“जीवन-सूत्र”
मनुष्य को सभी प्राणियों
में बुद्धिमान कहा जाता है | उसका बुद्धिमान होना ही उसको अन्य प्राणियों से
विशिष्ट नहीं बनाता बल्कि वह अपनी बुद्धि का उपयोग किस दिशा में करता है वह बनाता है
| जिस लक्ष्य के लिए पशु में बुद्धि को बनाया गया है वह केवल उसी दिशा में जा सकता
है, अपनी इच्छानुसार नहीं | मनुष्य अपनी दिशा बुद्धि का उपयोग करते हुए निर्धारित
कर सकता है, यह उसे स्वतंत्रता परमात्मा ने दी है |
बुद्धि जड़ तत्व है और उसका
जड़ तत्व की ओर आकर्षण होना स्वाभाविक है और फिर मन जैसे जड़ तत्व का साथ मिल जाये
तो कहना ही क्या ? जीवन में मन मनुष्य की बुद्धि को भटका देता है और इस भटकाव से
बचने का एक ही उपाय है, सही लक्ष्य का ज्ञान होना | भटकता वही है, जिसे लक्ष्य का
ज्ञान नहीं है | लक्ष्य व्यक्ति सवयं निर्धारित करता है और उसी दिशा में आगे बढकर
उसे पाने का प्रयास करता है | अगर लक्ष्य सही है तो फिर उसके जीवन में भटकाव आ ही
नहीं सकता |
चौरासी लाख प्राणियों के जीवन
संकट और अशांति से घिरे हुए रहते हैं | एक छोटी सी लट को भी आप छूने का प्रयास
करेंगे तो वह अपने जीवन को बचाने के लिए भागने का प्रयास करेगी | एक छोटे से जीव
के जीवन में भी जब इतनी बड़ी अशांति है, फिर मनुष्य जीवन में कितनी अधिक अशांति रहती
होगी उसकी आप कल्पना कर सकते हैं | परमात्मा
ने सब जीवों को अपने शरीर की रक्षा करने के लिए साधन दिए हैं परन्तु जीव उन साधनों
का उचित समय पर सही रूप से उपयोग करने में विफल रहता है | इसका कारण है, बुद्धि का
सही उपयोग नहीं करना | एक चीते से एक मृग अधिक तेज गति से दौड़ सकता है फिर भी मृग
उसका शिकार बनता है | क्या कारण हैं, जानते हैं आप ? अगर मृग केवल एक दिशा में ही
अपनी शक्ति से दौड़ता रहे तो कभी भी चीता उसे पकड़ नहीं पायेगा | परन्तु मृग करता है
इसके विपरीत | वह बार-बार अपनी दौड़ने की दिशा बदलता रहता है जिससे पीछे दौड़ रहे
चीते पर नज़र रखी जा सके | ऐसा करने से उसकी गति चीते की गति से मात खा जाती है और
वह बड़ी आसानी से उसका निवाला बन जाता है |
हम भी अपने जीवन में
ऐसा ही करते हैं | दौड़ते हैं, किसी को पाने के लिए और संसार के आकर्षण में भटककर बार-बार
दिशाएं बदलते रहते हैं | ऐसे में हमारी दशा “माया मिली न राम” वाली हो जाती है और मृत्यु
सिर पर आकर मंडराने लगती है | मनुष्य जीवन के रहते लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाना
हमारी विफलता है | अतः आवश्यक है कि हम जीवन के लक्ष्य को पहिचाने और उसको पाने के
लिए दिशा निश्चित कर चल पड़ें | जाना कहाँ है, लक्ष्य तो भीतर ही है, पर ऐसा समझने
में भी तो समय लगता है | मनुष्य जीवन का क्या लक्ष्य है ? वहां तक किस प्रकार
पहुंचा जा सकता है ? कौन-कौन इसमें हमारी सहायता कर सकते हैं ? स्वयं को क्या
प्रयास करना होगा ?
पशु जीवन से एकदम भिन्न होता है मनुष्य का जीवन |
अपने जीवन में पशु चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता वहीँ परमात्मा ने मनुष्य को अपने
जीवन में स्वयं की इच्छानुसार कर्म करने
की, सोचने समझने की क्षमता प्रदान की है | यही क्षमता उसे एक पशु से भिन्न बनाती
है | क्या मनुष्य अपने जीवन में उस परमात्मा प्रदत्त क्षमता का सही उपयोग कर रहा
है ? प्रश्न का उत्तर जितना सरल दिखलाई पड़ता है, उतना सरल है नहीं | हम सभी
स्वतन्त्र हैं परन्तु क्या हमने इस स्वतंत्रता का सही मायने में उपयोग किया है ?
आइये ! इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं |
संसार में विभिन्न प्रकार के
शरीरों की संख्या 84 लाख हैं | इनमें भी मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसे सही
मायने में चेतन कहा जा सकता है | चेतन होने से अभिप्राय केवल साँस भर लेते रहने से
नहीं है बल्कि अपने अस्तित्व का अर्थात अपने होने का जिसको भान होता है, सही अर्थ
में वही चेतन कहलाने का अधिकारी है | सभी 84 लाख प्रकार के प्राणी चेतन अवश्य है
परन्तु वे चेतन होते हुए भी अचेतन के रूप में जीवन जी रहे हैं | एक मात्र मनुष्य
ही ऐसा प्राणी है जो स्व-चेतन है | स्व-चेतन का अर्थ है कि वास्तविक रूप से हम
चेतन हैं क्योंकि अपने को मिले इस चैतन्य जीवन को सही रूप से हम जानते और समझते
हैं |
इस अल्पकालीन मनुष्य जीवन
में समय मुठ्ठी में भरी रेत की तरह धीरे धीरे सरकता जा रहा है और इस शरीर का कब
अंत निकट आ जाये, कहा नहीं जा सकता | समझदार और विवेकी मनुष्य वही है जिसने इस बात
को समझा है और स्वयं को उस ओर लगा लिया है जहाँ से उसकी स्व-चेतन अर्थात चैतन्य होने
की यात्रा प्रारम्भ होती है | यह स्व-चेतन की यात्रा ही आत्म-बोध की यात्रा है जो उसे
परमात्मा तक ले जाती है | इस यात्रा को प्रारम्भ करने के लिए कुछ मन्त्र है, कुछ
सूत्र हैं, जिनको आत्मसात कर हम सभी मनुष्य स्व-चेतन को उपलब्ध हो सकते हैं |
इन्हीं सूत्रों को यहाँ इस लेख में “जीवन-सूत्र” नाम से कहा गया है |
जीवन-सूत्र हमें जीवन को सही अर्थ में जीने
का मार्ग दिखलाते हैं | ये सूत्र हमें महापुरुषों द्वारा किये गए अनुभव से प्राप्त
होते हैं | उन्हें यह अनुभव मिला है, स्वयं की जिज्ञासा से, शास्त्रों से और योग्य
गुरु के सानिध्य से | सभी सूत्र अथवा मन्त्र हम पहले से ही जानते हैं और समझते हैं
परन्तु उनको जीवन में उतारने में असफल रहते हैं | जब तक इनको जीवन में उतारा नहीं
जायेगा अर्थात जब तक इन सूत्रों और मन्त्रों के अनुसार जीवन को जिया नहीं जायेगा
तब तक इनका हमें रत्ती भर भी अनुभव नहीं होगा | साथ ही यह बात भी स्मृति में रखें
की किसी अन्य के द्वारा किये गए अनुभव का आपके जीवन में कोई भी योगदान नहीं होगा |
सब का अनुभव उनके अपने निजी जीवन की तरह ही निजी होगा |
ऐसे ही अनुभव किये कुछ सूत्रों
के बारे में आज से हम चिंतन करना प्रारम्भ करेंगे जिससे हमारा जीवन भी उसी अनुसार
बन सके, जैसा अनुभव किये गए महापुरुषों का बना होगा | आवश्यकता इस बात की रहेगी कि
केवल इन सूत्रों को हम पढने तक ही सीमित न रखें बल्कि जीवन में उतारने का प्रयास
करें | अपने जीवन में उतारने पर ही आपको एक नया अनुभव होगा और आपके लिए महत्त्व भी
उसी अनुभव का रहेगा | शास्त्र पढ़ने में सबके लिए एक समान है, गुरु भी सभी को एक समान
शिक्षा देता है परन्तु सबके अनुभव में भिन्नता रहेगी | इस प्रकार सबके अनुभव में
भिन्नता होते हुए भी सबको अनुभूति सामान होगी अर्थात किया गया अनुभव सभी को
स्व-चेतन अर्थात आत्म-बोध यानि परमात्मा तक अवश्य ले जाएगी |
जीवन में बिना प्रयास के कभी
कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता | इस प्रयास का नाम ही पुरुषार्थ है | संसारिकता
में रमे रहने के कारण हम स्व-चेतन की अवस्था को पाने का प्रयास तक नहीं करते
क्योंकि हमें यह कार्य बोझिल सा लगता है | जबकि वास्तविकता यह है कि मिले हुए इस
मनुष्य जीवन को हम व्यर्थ ही गँवा रहे हैं | मनुष्य को अपने जीवन के लक्ष्य का भान
तक नहीं है | यही कारण है कि मनुष्य शरीर मिलने के उपरांत भी उसका व्यवहार एक पशु
जैसा है | हमें चेतन - स्व-अचेतन (conscious-self unconscious) की पाशविक अवस्था को
त्यागना ही होगा और मनुष्य जीवन रहते हुए चेतन - स्व-चेतन (conscious-self-conscious)
की अवस्था प्राप्त करनी
होगी |
मनुष्य को क्या
आवश्यकता पड़ी है कि वह स्व-चेतन अवस्था को प्राप्त करे | परमात्मा का स्वरुप
सच्चिदानंद है अर्थात वह सत भी है और चैतन्य भी है | सत होना तभी संभव है जब वह
चैतन्य हो | चैतन्य की अवस्था को उपलब्ध हुए बिना सत तक पहुंचा नहीं जा सकता | चैतन्य
होने का अर्थ है स्वयं के होने का ज्ञान होना | कहने को तो समस्त जीव भी चेतन हैं
परन्तु चैतन्य अवस्था तक पहुँचने की क्षमता केवल मनुष्य के पास ही है | स्व-चेतन होने
की स्थिति प्राप्त कर लेना ही चैतन्य होने का प्रमाण है | चैतन्य होने से ही मनुष्य
सच्चिदानंद तक पहुँच सकता है अन्यथा नहीं | इसलिए मनुष्य के लिए केवल चेतन होना ही
पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे स्व-चेतन भी होना होगा | अपने जीवन में चैतन्य होते ही
मनुष्य अपने वास्तविक स्वरुप अर्थात सच्चिदानंद स्वरुप को उपलब्ध हो जाता है |
जीवन-सूत्र कोई तैयार की गयी
घुंटी नहीं है, जिसके पीते ही आप आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाओगे | ये सूत्र हमें सनातन
शास्त्रों और महापुरुषों से मिले है | कुछ महत्वपूर्ण सूत्र इस श्रृंखला में
आयेंगे, जो हमें आत्म-कल्याण के लिए प्रेरणा देंगे | जीवन-सूत्र वे सूत्र हैं जिनसे
आपका जीवन आध्यात्मिक होगा और जिनको आत्मसात कर आप परम तक पहुँच सकते हैं |
आवश्यकता है कि हम स्वयं के पुरुषार्थ से इन सूत्रों को सिद्ध करें |
पुरुषार्थ के सम्बन्ध में कबीर
ने कितनी सुन्दर बात कही है-
जिन खोजा तिन
पाइया, गहरे पानी पैठ |
मैं बपुरा बूडन
डरा, रहा किनारे बैठ ||
कबीर कह रहें हैं कि जिनको
कुछ पाने की जिज्ञासा है, ललक है वे तो ज्ञान के सागर में गहरे उतरकर अंततः उसको
प्राप्त कर ही लेते हैं | जिनको ज्ञान सागर में गोता लगाने पर डूबने का भय है, वे
केवल किनारे पर ही बैठे रह जायेंगे, वे आत्म-ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकेंगे |
ज्ञान सागर में ज्ञान गहराई
में छुपा होता है | जो डूबने के भय से उस सागर में उतरने से भी डरते हैं, वे केवल
किनारे पर बैठे बैठे लहरें ही गिनते रहेंगे | लहरें गिनना ज्ञान का पर्याय नहीं हो
सकता | ज्ञान रुपी रत्न तो सागर की गहराई में छुपे पड़े हैं उसमें गहराई तक डूबना
होगा तभी आत्म-ज्ञान का अनुभव हो सकता है | संसार को छोड़ना नहीं चाहते और परमात्मा
को पाना चाहते हैं तो शास्त्र में समाहित ज्ञान भी आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता |
फिर तो केवल ज्ञान-सागर के किनारे बैठे बैठे शास्त्रों में समाहित ज्ञान की जुगाली
करते रहो | याद रखें जुगाली करने और तृप्त होने में अंतर है | जुगाली करते रहना
केवल व्यर्थ का प्रयास है जबकि ज्ञान का अनुभव करना ही आपको तृप्त कर सकता है |
दुर्भाग्य है उन लाखों मनुष्यों
का, जोकि चेतन होकर भी अचेतन की तरह अपना जीवन जी रहे है, स्व-चेतन की अवस्था को
उन्होंने अभी तक प्राप्त नहीं किया है | कैसे पहुंचेंगे, वे इस महत्वपूर्ण अवस्था
तक ? इसके लिए कई साधन हैं, जिसमें शास्त्रों का अध्ययन, योग्य गुरु का सानिध्य और
स्वयं की जिज्ञासा; इन तीनों की आवश्यकता होगी | आधुनिक युग में अर्थोपार्जन की
ललक और जीविका के लिए किये जाने वाले संघर्ष ने मनुष्य को इन तीनों साधनों से लगभग
वंचित कर दिया है | यही कारण है कि चेतन होकर भी मनुष्य अचेतन की अवस्था में पड़ा
है जबकि उसे स्व-चेतन की अवस्था को प्राप्त हो जाना चाहिए था |
एक बात सदैव ध्यान में
रखें, न तो कोई गुरु और न ही कोई शास्त्र आपको उस परम तक ले जा सकेगा जब तक कि आपकी
स्वयं की मुमुक्षा उस तक पहुँचने की न हो | यह मुमुक्षा आपके स्वयं के प्रयास से
ही पैदा हो सकती है, गुरु और शास्त्र तो आपके भीतर गहराई में छुपी इस मुमुक्षा को
सतह पर लाने का कार्य करते हैं | यह मुमुक्षा आपके भीतर अवश्य ही छुपी हुई रहती है.
इसका प्रमाण है आपको मिला यह मनुष्य जीवन क्योंकि एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी
है, जो चैतन्य हो सकता है |
स्व-चेतन की अवस्था ही
आत्म-बोध की अवस्था है और परमात्मा को प्राप्त कर लेना भी इसे ही कहते हैं | आदिगुरू
शंकराचार्य विवेक चूड़ामणि में कहते हैं कि स्व-चेतन की अवस्था को प्राप्त करने के
लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है –
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् |
मनुष्यत्वं, मुमुक्षत्वं
और महापुरुष संश्रय ||(3)||
मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व और महान पुरुषों
का संग- ये तीनों ही दुर्लभ हैं | इन तीनों की एक साथ प्राप्ति का कारण केवल और केवल
भगवत कृपा ही है |
कितनी सहजता से शंकराचार्य
जी महाराज ने बात कह दी है कि परमात्मा प्राप्ति के लिए केवल इन तीन का होना
आवश्यक है-एक मनुष्य होना, दो- आत्म-बोध की मुमुक्षा होना और तीन – महापुरुषों का
संग मिलना | इन तीनों की एक साथ प्राप्ति होने का एक मात्र कारण है, भगवत कृपा |
बिना भगवत कृपा के इनमें से किसी एक का मिलना भी असंभव है | साथ ही यह भी सत्य है
कि इनमें से किसी एक का अगर होना संभव हो गया तो यह भी निश्चित है कि शेष दो का
मिलना भी अवश्यम्भावी है | यह हमारी बुद्धि पर पड़े हुए पत्थर ही होंगे जो मनुष्य
जीवन मिलने के बाद भी स्वयं के भीतर की मुमुक्षा को पहचान नहीं पाएं और मिलने वाले
महापुरुषों के संग की अवहेलना करते रहें |
जब भी परमात्मा की ओर
चलने की चर्चा होती है तब प्रायः मित्रगण यही बात कहते हैं कि आप तो सामाजिक और
आर्थिक दृष्टि से संपन्न और निश्चिन्त है इसलिए आपके लिए ऐसी बात कहना सरल है |
मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि अपने संसार में रहते हुए कभी भी निश्चिंत होना संभव ही
नहीं है, न कभी संभव हो सकता है | निश्चिन्तता आती है, एक परमात्मा की शरण में
जाने से | नदी के पार जाने के लिए उसके किनारे पर बैठकर जल-प्रवाह के थमने की
प्रतीक्षा करना मूर्खता ही है | जिस प्रकार नदी में जल का प्रवाह कभी समाप्त नहीं
हो सकता, उसी प्रकार संसार की चिंताएं कभी मिट नहीं सकती | हमें इन बातों की परवाह
किये बिना ही संसार के पार जाना होगा |
आदिगुरू शंकराचार्यजी
महाराज ने स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य जन्म मिलना इस बात का प्रमाण है कि आप चाहें
तो सच्चिदानंद होने की अवस्था तक पहुँच सकते है | यह मनुष्य जीवन भी आपको उस परमात्मा
की कृपा से ही मिला है | इस जीवन का एक मात्र उद्देश्य है - स्व-चेतन अर्थात
चैतन्य अवस्था को प्राप्त कर सच्चिदानन्द तक पहुँचना | हम अपनी जीवन-यात्रा में सदैव
सच्चिदानंद ही हैं परन्तु हमें इस बात का ज्ञान नहीं है | ज्ञान न होने का कारण है
कि हम इस संसार के भीतर इतने अधिक डूब गए हैं कि केवल सांसारिक जीवन को ही अपना
वास्तविक जीवन समझ बैठे हैं | यह शरीर भी उसी संसार का एक अंग है और शरीर को ही स्वयं
होना मान बैठे हैं | शरीर से अलग होना किसी अन्य जीव के लिए संभव नहीं है, केवल
मनुष्य ही शरीर से स्वयं को मुक्त कर सकता है |
मनुष्य शरीर तो
परमात्मा की कृपा से मिल गया परन्तु यह क्या ? हम तो शरीर को ही सब कुछ समझ बैठे
हैं | अगर शरीर ही सब कुछ है तो फिर एक पशु और मनुष्य में भला क्या अंतर रह जायेगा
| “पंचतंत्र” कहती है -
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् |
धर्मो हि तेषामधिको
विशेषः धर्मेण हीनाः पशुभि: समाना: ||
अर्थात आहार, निद्रा, भय और
मैथुन-ये मनुष्य और पशु में समान हैं | मनुष्य में विशेष केवल धर्म है, बिना धर्म
के व्यक्ति पशुतुल्य है |
लो जी, पंचतंत्र भी कह रहा है कि आहार,
निद्रा, भय और मैथुन – ये चारों प्रवृतियाँ तो एक पशु में भी मिल जाती है फिर उनसे
मनुष्य किस प्रकार भिन्न हुआ ? मनुष्य में भी इनमें से कोई एक भी प्रवृति आपको भिन्न
नहीं मिलेगी | मनुष्य को एक पशु से भिन्न केवल एक ही प्रवृति बनाती है, और वह है उसके
द्वारा धर्म का पालन किया जाना | मनुष्य जीवन का धर्म क्या है ? इसको जान लेने पर
ही हम हम एक पशु से अपने को भिन्न मान सकते हैं | जब तक हमें अपने धर्म का ज्ञान
नहीं है, तब तक एक पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं हो सकता, दोनों एक समान ही
माने जायेंगे | चलिए आगे बढ़ते हैं धर्म की ओर, उसे जानने के लिए |
धर्म )Righteousness/Persuasions/Faith/Duty)
– Moral values
भारतीय संस्कृति के मूल में ही धर्म है | मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि धर्म हमारी सनातन संस्कृति
का प्राण है |जैसे भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भौतिक-वाद की
प्रधानता है, वैसे ही हमारी संस्कृति में धर्म की प्रधानता है | पश्चिम की संस्कृति में भौतिकता की मुख्यता होने
के कारण वह शारीरिक सुख प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रकार के कर्म करने को कहती
है जबकि भारतीय संस्कृति में मुख्यता धर्म की होने के कारण वह आनंद को उपलब्ध होने
के लिए धर्मानुसार कर्म करने को प्राथमिकता देती है | पश्चिम में भौतिकता के कारण स्वाद के लिए हिंसा
की जा सकती है, यहाँ धार्मिकता के आधार पर
स्वाद पर नियंत्रण रख अहिंसा की अनुपालना करने पर जोर दिया जाता है | धर्म हमें यह सिखाता है कि हमें क्या तो करना
चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए | इसीलिए भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक संस्कृति कहा जाता है |
“धर्म” शब्द की परिभाषा करना बड़ा कठिन
है, यह शब्द अपने में विशाल अर्थ समेटे हुए है | ‘धर्म’ संस्कृत के शब्द ‘धातु’ से
उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – धारण करना | ’धारणात धर्ममित्याहुः धर्मो धारयति
प्रजाः’ (महाभारत) अर्थात जिसको धारण (possess) किया जाता है उसको धर्म कहते हैं |
इसी प्रकार धर्म प्रजा (subject) को धारण करता है | इस प्रकार हम देखते हैं कि
धर्म केवल व्यक्ति ही धारण नहीं करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण करता है
|
हमारी सनातन संस्कृति का प्राण धर्म
है परन्तु हमारे कथित सभ्य समाज ने इस ‘धर्म’ शब्द को जिस प्रकार समझा है वह
अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है | आज धर्म को केवल पूजा पाठ और उपासना पद्धति से जोड़
दिया गया है, जबकि इन कर्मकांडों से धर्म
का कहीं दूर दूर तक लेना देना नहीं है | आपके कर्मकांड, पूजा पद्धति और इनको विविध प्रकार से समझाती हुई
पुस्तकें आपका व्यक्तिगत मामला हो सकता है, धर्म नहीं | यह सब आपकी निजता को अवश्य ही प्रकट करता है परन्तु आपका धर्म
निर्धारित नहीं करता |
एक ही प्रकार की पूजा पद्धति और रहन सहन आपका समाज बना सकती है, वह आपका संप्रदाय निर्धारित कर सकती है परन्तु आपका धर्म नहीं | इस
शब्द ‘धर्म’ की आत्मा को जाने और समझे बिना इसका अनुचित प्रयोग करना अनुचित ही नहीं
निंदनीय भी है | आज किसी को भी पूछो कि ‘तुम्हारा धर्म क्या है’, प्रत्युतर में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि ही सुनने को मिलेगा | वास्तविकता यह है कि ये सभी कथित धर्म; धर्म न
होकर सम्प्रदाय मात्र है | संप्रदाय के लोगों की जीवन शैली, पूजा पद्धति और ईश्वरीय विश्वास लगभग एक समान होता है | सभी सम्प्रदायों में चाहे मत विभिन्नता कितनी ही हो परन्तु सबका
धर्म एक ही होगा | कोई भी संप्रदाय अगर अपने धर्म को किसी अन्य धर्म से अलग अथवा श्रेष्ठ भी मानता
है तो यह आप निश्चित ही मान लीजिये कि वह धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य विषय की बात
कर रहा है | सभी सम्प्रदायों का धर्म एक ही होता है, पूजा पद्धति भले ही भिन्न हो |
अतः आवश्यकता है कि सर्वप्रथम हम अपने ‘धर्म’ को जानें और सम्प्रदायवाद से ऊपर
उठें |
अगर ‘धर्म’ का सम्बन्ध ईश्वरीय
विश्वास, पूजा-पाठ और सम्प्रदाय आदि से नहीं है तो फिर ‘धर्म’ क्या है ? यह प्रश्न
पूछना जितना आसान है, उत्तर ढूँढना उतनी ही मुश्किल है | इसका कारण यह है कि हमने
विभिन्न सम्प्रदायों के ठेकेदारों द्वारा दी गयी इस शब्द की व्याख्या को कई वर्षों
से इतना अधिक आत्मसात कर लिया है कि हम अपने-अपने सम्प्रदायों को ही अपना-अपना
धर्म मान बैठे हैं | विभिन्न सम्प्रदाय होने भी आवश्यक है क्योंकि सम्प्रदाय और उनसे जुड़े शास्त्र
हमें अपने ‘धर्म’ के बारे में समुचित जानकारी उपलब्ध करा सकते हैं | सम्प्रदाय के
ज्ञानी जन समय-समय पर हमें अपने शास्त्रों से निर्देशित कर सकते हैं | अगर कोई
कथित ज्ञानीजन इन पुस्तकों की व्याख्या अनुचित रूप से हमारे समक्ष प्रस्तुत करता
है तो यह उसकी गलती है, संप्रदाय अथवा उससे जुडी पुस्तकों की नहीं | किसी भी सम्प्रदाय के वास्तविक शास्त्र आपको धर्म
के बारे में दिग्भ्रमित कर ही नहीं सकते, यह सत्य है | हाँ, वे इनकी व्याख्या अपने
स्वार्थ से किसी भी प्रकार से भी कर सकते हैं | अतः ऐसी बातों से सावधान रहना
चाहिए और शास्त्रों का स्वयं ही अध्ययन करना चाहिए |
हमारे सनातन शास्त्रों में धर्म की
व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गई है | सभी का अनुसन्धान करने पर हम पाते हैं कि सब एक
ही प्रकार की सोच रखते हैं | धर्म का अर्थ है - “व्यक्ति का
कर्तव्य” (Duty as a human being) |
जब मनुष्य को परमात्मा ने अपनी ही सर्वश्रेष्ठ
कृति के रूप में प्रस्तुत किया है तो उसका कर्तव्य भी शेष सभी प्राणियों से अलग ही
होगा | वैशेषिक दर्शन के प्रणेता
महर्षि कणाद ने ‘सूत्र-वैशेषिक’ में धर्म के बारे में कहा है – “यतोभ्युदयनि:श्रेयस:
सिद्धः स धर्मः” अर्थात जिससे अभ्युदय (सांसारिक सुख ) औए नि:श्रेयस (आध्यात्मिक
कल्याण) दोनों ही प्राप्त हो जाये, वही धर्म है | धर्म का यह लक्षण स्पष्ट रूप से
भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों पक्षों में समन्वय (Coordination) स्थापित करता है | जो धर्म आध्यात्मिक पक्ष (Spiritual
part) की
अवहेलना (Avoid) कर केवल भौतिक उन्नति (Materialistic
development) को ही केंद्र में रखता है, वह एकांगी (Unilateral or one
sided) है, धर्म नहीं है |
मनुस्मृति में धर्म के चार स्रोत
बताये गए हैं-श्रुति (Revelation), स्मृति (Rememberance), सदाचार (Moral) तथा जो अपनी
आत्मा (soul) को प्रिय लगे | धर्म में सबका कल्याण निहित है | सब के कल्याण से
इसमें नैतिकता, आदर्श और मूल्य समाहित हो गए हैं |
गौत्तम ने अपने धर्मसूत्र में कहा है –- अथाष्टा वात्मार्गुणा: दया सर्वभूतेषु: क्षान्तिरनसूया शौच मता मासौ मंगलमय कार्यण्य स्पृहति | अर्थात सब प्राणियों पर दया, क्षमा,अनुसूया (आलोचना
और ईर्ष्या न करना), शुचिता, निष्कपटता, अतिश्रम वर्जन, शुभ में प्रवृति, दानशीलता
तथा निर्लोभता; ये आठ आत्म-गुण हैं अर्थात ये धर्म है |
धर्म को स्पष्ट करते हुए उपनिषदों में कहा गया है कि धर्म समस्त विश्व का आधार
है, क्योंकि इसके द्वारा
व्यक्ति के आचरण की सभी वे बुराइयाँ दूर हो जाती हैं, जो विश्व कल्याण में बाधक हैं | कौटिल्य ने धर्म को एक शाश्वत सत्य मन कहा है, जो
समस्त संसार पर शासन करता है | बौद्ध धर्म के अनुसार धर्म अच्छे तथा बुरे, सत्य और असत्य में अंतर को स्पष्ट करता है |
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बतलाये
गए हैं | मनु लिखते हैं –
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिनयनिग्रहः |
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ||मनुस्मृति-6/92||
अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, आंतरिक तथा बाह्य शुद्धि, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, शिक्षा, सत्य और क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं |
महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत
माना गया है –
उर्ध्वबाहुर्विरौम्येष्य न च
कश्चित शृणोति में |
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न
सेव्यते ||
अर्थात भीष्म पितामह कह रहे हैं कि मैं
बाँहों को उठाकर जोर-शोर से कह रहाहूँ किन्तु मेरी बात को कोई नहीं सुनता | किन्तु मेरी बात को कोई नहीं सुनताधर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति
होती है फिर धर्म का पालन किसलिए नहीं किया जाता ?
श्री मद्भगवद्गीता में भी धर्म के
महत्त्व को स्वीकार किया गया है | गीता के 18 वें अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को धर्म का महत्त्व
समझाते हुए कह रहे हैं-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ||गीता-18/47||
अर्थात गुणरहित होने पर
भी स्वधर्म पालन करना अच्छा है, चाहे दूसरे का धर्म ( कर्तव्य-कर्म ) चाहे कितना ही अच्छा हो | यदि मनुष्य अपने धर्म का
पालन करता है तो वह पाप से सदैव बचा रहता है |
स्व-धर्म के बारे में गीता तो
यहाँ तक कह देती है कि ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:’ (गीता-3/35) अर्थात
धर्म के पालन के लिए अपने प्राण भी गवां देना दूसरे के धर्म का पालन करने से अच्छा
है क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह है अर्थात अपरिचित है | जैसे एक चिकित्सक का धर्म
है रोगी को रोगमुक्त करना | उसका चिकित्सा सेवा देना ही धर्म है | अगर वह अन्य क्षेत्र में जाकर कार्य करता है, तो वह कार्य उसको नहीं रुचेगा | इसलिए गीता में दूसरे के धर्म को भयावह कहा गया
है | यहाँ धर्म का अभिप्राय
संप्रदाय से नहीं लेना है |
धर्म के महत्त्व को पुराणों में
भी स्वीकार किया गया है | पुराणों का कहना है कि अधर्मी अर्थात अपने विवेक से च्युत पुरुष यदि काम और
अर्थ सम्बन्धी क्रियाएं करता है तो उसका फल बाँझ स्त्री के पुत्र जैसा होता है
अर्थात उनसे किसी प्रकार के कल्याण की सिद्धि नहीं होती | जैसे बाँझ स्त्री के पुत्र नहीं हो सकता, उसी प्रकार अपने कर्तव्य कर्म के विरुद्ध कार्य
करने वाले का भी कभी कल्याण नहीं हो सकता |
पद्मपुराण में लिखा है –
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा
नित्यवर्तनैः |
दानेन नियमैश्चापि क्षमा शौचेन
वल्लभः ||
अहिंसया च शक्त्या वाSस्तेयेनापि प्रवर्तते |
एतैर्दशभिरंगैश्च धर्ममेवं
प्रसूचयते ||पद्मपुराण-5/89/8-9||
अर्थात ब्रह्मचर्य
(celibacy), सत्य
(truth), तप
(penance),दान(donation),
नियम (principle), क्षमा (forgiveness), शुद्धि (cleanness), अहिंसा (non violence), शांति (peace) और चोरी न करना, इन दस अंगों के धारण करने से ही धर्म की वृद्धि
होती है |
श्री मद्भागवत महापुराण के
सातवें स्कंध (अध्याय 11 श्लोक- 8 से12) में धर्म के तीस लक्षण बतलाये गए हैं | इसी प्रकार श्री रामचरित मानस के लंकाकांड में (80/5-12)
गोस्वामीजी ने धर्म का एक रथ के रूप में वर्णन किया है |
योगवासिष्ठ के अनुसार धर्म के चार
चरण या चार आधार होते हैं | ये धर्म के चरण ही मनुष्य के कर्तव्य
के आधार है | इन चारों चरणों में विश्वास रखते हुए कर्तव्य करते रहना ही
वास्तविकता में धर्म हैं | धर्म के चरण हैं – सत्य (truth), अहिंसा (nonviolence) अथवा दया (kindness) , तप (penance) और दान (donation) | इन चारों के विलोम (opposite)
अर्थात विपरीत होना अथवा चलना ही अधर्म है | आप किसी भी सम्प्रदाय के साहित्य और शास्त्रों
को उठाकर देख लें, आपको मुख्यतः इन्हीं चार बातों का अनुसरण करने का कहा जाता है | हिंसा, असत्य, कलह और असंतोष जैसे अधार्मिक बातों का कोई भी
संप्रदाय समर्थन नहीं करता क्योंकि ये सभी अधार्मिकता के अंतर्गत आते हैं | श्री मद्भागवत महापुराण में कहा गया है कि कलियुग
में धर्म के चार चरणों में से तीन तो नष्ट हो चुके हैं, केवल एक चरण ‘सत्य’ ही बच
रहा है | (भागवत-1/17/24-25)
सत्य के मार्ग पर चलना, सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव मन में रखना, परमात्मा और सत्य की प्राप्ति के लिए तप करना और
असहायों की दान देकर सहायता करना आदि सभी धर्म के अंतर्गत आते हैं और ऐसे धर्म
मार्ग पर चलना वर्तमान मानव जीवन में पुरुषार्थ करने से ही संभव है | इसके लिए पूर्वजन्म का पुरुषार्थ यानि दैव, प्रारब्ध किसी उपयोग के नहीं है | संसार में जब मानव जन्म लेता है तब वह किसी भी
प्रकार के व्यवहार और आचरण (धर्म) के प्रति सपाट कोरे कागज (blank
paper) की तरह होता है | उसमे और अन्य मूक प्राणियों में किसी भी प्रकार
का अंतर आपको नज़र नहीं आएगा | उसमे धर्म का स्फुरण वर्तमान जीवन में होना ही
संभव है | यह स्फुरण स्वतः ही होना
संभव नहीं है | इसके लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है | यही कारण है कि चारों पुरुषार्थ में धर्म एक
मुख्य पुरुषार्थ है |
भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन
धर्म में धर्म को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया है | जैन धर्म के ग्रन्थ-तत्वार्थ-सूत्र में धर्म के
दस लक्षण बताये गए हैं -1.उत्तम क्षमा 2.उत्तम मार्दव - ह्रदय की कोमलता, सरलता, मृदुता
3.उत्तम आर्जव – सीधापन, सहजता 4.उत्तम शौच - भीतर बाहर की शुद्धि 5.उत्तम सत्य 6.उत्तम
संयम 7. उत्तम तप 8.उत्तम त्याग 9.उत्तम आकिंचन्य (नगण्यता) और 10 उत्तम ब्रह्मचर्य
|
जैन समाज में इसी आधार पर दस लक्षण
व्रत रखे जाते हैं जो भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी से लेकर चतुर्दशी तिथि
तक संपन्न होते हैं | प्रत्येक दिन क्रमानुसार (serial) एक एक व्रत का पालन किया जाता है |
मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ हैं जिनमें
महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है, धर्म | धर्म से ही काम, अर्थ और मोक्ष को प्राप्त किया
जा सकता है | धर्म का पालन जीवन में महत्वपूर्ण है, इसी के अनुसार चलकर मनुष्य
स्व-चेतन अवस्था प्राप्त कर सच्चिदानंद स्वरुप तक पहुँच सकता है | चार पुरुषार्थ
में काम और अर्थ पुरुषार्थ तो मनुष्य के पूर्वजन्म का परिणाम है जबकि धर्म और
मोक्ष इस जीवन में प्राप्त किये जा सकते हैं | इसलिए मनुष्य जीवन मिलने के बाद भी
जो केवल काम और अर्थ के पीछे हो लिया और धर्म और मोक्ष की अवहेलना की तो उसका पतन
होना निश्चित है | हमें अर्थ और काम के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हुए धर्म के
प्रति अनुराग पैदा करना होगा | अब प्रश्न उठता है कि हम धर्मानुरागी कैसे बनें ?
जैसा कि पूर्व लेख में स्पष्ट किया जा चूका है कि प्रत्येक मनुष्य में प्रकृति
के तीनों गुण उपस्थित होते हैं | ये गुण हैं – सत, रज और तम | व्यक्ति में तीनों गुण जीवन के प्रारम्भ में समान रूप से उपस्थित होते हैं | परन्तु ज्यों ज्यों वह बड़ा होता जाता है त्यों
त्यों उसमे किसी एक गुण की प्रधानता होती जाती है | उसी गुण की प्रधानता से उसको सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक प्रकृति का माना जाता है | एक गुण शेष दो गुणों को दबाकर ही बढ़ सकता है | धर्म के मार्ग पर चलना सात्विकता का लक्षण है | अतः मनुष्य को धर्म पुरुषार्थ की प्राप्ति के
लिए शेष दो गुण रजस और तमस को दबाकर अपने में सत गुण को बढ़ाना होगा | सत गुण को बढ़ने पर मनुष्य असत्य को त्यागकर सत्य
के मार्ग पर चल पड़ता है | हिंसा (violence) से उसका दूर दूर का सम्बन्ध
नहीं रहता | परमात्मा में विश्वास (faith) रखकर वह तप करता है और असहायों की सहायता में
सदैव ही तत्पर रहता है |
सत्व गुण को मनुष्य कैसे बढा सकता है ? इसको बढाने के लिए कई बार परिस्थितियां ऐसी पैदा
हो जाती है जो उसे तामसिकता से दूर कर देती है | जैसा कि रत्नाकर (महर्षि वाल्मीकि) और अंगुलिमाल
के साथ हुआ था | दोनों ही व्यक्ति अपने
जीवनकाल में भयानक डाकू (dacoits) रहे हैं | एक तो श्री राम का अनुरागी बन गया और दूसरा भगवान बुद्ध का शिष्य | तामसिकता और राजसिकता को नकारते हुए सात्विकता
की ओर बढ़ना, आपके स्वयं के पुरुषार्थ से ही संभव है | सनातन शास्त्र और गुरु व महान संत आपको केवल
मार्ग ही दिखला सकते हैं | उस मार्ग को अपनाकर, उस मार्ग पर चलकर ही आप धर्म को उपलब्ध हो सकते हैं | इसीलिए धर्म को एक पुरुषार्थ कहा गया है |
धर्म के मार्ग पर चलना ही नैतिक आदर्श (ideal
morality) है | धर्म को अपनाकर ही आप शांति का अनुभव कर सकते
हैं | धर्म से चाहे आपको
सांसारिक वस्तुएं उपलब्ध न हो परन्तु जिस प्रकार की शांति का अनुभव आपको होगा वह
अमूल्य है | धर्म की तुलना आप किसी भी
अन्य सांसारिक वस्तु से नहीं कर सकते | इसीलिए धर्म का मूल्य मुद्रा में न होकर नैतिकता
में निहित है अर्थात धर्म का केवल नैतिक मूल्य (Moral value) है | महत्वपूर्ण यह है कि नैतिक मूल्य सदैव ही
मौद्रिक मूल्य (monetary value) से अधिक शक्तिशाली (powerful) होता है |
अतः यह स्पष्ट है कि धर्म और
सम्प्रदाय दोनों अलग अलग है | संप्रदाय अलग अलग हो सकते हैं परन्तु सभी सम्प्रदायों का धर्म लगभग एक ही होता
है | कोई भी सम्प्रदाय असत्य
भाषण को धर्म नहीं कहता, हिंसा की सभी संप्रदाय आलोचना ही करते हैं और इसी प्रकार सभी सम्प्रदायों में
तप करने और दान देने का विशेष महत्त्व है | जो लोग धर्म का नाम लेकर झगड़ते हैं अथवा दंगा
फसाद करते हैं वे सभी अधार्मिक लोग हैं | धार्मिक व्यक्ति कभी भी हिंसा में विश्वास नहीं
रखता है | आज की आवश्यकता है कि हम
सम्प्रदाय को धर्म से अलग समझकर केवल और केवल धर्म की राह पर चलें | धर्म का पालन करना ही हमें इंसान बनाता है
अन्यथा एक पशु में और हमारे में कोई अंतर ही नहीं है | धर्म ही हमें पवित्र करता है | धर्म इसी जीवन का पुरुषार्थ है और धर्म पर चलते
हुए कर्म करते रहने से ही इसकी उपलब्धि संभव है |
इस प्रकार अभी तक हुए चिंतन से
मनुष्य जीवन के जो सूत्र निकल कर आये हैं, वे हैं-
1. मनुष्य जीवन मिलना
परमात्मा की हम पर असीम कृपा होना है | इस जीवन को पशुवत व्यवहार करके बेकार न जाने
दें |
2. मनुष्य जीवन में धर्म के
अनुसार चलना ही मनुष्यता है अन्यथा एक पशु और एक मनुष्य में कोई भेद नहीं है |
3. धर्म हमें उस मार्ग पर
ले जाता है जहां से सत्य को जाना जा सकता है | सत् को जानना ही आत्म-बोध है और इसे
ही परमात्मा को जानना कहा जाता है |
4.धर्म से अर्थ और काम
पुरुषार्थ है, काम और अर्थ से धर्म नहीं | काम और अर्थ धर्म से ही अर्जित किये
जाएँ और धर्म के लिए ही इनका उपयोग किया जाये |
अभी तक हमने धर्म पर बड़ी गंभीर चर्चा
की है | धर्म क्या है, इसको जानना बड़ा ही कठिन है और बड़ा सरल भी | कठिन इसलिए है क्योंकि धर्म और अधर्म को एक महीन
सी रेखा विभाजित करती है जिससे कई बार हम अधर्म को धर्म समझ बैठते हैं | सरल इस
दृष्टि से है कि जो बात हमारे अंतर्मन को सुखद और शास्त्रोक्त लगे, जिस कर्म को करने में हमें कठिनाई और घबराहट
नहीं हो उसे निसंकोच किया जा सकता है क्योंकि वही धर्म है | इससे अधिक सरल शब्दों में धर्म को स्पष्ट नहीं
किया जा सकता |
कुछ और जीवन-सूत्र ढूँढने के लिए
आगे बढ़ते हैं और पुनः आते हैं, आदिगुरू के कथन पर | उन्होंने विवेक चूड़ामणि में
कहा है कि मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व और महापुरुष का सानिध्य भगवत कृपा से ही मिलता है
| भगवत कृपा से मनुष्य शरीर मिल गया | एक पशु और एक मनुष्य जीवन में अंतर धर्म ही करता
है, यह भी स्पष्ट हो गया है | अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य के जीवन में मुमुक्षा (आत्म-ज्ञान
को उपलब्ध होने की कामना) कब और कैसे पैदा होगी ?
इतना तो निश्चित है कि प्रभु कृपा से
यह मनुष्य जीवन मिला है तो उस शरीर के भीतर परमात्मा को जानने की जिज्ञासा भी होगी
| आवश्यकता है उस मुमुक्षा को भीतर से सतह पर लाने की | मुमुक्षा को सतह पर लाने
में निम्न दो की महत्वपूर्ण भूमिकाएं होती है, एक - सांसारिक जीवन की विभिन्न
परिस्थितियां और दो - महापुरुष से मिलन |
हमारा मनुष्य जीवन केवल
आत्म-बोध के लिए है, संसार में रमने के लिए नहीं, लेकिन होता है ठीक इसके विपरीत |
हम प्रभु कृपा को भूल जाते हैं और स्वयं के सांसारिक व शारीरिक सुख के लिए अपना एक
संसार बना लेते हैं | संसार में हमें सुख मिलता है, विभिन्न प्रकार के भोगों से |
जब सांसारिक भोगों से हमें सुख होना प्रतीत होता है, तब भीतर गहराई में छुपी हमारी
परमात्मा प्राप्ति की मुमुक्षा उसके नीचे दब कर रह जाती है | हम यह नहीं समझते कि
भोग हमें सांसारिक सुख देते प्रतीत भले ही होते हों, एक न एक दिन यही भोग जीवन में
हमारे दुःख का कारण बनते हैं | जीवन में आये दुःख के कारण बनी विपरीत परिस्थितियां
ही हमारे सांसारिक जीवन में एक मोड़ ला सकती है और हमारी मुमुक्षा उभर कर सामने आ
सकती है | यह मुमुक्षा ही हमें दुःख का कारण जानने को प्रेरित करती है और अंततः
आत्म-ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है |
मनुष्य के भीतर दबी पड़ी सुषुप्त मुमुक्षा
को जाग्रत करने का कार्य करता है, विवेक | यह विवेक भी गुरु और भगवत कृपा से
जाग्रत होता है | भगवत कृपा से महापुरुष से मिलन होता है, जो हमारी बुद्धि को
तीक्ष्ण बनाते हुए विवेक को उदित कर देता है | यह विवेक हमारी सुषुप्त मुमुक्षा को
जाग्रत कर देता है | श्री रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने कहा है –
बिनु सतसंग बिबेक न होइ | राम कृपा बिनु
सुलभ न सोइ ||
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा | तब रघुनाथ चरन
अनुरागा ||
विवेक की भूमिका भोगों की अवहेलना करने में होती
है | सांसारिक भोगों को भोगने के लिए तो पर्याप्त बुद्धि प्रत्येक जीव में होती है
| मनुष्य ही एक मात्र ऐसा जीव है जो बुद्धि को विवेक में परिवर्तित कर सकता है |
विवेक होने से उसे उचित और अनुचित का ज्ञान हो जाता है | इस प्रकार ज्ञान के हो
जाने से वह समझ जाता है कि सांसारिक भोग प्रारम्भ में भले ही सुख देते हुए प्रतीत
हो रहे हों, अंततः वे भोग ही दुःख के कारण बनते हैं |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को
कहते हैं-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते |
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते
बुधः || गीता-5/22 ||
हे अर्जुन ! जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के
संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, विषयी पुरुषों को सुखरूप से अच्छे प्रतीत तो
होते हैं, फिर भी यही भोग उसके दुःख के कारण बनते हैं | ये सभी भोग आदि-अन्त वाले हैं | बुद्धिमान विवेकी
पुरुष उन भोगों में नहीं रमता |
सांसारिक भोगों से विमुख हुआ पुरुष
अपने जीवन को परमात्मा की ओर मोड़ देता है क्योंकि वह समझ जाता है कि भोग उसे आवागमन
से कभी भी मुक्त नहीं होने देंगे | आवागमन से मुक्त होने की इच्छा ही मुमुक्षा है |
इस प्रकार जब मुमुक्षा जाग्रत हो जाती है तब स्व-चेतन अर्थात चैतन्य होने के लिए
महापुरुष संश्रय ही शेष रहता है | महापुरुषों का संग भी भगवत कृपा से मिलता है |
श्री रामचरितमानस में गोस्वामीजी इसी बात को लेकर कहते हैं –“बिनु हरिकृपा मिलही
नहीं संता” |
सांसारिक जीवन में जब भोग रुपी प्यास
बढ़ती है तो उस प्यास को बुझाने के लिए प्यासे को ही कुएं के पास जाना पड़ता है |
आध्यात्मिक जीवन में जब आत्म-बोध की मुमुक्षा बढ़ती है तब सांसारिक जीवन के ठीक
विपरीत होता है अर्थात अध्यात्मिक जीवन में कुआं ही प्यासे के पास चला आता है | यह
ईश्वर कृपा नहीं तो और क्या है ? एक बार इस जीवन में मुमुक्षा को जाग्रत करके तो
देखिये, गुरु स्वतः ही मिल जायेंगे | आप यह न सोचिये कि सही गुरु की तलाश करनी है |
जिस प्रकार आपको योग्य गुरु से मिलन की आकांक्षा है उसी प्रकार एक गुरु को भी
योग्य शिष्य की आकांक्षा रहती है |
योग्य गुरु केवल मुमुक्षा जाग्रत
शिष्य को ही मिलते हों, ऐसा नहीं है | गुरु अपने शिष्य में छिपी मुमुक्षा को
पहिचान लेता है | भीतर छिपी मुमुक्षा एक राख के ढेर के तले छिपी चिंगारी की तरह
होती है जो जरा सी हवा लगते ही आग के रूप में सतह पर आ जाती है | इसी प्रकार शिष्य
के भीतर दबी मुमुक्षा को गुरु हवा देकर सतह पर ला देता है |
इस संसार में कथित गुरु भी बहुत फिर रहे
हैं जो किसी भी सांसारिक भोगों में रत मनुष्य को अपना शिष्य बना लेते हैं | ऐसे
गुरु का शिष्य से शिष्य का गुरु से केवल स्वार्थ का सम्बन्ध होता है | स्वार्थ का
सम्बन्ध बंधनकारी होता है | योग्य गुरु आपको सभी बंधनों से मुक्त करता है जबकि ऐसे
कथित धर्मगुरु शिष्य को स्वयं के साथ बाँध लेता है | ऐसे स्वार्थी गुरुओं से सचेत
रहना चाहिए | कबीर ऐसे ही गुरुओं के बारे में कहते हैं-
गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव |
दोनों डूबे बापडे, बैठ पत्थर की नाव ||
ऐसे गुरु शिष्य से कुछ अर्थ आदि पाने की लालसा
रखते हैं और ऐसी ही आशा शिष्य गुरु से करता है | कबीर कहते हैं कि पत्थर की नाव तो
केवल डूबा ही सकती है, पार नहीं ले जा सकती |
हमारे भीतर दबी पड़ी परमात्मा को पाने की
मुमुक्षा ही योग्य गुरु का संग दिला
सकती है | गुरु रास्ते का वह संकेतक है, जो आपको गोविन्द को पाने का रास्ता बताता है | किसी ओर संकेत केवल वही व्यक्ति
कर सकता है, जो वहां उस
लक्ष्य तक पहुँच चूका हो, जिस
लक्ष्य को आप पाना चाहते हो | गुरु
आपको उस ओर संकेत करता है, जहाँ आप जाना चाहते हैं | चलना आपको है, वह
आपके साथ नहीं चलने वाला क्योंकि वह वहां तक पहुँच चूका है | पहुंचे हुए की यात्रा
समाप्त हो चुकी होती है | गुरु
आपको संकेत भर ही नहीं करता बल्कि रास्ते में आने वाली प्रत्येक बात तथा बाधा के
प्रति जागरूक भी करता है | वह यह
भी जानता है कि आप वहां तक पहुँच सकते हो अथवा नहीं | इसीलिए वह रास्ते की सभी विशेषताओं और बाधाओं के प्रति आपको
जागरूक कर देना चाहता है | उस
रास्ते पर अग्रसर आपको अकेले ही होना है, गुरु
तो समय समय पर आपके रास्ते पर संकेतक के रूप में दृष्टिगोचर होता रहेगा |
गुरु केवल मार्ग बताता है, चलना शिष्य को ही
पड़ता है | गुरु
इशारों और संकेतों में बात करता है | जब तक शिष्य अपने अन्दर मुमुक्षा
नहीं रखता तब तक गुरु का संकेत समझना असंभव है | गुरु भी अपने शिष्य का चयन उसकी
प्यास को देखकर ही करता है | जब तक
शिष्य की प्यास एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ जाती, तब तक गुरु उसे
मार्ग नहीं दिखा सकता | अतः
किसी योग्य गुरु के पास जाओ, तो प्यास लेकर जाओ अन्यथा आप रीते
के रीते ही वापिस लौट आओगे | प्यास
ज्ञान की, प्यास आत्म-बोध की | आप अगर
पहले से किसी प्रकार के कथित ज्ञान से भरे हुए हों, जो कि वास्तव में
देखा जाये तो केवल अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण (Imperfect) ज्ञान होता है, तो ऐसे में सच्चा गुरु भी आपकी
कोई सहायता नहीं कर सकता | एक
आदर्श गुरु को पहले आपके इस त्रुटिपूर्ण ज्ञान को मिटाना पड़ता है | जो रीता हो, उसे
ही भरा जा सकता है, भरे हुए को क्या भरना ! पहले अपना मस्तिष्क समस्त
प्रकार के ऐसे अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण ज्ञान से रिक्त करके आयें और फिर जिस व्यक्ति
के पास जाने से आपके हृदय में परमात्मा को पाने के लिए हलचल मच जाये, जिस
व्यक्ति को सुनकर आपको लगे कि मुझे ऐसे ही किसी ज्ञानी व्यक्ति की खोज है, तो समझ लीजिये आपके लिए वही सच्चा गुरु है |
योग्य गुरु आपकी मुमुक्षा को पहचानता
है | वह आपकी मुमुक्षा को धार देकर और अधिक तीक्ष्ण बनाता है | वह आपको वह रास्ता
बता देता है जिस पर चलकर उसने परम को पाया है | वह सब कुछ कर सकता है परन्तु
परमात्मा को पाने की यात्रा आपको अकेले ही करनी है | योग्य गुरु के अनुभव आपको
मार्ग बतला सकते हैं, लक्ष्य की प्राप्ति का अनुभव आपके साथ बाँट सकते हैं परन्तु
आवश्यक नहीं कि उनको जो अनुभव हुआ है, जिस साधन से हुआ है वही साधन आपको वैसा ही
अनुभव करा दे | नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता क्योंकि आपके गुरु का समय, उस समय की
परिस्थितियां और उनका तथा आपका स्वभाव सभी भिन्न हैं | इसलिए लक्ष्य के बार में
जानकारी तो वे सटीक दे सकते हैं परन्तु यात्रा आपको करनी है और वह यात्रा उनकी
यात्रा से सर्वथा भिन्न होगी | उनकी ही नहीं आपके समकक्ष और समवय जो भी हैं, सबकी
अपनी निजी यात्रायें होगी और भिन्न होंगी | हाँ, सबका लक्ष्य एक ही होगा |
हमारे सनातन शास्त्र ऐसे ही महापुरुषों
के माध्यम से रचे गए हैं | शास्त्र भी उसी समय और परिस्थति के हैं जब वे महापुरुष
अपना मनुष्य जीवन जी रहे थे | वह समय, वे परिस्थितियाँ और वे मनुष्य, सब कुछ तो आज
परिवर्तित हो गया है | आज शास्त्रों में व्यक्त ज्ञान आपका मार्गदर्शन तो कर सकते
हैं परन्तु मार्ग आपको अपना ही नया बनाना होगा | आदिगुरू शंकराचार्य जिस मार्ग से
चलकर परम तक पहुंचे थे, वह मार्ग हमें आज ढूंढें भी नहीं मिलेगा क्योंकि उनका समय.
उनकी परिस्थितियां आदि सभी कुछ वर्तमान से भिन्न थे | परन्तु जैसा आदिगुरू ने शास्त्रों
में लिखा है, वह आज भी सत्य है और अनुकरणीय है | शास्त्रों में समाहित ज्ञान ही
हमें अपने लक्ष्य का संकेत करते हैं और उस लक्ष्य पर दृष्टि जमाकर हमें उस लक्ष्य
तक पहुँचने का मार्ग बनाना पड़ता है |
अतः आवश्यक है कि हम महापुरुषों और
शास्त्रों के संकेतों को समझें और समय और परिस्थितिवश अवरुद्ध हुए मार्ग को खोलकर
नया मार्ग बनाने का प्रयास करें | जिस प्रकार एक पक्षी आकाश में उड़ता है तो एक अपने
निश्चित मार्ग से उड़ता है | दूसरा जो पक्षी उसके बाद आता है तो उसे यह तो पता रहता
है कि पहले वाला पक्षी किस लक्ष्य की ओर गया है परन्तु उसे पहले वाले पक्षी का
मार्ग दिखलाई नहीं पड़ता | उसे उसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए परिस्थिति अनुसार अपना
अलग मार्ग स्वयं ही बनाना पड़ता है |
एक कुम्हार को मिट्टी खोदते हुए
अचानक एक चमकीला पत्थर मिल गया | उसने उसे अपने गधे के गले में बांध दिया | एक दिन
एक बनिए की नज़र उस पत्थर पर पड़ गयी | उसने उस कुम्हार से उसका मूल्य पूछा | कुम्हार
की पत्नी ने कुम्हार से गुड लाने को कहा था | बनिए द्वारा पूछने पर उसे सर्वप्रथम
गुड का ही विचार आया | कुम्हार ने तत्काल ही कहा- “सवा सेर गुड़” | बनिए ने कुम्हार
से गुड देकर वह पत्थर खरीद लिया |
वह चमकीला पत्थर वास्तव में एक बहुमूल्य हीरा
था | बनिए ने भी उस हीरे को एक चमकीला पत्थर ही समझा और अपनी तराजू की शोभा बढाने
के लिए उस पत्थर को उससे बाँध दिया | एक दिन एक जौहरी की दृष्टि तराजू पर बंधे उस चमकीले
पत्थर पर पड़ गयी | वह समझ गया कि यह तो बहुमूल्य हीरा है | उसने बनिए से उस पत्थर का
मूल्य पूछा | बनिए ने कहा – पांच रूपये | जौहरी थोडा कंजूस और लालची था | हीरे का
मूल्य केवल पांच रूपये सुनकर समझ गया कि बनिया इस कीमती हीरे को एक साधारण चमकीला
पत्थर ही समझ रहा है | वह उससे मोल-भाव करने लगा और बोला- पांच रूपये तो नहीं, चार
रूपये ले लो | बनिए ने मना कर दिया क्योंकि उसने चार रूपये का सवा किलो गुड़ देकर
तो उस पत्थर को खरीदा ही था | घाटा उठाकर वह बेचना नहीं चाहता था | जौहरी ने सोचा
- “इतनी भी क्या जल्दी है, मुझे ? क्यों व्यर्थ में ही एक रूपया अधिक दूँ ? कल आकर
फिर मोल-भाव करूँगा | नहीं माना तो पांच रूपये देकर खरीद ही लूँगा | इतने दिन ही
यह नहीं बिका तो फिर एक रात में क्या हो जायेगा ?”
परन्तु इस जौहरी की सोच ही निम्न
थी | होने के लिए एक रात तो क्या, एक पल का समय भी बहुत होता है | संयोग से दो
घंटे बाद एक अन्य जौहरी कुछ आवश्यक सामान खरीदने उसी बनिए की दूकान पर आता है |
जौहरी तराजू पर बंधे हीरे को देखकर चौंक जाता है | उसने सामान लेने के स्थान पर उस
चमकीले पत्थर का मूल्य पूछ लिया | बनिए के मुख से पांच रूपये सुनकर उस जौहरी ने
पांच रूपये में उस पत्थर को खरीद लिया और हीरा लेकर ख़ुशी-ख़ुशी चल पड़ा |
दूसरे दिन वह पहलेवाला जौहरी बनिए के पास
आया | पांच रूपये उसके हाथ में थमाते हुए बोला कि लो भाई ये पांच रूपये और वह चमकीला
पत्थर मुझे दे दो | बनिया बोला कि वह पत्थर तो कल आपके जाने के कुछ समय बाद ही कोई
दूसरा आदमी ले गया | यह सुनकर जौहरी ठगा सा रह गया | अपना दुःख कम करने के लिए वह
बनिए से बोला कि मूर्ख है तूं ! वह साधारण पत्थर नहीं था, हीरा था हीरा | उसका
मूल्य एक लाख रूपये से कम नहीं था | बनिया बोला – “मुझसे बड़े तो तुम मूर्ख हो |
मैं तो जानता नहीं था कि वह चमकीला पत्थर हीरा है परन्तु तुम तो जानते थे ना |
मेरी दृष्टि में तो वह साधारण पत्थर था और उसको मैंने चार रूपये का गुड देकर खरीदा
और पांच रूपये में बेच दिया | मुझे तो एक रूपये का लाभ ही हुआ | तुम तो जानते थे
कि इसकी कीमत एक लाख रूपये से कम नहीं है फिर भी तुमसे वह पांच रूपये में भी खरीदा
नहीं गया |”
इसलिए सच्चे संत मिलते ही पकड़ लीजिये,
ज्यादा मोल-भाव न कीजिये | ज्ञान, बुद्धि और अहंकार का समर्पण उनके चरणों में कर दीजिये,
यही सच्ची साधना है |
हम अपने जीवन को आनंदित बनाने के लिए जीवन-सूत्र खोज रहे हैं | अभी तक हुए
चिंतन से स्पष्ट है कि जीवन का उद्देश्य जाने बिना हमारा जीवन आनंदमय नहीं हो सकता
| हमें इस मनुष्य जीवन को कैसे जीना है, यह चिंतन उसी के लिए कुछ सूत्र दे रहा है |
मनुष्य जीवन में धर्माचरण का बड़ा ही महत्व है | धर्म ही हमें सही मार्ग पर अग्रसर
करते हुए अपने लक्ष्य तक ले जा सकता है | धर्म के अनुसार हमारा आचरण कैसे हो और
जीवन में हमारी आगे की यात्रा किस प्रकार की हो, उसके लिए कुछ सूत्र निकल कर सामने
आये हैं –
1. मनुष्य जीवन के साथ साथ हमारे भीतर स्वयं को
जानने और निज स्वरुप को पहिचानने के लिए मुमुक्षा भी मिली है |
2. भीतर दबी मुमुक्षा को सतह पर लाने में हमारे
समक्ष आने वाली परिस्थितियाँ सहायक होती हैं, विशेषकर विपरीत परिस्थितियाँ |
3.मुमुक्षा को जाग्रत कर तीव्रता प्रदान करने के
लिए महापुरुष का संश्रय आवश्यक होता है |
4. महापुरुष संश्रय आपको भगवत कृपा से मिलता है,
बस आपको ऐसे महापुरुष को पहिचान लेने की आवश्यकता है | फिर ऐसे महापुरुष के सान्निध्य
में रहें |
5. गुरु से सत्संग करना ही आपको आत्म-बोध के द्वार
तक ले जायेगा |
मनुष्य-जीवन में जब तक हम संसार में आकंठ डूबे रहेंगे, तब तक जीवन बड़ा कठिन
लगता रहेगा | सांसारिक जीवन कष्टमय है इसलिए कठिन भी है | कष्ट हमारे कारण से ही
है क्योंकि संसार में जैसा हम चाहते हैं ठीक उसी अनुरूप कभी होता ही नहीं और हो
सकता भी नहीं | जब हमारे अनुरूप कुछ होता नहीं तब हम सब कुछ जानते हुए भी उसे हमारे
अनुकूल बनाने का असफल प्रयास करते रहते हैं और ऐसे ही प्रयास हमें और अधिक उलझा कर
रख देते हैं | हरिः शरणम् आश्रम बेलडा हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्दराम शर्मा
कहते हैं कि यह संसार कांटो की बाड़ी है जिसमें प्रवेश कर मनुष्य उसी में उलझकर मर
जाता है | संसार में रमेंगे तो उलझने के अतिरिक्त कोई और रास्ता भी नहीं रह जाता
है | संसार की उलझन से बाहर निकलने का रास्ता मिलता है, हमरी मुमुक्षा से और गुरु
के मार्गदर्शन से | जिस दिन हम यह बात समझ लेंगे, तब गुरु का सान्निध्य हमें इन
कंटीली झाड़ियों में उलझने से बचा लेगा और जीवन की दिशा और दशा तक परिवर्तित हो
जाएगी |
आदिगुरू शंकराचार्यजी महाराज के विवेक चूड़ामणि
में कहे गए कथन पर हमने विस्तृत चर्चा की | प्रभु कृपा से मनुष्य जीवन मिल गया, बड़ी
अच्छी बात है | मनुष्य जीवन को हमें धर्म के अनुसार जीना है | हमें कौन बताएगा कि
हमारा धर्म क्या है ? धर्म कहते हैं कर्तव्य कर्म को | कर्तव्य कर्म के बारे में
केवल शास्त्र ही प्रमाण है इसलिए हमें शास्त्रों के अनुसार ही कर्म करने हैं |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते
कामकारतः |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां
गतिम् || गीता-16/23 ||
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा
से मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है, न ही परमगति को और न
ही सुख को |
हमारे शास्त्र उन महापुरुषों के
द्वारा लिखे गए हैं, जिन्होंने अपना जीवन आत्म-बोध को उपलब्ध होने के लिए अर्पित
कर दिया | ऐसे शास्त्र ही हमें कर्तव्य और अकर्तव्य के बार में ज्ञान दे सकते हैं |
इन्हीं शास्त्रों के अनुसार हमें आचरण करना चाहिए | हम इन शास्त्रों को छोड़कर
स्वेच्छाचारी बन जायेंगे तो हम अपने जीवन में भटक जायेगे, कहीं के नहीं रहेंगे | न
तो हमें सिद्धि ही मिलेगी और न ही सुख | उस परम तक पहुँचने की बात करना तो बेमानी
ही होगा |
भगवान् इसी अध्याय में आगे कहते हैं-
तस्माच्छास्त्रं प्रमाण ते
कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म
कर्तुमिहार्हसि || गीता-16/24 ||
कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में
शास्त्र ही प्रमाण है | हे अर्जुन ! ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से कर्म करने योग्य
है | इस प्रकार यह स्पष्ट है कि धर्म का अर्थ है, कर्तव्य कर्मों को करना |
कर्तव्य कर्म हैं, शास्त्रोक्त कर्म करना |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठतेकर्मकृत्त्’ (गीता-3/5) अर्थात इसमें कोई संदेह नहीं
है कि कोई भी मनुष्य किसी भी काल में बिना कर्म किये हुए नहीं रह सकता | इसका अर्थ
हुआ कि मनुष्य जीवन में कर्म करने ही पड़ते हैं | मनुष्य चाह कर भी कर्म करने से पलायन
नहीं कर सकता | कारण कि जो पुरुषार्थ पूर्व मानव जन्म में किये गए थे वे संचित
होकर इस जन्म में फल देने को उद्यत हैं और फल कभी कर्म किये बिना नहीं मिल सकते |
मनुष्य जन्म के साथ ही प्रकृति के तीन गुणों से ओतप्रोत रहता है और ये गुण ही
मनुष्य से कर्म करवाके फल देते हैं |
अर्जुन युद्धभूमि में स्वजनों को
देखकर विषाद करने लगा था और सोच रहा था कि कोई राह मिल जाये जिससे युद्ध जैसा घोर
कर्म न करना पड़े | इसके लिए अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण को माध्यम बनाया और उनसे
बहुत सारी ज्ञान की बाते कही परन्तु वास्तव में वह ज्ञान नहीं था | हम भी कर्म
करने से बचने के लिए ऐसे ही किसी तथाकथित ज्ञान का सहारा लेते हैं और कई बार सफलतापूर्वक
कर्म करने से बच भी निकलते हैं | परन्तु अर्जुन का सामना तो साक्षात् परमात्मा से
हुआ था | श्री कृष्ण ही परमात्मा है, इस बात का ज्ञान उसे स्वयं को भी नहीं था | भगवान् श्री कृष्ण
उसे बहुत प्रकार से और बार-बार समझाते हैं और धीरे धीरे उसे उसके कर्तव्य का बोध कराते
हैं | वे कहते हैं कि –
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन
कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि
तत् || गीता-18/60 ||
हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह (अज्ञान)
के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी तू पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश
होकर करेगा |
मोह (अज्ञान) जब मनुष्य की बुद्धि पर प्रभावी हो
जाता है तब उसे वास्तविक ज्ञान विस्मृत हो जाता है | तब वह समक्ष उपस्थित हुई
परिस्थति को अपने विपरीत समझने लगता है और कर्म करने से दूर भागने का प्रयास करता
है | जीवन में पलायन करना मनुष्य जीवन के उद्देश्य की उपेक्षा और स्वयं के साथ
विश्वासघात करने जैसा है | मनुष्य जीवन की यही वास्तविकता अर्थात कर्म करना अथवा
कर्म से पलायन करना दोनों ही उसे जन्म-मरण के चक्र से बाहर निकलने नहीं देती |
प्रश्न उठता है कि क्या कर्म ही हमें
जन्म – मरण के चक्कर में डाले रखता है ? कर्म के बारे में ऐसा कहना शतप्रतिशत सत्य
है | गीता के चौथे अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म का विवेचन भलीभांति किया
है | कर्म, अकर्म और विकर्म को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि विकर्म तो व्यक्ति
को करने ही नहीं चाहिए | जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वह
मनुष्यों में बुद्धिमान है,वह योगी है और वह सभी कर्मों को करने वाला है | (गीता-4/18)
कर्म करना और उसे अकर्म बना देना इसका अर्थ है बिना कर्ताभाव के, बिना फल की कामना
के कर्म करना | अकर्म में कर्म देखना अर्थात कर्तापन और फल की इच्छा का ही त्याग
कर देना |
कर्म अपना फल देने के लिए हजारों वर्षों
तक आपका पीछा कर सकते हैं | प्रत्येक कर्म का एक निश्चित परिणाम अवश्य ही होता है,
बिना फल दिए कोई कर्म रहता ही नहीं है | समस्त कर्म फल का भोग किये बिना मनुष्य
आवागमन से मुक्त नहीं हो सकता | कई लोग इस कथन का विपरीत अर्थ निकाल लेते हैं कि
जब कर्म के कारण ही बार-बार शरीर बदलना पड़ता है तो फिर हम कर्म ही क्यों करें ? नहीं,
ऐसा सोचना भी अनुचित है | कर्म से पलायन करना भी आपको विभिन्न योनियों में भटकाता
रहेगा | मनुष्य कर्म योनि के साथ साथ भोग योनि भी तो है | पूर्व मानव जीवन के कर्म
जिन्हें किसी फल की इच्छा से किया गया था वे इस मनुष्य जीवन में फलीभूत होंगे और
उस फल को प्राप्त करने के लिए आपको कर्म तो फिर भी करने पड़ेंगे | आप जब तक पूर्व
जन्म में शेष रही कामना का फल प्राप्त कर नहीं लेते तब तक आप मुक्त होने की कल्पना
नहीं कर सकते |
इस बात को भगवान् ने अर्जुन को
स्पष्ट किया था कि तुम्हारा स्वभाव तुम्हें युद्धभूमि में खींच लायेगा | अर्जुन को
अपने पूर्व मानव जन्म के किये गए कर्मों के आधार पर ही क्षत्रिय स्वभाव मिला था |
क्षत्रिय का स्वभाव ही युद्ध करना है | अगर अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण के कहने के
बाद भी युद्ध भूमि से पलायन कर जाता तो वह पुनः विभिन्न योनियों में भटककर अंततः
एक क्षत्रिय के रूप में मनुष्य जन्म लेता और उसे फिर कोई न कोई युद्ध लड़ना पड़ता |
बिना युद्ध लड़े वह भी मुक्त नहीं हो पाता |
गीता में श्री कृष्ण बार-बार अर्जुन को
यही समझाते रहे कि किसी समस्या से पलायन करना उसका उचित समाधान नहीं हो सकता, अतः समस्या
का सामना कर उसका निराकरण करना ही उचित है | पलायन आपको कर्म करने से विमुख करता
है, जोकि भीतर भय उपजने का संकेत है जबकि भयमुक्त रहकर कर्म करने से किसी भी
समस्या का समाधान निकाला जा सकता है | हाँ, यह सत्य है कि प्रत्येक कर्म का फल
मिलना निश्चित है फिर भी जीवन में कभी भी स्वाभाविक कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए
|
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता
|| गीता-18/48 ||
हे कौन्तेय ! सम्पूर्ण कर्म धुएं से अग्नि
की तरह दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए | जैसे अग्नि
प्रज्वलित होती है तो धुआँ भी निकलता है फिर भी अग्नि को प्रज्वलित करना आवश्यक है
| धुआं अग्नि में दोष है फिर भी अग्नि का त्याग नहीं किया जा सकता | उसी प्रकार
कर्म में केवल एक ही दोष है कि वह फल अवश्य देता है परन्तु इस आधार पर कर्म का
त्याग नहीं किया जा सकता | कर्म का त्याग करने से हमारी पूर्वजन्म में अपूर्ण रही
कामनाएं पूरी कैसे होगी और अगर उन कामनाओं के लिए किये गए कर्मों के फल को नहीं
भोगेंगे तो फिर उन कामनाओं से मुक्त कैसे हो पाएंगे ? इसलिए इस जीवन में स्वभावानुसार
किये जाने वाले कर्म का त्याग करना अनुचित है |
अब प्रश्न यह उठता है कि कर्म
दोषयुक्त है, तो हम किस प्रकार के कर्म करें कि दोष न्यूनतम हों अथवा बिलकुल भी न
हों | इसका उत्तर भगवान् ने दूसरे अध्याय में ही दे दिया है |
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोSस्त्वकर्मणि
|| गीता-2/47 ||
तेरा कर्म करने में अधिकार है, उसके फल में
कभी नहीं | इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु (कारण) मत बन तथा तेरी कर्म न करने में भी
आसक्ति न हो |
अष्टावक्र गीता हमारा बहुत ही महत्वपूर्ण
ज्ञान-ग्रन्थ है | इसमें महाराज जनक को अष्टावक्र मुनि कह रहे हैं-
सुखदु:खे जन्ममृत्यु दैवादेवेति
निश्चयी |
साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न
लिप्यते ||अ.गीता-11/4||
सुख और दुःख, जन्म और मरण; देवयोग से
प्राप्त होते हैं, ऐसा निश्चय करने वाला पुरुष साध्य कर्मों को देखता हुआ और
प्रयास रहित कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता |
मनुष्य प्रकृति के साथ बंधा हुआ है और
प्रकृति भगवान के अधीन है | जगत को सुचारू रूप से चलाने और उससे आनंद प्राप्त करने
के लिए परमात्मा ने प्रकृति के कुछ नियम बनाये हैं | उन नियमों के आधार पर ही कर्म
हमें फल देते हैं | सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि सभी हमारे ही कर्मों के परिणाम है |
अच्छे फलों के प्राप्त होने पर तो हम स्वयं की पीठ थपथपाने लगते हैं और कर्मों का
उल्टा परिणाम मिलने पर दूसरों को दोष देने लगते हैं | नहीं, ऐसा कभी हो नहीं सकता कि
हमें कोई दूसरा दुखी कर दे अथवा हानि पहुंचा दे | इन सब फलों के लिए हम ही
उत्तरदायी हैं | जैसे हम कर्म करेंगे उसका परिणाम हमें वैसा ही भोगना होगा |
काहू न कोउ सुख दुःख करि दाता | निज कृत कर्म
भोग सबु भ्राता ||मानस-2/92/4||
जगत में जीव अगर कर्ता बनता है तो फिर
उसे भोक्ता भी बनना होगा | परमात्मा न तो कर्ता हैं और न ही भोक्ता | उन्होंने तो
केवल प्रकृति को निश्चित नियमों में ढाल
दिया है और हम आसक्तिवश उन नियमों को तोड़कर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए कर्म करने
में लग गए हैं | जिसका परिणाम हमें ही भुगतना होगा, इसके लिए किसी अन्य को दोष
नहीं दिया जा सकता |
श्री रामचरितमानस में भी यही बात वसिष्ठ मुनि
भरतजी को कह रहे हैं –
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ |
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि
हाथ ||2/171||
विधि ही प्रकृति है, जो कर्मों के अनुसार
हमें उनका फल देती है | अतः सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण जीवन में चलते रहेंगे |
भला ! इनसे विचलित होने की हमें आवश्यकता ही कहाँ है ?
गीता के दूसरे अध्याय से लेकर 18 वें
अध्याय तक भगवान् श्री कृष्ण विविध प्रकार से कर्म के बारे में अर्जुन को ज्ञान
देते है फिर भी अर्जुन युद्ध में होने वाले असंख्य मानव वध के पाप के बारे में ही सोचकर
उलझा रहता है | अंततः भगवान् उसे कर्म के बारे में अंतिम और सनातन सत्य बतला ही देते
हैं | वे कहते हैं -
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
शुचः || गीता-18/66 ||
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात सम्पूर्ण कर्तव्य
कर्मों को मुझ में त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों
से मुक्त कर दूंगा |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने
अर्जुन को कर्म के बारे में यह अंतिम और निश्चित बात कही है | कई व्यक्ति इस श्लोक
के अर्थ का अनर्थ करते हुए इसको कर्तव्य कर्मों के त्याग से ले लेते हैं | वास्तव
में भगवान यहाँ कर्मों के त्याग की बात नहीं कह रहे हैं क्योंकि कर्मों के त्याग
की बात कहते तो पूर्व में ऐसा क्यों कहते कि सभी प्राणी अपने स्वभाववश कर्म करने
को विवश है तथा साथ ही साथ यह भी कहते हैं कि कोई भी मनुष्य कभी भी एक क्षण के लिए
भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज
स्पष्ट करते हैं कि इस श्लोक में सभी “धर्मों के आश्रय का त्याग करके एक मेरी शरण
में आ जा” का अर्थ है कि जीवन में केवल कर्तव्य कर्मों का आश्रय न ले, अपितु एक
मेरा आश्रय लेते हुए सभी कर्तव्य कर्म कर | त्याग तो करना है परन्तु कर्त्तव्य
कर्मों का नहीं बल्कि उन कर्मों के आश्रय का त्याग करना है |
एक परमात्मा का आश्रय लेने से ही धर्म
का आचरण हो जाता है | कर्तव्य-कर्म तो करना ही है, चाहे प्रत्येक कर्म में दोष हो
परन्तु जब कर्म परमात्मा के आश्रय होकर किये जाते हैं तब वे सभी कर्म अकर्म की
श्रेणी में आ जाते है और फिर उनका परिणाम मनुष्य को भुगतना नहीं पड़ता |
संसार में जितने भी चर-अचर जीव तथा
चेतन-अचेतन सृष्टि है, सब कुछ परमात्मा ही है | एक परमात्मा के अतिरिक्त यहाँ कुछ
भी नहीं है | ऐसा स्वीकार कर लेने पर प्रथम तो व्यक्तिगत स्वार्थ से कर्म होंगे ही
नहीं और जो कुछ भी कर्म होंगे भी वे सभी कर्म शास्त्रोक्त ही होंगे | इस प्रकार
कर्म भी परमात्मा के आश्रय में परमात्मा के लिए ही होंगे | फिर सभी कर्म अकर्म ही
कहे जायेंगे और व्यक्ति कर्म-बंधन में नहीं फंसेगा | फिर कहाँ रहेगा कोई बंधन ?
यही जीवन-मुक्ति है |
जीवन-सूत्रों पर चिंतन करते हुए हम ऐसे
मोड़ पर आ पहुंचे हैं, जहाँ पर आकर जीवन में कर्म का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है |
मनुष्य जीवन एक पशु की तरह केवल भोग योनि ही नहीं बल्कि भोग के साथ साथ कर्म/योग
योनि भी है | इस कर्म योनि को कर्म के माध्यम से योग योनि में बदल डालना ही मनुष्य
जीवन का उद्देश्य है | कर्म पर चर्चा करते हुए जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र सामने
आये हैं, जिनको सूक्ष्म रूप से निम्न प्रकार से अभिव्यक्त किया जा सकता है-
1. प्रत्येक मनुष्य को अपने
जीवन में कर्म करने आवश्यक हैं | चाहकर भी वह कर्म से विमुख नहीं हो सकता | प्रत्येक
मनुष्य अपने जीवन में आने वाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए स्वयं
उत्तरदायी है | किसी अन्य को दोष देना अनुचित है | इसलिए जीवन में किसी से
राग-द्वेष न करें |
2. पूर्व जन्म के शेष रहे
भोगों के लिए स्वाभाविक कर्म करने से उसे वे भोग प्राप्त होंगे और इस जन्म में
धर्म मार्ग पर चलते हुए उसे कर्तव्य कर्म करने चाहिए |
3. केवल भोगों के लिए किये
जाने वाले कर्म हमें आवागमन से कभी मुक्त नहीं होने देंगे | इसलिए जीवन में भोगों
की इच्छा रखते हुए किसी भी प्रकार का कर्म न करें |
4.कर्तव्य-कर्म कौन कौन से
है, इसका उत्तर हमारे शास्त्र दे सकते हैं | अतः जो भी कर्म करें वे शास्त्रोक्त
ही होने चाहिए |
5. प्रत्येक कर्म किसी न
किसी दोष से युक्त अवश्य है, ऐसा सोचकर कर्मों से पलायन करना उचित नहीं है | पलायन
करना ही है तो कर्मों के आश्रय से पलायन करें अर्थात कर्तव्य कर्मों का आश्रय न
लें | केवल परमात्मा का आश्रय लेकर ही कर्म करें | ऐसे किये जाने वाले सभी कर्म
अकर्म हो जाते हैं जो कि फल नहीं देते और हमें मुक्त करने वाले होते हैं |
कर्मों के बारे में जितनी भी चर्चा की जाये कम ही है | कर्म को समझना बड़ा ही मुश्किल है, ’गहना कर्मणो गतिः (गीता-4/17) | सीधे सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जिन कर्मों को करने में आपके अंतःकरण को पीड़ा का अनुभव हो, ऐसे कर्मों को करने से बचना चाहिए | हम सबके भीतर परमात्मा अंतर्यामी के रूप में उपस्थित हैं | वे प्रतिपल हमारे द्वारा किये जाने वाले शुभ कर्म के बारे में हमें अनुमति देने और अशुभ कर्म के प्रति हमें सचेत करने की भूमिका निभाते रहते हैं | आवश्यकता है कि भीतर ऐसी ही उठने वाली प्रत्येक आवाज का सम्मान करते हुए अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों की दिशा निश्चित करें |
यह मनुष्य जीवन संसार में केवल आवागमन
के लिए ही नहीं मिला है, यह जीवन मिला है स्वयं को जानने के लिए | जब हम किसी से उसका
परिचय पूछते है, तो क्या वह अपना सही परिचय दे सकता है ? वह कहेगा कि मेरा नाम X
है, मैं Y का पुत्र हूँ और मैं Z नामक नगर में रहता हूँ | क्या यह उसका वास्तविक
परिचय है ? उसका X नाम उसके भौतिक शरीर का नाम है, पिता का नाम Y जो वह बता रहा
है, उस व्यक्ति के शरीर का नाम है, जिसके माध्यम से उसने यह शरीर प्राप्त किया है
और जिस Z नगर में वह रहता है वह उसका स्थाई निवास नहीं है | देखा जाये तो इससे
पहले के जीवन में उसका, उसके पिता का नाम तथा निवास स्थान कोई और ही थे और भावी जीवन
में कुछ अन्य होंगे | जो परिचय उसने दिया है वह सही मायने में उसका परिचय नहीं है |
वह तो केवल वर्तमान शरीर के इस संसार में रहने तक की अवधि तक का परिचय है |
सांसारिक व्यवहार की दृष्टि से देखा
जाये तो उसका यह दिया गया परिचय अनुचित नहीं है परन्तु जीवन में उस परिचय के
अनुसार ही स्वयं को मान लेना गलत है | प्रश्न उठता है कि फिर उसका परिचय कौन सा होना
चाहिए ? इसी परिचय की खोज को ही आत्म-बोध की यात्रा कहा जाता है जो कि मनुष्य जीवन
का महत्वपूर्ण उद्देश्य है | नहीं, केवल महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि एक मात्र
उद्देश्य है | अपना वास्तविक परिचय केवल स्वयं को ही जानना है | मनुष्य स्वयं का
परिचय भूल चूका है और इस विस्मृति का जिम्मेवार भी वह स्वयं है | मैं इसे विस्मृति ही कहूँगा
क्योंकि अपनी कोई वस्तु कहीं रखकर भूल जाना स्मृति का अस्थायी रूप से लोप हो जाना
है | कोई अन्य व्यक्ति आपकी उस वस्तु को ढूँढने में सहायता कर सकता है परन्तु उस खोई
हुयी वस्तु को पहिचानना केवल आपके द्वारा ही संभव हो सकता है |
आप अपना वास्तविक परिचय भूल गए हैं
अर्थात आप स्वयं खो गए हैं | आपकी इस विस्मृति को पुनः लौटाने में सहायता करने
वाला ही गुरु कहलाता है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्म-बोध में सहायक
आपका गुरु है परन्तु आत्म-बोध के लिए आपको ही प्रयास करना है | इसलिए आत्म-बोध की
यात्रा आपके स्वयं की यात्रा है. वह आपके गुरु की यात्रा तनिक सी भी नहीं है |
प्रश्न उठता है कि क्या आत्म-बोध हो
जाने से आपका सांसारिक परिचय छूट जायेगा और केवल वास्तविक परिचय शेष रह जायेगा ?
नहीं, ऐसा होना इस शरीर के रहते संभव नहीं है क्योंकि आप तो अपना सही परिचय जान
चुके हैं परन्तु आपके इस संसार के सम्बन्धी तो आपको सांसारिक परिचय से ही जानेंगे |
इसलिए चाहे आप स्वयं को जान चुके हों परन्तु व्यवहार की दृष्टि से आपका परिचय वही
रहेगा जिससे यह संसार आपको जानता है | हाँ, आत्म-बोध होने के बाद आपके व्यवहार,
रहन-सहन और कथन में परिवर्तन अवश्य आ जायेगा |
स्वामी रामतीर्थ एक बार भ्रमण पर थे |
आत्म-ज्ञान को उपलब्ध यह महापुरुष अपना सांसारिक परिचय लगभग भूल चूका था | बस, याद
रहा था तो अपने नाम का केवल एक ही शब्द “राम” | जब वे किसी दूसरे स्थान की यात्रा
पर होते तो किसी मित्र अथवा परिचित के यहाँ ठहरते थे | दिन में भ्रमण पर रहते और शाम
को लौट आते | एक बार किसी स्थान के भ्रमण पर थे | जब वे भ्रमण से अपने निवास स्थान
अर्थात जहाँ पर वे अतिथि बनकर रुके हुए थे लौटते तो लौटकर दिन भर की गतिविधियों के
बारे में बात करते हुए कहते थे कि आज राम के साथ यह हुआ आज राम के साथ वह हुआ | आज
तो राम के पीछे एक बन्दर पड़ गया | बड़ी मुश्किल से उसने राम का पीछा छोड़ा | ‘आज तो
राम को खूब गालियाँ पड़ी’ कहकर हंस पड़ते थे | मेजबान कहते कि सीधे-सीधे ऐसा क्यों
नहीं कहते कि गालियाँ आपको पड़ी ? वे हंस देते और कहते ‘गालियां तो राम को ही पड़ी,
मैं तो केवल दूर खड़ा देख रहा था’ |
इसे कहते हैं, संसार में रहते हुए संसार में
लिप्त न होना; शरीर में रहते हुए भी शरीर को स्वयं होना न मानना | स्वामी रामतीर्थ
वाली स्थिति हो जाती है, आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हुए व्यक्ति की | नाटक में अभिनय
करने वाला अभिनेता भले ही नाटक में एक राजा की भूमिका निभा रहा हो परन्तु वह स्वयं
के बारे में जानता है कि नाटक के समाप्त होते ही उसे अपने घर लौट जाना है, जहाँ टूटे-फूटे
घर में बच्चे साथ में खाना खाने के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं | नाटक में एक
गरीब व्यक्ति द्वारा निभाई गयी राजा की भूमिका से वह वास्तविक जीवन में राजा नहीं
हो जाता | परन्तु इस मनुष्य-जीवन के दुर्भाग्य पर क्या कहूँ ? मनुष्य को जिस पात्र
का अभिनय करने के लिए उसे इस संसार में भेजा गया है, स्वयं को अभिनीत पात्र ही समझ
बैठा है | अरे ! इस जीवन को अभिनय की तरह जीओ और सदैव यह बात स्मृति में रखो कि अभिनय
समाप्त होते ही अपने मूल स्थान पर लौटना है | जिस दिन इस बात को स्वीकार कर लेंगे,
आपका मनुष्य जीवन सफल हो जायेगा | फिर न किसी से राग होगा और न ही किसी से द्वेष |
संसार के रंगमंच पर राजा के परिधान पहनकर भले ही सुखी होना अनुभव करो परन्तु
पटाक्षेप होने पर दुखी मत होना कि थोड़ी देर पहले मैं क्या था और अब क्या हो गया हूँ
?
आत्म-ज्ञान होते ही मनुष्य अपने जीवन में
सभी द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है | मनुष्य जीवन निर्द्वंद्व होने से ही आनंदमय हो
सकता है | मनुष्य में जो भी विकार आते हैं वे सब सांसारिक (जड़ में) हैं स्वयं का
स्वरुप तो विकार रहित (चेतन) है | सांसारिक विकार आपको किसी भी प्रकार कहीं से भी
छू नहीं सकते | विकारों से अगर आप प्रभावित होने लग गए तो निश्चित है कि आप पतन की
राह पर हैं, आप जड़त्व से मुक्त नहीं होना चाहते | जिस दिन आप यह समझ जायेंगे कि
विकार जड़ तत्व में है, चेतन में नहीं, तत्काल ही आप स्व-चेतन की अवस्था को प्राप्त
कर लेंगे |
भय प्रत्येक प्राणी के जीवन की
वास्तविकता है | डंडे के भय से पशु से किसी भी प्रकार का कार्य लिया जा सकता है
यहाँ तक कि सबसे खूंखार जानवर शेर को भी वश में किया जा सकता है | डंडे के भय से
मनुष्य भी सब कुछ करने को विवश हो जाता है | विचारणीय बात तो यह है कि डंडा शरीर
को कष्ट दे सकता है, आपको नहीं क्योंकि आप शरीर नहीं है | इसका अर्थ यह भी नहीं है
कि आप डंडे खाते रहें और दर्द का अनुभव आपको नहीं हो | आपको डंडे खाने से बचना है
क्योंकि यह शरीर भी एक साधन है, परमात्मा को पाने के लिए, स्वयं को जानने के लिए |
अतः इसकी सुरक्षा करना आपका दायित्व है | आत्म-ज्ञान आपको भयमुक्त करता है |
भयमुक्त हो जाने की अवस्था में डंडे की मार से आपको दर्द का अनुभव तो होगा परन्तु
आप उस दर्द को सहन कर लेंगे, हाय-तौबा नहीं करेंगे क्योंकि आपको यह ज्ञान हो चुका
है कि डंडा शरीर को पड़ रहा है आपको नहीं |
मनुष्य जीवन को निष्कंटक बनाना और आनंद
के साथ जीना है, तो प्रथम और आवश्यक शर्त है कि
आप भय मुक्त हों | व्यक्ति भयग्रस्त रहते हुए अपने जीवन को सही रूप से जी नहीं पाता
और सांसारिक दुःख-सुख के चक्कर में इसे व्यर्थ ही गवां डालता है | मनुष्य जीवन यूँही
व्यर्थ गंवाने के लिए नहीं है | जीवन में सुख-दुःख आदि आते-जाते रहते हैं, इनसे
अपने भीतर भय क्यों मानना ? आप चाहकर ही सुख-दुःख से भाग नहीं सकते, सब कुछ आपको
सहन करना ही पड़ेगा | चिंता आर भयमुक्त जीवन जीने के लिए यह आवश्यक है कि शारीरिक
सुख-दुःख को सहज रहते हुए सहन करें |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे
हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय
शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व
भारत || गीता-2/14 ||
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! सर्दी-गर्मी और
सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पति-विनाशशील और अनित्य
है, इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर |
मनुष्य के सांसारिक जीवन में
अनुकूलता-प्रतिकूलता आएगी ही, ऐसी परिस्थितियों से बचा नहीं जा सकता | कभी अत्यधिक
सर्दी कभी बहुत गर्मी हो जाती है, फिर भी हम उनको अपने जीवन में यह सोचकर सहन करते
हैं कि समय पाकर प्रत्येक प्रकार के मौसम में परिवर्तन होना निश्चित है, वैसे ही
यह मौसम भी सदैव के लिए नहीं रहेगा | एक न एक दिन यह भी परिवर्तित हो जायेगा | इसी
सोच को केंद्र में रखते हुए अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में आये सुख-दुःख को
सहन करना है क्योंकि ये भी मौसम की तरह आने जाने वाले हैं | इसलिए किसी भी
परिस्थिति में हमें विचलित नहीं होना है | सैद्धान्तिक रूप से (Theoretically) तो हम
जानते है कि कोई भी परिस्थिति मनुष्य के जीवन में स्थाई रूप से नहीं रह सकती, एक न
एक दिन उसे परिवर्तित होना ही है परन्तु मानसिक रूप से हम इस सत्य को स्वीकार नहीं
कर पा रहे हैं | सत्य को स्वीकार नहीं कर पाने के कारण ही हम जरा से सुख में उत्साहित
होकर उछलने कूदने लगते हैं और अल्प से दुःख में बहुत अधिक दुखी होकर शोकग्रस्त हो
जाते हैं |
अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण के सखा है तो
क्या हुआ ? है तो आखिर एक साधारण मनुष्य ही | पारिवारिक मोह में पड़कर भ्रमित हो चूके
थे, वे तो भगवान् साथ में थे अन्यथा उनका पतन होना तो निश्चित था | भगवान् ने अर्जुन
को इस प्रकार के शोक और मोह से उबारने के लिए ही ज्ञान देना था, जिससे उसकी भावी
पीढ़ियों को भी उससे लाभ मिले | गीता के दूसरे अध्याय से वे ज्ञान देना प्रारम्भ करते
हैं | प्रारम्भ में वे कह रहे हैं –
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे
|
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||
गीता-2/11 ||
भगवान् कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! तू शोक
न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचन कह रहा है;
परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं और जिनके प्राण जाने वाले हैं, उन दोनों के लिए पण्डितजन
शोक नहीं करते |
मनुष्य को अपने जीवन में भय होता
है, प्राप्त किये हुए को खोने का | चाहे वह प्राण हो, स्वजन हों अथवा धन | उसे जीवन
में सबसे अधिक भय इस शरीर के खोने का ही रहता है | शेष सभी भय आपकी आसक्तियों से
सम्बंधित है, चाहे वह धन में हो अथवा परिवार में | मनुष्य के मन में सदैव इनको खो
देने का भय बना रहता है | प्रत्येक मनुष्य के मन में चिंता और शोक का एक मात्र कारण
यह भय ही है | मनुष्य शरीर को ही सब अमर करना चाहते हैं, यह जानते हुए भी कि यह
मरणधर्मा है |
मनुष्य जीवन में भय का सबसे बड़ा कारण
है- शरीर के प्रति आसक्ति | शरीर से ही सम्बंधित अन्य शरीरों और पदार्थों में
आसक्ति भी भय पैदा करती है | अगर जीवन में हम किसी के प्रति भी आसक्त नहीं है, तो
फिर हम मुक्त हैं, सभी ओर से भय-मुक्त | भय-मुक्त रहना जीवन्मुक्त होने की यात्रा
का पहला सोपान है | प्रश्न उठता है कि विभिन्न प्रकार की आसक्तियों का त्याग सर्वप्रथम
किस प्रकार की आसक्ति के त्याग करने से प्रारम्भ किया जाए | वैसे सभी आसक्तियां स्वयं
के शरीर से सम्बंधित होती है अतः केवल इस शरीर के साथ की आसक्ति को मिटा दिया जाये
तो अन्य सभी आसक्तियों से आपको मुक्ति मिल सकती है | शरीर की आसक्ति को छोड़ना सबसे
मुश्किल कार्य है | केवल जीवन का कोई कटु अनुभव ही मनुष्य को इस शरीर के रहते हुए
ही शरीर से मुक्त करा सकता है |
शरीर के प्रति हमारा लगाव इतना
गहरा है कि जरा से रोग के आगमन के साथ ही हमारा मन-मस्तिष्क विचलित हो जाता है |
जीवन की बागडोर हाथ से खिसकती नज़र आने लगती है | परिवार, सगे सम्बन्धी आदि सभी याद
आने लगते हैं | याद नहीं आते तो केवल परमात्मा, जिनकी आवश्यकता हमने अपने जीवन में
कभी महसूस ही नहीं की | अगर जीवन में कभी उस परम का स्मरण करते और सदैव करते रहते
तो रोगग्रस्त होने पर भी केवल उनको ही याद करते | एकमात्र वे ही हैं जो सदैव हमारे
साथ रहते हैं, चाहे परिस्थतियाँ हमारे अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल |
खैर ! जो कुछ भी हो, अभी बात चल रही थी आसक्ति की | हमारी असक्तियाँ हमारे शरीर
से ही सम्बन्ध रखती है, अप्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से | इसलिए शरीर के
प्रति आसक्ति को हटाते ही अन्य आसक्तियों
का निवारण स्वयमेव हो सकता है |
शरीर के प्रति आसक्ति बहुत ही मजबूत
आसक्ति है | वैज्ञानिकों द्वारा गत दिनों इस बारे में एक महत्वपूर्ण प्रयोग किया गया
है | एक बंदरिया (मादा बन्दर) को उसके दूध पीते बच्चे के साथ एक कांच के बने बड़े
पात्र में रखकर बंद कर दिया गया | उस बर्तन को इस प्रकार बंद किया गया कि बंदरिया स्वयं
के प्रयास से किसी भी प्रकार बाहर नहीं निकल सकती | उस बर्तन में पानी भरने के लिए
एक नल लगा दिया गया और उस नल का नियंत्रण वाल्व बर्तन के बाहर रखा गया | सब कुछ
करने के बाद बर्तन के अन्दर नल से जल प्रवाह शुरू कर दिया गया | धीरे-धीरे जल का
स्तर बढ़ने लगा | जब जल का स्तर बंदरिया की कमर तक पहुंचा तो उसने अपने बच्चे को
ऊपर उठा लिया | जब जल का स्तर बंदरिया के गले तक पहुंचा तो उसने अपने बच्चे को सिर
पर बैठा लिया | धीरे धीरे जल का स्तर बर्तन में बढ़ता ही जा रहा था | जब जल का स्तर
बंदरिया की नाक को छूने ही वाला था तभी एक अप्रत्याशित घटना घटी |
बंदरिया ने अब स्वयं को बचाने के लिए
बच्चे को अपने सिर से उतारकर बर्तन के तल पर बिठा दिया और उस बच्चे पर स्वयं चढ़कर खड़ी
हो गयी, जिससे स्वयं डूबने से बच सके | तत्काल ही प्रयोगकर्ताओं ने बर्तन का जल
बाहर किया तथा बंदरिया और उसके बच्चे को सुरक्षित बाहर निकाल लिया | इस प्रयोग के परिणाम
में कहा जा सकता है कि जब तक बंदरिया को स्वयं के जीवन पर संकट आता महसूस नहीं हुआ
तब तक उसके लिए स्वयं के साथ-साथ बच्चे का जीवन बचाना भी महत्वपूर्ण था | हालाँकि
मनुष्य के मामले में ऐसे कई अपवाद मिल जायेंगे जिसमें मां ने बच्चे को बचाने के
लिए अपने प्राण दे दिए हों | सारांश यह है कि जब तक स्वयं के शरीर पर कोई संकट न
हो तब तक तो हमारे संसार के सम्बन्धी और पदार्थ (धन,घर आदि) हमारे लिए महत्वपूर्ण
है | परन्तु जब हमारे स्वयं के अस्तित्व पर भी संकट आ जाये तो किसी अन्य की कीमत
पर पहले हम स्वयं को सुरक्षित करना चाहेंगे |
बंदरिया और उसके बच्चे के मध्य जो आसक्ति का हाल था, लगभग वही हाल हमारा भी
है | हमारी आसक्ति शरीर के प्रति सर्वाधिक है और उसके बाद धन, परिवार घर आदि में |
मुख्यतः आसक्ति कहाँ और किनमें होती है, उनका गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्री
रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है –
जननी जनक बंधु सुत दारा | तनु धनु भवन
सुहृद परिवारा ||48/4 ||
माता, पिता, भाई-बहिन (सहोदर), पुत्र-पुत्री
(संतान), पत्नी (स्त्री), शरीर, धन, भवन, मित्र-सम्बन्धी आदि प्रियजन (सुहृद) और
परिवार इन सभी में व्यक्ति की आसक्ति रहती है | जितना अधिक विभिन्न क्षेत्रों में
आसक्ति का विस्तार होगा, मनुष्य सांसारिक बंधनों में उतना ही अधिक जकड़ता चला
जायेगा | मनुष्य बंधन के लिए स्वयं ही जाल बुनता है और फंस जाता है; फिर जब इनके
कारण उसे दुःख मिलता है, तब चिल्लाता है कि कोई मुझे इनसे मुक्त करो | जाल में फंसे
आप हैं और इससे बाहर निकलोगे आप ही | साथ ही इस जाल से बाहर निकलने का मार्ग भी
भगवान् श्री राम बताते हैं -
सब कै ममता ताग बटोरी | मम पद मनहिं बाँध
बरि डोरी ||
समदरसी इच्छा कछु नाहीं | हरष शोक भय नहिं
मन माहीं ||48/5-6 ||
इन सभी में आपकी जो ममता है, उन बंधनों के धागों
को गूंथकर एक डोरी बना लें और फिर उस डोरी को मन सहित परमात्मा के चरणों में बाँध
दें | सभी को आत्मिक रूप से एक समान मानें और देखें | कामना रहित होकर मन में
हर्ष-शोक और भय नहीं रखें | भगवान् कहते हैं कि ऐसा मनुष्य मुझको प्राप्त कर लेता
है अर्थात वह व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी हो जाता है |
गोस्वामीजी ने जिस प्रकार आसक्ति और
उससे मुक्त होने का उपाय बतलाया है, उससे अधिक सरल रूप से समझाना संभव नहीं हो
सकता | आवश्यकता इस बात की है कि इस ज्ञान को हम आत्मसात करें और मुक्ति की ओर
बढ़ें |
अभी तक हम चिंतन करते हुए मानव जीवन के
उद्देश्य को पहिचान लेने की अवस्था तक आ पहुंचे हैं | मैं सोचता हूँ कि अब तक तो हम
सब जान गए होंगे कि हमारे इस जीवन का उद्देश्य क्या है ? परन्तु हम अभी तक उस
उद्देश्य को पाने से इतने दूर क्यों हैं अथवा जीवन के उद्देश्य को क्यों भूल गए
हैं, यह जानना अभी भी शेष है | आगे बढ़ने से पहले हम अभी तक के चिंतन से जो नए जीवन-सूत्र
निकल कर आये हैं, उनको संक्षेप में जान लेते हैं –
1. हमारा परिचय जो हम सभी
को देते हैं वह मात्र सांसारिक परिचय है, वास्तविक परिचय नहीं है |
2. हम शरीर नहीं है, शरीर
से अलग हैं | शरीर का परिचय केवल सांसारिक परिचय है |
3. शरीर के प्रति आसक्ति ही
हमें अपने वास्तविक परिचय से दूर रखती है |
4 सभी विकारों के मूल में आसक्ति
ही है और ये विकार जड़ तत्व (अष्टधा प्रकृति) में है, चेतन में नहीं | हम चेतन है इसलिए
विकारों को स्वयं में न मानें |
हमें अगर अपने वास्तविक परिचय तक पहुँचना
है तो प्रत्येक आसक्ति से स्वयं को दूर रखना होगा | आसक्ति ही हमें जड़ता से मुक्त
नहीं होने देती | प्रश्न यह उठता है कि आसक्ति पैदा होने का क्या कारण है ? जब तक
हम आसक्ति की मूल तक नहीं पहुंचेंगे तब तक अनासक्त होने की अवस्था तक भी नहीं
पहुँच पाएंगे | आसक्ति का कारण है – हमारे मन और बुद्धि | पशुओं में, मनुष्य के
अतिरिक्त अन्य प्राणियों में मन और बुद्धि इतनी प्रभावशाली नहीं होती की वे मनन और
चिंतन कर सकें | उनमें मन और बुद्धि का उपयोग केवल पूर्व मानव जीवन में फल देने से
वंचित रहे कर्मों को भोगने तक ही सीमित है | जबकि मनुष्य जीवन में मन और बुद्धि से
पूर्व मानव जन्म के शेष रहे कर्म तो भोगे जायेंगे ही, साथ ही साथ इनका उपयोग कर मनुष्य
अपने जीवन में नए कर्म भी कर सकता है | विकसित मन के कारण ही हमें मनुष्य नाम मिला
है |
केवल मनुष्य जीवन में ही आसक्ति पैदा हो
सकती है, पशु जीवन में नहीं | केवल मनुष्य में ही आसक्ति के पैदा होने का कारण है-
मन और बुद्धि का अत्यधिक विकसित होना | मन और बुद्धि का उपयोग हम अगर भोग भोगने
में ही करते रहेंगे तो उन भोगों में हमारी आसक्ति हो जाएगी | हम बार बार उन भोगों
को प्राप्त करने की कामना करते रहेंगे | इस प्रकार भोगों के प्रति पैदा होने वाला
राग ही हमारी उन भोगों में आसक्ति कही जाएगी | कामनाएं पूरी करने और भोग प्राप्त
कर उनको भोगने में हमारे शरीर की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है इसलिए प्रत्येक
व्यक्ति की सर्वाधिक आसक्ति स्वयं के शरीर के प्रति ही रहती है |
शरीर और शरीर में स्थित मन, बुद्धि और
अहंकार - ये आठ अष्टधा प्रकृति कहलाती है | शरीर में हमारी पाँचों इन्द्रियाँ और पांचों
कर्मेन्द्रियाँ भी आ जाती है | यह अष्टधा प्रकृति जड़ है | हम स्वयं इससे अलग हैं, चेतन
है | जड़ और चेतन को अलग-अलग जान और समझ लेना ही ज्ञान है | इसी अवस्था को उपलब्ध
हो जाना ही स्व-चेतन हो जाना है | स्व-चेतन की अवस्था को पा लेना ही मनुष्य जीवन
का एक मात्र लक्ष्य है | जड़ और चेतन दोनों के बारे में शास्त्रों को पढ़कर समझ जाते
हैं कि हम शरीर नहीं है बल्कि हमारे में जो चेतन अंश हैं, हम वह हैं | सैधांतिक
रूप से समझ लेना मानव जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है | जब तक इस ज्ञान को हम अपने
जीवन में नहीं उतार लेंगे तब तक यह ज्ञान केवल तोता रटन्त ही बन कर रह जायेगा, ऐसे
ज्ञान से हमारा कल्याण नहीं हो पाएगा |
अष्टधा प्रकृति जड़ प्रकृति है जिसे अपरा
प्रकृति भी कहा जाता है और जो चेतन प्रकृति है उसे परा प्रकृति कहा जाता है | परा
से ऊपर परम है और सरल शब्दों में कहूँ तो कहा जा सकता है कि परम का अंश ही परा है और
फिर परा से अपरा प्रकृति बनी है | समग्र रूप से देखें तो कहा जा सकता है कि
सर्वत्र परम ही है, एक परम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जब सब कुछ परम ही है (जो
कि सच्चिदानंद है) तो फिर मनुष्य जीवन इतनी अधिक दुविधाओं से क्यों भरा हुआ है ?
दुविधाओं से भरे जीवन का दोष अंततः हमारी
मन-बुद्धि पर ही आ जाता है | मनुष्य जीवन की इन दुविधाओं का दोष मन-बुद्धि पर
क्यों है ? आइये ! इसका कारण जानने का प्रयास करते हैं |
जड़ और चेतन के मध्य में है हमारा मन |
जड़ साकार है और चेतन निराकार | मन हालाँकि जड़ तत्व है परन्तु यह इन दोनों तत्वों (जड़-चेतन)
को जोड़ने का कार्य भी कर रहा है | गंभीरता से अवलोकन करेंगे तो आप पाएंगे कि
निराकार जब साकार रूप से व्यक्त होता है तो दोनों अवस्थाओं के मध्य एक अवस्था और बनती
है | उस निराकार और साकार की मध्य अवस्था का नाम है – मन | कहने का अर्थ है कि मन
के माध्यम से ही निराकार, साकार रूप में प्रकट होता है | इस प्रकार कहा जा सकता है
कि मन निराकार और साकार दोनों की मध्य अर्थात उभय अवस्था का नाम है | इससे स्पष्ट
है कि मन का किसी एक अवस्था में अस्तित्व नहीं है अर्थात उसे न तो साकार कहा जा
सकता है और न ही निराकार | ऐसे में प्रश्न उठता है कि अगर मन निराकार है तो फिर वह
जड़ क्यों कहलाता है और अगर मन साकार है तो फिर वह दिखलाई क्यों नहीं पड़ता ? इसका
स्पष्ट उत्तर है कि मन चंचल है, परिवर्तनशील है, इसलिए जड़ है, भले ही वह साकार रूप
से व्यक्त न हो रहा हो |
मन और बुद्धि में कोई विशेष अंतर नहीं
है | मन का शुद्ध रूप ही बुद्धि है | मन की चंचलता को बुद्धि अपने स्तर पर रोक भी
सकती है और बढा भी सकती है | मन बुद्धि को भी चंचल बना सकता है और बुद्धि अगर
स्थिर रही तो मन भी स्थिर रह सकता है | स्थिर बुद्धि वाले पुरुष को स्थितप्रज्ञ
कहा जाता है – स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते (गीता-2/55) | कहने का अर्थ है कि मन और
बुद्धि एक दूसरे को प्रभावित करते हैं | इन दोनों को प्रभावित करने वाला भी एक
तत्व है- अहम्, जो कि अपरा प्रकृति का सर्वोच्च सोपान है, जिसमें काम निवास करता
है जोकि प्रत्येक आसक्ति का परिणाम है | अभी हम मन और बुद्धि की जो चर्चा कर रहे
हैं इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दोनों में कौन किसको अधिक प्रभावित करता है ?
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