समत्व-योग
“भक्तिरेकैव मुक्तिदा” श्रृंखला में हमने भक्ति पर गहन चर्चा की और सारांश में यह जाना कि केवल अकेली भक्ति भी हमें मुक्त कर सकती है, किसी दूसरे साधन की कोई आवश्यकता नहीं है | इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे साधन जैसे ज्ञान-योग, कर्म-योग, ध्यान-योग, सहज-योग आदि उपयोगी नहीं हैं | वे भी उपयोगी साधन हैं, बस साध्य तक पहुंचने के मार्ग अलग अलग हैं | साधन अलग अलग हो सकते हैं परंतु साध्य एक ही है। अंततः सभी मार्ग आकर भक्ति के मार्ग में मिल जाते हैं | जैसे तिरुपति दर्शन के लिए अलग अलग राशि की टिकटें मिलती हैं, प्रारम्भ में सबकी अलग अलग पंक्तियाँ और मार्ग होते हैं परन्तु अंत में मंदिर के मुख्य द्वार से प्रवेश करने के बिंदु पर आकर सभी पंक्तियाँ मिलकर एक हो जाती है, उसी प्रकार एक बिंदु पर आकर ये सभी मार्ग भी भक्ति मार्ग में मिल जाते हैं |
भक्ति का मार्ग छोटा, आनंददायक और सुगम है इसलिए संतजन इस मार्ग पर चलने की अनुशंसा करते हैं | पूर्व में मैंने भक्ति-योग के अंतर्गत तीन प्रकार की साधना बताई हैं- सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार की साधना | इस श्रृंखला में यह बात उभर कर सामने आई थी कि इन सबमें सगुण साकार की उपासना श्रेष्ठतम है | सगुण साकार की उपासना से निर्गुण निराकार की अवस्था तक पहुँचना सरल है क्योंकि इस उपासना में मन के विचलित होने की सम्भावना सबसे कम है क्योंकि यह साधना एक ऐसी साधना है जिसमें हमें किसी अपरिचित की साधना करना कभी प्रतीत ही नहीं होता बल्कि ऐसा लगता है जैसे हम हमारे जैसे ही एक व्यक्तित्व की उपासना कर रहे हैं | एक दूसरा और महत्वपूर्ण कारण स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने बतलाया है | वे कहते हैं कि सगुण साकार के अंतर्गत निर्गुण निराकार आ जाता है परन्तु निर्गुण निराकार में सगुण साकार का कोई स्थान नहीं है | अतः अपने लक्ष्य निर्गुण निराकार को प्राप्त करने के लिए सगुण साकार की भक्ति करना ही अधिक श्रेष्ठ है |
“भक्तिरेकैव मुक्तिदा” में हमने भक्ति के बारे में जाना | अब हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि कर्म और ज्ञान मार्ग से भी भक्ति को कैसे उपलब्ध हुआ जा सकता है ? नारदजी अपने “भक्ति-सूत्र” में भक्ति के बारे में कहते हैं – “स्वयं फलरुपतेति ब्रह्मकुमारा:” अर्थात यह भक्ति स्वयं फलरूप है | भक्ति साधन भी है और साध्य भी है अर्थात साधन ही अंततः साध्य बन जाता है |
इसी प्रकार एक अन्य भक्ति-सूत्र में नारदजी कहते हैं-
“त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ||”
अर्थात तीन सत्यों में भक्ति ही प्रधान है; उसी की गरिमा है, उसी की महिमा है |
उपरोक्त सूत्र में नारदजी तीन सत्य की बात कर रहे हैं,वे तीन सत्य कौन से हैं ? नारदजी कहते हैं कि ये तीन सत्य हैं - कर्म, ज्ञान और भक्ति | इन तीनों में भक्ति ही श्रेष्ठ है | ये तीनों सत्य अलग अलग न होकर आपस में एक दूसरे से सम्बंधित है | भक्ति से भी ज्ञान को उपलब्ध हुआ जा सकता है और ज्ञान से भक्ति भी प्राप्त की जा सकती है | ज्ञान से सत्कर्म होते हैं और भक्ति से भी | सत्कर्म करते हुए भी भगवान का भक्त हुआ जा सकता है |
केवल एक भक्ति से ही मनुष्य मुक्ति को उपलब्ध हो सकता है क्योंकि भक्ति में न तो किसी प्रकार का कोई परिश्रम करना पड़ता है और न ही परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य का आश्रय लेना पड़ता है | कर्म और ज्ञान मार्ग में तो अन्यान्य प्रयास करने पड़ते हैं जिसके लिए परिश्रम और किसी न किसी के आश्रय की आवश्यकता होती है | भक्ति में तो केवल एक भगवान का आश्रय लेना ही पर्याप्त है | भगवद् आश्रय लेते ही हम विश्राम की अवस्था को उपलब्ध हो जाते हैं | फिर न तो किसी अन्य के साथ की, न ही किसी के सहयोग की आवश्यकता होती है और न ही किसी प्रकार के परिश्रम करने की |
भक्ति के बाद अब हम उन्मुख होते हैं; ज्ञान और कर्म की ओर | कर्म और ज्ञान मार्ग पर चलते हुए भी अंततः हमें भक्ति मार्ग पर आना ही पड़ेगा | आज के मनुष्य की कुछ न कुछ करने और सब कुछ जानने के स्वभाव को ध्यान में रखते हुए भी यह आवश्यक है कि हम इन मार्गों पर भी कुछ दृष्टि डालें | कर्म योग और ज्ञान योग हमें समत्व अर्थात समता की ओर ले जाते हैं जबकी भक्ति-योग में समता का प्रादुर्भाव स्वतः ही हो जाता है | इससे स्पष्ट है कि कर्म-योग और ज्ञान योग; दोनों ही हमें समत्व की ओर ले जाते हैं जबकि भक्ति में समत्व स्वयमेव ही होता है | महत्वपूर्ण बात यह निकल कर आ रही है कि कर्म,ज्ञान और भक्ति; इन तीनों का सार तत्व है- समत्व अर्थात समता |
समता का विलोम शब्द है,विषमता।विषमता से व्यक्ति दुःख को प्राप्त होता है और समता से सुख को। जीवन में विषमता के दो मुख्य कारण हैं-अहंता और ममता | अहंता अर्थात "मैं" और ममता अर्थात "मेरा"। मम का अर्थ है, मेरा | जहां और जिससे हमारा स्वार्थ का सम्बन्ध होता है हम उसे “यह मेरा है” ऐसा कहने लगते हैं | हमारा यह "मेरापन" अथवा "मैं पना" ही उस पदार्थ अथवा शरीर के प्रति हमारी ममता होने का द्योतक है | यही ममता इनके प्रति आसक्ति पैदा करती है | इसी प्रकार जब हम इस शरीर से कोई कर्म करते हैं और कहते हैं कि यह कार्य मैंने किया है अथवा हम यह कहते हैं कि केवल मैं ही यह कार्य कर सकता हूँ | इस कार्य के होने अर्थात करने में घुसा हुआ हमारा “मैं” ही हमारी अहंता है,अहंकार है |
महोपनिषद में कहा गया है-
द्वे पदे बन्ध मोक्षाय न ममेति ममेति च |
ममेति बध्यते जन्तुर्न ममेति विमुच्यते ||4/72||
अर्थात बंधन व मोक्ष के दो ही कारण हैं-प्रथम ममता और द्वितीय ममता रहित होना | ममता के द्वारा जीव बंधन में पड़ता है और ममता से रहित हो जाने पर वही जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है |
“मैं” और “मेरा” ही “माया” है | माया ही हमारे बंधन का कारण है और यही माया हमारे संसार का निर्माण करती है | माया हमें संसार से कभी भी मुक्त नहीं होने देती | समता में न “मैं” रहता है और न ही “मेरा”, दोनों का ही लोप हो जाता है | ‘मैं और मेरा” के समाप्त होते ही माया भी समाप्त हो जाती है | माया का आवरण हटते ही हम मुक्त हो जाते हैं, इस शरीर के रहते हुए ही जीवन्मुक्त | आइये ! अब इसी बात का विश्लेषण करने के लिए बात को आगे बढ़ाते हैं और पुनः चलते है भक्ति की ओर |
सगुण साकार की भक्ति करते हुए निर्गुण निराकार की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि सगुण साकार के अंतर्गत निर्गुण निराकार आ जाता है | निर्गुण निराकार की अवस्था को उपलब्ध होने के लिए हमें अपने शारीरिक स्वरुप (स्वयं को शरीर मान लेना) का त्याग करना पड़ता है और साथ ही प्रकृति के तीनों गुणों का भी | ऐसा करने पर ही हम गुणातीत होकर निर्गुण निराकार स्वरुप (वास्तविक स्वरूप) को पा सकते हैं, अन्यथा नहीं |
सगुण साकार से निर्गुण निराकार तक पहुँचने के लिए हमें हमारे आकार और गुण, दोनों से ही परे जाना होता है अर्थात उन्हें छोड़ना पड़ता है | हमारा आकार है यह भौतिक शरीर और हमारे गुण है प्रकृति के तीन गुण | देखा जाये तो ये दोनों ही प्रकृति की देन है | भौतिक शरीर के रहते गुण कभी छोड़े नहीं जा सकते । अतः हमें गुणों का त्याग नहीं करना है बल्कि उन गुणों में रहने वाली आसक्ति को छोड़ना है | इन गुणों में आसक्ति का त्याग करते हुए हमें प्रकृति से पुरुष की ओर चलना है और अंततः परम पुरुष तक पहुंचना है | इससे स्पष्ट होता है कि प्रकृति से बंधन समाप्त करने के लिए मनुष्य का गुणातीत होना आवश्यक है | प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ये गुण क्या हैं और हमें प्रकृति के साथ कैसे बान्ध देते हैं ? इस बात को जान लेने के उपरांत ही हम अपने आकार और गुणों का अतिक्रमण कर पुरुष अर्थात स्वयं को जान पाएंगे | तत्पश्चात परम पुरुष की अवस्था को प्राप्त करना अधिक कठिन नहीं है |
हमारा शरीर प्रकृति की देन है | इस कारण से शरीर में तीनों गुण भी उपस्थित रहते हैं | प्रकृति को परिवर्तनशील कहा जाता है | प्रकृति के परिवर्तनशील होने का क्या कारण है ? तीनों गुण; सत्व,रज और तम कभी भी निश्चल नहीं रह सकते | तीनों गुण आपस में एक दूसरे से अथवा स्वयं के भीतर भी क्रियाएं करते रहते हैं | ये क्रियाएं हमारे शरीर की अवस्थाएं परिवर्तित करती है | आज का बालक कल युवा होगा | आज का युवा कल वृद्ध होगा और अंततः जीर्ण शीर्ण शरीर छूट जायेगा | प्रकृति का यह नियम सार्वभौमिक सत्य है | हमारा स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि हम शरीर की भी अनश्वरता चाहते हैं, यह जानते हुए भी कि एक न एक दिन इस शरीर को छोड़ना ही होगा । इसको विडम्बना ही कहेंगे कि वास्तविक स्वरूप की ओर हमारी दृष्टि नहीं है जो कि सही मायने में अनश्वर है।
प्रकृति त्रिगुणी है | हमारा शरीर प्रकृति के अंतर्गत आता है | हालाँकि प्रकृति परमात्मा का ही स्वरुप है परन्तु इसमें अवस्थित तीन गुणों के कारण वह हमें अपनी ओर अधिक आकर्षित करती है | आकर्षित करना प्रकृति का स्वभाव है और उसके आकर्षण में फंस जाना मनुष्य का स्वभाव बन गया है। यही कारण है कि मनुष्य परमात्मा को अर्थात निज स्वरूप को भूला देता है | प्रकृति के तीन गुण ही हमें आकर्षित करते हैं जिसके कारण स्वयं का शरीर ही हमें वास्तविक स्वरूप के रूप में दिखलाई देने लगता है | इसका परिणाम यह होता है कि हम अपना अस्तित्व इस शरीर के कारण होना मान लेते हैं | ऐसी सोच हमारे भीतर अहंकार पैदा करती है | हमारा शारीरिक सौष्ठव, शरीर से होने वाली क्रियाएं आदि ही हमारे भीतर अहंता का बीजारोपण कर देती है जो कि एक दिन अहंकार रूपी वट वृक्ष का कारण बन जाती है |
हमारे शरीर में उपस्थित गुण आपस में क्रिया करते हैं | इन क्रियाओं से हमें एक प्रकार का शारीरिक सुख मिलने का अनुभव होता है।शारीरिक अहंकारवश हम इन क्रियाओं को स्वयं के द्वारा किया जाने वाला कर्म मान लेते हैं | इस प्रकार हमारे शरीर से होने वाले कर्म और उससे मिलने वाले रस (विषय) के प्रति हम आसक्त हो जाते हैं | यह आसक्ति बार बार उसी रस को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार व्यक्ति कर्म, रस और भोग के लोभ में पड़कर उनके प्रति आसक्त होकर संसार के बंधन में बंध जाता है।
अहंता से अहंकार पैदा होता है और ममता से आसक्ति। अहंकार का त्याग करने के लिए मुख्यतः ज्ञान योग उपयोगी है और आसक्ति का त्याग करने के लिए कर्म-योग | वैसे अहंकार और आसक्ति के त्याग में दोनों ही योग अर्थात ज्ञान और कर्म योग की भूमिका रहती है। भक्ति-योग में अहंकार और आसक्ति का त्याग परमात्मा के शरणागत होते ही स्वत: हो जाता है | अहंकार और आसक्ति का त्याग होते ही हम अहंता और ममता का त्याग कर समता में आ जाते हैं | सारांश यह है कि समता में आने के लिए हमें अपने अहंकार और सभी प्रकार की आसक्तियों का त्याग करना है |
अहंकार और आसक्ति, दोनों का त्याग करने के लिए मुख्यतः ज्ञान-योग सहायक है | ज्ञान हो जाने पर कर्म भी स्वतः ही निष्काम होने लगते हैं | ज्ञान कहता है कि हमें कर्म भले ही शरीर के द्वारा होते हुए प्रतीत होते हों परन्तु वास्तविकता तो यह है कि कर्म करने में शरीर केवल माध्यम मात्र है | देखा जाये तो शरीर भी वास्तव में एक पदार्थ ही है, इस प्रकृति का एक पदार्थ जिसमें इसके तीन गुण उपस्थित हैं | गुण जब अपने साथ अवस्थित किसी दूसरे गुण से क्रिया करते हैं तब कर्म संपादित होता है | यह कर्म हमें अपने शरीर द्वारा होता प्रतीत अवश्य होता है जबकि वास्तव में यह गुणों की गुणों में हो रही स्वाभाविक क्रिया मात्र है | शरीर के प्रति अहंकार होने के कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है, जैसे ये सभी कर्म हम स्वयं कर रहे हैं |
'मैं' और 'मेरा',इन सभी संग्रहों का एक समूह है: भय, सुख, अकेलापन, निराशा, अवसाद, चिंता, कष्ट, दर्द, ऊब, आलस्य आदि। इस शरीर को ही "मैं" मान लेने का ही यह परिणाम है।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैःकर्माणि सर्वशः |
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || 3/27||
अर्थात वास्तव में समस्त कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा ही किये जाते है तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी “मैं कर्ता हूँ” ऐसा मानता है |
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रकृति के गुणों और उनसे होने वाली क्रियाओं को हम अपने द्वारा कर्म करना न मानें तो हमारा अहंकार समाप्त हो सकता है | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इस प्रकार के ज्ञान से गुणों और क्रियाओं का त्याग हो जायेगा | ज्ञान को आत्मसात करने से हमारा अहंकार तो समाप्त होगा ही, साथ ही साथ गुणों के द्वारा होने वाली क्रियाओं को, जिनको हम अपने द्वारा करना मान रहे हैं, उन कर्मों के प्रति हमारी आसक्ति भी नहीं रहेगी | यह तो मान लिया कि ज्ञान से हमारा अहंकार नष्ट हो जाता है परन्तु ज्ञान से कर्मों के प्रति आसक्ति कैसे मिट सकती है ?
किसी भी व्यक्ति की कर्मों में आसक्ति कभी भी सीधे सीधे नहीं होती | आसक्ति पैदा होती है, कर्म के फल के रूप में प्राप्त विषय भोग में | भोगों में ऐसी आसक्ति ही हमें कर्मासक्त बना देती है जिससे हमारे मन में विभिन्न प्रकार की कामनाएं जन्म लेती है | इन कामनाओं के कारण ही हम नए नए कर्म करने को प्रेरित होते हैं | हाँ, हम अपनी कामनाओं को पूरा करने के लिए कर्म करने का प्रयास कर सकते हैं लेकिन उसका फल तत्काल ही भोगने के लिए मिलेगा,यह कहा नहीं जा सकता। जो भी विषय भोग हमें मिलते है, वे वास्तव में प्रकृति के गुणों की आपस मे की जाने वाली क्रियाओं के कारण मिलते हैं।इस प्रकार स्पष्ट है कि परोक्ष रूप से हम विषयासक्त होकर गुणों के कारण ही कर्म करने के लिए शरीर के साथ बंधे हुए हैं |
इस बंधन का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति स्वयं में अहंता और ममता पैदा करके अपने लिए एक संसार का निर्माण कर लेता है । इस प्रकार गुणों का संग उसे अपने द्वारा निर्मित इस संसार के साथ आसक्ति से बाँध देता है |
जब तक इस शरीर में जीवन है, तब तक हम प्रकृति के साथ हैं | जब तक हम प्रकृति के साथ है, तब तक उसके गुण भी हमारे साथ रहेंगे | इसीलिए गुणों का त्याग करना असंभव है और जब तक गुण साथ हैं तब तक इस शरीर से कर्म तो होंगे ही | गीता में भगवान् स्वयं कहते हैं कि शरीर के रहते कर्मों का त्याग करना असंभव है। अतः प्रत्येक जीव को कर्म तो करने ही पड़ेंगे | कर्म सकाम न होकर निष्काम हो इसके लिए आवश्यक है कि जीवन में हमारा आचरण समता पूर्वक हो |
अब प्रश्न उठता है कि समता में आने के लिए हमें क्या करना होगा ? समता धारण करने के लिए हमें अहंता और ममता का त्याग करते हुए प्रकृति के गुणों से परे चले जाना होगा | गुणों से परे चले जाने का अर्थ है, गुणों की होने वाली क्रियाओं से सदैव अप्रभावित बने रहना। इसके लिए पहले तामसिक और राजसिक गुणों का त्याग करते हुए सात्विक गुणों को अपनाना होगा और फिर सात्विक गुणों का भी अतिक्रमण कर गुणातीत हो जाना होगा | गुणातीत होने का अर्थ है शारीरिक क्रियाओं और कर्मों के प्रति उदासीन हो जाना |
भगवान् श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता कह रहे हैं-
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||2/45||
अर्थात हे अर्जुन ! वेद तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अंतःकरण वाला हो |
यहाँ पर भगवान् ‘भोग और उसके साधन’ अर्थात भोग और भोग प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले कर्म, दोनों के प्रति आसक्त न होने का कह रहे हैं | अनासक्त होने पर ही हम सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से परे जा सकते है अन्यथा भोग और कर्म के प्रति आसक्ति हमें कभी द्वंद्व से बाहर ही नहीं निकलने देगी | प्रकृति के तीन गुण ही समस्त भोग और कर्म के आधार हैं | गुणों से परे चले जाने पर अर्थात गुणातीत हो जाने पर न तो भोगों के प्रति आसक्ति होगी और न ही सकाम कर्म करने को उद्यत होंगे । केवल मात्र गुणों की आपस में क्रियाएं रह जाएगी, जिनकी ओर से हम पहले ही उदासीन हो चुके होंगे |
प्रश्न उठता है कि गुणातीत किस पुरुष को कहा जा सकता है ? इसको स्पष्ट करते हुए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं -
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: |
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ||14/25||
अर्थात जो मान और अपमान में सम है, मित्र और शत्रु के पक्ष में भी सम है एवं समस्त आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है |
गुणातीत पुरुष ही समता में स्थित है, ऐसा कहा जा सकता है | समता का अर्थ भी यही है कि व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में सम रहे, प्रत्येक स्थिति में उसका व्यवहार समान रहे | शारीरिक सुख की कामना पूर्ण होने पर राग पैदा होता है और पूर्ण न हो तो क्रोध और द्वेष | कामना पूर्ण न हो अथवा चाहा गया मान सम्मान न मिला और हम विचलित हो गए तो फिर ऐसे में समता कहाँ रही ? अतः आवश्यक है कि हम अहंकार ममता से मुक्त होकर गुणातीत की अवस्था को उपलब्ध हों, तभी हमारे में समता आ सकती है और इसके लिए भक्ति के अलावा कर्म और ज्ञान योग भी साधन हैं |
‘समता’ अपने में एक व्यापक अर्थ समेटे शब्द है | इसको समुचित रूप से स्पष्ट करना किसी ज्ञानी व्यक्ति के लिए ही संभव है, मेरे जैसे अल्पज्ञानी के लिए नहीं | समत्व अर्थात समता, वह साधन है जिसको धारण कर हम साध्य तक पहुँच सकते हैं | भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में सर्वप्रथम योग शब्द समत्व के लिए ही उपयोग में लिया है | वे कहते हैं-
योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||2/48||
हे धनञ्जय ! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर | समत्व ही योग कहलाता है |
भगवान् इस श्लोक में कह रहे हैं कि अर्जुन, तू योग में स्थित होकर समत्व बुद्धि से कर्म कर | किसे कहते हैं योग ?
“समत्वं योग उच्यते” अर्थात समत्व ही योग कहा जाता है | प्रश्न उठता है कि योग क्या है ? साधारण भाषा में योग का अर्थ है जोड़ | योग, वह प्रक्रिया अथवा साधन, जिससे आत्मा का परमात्मा के साथ जुड़ना संभव हो सकता है | इस प्रकार योग एक साधन का नाम हुआ | साथ ही भगवान् कहते हैं कि कार्य के सिद्ध अथवा असिद्ध होने का विचार तक मन में न रख और आसक्ति का भाव भी मन में न रख | इस श्लोक के अनुसार यह स्पष्ट है कि सिद्धि असिद्धि का विचार किये बिना और आसक्ति रहित होकर जो पुरुष कर्म करता है वह योग में स्थित है | इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक परिस्थिति में समता में बने रहना ही योग में स्थित होना है |
“योग किसे कहते हैं”, इसको स्पष्ट करते हुए "योग दर्शन" में महर्षि पतंजलि कहते हैं- “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” (अष्टांग-योग,समाधि-पाद-2) अर्थात चित्त की वृत्तियों (Misconceptions) को रोकना ही योग है | चित्त की वृत्तियों के अनुसार ही मनुष्य अपने स्वरुप की कल्पना करता है क्योंकि उसको उस समय तक अपने वास्तविक स्वरुप का ज्ञान नहीं होता है | चित्त की वृत्तियों का निरोध होते ही वह अपने वास्तविक स्वरुप को पा लेता है | प्रश्न उठता है कि चित्त की वृतियों का निरोध करना क्यों आवश्यक है ?
चित्त की वृतियां चित्त को स्थिर नहीं रहने देती | अस्थिर मन कभी भी व्यक्ति की बुद्धि को स्थिर नहीं रहने देता | अस्थिर बुद्धि के कारण मनुष्य की निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है | वह एक निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही विभिन्न प्रकार के विचार करता रहता है और बार-बार मार्ग बदलता रहता है | मन में जो विभिन्न प्रकार के विचार उठते रहते हैं, उनका कारण मन की ये वृतियां ही हैं | जब तक हम मन की इन वृतियों को नहीं समझेंगे तब तक अपने मन को कैसे वश में कर पाएंगे ? मन के वश में होने से ही हमारी बुद्धि समता में स्थिर हो सकती है अन्यथा चंचल मन बुद्धि की भला कैसे सुनेगा ? बिना बुद्धि के स्थिर हुए जीवन में समता का पदार्पण हो ही नहीं सकता |तो
आइये!पहले चित्त की इन वृतियों पर भी संक्षिप्त चर्चा कर लें |
चित्त-वृत्ति-
चित्त की वृतियां पांच प्रकार की होती है और प्रत्येक वृत्ति क्लिष्ट और अक्लिष्ट, दो प्रकार की होती है | क्लिष्ट वृतियां अविद्या के कारण होती है और दु:खों को बढाने वाली होती है | चित्त की अक्लिष्ट वृत्तियाँ विद्या जनित है और सुख देने वाली होती है | इनका विस्तार से विवेचन फिर कभी करेंगे |आज केवल इतना जान लेते हैं कि मन की वृत्तियां कौन कौन सी है?
मन की वृत्तियां पांच प्रकार की हैं-
1.– प्रमाण (Insight)वृत्ति-इस वृत्ति में मन के समक्ष कोई न कोई एक प्रमाण होता है, जिसके आधार पर वह जीवन में हो रहे क्रिया कलापों के बारे में पहले ही समझ और एक प्रकार की सोच बना लेता है | प्रमाण वृत्ति भी तीन प्रकार की होती है –
(अ) प्रत्यक्ष प्रमाण (Direct perception)- संशय रहित ज्ञान | जैसे, आँखों देखी, जीभ का स्वाद आदि |
(ब) अनुमान प्रमाण (Conclusion) – जैसे धुआँ देखकर अग्नि होने का अनुमान होता है |
(स) आगम प्रमाण (Based on reliable sources)-जैसे वेद, शास्त्र आदि में कही गयी बातों को प्रमाण मानना |
2.विपर्यय (Error) वृत्ति अर्थात मिथ्या ज्ञान | जैसे मरीचिका में जल का होना मान लेना और रस्सी को सांप मान लेना |
3. विकल्प (Imaginings) वृत्ति अर्थात वस्तु होती नहीं है फिर भी मान्यता के अनुसार मनुष्य उसकी कल्पना कर लेता है | जैसे भूत प्रेत के बारे में सुनी गयी बातों को मानते हुए उसके बारे में विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ करना |
4. निद्रा (Deep sleep) वृत्ति अर्थात विषय का ज्ञान नहीं रहता परन्तु ज्ञान के अभाव की प्रतीति रहती है | जैसे कुछ भी दिखाई न दे परन्तु उसका अभाव मान लेना |
5.स्मृति (Recollection) वृत्ति अर्थात अनुभव में आये विषयों को न भूलना, इसमें विषयों के संस्कार चित्त में पड़े रहते हैं और कोई न कोई निमित्त पाकर पुनः स्फुरित हो जाते हैं |
महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों को रोकने का उपाय बताया है – “अभ्यासवैराग्याभ्यांतन्निरोध (समाधिपाद-12) अर्थात अभ्यास (Assiduousness) और वैराग्य (Imperturbability) से चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है | यही बात गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं | अर्जुन का प्रश्न था कि यह मन बड़ा चंचल है,इसको वश में करना वायु को रोकने की भांति दुष्कर है | श्री कृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || गीता-6/35 ||
मैं जानता हूँ कि मन चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे अर्जुन ! अभ्यास और वैराग्य से यह वश में हो जाता है |
अभ्यास क्या है ? चित्त अर्थात मन की स्थिरता के लिए जो प्रयास किया जाता है, उसका नाम अभ्यास है | बारम्बार अभ्यास करने से मन स्थिर हो जाता है | और वैराग्य क्या है ? देखे और सुने हुए विषयों में सर्वदा तृष्णा रत रहने वाले चित्त को वश में करने की जो अवस्था है, उसी का नाम वैराग्य है | वैराग्य अर्थात किसी विषय में राग का न होना | अभ्यास और वैराग्य के प्रयास के परिणाम स्वरुप चित्त की वृत्तियों के रूक जाने पर जिस स्थिति में व्यक्ति स्थित हो जाता है उसी का नाम समता है और इसी समता को ही योग कहा जाता है |
ध्यान-योग के माध्यम से ऐसा अभ्यास संभव हो सकता है जिससे मन को वश में किया जा सकता है | मन में वश में करने का अर्थ है, विषयों का चिंतन न करना | विषय के चिंतन को जबरन रोकने से दिखावे के तौर पर विषय-भोग तो मिट सकते हैं परन्तु मन के भीतर विषय का रस नहीं मिटता | जब तक रस नहीं मिटेगा तब तक वैराग्य संभव नहीं है | वैराग्य के लिए केवल मन को वश में करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि बुद्धि को मन से स्वतन्त्र करना आवश्यक है | स्वतन्त्र बुद्धि को ही समत्व बुद्धि कहा जाता है, जिससे व्यक्ति में समता का पदार्पण हो जाता है ।
समता का अर्थ है, समत्व बुद्धि | बुद्धि पर मन का प्रभाव अधिक है तो इसका अर्थ है कि मन चंचल है और वह अपने अनुसार बुद्धि को भ्रमित कर शरीर और इन्द्रियों से कार्य लेगा | अगर मन पर बुद्धि का प्रभाव अधिक है तो फिर ज्ञान का आधिपत्य स्थापित हो जाता है और मन बुद्धि और विवेक के अनुसार चलता रहेगा | यही समत्व बुद्धि है, संतुलित बुद्धि है, फिर चाहकर भी मन उसे विचलित नहीं कर सकता | ज्ञान जब विवेक में परिवर्तित हो जाता है तब वह मन की उपेक्षा करने लगता है | चंचल मन को वश में करना भले ही दुष्कर हो परन्तु अगर मन की उपेक्षा करने लग जाएँ तो फिर मन चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता | अतः मन का निग्रह करने के प्रयास में अपना समय और शक्ति व्यय न करें बल्कि परमात्मा के प्रति समर्पित होकर मन की इच्छाओं की, मन में उठ रही कामनाओं की उपेक्षा करते रहें | धीरे-धीरे मन स्वतः ही शांत होता चला जायेगा और बुद्धि भी स्थिर हो जाएगी | इसी समत्व बुद्धि से ज्ञान और विवेक उपजेगा जो आपको प्रकृति से अलग करके स्वयं के पुरुष होने का अनुभव कराएगा |
इस प्रकार पुरुष का ज्ञान हो जाने से प्रकृति के गुणों में जो तृष्णा का अभाव हो जाता है (गुणातीत अवस्था), वह परम वैराग्य है | इस अवस्था में पुरुष और प्रकृति की पृथकता का ज्ञान हो जाता है और पुरुष सर्वथा आत्म-काम और निष्काम हो जाता है | फिर उसकी प्रकृति के तीनों गुणों के कार्य में आसक्ति नहीं रहती | गुणों में आसक्ति के कारण ही मनुष्य विषयों की ओर आकर्षित होता है और उन्हें प्राप्त करने के लिए कर्म करता है | जब गुणों से दृष्टि दूर हो जाती है तब विषयों का रस भी समाप्त हो जाता है और मनुष्य प्रकृति से स्वयं को सर्वथा अलग कर लेता है |
अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करने में ज्ञान और कर्म दोनों साधनों की भूमिका रहती है | भक्ति मार्ग पर चलकर भी समता की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है, जिसमें किसी प्रकार के परिश्रम की आवश्यकता नहीं है अर्थात न अभ्यास के लिए किसी प्रकार के प्रयास की आवश्यकता है और न ही वैराग्य के लिए किसी प्रकार के ज्ञान की |
"योग-दर्शन" में चंचल मन को वश में करने को योग कहा गया है, जो कि बड़ा ही दुष्कर कार्य है | इधर भगवान् कह रहे हैं कि समता ही योग है | दोनों बातें साथ कहने का अर्थ है कि समत्व बुद्धि को धारण करने से योगी हुआ जा सकता है और योग में स्थित होकर कर्म करने से भी समता का प्रादुर्भाव हो जाता है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि योग और समत्व एक दूसरे के पूरक है, दोनों में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है | योगी में समता आ जाती है और जिस पुरुष ने समत्व बुद्धि को धारण कर लिया है वह योगी ही है | इसलिए भगवान् अर्जुन को योगी होने का कह देते हैं |
तपस्विभ्योSधिको योगी ज्ञानिभ्योSपि मतोSधिकः |
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन || गीता-6/46||
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है और सकाम कर्म करनेवालों से भी योगी श्रेष्ठ है; इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी हो जा |
ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी महाराज ने “अप्राप्त की प्राप्ति” को योग कहा है | हम अपने जीवन में किसे अप्राप्त मानते हैं ? सांसारिक वस्तुएं तो सदैव प्राप्त ही हैं क्योंकि हम संसार में रचे बसे हैं। वास्तव में सांसारिक व्यक्ति के लिए अप्राप्त है, परमात्मा, जोकि सांसारिक दृष्टि से अप्राप्त होकर भी आत्मिक दृष्टि से नित्य प्राप्त है | केवल मनुष्य स्वयं को मन के अधीन होना मान लेने से वह अप्राप्त नज़र आता है | मन की उपेक्षा कर समत्व बुद्धि को उपलब्ध होते ही नित्य प्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जाता है, यही अप्राप्त की प्राप्ति है और यही योग है | समता को प्राप्त होते ही व्यक्ति योग सिद्ध हो जाता है | मन की चंचलता के कारण व्यक्ति की बुद्धि स्थिर नहीं हो पाती, जिसके कारण उसका सम भाव में रहना कठिन हो जाता है | मन कहता है कि ऐसा कर, मन कहता है कि वैसा कर; ऐसी उहाँपोंह की स्थिति में भला बुद्धि स्थिर कैसे रह सकती है ? अभ्यास और वैराग्य से बुद्धि स्थिर हो जाती है और ‘स्थितप्रज्ञ’ हो जाने की अवस्था प्राप्त हो जाती है | इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद पुरुष संसार में रहते हुए, व्यावहारिक आचरण करते हुए भी किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता | समता का अर्थ ही विचलन रहित (Balanced) स्थिति को प्राप्त कर लेना है |
एक बार भगवान बुद्ध के पास एक व्यथित व्यक्ति आया | अपने वर्तमान जीवन से वह बड़ा ही क्षुब्ध था | कभी वह अपनी पत्नी की शिकायत कर रहा था और कभी वह अपने पुत्रों के द्वारा आदेश की अवहेलना करने की बात कह रहा था | आस-पास के लोगों और रिश्तेदारों से भी उसके सम्बन्ध मधुर नहीं है, इसलिए भी वह व्यथित था | उसने अपने मन की व्यथा भगवान बुद्ध के सामने प्रकट की और कहा कि वह जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं कर पा रहा है | वह चाहता था कि भगवान बुद्ध उसे कोई ऐसा सूत्र दे जिसको जीवन में उतार कर वह इस दुविधा से बाहर निकल सके | भगवान बुद्ध ने कहा – “मेरे पास तो ऐसा कोई सूत्र नहीं है | हाँ, पास में ही एक वैश्य रहता है तुलाधार; उसके पास इसका एक सूत्र अवश्य है | है तो वह व्यापारी परन्तु आपकी समस्या के समाधान के लिए उसके पास एक सूत्र अवश्य है | आप चाहें तो उसके पास जाकर वह सूत्र प्राप्त कर सकते है और अपने जीवन में खुशियां भर सकते हैं |”
तुरंत ही वह व्यक्ति वहां से निकलकर तुलाधार वैश्य के पास पहुंचा | तुलाधार एक व्यवसायी था | वह बड़ा ही प्रसन्न नज़र आ रहा था और अपने पास आये ग्राहकों को सौदा तोल-तोल कर दे रहा था | नवागत व्यक्ति ने तुलाधार को अपने आने का प्रयोजन बताया और कहा कि तथागत ने आपसे वह सूत्र प्राप्त करने को कहा है, जिसको पाकर आप आनंदित अवस्था को उपलब्ध हुए हैं | तुलाधार ने उसे प्रेम पूर्वक अपने पास बिठाया और एक ग्राहक के लिए सामान तोलते हुए कहा कि ‘इस तराजू के कांटे की ओर देखो | इसे सदैव मध्य में बनाये रखने से ही ग्राहक और व्यवसायी के मध्य सामंजस्य बैठ पाता है और दोनों खुश रह सकते हैं अन्यथा नहीं | मैंने तो तराजू के इसी कांटे से सीख ली है कि सदैव मध्य में अर्थात समता में रहने से ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामंजस्य बैठ सकता है। समता में रहने से ही हम आनंद की अवस्था को उपलब्ध हो सकते हैं |’ वास्तव में तुलाधार ने मनुष्य के जीवन को आनंदित बनाने के लिए महत्वपूर्ण सूत्र दिया है | सदैव मध्य में बने रहने की अवस्था का नाम ही समत्व है |
गृहस्थ जीवन, सदैव अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के मध्य एक दोलक की तरह दोलन करता रहता है, मध्य में रूक नहीं पाता | यह सब मन का खेल है | मन चंचल है, हमें उसको वश में करना है और अपनी बुद्धि में स्थिरता लानी है | ऐसा कर लेने पर साम्य अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है | हमें हमारे डोलते मन को मध्य में लाकर वश में कर लेना है अर्थात रोक देना है | तभी समता की स्थिति आ सकती है अन्यथा नहीं | समता में स्थित होने के कुछ सूत्र प्रस्तुत है-
प्रथम सूत्र – निष्ठा पूर्वक कर्तव्य कर्म को करते रहना |
दूसरा सूत्र – किसी में भी दोष न देखना |
तीसरा सूत्र – ‘मैं और मेरा’ की भावना का त्याग |
चौथा सूत्र – संतुष्टि पूर्ण जीवन |
पांचवां सूत्र – सहिष्णुता अर्थात स्वयं के प्रति विरोध को सहन करना |
छठा सूत्र – कामनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण रखना |
सातवाँ सूत्र – साक्षी-भाव, दृष्टा बनकर रहना |
इन सात सूत्रों से एक ही अभिप्राय है, स्वयं के मन पर नियंत्रण | केवल सात ही क्यों, अगर हम अधिक गहराई से और सूक्ष्म रूप से विश्लेषण करें तो कुछ और सूत्र भी निकल कर सामने आ सकते हैं | इनमें से किसी एक सूत्र को आत्म-सात करते हुए आसक्ति और अहंकार से स्वयं को दूर रखा जा सकता है | एक सूत्र से सभी सूत्र जुड़े हुए हैं | किसी भी एक सूत्र को पकड़ लेने से समस्त सातों सूत्र सध जाते हैं, ऐसा मेरा मानना है | एक गृहस्थ को न तो आसक्त होना चाहिए और न ही विरक्त | उसके लिए मध्यम मार्ग ही उपयुक्त है |
“तेन त्यक्तेन भुंजीथा” (ईशावास्योपनिषद-1) अर्थात ईश्वर को साथ रखते हुए त्याग पूर्वक भोगते रहो | त्याग पूर्वक क्या भोगना है ? पूर्व जन्म के संस्कारों से मिलने वाले इन्द्रियों के सुख (विषय भोग) को त्याग-पूर्वक भोगना और फिर उन भोगों के प्रति आसक्त नहीं होना | समस्त इन्द्रियों का समुचित उपयोग करते हुए संसार की सेवा करें और आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हों, यही समत्व योग है |
श्रीमद्भगवद्गीता को अगर समत्व-योग का ग्रन्थ कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि समत्व योग के अंतर्गत सभी योग आ जाते हैं | साम्य अवस्था, समत्व आदि शब्दों का प्रयोग इस ग्रन्थ में भगवान् ने बार-बार किया है |
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः || गीता-5/19 ||
अर्थात जिसका मन सम में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि परम ब्रह्म निर्दोष और सम है, इससे वे ब्रह्म में ही स्थित है |
भगवान् श्री कृष्ण का ऐसा कहना सिद्ध करता है कि समत्व भाव का आचरण करने वाला व्यक्ति ब्रह्म के समान ही हो जाता है | इसका अर्थ हुआ कि समता ही ब्रह्म का साक्षात् स्वरुप है | समता में आना बड़ा ही कठिन प्रतीत होता है, परन्तु कठिन है नहीं, केवल कठिन प्रतीत ही होता है |
जैसा कि हम जानते हैं कि परमात्मा अक्रिय है और उसका दृष्टिगत स्वरुप अर्थात यह प्रकृति क्रियाशील है | समस्या तब उत्पन्न होती है जब पुरुष प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है | प्रकृति के तीन गुण उसको अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और मनुष्य उन गुणों का संग कर उनके अनुसार जीवन में कर्म करने लगता है | इस अवस्था में वह अपने आपको उन कर्मों का कर्ता मान बैठता है | यही वह अवस्था है जब उसमें आसक्ति और अहंकार का जन्म होता है | लेकिन जब वह इन प्राकृतिक तीनों गुणों से मुक्त हो जाता है तब वह उस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जो पहले भी थी परन्तु उसको अनुभव में नहीं आ रही थी |
जैसे आकाश में बादल हो अथवा न हो, पंछी उड़ रहे हो अथवा नहीं हो, आकाश में आंधी से धूल छा गयी हो, सूर्य चमक रहा हो अथवा नहीं; इनमें से किसी भी अवस्था में आकाश की स्थिरता में कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि आकाश अपने स्थान पर स्थिर है | ठीक इसी प्रकार समता रुपी तत्व भी स्थिर है, भले ही अंतःकरण में विभिन्न वृत्तियाँ आती-जाती रहती हो ।
समत्व योग और सहज योग एक ही बात है। इस योग में मनुष्य को दो गतियों के बीच संतुलन बनाकर सहज रहना होता है। सहज अथवा समत्व का अर्थ है, दो के बीच संतुलन बनाये रहकर मध्य में निश्चल बने रहना। इसी को साक्षी भाव भी कहा जाता है। यहाँ कौन से दो के बारे में कहा जा रहा है ? आइये ! इस पर भी विचार करें ।
ये दो हैं; सुख-दु:ख, मान-अपमान, हानि-लाभ, यश-अपयश, जन्म-मृत्यु आदि।जीवन, जन्म और मृत्यु इन दो के बीच की गति है।महाजीवन जन्म और मृत्यु इन दो के मध्य की अनंत श्रृंखलाओं की महागति है।जबकि परम जीवन परमात्मा में परमगति अर्थता परम विश्राम है अर्थात पूर्णरूप से शांति की अवस्था है। परम जीवन एक ही है, दो नहीं।इस परम जीवन को समता में रहकर ही पाया जा सकता है अर्थात किन्हीं दो गतियों के मध्य सहज होकर, साक्षी बनकर।
हमने पूर्व में सगुण साकार और निर्गुण निराकार की भक्ति की चर्चा की थी।सगुण मार्ग में अटकने की और निर्गुण मार्ग में भटकने की संभावना रहती है।सगुण मार्गी प्रायः मंत्र पर,पूजा स्थल,धर्मग्रंथ आदि पर आकर अटक जाते हैं।लेकिन निर्गुण में तो निराकार होता है,वहां पकड़ने के लिए कुछ नहीं होता,वहां अटकना नहीं होता बल्कि भटकना हो सकता है ।निर्गुण निराकार की साधना भटकाव का कारण बन सकती है।सहज योग इन दोनों के बीच शांत भाव में,आत्मसफूर्त होकर जीने का नाम है।
सहज योग यानि अपने स्वभाव में जीना।अपने स्वभाव में स्थित होना बड़ा कठिन है क्योंकि हम अपने स्वभाव से पहले ही बहुत दूर निकल आये हैं। हमारा स्वभाव वास्तव में शांत और स्थिर रहना है परंतु हमने अहंकार और आसक्ति में उलझकर अशांत स्वभाव को धारण कर लिया है। पुनः वास्तविक स्वरुप को पाने के लिए हमें सम स्थिति में रहना सीखना होगा। सहज अवस्था ही हमें अपने वास्तविक स्वभाव और स्वरूप तक ले जा सकती है। सहज योग को कबीर ने गोविंद से मिलन का मार्ग बताया है।इसके लिए हमें जीवन में साक्षी बनकर रहना होगा । साक्षी बनकर रहना ही समत्व योग है।
साक्षी-भाव
हमारी चेतना के दो आयाम है-एक निराकार जहां कोई कंपन नहीं है,परिवर्तन नहीं है,दूसरा है साकार, जहां निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं ।शरीर, साकार का भाग है। दोनों के मध्य में हमारा मन है, तरल जैसा ।साकार और निराकार, दोनों के मध्य रहते हुए भी मन साकार का हिस्सा है क्योंकि मन के तल पर भी सतत परिवर्तन होते रहते हैं।निराकार में कोई परिवर्तन नहीं होता है।जब आप निराकार और साकार दोनों को समभाव से देखने की स्थिति में आ जाते हैं,वह स्थिति साक्षी भाव की है।
हम इस भावना से बंध गए हैं कि हम इस अस्तित्व से तथा अन्य दूसरों से अलग हैं।इस अलग मानने की धुन में हमारी चेष्टा कुछ विशिष्ट दिखने की होती है।यह अहंकार है और यही दुःख का मूल कारण है।यह हमारी विचार प्रक्रिया का परिणाम है।जब सोच,विचार और चिंतन छूटता है,तभी योग प्रारम्भ होता है।योग ही हमें परमजीवन तक ले जा सकता है।परम जीवन ही आध्यात्मिक जीवन है।परम जीवन की साधना का ही नाम है,अध्यात्म और सहज/समत्व योग।योग मुख्यतः दो प्रकार के हैं,चिद्योग और सहज योग।चिद्योग का अर्थ है,परमात्मा के चैतन्य और निराकार रूप से जुड़ना।चिद्योग (चित् +योग) का आधार साक्षी होता है।
कर्मयोग से सांख्य योग तक की यात्रा का अर्थ है कि आप चैतन्य और निराकार की खोज में लगे हैं।साक्षी का अर्थ है,अपने भीतर निराकार और अपने से बाहर साकार,दोनों को समान रूप से देखना अर्थात दोनों के प्रति जागरूक होने की दशा का नाम ही साक्षीभाव है।अध्यात्म की यात्रा पूरी करने के लिए जीवन में चिद्योग और सहज योग दोनों का समन्वय होना आवश्यक है।
परमात्मा तक पहुंचने अर्थात आत्म-बोध की अवस्था को उपलब्ध होने के लिए कई योग-मार्ग उपलब्ध हैं। इसके लिए चाहे हम किसी भी योग-साधना का मार्ग चुनें, समता का महत्व प्रत्येक मार्ग में है। हमें प्रत्येक स्थिति में साक्षी बनना ही होगा।कौन से मार्ग में साक्षी होना कैसे संभव है, एक दृष्टि उधर भी डाल लेते हैं।
कर्मयोग-साक्षी होकर कर्म करना।
तंत्र योग-साक्षी होकर भोग करना।
हठ योग-साक्षी होकर अपनी सांसों का निरीक्षण करना।
भक्तियोग-साक्षी होकर प्रेमपथ पर चलना।
ज्ञान योग -साक्षी होकर ज्ञान/समझ के मार्ग पर चलना।
ध्यानयोग-चुनावरहित जागरूकता में रहना।
सांख्य योग-केवल बोध में जीना सीख लेना।केवल निराकार में,सिर्फ अपने चैतन्य रूप को,अपने बोध रूप मात्र को देख लेना।
चिद्योग आध्यात्मिक यात्रा का पूर्वार्ध है।चिद्योग की मंज़िल साक्षीत्व है।साक्षीत्व की मंज़िल निराकार है।लेकिन सहज-योग निराकार पर आकर ही नहीं रुकता।सहज-योग ओंकार तक जाता है।परमात्मा के ओंकार स्वरूप से जुड़ता है।सहज-योग आध्यात्मिक यात्रा का उत्तरार्ध है।सहज योग के दो भाग हैं-सुमिरन योग और लय योग।सुमिरन योग का अर्थ है,ओंकार के सुमिरन में जीना।ओंकार एक मात्र मार्ग है,जिस पर चलकर आप गोविंद तक जा सकते हैं।सहज का वास्तविक अर्थ ही ओंकार है क्योंकि ओंकार से जुड़ते ही आपमें सहजता आ जाती है।यही लय योग है।चिद्योग और सहज योग एक दूसरे के पूरक हैं,एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।सहज-योग भोग और दमन,दोनों के पार सहजता की बात करता है।ऐसी सहजता ही समता है।दो के मध्य रहकर बिना विचलित हुए सम रहना।
समता पर लिखना बहुत ही जटिल कार्य है। समता को शब्दों के माध्यम से स्पष्ट करना टेढ़ी खीर है | समता जीवन में अनुभव करने का तत्व है | जिसने समता का अनुभव कर लिया, फिर वह इसी जीवन में शरीर के रहते हुए ही मुक्त हो जाता है | इतने विवेचन के बाद प्रश्न उठता है कि समता को प्राप्त करने का सरल उपाय क्या है ?
मन को वश में करने के लिए जैसे अभ्यास और वैराग्य की बात कही गयी है, उनकी समता में स्थित होने में महत्वपूर्ण भूमिका है | साथ ही यह भी सत्य है कि अभ्यास दीर्घकालीन प्रयास मांगता है और इस भौतिक संसार में रहते हुए वैराग्य की पूर्ण अवस्था को उपलब्ध होना भी कोई सरल कार्य नहीं है | समता की अवस्था प्राप्त करने के लिए सरलतम और सर्वश्रेष्ठ मार्ग है; केवल और केवल परमात्मा पर दृष्टि रखना | ऐसा करना केवल समत्व बुद्धि से ही संभव हो सकता है | जब तक जीव की दृष्टि उस ओर नहीं है तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि परमात्म-तत्व उपस्थित नहीं है | वह तत्व तो वैसा का वैसा ही है, सदैव ही है केवल आसक्ति और अहंकार के कारण हमें उसका अनुभव नहीं हो रहा है | उसे अनुभव करने के लिए हमें अपनी निर्दोषता की ओर दृष्टि करनी है और कुछ भी करना आवश्यक नहीं है |
यही कारण है कि श्रीमद्भगवद्गीता में भले ही भगवान् ने समता को मुख्य स्थान दिया हो परन्तु अंततः अर्जुन को शरणागत हो जाने का ही कहा है | शरणागति ही एक मात्र ऐसी अवस्था है जिसमें दृष्टि मूल तत्व के अतिरिक्त अन्य किसी पर नहीं रहती | शरणागत के लिए फिर अहंकार और आसक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता | जब सब कुछ भगवान् पर छोड़ दिया गया हो, अपने स्तर पर न तो ज्ञान और न ही कर्म से कार्य लिया जा रहा हो तो स्वतः ही समता और निर्दोषता की स्थिति प्राप्त हो जाती है | शरणागति से सम और निर्दोषता की अवस्था प्राप्त करना इंगित करता है कि आप स्वयं ही ब्रह्म हो गए हो क्योंकि ब्रह्म भी सम और निर्दोष है |
सार-संक्षेप-
समता के बारे में एक बात स्पष्ट है कि यह मन की चंचलता से सम्बंधित है | मन अपनी चंचलता के कारण एक स्थान पर टिक नहीं सकता | मन के इधर-उधर भटकने की प्रवृति के कारण वह बुद्धि को भी विचलित कर देता है | बुद्धि और मन, दोनों जब विचलित अवस्था में रहने लगते हैं तब जीवन में विषमता आ जाती है | विषमता के कारण मनुष्य स्वयं विचलित रहने लगता है | विषमता ही जीवन में अशांति का सबसे बड़ा कारण है | इस विषमता से पार पाने का एक ही उपाय है- मन को स्थिर किया जाये | मन के स्थिर होते ही बुद्धि भी समता में आ जाती है |
मन की स्थिरता के लिए मुख्यतः दो उपाय बतलाये गए हैं – अभ्यास और वैराग्य | अभ्यास में मन को भटकने की अवस्था में जाने पर बार-बार प्रयास कर स्थिर अवस्था में लाया जाता है | अभ्यास एक दीर्घकालीन साधन है अर्थात इस साधन में समय लगता है | समय भले ही लगे, इस साधन से धीरे-धीरे मन स्थिर अवस्था में आ जाता है और बार-बार भटकने का प्रयास नहीं करता | दूसरे साधन अर्थात वैराग्य में संसार में राग समाप्त करना पड़ता है | राग के कारण ही मन कभी यह करूँ, कभी वह करूँ के मध्य ही भटकता रहेगा | राग के समाप्त होते ही मन समता में आ जाती है |
गीता में अर्जुन को भगवान् कह रहे हैं-
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय ||12/8 ||
अर्थात मुझ में मन को लगा, मुझ में बुद्धि को लगा; फिर तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है |
समता में आ जाने पर मनुष्य में सहजता आ जाती है और उसका व्यवहार सबके प्रति समान रहता है, प्रत्येक परिस्थिति में वह सम रहता है | जीवन में कभी भी वह विचलित नहीं हो सकता | इस संसार में उसकी भूमिका एक साक्षी मात्र की ही रह जाती है |
प्रस्तुति –डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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