यः सदा मुक्त एव सः
भक्ति और मुक्ति एक दूसरे से संबंधित है क्योंकि मुक्त होकर ही भक्त हुआ जा सकता है।भक्त जुड़ता है और मुक्त संबंध विच्छेद करता है। एक भक्त होता है, संसार का और दूसरा भक्त होता है, परमात्मा का। संसार का भक्त जीवन भर सुखी-दुःखी होता रहता है और परमात्मा का भक्त मौज में रहता है। हमें संसार से संबंध विच्छेद करना है और परमात्मा से संबंध जोड़ना है। नहीं, नहीं ! परमात्मा से संबंध तो पहले से ही जुड़ा हुआ है परंतु संसार से संबंध जुड़ जाने के कारण हम परमात्मा से अपने संबंध को विस्मृत कर चुके है। यह बात पुनः स्मृति में तभी आएगी, जब संसार के साथ माने गए संबंध से हम मुक्त होंगे।
एक मनुष्य के रूप में भले ही हम स्वतंत्र पैदा हुए हों परंतु संसार में आकर हमें बेड़ियाँ पहनने का शौक लग जाता है। बेड़ियाँ चाहे सोने की हो अथवा लोहे की, है तो बांधने के लिए ही न। हमें इन्हीं बेड़ियों से मुक्त होकर स्वयं की खोज करनी है। स्वयं की खोज ही परमात्मा की खोज है।
कौन है मुक्त ? मुक्ति का परिणाम क्या है ?इनको जानने का प्रयास करंगे, "यः सदा मुक्त एव सः" में।
आत्मबोध के लिए प्रयत्नरत व्यक्ति जानता है कि उस परमात्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह दूर से दूर भी है और निकट से भी निकट है | संसार की आसक्तियों में आकण्ठ डूबे मनुष्य के लिए परमात्मा दूर से भी दूर है और जिसने संसार से असंग होते हुए उससे निवृति ले ली है उसके लिए परमात्मा निकट से भी निकट है |
परमात्मा की प्राप्ति उस प्रकार की प्राप्ति नहीं है जैसे किसी प्रकार के पदार्थ अथवा वस्तु को प्राप्त किया जाता है | परमात्मा की प्राप्ति से अर्थ है, जिस अज्ञान का बोझ हम अपने सिर पर उठाए आज तक भटक रहे हैं उस अज्ञान को छोड़कर ज्ञान को प्राप्त होना | हमें जब भी किसी वस्तु को प्राप्त करना होता है तो पूर्व में पकड़ी हुई वस्तु को छोड़ना पड़ता है | बिना किसी को छोड़े कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता, यह सार्वभौमिक सत्य है | इसी प्रकार परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भी संसार को छोड़ना पड़ता है | संसार को छोड़े बिना परमात्मा का प्राप्त होना असंभव है | संसार को पकड़कर रखना हमारा अज्ञान है और परमात्मा को पकड़ रखना ज्ञान है |
हमारे जितने भी शास्त्र हैं, वे सब इस बात पर एक मत है कि बिना मुक्ति के परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती | ब्रह्म-सूत्र में एक सूत्र है – “मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात्” (1/3/2) अर्थात उस प्रेमस्वरूप भगवान् को मुक्त पुरुषों के लिए ही प्रातव्य बताया गया है | मुक्त किससे होना है ? जिस बंधन में हम बंधे हुए हैं, उस बंधन से हमें मुक्त होना है | वह बंधन जिसमें हम बन्ध गए हैं, वह है हमारे द्वारा निर्मित संसार |
प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही स्वाभाविक रूप से मुक्त ही पैदा होता है परन्तु इस संसार में आकर इन्द्रिय-विषयों के भोगों में आकंठ डूबकर इस प्रकार बन्ध जाता है कि जीवनभर उनसे मुक्त नहीं हो पाता | तभी तो अष्टावक्र मुनि जनकजी को कहते हैं कि ‘मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज’ (अष्टावक्र गीता-1/2) यदि तू मुक्ति को चाहता है तो विषयों को विष के समान जानकर इनको छोड़ दे ।
संसार के साथ बंधने में इन्द्रिय-विषय की भूमिका ही महत्वपूर्ण है | मुक्त पैदा हुआ मनुष्य इस संसार रुपी वियावान में भटकता ही इसीलिए है कि वह जीवन भर विषय-भोग प्राप्त करने में ही उलझा हुआ रहता है | विषय भोगों से आज तक कोई तृप्त नहीं हुआ है | अपने पुत्र पूरु से उसकी युवावस्था को प्राप्त करके भी राजा ययाति भोगों से संतुष्ट न हो सका, ऐसे में आपकी और मेरी तो बिसात ही क्या है ?
राजा ययाति दैत्यों के गुरु शुक्राचार्यजी के दामाद और देवयानी के पति थे | शुक्राचार्य जी दानवराज वृषपर्वा के पुरोहित थे | वृषपर्वा की एक पुत्री थी, शर्मिष्ठा | शर्मिष्ठा और गुरुपुत्री के मध्य अहंकारवश उपजे वैमनस्य-भाव के कारण दानव-राजकन्या शर्मिष्ठा को विवाह उपरांत देवयानी के साथ एक दासी के रूप में उसके ससुराल जाना पड़ा | थोड़े दिनों बाद देवयानी ने एक पुत्र को जन्म दिया | उचित अवसर जानकर शर्मिष्ठा ने ययाति से एकांत में सहवास की कामना की जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया | इस प्रकार कामपिपासु ययाति से देवयानी से दो पुत्र और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हुए | बहुत समय बीत जाने के उपरांत जब देवयानी को पता चला कि शर्मिष्ठा के तीनों पुत्र भी ययाति से ही उत्पन्न हुए हैं तब उसे बहुत दुःख हुआ और ययाति पर बड़ा क्रोध आया ।
शर्मिष्ठा और ययाति के सम्बन्ध की जानकारी मिलते ही देवयानी रुष्ट होकर तत्काल ही ययाति को छोड़कर अपने पिता के पास चली गयी | देवयानी से सारा वृतांत जानकर शुक्राचार्य को बड़ा क्रोध आया | उन्होंने राजा ययाति को तुरंत ही वृद्ध हो जाने का श्राप दे डाला |
राजा ययाति ने शुक्राचार्य जी को समझाया कि इस शाप से केवल मेरा ही नहीं आपकी पुत्री का भी अहित ही होगा | ययाति ने शुक्राचार्य जी से बहुत आग्रह किया कि वे अपना शाप लौटा लें परन्तु एक ब्राह्मण के मुख से निकले वचन कभी असत्य नहीं हो सकते थे | शाप के प्रभाव से उसी समय ययाति को वृद्धावस्था ने घेर लिया और वे कुरूप हो गए |
ययाति के बहुत अनुनय विनय करने पर शुक्राचार्य जी ने कह दिया कि ‘मेरे द्वारा दिया शाप तो वापिस नहीं हो सकता परन्तु इस शाप से बच निकलने की एक व्यवस्था मैं तुम्हें दे रहा हूँ | अगर कोई युवा व्यक्ति तुम्हारी वृद्धावस्था को स्वयं के लिए अपनी इच्छा से स्वीकार कर ले और तुम्हें अपनी युवावस्था दे दे, तो तुम पूर्व अवस्था को उपलब्ध हो सकते हो ।
राजा ययाति राजमहल लौटे, उनके साथ देवयानी भी लौट आयी | राजा ने एक-एक कर अपने सभी पुत्रों से उनकी युवावस्था को स्वयं की वृद्धावस्था से बदलने का अनुरोध किया | एक-एक कर सभी पुत्रों ने इसके लिए स्पष्ट रूप से मना कर दिया | केवल सबसे छोटे पुत्र पूरु ( शर्मिष्ठा से उत्पन्न हुआ पुत्र) ने उनके इस आग्रह को सहर्ष अपना कर्तव्य मानते हुए स्वीकार किया और अपनी युवावस्था अपने पिताजी को देकर बदले में उनसे वृद्धावस्था ले ली | युवा होने के बाद कई वर्षों तक ययाति ने स्त्री-सुख का भोग किया |
परिवर्तन सभी के जीवन में एक न एक दिन अवश्य ही आता है और ऐसा ही परिवर्तन ययाति के जीवन में भी आया | ऐसे परिवर्तन को जीवन का turning point कहा जाता है | जो व्यक्ति इस परिवर्तन को समझ जाता है, वह तो इस संसार चक्र से बाहर निकलने का प्रयास कर लेता है और जिसने इस परिवर्तन को अनदेखा किया, वह संसार चक्र में अनन्त काल तक घूमता रहता है | राजा ययाति ने अपने जीवन में आये इस परिवर्तन को समझा |
राजा ययाति के मस्तिष्क में विचार आया कि मैं भी कैसा पतित व्यक्ति हूँ जो केवल शारीरिक सुख के लिए अधःपतन को प्राप्त हो गया हूँ | आज जब मेरे पुत्र को युवावस्था की आवश्यकता है तब मैंने उसको वृद्ध बनाकर उसके स्थान पर स्वयं सुख भोगने में लगा हुआ हूँ | इतने वर्षों तक भोग भोगने के बाद भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है, इसका अर्थ यही है कि विषय-भोगों से कभी भी तृप्त नहीं हुआ जा सकता | विषयों को लगातार भोगते रहने से भी भोगवासना कभी शांत नहीं हो सकती बल्कि जैसे घी की आहुति देने से आग और अधिक भड़क उठती है वैसे ही भोगवासनाएं भोगों से और अधिक प्रबल हो उठती है | विषयों की तृष्णा ही दु:खों का उद्गम स्थान है |
विचारों में आया यह परिवर्तन ययाति को एक नई दिशा दे गया क्योंकि उसने इन विचारों की उपेक्षा नहीं की थी | तत्काल ही उसने अपने पुत्र पूरु को राजभवन बुलाया और उसकी युवावस्था लौटा दी | स्वयं वृद्ध होकर सर्वप्रथम पूरु को राज्य दिया और फिर देवयानी को साथ में लेकर साधना हेतु वन के लिए राजभवन से प्रस्थान कर गए |
इस प्रकार राजा ययाति के प्रसंग से स्पष्ट होता है कि कोई भी इन्द्रिय-विषय किसी को जीवन भर मिलता रहे तो भी तृप्त नहीं कर सकता | इसलिए जितनी शीघ्रता से विषयों को त्याग दिया जाये उतना ही जीवन के लिए लाभदायक है |
कल एक मित्र से बात हो रही थी | कह रहे थे कि ‘स्त्री के कारण ही जीवन दु:खमय बना हुआ है | स्त्री को ही घर परिवार के लिए बहुत कुछ चाहिए | पुरुष को किसी भी चीज की आवश्यकता कभी नहीं होती |’ मैंने उनको बड़ी शालीनता के साथ समझाया कि भले ही एक पुरुष को जीवन में कुछ भी नहीं चाहिए, फिर भी उसे एक स्त्री अवश्य ही चाहिए | इस प्रकार पुरुष की जीवन में बस एक ही कामना होती है और वह कामना है एक स्त्री को पाने की | पुरुष ने ही स्त्री की कामना की थी और संसार चक्र में फंस जाने पर अब उसी स्त्री को दोष दे रहा है, क्या ऐसा करना उचित है ? कदापि नहीं | इसमें भला स्त्री का क्या अपराध है ?
आपने स्त्री की कामना करके उसे पत्नी बनाकर अपने संसार को बनाया है | इसके लिए आप ही दोषी हैं | या तो आपके मन में एक स्त्री को पाने की कामना ही नहीं उठती तो अच्छा होता और फिर भी कामनावश आपने स्त्री को पत्नी के रूप में पा भी लिया तो विषयों से निवृत्त होना आपका काम है, पत्नी का नहीं | इसमें पत्नी की भूमिका केवल आपका साथ देने तक ही सीमित है, अतः स्त्री को जीवन में कभी भी दोष न दें |
मुक्ति के लिए न तो स्त्री बाधा है और न ही उसके कारण बना आपका संसार | मुक्ति के लिए एक तो स्वयं का प्रयास काम आएगा और दूसरा आपकी पत्नी का इस कार्य में सहयोग | इसलिए मन में मुक्ति का विचार आते ही राजा ययाति की तरह विषय-भोगों से निवृति पा लें | भोगों से निवृति तो आप नहीं ले पा रहे हैं और उलटे दोष स्त्री को दे रहे हैं | आपने स्त्री के माध्यम से संसार बनाया है, फिर इस संसार में आसक्त भी आप ही हुए हैं अतः इस संसार से आपको ही मुक्त होना है | इस संसार से निवृत होना आपका कार्य है, इसमें आपकी ही दृढ़ता काम आएगी |
बात चल रही थी कि मुक्त व्यक्ति के लिए ही परमात्मा प्रातव्य है | मुक्ति और भक्ति, ये दो शब्द अध्यात्म में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | भक्ति का अर्थ है, जुड़ना (attachment) और मुक्ति का अर्थ है, अलग हो जाना (separation) यानि जिससे जुडाव है उससे स्वतंत्रता पा लेना | एक आध्यात्मिक चिन्तक, जिससे जुडाव है (संसार) उससे तो मुक्त होता है और जिससे दुराव है (परमात्मा) उससे जाकर जुड़ता है | मनुष्य का जुडाव रहता है, संसार से | अतः मुक्त हो जाने का अर्थ है संसार से अलग होकर स्वतन्त्र हो जाना | मनुष्य का संसार से जुडाव उसे परमात्मा से दूर बनाये रखता है | संसार से अलग होकर परमात्मा के साथ जुड़ना ही मुक्ति से भक्ति की तरफ जाना है |
संसार से विमुख होने का अर्थ संसार से द्वेष रखना कदापि नहीं है बल्कि संसार की गतिविधियों में जो आपकी रुचि है उससे स्वयं को अलग रखते हुए परमात्मा के सम्मुख होना है | संसार से भिन्न होकर ही संसार को जाना जा सकता है | परमात्मा को जानने के लिए उनसे अभिन्न होना पड़ता है ।
आप जिसके सम्मुख होते हैं, स्वतः ही उसके विपरीत से विमुख हो जाते हैं | अगर हम पूर्व दिशा के सम्मुख हैं तो स्वतः ही पश्चिम दिशा से विमुख होते हैं | परमात्मा के सम्मुख होने का अर्थ है संसार से विमुख हो जाना; ज्ञान के सम्मुख होने का अर्थ है अज्ञान से विमुख होना और इसी प्रकार प्रकाश की ओर उन्मुख होने का अर्थ है अँधेरे से दूर होना | इसीलिए कहा गया है कि मुक्त पुरुष के लिए ही परमात्मा प्राप्तव्य है | परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ है-जो प्राप्त है, उसका त्याग करना | अतः कहा जा सकता है कि संसार के त्याग में ही परमात्मा की प्राप्ति छिपी है | “अतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः” (भागवत-10/14/28) अर्थात संसार के त्याग में ही परमात्मा की खोज निहित है |
संसार में आसक्ति रखना बंधन है और संसार में रहते हुए अनासक्त होकर जीना ही उससे मुक्ति है | संसार की आसक्ति हमें बंधन में कैसे डालती है ? यह जान लेना भी आवश्यक है | जब तक हम इस बात को स्पष्ट रूप से जान नहीं लेंगे तब तक मुक्ति की राह नहीं पकड़ सकते | भला, मुक्त हुए बिना परमात्मा से हमारी दूरी कैसे मिटेगी ?
प्रायः हममें से प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की भक्ति की बात करता है परन्तु संसार से मुक्ति की बात आती है, तब सब यही कहते हैं कि हम तो मुक्त ही हैं | परन्तु सच्चाई यह है कि हममें से कोई भी संसार से सही मायने में मुक्त नहीं है | मेरी बात कुछ कटु लग सकती है परन्तु जब तक दर्पण में प्रतिबिम्ब देखा नहीं जायेगा तब तक हमें अपनी वास्तविकता का अनुभव नहीं होगा | आइये, यही जानने का प्रयास करते हैं कि संसार की आसक्ति में डूबे हुए व्यक्ति की पहचान कैसे कर सकते हैं ? यह सूत्र केवल स्वयं को पहिचानने के लिए है, किसी अन्य को इन के आधार पर पहिचानने का प्रयास न करें, यह जानते हुए कि हम सभी एक नाव में बैठे हुए इस असार संसार सागर में विचरण कर रहे हैं | हम सब की एक सी ही यात्रा हैं |
आध्यात्मिक प्रगति के बारे में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को दूसरे से भिन्न समझता है | जबकि वास्तविकता यह है कि केवल प्रतिमा की पूजा और पाठ आदि करने को ही हम महत्वपूर्ण मान बैठे हैं | इस संसार से आसक्ति किसी की भी नहीं छूट रही है | जब तक संसार की आसक्तियों से से मुक्ति नहीं मिल जाती तब तक आध्यात्मिक प्रगति शून्य ही कही जाएगी |
जो व्यक्ति भयग्रस्त है, मान लीजिये वह अभी भी संसार में आसक्त है | भय का मुख्य कारण है-‘जो मिला है वह कहीं खो न जाये’| वास्तव में जीवन में जो कुछ भी मिला है वह संसार और शरीर से किसी भी मायने में भिन्न नहीं है | संसार और शरीर दोनों ही क्षर है इसका अर्थ हुआ कि जो मिला है उसकी स्थिति भी सदैव एक समान नहीं रह सकती | जब क्षरण होना ही उसकी नियति है, तो उसका खो जाना भी निश्चित है | तो फिर खोने का भय क्यों ? सांसारिक पदार्थ एक न एक दिन समाप्त होने है, उनका एक से दूसरे प्रारूप में परिवर्तित होना प्राकृतिक नियम है | हमारा शरीर भी उस नियम से परे नहीं है |
यह शरीर और इस शरीर से सम्बंधित सभी विषय-भोग, परिवार-जन, धन-सम्पति, भवन आदि सभी क्षरण के गुण लिए हुए है | उसमें आसक्ति रखना ही हमारे भय के मूल में है | जब तक हम भयग्रस्त हैं तब तक हम मुक्त नहीं हुए है, यह बिलकुल स्पष्ट है | इस संसार का संग करते हुए हम भय से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते और भय से मुक्त हुए बिना परमात्मा की ओर यात्रा नहीं हो सकती |
श्री मद्भागवत महापुराण में राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति का वृतांत आता है | वृद्धावस्था की दहलीज पर दोनों खड़े हैं और सन्तान न होने के कारण वे अपने आपको दुखी मान रहे हैं | तभी ऋषि अंगिरा और नारदजी का आगमन होता है | राजा उन्हें अपने दुःख का कारण बतलाते हैं | ऋषि अंगिरा और नारदजी के बहुत समझाने पर भी वे जिद्द करते हैं कि एक बार पुत्र हो जाये तो हम अवश्य ही सुखी हो जायेंगे | आखिर दोनों उन्हें इस चेतावनी के साथ पुत्र होने का आशीर्वाद देते हैं कि यह पुत्र तुम को सुख और दुःख दोनों ही देगा |
समय पाकर रानी कृतद्युति पुत्रवती होती है | राजा चित्रकेतु बड़ा प्रसन्न होता है | दिन-रात राजा और रानी, पुत्र को लाड़-प्यार करने में ही लगे रहते हैं | इन दोनों का सुखी होना अन्य रानियों से देखा नहीं जाता | द्वेष-भाव से अन्य रानियां मिलकर राजपुत्र को विष दे देती है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है | राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति पुत्र शोक में रो-रो कर पागल हो जाते हैं | चेतना लौटते ही पुत्र के शव को सीने से लगाकर फिर से विलाप करने लगते हैं | तभी ऋषि अंगिरा और नारद मुनि वहां पहुँच जाते हैं |
ऋषि अंगिरा और नारद मुनि, राजा और रानी को विविध प्रकार से समझाते है कि ‘राजन ! हमने तो पहले ही कहा था कि यह पुत्र तुम्हें हर्ष और शोक, दोनों को ही देने वाला होगा परन्तु तुम माने नहीं और पुत्र प्राप्ति की अपनी जिद्द पर अड़े रहे | अब पुत्र के चले जाने से दुखी क्यों हो रहे हो ?’
मनुष्य की यही नियति है कि वह जीवन भर आसक्ति के कारण सुखी दुखी होता रहता है | राजा और रानी, दोनों जिद्द करते हैं कि एक बार हमारे पुत्र से हमारी बात करा दीजिये | अंततः नारदजी द्वारा राजपुत्र की जीवात्मा को बुलाया जाता है | जीवात्मा को देखते ही राजा चित्रकेतु कहते हैं-‘पुत्र तुम कहाँ चले गए हो ? तुम्हारी मां तुम्हारे जाने से दुखी है | लौट आओ, हमारे पास |’ जीवात्मा उत्तर देते हुए कहती है-‘कौन पुत्र ? किसका पुत्र ? मुझे अपनी सांसारिक यात्रा में अब तक न जाने कितने मां बाप मिल चुके हैं | अब जहाँ मैं पहुँच गया हूँ वहां के मां-बाप मुझे देखकर प्रसन्न है और मैं भी उनके वहां प्रसन्न हूँ | मैं अब पुनः आपके यहाँ लौट नहीं सकता, प्रकृति का यही नियम है |’ इतना कहकर राजपुत्र की जीवात्मा अन्तरिक्ष में खो गयी |
विलाप करते राजा-रानी को ऋषि अंगिरा और नारदजी ने विविध प्रकार से समझाते हुए ज्ञान दिया, तब जाकर दोनों पुत्र-शोक से मुक्त हो सके | ज्ञान होते ही राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति ने राजमहल का त्याग कर दिया और परमात्मा की प्राप्ति के लिए साधना करने वन की ओर चल दिए |
इस प्रकार ययाति प्रसंग से निकला सूत्र तो कहता है कि अगर हम मुक्ति चाहते हैं तो हमें विषयों का त्याग कर देना चाहिए तथा चित्रकेतु-नारद-अंगिरा संवाद से यह निष्कर्ष निकलता है कि इच्छा रखना ही हमें बंधन में डालता है, मुक्त नहीं होने देता |
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आसक्ति ही दुःख और भय का मूल कारण है | आसक्ति के कारण ही मन में विविध इच्छाएं और कामनाएं जन्म लेती है | जब कामना पूर्ति हो जाती है तो परिणाम में प्राप्त हुए के खो जाने का भय सताता है | कामना पूर्ण न हो तो दुःख और क्रोध पैदा होता है | कामना ही राग और द्वेष की जनक है | जो प्राप्त हुआ है, उसमें तो राग उत्पन्न हो जाता है और जिस कारण से प्राप्त नहीं हो सका है उस कारण के प्रति द्वेष |
गीताजी के 16 वें अध्याय में दैवी सम्पदा का वर्णन आता है | जिसमें बताया गया है कि दैवी सम्पति मुक्ति के लिए है | हमें अपने जीवन में दैवी सम्पदा से युक्त होना चाहिए जिससे मुक्त हो सकें |
दैवी सम्पदाएँ हैं- भय का सर्वथा अभाव, अंतःकरण की शुद्धि, योग में दृढ स्थिति,सात्विक दान, इन्द्रिय-दमन,यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्यपालन के लिए कष्ट सहना, शरीर-मन-वाणी की सरलता, अहिंसा, सत्य बोलना, क्रोध न करना, राग-द्वेष का न होना, चुगली न करना, सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखना, विषयों में आसक्त न होना, अकर्तव्य में लज्जा भाव, कोमल ह्रदय, चपलता का अभाव,तेज,क्षमा,धैर्य,शरीर की शुद्धि,वैर भाव का न होना, मान-सम्मान न चाहना आदि | इसके विपरीत आसुरी संपदाओं का वर्णन करते हुए भगवान् स्पष्ट करते हैं कि दंभ करना, घमंड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेकी होना आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण है |
हमें दैवी सम्पदा से युक्त होना है, तभी संसार से मुक्त हो सकते हैं |
मुक्त कौन है ? इसको स्पष्ट करते हुए भगवान् गीता के पांचवें अध्याय के 28 वें श्लोक में कहते हैं-
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: |
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ||
अर्थात जिसकी इन्द्रियां,मन और बुद्धि जीती हुई है, जो मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है |
इन्द्रियां विषय-भोग को प्राप्त करने का कार्य करती है और मन उन विषय-भोगों को प्राप्त करने की इच्छा करता है जिसमें बुद्धि उसकी सहयोगी बनती है | इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात हुई; मन, बुद्धि को जीतना जिससे इन्द्रियाँ विषयों की ओर न दौड़े | ऐसा होना केवल तभी संभव है जब भीतर मोक्ष की कामना हो | परमात्मा के सम्मुख और संसार से विमुख होने से ही इन सबको जीता जा सकता है | मन, बुद्धि और इन्द्रियों को जीत लेने का परिणाम होता है-इच्छा, भय और क्रोध का न होना | जिस व्यक्ति के जीवन में इच्छा, भय और क्रोध का अभाव है वह सदैव मुक्त ही है | ऐसा मुक्त व्यक्ति ही परमात्मा प्राप्ति का अधिकारी होता है |
संसार से मुक्त होने के लिए क्या करना होगा | भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं –‘असंगशस्त्रेण दृढेण छित्वा’ (15/3) अर्थात दृढ मूलों वाले संसार रुपी वृक्ष को असंग रूप शस्त्र से काट दें | असंग का अर्थ है संसार का संग न करें | संसार के संग से तात्पर्य है, संसार में आसक्ति न रखें | हमारी आसक्ति या तो विषय-भोगों में होती है अथवा संसार के पदार्थों और विभिन्न शरीरों में, जिन्हें हम अपना परिवार कहते हैं | परिवार के सदस्य हमें वैसे ही इस जीवन में मिलते हैं, जैसे प्यासे व्यक्ति विभिन्न मार्गों से चलते हुए एक प्याऊ पर आकर कुछ समय के लिए मिल-बैठ जाते हैं | प्यास से मुक्त होते ही सभी अपने अपने रास्ते चल देते है |
जब हम सब अपनी-अपनी यात्रा पर गतिमान है तो फिर राह में मिलने वालों से लगाव क्यों ? यह लगाव रखना ही बंधन है | इस प्रकार के लगाव से मुक्ति पा लेना ही संसार से असंग हो जाना है | संसार से असंग होना ही मुक्ति है |
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि असंगता ही वह शस्त्र है जिससे सांसारिक बंधन काटे जा सकते हैं | संसार के बंधन काट डालने के उपरांत ही परमात्मा की खोज प्रारम्भ होती है, बंधन के रहते नहीं | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि संसार नित्य निवृत है, इसलिए इसको नित्य होना मान लेने की भावना का त्याग करना होता है और परमात्मा नित्य प्राप्त है, इसलिए उनकी खोज करनी होती है | ‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्’ (गीता-15/4) अर्थात असंग शस्त्र से संसार की दृढ मूल वाले वृक्ष को काटकर फिर परमात्मा की खोज करनी चाहिए |
संसार में राग रखना ही बंधन है | संसार के प्रति राग को मिटा डालना ही मुक्ति है | बिना संसार से मुक्त हुए भगवान् से भक्त नहीं हो सकते | अतः भक्ति के लिए संसार से मुक्त होना आवश्यक है | यही परमात्मा तक पहुँचने का एक मात्र रास्ता है | जीवन में संसार से अनासक्त हो जाना ही हमें आत्म-बोध की ओर ले जा सकता है, जहाँ पहुंचकर हम स्वयं ही परमात्मा हो जाते है |
गीता कहती है कि जो मान और मोह से रहित हो गए हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य निरंतर परमात्मा में लगे हुए है, जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गए हैं, जो सुख-दुःख नामक द्वंद्वों से मुक्त हो गए हैं वे ही वास्तव में संसार से असंग हुए हैं | इनमें से किसी भी व्यक्ति में एक भी विकार है तो समझ लें कि वह अभी भी बंधन में है, मुक्त नहीं हुआ है |
जिसमें एक भी ऐसा विकार नहीं है वही मुक्त है | “गच्छन्ति अमूढ़ा: पदम् अव्ययं तत् (गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्-गीता-15/5) अर्थात ऐसे मुक्त हुए ज्ञानी व्यक्ति ही उस अविनाशी पद को प्राप्त करने के लिए गतिमान होते हैं | कहने का अर्थ है कि संसार से असंग होने के लक्षण जो कि ऊपर बतलाये गए हैं, परमात्मा केवल ऐसे पुरुषों के लिए ही प्राप्तव्य है | अतः हमें जो यह मनुष्य जीवन मिला है उसकी उपयोगिता तभी है जब हम संसार में आसक्त न रहें और परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास करें।
सिकंदर के जीवन का एक वृतांत है | जब सिकंदर अपने विश्व-विजय अभियान पर निकला था तब निकलने से पहले वह अपनी मां से आशीर्वाद लेने उनके पास गया था | उसने मां से पूछा कि जब मैं विश्व-विजय अभियान से लौटूं तो तुम्हारे लिए क्या लेकर आऊँ ? मां ने कहा कि अगर ला सकते हो तो भारत देश से एक संत को लेकर आना | सिकंदर ने सोचा कि एक संत को हिंदुस्तान से ले कर आना कौन सी बड़ी बात है? उसे तो मैं बड़ी आसानी से ले आऊंगा |
परन्तु सिकंदर की सोच ही गलत थी | संत अपनी मर्जी का मालिक होता है, किसी का गुलाम नहीं | इसीलिए वह सदैव भयमुक्त रहता है |
जब सिकंदर अपनी हिंदुस्तान यात्रा से वापिस लौटने लगा तो उसको अपनी मां का कहा स्मरण हो आया | उसने तत्काल ही किसी संत की खोज में निकल पड़ने की सोची | इस विचार को अपने सैन्य साथियों के साथ बाँटते हुए वह एक संत की खोज में निकल पड़ा | उसके साथियों ने सुरक्षा के लिए साथ चलने का कहा परन्तु उसने यह जान कर उन्हें रोक दिया कि भला एक संत को लाने में सेना की क्या आवश्यकता है ?
हिमालय की गुफाओं में खोजते-खोजते सिकंदर को आखिर एक संत मिल ही गए | घोड़े पर बैठा सिकंदर और जमीं पर अधलेटा नंगधडंग एक संत | घोड़े पर बैठे-बैठे सिकंदर बोला-‘तुम्हें मेरे साथ यूनान चलना होगा |’ संत ने कहा कि ‘हम कहीं जाते-आते नहीं है।हमने भटकना छोड़ दिया है’ | सिकंदर ने कहा – ‘यह तलवार देखते हो न | मैं चाहूँ तो इसके एक ही झटके में तुम्हारा सिर धड़ से अलग हो जायेगा |’ संत ने कहा –‘किसको तलवार का भय दिखा रहे हो ? जिस प्रकार तुम मेरा सिर धरती पर गिरते देखोगे उसी प्रकार मैं भी उसे गिरते देखूंगा |’
सिकंदर की आँखों में आँखे डालकर भारत का एक संत बात कर रहा है | उसे तनिक भी भय नहीं है कि सामने मन में विश्व विजय की कामना लिए एक सम्राट खड़ा है | भारत का यह संत मुक्त है, सभी प्रकार की इच्छाओं से, भय से, क्रोध से | जबकि सिकंदर की इच्छाओं का कोई ओर-छोर नहीं है | संत की बात सुनते ही सिकंदर का क्रोध जैसे पिघल गया | आज वह एक साधारण से दिखने वाले संत से परास्त हो गया | हिम्मत कर उसने संत से पूछा - ‘आप कौन है ?’ संत ने कहा –‘अहम् ब्रह्मास्मि |’
संत के ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहते ही सिकंदर चौंका | एक नंगधडंग संत भूमि पर पड़ा है, जिसके पास कुछ भी नहीं है और वह निर्भय होकर कह रहा है कि मैं ब्रह्म हूँ | सिकंदर की मुमुक्षा बढ़ी | वह और अधिक जानने को आतुर हुआ | घोड़े पर से नीचे उतरा | तलवार को अलग रखते हुए संत के सामने घुटनों के बल बैठकर नत मस्तक हो गया | आज उसे समझ में आ रहा था कि मां ने जो वस्तु मुझसे मांगी है, जिसको मैं एक साधारण सी बात मान रहा था, वह संसार की समस्त धन-दौलत से भी न खरीदे जा सकने वाली वस्तु है।वह वस्तु इतनी असाधारण है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता |
सिर उठाकर सिकंदर ने बड़ी ही मधुर वाणी में संत से पूछा - ‘अगर आप ब्रह्म है तो फिर मैं कौन हूँ ?’ संत ने उत्तर दिया –‘तत्त्वमसि’ (तत् त्वं असि) अर्थात तुम भी वही हो |’ सुनकर सिकंदर की आँखें फटी की फटी रह गयी | वह सोचने लगा - ‘मैं भी ब्रह्म हूँ | मैंने अभी तक यह जाना ही नहीं था | संत के सानिध्य ने आज ही मुझे इस बात का ज्ञान कराया है |” आज सिकंदर अपने को संसार का सबसे सौभाग्यशाली व्यक्ति समझ रहा था जो उसे एक संत का सानिध्य मिला | सत्य है-अँधेरे को भगाने के लिए प्रकाश की एक छोटी से किरण ही पर्याप्त है |
सिकंदर से इससे आगे कुछ भी पूछते न बना | उसने संत को प्रणाम किया और अपनी तलवार उठाकर घोड़े पर बैठ गया और भारी मन से वहां से निकल गया | उसके लिए अभी भी बहुत कुछ जानना शेष था परन्तु उसके साथी उसकी सुरक्षा को लेकर चिंतित हो रहे होंगे, यह जानकर वह अधिक न रूक सका | एक संत के अल्प समय के लिए मिले सानिध्य ने उसको कितना परिवर्तित कर दिया, इसको जान लेने की हमारी उत्सुकता नहीं है | हमें तो संत की बात महत्वपूर्ण लगी |
एक दृष्टि संत के व्यवहार पर डालेंगे तो पाएंगे कि ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहना तभी संभव हो सकता है, जब व्यक्ति मुक्त हो | समस्त आसक्तियो से मुक्त होते ही संसार से मुक्त हो जाता है और फिर वह स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है | इसलिए जीवन में भय मुक्त हों, क्रोध मुक्त हों और इच्छा रहित हों | तीनों आपस में सम्बंधित है | केवल इनसे मुक्त होने के लिए मन, बुद्धि और इन्द्रियों पर दृढ़ता से नियंत्रण करना होगा | तभी हम मुक्त कहे जा सकते हैं और उस अवस्था को एक दिन उपलब्ध हो जायेंगे जब हम भी कह सकेंगे –“अहम् ब्रह्मास्मि |”
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
मैं एक दक्षिण भारतीय हूं / मैने आपकी प्रस्तुति को पठा और उसमें से बहुत ज्ञान एवं शान्ति
ReplyDeleteप्राप्त की / आपका धन्यवाद ! आपसे लिखी गयी ययाती देवयानी कथा मैं
कल मेरे पुत्र को सुना दूंगा / उसको केवल कच देवयानी कथा ज्ञात है / आपके लेखन में
विदेशी शब्दों क उपयोग किया नहीं गया है / वह बात मुझको संतुष्ट करती है,
क्योंकि मेरा विश्वास है कि भारतीय भाषाओं में अर्थ स्फुरण की अमॆय शक्ति
रहती है, इसलिए विदेशी भाषाओं का ऋणी बनने की आवश्यकता नहीं है /
हिन्दी मेरी मातृभाषा नहीं है, इसलिये मेरी वाणी में जो अशुद्धियां हैं, उनकी क्षमा
कीजिये / पुनश्च धन्यवाद ! मोहनचन्द्र (DKM Kartha)