |

      तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || (9/22)

अर्थात जो अनन्य भक्त मेरा चिंतन करते हुए मेरी भलीभांति उपासना करते हैं, मुझमें निरंतर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम अर्थात अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा मैं करता हूँ |

   इसलिए अगर विचार और चिंतन करना है तो केवल परमात्मा का करें | तभी ‘मा शुचः’ सही मायने में सिद्ध होगा ।

 सार-संक्षेप

          ‘मा शुचः’ अर्थात शोक न करो, से तात्पर्य है कि किसी भी विषय पर अधिक चिंतन न करो | ऐसा चिंतन व्यर्थ का चिंतन है | व्यर्थ का चिंतन ही चिंता और शोक का कारण बनता है | त्रेता में दशरथ के मरने पर भरतजी शोकग्रस्त होकर उनके मरने के कारणों पर विचार कर रहे हैं | यह घटना के घटित हो जाने के पश्चात् की वैचारिक अवस्था है | इधर द्वापर में अर्जुन भविष्य में घटित होने जा रही संभावित घटना पर विचार करते हुए शोकमग्न हो रहा है | यह भविष्य में होने वाले संभावित घटनाक्रम पर किये जाने वाली वैचारिक अवस्था है | दोनों ही अर्थात भूत और भविष्य की अवस्थाओं पर विचार करना किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता | व्यक्ति को सदैव  वर्तमान में रहते हुए तात्कालिक विषय पर ही किसी प्रकार का विचार करना चाहिए जैसा कि वसिष्ठजी ने भरत को मानस में बतलाया है |

         विचारहीन होने से अच्छा है, विचारवान होना | विचारहीन मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है | हम प्रायः विचारहीन अवस्था को ही निर्विचार होना मान लेते हैं जोकि अनुचित है | विचारहीन व्यक्ति विचारशून्य नहीं हो सकता | विचारशून्य विचार उत्पन्न होने के बाद ही हुआ जा सकता है जैसा कि अर्जुन के साथ हुआ था | वैचारिक व्यक्ति को विचारशून्य की अवस्था में ले जाया जा सकता है विचारहीन व्यक्ति को नहीं |

       निर्विचार की अवस्था के लिए ध्यान-योग है परन्तु इसमें विशेष प्रयास करना पड़ता है | परमात्मा की शरण होना, निर्विचार की अवस्था को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है, जिस पर चलकर ही अर्जुन ने कुरुक्षेत्र का महाभारत अपने नाम कर लिया था | इसलिए जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है, एक परमात्मा की शरण लेकर निर्विचार हो जाना |

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||


     


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