Thursday, June 17, 2021

भक्तिरेकैव मुक्तिदा

 भक्तिरेकैव मुक्तिदा

       मुक्ति का अर्थ है संसार से मुक्ति | संसार से हमें मुक्ति क्यों चाहिए ? हम इस संसार में रहने को विवश हैं इसका अर्थ यह नहीं है कि संसार में रहना अनुपयुक्त है | जब हम अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण इस संसार में आ ही गए हैं तो चाहकर भी इससे पलायन नहीं कर सकते | प्रायः हम समझते हैं कि एक शरीर के छोड़ने पर यह संसार छूट जाता है और नया शरीर मिलने पर एक नया संसार मिलता है | नहीं, शरीर भले ही बदल जाये, हमारा स्व-निर्मित संसार वही का वही रहता है | स्व-संसार में मोह के कारण से ही तो हम जीर्ण-शीर्ण शरीर त्यागने के समय विचलित हो जाते हैं | यह सांसारिक मोह ही हमारे भीतर मृत्यु का भय पैदा करता है | हम यह नहीं जानते कि भविष्य में मिलने जा रहे नए जीवन में हमारे स्व-निर्मित संसार के लगभग सभी पात्र वही और वैसे के वैसे ही मिलते हैं, बस केवल उनकी भूमिका बदल जाती है | जैसा भाव जिसके प्रति पहले के शरीर में रहा, उसी भाव के अनुसार नए जन्म में उस पात्र को वैसी ही भूमिका मिल जाती है | केवल भूमिका मिल ही नहीं जाती बल्कि वह भूमिका हमें निभानी भी पड़ती है।

              हम सोचते हैं कि संसार से पलायन कर हम संसार से मुक्त हो जायेंगे |  पलायन करना संसार से मुक्त हो जाना नहीं है | जैसे तैसे इस संसार से पलायन कर भी जायेंगे तो भी आखिर इससे बचकर कहाँ तक जा पायेंगे ? संसार हमसे बाहर होता तो पलायन से उससे मुक्त हुआ जा सकता था परन्तु संसार तो हमारे भीतर बैठा है | केवल दिखावे के तौर पर बाहर से पलायन कर उससे मुक्त नहीं हुआ जाता, मुक्त तो भीतर के संसार को त्यागने से ही हुआ जा सकता है | इसलिए संसार से भागने की नहीं सोचें बल्कि इसको भोगकर इससे मुक्त हो जाने का रास्ता ढूंढें | संसार को भोगना तो पड़ेगा ही क्योंकि पूर्व मानव जीवन में हमने उन भोगों को प्राप्त करने के लिए ही तो कर्म किये थे | उन्हीं कर्मों के कारण ही तो हमें यह शरीर मिला है | अतः सर्वप्रथम हमें उन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा और अगर फिर इस जीवन में नए भोग प्राप्त करने की कामना से नए कर्म नहीं करेंगे, तभी इस नश्वर संसार से मुक्त होना संभव होगा अन्यथा नहीं | गीता में भगवान श्री कृष्ण ने संसार से मुक्ति के तीन मार्ग बताये हैं- कर्म, ज्ञान और भक्ति | ये तीनों मार्ग ही हमें अपने संसार से मुक्त कर सकते हैं |

            परमात्मा ने सृष्टि का सृजन किया अपने आनंद के लिए और इस आनंद को जिस माध्यम से वे भोग सकते हैं उनमें से एक साधन है-मनुष्य शरीर | इसलिए वे सृष्टि का सृजन कर स्वयं मनुष्य के भीतर प्रवेश कर गए | केवल एक मनुष्य के शरीर में ही नहीं बल्कि सृष्टि के प्रत्येक कण में वे प्रविष्ट है, कण कण में ही क्या, वे स्वयं ही सब कुछ बने बैठे हैं परन्तु जिस शरीर के माध्यम से वे सर्वाधिक आनंद को प्राप्त कर सकते हैं, वह है मानव शरीर। सृष्टि के अन्य साधनों से वे आनंद अवश्य प्राप्त करते हैं परन्तु अपने मूल स्वरुप में उन अन्य साधनों से पहुँच नहीं सकते बल्कि केवल मनुष्य शरीर से ही ऐसा होना संभव हो सकता है | अपने सच्चिदानंद स्वरुप को अनुभव करने का मार्ग उन्हें मनुष्य शरीर के माध्यम से ही मिल सकता है | मनुष्य शरीर में स्थित आत्मा ही परमात्मा है और उसका मनुष्य शरीर को पाने का उद्देश्य भी यही है कि वह अपने मूल स्वरुप तक पहुंच सके | अन्य प्राणियों के शरीर के माध्यम से ऐसा होना असंभव है |

            आत्मा ही परमात्मा है परन्तु आत्मा का जब संयोग शरीर के साथ हो जाता है तब वही आत्मा अपना मूल स्वरुप भूल जाता है | आत्मा का मूल स्वरुप खोता नहीं है बल्कि विस्मृत हो जाता है | इसी आत्मा को जो कि हम स्वयं है, उसे अपने मूल स्वरुप तक जाना है | आत्मा का शरीर के साथ बन्ध जाना ही बन्धन है और इस शरीर से बंधन तोड़ डालना ही उसकी मुक्ति है | इस शरीर के कारण ही मनुष्य के अन्य शरीरों के साथ सम्बन्ध बनते हैं और इस प्रकार एक शरीर का दूसरे शरीरों के साथ सम्बन्ध बनना ही संसार का निर्माण करना है | इसीलिए इस संसार को ही बंधन का कारण बताया गया है | संसार हमें अपने साथ बांधता नहीं है बल्कि हम संसार के साथ बंधते हैं | संसार के साथ बंधने का कारण हमारा शरीर है जो प्रकृति के कारण बना है | प्रकृति त्रिगुणी है और गुण ही एक शरीर को दूसरे शरीर की ओर आकर्षित करते हैं | इस प्रकार एक दूसरे के प्रति आकर्षित हुए शरीर ही आपस में अपना एक संसार बना लेते हैं | गुणों के कारण ही बने समस्त संबंधों को तोड़ डालना ही संसार से मुक्त हो जाना है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह भौतिक शरीर ही मुख्य रूप से बंध जाने के लिए उत्तरदायी है |

                      प्रत्येक शरीर विभिन्न प्रकार के पदार्थों के मिलने से बना है | परोक्ष रूप से कहा जा सकता है कि शरीर भी एक प्रकार का पदार्थ ही है | विभिन्न शरीरों के साथ आपस में सम्बन्ध बना लेना इन पदार्थों के गुणों के प्रति हमारी आसक्ति पैदा हो जाना कहलाता है | प्राकृतिक गुण ही हमें इस आसक्ति के कारण पदार्थों के साथ बांधते हैं | आसक्ति के कारण पैदा हुआ बंधन हमें अपने मूल आत्मिक स्वरुप से दूर कर देता है | हम अपना वास्तविक परमात्मिक स्वरुप भूलकर इस सांसारिक शरीर को ही अपना स्वरुप समझ बैठते है | हमारी ऐसी सोच-समझ को “अज्ञान” कहा जाता है | ज्ञान प्राप्त कर जब हम अज्ञान से बाहर निकल जाते हैं तभी हम अपने मूल स्वरुप को देख पाते हैं अन्यथा नहीं | इस प्रकार कहा जा सकता है कि अपने मूल स्वरुप को भूलने का कारण आसक्ति ही है जो हमारे संसार का निर्माण कर हमें उसके साथ बांध देती है | आसक्ति किस के साथ ? भोग और पदार्थ के साथ | संसार के विभिन्न पदार्थ भोग प्रदान करते है और वे भोग पदार्थ (शरीर) के द्वारा ही भोगे जाते है |

           आसक्ति किसे कहते हैं ? प्रत्येक पदार्थ में स्थित प्रकृति के गुणों के कारण ही सभी प्रकार के कर्म होते हैं | उन कर्मों के फल हमें भोग के रूप में मिलते हैं | भोग रूचिकर अथवा अरूचिकर हो सकते हैं | रूचिकर भोगों की ओर जाना अथवा अरूचिकर भोगों से दूर भागना, दोनों ही भोगों के प्रति आसक्ति है | आसक्ति ही नई कामनाओं और कर्मों की जनक है | भोगों की आसक्ति के कारण ही हम इस शरीर और संसार के साथ बन्ध जाते हैं | भोग भी काई प्रकार के होते हैं | प्रारम्भिक जीवन में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ भोगों से हमारा परिचय कराती है | यह भोगों से हुआ परिचय हमारी इच्छाओं को पुष्ट करता है और कई कामनाओं को जन्म देता है | इच्छाएं मान-सम्मान प्राप्त करने की हो (लोकेषणा), धन अर्जित करने की हो (वित्तेष्णा), पुत्र आदि से सेवा की अपेक्षा हो (पुत्रेष्णा) अथवा इस भौतिक शरीर से सम्बंधित अन्य कोई कामना हो, सभी प्रकार की कामनाएं हमें संसार के साथ बांधती है |

          हमारी कामनाएं ही हमारी इन्द्रियों (कर्मेन्द्रियों) को कर्म करने के लिए विवश करती है | सभी प्रकार के कर्म प्रकृति के तीन गुणों के कारण होते हैं | जब कर्म से हमारी कामना पूर्ण होती है तो एक बड़ी भूल हम कर बैठते है | इस कामना का पूर्ण होना हम हमारे द्वारा किये गए कर्मों से संभव होना मान लेते है | हमारा यह कर्ता-भाव हमें उस कर्म के साथ बाँध देता है जबकि वास्तव में कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं और इस कामना के पूर्ण करने में केवल और केवल इन गुणों का ही योगदान है, हमारा किंचित मात्र भी योगदान नहीं है सिवाय इसके कि जिस पदार्थ में उपस्थित रहकर ये गुण आपस में क्रियाएं कर रहे हैं, वह पदार्थ यह शरीर है | इस प्रकार गुणों की क्रियाओं और कर्म की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझ जाने वाला मनुष्य  कर्म के साथ बंधता नहीं है, वह सदैव मुक्त ही है |

                       आइये, जानते हैं कि बंधन क्या है और मुक्ति क्या है ? बंधन उस कारागार की तरह है जिसमें आप एक निश्चित सीमा और वातावरण में कैद होकर रह जाते हैं | मुक्ति ऐसे किसी एकदेशीय वातावरण और निश्चित की गई एक सीमा से मुक्त होकर असीम हो जाना है | बंधन में हमें श्वांस तक लेने में परेशानी होती है और मुक्ति में ऐसी किसी भी परेशानी का नाम तक नहीं होता | हमारे जीवन में ये बंधन कितने प्रकार के होते हैं, आइये ! जरा उस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं |

1.सामाजिक बंधन (Social)- सामाजिक बंधन वे बंधन होते हैं जिनमें हम एक दूसरे व्यक्ति के साथ स्वार्थ वश बन्ध जाते हैं | यह स्वार्थ प्रायः पूर्वजन्म का ही होता है जिसके कारण इस जीवन में हमारा आपस में एक पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध बन जाता है | किसी एक को किसी दूसरे से कुछ न कुछ लेना अथवा देना होता है | हिसाब चूकता होते ही यह सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है | साथ ही इस जीवन में हम अपने स्वार्थ से नए सम्बन्ध भी बना लेते हैं | इस प्रकार के सम्बंधों का यह क्रम जन्म-जन्मान्तर तक बनता बिगड़ता रहता है |

2.आर्थिक बंधन (Economic)– यह बंधन हमें हमारे व्यवसाय से बांधता है | व्यावसायिक  आधार पर विभिन्न व्यक्तियों से हमारा सम्बन्ध स्थापित होता है | एक दूसरे से आर्थिक लाभ के कारण हम आपस में बन्ध जाते हैं | जब व्यावसायिक लेन देन समाप्त हो जाता है, यह सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है |

3.राजनैतिक बंधन (Political)- एक राजनीति दल का दूसरे दल से सम्बन्ध भी बंधन पैदा करता है | हमें ऐसा प्रतीत होता है कि पक्ष और विपक्ष के नेता एक दूसरे को समाप्त करने के लिए उद्यत बैठे हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है | वे आपस में एक दूसरे से इतने गहरे बंधे हुए हैं कि एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व तक खतरे में पड़ सकता है | ऐसी स्थिति में एक दूसरे को आनंद मिल ही नहीं सकता |  

4.साम्प्रदायिक/धार्मिक बंधन (Religious)– कोई हिन्दू है कोई मुसलमान, कोई सिख और कोई ईसाई | सब अपने अपने सम्प्रदाय के साथ बंधे हुए हैं | सबकी अपने अपने धर्म के प्रति इतनी अधिक आसक्ति है कि उन्हें अपना धर्म ही सर्वोपरि लगता है | वास्तव में देखा जाये तो ऐसा होना धार्मिक होना नहीं है | धार्मिक व्यक्ति वही होता है जो सब धर्मों का सम्मान करे क्योंकि संसार में विभिन्न धर्मों के पथ भले ही अलग अलग हो, पहुँचने का लक्ष्य एक ही है | एक धर्म के प्रति आसक्त होना भी एक बंधन है | आध्यात्मिक व्यक्ति ऐसे किसी भी बंधन से सदैव ही मुक्त रहता है |

5.व्यक्तिगत बंधन (Personal)– ऐसे बंधन के पीछे हमारे स्वयं के कारण होते हैं जैसे हमारी कामनाएं (Desires), महत्वाकांक्षाएं (Ambitions), भय (Fear), शारीरिक सुख (Pleasure) आदि |

       इस प्रकार हमने हमारे संसार के साथ बंधन के कुछ कारणों का संक्षेप में विवेचन किया है | जब हम इन बंधनों के पीछे छुपे कारण को समझ लेंगे, हमारा मुक्त होना सरल हो जायेगा | समस्या यहीं आकर उत्पन्न होती है कि हम बंधन में रहते हुए मुक्ति की कामना करते हैं जिसका कि होना असंभव है | बड़ा ही जटिल लग रहा है, इन बंधनों से छुटकारा पाना | प्रत्येक व्यक्ति ऊपर वर्णित बंधनों में पूर्ण अथवा आंशिक रूप से अवश्य ही बंधा हुआ है | कोई सामाजिक बंधनों में अधिक और राजनैतिक बंधन में कम है तो कोई इसके विपरीत परन्तु प्रायः सभी अपने व्यक्तिगत बंधनों में तो पूर्णरूपेण जकडे हुए अवश्य है | 

              किसी भी प्रकार की आसक्ति और उससे बने बंधन से छूटने के कई मार्ग हैं | कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है, विवाद का विषय हो सकता है क्योंकि मनुष्य का स्वाभाव ही ऐसा है कि वह स्वयं के द्वारा अपनाये गए मार्ग को ही श्रेष्ठ बतलाता है | श्रीमद्भागवत महापुराण में नारद मुनि कहते हैं-

     अलं व्रतैरलं तीर्थैरलं योगैरलं मखै:|

     अलं ज्ञानकथालापैर्भक्तिरेकैव मुक्तिदा || भागवत माहात्म्य-2/21 ||

अर्थात व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ, और ज्ञान चर्चा आदि बहुत से साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है; एक मात्र भक्ति ही मुक्ति देने वाली है |

             कलियुग में भक्ति-मार्ग को ही मुक्ति के लिए श्रेष्ठ मार्ग बतलाया गया है | क्यों है, भक्ति का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग ?  नारदजी तो इस श्लोक के माध्यम से यहाँ तक कह गए हैं कि जितने भी अन्य साधन हैं, जैसे तीर्थ, व्रत, योग, यज्ञ और ज्ञान इनकी भी कोई आवश्यकता नहीं है केवल एक भक्ति ही पर्याप्त है, संसार से मुक्ति पाने के लिए | जितने भी अन्य साधन हैं, वे गीता के अनुसार कर्म और ज्ञान मार्ग के अंतर्गत आ जाते हैं क्योंकि उनमें कुछ न कुछ करना अथवा जानना पड़ता है | भक्ति मार्ग में न तो कुछ करना आवश्यक है और न ही कुछ जानना बल्कि केवल मात्र मानना पड़ता है | मानना, परन्तु किसको मानना ?

           मानना अर्थात “सर्वशक्तिमान परमात्मा”,  केवल इस एक को ही मानना | मैं यह नहीं कह रहा कि कर्म और ज्ञान मार्ग से परमात्मा को जाना या माना नहीं जा सकता | अंततः उनमें भी ‘एक परमात्मा की ही सत्ता है’ यह मानना होता है परन्तु एक लम्बें, उबाऊ और थकाऊ प्रयास के पश्चात् | भक्ति में बिना किसी प्रयास के सीधे सीधे सरल ह्रदय से, बिना किसी लाग लपेट के परमात्मा को मान लिया जाता है | बिना माने भक्ति होना संभव ही नहीं है चाहे वह कर्म मार्ग हो अथवा ज्ञान मार्ग | इन दोनों मार्गों का संगम भी अंततः भक्ति-मार्ग पर आकर ही होता है | गंगा की तीनो धाराओं का उद्गम हिमालय से होता है | भगीरथी (गंगा), यमुना और सरस्वती तीनों अलग अलग स्रोतों से जन्म लेती है और समुद्र की तरफ चल पड़ती है | प्रयागराज में आकर यमुना और सरस्वती भी अंततः गंगा में आकर मिल जाती है | हम ऐसा समझ सकते हैं कि गंगा भक्ति मार्ग है, यमुना कर्म मार्ग है और सरस्वती ज्ञान मार्ग है | सभी का उद्देश्य सागर तक पहुँच कर उसमें समाहित होना है, जो कि उन सभी नदियों का मूल स्रोत भी है | कहने का अर्थ है कि जो भी मार्ग अपनाएं, सभी हमें एक ही स्थान पर पहुंचाते हैं और लक्ष्य तक पहुँचने से पहले सभी को भक्ति-मार्ग पर आना ही पड़ता है |

                कर्म और ज्ञान मार्ग की हम पहले भी बहुत चर्चा कर चुके हैं, इस लेख में चर्चा करेंगे, केवल भक्ति-मार्ग की |

      गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-

            ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना |

            अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ||

            अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते |

            तेSपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा: || गीता-13/24-25 ||

अर्थात उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा अपने ह्रदय में देखते हैं दूसरे अन्य ध्यान योग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्म योग के द्वारा देखते हैं अर्थात परमात्मा को प्राप्त करते हैं | परन्तु इसके विपरीत दूसरे लोग इस प्रकार न जानते हुए दूसरे तत्व को जानने वालों से सुनकर उपासना करते हुए इस संसार सागर से तर जाते हैं | 

           परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ है परमात्मा के साथ भक्त हो जाना अर्थात संसार के सभी बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा के साथ जुड़ जाना | कर्म और ज्ञान मार्ग से चलकर भक्ति-मार्ग पर आकर ही परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है | कर्म और ज्ञान मार्ग से संसार के बंधनों से मुक्त होना सरल नहीं है | सरल मार्ग पर चलकर मुक्त होना है तो भक्ति-मार्ग सर्वश्रेष्ठ मार्ग है | सरल इस कारण से है कि इस मार्ग में करने और जानने का श्रम नहीं करना पड़ता | श्रम उर्जा का व्यय करता है जबकि विश्राम की अवस्था में उर्जा संचित होती है | भक्ति मार्ग विश्राम का मार्ग है अर्थात करने, सोचने, समझने आदि सभी क्रियाओं से सदैव के लिए विश्राम |

       भक्ति क्या है ? हमारे द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया जो परमात्मा को प्राप्त करने और संसार से मुक्त होने के लिए की जाती है, वह भक्ति कहलाती है | परन्तु यह क्रिया वैसी क्रिया नहीं है जिसमें श्रम करने की आवश्यकता हो | व्यक्ति शिथिल होता है, उर्जा के व्यय से और सर्वाधिक उर्जा का व्यय होता है, सोचने, विचारने से अर्थात मस्तिष्क का अधिक उपयोग करने से | परमात्मा को समर्पण कर देने का नाम ही भक्ति है और जब समर्पण कर दिया जाता है, तो फिर सोचने, विचारने अथवा कुछ करने की भला आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ?

          मनुष्य इतने सरल मार्ग को अपनाने में भी हिचकिचाता है क्योंकि उसे अनन्त जन्मों से कुछ न कुछ करते रहने की आदत जो पड़ गयी है | बेचारा विभिन्न योनियों में भटकता हुआ आ रहा है जिस कारण से कर्म और भोग उसका स्वभाव बन चूका है | अब वह मनुष्य योनि पाकर भी कर्म करने से अपने आप को मुक्त नहीं कर पा रहा है | कर्म करना भी बुरा नहीं है परन्तु निस्वार्थ भाव से कर्म करना वह कभी का भूल चूका है | इस प्रकार उसके सामने दो ही रास्ते हैं – प्रथम तो वह निष्काम कर्म करते हुए भक्ति में लग जाये जिससे संसार से मुक्त हो सके और दूसरा रास्ता है, भक्ति का, परमात्मा को समर्पित होकर उसकी भक्ति करे, परिणाम स्वरुप शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जायेगा |

         संसार से मुक्त होना सरल है अथवा भक्ति करना | सांसारिक कर्मों से निवृत होने की इच्छा रखने वाले प्रायः कहते हैं कि हम तो मुक्त हैं ही | नहीं, मुक्ति इतनी सरल नहीं है अन्यथा अब तक सारे प्राणी मुक्त हो चुके होते | आप कितना ही कर्म और ज्ञान के मार्ग को साध लें, संसार से मुक्त होना है तो अंततः भक्ति-मार्ग पर आना ही होगा | केवल ज्ञान और कर्म मार्ग के द्वारा संसार से मुक्त होना असंभव नहीं है तो आसान भी नहीं है | ज्ञान की उच्चावस्था आपके कर्म सही कर सकती है, निषिद्ध कर्म करने से आपको रोक तो सकती है परन्तु संसार में आपकी आसक्ति को कम नहीं कर सकती | यह कार्य तो केवल और केवल भक्ति ही कर सकती है | इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले शारारिक सुख की क्षमता बड़े बड़े ज्ञानियों को भी एक बार ही नहीं, बार-बार कई बार पस्त कर चुकी है | संसार से मुक्त होने की बात करना तो कल्पना से बहुत परे है |

        प्रश्न यह उठता है कि क्या भक्ति से संसार से मुक्त होना सुगम है ? जी हाँ, सुगम है अगर भक्ति परमात्मा को पूर्ण रूप से समर्पित होकर की जाये | देवर्षि नारद भागवत माहात्म्य में “भक्ति” को कहते हैं –

    अंगीकृतं त्वया तद्वै प्रसन्नोSभूद्धरिस्तदा |

    मुक्तिं दासीं ददौ तुभ्यं ज्ञानवैराग्यकाविमौ || भा.मा.-2/7||

अर्थात हे भक्ति ! तुमसे प्रसन्न होकर श्री हरि ने तुम्हारी सेवा के लिए मुक्ति को तुम्हें दासी के रूप में दे दिया और ज्ञान-वैराग्य को पुत्रों के रूप में |

              मुक्ति, भक्ति की सेवा में होने से उसकी दासी है | भक्ति जब उच्चावस्था को प्राप्त होती है तब मुक्ति स्वतः ही हो जाती है क्योंकि जहाँ भक्ति है वहां उसकी सेवा में मुक्ति का रहना आवश्यक है | इसी प्रकार ज्ञान-वैराग्य भक्ति के पुत्र हैं | जहां भक्ति होगी वहां ज्ञान और वैराग्य का भी स्वतः ही आगमन हो जायेगा | इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान और वैराग्य के साथ अगर भक्ति न हो तो मुक्ति होना असंभव है लेकिन बिना ज्ञान और वैराग्य के भी केवल भक्ति से मुक्ति होना संभव है क्योंकि संसार में प्रत्येक मां (भक्ति) के लिए कुछ भी करना असंभव नहीं है | इसीलिए भागवत माहात्म्य में देवर्षि नारद कहते हैं- ‘भक्तिरेकैव मुक्तिदा’ अर्थात केवल एक भक्ति भी मनुष्य को मुक्त कर सकती है |

देवर्षि नारद कहते हैं-

         नृणां जन्मसह्स्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते |

         कलौ भक्तिः कलौ भक्तिर्भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः || भा.मा.-2/19||

             अर्थात मनुष्य का सहस्र जन्मों के पुण्य-प्रताप से भक्ति में अनुराग होता है | कलियुग में केवल भक्ति, हाँ केवल भक्ति ही सार है | भक्ति से तो साक्षात् श्री कृष्ण उपस्थित हो जाते हैं |

         भक्ति से भगवान् श्री कृष्ण साक्षात् उपस्थित हो सकते हैं इसका अर्थ हुआ कि भगवान् भक्ति से भक्त के वश में हो जाते हैं | आवश्यकता है, भक्ति को परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होकर किया जाये | अनन्य भक्ति का अर्थ भी यही है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई नहीं है | हम भक्ति के नाम पर नाना प्रकार की क्रियाएं तो बहुत करते है परन्तु जब संसार से मुक्ति की बात आती है तो व्यथित हो जाते हैं और भक्ति पर ही दोषारोपण करने लग जाते हैं | अगर मन लगाकर भक्ति न की जाये और केवल क्रियाओं को ही महत्त्व देते रहे तो ऐसी तथाकथित भक्ति भी सारहीन है |

             एक अकेला भक्ति मार्ग मुक्त कर सकता है | भक्ति में न तो ज्ञान है और न ही कर्म, भक्ति में तो केवल समर्पण है | समर्पण, परमात्मा के प्रति समर्पण, जिसके बाद न तो कुछ जानना शेष रहता है और न ही करना | समर्पण ही भक्ति का मूल मन्त्र है | समर्पण के बाद न तो आपको संसार की परवाह रहती है और न ही परिवार की | समस्त भय, आसक्तियां और कामनाएं आकर समर्पण में समाप्त हो जाती है | भगवान् श्री कृष्ण ‘मुक्त कौन है’, इसको स्पष्ट करते हुए गीता में कहते हैं –“विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः”(गीता-5/28) अर्थात जो व्यक्ति भय, इच्छा और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है | भय, इच्छाएं और क्रोध, इन तीनों का विलीन होना परमात्मा के प्रति पूर्णरूपेण समर्पण से ही संभव है | भय, इच्छा और क्रोध, ये तीन ही मुक्ति में बाधक हैं |

            इच्छा अर्थात कामनाओं को ही क्रोध का जनक कहा गया है | एक कामना पूरी होती है तो दूसरी कामना जन्म ले लेती है और अगर दुर्भाग्यवश कोई कामना पूरी नहीं हो पाती तो क्रोध उत्पन्न होता है | क्रोध किस पर आता है ? क्रोध आता है उस बाधा पर अथवा उस बाधक पर जिसके कारण कामना की पूर्ति न हो सकी | जब आप क्रोध के वशीभूत होकर किसी से द्वेष करने लगते हैं तो आपके भीतर भय पनपने लगता है | भय, उस बाधा अथवा बाधक से, जो आपकी कामना पूर्ति नहीं होने दे रहा | इस प्रकार कामना ही मुक्ति न होने देने में महत्वपूर्ण कारण है | इसीलिए गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है –“जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्” (गीता-3/43) अर्थात अर्जुन | तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |

        भगवान् ने यह बात कर्म और ज्ञान के सन्दर्भ में कही थी | लेकिन समझाने के बाद भी नहीं समझने पर भगवान् अर्जुन को भक्त होने का कह देते है, “मन्मना भव मद्भक्तो” | परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाने से, उनके शरणागत हो जाने से मनुष्य को अपनी कामनाओं की पूर्ति होने अथवा पूर्ति न होने की किसी प्रकार का भय व चिंता आदि नहीं रहते और वह स्वयं को मुक्त होना समझने लगता है | देखा जाये तो भक्ति ही एक ऐसा मार्ग है जिसमें व्यक्ति की समस्त उर्जा एक स्थान पर एकत्रित हो जाती है जिससे वह चिंतामुक्त होकर शांति को उपलब्ध हो जाता है |

           कई लोग इस उर्जा को एक स्थान पर एकत्रित करने के लिए कुण्डलिनी चक्र को जाग्रत करने का अभ्यास करते हैं | कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक उर्जा को ले जाना होता है | हमारे शरीर में इस प्रकार के सात उर्जा चक्र बतलाये गए हैं | कुण्डलिनी जागरण में उर्जा के प्रवाह को नीचे मूलाधार चक्र से ऊपर सहस्रार चक्र की ओर प्रवाहित करने का प्रयास किया जाता है | अंततः जब उर्जा पूर्ण रूप से सहस्रार चक्र तक पहुँच जाती है, तभी व्यक्ति शांति का अनुभव करते हुए मुक्त होता है |

              बड़ा ही कठिन कार्य है यह तो | मैं कहता हूँ कि व्यर्थ में इतने कठिन प्रयास की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है, जब एक सुगम मार्ग से परमात्मा को समर्पित होकर उनका स्मरण करते हुए उसकी भक्ति से भी वही उपलब्धि प्राप्त की जा सकती हो |

            कुण्डलिनी जागरण की तरह ही महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन की बात पर भी कुछ चर्चा कर लेना आवश्यक समझता हूँ | योग का अर्थ संसार से मुक्त होकर परमात्मा के साथ जुड़ना है और भक्ति का अर्थ भी संसार से मुक्त होकर परमात्मा के साथ जुड़ना है | महर्षि पतंजलि ने मुक्त होने के लिए योग के आठ अंग बताये हैं, जिस कारण से इसको अष्टांग योग भी कहा जाता है | योग-दर्शन में चार पाद है, जिनमें समाधि पाद प्रथम और महत्वपूर्ण पाद है | अन्य तीन पाद हैं-साधन-पाद, विभूति-पाद और कैवल्य-पाद | प्रथम पाद, समाधिपाद का दूसरा सूत्र कहता है,”योगश्चित्तवृतिनिरोध” अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है | मनुष्य का चित्त उसकी वृत्तियों के कारण स्थिर नहीं रह पाता | जब चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया जाता तब मन का भटकना रूक जाता है | मन के भटकने से रूक जाने पर ही व्यक्ति समाधि अवस्था तक पहुँच सकता है | समाधि अवस्था ही मुक्ति की अवस्था कहलाती है |

      महर्षि पतंजलि कहते हैं कि “अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः” (समाधिपाद-सूत्र-12) अर्थात चित्त वृतियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से होता है | भगवान् श्री कृष्ण गीता में भी अर्जुन को चंचल मन को नियंत्रण में रखने का यही उपाय बतलाते हुए कहते हैं-

           असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |

           अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || गीता-6/35 ||

अर्थात हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होनेवाला है, परन्तु हे कौन्तेय ! इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |

        कहने का अर्थ है कि मन की वृत्तियों का निरोध महत्वपूर्ण है, मुक्त होने के लिए | मन को अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है | महर्षि पतंजलि इसके बाद सम्प्रज्ञात समाधि से निर्बीज समाधि तक पहुँचने के लिए उपाय बतलाते हैं | निर्बीज समाधि मुक्त होने की अवस्था का नाम है | इतने सारे उपाय और साधना करना एक साधारण व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है | ऐसे साधन और उपाय करते करते वह विचलित और भ्रमित भी हो सकता है | विचलन की स्थिति में फिर एक और मानव जन्म और फिर उससे आगे की नई यात्रा का प्रारम्भ | न जाने कब और किस मनुष्य जीवन में जाकर मुक्ति की अवस्था को उपलब्ध हुआ जा सकेगा ?

          अंततः महर्षि पतंजलि ने भी योग की इस कठिन साध्य उपाय को समझा और उन्होंने एक मार्ग और बताया, वह मार्ग सुगम और सरल है | इस मार्ग का नाम है, भक्ति | इस मार्ग के बारे में वे समाधिपाद में कहते हैं –

        “ईश्वर प्रणिधानाद्वा“ (सूत्र-23)

   अर्थात इन साधनों के सिवा एक साधन निर्बीज समाधि का और है जिससे सिद्धि शीघ्र ही हो सकती है, वह है – ईश्वर प्रणिधान (Dedication to God) अर्थात ईश्वर को समर्पण यानि ईश्वर-भक्ति |

           इस प्रकार महर्षि पतंजलि ने भी स्वीकार किया है कि एक अकेली भक्ति भी मनुष्य को मुक्त करने के लिए पर्याप्त है | जब सरल और सुगम मार्ग उपलब्ध हो तो फिर दूसरे कठिन साधनों से प्रयोग क्यों किया जाये ? हाँ, जो कुछ न कुछ करते रहना पसंद करते हैं अथवा करना आवश्यक समझते हैं, उनके लिए ये योग सूत्र अवश्य उपयोगी हैं |  मनुष्य जीवन में मुक्त होने के लिए उसके समक्ष दो प्रकार की साधनाएँ उपलब्ध हैं | प्रथम, स्व-शक्ति साधना और दूसरी पर-शक्ति साधना |

            स्व-शक्ति साधना में मनुष्य अपनी ही शक्ति पर विश्वास रख अपनी चेतना को जाग्रत कर आत्म-बोध को उपलब्ध होता है | स्व-शक्ति साधना में सांख्य और योग, इन दो का प्रमुख स्थान है | ‘योग’ में क्रिया द्वारा “स्व” का ज्ञान होता है जबकि ‘सांख्य’ इस प्रकार की प्रत्येक क्रिया को बंधन मानता है | इस प्रकार योग और सांख्य, दोनों एक दूसरे से विपरीत बात करते हैं | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि योग क्रिया मार्ग है और सांख्य अक्रिया मार्ग | पतंजलि का योग क्रिया मार्ग है | योगी के लिए आत्मा से भिन्न कोई ईश्वर नहीं है, जिसे वह चित्त वृति निरोध द्वारा जान सकता है | योग के अनुसार चेतना के ज्ञान से प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर है तथा प्रकृति के संयोग से वह जीव कहलाने लगता है | सांख्य भी प्रकृति और पुरुष को मानता है | इसके अनुसार जीव ही अपने भीतर उपस्थित चेतना को प्राप्त कर ईश्वर हो जाता है | 

           महर्षि पतंजलि ने स्वयं स्वीकार किया है कि सम्प्रज्ञात समाधि तक तो क्रियाओं के माध्यम से पहुंचा जा सकता है परन्तु आगे असम्प्रज्ञात समाधि का मार्ग अक्रिया का मार्ग है | यहाँ आकर योग की समस्त क्रियाओं की समाप्ति हो जाती है और सांख्य की आवश्यकता पड़ती है, जिसके लिए किसी योग्य गुरु से मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है | महर्षि मानते हैं कि निर्बीज समाधि तक पहुँचने के लिए “ईश्वर प्रणिधान” महत्वपूर्ण है | इसी बात को गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया है | वे कहते हैं कि ज्ञान और कर्म जैसे मार्ग पर चलते हुए स्वयं को परमात्मा के शरणागत कर देना ही सबसे महत्वपूर्ण है |

            जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है कि दो प्रकार की साधनाएँ हैं- एक तो स्व-शक्ति साधना और दूसरी पर-शक्ति साधना | स्व-शक्ति साधना के अंतर्गत योग और सांख्य है | इन दोनों को अपनाने के बाद भी स्व-शक्ति साधना से पर-शक्ति साधना पर आना ही पड़ता है | पर-शक्ति साधना का अर्थ है परमात्मा को पूर्णरूपेण समर्पित हो जाना | पर-शक्ति साधना में भक्ति मुख्य है | इसमें ईश्वर को केंद्र में रखा गया है | भक्त कहता है कि ईश्वर हमारे स्वामी हैं; हम तो उसके सेवक मात्र हैं | मनुष्य कभी भी स्वामी का स्थान नहीं ले सकता अर्थात जीव कभी ईश्वर नहीं हो सकता | यह द्वैत है, जहां पर दो सदैव बने रहेंगे, भक्त और भगवान् | साथ ही यह सत्य है कि भक्त कभी भी भगवान् होना नहीं चाहता, उसको सदैव भगवान् की सेवा और दर्शन में ही आनंद मिलता है | वह मोक्ष तक की कामना नहीं करता परन्तु फिर भी वह मुक्ति को उपलब्ध हो जाता है | भगवान् से सम्बन्ध बन जाने के बाद वह संसार के बंधन से पूर्णतया मुक्त हो जाता है | भक्त का भी इस संसार में पुनरागमन नहीं होता अर्थात वह अवागमन से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है | इसीलिए कहा जाता है कि केवल एक भक्ति भी मनुष्य को मुक्ति दिला सकती है |

       अभी तक हमने ज्ञान, कर्म मार्ग से भक्ति मार्ग पर आने तथा कुंडलिनी जागरण से और फिर महर्षि पतंजलि के योग सूत्र से होने वाली मुक्ति तथा परमात्मा की भक्ति से होने वाली मुक्ति का तुलनात्मक विवेचन किया है | इतने विवेचन का सारांश यह है कि मुक्ति के लिए परमात्मा की भक्ति करना ही सर्वोत्तम और सुगम मार्ग है | महर्षियों और गुरुओं ने परमात्मा को मुख्य रूप से दो प्रकार से व्यक्त किया है – प्रथम सगुण साकार और दूसरा निर्गुण निराकार | कई मनीषि सगुण के अंतर्गत दो भी मानते हैं हैं- सगुण साकार और सगुण निराकार, जबकि निर्गुण में केवल एक ही हैं- निर्गुण निराकार | हमारे समक्ष मुख्य प्रश्न है कि मुक्ति के लिए किस प्रकार के परमात्मा की भक्ति करना अधिक सुगम होगा ?

           साकार और निराकार, दोनों में से किसी भी एक प्रकार के परमात्मा का होना स्वीकार कर लिया जाये; केंद्र में सदैव परमात्मा की प्राप्ति ही है | परमात्मा को उपलब्ध होना ही मुक्ति कहलाता है | यह सार्वभौमिक सत्य है कि परमात्मा निराकार हैं | निराकार की भक्ति करना थोडा कठिन है जबकि साकार की उपासना करना सरल | ऐसा क्यों है ? आइये ! जरा इस मुख्य विषय पर भी थोडा चिन्तन कर लेते हैं |

             मेरे एक मित्र हैं, शिक्षित हैं, पैशे से वकील हैं, बहुत ही सज्जन व्यक्ति हैं परन्तु उनमें तम्बाकू सेवन की लत है | इसी एक व्यसन के कारण प्रायः मेरी उनसे नोंक-झोंक होती रहती थी | थी, इसलिए क्योंकि उनको मैंने अब कहना ही छोड़ दिया है क्योंकि मैं जानता हूँ कि वे इस जीवन में तम्बाकू सेवन छोड़ नहीं सकते | मेरे कहने से बीड़ी, सिगरेट पीना छोड़ चुके थे परन्तु फिर उसके बदले तम्बाकू चबाना शुरू कर दिया | यह मनुष्य की विडम्बना है कि उसके लिए किसी को त्यागने के लिए पहले कुछ न कुछ पकड़ना आवश्यक है | दूसरे को पकड़ने से पूर्व वह पहले वाले को छोड़ नहीं सकता | सगुण साकार की उपासना कुछ इसी प्रकार एक को त्यागने और दूसरे को पकड़ने की सी है | स्व-निर्मित संसार को छोड़ने के लिए उसे कुछ कुछ वैसा ही पकड़ने के लिए चाहिए और पकड़ने के लिए वैसा ही जो कुछ है, वह है परमात्मा का सगुण सकार स्वरुप |

                   हमें संसार से मुक्त होना है इसलिए हमें किसी को पकड़ना होगा जिससे पूर्व में पकडे हुए को छोड़ सकें | मनुष्य का शरीर प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए इसमें प्राकृतिक गुण भी हैं और इसका एक निश्चित आकार भी है | इसमें आसक्ति छोड़ने के लिए हमें कुछ ऐसा ही आकार और गुण वाला व्यक्तित्व चाहिए जो हमारे लिए एक आदर्श हो | वैसे आदर्श केवल दो ही अवस्था में हो सकते हैं- जीवित अथवा ब्रह्मलीन | जीवित आदर्श की खोज में हमें जो व्यक्तित्व मिलता है वह गुरु कहलाता है | इसलिए हम गुरु की पूजा करते हैं | जो इस संसार में आये थे और ईश्वरतुल्य कार्य कर लौट चुके हैं जैसे राम, कृष्ण, बुद्ध आदि, उनको हम आदर्श मानकर, उनको परमात्मा मानते हुए उनकी उपासना करते हैं | ऐसी भक्ति को सगुण साकार की भक्ति कहा जाता है | एक तीसरा और साधन है, पकड़ने का – धर्म ग्रन्थ अर्थात शास्त्र | हम शास्त्रों का अध्ययन कर उनके आधार पर ज्ञान मार्ग पर चलते हुए भक्ति करते हैं | यहाँ पकड़ने को कोई व्यक्तित्व न होकर शास्त्र होते हैं |

            सगुण साकार भक्ति सर्वाधिक स्वीकार्य भक्ति है क्योंकि इस भक्ति में व्यक्ति का ध्यान संसार से हट कर परमात्मा की ओर हो जाता है, जो कि मुक्ति के लिए वांछनीय है | मूर्तिपूजा का प्रारम्भ होना सगुण साकार भक्ति की महत्वता को पुष्ट करता है | मनुष्य जीवित महापुरुष की सदैव ही आलोचना करता आया है परन्तु उसके चले जाने के बाद उसके गुण उसे प्रभावित करने लगते हैं और वह उसकी मूर्ति बनाकर पूजा करने लग जाता है |

        सगुण साकार की भक्ति में एक ही कमी है | इस प्रकार की भक्ति में एक ही स्थिति में पहुंचकर वहीँ पर अटक के रह जाने की प्रबल सम्भावना है | संसार को छोड़कर मूर्तिपूजा, एक व्यक्तित्व की उपासना और कर्मकांड (Rituals) अथवा धर्मग्रंथों पर आकर अटक जाते हैं, जबकि आवश्यकता इससे आगे बढ़ने की है क्योंकि लक्ष्य तो निराकार तक पहुँचना है | साकार पर अटकने का कारण है कि वह इस स्थिति को तब तक छोड़ना नहीं चाहता जब तक कि उसको कुछ नया पकड़ने को नहीं मिले | इसीलिए सगुण साकार भक्ति में सदैव गुरु की आवश्यकता रहती है | गुरु भक्त शिष्य को कभी भी एक स्थान पर ही अटके नहीं रहने देगा | वह उसे आगे का मार्ग दिखलाता रहेगा जिससे वह अपने उद्देश्य तक पहुँच सके | सगुण साकार पर अटकना हमारे जीवन का उद्देश्य नहीं है | जीवन का उद्देश्य है सगुण साकार के माध्यम से उस अव्यक्त निर्गुण निराकार तक पहुंचना, जहाँ से यह सृष्टि साकार रूप में प्रकट होती है |

         निर्गुण निराकार की भक्ति का मार्ग बड़ा कठिन है क्योंकि इस भक्ति में पकड़ने को कुछ भी नहीं रहता है | इस भक्ति में तो केवल छोड़ना ही छोड़ना है और छोड़ना भी उसको, जिसमें हमारे प्राण बसते हैं, जिसमें हमारी पूर्ण आसक्ति है | संसार और देह की आसक्ति सरलता से छोड़ी नहीं जा सकती | यही कारण है की सगुण साकार भक्ति को निर्गुण निराकार की भक्ति पर संतों ने वरीयता दी है | निर्गुण निराकार भक्ति के लिए  कुण्डलिनी जागरण और योग साधना जैसे अनेकों साधन है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को निराकार भक्ति के बारे में कहते हैं-

            क्लेशोSधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् |

            अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते || गीता-12/5 ||

                   अर्थात उन सच्चिदानंद निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है, क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त विषयक गति दुःख पूर्वक प्राप्त की जाती है |

              निर्गुण निराकार भक्ति में साधक की देह के प्रति आसक्ति छूट नहीं पाती है, जिसके कारण उसके मार्ग से भटकने का भय रहता है | जिस प्रकार सगुण साकार भक्ति में एक स्थिति में ही अटकने का भय है उसी प्रकार निर्गुण निराकार की भक्ति में मार्ग से भटकने का भय बना रहता है | हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि निर्गुण निराकार की भक्ति का मार्ग मरुस्थलीय मार्ग है, रूखा-सूखा मार्ग है जबकि सगुण साकार की भक्ति का मार्ग ऐसा मार्ग है जहाँ चारों ओर हरियाली ही हरियाली है, खिलते हुए पुष्प है और कर्णप्रिय संगीत है | आपको निश्चित करना है कि आप नीरस मार्ग पर चलना चाहते हैं अथवा सरस मार्ग पर |

               इतने विवेचन के बाद स्पष्ट हो जाता है कि सगुण साकार की भक्ति ही श्रेष्ठ है | हालाँकि दोनों प्रकार की भक्ति का उद्देश्य एक ही है, इस संसार के आवागमन से मुक्त होना | मनुष्य की मानसिकता सरल सुगम मार्ग को अपनाना पसंद करने की है | अब प्रश्न उठता है कि सगुण साकार की भक्ति में एक स्थिति में आकर अटकने से कैसे बचा जा सकता है ?

          साकार सगुण का अर्थ क्या है ? जिसका एक निश्चित आकार हो तथा साथ ही उसमें प्रकृति प्रदत्त गुण भी हों, वह साकार सगुण कहलाता है | प्रत्येक पदार्थ का एक निश्चित आकार होता है और उसमें प्रकृति के तीनों गुण भी उपस्थित रहते हैं | शरीर एक पदार्थ है क्योंकि इसका आकार भी है और इसमें गुण भी हैं | साकार सगुण परमात्मा को मानने का अर्थ है कि ऐसे परमात्मा का एक निश्चित आकार है और उसमें प्रकृति के गुण भी हैं | इसी आधार पर भगवान् की कल्पना करते हुए विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का निर्माण हुआ और उनकी पूजा प्रारम्भ हुई | जैसे चतुर्भुज रूप धरे विष्णु, सिर पर गंगा, गले में सर्प डाले शिव, चार मुख वाले ब्रह्मा और राक्षस का संहार करते जीभ निकाले हुए काली आदि |

            चूँकि मनुष्य भी साकार सगुण है परन्तु भगवान के व्यक्तित्व की तुलना में वह जरा कमजोर व्यक्तित्व वाला है | इसलिए भगवान् तो स्वामी हुए और मनुष्य उनका सेवक अर्थात भक्त | साकार सगुण भगवान् की भक्ति का उद्देश्य है मनुष्य को उस भगवान् के व्यक्तित्व की ऊँचाइयों तक अपने व्यक्तित्व को ले जाना है | लेकिन होता है इसके ठीक विपरीत | वह सोचता है कि भक्त कभी भगवान् नहीं हो सकता | ऐसा सोचते हुए वह केवल उसकी पूजा अर्चना की दैनिक क्रियाओं (Rituals) में ही अटक कर रह जाता है | वह भगवान् की पूजा इस कामना के साथ प्रारम्भ करता है कि वह भी उन जैसा विकसित होकर उनके पास तक पहुँच सके परन्तु उसके लिए सांसारिक मोह-माया से मुक्त होना मुश्किल हो जाता है | सांसारिक मोह माया से मुक्त होने के लिए उसको सर्वप्रथम अपने गुणों में परिवर्तन करना पड़ता है और सत्व गुण की उच्चावस्था प्राप्त करनी होती है | गुणों की उच्च अवस्था को प्राप्त कर ही तो मनुष्य रूप लेकर श्री राम और श्री कृष्ण भगवान् कहला सके |

               सगुण साकार भक्ति में अटकने का भय इसी कारण से है | जिस किसी भक्त ने अपने चरित्र को भगवान् के स्तर के पास तक ले जाने का प्रयास किया है उसे मुक्ति अवश्य मिली है | वे मूर्तिपूजा करते-करते अपने गुणों में परिवर्तन कर मुक्त हो गए | मीरां बाई, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज आदि अनेकों भक्तों के उदाहरण हमारे समक्ष है जिन्होंने सगुण साकार भक्ति के माध्यम से परमात्मा को पाया है | सगुण साकार भक्ति से कितने प्रकार की मुक्ति होती है, आइये ! इस पर भी जरा दृष्टि डाल लेते हैं |

                  मुक्ति का अर्थ है स्व-निर्मित संसार से मुक्ति | संसार से बंधन कर्म के कारण होता है | मुक्ति कर्म के बंधन से मोक्ष पाने की स्थिति है | यह स्थिति जीवित रहते हुए ही प्राप्त हो सकती है | सगुण साकार भगवान् की भक्ति से चार प्रकार की मुक्ति होती है- सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य और सायुज्य |

सालोक्य मुक्ति- जीव भगवान् के साथ उनके ही लोक में वास करता है | भक्ति की उच्चावस्था में सारा विश्व ही भगवद्मय दृष्टिगत होने लगता है | ऐसी स्थिति को प्राप्त हुआ व्यक्ति सालोक्य मुक्ति को पा चूका है, कहा जा सकता है | भगवान् का निवास बैकुण्ठ को बताया गया है, बैकुण्ठ अर्थात कुंठा रहित होना | जो भक्त कुंठाओं से मुक्ति पा चूका है वह भगवान् की सालोक्य मुक्ति का अधिकारी हो जाता है | ऐसा भक्त बैकुण्ठ में निवास करता है जो कि भगवान् का धाम है |

सामीप्य- जीव भगवान् के सान्निध्य में रहते हुए अपनी कामनाओं का परिणाम भोगता है | भक्त की कामना होती है कि भगवान् की समीपता मिले | वह अपनी इस कामना की पूर्ति के लिए भक्ति करता है और सामीप्य मुक्ति को प्राप्त करता है |

सारूप्य – जीव भगवान् के साम्य रूप (जैसे चतुर्भूज रूप, धनुर्धारी राम-रूप, चक्रधारी कृष्ण रूप आदि ) लिए इच्छाएं अनुभूत करता है | सगुण साकार की भक्ति करते करते भक्त भी उस भगवान् के आकर और रूप को उपलब्ध हो जाता है | ऐसे भक्त की यह सारूप्य मुक्ति कहलाती है |

सायुज्य- भक्त भगवान् में लीन होकर आनंद की अनुभूति करता है | यह प्रत्येक प्रकार की भक्ति की पराकाष्ठा है | भक्त भगवान् में मिल जाना चाहता है | भगवान् से वह क्षण भर के लिए भी अलग नहीं रहना चाहता | अंततः वह भगवान् के साकार रूप में लीन हो जाता है | मीरा बाई द्वारकाधीश की मूर्ति में इस प्रकार की मुक्ति पाकर लीन हो गई थी, जहाँ उनका न तो उनका शरीर रहा और न ही गुण |

                ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि सगुण साकार में निर्गुण निराकार आ जाता है परन्तु निर्गुण निराकार में सगुण साकार नहीं आ सकता | अतः निर्गुण निराकार से सगुण साकार की भक्ति श्रेष्ठ है |

               पूर्व में मैंने भगवान् की भक्ति के तीन साधन बताये थे- सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार | फिर सगुण साकार की भक्ति को सबसे श्रेष्ठ बताया था | तत्पश्चात हमने सगुण साकार भक्ति में अटकने का कारण बताया था और फिर मुक्ति के प्रकार | अब मुख्य बिंदु पर आते हैं कि सगुण साकार भक्ति में अटकें नहीं, तो आगे प्रगति किस प्रकार करनी होगी अथवा करनी चाहिए | जो भगवान् की भक्ति के तीन साधन बताएं हैं वे वातव में तीन सोपान है, जिनमें एक से दूसरे पर चढ़कर सबसे ऊपर के सोपान अर्थात निर्गुण निराकार तक पहुँचना है | भगवान् निर्गुण निराकार है, यह सार्वभौमिक सत्य है और फिर चाहे किसी भी साधन से पहुंचें, जीवन में उन्हीं तक पहुँचने का एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए |

            जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, साकार सगुण में आकार भी है और प्रकृति प्रदत्त गुण भी | सगुण निराकार आकार नहीं है परन्तु प्रकृति प्रदत्त गुण है | निर्गुण निराकार में भगवान् आकार और प्रकृति गुण, दोनों से ही परे हैं | जब वह गुणातीत अवस्था को उपलब्ध हो जायेगा तब उसके सामने भगवान् का स्वरुप सगुण निराकार का होगा |

          सगुण निराकार की भक्ति करते हुए उसे अपने आकार अर्थात शरीर के प्रति आसक्ति का भी त्याग करना होगा | जब शरीर की अनुभूति भी नहीं रहेगी तब उस स्थिति में वह राजा जनक की अवस्था को अर्थात विदेह की स्थिति को प्राप्त कर लेगा | इस स्थिति में देह है अथवा नहीं, इसका अनुभव भी समाप्त हो जाता है | यह अवस्था सगुण निराकार की अवस्था है | भक्त को साकार सगुण भगवान् की भक्ति करते हुए पहले सगुण निराकार की अवस्था को प्राप्त करना होगा और फिर अपने प्राकृतिक गुणों में परिवर्तन लाते हुए सत्व गुण की उच्चावस्था को प्राप्त करना होगा | गुण ही हमारे कर्मों का आधार है | जब हम गुणों में परिवर्तन लाते हैं तो हमारे कर्मों में भी सुधार आता है | अंततः उसे सभी गुणों से परे निकल जाना होगा और गुणातीत अवस्था को उपलब्ध होना होगा | गुणातीत अवस्था में भक्त प्रत्येक कर्म बंधन और कामनाओं से मुक्त हो जायेगा | हमारी यह अवस्था निर्गुण निराकार की होगी, जो कि इस मानव जीवन का मूल उद्देश्य है |

          जो भक्त सीधे उच्चतम सोपान अर्थात निर्गुण निराकार की भक्ति करते हैं, उनकी देहासक्ति समाप्त नहीं होती क्योंकि देहासक्ति के त्याग के लिए सर्वप्रथम प्रकृति प्रदत्त गुणों का अतिक्रमण करना आवश्यक है | आकार (शरीर) और गुण, दोनों एक दूसरे से सम्बंधित है क्योंकि दोनों ही प्रकृति के अंतर्गत आते हैं | जब तक शरीर की आसक्ति और गुणों का अतिक्रमण नहीं होगा तब तक निर्गुण निराकार की अवस्था तक नहीं पहुंचा जा सकता | इन दोनों (देहासक्ति और गुणों) के त्याग के लिए परमात्मा के साकार सगुण रूप का चिंतन करते हुए उन तक पहुँचने का प्रयास ही सर्वोत्तम साधन है | साकार सगुण भगवान् के अनुरूप स्वयं को बनाने का प्रयास ही भक्त को गुणातीत अवस्था तक ले जाता है | निर्गुण निराकार भगवान् की भक्ति में पकड़ने के लिए न कोई आकार (शरीर) है और न ही आनंद लेने के लिए प्रकृति के गुण, जबकि भक्त में ये दोनों ही उपस्थित हैं | इससे एक द्वंद्वात्मक स्थिति उत्पन्न होती है जो भक्त को देह और गुणों से मुक्त नहीं होने देती और अगर भक्त इनसे मुक्त हो भी जाता है तो उसे कठिन प्रयास करना पड़ता है जो कि नीरस प्रतीत होता है | इसीलिए निर्गुण निराकार की भक्ति से सगुण साकार की भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है | 

             सगुण साकार से सगुण निराकार और फिर उच्चतम अवस्था, निर्गुण निराकार को प्राप्त कर लेने के बाद भक्त की साधना सांसारिक अर्थात भौतिक देह छूटना शेष रहता है | यह देह तब छूटेगी जब उसके सभी प्रारब्ध नष्ट हो जायेंगे | तब तक भक्त सगुण साकार भक्ति में ही अनवरत लगा रहेगा | यहाँ आकर फिर एक प्रश्न खड़ा होता है कि जिस किसी ने सगुण साकार की भक्ति से निर्गुण निराकार की अवस्था को प्राप्त कर लिया है, प्रायः वे पुनः सगुण साकार की भक्ति करते ही क्यों दिखलाई पड़ते हैं ? उनको तो केवल निराकार निर्गुण अवस्था का अनुभव करना चाहिए | चलो, इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर भी खोजते हैं |

        निर्गुण निराकार की अवस्था सायुज्य मुक्ति की अवस्था है | एक बार मुक्ति को उपलब्ध होने के बाद भक्त अपने भौतिक शरीर छूटने तक सगुण साकार की भक्ति में ही तन्मय रहता है | सगुण साकार की भक्ति में ही क्यों ? इसके दो कारण है | प्रथम कारण है कि जिस मार्ग पर चलकर भक्त मुक्त हुआ है, उस मार्ग को वह अपने पीछे इसी उद्देश्य को लेकर चलने वाले को बतलाना चाहता है | भक्त कभी स्वार्थी नहीं होता | उसका उद्देश्य एक ही होता है कि जिस साधन से मैं मुक्त हुआ हूँ उसी साधन को अपनाकर सभी मुक्त हों | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे कि मैं भी चाहता हूँ कि सभी लोग मुक्त हो जाएँ | कहने का अर्थ है कि जिस किसी ने सगुण साकार की भक्ति करके उस निराकार निर्गुण को प्राप्त किया है वह पुनः उसी भक्ति पर इसलिए आता है जिससे सभी भक्तों को एक प्रेरणा मिले |

          सगुण साकार भक्ति पर भक्त के पुनः लौटने का दूसरा कारण है भक्ति में आनंद की अनुभूति होना, परमात्मा से गहरा प्रेम होना, अनन्त रस का मिलना | निर्गुण निराकार में सगुण साकार की भक्ति जैसा आनंद और रस कहाँ ? निर्गुण निराकार की भक्ति में रस तो मिलता है परन्तु वह अखण्ड होते हुए भी अनन्त रस नहीं होता | सगुण साकार की भक्ति में भक्त के सामने जब भगवान् होते हैं तब जो आनंद उसे मिलता है वह अतुलनीय होता है | यही कारण है कि भक्त मुक्ति पाकर भी निर्गुण निराकार से सगुण साकार की ओर लौटकर उसी की भक्ति में अनवरत लगा रहता है |

        इतने लम्बे विवेचन के बाद भक्ति के इस विषय को यहीं समाप्त कर देना उचित होगा क्योंकि इस भक्ति मार्ग पर चलकर जिस आनंद और रस की अनुभूति होती है उसको व्यक्त करने के लिए सारी व्याकरण और शब्द अपर्याप्त ही रहेंगे | यह भक्ति केवल अनुभव करने के लिए है, पढ़ने, समझने से इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा अवश्य मिल सकती है परन्तु मुक्ति को अनुभव करने के लिए सर्वप्रथम भक्त होना आवश्यक है | भक्ति के सामने अन्य सभी मार्ग बौने हैं, एक अकेली भक्ति ही भक्त को जीवन मुक्त कर सकती है | इसीलिए नारद मुनि ने कहा है – “भक्तिरेकैव मुक्तिदा” |

सार-संक्षेप -

               हम अभी बंधे हुए हैं संसार के साथ | इस संसार के बंधन से मुक्त होकर हमें जुड़ना है परमात्मा के साथ | मुक्त होकर भक्त होना अथवा भक्त होकर मुक्त होना, इसके लिए किए जाने वाले साधन का नाम है “भक्ति” |  भक्ति का अर्थ है, योग, जुड़ना, भक्त होना | किसके साथ ? परमात्मा के साथ जो कि हम स्वयं ही है | हमारे से तनिक भी अलग परमात्मा नहीं है, बस हम ही इस बात की विस्मृति कर चुके हैं, अपने को केवल भौतिक शरीर मानते हुए | हम संसार में रहते हुए स्वयं के स्वरुप को भूल चुके हैं और स्वभाव और संस्कार के अनुसार मिले इस शरीर को ही स्वयं होना मान रहे हैं | परमात्मा ही हमारी शक्ति है, जिसे भूलवश हम अपने शरीर की शक्ति मानने लगे हैं | हमें वापिस वैसे ही उसी शक्ति को प्राप्त करना है जैसी विस्मृत हो चुकी हनुमानजी की शक्ति को जामवंतजी ने याद दिलाई थी | भक्ति, हमें संसार से मुक्त कर वास्तविक शक्ति से परिचित कराने का सुगम मार्ग है |

                 वैसे योग साधना, कुण्डलिनी जागरण, ज्ञान और कर्मों से भी हम स्वयं को जान सकते हैं परन्तु इन सभी में विशेष प्रयास की आवश्यकता रहती है | वैसे इन सभी मार्गों में  “परमात्मा है”, यह मानते हुए उनको जानने का प्रयास किया जाता है परन्तु भक्ति में उस परम को श्रद्धा और विश्वास के साथ मानकर उनकी भक्ति की जाती है | सीधे भक्ति से भी परमात्मा को जाना जा सकता है | इसीलिए भक्ति के बारे में कहा जाता है कि केवल अकेली भक्ति ही व्यक्ति को मुक्ति दिला सकती है |

              भक्ति में सगुण साकार और निर्गुण निराकार की उपासना की जाती है | जीवन का एकमात्र लक्ष्य निर्गुण निराकार की अवस्था को प्राप्त करना है, चाहे सीधे निर्गुण निराकार की उपासना करें अथवा सगुण साकार की उपासना करते हुए निर्गुण निराकार तक पहुंचे | सगुण साकार के अंतर्गत निर्गुण निराकार भी आ जाता है अतः सगुण साकार की उपासना श्रेष्ठ है | सगुण साकार की उपासना सुगम भी है क्योंकि इसके प्रारम्भ से ही हम परमात्मा के स्वरुप में अपना स्वरुप देखने लगते हैं | धीरे धीरे जब ज्ञान प्राप्त होता है तब उसी परमात्मा के निर्गुण निराकार होने की अनुभूति होने लगती है | सार यह है कि हमें भी निर्गुण होना है और अपने शरीर की आसक्ति को त्यागकर जीवन मुक्त होना है | तभी परमात्मा के वास्तविक निर्गुण निराकार स्वरुप को जान पाएंगे | भक्ति से हम निर्गुण निराकार की अवस्था तक तभी पहुँच पाएंगे जब गुणातीत हों और शरीर में आसक्त न रहें | शरीर की आसक्ति से मुक्त होते ही प्रकृति के तीनों गुणों का से अतीत होने की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है |

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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