निराकार से साकार की अवस्था की ओर आने पर सबसे पहले अहंकार आता है, फिर बुद्धि और अंततः मन | अहंकार और बुद्धि के मध्य एक और है, चित्त | चित्त, फल देने में विफल रहे काम्य-कर्मों को संचित-कर्म के रूप में संचित रखता है और यह भी मन का ही एक भाग है | इस प्रकार अहंकार, चित्त, बुद्धि और मन; इन चारों को अंतःकरण भी कहा जाता है | जहां पर मन की बात कही जाती है, वहां अभिप्राय प्रायः अंतःकरण से ही होता है | अंतःकरण का विच्छेदन करने पर ही ये चारों अलग अलग प्रतीत होंगे अन्यथा सरल भाषा में अंतःकरण के केंद्र में मन ही है |
मन ही हमारे बार बार जन्म लेने का कारण है | यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इसका सदुपयोग करते हैं अथवा दुरूपयोग | इसका दुरूपयोग हमें पतन की राह पर ले जाता है और सदुपयोग उत्थान के मार्ग पर | मन के दुरुपयोग में हेतु बनते हैं संसार के विषय | इस संसार में विभिन्न विषय ऐसे हैं कि जिनमें आसक्त होकर मन अपना प्रभाव बुद्धि पर जमा लेता है अर्थात मन बुद्धि को अपने नियंत्रण में ले लेता है और फिर मन सांसारिक विषयों में प्रवृत हो जाता है | मन का शुद्ध रूप है हमारी बुद्धि | अगर बुद्धि मन पर अपना प्रभाव बना लेती है तो फिर मन भटकता नहीं है बल्कि बुद्धि के अनुसार संचालित होने लग जाता है | ऐसा होने पर धीरे-धीरे मन से विषय निवृत होने लगते हैं और मनुष्य मुक्त होने की दिशा में आगे बढ़ने लगता है | मन ही हमारे बंधन का कारण है और मन ही मोक्ष का | अमृत-बिंदु उपनिषद् में मन के बारे में स्पष्ट लिखा है-
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: |
बन्धाय विषयासक्तं मुक्तं निर्विषयं स्मृतम् ||2||
मन ही हमारे बंधन और मोक्ष का कारण बनता है | जब मन विषयों से जुड़ जाता है तो बंधन में डालता है और जब विषयों से निवृत हो जाता है तब मोक्ष की अवस्था तक ले जा सकता है |
अष्टावक्र जी महाराज कह रहे हैं –
तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं कास्वपि दृष्टिषु |
तदा मोक्षो यदा चित्तमासक्तं सर्वदृष्टिषु ||अष्टावक्र गीता-8/3||
जब मन किसी दृष्टि में अर्थात विषयों में लगा हुआ है, तब वह बन्ध है और जब मन सब दृष्टियों अर्थात विषयों में से किसी में भी आसक्त नहीं है, तब वह मुक्ति है |
विषयों में आसक्ति का परिणाम कामनाएं पैदा होना है | कामनाओं के कारण ही हम अनन्त काल से शरीर पर शरीर लेते जा रहे हैं और कामनाएँ है कि इतने सारे शरीर लेने के उपरान्त भी पूरी नहीं हो पा रही है | एक कामना पूर्ण होती है कि अनेकों कामनाएं फिर पैदा हो जाती है और इस प्रकार संसार में भटकने से छुटकारा मिल ही नहीं पा रहा है अर्थात आवागमन की प्रक्रिया निर्बाध चलती जा रही है | कहा जाता है कि एक मनुष्य जीवन में 84 लाख तक कामनाएं उत्पन्न हो सकती है, तभी तो उन कामनाओं को पूरा करने के लिए 84 लाख शरीरों में जन्म लेने की आवश्यकता पड़ती है | इसलिए मन में जितनी कम संख्या इच्छाओं की होगी, उतने ही कम शरीरों में हमें भटकना पड़ेगा | हमारे भीतर जन्म ले कर पनप रही कामनाएं ही इस विषयासक्ति के मूल में है | जब तक मन कामनारहित नहीं होगा तब तक हम बंधे हुए ही हैं | कामनाओं से मुक्त होते ही विषय पीछे छूट जाते है और मन सभी विषयों से निवृत हो जाता है | हमारा वास्तविक स्वरुप कामनारहित होना ही है |
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि साकार और निराकार के मध्य सेतु है, हमारा मन | वह हमें साकार के साथ रहकर संसार के बंधनों में भी डाल सकता है और निराकार की ओर उन्मुख होकर हमें मुक्ति की ओर भी ले जा सकता है | मन के विलीन होने पर वह हमें परमात्मा तक ले जा सकता है | मन के विलीन होने की अवस्था को अमन हो जाना भी कहते हैं |
मन की उपस्थिति के बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं है, यह भी एक सत्य है | इस कारण से मन की उपेक्षा करना अपने जीवन को दांव पर लगाना है क्योंकि जब तक शरीर में मन है तभी तक हम मनुष्य हैं | मन के अमन होते ही हम स्वयं परमात्मा ही हो जायेंगे | अतः मन में उठने वाली विभिन्न कामनाओं का स्वरुप और दिशा परिवर्तन ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए न कि मन को मारना | संत जब ‘मन को मारना’, ऐसा कहते हैं तब उसका अर्थ होता है मन के भीतर से कामनाओं को समाप्त करना | मन की भूमिका अगर मनुष्य के जीवन में कुछ भी नहीं होती तो उसकी उपस्थिति भी नहीं होती | मन को जड़ तत्व कहा गया है और इसमें जड़त्व तभी तक है जब तक कि वह संसार के विषयों में आकंठ डूबा हुआ है | मनुष्य की यह अवस्था चेतन-अचेतन की है अर्थात एक पशु की सी अवस्था है | मनुष्य होते हुए भी पशु जीवन जीना, बार-बार जन्म मरण का कारण बनता है | आवागमन के इस अटूट चक्र के लिए मनुष्य के जीवन जीने का तरीका ही उत्तरदायी होता है | कामनाओं को मन में स्थाई स्थान बनाने से बुद्धि रोक सकती है | बुद्धि से कार्य लेना केवल मनुष्य के वश की बात है, पशु में तो उसका नितांत अभाव है | कुरान में भी इस प्रकार चिंतन न करने वाले लोगों के बारे में कहा गया है – “ईश्वर की नज़र में तो वे लोग जानवरों से भी बदतर है जो अक्ल से काम नहीं लेते |”(8/22) |
मनुष्य जीवन भगवत कृपा से मिला है | इस जीवन के रहते ही मन को विषयासक्ति से मुक्त करना है | विषयों की आसक्ति से मुक्त होते ही मन अमन हो जाता है और हम शांति को उपलब्ध हो जाते हैं | मन जड़ है इसलिए परिवर्तनशीलता इसका मुख्य गुण है | परिवर्तनशील तत्व में एक विशेषता रहती है कि उसे कभी भी इच्छानुसार परिवर्तित किया जा सकता है | जैसा कि मैंने पूर्व में स्पष्ट किया है कि पशु और मनुष्य में स्थूल रूप से केवल एक अंतर ही महत्वपूर्ण है कि मनुष्य स्वयं की बुद्धि का उपयोग करते हुए अपनी इच्छानुसार मन को चला सकता है | मन की गति अनन्त है, वह अभी यहाँ है और पलक झपकने से भी पहले ही चाँद तक पहुँच जाता है | चाँद पर मन को पहुँचाने की इच्छा केवल मनुष्य ही कर सकता है, पशु नहीं |
मन को हम अपनी इच्छानुरूप ढाल सकते हैं | हमारे भीतर ईश्वर ने मनुष्य जीवन के साथ-साथ परमात्मा को पाने की मुमुक्षा भी दी है | परमात्मा ही हमारा साध्य है | साध्य तक पहुंचने के लिए मन को साधन बनाना होगा | मन से कामनाओं के मिटते ही वह विषयों से मुक्त हो जाता है | मन संसार से मुक्त हो कर अपने वास्तविक स्वरुप तक पहुँच जाता है अर्थात मन विलीन हो जाता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि साधन (मन) ही एक दिन साध्य (परमात्मा) बन जाता है | यह है भी सत्य कि एक परमात्मा से बाहर इस संसार में कोई अन्य है भी नहीं | सिद्धांत की इस बात को जिस दिन हम अपने आचरण में ले आयेगे उस दिन से साधन और साध्य में कोई अंतर नहीं रह जायेगा | फिर केवल स्थूल शरीर ही छूटना शेष रहता है | इसी अवस्था का नाम जीवन्मुक्ति है |
इस प्रकार अब तक के चिंतन में दो सूत्र स्पष्ट रूप से निकल कर हमारे सामने आये हैं -
1.प्रत्येक विषय के प्रति आसक्ति, कामना पैदा करती है | कामना कर्म करने को विवश करती है और कामना पूर्ति हेतु किये जाने वाले कर्म हमें भोगों में उलझा देते हैं |
2.काम भले ही अहम् में रहता हो परन्तु मन में रहने वाली आसक्ति ही उसकी जनक है | अतः भोगों के प्रति आसक्ति को मिटाने के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है | मन पर नियंत्रण के लिए बुद्धि और विवेक को प्रभावशाली बनाना होगा | विवेक का सम्मान करना ही हमें आसक्ति और काम, दोनों से मुक्ति दिला सकता है |
अब प्रश्न उठता है कि मन को अमन किस प्रकार बनाया जा सकता है ? इसके लिए पहले यह जानना आवश्यक है कि मन को विचलित कौन करता है, मन को चंचल कौन बनाता है ? इस प्रश्न का उत्तर मिलते ही मन को अमन बनाना आसान हो जायेगा | मन को एक स्थान पर टिकने नहीं देती, हमारे भीतर की कामनाएं | मन में एक कामना उठती है और मन चल पड़ता है, उसको पूरी करने के लिए | एक कामना पूरी होती है, चार नई कामनाएं जन्म ले लेती है | मन इन्हीं कामनाओं की पूर्ति में इधर उधर भटकता रहता है, एक स्थान पर टिक नहीं पाता |
प्रश्न उठता है कि कामनाएं मन में उठती ही क्यों है ? विषय-बोध कामनाओं का जनक है | जब तक विषय-बोध नहीं होगा तब तक मन में कामनाएं जन्म ले ही नहीं सकती | विषयों का ज्ञान कराती है हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ | जब मन को विषय का ज्ञान हो जाता है, तब उन विषयों को भोगने के लिए उसमें नई नई कामनाएं उठती है | प्रत्येक जीव में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ होती है – श्रवण इन्द्रिय (कान), दर्शन इन्द्रिय (नेत्र), स्वाद इन्द्रिय (जिह्वा), त्वगेंद्रिय (त्वचा) और घ्राण इन्द्रिय (नाक) | प्रत्येक इन्द्रिय के अपने-अपने विषय होते हैं | ये विषय क्रमशः हैं - शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध | प्रत्येक इन्द्रिय पांच महाभूतों से विकसित होती है | जैसे आकाश से श्रवण इन्द्रिय, अग्नि से दर्शन इन्द्रिय, जल से स्वाद इन्द्रिय, वायु से स्पर्श इन्द्रिय और पृथ्वी से घ्राण इन्द्रिय |
प्रत्येक इन्द्रिय का सम्बन्ध मन से होता है और मन ही उन विषयों का ज्ञान करता है | इन्द्रियाँ तटस्थ है अर्थात विषयों से अप्रभावित रहती है जबकि मन उन विषयों को अपनी दृष्टि के अनुरूप देखता है और फिर उसी अनुसार उन विषयों को पाने की कल्पना करता है | विषयों को भोगने के लिए मन में उठ रही विभिन्न कल्पनाएँ ही कामनाएं कहलाती है।
जब प्रत्येक इन्द्रिय का एक निश्चित विषय होता है तो फिर मन उसको भिन्न भिन्न प्रकार से किस प्रकार अनुभव कर लेता है ? इस प्रश्न का उत्तर है – प्रकृति के तीन गुणों के कारण | मन और इन्द्रियों के मध्य इन तीन गुणों का एक आवरण होता है | सरल शब्दों में कहूँ तो कह सकता हूँ कि प्रकृति के ये गुण, मन की दृष्टि पर लगा एक रंगीन चश्मा है | इन्द्रियों के विषयों को मन इसी चश्मे के अनुसार देखता है | मन को ज्ञानेन्द्रियों के विभिन्न विषयों का ज्ञान उसको आच्छादित किये हुए गुणों के अनुरूप होता है | साधारण अवस्था में मन उन गुणों का अतिक्रमण नहीं कर सकता | उदाहरण स्वरुप शब्द विषय को ही लें | एक ओर अनाहत नाद है, दूसरी और मेघ गर्जना है और तीसरी ओर बन्दूक, ए.के.47 और बमों की ध्वनियाँ हैं | यदि मन मुख्य रूप से सत्व गुण से आच्छादित है तो अनाहत नाद रूचिकर लगेगा और उसी की ओर जाने की कामनाएं उसमें जन्म लेंगी | मन पर रजस गुण का प्रभावी आवरण है तो मेघ गर्जना और समुद्र की आवाज अथवा पक्षियों का कलरव अच्छा लगेगा | इसी प्रकार प्रभावशाली तमस आवरण से घिरे मन को गोलियां चलने और बम फटने की ध्वनि प्यारी लगेगी | इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों और उनके विषयों को गुणों के आधार पर किस प्रकार से मन के द्वारा ग्रहण किया जायेगा, उसकी कल्पना आप स्वयं भी कर सकते हैं |
ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति पञ्च महाभूतों से हुयी है | पञ्च महाभूत स्वयं में तटस्थ है और पाँचों इन्द्रियाँ भी स्वयं में तटस्थ (सम) है | अगर कोई तटस्थ (सम) नहीं है तो वह है हमारा मन | मन के तटस्थ न होने का कारण है, उस पर पड़ा गुणों का आवरण रुपी चश्मा | मन पर पड़ा यह गुणों का आवरण अर्थात चश्मा ही माया कहलाता है | इस प्रकार यह माया भाव ही विषयों के प्रति मिथ्या दृष्टि पैदा करता है | यह मिथ्या दृष्टि पैदा होती है प्रकृति के तीन गुणों के भाव से | कोई भी गुण अकेला किसी में भी नहीं रहता | सत्व गुण की प्रमुखता है तो साथ में अल्प रूप से रज और तम गुण भी रहेंगे | हाँ, यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति में एक गुण की प्रधानता रहेगी और शेष दो गुणों की न्यूनता | यही कारण है कि मन भले ही सत्व गुण के आवरण से घिरा हो, अन्य दो गुणों की सह उपस्थिति के कारण उसमें सुख और ज्ञान का अभिमान तो रहता ही है | रजोगुण तो कर्मों का मूल है ही | रजोगुण मनुष्य को केवल कर्मों में ही व्यक्ति को प्रवृत नहीं करता बल्कि साथ ही फल की आशा भी पैदा करता है |
मन विषयों को ग्रहण करता है और उन विषयों को वह माया भाव अर्थात गुणों की दृष्टि से देखता और परखता है | उन गुणों के अनुसार मन में विषय-भोग के प्रति आसक्ति और आसक्ति से कामनाएं जन्म लेती हैं | कामनाएं जब तक पूरी नहीं होती तब तक अहम् में संग्रहित रहती है और काम कहलाती है | अहम् का अर्थ है ‘मैं’ अर्थात अहंकार, जोकि व्यक्ति में कर्तापन का भाव पैदा करता है | अहम् में कामनाओं के रहने का अर्थ है कि व्यक्ति में एक विषय के प्रति राग हो जाना जैसे मेरे को यह प्राप्त करना है, मेरे को ऐसा करना है, वैसा नहीं करना है, मुझे यह चाहिए, मुझे वह नहीं चाहिए आदि | मन उसी राग से उत्पन्न कामनाओं के अनुसार शरीर में उपस्थित पांच कर्मेन्द्रियों से कर्म करवाता है | पांच कर्मेन्द्रियाँ हैं- वाक् इन्द्रिय, पाणि (हस्त) इन्द्रिय, पाद इन्द्रिय, उत्सर्जन इन्द्रिय (पायु) और जननेंद्रिय (उपस्थ) | इन कर्मेन्द्रियों के क्रमशः कार्य है-बोलना, करना, चलना, उत्सर्जन करना (अपशिष्ट को बाहर निकालना) और प्रजनन करना |
कर्मों से अहम् में निवास कर रही विषय-भोग की कामनाएं पूरी हो भी सकती है और नहीं भी | अहम् में स्थित इन कामनाओं का स्मरण मन सदैव रखता है | कामना का अर्थ है-फल की आशा रखना यानि एक प्रकार का याचक भाव अर्थात अभावग्रस्त मानसिकता | एक कामना पूरी हो गयी तो फिर कर्म और उससे प्राप्त होने वाले फल की आशा बढ़ती जाती है | इस दिन-प्रतिदिन बढ़ती फल-आशा को लोभ कहा जाता है | विषय-भोग (फल) की आशा से किये जाने वाले कर्मों को काम्य-कर्म कहा जाता है | यह काम्य-कर्म ही काम कहलाता है क्योंकि काम्य-कर्मों के माध्यम से ही व्यक्ति के भीतर का काम स्पष्ट रूप से बाहर प्रकट हो जाता है | लोभ और काम के कारण बार-बार मन व्यथित होता रहता है | काम्य-कर्मों ( दृष्टि में आ गया काम) के माध्यम से की जाने वाली फल की आशा जब निराशा में बदल जाती है तब क्रोध उत्पन्न होता है | इन तीनों अर्थात काम, क्रोध और लोभ को गीता में नरक के द्वार कहा गया है |
गीता में कहा गया है-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः |
कामः क्रोधस्तथालोभस्तस्मादेतत्त्रयंत्यजेत् || गीता-16/21||
काम, क्रोध तथा लोभ-ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं | अतएव इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए |
सभी विकारों के मूल में कामना ही रहती है | यह कामना ही हमें संसार के आवागमन से मुक्त नहीं होने देती इसलिए सर्वप्रथम काम को समाप्त करना आवश्यक है फिर सभी विकार अपने आप मिट जायेंगे |
कामना जब पूरी हो जाती है, तब लोभ तो पैदा होता ही है साथ ही साथ अपनी इस उपलब्धि पर अभिमान (मद) भी पैदा हो जाता है | गोस्वामीजी ने काम, क्रोध और लोभ के साथ-साथ मद को भी नरक का द्वार बताया है | गोस्वामीजी ने श्री रामचरितमानस में कहा है –
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ |
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ||5/38||
काम, क्रोध, अभिमान (मद) और लोभ - ये सभी नरक के रास्ते हैं अर्थात ये सभी मनुष्य को पतन की ओर ले जाने वाले हैं | अतः इन सभी का त्याग कर एक परमात्मा को भजिए जैसे संत उसको भजते हैं |
मद भी तीन प्रकार के हैं - विद्या का, धन का और कुल का | महाभारत के उद्योग पर्व में आता है –
विद्यामदो धनमदः तृतीयोSमिजनोमदः |
एते मदावलिप्तानाम् एत एवं सतां दमा: ||34/44||
अर्थात संसार में तीन प्रकार के मद है - विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊँचे कुल का मद | ये अहंकारी मनुष्य के लिए तो मद है, परन्तु ये तीनों (विद्या, धन और कुलीनता) ही सज्जन पुरुषों के लिए दम के साधन हैं | मोहग्रस्त पुरुष इन तीनों का दुरुपयोग करता है | मोहमुक्त पुरुष विद्या, धन और कुल को अध्यात्म की प्रगति में साधन बना लेता है |
इन चारों विकारों – काम, क्रोध, लोभ और मद का त्याग करना इतना सरल भी नहीं है | काम इन सब विकारों का जनक है | अतः काम को मारने के लिए अहम् को नियंत्रण में लेना आवश्यक है और अहम् को नियंत्रित तभी किया जा सकता है जब हम स्वयं को पहिचाने अर्थात स्व-चेतन की अवस्था को प्राप्त करें | मनुष्य का अहंकार तभी टूटता है, जब उसे पता चलता है कि करने वाला कोई और ही है वह तो केवल एक माध्यम है |
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-“निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्” (गीता-11/33) अर्थात अर्जुन, तू तो केवल इस युद्ध में मरने वालों का निमित्तमात्र बन जा | अर्जुन युद्ध में जाने से पूर्व युद्ध में मरने वालों का स्वयं “मारने वाला” बन रहा था | सव्यसाचिन अर्थात दोनों हाथों से बाण चला सकने वाला | इस विधा को उपलब्ध किसी भी व्यक्ति में कर्तापन का अहंकार आ जाना स्वाभाविक है | भगवान् अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार कर रहे हैं परन्तु साथ ही यह भी ध्यान रख रहे हैं कि उसमें स्वयं के कर्ता होने का अहंकार भी न आने पाए | अहंकार मनुष्य के पतन का कारण बनता है | जीवन में अहंकार रहित हुआ व्यक्ति ही अध्यात्मिक मार्ग में प्रगति कर सकता है |
यहाँ आकर फिर कुछ महत्वपूर्ण सूत्र सामने आये हैं –
1. मन में ही आसक्ति पैदा होती है और वही आसक्ति काम के रूप में अहम् में निवास करती है | काम है, सुख देने वाले भोगों की कामना |
2. मन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों को ग्रहण करता है लेकिन विषय-ग्रहण प्रकृति के गुणों के अधीन रहता है |
3. काम ही सभी विकारों की मूल में है | विकारों से मुक्त होने के लिए अहम् की भूमिका महत्वपूर्ण है |
आइये ! आगे बढ़ते हैं, यह जानने के लिए कि कर्मों का प्रारम्भ प्राणियों के जीवन में कैसे होता है और मनुष्य अपने जीवन में नए-नए कर्म क्यों करता रहता है ?
इस प्रकार अब तक हमने कामना और मन के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की है | प्रश्न था कि मन को अमन कैसे बनाया जाये ? जब तक हम मन के भटकने की प्रक्रिया को पूर्णतः समझ नहीं लेते तब तक मन की भटकन को रोकने का मार्ग नहीं ढूंढ पाएंगे | मन की भटकन ही नए जीवन में कर्मों के प्रारम्भ का कारण बनती है | मन की चंचलता कामनाओं के कारण है और कामनाओं को पूरा करने के लिए काम्य-कर्म करने आवश्यक हैं | इन कर्मों का फल पुनः कामनाओं में वृद्धि करता है और इस प्रकार एक अटूट चक्र बन जाता है, जो हमें इस संसार में बार-बार जन्म लेने को विवश करता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि बार-बार संसार में आने का कारण हमारा मन ही है | इसीलिए कबीर कहते हैं-
मन मरा न ममता मरी, मर-मर गए शरीर |
आशा-तृष्णा ना मारी, कह गए दास कबीर ||
मन में फल की आशा से अधूरी रही कामनाएं और उनके द्वारा किये जाने वाले काम्य-कर्म ही हमें बार-बार संसार में धकेलते रहते हैं | हम इन कामनाओं को पूरा करने के लिए अपना एक निश्चित स्वभाव लेकर इस संसार में आते हैं | कारण शरीर के संस्कार के अनुसार ही नए जीवन में हमारा स्वभाव बनता है। उस स्वभाव के अनुसार ही हम जीवन में कर्म करना प्रारम्भ करते हैं |
गीता के अठारहवें अध्याय में मनुष्य जीवन में कर्मों की सिद्धि के पांच हेतु बताये गए हैं -
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ||14||
अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा अर्थात विभिन्न प्रकार के प्रयास और दैव, ये पांच कारण हैं, जिससे मनुष्य अपने जीवन में कर्म प्रारम्भ करता है | जिस कर्म का वांछित फल मिल जाता हैं तो फिर उस कर्म का अन्त हो जाता है | वांछित फल न मिलने पर ये कर्म चित्त में जाकर संचित हो जाते है जो स्थूल शरीर के समाप्त होने पर सूक्ष्म शरीर से कारण शरीर में जाकर संस्कार बन हमारे पुनर्जन्म का कारण बनते हैं |
मन को विचलित करने में इन्द्रिय-विषय और कामना, दोनों का ही योगदान रहता है। विषय भोग हमें प्रारब्ध स्वरूप उपलब्ध होते हैं। साथ ही मन को अमन करने में भी प्रारब्ध की भूमिका रहती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मन की चंचलता और मन को अमन बनाना, इन दोनों में पांचवें हेतु अर्थात दैव की सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, इसलिए हम इस “दैव” पर अपनी चर्चा को केन्द्रित करेंगे | दैव ही नए जन्म में कर्मों का आरम्भ करवाता है | दैव कहते हैं, पूर्व मानव जीवन में किये गए कर्मों के संस्कार को, जो कि नए मानव जीवन में उस व्यक्ति का स्वभाव बनाते हैं, जिसे वह अपने जन्म के साथ ही लेकर आता है | मनुष्य उसी स्वभाव के अनुसार कर्म करना प्रारम्भ करता है | शेष चार कारणों (हेतुओं) का योगदान प्रायः स्व-इच्छा से नए कर्मों को करने में होता है | सर्वप्रथम जानते हैं कि दैव अस्तित्व में कैसे आता है ? गीता में भगवान् इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः || 18/18 ||
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय – ये तीन कर्म-प्रेरणा है और कर्ता, करण तथा क्रिया – ये तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है |
प्रत्येक प्रकार के कर्म करने का ज्ञान, जिस उद्देश्य के लिए कर्म किये जाएँ वह ज्ञेय और जिसे कर्म के बारे में ज्ञान है वह ज्ञाता – इस त्रिपुटी से मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा मिलती है | कर्ता अर्थात कर्म करने वाला, करण अर्थात वह साधन जिनसे कर्म किये जाते हैं (कर्मेन्द्रियाँ) और क्रिया जो गुणों के कारण संपन्न होती है, इस त्रिपुटी से कर्म-बंधन पैदा होता है | कर्म-बंधन के कारण ही मनुष्य कर्मों के साथ बन्ध जाता है और नित नए कर्म करता रहता है | इस श्लोक में पूर्व में वर्णित 14 वें श्लोक के दो हेतु यानि कारण (कर्ता और करण) आ गए हैं जिनकी कर्म सम्पादित करने में मुख्य भूमिका रहती है | शेष दो हेतु अधिष्ठान और चेष्टा अर्थात प्रयास, कर्म (क्रिया) करने में सहायक भूमिका निभाते हैं | इस प्रकार ये चारों कारण फल की आशा में कर्म किये जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | इन चार कारणों से किये जाने वाले कर्म से ही प्रारब्ध बनता है जिसे यहाँ दैव नाम से कहा गया है |
प्रारब्ध को ही पूर्वजन्म का पुरुषार्थ कहा जाता है | विभिन्न योनियों में उस पुरुषार्थ अर्थात कर्मों के फल भोगते हुए जब पुनः भगवत कृपा से मनुष्य जीवन मिलता है तो कर्मों के शेष रहे सभी फल मिलने प्रारम्भ होते हैं | नए जीवन के प्रारम्भ में दैव सक्रिय होकर मनुष्य से कर्म करना प्रारम्भ करवाता है | यहाँ तक तो कोई समस्या नहीं है | जीवन में समस्या तब पैदा होती है जब दैव के कारण कर्म फल मिलने प्रारम्भ होते हैं और मनुष्य उसको स्वयं के द्वारा किया गया प्रयास (कर्तत्वाभिमान) मानने लग जाता है | साथ ही वह उन कर्मों के प्रति आसक्त भी हो जाता है | वास्तव में देखा जाये तो उस कर्म का फल देने के लिए केवल प्रारब्ध ही कारण है | इस प्रकार आसक्ति से भरा मन अधिष्ठान और करण के सहयोग से कर्ता द्वारा चेष्टा करवा कर फिर से नए-नए कर्म कराता रहता है | उस कर्म को करने में उस ज्ञाता का ज्ञान और ज्ञेय (कर्म करने का उद्देश्य व फल की आशा) प्रेरक बनते हैं | फल की आशा से किये जाने वाले कर्म आसक्ति के कारण बंधन पैदा करते हैं | इस प्रकार बना नया कर्म-बंधन मनुष्य को आवागमन से मुक्त नहीं होने देता |
इतनी सी सरल बात को समझ लें और हृदयांगम कर लें तो हमारा मन अमन बन सकता है | इसके लिए हमें क्या करना होगा ? इसके लिए हमें केवल दैव (प्रारब्ध) के कारण मिलने वाले फल को भोगना है, वह भी त्याग पूर्वक | प्रत्येक कर्म का कोई न कोई एक फल निश्चित होता है | यह जानते हुए हमें और नए काम्य-कर्मों में प्रवृत नहीं होना है अर्थात मन में नई नई कामनाओं को उत्पन्न नहीं होने देना है | दैव (प्रारब्ध) स्वरुप मिले फल को भोग लेना आवश्यक है, इसी में बुद्धिमानी है | फल को भोगकर प्रतिक्रिया (क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) दिखाना हमें नए कर्मों की ओर धकेल देगा और इस प्रकार फिर से नए फल भोगने के लिए स्वयं को अगला जन्म लेने के लिए तैयार करना होगा | इस प्रकार मन कर्मों के एक अटूट चक्र में फंस कर रह जाता है क्योंकि किसी भी मनुष्य के एक जीवन में सभी कामनाओं की पूर्ति होना असंभव है |
इस प्रकार मन को विलीन करने का एक साधन तो हुआ- प्रारब्ध स्वरूप मिले कर्म फलों को त्यागपूर्वक भोग लेना, साथ ही प्रतिक्रिया न देते हुए नए काम्य कर्मों की ओर जाने से स्वयं को रोक लेना | प्रत्येक प्रतिक्रिया के मूल में आसक्ति रहती है, जो नयी कामनाओं की पूर्ति के लिए काम्य-कर्म (काम) की ओर ले जाती है | हमारा काम सफल हो जाये तो लोभ और अहंकार पैदा होगा और काम असफल हो गया तो क्रोध पैदा होगा | ये सभी विकार पतन की ओर ले जाने वाले हैं अतः कर्म फल को बिना किसी प्रतिक्रिया के शांतिपूर्वक भोग लेना ही उचित है |
मन को अमन बनाने अर्थात मन को विलीन करने का दूसरा साधन है- मन पर लगे तीन रंग के चश्मे को उतार फैंकना अर्थात गुणों के आवरण से मन को मुक्त करा लेना | इस अवस्था को गुणातीत होना कहते हैं | गुणातीत होने के लिए सर्वप्रथम गुणों के स्तर में निरंतर उत्थान करते हुए सत्व गुण की प्रमुखता बनानी होगी | इसके लिए विशेष प्रयास करने की आवश्यकता होती है | गुणातीत की अवस्था तक पहुँचने के लिए तीनों गुणों की विशेषताएं जान लेना आवश्यक है |
तमस गुण के मुख्य रूप से आलस्य, प्रमाद और निद्रा लक्षण हैं | इसमें व्यक्ति आज का कार्य कल पर टाल देता है और इस प्रकार उस कार्य का टालना अनन्त काल तक का हो सकता है | इसका अर्थ यह नहीं है कि तामसिक व्यक्ति विश्राम करता है | उसके जीवन में विश्राम और अभय होने की अवस्था आस-पास तक नहीं होती | कर्तव्य कर्मों के प्रति उदासीन होना आलस्य है और व्यर्थ के कर्म करना प्रमाद है | तमस गुणों के लक्षण अज्ञान से उत्पन्न होते हैं | तामसिक गुणों की प्रधानता वाला व्यक्ति अज्ञान को ही ज्ञान समझने लगता है | इसका प्रभाव यह होता है कि उस मनुष्य का जीवन की मुख्य धारा में प्रवेश कर पाना बड़ा मुश्किल है परंतु असम्भव नहीं है | कहने का अर्थ है कि तमोगुणी व्यक्ति में तमस से ज्ञान ढक जाता है और वह अज्ञान को ही ज्ञान समझने लगता है अर्थात उसकी बुद्धि और मन पर तमस का आवरण चढ़ा रहता है |
राजसिक व्यक्तित्व में कर्म और विषय-भोग के प्रति आसक्ति अधिक रहती है | विषय-भोग के प्रति आसक्ति पैदा होना ही कामना है | इसी कामना पूर्ति के लिए व्यक्ति काम्य-कर्म करता है | क्या उचित है और क्या अनुचित, वह यह तो जानता है परन्तु केवल कामना पूर्ति में ही ध्यान लगा रहने के कारण सही मार्ग पकड़ नहीं पाता है | सम्पूर्ण जीवन में वह फल की आशा में नए नए कर्म करता रहता है और नित नए राग के जाल में धीरे-धीरे जकड़ता चला जाता है | रजोगुण प्रधान पुरुष जीवन भर विभिन्न कर्म करने में ही लगा रहता है | ये सभी कर्म ही उसको बांधने वाले होते हैं |
सात्विक पुरुष, गुणों की सर्वोत्तम अवस्था तक तो पहुँच चूका है परन्तु सत्व गुण उसमें सुख और अहंकार पैदा कर सकता है | सात्विक व्यक्ति ज्ञान को सही रूप से समझता तो है परन्तु वह उस ज्ञान का सुख लेने लगता है और अन्य लोगों की तुलना में स्वयं को अधिक ज्ञानी समझकर अभिमान में डूब जाता है | सत्व गुण सुख के प्रति आसक्ति पैदा कर मनुष्य को बांधता है |
प्रत्येक मनुष्य में तीन गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता रहती है | हमें निम्न स्तर के गुण की प्रधानता से उच्च गुण की प्रधानता की ओर अपने जीवन को ले जाना है और विवेक जाग्रत कर सत्वगुणी हो जाना है | जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि गुणों की निरंतर उच्चोत्तर अवस्था को प्राप्त करने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है | इसके लिए हमें बुद्धि और विवेक को महत्त्व देना होगा | बुद्धि के मन के अधीन हो जाने से उसे विवेक में बदलना असंभव सा है | परन्तु जब जीवन में किसी एक अप्रत्याशित घटना से बुद्धि मन से छिटककर अपने आपको उससे दूर कर लेती है, तब तत्काल ही विवेक जाग्रत हो उठता है | जिस किसी ने भी ऐसी परिस्थिति में जाग्रत हुए अपने विवेक का आदर किया है, वह तुरंत ही लम्बी छलांग लगाकर सात्विक अवस्था को उपलब्ध हो गया है | जिसने भी इस जाग्रत विवेक का अनादर किया है उससे जीवन में जरा सी भी प्रगति नहीं हो सकी है।
हम गृहस्थ हैं | हमारे जीवन में रजस की प्रधानता रहती है | राजसिक गुण मनुष्य को कर्मों के साथ बांधता है | हमें सत्व गुण में वृद्धि करनी है | सात्विक गुण की प्रधानता मनुष्य में सुख के प्रति आसक्ति और ज्ञान का अहंकार पैदा कर सकता है | दोनों ही स्थितियों में आकर मनुष्य कर्मों का विश्लेषण करने लगता है क्योंकि साथ में रजस गुण भी उपस्थित है, एक में थोडा कम और दूसरे में थोडा अधिक |
रजस की उपस्थिति कर्मों को पाप और पुण्य, इन दो प्रकार के कर्मों में विभाजित कर देती है | एक को प्रतीत होता है कि वह सत्व में स्थित है, इसलिए केवल पुण्य कर्म ही उसके द्वारा सम्पादित होते हैं, पाप-कर्म उसके द्वारा स्वप्न में भी नहीं हो सकते | इसी प्रकार राजसिक गुणों की प्रधानता वाले मनुष्य में यह द्वंद्व रहता है कि कौन से तो पाप-कर्म है और कौन से पुण्य-कर्म ? एक सीमा तक उन दोनों का सोचना तर्कसंगत भी है | कौन से कर्म तो पाप-कर्म हैं और कौन से कर्म पुण्य-कर्म है, क्या इस बात का उनमें से किसी को ज्ञान है ? सत्व गुण में स्थित मनुष्य तो इनके बारे में बहुत कुछ जानता है परन्तु राजसिक गुण प्रधान मनुष्य इन दोनों ही प्रकार के कर्मों से मोहग्रस्त है | वह कभी भी पाप-कर्म को पुण्य-कर्म समझ सकता है अथवा कभी उसके साथ इसके विपरीत भी हो सकता है |
पाप और पुण्य कर्मों को समझने के लिए आपको मन ही मन एक कल्पना करने के लिए कह रहा हूँ | कल्पना कीजिये आप किसी कार्यवश घर से निकल कर बाज़ार की तरफ जा रहे हैं | रास्ते में आप देखते हैं कि सड़क पर पड़े दानों को एक कबूतर चुग रहा है | साथ ही साथ वह अपने दोनों ओर दृष्टि भी डाल रहा है कि कहीं से कोई संकट तो नहीं आ रहा है ? आप पाते हैं कि पेड़ की ओट में खडी एक बिल्ली घात लगाते हुए कबूतर की ओर दबे पाँव बढ़ रही है | बिल्ली भी कई दिनों से भूखी है और उसे शिकार की तत्काल आवश्यकता है | बिल्ली शिकारी और कबूतर उसका शिकार | एक तरफ बिल्ली की क्षुधा का प्रश्न है और दूसरी ओर कबूतर के जीवन का | आप इस परिस्थिति में क्या करेंगे ? बिल्ली को दूर भगायेंगे या कबूतर को उड़ा देंगे ? अथवा कबूतर को बिल्ली का निवाला बनने के लिए अपने रास्ते चल देंगे ? बड़ी अंतर्द्वंद्व की स्थिति है आपके समक्ष | आपका अंतर्मन क्या कहता है ? सोचिये ! विचार कीजिये | उत्तर देने के लिए कुछ समय के लिए यह प्रश्न आप के विवेक पर छोड़ता हूँ |
मनुष्य जीवन ऐसे ही कई पाप-पुण्य कर्मों के मध्य उत्पन्न द्वंद्वों से भरा पड़ा है | इस द्वंद्व का एक मात्र कारण है- कर्तापन का भाव | मनुष्य अपने जीवन में एक ही बात सोचता है कि मेरे जाने के बाद इस स्व-निर्मित संसार का क्या होगा ? मेरे बच्चे, मेरी पत्नी, मेरे भाई-बन्धु आदि का मेरे जाने के बाद क्या होगा ? क्यों न इस जीवन के रहते उनका भविष्य सुरक्षित कर जाऊं ? यह जानते हुए भी कि देह के मरने के बाद फिर से नए संसार में जाना है और फिर इसी प्रकार भटकना है, वह अपने स्वयं के कल्याण का विचार तक नहीं करता | जहां तक कर्तव्य-कर्म की बात आती है, तब तक तो सब कुछ उचित है परन्तु वह तब तक ही उचित है जब तक वह कर्म स्वयं के लिए न किया जा रहा हो | स्वार्थ पूर्ति के लिए किया जाने वाला प्रत्येक कर्म हमें बंधन में डालता है, यह बात शतप्रतिशत सत्य है | इसलिए यह आवश्यक है कि हम कर्मों के बारे में स्पष्ट रूप से जान कर यह सुनिश्चित कर लें कि कौन कौन से कर्म तो हमें बांधने वाले हैं और कौन कौन से मुक्त करने वाले हैं |
चलिए ! पुनः आते हैं, पाप और पुण्य कर्मों पर | पाप-कर्म हमें पतन की ओर ले जाते हैं जबकि पुण्य-कर्म उत्थान की ओर | यह सोचना कि पुण्य कर्म मुक्त करने वाले हैं, सही नहीं है | हाँ, पुण्य कर्म आपको शांति की ओर अवश्य ही ले जाते हैं जोकि मुक्ति की ओर जाने के लिए प्रथम कदम है जबकि पाप-कर्म करने वाले को जीवन में अशान्ति के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता |
मनुष्य अपने जीवन में शांति चाहता है और शांति सदैव ही त्याग से मिलती है – त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीत-12/12) | त्याग किसका करना है ? त्याग करना है कर्म फल की इच्छा का | हम जो भी कर्म करते हैं उसके लिए भीतर सर्वप्रथम फल की इच्छा पैदा होती है | प्रत्येक कर्म के पीछे कारण अवश्य ही होता है और इच्छा ही वह कारण है जो हमें बंधन में डाले रखती है | ऐसा नहीं है कि फल की इच्छा करके ही कर्म किये जा सकते हैं, फलेच्छा का त्याग करके भी कर्म हो सकते हैं | फल की इच्छा का त्याग कर किये जाने वाले कर्म फिर हमें बांधते नहीं है | इसलिए त्याग पूर्वक कर्म करें, बिना फल की इच्छा के किया गया कर्म ही पुण्य-कर्म है और ऐसे कर्म ही आपके लिए मुक्ति का द्वार खोलने वाले होते हैं | आइये! अब चलते हैं पाप और पुण्य कर्मों को सही रूप से जानने और समझने की ओर |
एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक पाप-पुण्य को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है -
अष्टादशपुराणेषु व्याससे वचनंद्वयम् | (अष्टादशपुराणानां सारं व्यासेन कीर्तितम् | )
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||
कीर्तिस्वरूप अठारह पुराण के सार के रूप में महर्षि वेदव्यास ने केवल दो बाते कही है, पहली बात - ‘दूसरे का उपकार करने से पुण्य होता है’ और दूसरी बात - ‘दूसरे को पीड़ा पहुँचाने व दुःख देने से पाप होता है |’ इस प्रकार कहा जा सकता है कि जो कर्म दूसरों के हित के लिए किये जाते हैं वे पुण्य कर्म कहलाते हैं और जिन कर्मों को करने से दूसरे को दुःख पहुँचता है, वे पाप कर्म कहलाते हैं | गोस्वामीजी ने भी मानस में लिखा है-
परहित सरिस धरम नहि भाई | परपीड़ा सम नहि अधिकाई ||
हमारे कर्म इस प्रकार के होने चाहिए जो किसी दूसरे के अधिकार को प्रभावित न करते हों | अगर हम दूसरे के निवाले को छीनकर अपने परिवार का पेट भर रहे हैं तो यह निश्चित ही पाप कर्म है क्योंकि इससे दूसरे को आप पीड़ा दे रहे हो | हम इस जीवन में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति उचित कर्म करते हुए भी कर सकते हैं | बहुत बड़ी विडम्बना है कि हम आवश्यकताओं से भी बहुत आगे बढकर धीर-धीरे विलासिता का जीवन जीने के आदी होते जा रहे हैं | विलासिता का जीवन ही हमें भोग-सामग्री संग्रह करने को प्रेरित करता है | स्वामीजी कहा करते थे कि दैनिक आवश्यकता तो परमात्मा प्रत्येक जीव की पूरी करते हैं | वे कहते हैं कि मनुष्य जिस प्रकार आज भोग और संग्रह में लगा हुआ है, वह उसके पतन का कारण बन रहा है | भोग और संग्रह उसे पाप-कर्म करने को विवश करते हैं जिसके कारण उसका जीवन अशांत हो जाता है | आज संसार में चहुँ ओर जो अशांति फैली हुई है, उसका एक मात्र कारण भोग और संग्रह ही है | मनुष्य को 'मैं और मेरे' के अतिरिक्त कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा है जबकि जीवन तभी सुखी हो सकता है जब हम आपस में एक दूसरे के हितों का ध्यान रखें |
जीवन में हमें पाप और पुण्य कर्मों, दोनों से ही बाहर निकलना है | हमारे किसी एक कर्म से भी किसी दूसरे प्राणी को पीड़ा न पहुंचे, उस कर्म से सबका हित हो, केवल इस बात का ध्यान रखना है | इसके लिए स्वयं को कर्ता भी नहीं बनना है |
आइये ! एक पौराणिक कथा के माध्यम से पाप-पुण्य कर्मों की बात को स्पष्ट रूप से जानने का प्रयास करते हैं |
एक साधू अपने शिष्यों के साथ जंगल में एक आश्रम में निवास करते थे | साधू की कुटिया के पास ही एक तालाब था | एक दिन साधू कुटिया के पास बैठे तालाब की ओर देख रहे थे | उन्होंने देखा कि एक बगुला तालाब में मछली का शिकार करने को उद्यत है | उन्होंने मछली का जीवन बचाने के लिए बगुले को उड़ा दिया | इस प्रकार मछली का जीवन तो बच गया परंतु बगुला भूख से मर गया। कुछ समय बाद साधू की देह छूट गयी | उन्हें बगुले को उड़ाने के अपराध स्वरूप नरक में ले जाया गया | साधू ने अपने शिष्य को एक रात स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा कि बगुले को कभी भी मत उड़ाना | उसको उड़ाने के कारण ही मुझे नरक भोगना पड़ रहा है |
एक दिन साधू का वही शिष्य तालाब के पास बैठा था | फिर वही दृश्य उपस्थित होता है | उसने देखा कि बगुला मछली का शिकार करने को उद्यत है | तत्काल ही उसे अपने गुरु की बात स्मरण हो आई | उसने बगुले को नहीं उड़ाया | बगुले ने मछली को मार डाला | थोड़े दिनों बाद उस शिष्य की भी मृत्यु हो गयी | उसको बगुले को न उड़ाने के कारण नरक ले जाया जा रहा है | जब उसे नरक की ओर ले जाया जा रहा था तब उसने अपने गुरुभाई को ऊपर से ही सन्देश भेजा कि गुरु तो बगुले को उड़ा देने के कारण नरक ले जाए गए थे और अब मुझे उसे न उड़ाने के कारण नरक ले जाया जा रहा है | कम से कम तू तो हम दोनों की इन बातों से कुछ सीख लेना |
एक दिन गुरुभाई के सामने भी उसी प्रकार का दृश्य प्रकट हो गया | बगुला और मछली आमने सामने | उसने कुछ भी नहीं किया और कुछ भी नही सोचा, केवल सतत भगवान् का नाम जपता रहा | उधर तालाब, बगुले और मछली की ओर ध्यान ही नहीं दिया | मरने के बाद उसे स्वर्ग ले जाया गया | नारदजी सारा घटनाक्रम देख ही रहे थे ।उनको भगवान के न्याय को देखकर आश्चर्य हुआ | उनके मन में प्रश्न उठा और वे उसका उत्तर जानने के लिए श्री हरि के पास पहुँच गए |
नारदजी पहुंचे श्री हरि के दरबार | पहुंचते ही बिना किसी औपचारिकता के भगवान से सीधा प्रश्न कर दिया –“भगवन, आपकी लीला हमारी समझ से बाहर है | आपके भक्त साधू ने एक मछली के प्राण बचाकर पुण्य-कर्म किया फिर भी आपने उसे नरक में भेजा | क्यों ?” श्री हरि बोले-“ उस दिन बगुला भूख से तड़प रहा था | मछली न मिलने से वह भूख से व्याकुल होकर मर गया | साधू ने भले ही अपने अनुसार पुण्य-कर्म किया होगा परन्तु उसको भूख से मरे बगुले के कारण पाप लगा और नरक जाना पड़ा |”
“भगवन ! आपका यह कहना उचित है परन्तु साधू के शिष्य ने तो बगुले को नहीं उड़ाया था | फिर भी उसे नरक क्यों जाना पड़ा ?” नारदजी ने प्रतिप्रश्न किया | भगवान् बोले – “उस दिन बगुले का पेट भरा था परन्तु फिर भी वह मछली को मारने का खेल कर रहा था | उस दिन बगुले को उड़ाया जाना था, जो कि शिष्य ने नहीं किया | मछली बेचारी बेवजह मारी गयी | उस मछली की मौत का जिम्मेवार वह शिष्य था इसलिए उसको नरक जाना पड़ा |”
“परन्तु भगवन् ! उस गुरुभाई ने भी तो बगुले को नहीं उड़ाया था फिर भी उसको स्वर्ग मिला | आपका यह दोहरा चरित्र नहीं है तो और क्या है प्रभु ? ऐसा क्यों किया आपने ?” नारद के मन में तीसरा प्रश्न उठा तो उसने तत्काल ही श्री हरि से पूछ लिया | भगवान् उनके इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले - “जब गुरुभाई ने देखा कि बगुला मछली का शिकार करने को उद्यत है, तो उसने मुझे स्मरण किया और बोला कि ‘प्रभु ! आप ही बगुला हो, आप ही मछली हो; आपही शिकारी हो, आपही शिकार हो, कौन मार रहा है और कौन मर रहा है, मुझे इन बातों से क्या प्रयोजन ? मारने वाले भी आप हैं और बचाने वाले भी आप, फिर मैं क्यों इसमें हस्तक्षेप करूँ ? मैं तो सदैव आपके चिंतन में लगा रहता हूँ | मैं इन बातों का संज्ञान लेकर आपसे दूर क्यों जाऊं ? मैं क्यों इस संसार के प्रत्येक कर्म का कर्ता बनने का प्रयास करूँ ?’ अपने भीतर इतना सोचकर वह पुनः मेरे स्मरण में लग गया | गुरुभाई ने इस प्रकार जब केवल मेरा ही चिंतन किया तब वह किसी प्रकार के पाप अथवा पुण्य का भागी नहीं बना और उसे स्वर्ग मिला |” भगवान् से इस प्रकार का उचित उत्तर सुनकर नारदजी संतुष्ट हो गए और नारायण, नारायण नाम का सतत जप करते और वीणा बजाते हुए उन्हें प्रणाम कर त्रिलोकी का अवलोकन करने को चल दिए |
पौराणिक कथाओं से हमें अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों को समझने का आधार मिलता है | कर्म पाप और पुण्य में तभी विभाजित किये जा सकते हैं जब कर्म आपके द्वारा किये जा रहे हो अर्थात आप उस कर्म के कर्ता बनते हो | कर्ता बनोगे तो उस कर्म का परिणाम भी आपको भोगना पड़ेगा | पूर्व में मैंने आपके समक्ष जो प्रश्न छोड़ा था, वही कबूतर और बिल्ली वाला ! उसका उत्तर भी यही है जो गुरुभाई के प्रसंग में भगवान् ने नारदजी को बताया था | हमें भगवान् की लीला का आनंद लेना है उसमें हस्तक्षेप नहीं करना है | इस दृष्टि से देखें तो न तो कोई पाप कर्म है और न ही कोई पुण्य कर्म है | बिल्ली भी प्रभु आप हो और कबूतर भी आप | बिल्ली कबूतर को मार भी दे तो हमें इससे क्या प्रयोजन और कबूतर मरने से बच जाये तो भी हमें क्या मतलब | हमें तो कर्ता नहीं बनना | आप चाहो तो कबूतर को मार दें अथवा उसे बचा लें | हम तो दोनों ही स्थिति में आपका गुणगान करना नहीं छोड़ेंगे |
फिर भी अगर हम पाप और पुण्य के विवाद में जाना ही चाहते हैं तो उस प्रसिद्ध श्लोक का स्मरण करे जिसमें कहा गया है कि दूसरे को दुःख पहुँचाना पाप-कर्म है और दूसरे का हित करना पुण्य-कर्म है | इसके लिए आपको गुरुभाई की तरह रहते हुए व्यवहार करना होगा | आपको केवल यह ध्यान रखना है कि आपके कारण किसी को दुःख न पहुंचे | अगर हमने इस बात को जीवन में स्वीकार नहीं किया तो उस गुरु और शिष्य की सी दशा हमारी भी होगी | जिस कर्म को हम कर्ता बनकर पुण्य-कर्म मानकर करेंगे वह पाप-कर्म भी हो सकता है | अतः केवल आपके कर्मों से किसी को पीड़ा न पहूंचे यह सदैव स्मृति में रखें |
पाप और पुण्य का विचार तभी तक आपके साथ रहेगा जब आप किसी की सहायता करने का संकल्प करेंगे अथवा जब आप अपने स्तर पर कर्म करते हुए अपने को पुण्यात्मा बनाने का प्रयास करेंगे | अगर पुण्यात्मा बनने की भावना आपके भीतर नहीं है तो फिर कोई भी कर्म पाप-कर्म अथवा पुण्य-कर्म नहीं हो सकता | ऐसे में आप सही मायने में कर्म-योगी हो |
मन, गुण और पाप-पुण्य कर्मों से सम्बंधित इतने लम्बे विवेचन से कुछ जीवन-सूत्र स्पष्ट हुए हैं, उनका अवलोकन कर लेते हैं |
1.मन की भूमिका प्रत्येक इन्द्रिय-विषय के अवलोकन में रहती है | मन गुणों के आवरण से घिरा रहता है जिससे वह विषयों को भी उन गुणों के आधार पर देखता है |
2. मन उन्हीं गुणों के आधार पर कर्म करने का आदेश देता है |
3.मन को अमन बना देने से हमारे सभी कर्म अकर्म बन सकेंगे |
4. मन अमन तभी होगा जब वह गुणों से मुक्ति पा लेगा |
5. कर्तापन ही हमें पाप और पुण्य की ओर ले जाता है | अगर हमारे में कर्तापन नहीं हो तो न तो कोई पुण्य कर्म है और न ही कोई पाप कर्म |
अब आते हैं, पुनः गुणातीत अवस्था को प्राप्त करने की ओर | गुणों से परे जाने में बाधा बनती है, हमारे जीवन में आने वाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ | अनुकूल परिस्थिति हमें सुख का आभास करवाती है जबकि प्रतिकूल परिस्थिति में हम दुखी हो जाते हैं |
सुखमध्ये स्थितं दुखम् दुःखमध्ये स्थितं सुखम् |
द्वयमन्योSन्यसंयुक्तं प्रोच्यते जलपंकवत् || अध्यात्म रामायण-2/6/14||
सुख के भीतर दुःख और दुःख के भीतर सुख सर्वदा रहता है | ये दोनों जल और कीचड के समान साथ साथ रहते हैं |
सभी के जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियां आती जाती रहती हैं | इन परिस्थितियों का मन पर भी प्रभाव पड़ता है | जीवन में प्रतिकूल परिस्थिति से मन पर पड़ने वाले प्रभाव का संज्ञान लेना आवश्यक है | प्रतिकूल परिस्थिति का समय जीवन में ऐसा समय है, जो व्यक्ति को परिमार्जित कर सकता है क्योंकि इसी समय मन के स्थान पर व्यक्ति बुद्धि का सहारा लेना चाहता है | वह परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए जानना चाहता है कि इसके लिए कौन उत्तरदायी है ? विश्लेषण बुद्धि कर सकती है मन नहीं | मन तो ऐसी परिस्थिति से प्रभावित होकर केवल रोने बैठ जाता है | मन तो दुःख आता है तो भी रोते हुए सुख की ही कामना करता रहता है | हम यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक सुख की पृष्ठभूमि में दुःख अवश्य ही रहता है और दुःख की पृष्ठभूमि में सुख | दोनों एक दूसरे के पीछे लगे रहते हैं | अतः बुद्धिमान मनुष्य सुख-दुःख में उलझता नहीं है बल्कि एक दृष्टा की भांति उनके प्रभाव को देखता है | जीवन में दुःख का आगमन हुए बिना विकास होना संभव नहीं है | इस दृष्टि से सुख के साथ दुःख का होना आवश्यक है | जिसका होना आवश्यक है, वह अपना बनाया नहीं है अपितु उसी से मिला है, जिसने भोग चाहने वालों को कर्म सामग्री और मोक्ष चाहने वालों को विवेक प्रदान किया है | कर्म-सामग्री कर्म-अनुष्ठान का फल नहीं है क्योंकि कर्म-सामग्री हमें कर्म-अनुष्ठान से पूर्व प्राप्त हुई है | इसका अर्थ हमें भली-भांति समझना चाहिए | इसका अर्थ है कि जो कुछ भी मिला हुआ है, वह अपना नहीं है | अतः जीवन में जो कुछ भी मिला हुआ है, हमें उसी में संतोष करके उसका सदुपयोग करना चाहिए |
दुःख को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – निर्जीव-दुःख और सजीव-दुःख | निर्जीव-दुःख में दुखी व्यक्ति सुख की आशा में दुःख को भोगता रहता है अर्थात वह सोचता है कि आज नहीं तो जीवन में कल सुख अवश्य ही मिलेगा | सजीव-दुःख में दुखी व्यक्ति सुख की आशा से रहित होकर दुःख का प्रभाव देखता है और उससे निवृति की आवश्यकता अनुभव करता है | निर्जीव दुःख तो सभी प्राणियों को होता है परन्तु सजीव दुःख उन्हीं प्राणियों को होता है, जिन्हें विवेक मिला हो | केवल मात्र मनुष्य ही वह प्राणी है, जिसे विवेक मिला है |
हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि एक तो होता है दुःख का भोग और एक होता है दुःख का प्रभाव | हमें दुःख के प्रभाव को देखना है और यह प्रभाव केवल बुद्धि के माध्यम से ही देखा जा सकता है, मन के माध्यम से नहीं | मन तो केवल दुःख और सुख दोनों का भोग करता है | जिसने सुख-दुःख के प्रभाव को बुद्धि के माध्यम से देखना सीख लिया उसका विवेक तत्काल ही जाग्रत हो जाता है | जाग्रत विवेक फिर इनको (सुख-दुःख को) भोगने से ऊपर उठ जाता है और मन पर से गुणों का आवरण हटाने में सहायक बन जाता है |
विवेक का सदुपयोग करने से गुणों की प्रकृति समझ में आने लगती है और हम गुणों की प्रकृति में निरंतर सुधार की ओर अग्रसर होने लगते हैं | जब सत्व गुण की प्रधानता जीवन में आ जाती है तो फिर गुणातीत होने में अधिक समय नहीं लगता | सत्व गुण में आकर भी ठहरना नहीं है बल्कि निरंतर विवेकवान बने रहकर गुणातीत हो जाना ही जीवन में हमारा लक्ष्य होना चाहिए |
ब्रहमलीन परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख की बात को बहुत ही सरल शब्दों के माध्यम से स्पष्ट करते हैं | वे कहते हैं कि मनुष्य सदैव ही संयोगजन्य सुख चाहता है | संयोग विषयों और इन्द्रियों का | इस सुख उपभोग के कारण मनुष्य में अहंता और ममता उत्पन्न हो जाती है | अहंता इस बात की कि मैं अपने प्रयास से इस सुख का उपभोग कर रहा हूँ और ममता इस बात से कि उसे यह सुख प्रिय लगने लगा है | मनुष्य चाहता है कि यह सुख सदैव मिलता रहे | अहंता और ममता आसक्त करती है, उस विषय भोग के प्रति और उस कर्म के प्रति भी जिसके करने से वह भोग उपलब्ध हुआ है | स्वामीजी कहते हैं कि कर्मयोग में पहले ममता समाप्त होती है और फिर अहंता जबकि ज्ञान योग में पहले अहंता समाप्त होती और फिर ममता | भक्ति योग में अहंता और ममता रहती तो है परन्तु वे रहती है परमात्मा के प्रति, संसार के प्रति नहीं |
गुणों में सुधार लाने के लिए परिस्थितियों के साथ-साथ मार्गदर्शक की भूमिका भी बड़ी महत्वपूर्ण होती है | रत्नाकर एक डाकू था, उसे नारदजी जैसे मार्गदर्शक मिले तो वे समय पाकर आदि कवि वाल्मीकि बन गए | परन्तु क्या जीवन में सभी को नारदजी जैसे मार्गदर्शक मिल सकते हैं ? महाभारत के आदि पर्व में लिखा है- ‘सन्तः प्रतिष्ठा हि सुखच्युतानाम्’ (88/12) अर्थात सुख से वंचित, निराश्रितों के लिए संत ही एक मात्र श्रेष्ठ आश्रय है | इसलिए सुख और दुःख से परे जाने के लिए गुरु की महता से इंकार नहीं किया जा सकता |
रत्नाकर अपने जीवन में राहगीरों को लूटने का कार्य करता था क्योंकि उसकी विमाता भीलनी अपनी जीविका चलाने के लिए इसी प्रकार का कार्य करती थी | इसी कार्य में उसने रत्नाकर को भी प्रशिक्षित कर दिया था | संयोग देखिये ! एक दिन परिस्थिति बदलती है और राह चलते देवर्षि नारद से उसका सामना हो जाता है | नारद के पास लुट जाने के लिए वीणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं था लेकिन रत्नाकर उस वीणा को भी लूटने के लिए आतुर हो जाता है | नारदजी बहुत समझाते हैं कि वीणा एक डाकू के किस काम की ? नारद तो वीणा बजाते हुए और नारायण नारायण कहते त्रिलोकी की यात्रा करते रहते हैं | परन्तु तमस गुण से आवृत रत्नाकर का मन तो अज्ञान से ओतप्रोत था, भला वह उनकी क्यों सुनने लगा ?
देवर्षि नारद उस डाकू को लूट-पाट छोड़ देने के लिए विविध प्रकार से ज्ञान देने लगे परन्तु रत्नाकर के पास यह सब सुनने का समय ही कहाँ था | हम भी तो जीवन में भोग-संग्रह के लिए एक प्रकार की लूटपाट में ही तो लगे हुए हैं और हमारे पास भी रत्नाकर की तरह सन्तो को सुनने का समय कहाँ है ? शायद रत्नाकर ने अपने किसी जीवन में कुछ अच्छे कर्म भी किये होंगे जो नारदजी जैसे संत से उनका सामना हुआ | अंततः नारदजी ने कहा कि मैं अपनी वीणा तुम्हें देने को तैयार हूँ परन्तु पहले अपने परिवारजनों को पूछ कर आना होगा कि वे तुम्हारे द्वारा किये जाने वाले इस अशुभ कर्म का जिम्मेवार अपने आपको मानते हैं अथवा नहीं | अगर वे इन कर्मों को करने में तुम्हारे सहायक हैं, तो उनको भी तुम्हारे इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा |
एक विशाल वटवृक्ष से नारदजी को बांधकर रत्नाकर वन में अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़ता है और परिवार के प्रत्येक सदस्य से एक ही प्रश्न करता है – ‘मेरे द्वारा परिवार के भरण-पोषण के लिए किये जाने वाले प्रत्येक कर्म के आप भी साझीदार हैं अथवा नहीं ?’ सभी इस प्रश्न के उत्तर में ना कह देते हैं | वे कहते हैं कि हमारे भरण-पोषण की जिम्मेवारी आपकी है | आप इसके लिए कौन सा कर्म करते हैं, वह आप जाने, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं है |
रत्नाकर की आँखें खुल जाती है | बुद्धि तत्काल ही मन से छिटककर अलग हो जाती है और विवेक जाग्रत हो जाता है | एक छलांग लगती है और तमोगुण में आकंठ डूबा व्यक्ति सत्व गुण प्रधान व्यक्ति में परिवर्तित हो जाता है | लौटकर देवर्षि को वटवृक्ष से खोलकर पैरों में गिर जाता है और क्षमा मांगता है | आज उसके अज्ञानी जीवन में ज्ञान का प्रकाश फ़ैल जाता है | यही डाकू रत्नाकर कालांतर में महर्षि वाल्मीकि बन जाता है | क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि योगवासिष्ठ और रामायण जैसे महाकाव्य एक पूर्व डाकू द्वारा लिखे जा सकते हैं | आप मानें अथवा न मानें, व्यक्ति के गुणों में आया परिवर्तन सब कुछ संभव कर सकता है ।
प्रत्येक मनुष्य जीवन में सुख चाहता है, दुःख की चाहना कोई नहीं करता फिर भी सुख के पीछे पीछे दुःख अवश्य ही आता है | दुःख का पीछा करने का कारण है-गुण | मनुष्य एक गुण के प्रभाव में रहते हुए उसी गुण से एक ही प्रकार का सुख चाहता रहता है | कुछ समय बाद वही सुख दुःख में परिवर्तित होने लगता है | जब मनुष्य दुःख से व्यथित होता है, फिर वह उसी गुण के प्रभाव क्षेत्र में ही रहते हुए पूर्व में मिले सुख को पुनः प्राप्त करने की कामना करता है | यही प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती है और मनुष्य सुख-दुःख के चक्र से बाहर नहीं निकल पाता | सुख से दुःख कुछ समय के लिए दब अवश्य जाता है परन्तु कुछ समय बाद दुःख पुनः आ धमकता है जबकि आनंद से दुःख पूर्णतया मिट जाता है | इच्छाओं की पूर्ति से सुख होता है जबकि इच्छाओं की निवृति से आनंद होता है | अतः दुःख का स्थाई समाधान इच्छाओं की निवृति में ही है |
एक गुण के प्रभाव क्षेत्र में रहते हुए जब सुख-दुःख का चक्र अटूट बनने लगता है तब मनुष्य को इस चक्र को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए | सुख-दुःख के इस चक्र को तोड़ने का प्रयास है - गुणों के प्रभाव क्षेत्र को परिवर्तित करना अर्थात जीवन में उच्च गुण की प्रधानता स्थापित करना | एक गुण की प्रधानता से दूसरे गुण की प्रधानता में जाना मनुष्य की इच्छा-शक्ति और प्रयास पर निर्भर करता है | इस प्रकार सतत प्रयास कर व्यक्ति सात्विक गुण की प्रधानता अपने जीवन में ला सकता है | गुणों में परिवर्तन करना केवल मनुष्य जीवन में ही संभव है जोकि उसके जीवन को पशु जीवन से भिन्न बनाता है | धर्म के अनुसार आचरण करना गुणों में परिवर्तन करने के लिए मुख्य कारक है | इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य को अपने जीवन में धर्मानुकूल आचरण करते रहना चाहिए |
धर्म से विमुख व्यक्ति अज्ञान को ज्ञान समझने लगता है जोकि उसके आचरण में झलकने लगता है | वह बाहर से भले कितना ही निर्भय प्रतीत हो रहा हो, भीतर से वह सदैव भयग्रस्त बना रहता है | तामसिक गुण की प्रधानता वाले मनुष्य में भय ही उसके दुःख का मुख्य कारण होता है | ऐसा मनुष्य जीवन में अकारण ही बहुत हिंसाएँ करता है और कई लोगों को अपने क्रिया कलापों से दुखी करता है ।
व्यक्ति कितना ही बलशाली क्यों न हो, मृत्यु का भय सबको सताता है | तमस गुण प्रधान व्यक्ति को यह मरने का भय सबसे अधिक परेशान करता है | इस भय से मुक्ति के लिए वह उन व्यक्तियों को रास्ते से हटाता रहता है जिनसे उसके जीवन को खतरा हो सकता है | यह ऐसी अवस्था है जिसमें मनुष्य एक गुण में रहते हुए ही भय के दुःख से मुक्त होना चाहता है, जिसके लिए वह हिंसा का सहारा लेता है | जबकि ऐसे मनुष्य को अपने प्रयास से गुण की प्रधानता परिवर्तित करनी चाहिए जिससे वह तमस से रजस और फिर सत्व तक पहुँच कर भयमुक्त हो सके | इसके लिए केवल इच्छा शक्ति रख उस रास्ते पर चलने का प्रयास करना ही पर्याप्त होगा |
तमस से रजस और फिर सत्व गुण की अवस्था में आकर अंततः गुणों से पार निकलकर आत्म-बोध की अवस्था तक पहुंचना ही इस जीवन का लक्ष्य है | उत्तरोत्तर गुणों की अवस्था में परिवर्तन करने का आधार है, विवेक | बुद्धि प्रत्येक मनुष्य में होती है चाहे वह किसी गुण की प्रधानता वाला हो | जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि सभी प्राणियों में तीनो गुण उपस्थित रहते हैं और उन तीनों में से ही किसी एक गुण का प्रभाव उसमें अधिक रहता है | तामसिक गुणों के प्रभाव वाले मनुष्य में भी रजस और सत्व गुणों की उपस्थिति साथ में रहती है | जब तामसिक व्यक्ति विपरीत परिस्थिति में फंसता है तब सत्व गुण की सह उपस्थिति के कारण उसमें भी कुछ समय के लिए विवेक अवश्य ही जाग्रत होता है | उस विवेक की उपेक्षा कर देने से वह व्यक्ति अपने गुण की प्रमुखता को परिवर्तित नहीं कर सकता | परन्तु सौभाग्य से अगर वह विवेक का सम्मान कर ले तो उसकी गुणों की उपस्थिति तत्काल ही सुधर सकती है, जैसा कि डाकू रत्नाकर के साथ हुआ था | बस, आवश्यकता है उस जाग्रत विवेक को पहिचान कर उसका आदर करने की | इसमें व्यक्ति का अभ्यास काम आता है और वह अभ्यास है विवेक को पहचान कर उसके अनुसार आचरण करना |
अभी तक की चर्चा में हम गुणातीत होने के लिए गुणों के स्तर में उत्तरोत्तर सुधार की बात कर रहे थे | इस सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका विवेक की रहती है | विवेक जाग्रत हो जाये तो वह व्यक्ति को निम्न स्तर से सर्वोच्च स्तर तक ले जा सकता है परन्तु आवश्यकता है वह अपने भीतर की प्रत्येक कामना का त्याग कर दे | कामना पूर्ति का प्रयास विवेक की उपेक्षा करने लगता है | कामना पूर्ति के प्रयास का नाम है – संकल्प | संकल्प से कर्ता, करण (प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि) से चेष्टा कर कर्म करता है | इन करण (साधनों) से चेष्टा, बिना संकल्प के भी होती रहती है; फिर मनुष्य व्यर्थ ही संकल्प क्यों करता है ?
संकल्प मनुष्य को बंधन में डालते हैं क्योंकि संकल्प से कामनाओं को दृढता मिलती है | जब तक मन कामना रहित नहीं होगा तब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो सकता | शरीर में सभी कर्म गुणों की क्रियाओं के अनुसार होते हैं | आप चाहे कोई कर्म अपनी इच्छा से करना चाहो अथवा नहीं, कर्म तो आपके शरीर से सतत होते रहेंगे | जब तक देह रहेगी कर्म भी होंगे | कर्मों से मुक्त होना तभी संभव है जब कर्म में कर्तापन नहीं हो, कर्म में आसक्ति नहीं हो | कामना के कारण ही संकल्प होते हैं और संकल्प से कामना पूर्ति के लिए काम्य-कर्म | काम्य-कर्म फिर आपको सफलता देकर लोभ और मद में उलझा देंगे अथवा असफलता का स्वाद चखाकर क्रोध की अग्नि में धकेल देंगे | अतः आवश्यकता है कि कर्म के न तो कर्ता बनें और न ही कामना पूर्ण करने का संकल्प लें | अगर संकल्प से दूर रहेंगे तो भी कर्म तो स्वतः होते ही रहेंगे |
इसी बात को स्पष्ट करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण कहती है –
यस्य स्युर्वीतसंकल्पाः प्राणेन्द्रियमनोधियाम् |
वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देह्स्थोSपि हि तद्गुणै ||11/11/14||
जिन के प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएँ बिना संकल्प के होती है, वे देह में रहते हुए भी उसके गुणों से मुक्त है |
मन पर पड़ा गुणों का आवरण ही मनुष्य को मुश्किल में डाल देता है | इन्द्रियों के विषयों को मन इसी आवरण से देखता है और एक बार उस विषय को भोग लेने के बाद उसी विषय को बार-बार भोगने की कामना करता है | यही कामनाएं पूरी होने के लिए मन से फिर संकल्प कराती है |
यहाँ आकर दो महत्वपूर्ण सूत्र सामने आये हैं –
1. मन को अमन बनाने के लिए सभी संकल्पों का त्याग करना आवश्यक है | संकल्प का अर्थ है, कामना को प्रत्येक स्थिति में पूर्ण करना, चाहे इसके लिए शुभ-अशुभ किसी भी प्रकार के कर्म करने पड़े |
2.मन पर पड़े गुणों के आवरण से मुक्त होना अर्थात गुणातीत की अवस्था को प्राप्त करना | गुणों के आवरण के हटते ही मन की दृष्टि भी तटस्थ हो जाएगी | गुणों के आवरण को हटाने में मार्गदर्शक (गुरु) की भूमिका महत्वपूर्ण होती है |
अब आते हैं, महत्वपूर्ण विषय “माया” पर, जिसमें हम सब उलझे हुए हैं | माया क्या है ? पूर्व में जो अहंता और ममता की चर्चा हुई थी, संयुक्त रूप से माया उसी का नाम है | इन्द्रियों के विषय, गुण, मन, आसक्ति और कामना मिलकर “माया” का निर्माण करते हैं | ‘माया’ वह जाल है जो मनुष्य को अपने आकर्षण के बल से बाँध लेता है | ‘माया’ का अपना आकर्षण होता है परन्तु अपने में उलझाने के लिए वह कतई उत्तरदायी नहीं है | उतरदायी हम है क्योंकि उस आकर्षण से हम माया की ओर आकर्षित हो जाते हैं | मनुष्य जीवन मिला ही इसीलिए है कि हम इस ‘माया-जाल’ से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें परन्तु हम अपने जीवन में करते हैं इसके विपरीत | यही कारण है कि हम माया-जाल से निकलने के स्थान पर इसमें और अधिक उलझ जाते हैं | शरीर और माया का आपस में क्या सम्बन्ध है और इससे कैसे मुक्त हुआ जा सकता है ? आइये ! जानने का प्रयास करते हैं |
मनुष्य शरीर ही भगवान् को सबसे अधिक प्रिय है क्योंकि यही एक मात्र ऐसा शरीर है जिससे वे अपने (सच्चिदानंद) स्वरुप को देख सकते हैं | परमात्मा एक है और अकेले है इसलिए स्वयं ही अपना स्वरुप कैसे देख सकते हैं ? स्वरुप को देखने के लिए कम से कम दो की आवश्यकता रहती है – एक स्वरुप देखने वाला और दूसरा स्वरुप को दिखाने वाला | दिखाने वाला भले ही दर्पण ही हो परन्तु दर्पण मनुष्य का स्थान नहीं ले सकता क्योंकि दर्पण से स्वयं का प्रतिबिम्ब (Image) ही देखा जा सकता है स्वरूप नहीं |
श्रुति कहती है-
“स एकाकी न रमते |
स द्वितीयमैच्छत् |
स आत्मानं द्वेधा पातयत् |
पतिश्च पत्नीश्चाभवत् |”
(बृहदारण्यक उपनिषद - अध्याय 1 ब्राह्मण 4 मन्त्र 3)
–वे अकेले रमण नहीं करते |
-उन्होंने दूसरे की इच्छा की |
-उन्होंने अपने में से ही दूसरा स्वरुप प्रकट किया |
- वे ही पति बने और वे ही पत्नी बने |
श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान् कहते हैं – “तासां मे पौरुषी प्रिया”(11/7/22) अर्थात मुझे सब शरीरों में प्रियाधिक प्रिय मनुष्य का शरीर ही है | इसी प्रकार गोस्वामीजी भी भगवान् श्री राम के मुख से निकले परम वचनों को श्री रामचरितमानस में उद्घृत करते हैं –
सब मम प्रिय सब मम उपजाए | सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ||7/86/4||
शरीर और माया एक ही सिक्के के दो पहलू है | बिना शरीर के माया का अनुभव नहीं किया जा सकता और अंततः अनुभव होने पर पता चलता है कि शरीर भी माया के अंतर्गत ही है | शरीर में ही माया का ज्ञान करने वाली पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है | इन इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी हम देखते हैं यानि अनुभव करते हैं वह सब माया के अंतर्गत है |
श्री मद्भागवत महापुराण माया के सम्बन्ध में कहती है-
गुणैर्गुणान् स भुन्जान आत्मप्रद्योतीतै: प्रभुः |
मन्यमान इदं सृष्टमात्मानमिह सज्जते ||11/3/5||
वह देहाभिमानी जीव अंतर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पञ्च भूतों द्वारा निर्मित शरीर को अपना स्वरुप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है | इसी का नाम माया है |
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं-
मैं अरु मोर तोर तैं माया | जेहि बस कीन्हें जीव निकाया ||
गो गोचर जहँ लगि मन जाई | सो सब माया जानेहु भाई ||3/15/2-3||
भगवान् श्री राम लक्ष्मणजी को पञ्चवटी में माया के बारे में बतलाते हुए कह रहे हैं कि मैं मेरा और तू तेरा – यह माया है जिसने सभी जीवों को अपने बस में कर रखा है | जहां तक मन सहित सभी इन्द्रियों की पहुँच है, हे भाई ! उन सबको तुम माया ही समझना |
इसी प्रकार श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज उत्तरकाण्ड में भगवान् के मुख से निकले ज्ञान को व्यक्त करते हुए लिख रहे हैं कि -
मम माया संभव संसारा | जीव चराचर विविध प्रकारा ||7/86/3||
मेरी माया से ही संसार का होना संभव हुआ है | जितने भी प्रकार के जीव, चर-अचर जो कुछ भी यहाँ है, उन सबका होना मेरे कारण से ही संभव हुआ है |
कबीर माया के बारे में कहते हैं –
माया माया सब कहे, माया लखै न कोय |
जो मन से ना निसरे, माया जानिए सोय ||
मन और माया का गहरा सम्बन्ध है | माया की माया अपरमपार है, उसे समझना समझदार के लिए भी लगभग असंभव है | माया से निकलना तभी संभव है जब हम माया को जान सकें | माया को जानने के उपरांत भी कई महापुरुष माया के आकर्षण में बार-बार पड़ ही जाते हैं |
माया के भी दो रूप हैं – अविद्या और विद्या | जिस माया में सारा संसार उलझा हुआ है, उस माया को अविद्या कहा जाता है | माया भगवान् की बनाई हुयी है इसलिए असत नहीं हो सकती | हाँ, माया सत्य है परन्तु फिर भी उसे असत कहा जाता है क्योंकि माया नाम और रूप से ग्रस्त है | हम नाम और रूप को नष्ट होते हुए देखते हैं लेकिन तत्व को नष्ट नहीं किया जा सकता | माया सत्य है क्योंकि इसके पीछे सत्य है | यही कारण है कि माया को सत्य भी कहा जाता है | साथ ही यह भी सत्य है कि सत अव्यक्त है जबकि माया व्यक्त है | इस सिद्धांत के कारण माया असत हुयी | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि माया सत्य न होकर सत्य होने का भ्रम मात्र है | इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि माया न तो सत है और न ही असत | माया के सम्बन्ध में यह बहुत बड़ा विरोधाभास है कि एक दृष्टि से माया सत का भ्रम है और दूसरी दृष्टि से भ्रम नहीं भी है | माया को शब्दों के माध्यम से नहीं समझा जा सकता, इसको तो केवल अनुभव से ही समझा जा सकता है | इसीलिए माया को अनिर्वचनीय कहा जा सकता है अर्थात शब्दों से इसको समझ पाना असंभव है | गीता में माया के बारे में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||7/14||
मेरी यह गुणमयी माया दुरत्यय है अर्थात इससे पार पाना कठिन है | जो केवल मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया से पार हो जाते हैं |
भगवान् कह रहे हैं कि यह माया मेरी है, इस प्रकार माया भी सत हुई | परन्तु जब मनुष्य माया को अपना मान लेता है तब वह माया के चक्कर में पड़कर उससे बन्ध जाता है, तब यही माया असत हो जाती है | जो विद्या माया है वह भगवान की माया है जिसे उपरोक्त श्लोक में “मम माया” नाम से कहा गया है | अविद्या माया वह माया है जिसे हम अपना मानते हुए उसमें उलझ जाते हैं |
जो सत्य वस्तु को जान लेता है, वह माया में भ्रम नहीं बल्कि उसमें सत्यता देखता है | जिसे सत्य का ज्ञान नहीं है, वह माया में भ्रम देखता है और उस भ्रम को ही सत्य समझ लेता है | आदि गुरु शंकराचार्यजी महाराज कहते हैं-
माया मायाकर्यं सर्वं महदादि देह्पर्यन्तम् |
असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् || विवेक चूड़ामणि-125||
माया और महतत्व से देहपर्यंत माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुस्थल में दिखलाई पड़ने वाली मरीचिका के समान असत अनात्म जान | जैसे रेगिस्तान में ग्रीष्मकाल की तप्त दुपहरी में सपाट मरुस्थल में जल होने का भ्रम होता है, जल होता नहीं है वैसे ही माया में भी कुछ कुछ अपना सा होने का भ्रम होता है परन्तु वास्तव में व्यक्तिगत कुछ भी होता नहीं है | सायंकाल होते ही जिस प्रकार मरीचिका में जल होने का आभास चला जाता है उसी प्रकार सत्य जानने से माया भी तिरोहित हो जाती है |
माया की दो शक्तियां है- एक आवरण शक्ति और दूसरी विक्षेप शक्ति | माया की प्रथम शक्ति का आवरण स्वरुप पर (सच्चिदानंद स्वरुप पर) रहता है और माया की दूसरी शक्ति के कारण मनुष्य की दृष्टि परमात्मा से विक्षेपित होकर संसार पर जाकर केन्द्रित हो जाती है | स्वरुप पर आवरण का तो कारण अज्ञान है और संसार पर दृष्टि रखने का कारण अविद्या है | इससे स्पष्ट है कि माया तो कारण है और संसार माया का कार्य है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि स्वयं के स्वरुप को न जानने का कारण हमारा अज्ञान है और शरीर को ही अपना स्वरुप समझते हुए संसार में रमण करते रहना अविद्या है |
हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा “श्रीरामकृष्णवचनामृत” (रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों का संकलन) का विवेचन (499) करते हुए कह रहे हैं कि ईश्वर में विद्या और अविद्या दोनों हैं | यह विद्या-माया जीव को ईश्वर की ओर ले जाती है जबकि अविद्या माया ईश्वर से जीव को बहकाकर दूर ले जाती है | विद्या की क्रीडा ज्ञान, भक्ति, दया और वैराग्य है अर्थात इन चारों को धारण करने से विद्या-माया हमें ईश्वर तक ले जा सकती है | ज्ञान, भक्ति, दया और वैराग्य का आश्रय लेने पर मनुष्य ईश्वर के पास पहुँच सकता है |
माया की महिमा बड़े से बड़े संत और भक्त ही पूर्ण रूप से नहीं समझ सके हैं | वे भी कई बार इसमें उलझ जाते हैं | भगवान् श्री राम के अनन्य भक्त महावीर हनुमानजी महाराज भी एक बार इस माया के चक्कर में पड़कर अपने प्रभु को नहीं पहिचान सके थे | बात उस समय की है जब ऋष्यमूक पर्वत पर वानरराज सुग्रीव अपने भाई बाली के भय से निवास कर रहे थे | बाली शाप वश उस पर्वत पर नहीं आ सकता था परन्तु सुग्रीव का पता लगाने के लिए समय समय पर वह अपने दूतों को वेश बदल बदल कर उस स्थान तक पहुँचने का प्रयास करता रहता था |
एक बार ऋष्यमूक पर्वत की ओर दो वनवासी युवकों को आते देखकर जब सुग्रीव भयग्रस्त हो गए थे तब हनुमान को उन वीर पुरुषों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा था | जब हनुमानजी ने विप्र वेश धारण कर उनके पास जाकर उनका परिचय जाना तब उन्हें आभास हुआ कि यह तो मेरे ही स्वामी है | उन्हें दुःख हुआ कि मैं सेवक होते हुए भी अपने प्रभु को कैसे भूल गया ? वहां पर गोस्वमीजी ने बहुत ही सुन्दर चोपाई हनुमानजी के मुख से कहलाई है-
तव माया बस फिरउं भुलाना | ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ||मानस-5/2/9||
“मैं माया के वश होकर आपको भूल कर इधर-उधर भटक रहा हूँ, इसी कारण से प्रभु, आपको पहिचान न सका |” भगवान् तो अपने सेवक को विप्र के वेश में भी पहिचान गए थे इसलिए उन्होंने तत्काल ही अपना वास्तविक परिचय दे दिया | भगवान् कभी भी अपने भक्त को भूला नहीं सकते | यही प्रभु की विशेषता है |
श्रीहरिः के परम भक्त, ब्रह्माजी के मानस पुत्र और त्रिलोकी में नारायण नारायण का जाप करते हुए निर्बाध घूमते रहने वाले नारदजी के मन में एक बार द्वापर युग में विचार आया कि भगवान् श्री कृष्ण के पास जाकर माया के सम्बन्ध में जानना और उसका अनुभव करना चाहिए | मन की गति से वे पहुँच गए द्वारका और भगवान् से कहने लगे – “मैं आपकी माया को एक बार देखना चाहता हूँ |” भगवान ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, बस अन्य विषय पर बात करते हुए किसी न किसी बहाने से टालते रहे | फिर भी प्रत्येक बार नारद भगवान् को अपनी माया दिखलाने का आग्रह करते रहे | इस प्रकार कई दिन निकल गए | नारदजी ने हारकर उनको माया के बारे में कहना ही छोड़ दिया |
वैसे इस संसार में चारों ओर माया ही माया है | परन्तु भगवान् के परम भक्तों पर माया का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है आखिर उन पर सदैव परमात्मा की दृष्टि जो बनी रहती है | फिर यहाँ तो पास में भगवान् के परम भक्त नारदजी हैं | साथ ही भगवान् को अपने प्रत्येक भक्त की प्रत्येक जिद्द भी तो पूरी करनी पड़ती है | साथ ही ध्यान भी रखना पड़ता है कि भक्त की जिद्द कहीं उसी पर भारी न पड़ जाये | जब भगवान् श्री कृष्ण ने देखा कि नारदजी अब माया के बारे में बात ही नहीं कर रहे है, तब भगवान् ने विचार किया कि अब इनको एक बार माया का प्रभाव दिखला ही देना चाहिए |
एक दिन उन्होंने नारदजी को कहा “चलिए, आज कहीं बाहर भ्रमण पर चलते हैं | कुछ समय टहल कर लौट आयेंगे | आपको द्वारका का भ्रमण भी करा देते हैं और आपकी कामना भी पूरी कर देते हैं |” नारदजी और श्री कृष्ण, भक्त और भगवान् द्वारका की सैर पर निकले हैं | टहलते टहलते घने जंगल में आगे की ओर बढ़ते जा रहे हैं | दोनों मूक बने हुए हैं, कौन किसको क्या कहे और कौन किससे क्या पूछे ? चलते चलते भगवान् थक गए थे और उन्हें प्यास भी लग आई थी | वे अपने भक्त नारद से बोले – “पास में ही कहीं कोई बस्ती होगी | यह एक पात्र ले जाएँ और जाकर किसी घर से इसमें मेरे लिए थोडा जल ले आइये, मुझे बहुत जोर की प्यास लगी है | थक भी गया हूँ, मैं यहाँ जरा विश्राम कर लेता हूँ | आप जल लेकर शीघ्र ही लौट आइये |”
नारदजी पात्र लेकर जल लाने के लिए चल पड़ते हैं | एक गाँव में एक घर से जल देने की याचना करते हैं | जल देने के लिए एक सुन्दर स्त्री घर से बाहर आती है | नारदजी उसके रूप-लावण्य पर लट्टू हो जाते हैं | जल लेना तो भूल जाते हैं और कन्या के पिताजी से उसका हाथ मांग लेते हैं | पिता के वह कन्या ही एक मात्र संतान थी | लड़की के पिताजी ने कहा कि एक शर्त पर आपका विवाह इससे कर सकता हूँ कि आपको जीवन भर हमारे साथ ही रहना होगा | नारदजी तो रूप-जाल में आकंठ फंस चुके थे | स्वयं की काम-पिपासा ने परमात्मा की प्यास को विस्मृत कर दिया | तत्काल ही हामी भरते हुए कन्या का पाणिग्रहण कर लिया ।
नारदजी की तरह ही हम भी अपनी इच्छा को सर्वोपरि मानते हैं और परमात्मा की इच्छा को भूला बैठते हैं | जबकि होना यह चाहिए कि हम अपनी इच्छा को परमात्मा की इच्छा में मिला दें | नारदजी ने विवाह कर अपने नए संसार में प्रवेश किया | धीरे-धीरे समय बीतता गया | नारदजी का जीवन आराम से चल रहा था | सुख में समय की धारा शीघ्रता से प्रवाहित होती है | समय पाकर वे दो बच्चों के पिता बन चुके थे | उन्होंने अपना ही एक संसार बसा लिया था, ऐसे में भला परमात्मा के लिए जल का स्मरण कहाँ से रहता | यहाँ तो नारदजी ने संसार में रच-बसकर जल को ही क्या परमात्मा तक को भी भूला बैठे हैं | अचानक एक दिन काल का पहिया घूमता है | अतिवृष्टि से गाँव में बाढ़ आ जाती है और नारदजी का घर बह जाता है | वे अपनी पत्नी को साथ लेकर बच्चों को कन्धों पर उठाकर गाँव से बाहर उफनती नदी को पार कर दूसरी और सुरक्षित स्थान को जाने लगते हैं | पहले पत्नी का हाथ छूटता है और वह उफनती नदी में बह जाती है | फिर एक एक कर दोनों बच्चे भी छूटकर बह जाते हैं | अंततः नदी के प्रचंड वेग में नारदजी के पाँव भी उखड जाते हैं और वे भी नदी की तेज धारा में बहने लगते हैं | जीवन की डोर टूटती देखकर वे चिल्लाने लगते हैं – ‘बचाओ बचाओ ....”
नारदजी का जोर से चिल्लाना सुनकर भगवान् श्री कृष्ण की नींद टूट जाती है | वे उठकर बैठ जाते हैं और पूछते हैं – “नारद, तुम आ गए ! लाओ, मेरा जल कहाँ है ?” यह सुनकर नारदजी की तन्द्रा टूटती है | “हे भगवान् ! एक पल में ही मैं कहाँ से कहाँ होकर घूम आया, क्या क्या कर आया ? यही वह माया है, जिसमें मनुष्य जीवन भर डूबता उतराता रहता है | सच है, भगवान् की माया प्रबल है | मुझे अब कभी भी माया के चक्कर में नहीं पड़ना है |”
नारदजी जैसे श्रीहरिः के परम भक्त भी माया जाल में कभी-कभी उलझ जाते हैं | काम को जीत लेना किसी ऐरे गैरे के वश की बात नहीं है जबकि नारदजी ने तो एक बार काम को स्पष्ट रूप से जीत ही लिया था | जीत तो लिया था, परन्तु कब तक ? हरि की माया बड़ी प्रबल है | समय समय पर सबकी परीक्षा लेती रहती है, चाहे वह ब्रह्मा के मानस पुत्र हों या श्री हरि के परम भक्त | नारदजी काम को जीते हुए अवश्य थे फिर भी उलझ गए भगवान् की माया में और हो गये काम के अधीन | विश्वमोहिनी के चक्कर में आकर काम के वश हो गए | जबकि विश्वमोहिनी नाम की कोई सुन्दरी न थी वहां पर, सब केवल उनकी परीक्षा के लिए भगवान् का फैलाया हुआ माया जाल था | त्रेता से द्वापर आ गया, पूरा एक युग बीत गया फिर भी बेचारे नारदजी .........| इसीलिए जीवन में माया से सदैव साव-चेत रहने की आवश्यकता है और ऐसा केवल भगवान् के निरंतर चिंतन से ही संभव हो सकता है |
भगवान् स्वयं कहते हैं – “योगमाया समावृत:” (गीता-7/25), योगमाया से आवृत होने के कारण काम के वशीभूत मनुष्य भगवान् को पहिचान नहीं पाता | यही हमारा अज्ञान है | अज्ञान से ज्ञान ढका रहता है | जो सर्वेश्वर है, वह भला कभी अदृश्य हो सकते हैं | नहीं, कभी नहीं | परन्तु माया का पर्दा, ईश्वर और मनुष्य के मध्य में आ जाता है जिससे परमात्मा दिखलाई नहीं पड़ते, परन्तु अनुपस्थित कभी नहीं होते | ऐसे ही माया जाल में उलझा मनुष्य परमात्मा के अस्तित्व तक को चुनौती दे डालता है और कहता है- परमात्मा नाम की कोई चीज है ही नहीं | अरे भले मानुष ! सूर्यग्रहण के दिन सूर्य और पृथ्वी के मध्य चंद्रमा आ जाता है, तो सूर्य अनुपस्थित थोडा ही हो जाता है, केवल कुछ समय के लिए दिखलाई नहीं पड़ता | सूर्य तो वैसे का वैसा, सम्पूर्ण रूप से और उसी स्थान पर स्थित है | इसी प्रकार माया के आवरण ने परमात्मा को अदृश्य कर रखा है, उन्हें मिटाया नहीं है | व्यक्ति की दृष्टि ऐसी विस्तृत और व्यापक होनी चाहिए कि माया के परदे के पीछे भी उस परमात्मा को देख सके |
माया को आप मिटा नहीं सकते क्योंकि यह प्रभु की माया है | जब तक परमात्मा है, माया भी साथ में रहेगी | हमें तो अपनी दृष्टि को इतनी पैनी बनाना है जिससे वह माया के आवरण को भेद सके | माया बेचारी क्या करेगी, माया तो तटस्थ है, उदासीन है | हमारा मन ही तटस्थ नहीं रह पाता और दोष माया को देते रहते हैं | माया को नष्ट नहीं किया जा सकता है | हाँ, माया के पार अवश्य ही जाया जा सकता है | हमें माया के पार जाना है, माया में उलझना नहीं है | माया से उलझोगे अथवा उसे नष्ट करने का प्रयास करोगे, तो उसमें और अधिक उलझते जाओगे और इसी उलझन में एक दिन यह शरीर भी नष्ट हो जायेगा | माया में उलझना आपको आवागमन में बार-बार डालता रहेगा जबकि मनुष्य शरीर आवागमन से मुक्त होने के लिए मिला है | जिस दिन हमें यह बात समझ में आ जाएगी, हम माया के साथ उलझेंगे नहीं बल्कि माया में रहते हुए ही माया के पार होने का रास्ता ढूंढ निकालेंगे | माया के इस छोर पर संसार है और उस छोर पर परमात्मा | इन दोनों को अलग-अलग सही रूप से जान लेना ही आत्म-बोध है | आत्म-बोध की अवस्था ही जीवन्मुक्त होने की अवस्था है और आवागमन से मुक्त हो जाने की भी |
प्रश्न उठता है कि माया के पार कैसे जाया जा सकता है ? माया के पार जाना आवश्यक है क्योंकि माया के उस पार ही तो हमारा घर है | घर, वह स्थान जहां से हम आये हैं और अपना काम कर पुनः वहाँ पर लौट जाना है | माया के रास्ते, माया के माध्यम से इस जगत में हम आनंद लेने के लिए आये हैं परन्तु जिस जगत को धर्मशाला मात्र समझना था, उसे समझ लिया अपना निवास स्थान | धर्मशाला में जिंदगी के चार दिन बिता सकते हैं, सदैव के लिए नहीं रह सकते | जिस कार्य के लिए यहाँ आये हैं, काम निपटाओ और छोड़ दो धर्मशाला को और पुनः लौट चलो अपने मूल स्थान पर |
माया मध्य में है - इधर संसार और उधर परमात्मा | जो माया संसार के संपर्क में है वह अविद्या माया है और जो परमात्मा के संपर्क में है वह विद्या माया है | इनको क्रमशः अपरा और परा प्रकृति भी कहा जा सकता है | इस परा प्रकृति ने ही जगत को धारण कर रखा है- ‘ययेदं धारयते जगत्’ (गीता-7/5) | संसार के साथ जो माया है उसको हमने अपना मान रखा है, इसलिए यह अविद्या माया है | हमें अविद्या माया से विद्या माया की ओर जाना है | अविद्या माया का कारण है, हमारा मन जो कि माया के गुणों से आवृत हो रखा है | मन जैसा इन्द्रियों के विषयों को गुणों के माध्यम से देखता है वैसा ही वह उसे समझ लेता है | यह उसकी छद्म दृष्टि है, वास्तविक नहीं | ऐसी दृष्टि से देखा गया दृश्य सत्य नहीं होता बल्कि मरीचिका की भांति होता है | हम इसी मरीचिका में फंसे हुए हैं और सुख-दुःख को ही जीवन की वास्तविकता समझ बैठे हैं | सुख-दुःख से परे चले जाना ही जीवन का सत्य है, वही आनंद है |
माया के आवरण को भेदने का प्रयास हम केवल दुःख की अवस्था अर्थात विपरीत परिस्थिति में ही करते हैं | जब हम उससे पार होने का प्रयास करते हैं तब यही माया फिर भविष्य में मिलने वाले सुख का प्रलोभन देकर हमें स्वयं से दूर जाने से रोक लेती है | साधारण मनुष्य प्रलोभन में फंस जाता है और आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता जबकि बुद्धिमान मनुष्य उसमे नहीं उलझता |
माया से पार होने की विधि क्या है ? ज्ञान की दृष्टि से देखें तो केवल मात्र एक ही रास्ता है – गुणों के आवरण से मन को मुक्त कर देना अर्थात गुणातीत हो जाना | मन के गुणों से मुक्त होते ही न तो इन्द्रियों के विषय आपको विचलित कर सकते है, न ही किसी प्रकार की विषयासक्ति होगी और न कोई सांसारिक कामना ही मन में उठेगी | फिर केवल एक कामना ही मन में रहेगी- आत्म-बोध की | सांसारिक कामना ‘काम’ कहलाती है और परमात्मा को पाने की कामना जीवन का लक्ष्य कहलाती है | यही इन दोनों प्रकार की कामनाओं में अंतर है | हमें अपने जीवन में काम भोग का लक्ष्य नहीं रखना है बल्कि आत्म-बोध का लक्ष्य रखना है | तभी हमारी संसार से मुक्ति होगी और माया के पार होकर परमात्मा तक पहुंचेंगे |
माया के इस ओर संसार है और उस ओर परमात्मा | हमें माया के पार जाना है | जीवन में कौन से कारण हैं जो हमें माया में उलझा के रखते है, उन्हें जानने और समझने से हमें माया के पार जाने का रास्ता मिलेगा | गुण, विषय, इन्द्रियों सहित शरीर और काम – इन चारों के समूह का नाम माया है | हमें ये चार ही माया की भूलभुलैया में जन्म दर जन्म भटकाते रहते हैं | गुणों की गुणवता में निरंतर सुधार करना हमारे जीवन के उत्थान का प्रथम सोपान है | हमें मन पर पड़े गुणों के आवरण में तमस और रजस गुण को दबाते हुए सत्व गुण में वृद्धि करनी होगी | इसके लिए इन्द्रियों से मन के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विषयों का त्याग करना होगा | यही कारण है कि राजा जनक को अष्टावक्र महाराज विषयों का त्याग करने के लिए कह रहे हैं-
मुक्तिमिच्छासि चेत्तात विषयान् विष्वत्त्यज |
क्षमार्जवदयातोषंसत्यं पियूषवद्भज ||अ.गीता-1/2||
हे प्रिय ! यदि तू मुक्ति चाहता है, तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य को अमृत समझकर उनका सेवन कर |
इन्द्रियों के विषयों को छोड़ने का अर्थ है, उन विषयों के प्रति उदासीन हो जाना | आधुनिक विज्ञान के अनुसार शरीर के रहते विषय कभी भी छोड़े नहीं जा सकते | रसना अगर रस का स्वाद बताती है, तो वह वही स्वाद बताएगी जो उस रस का वास्तविक स्वाद है | कान भी उसी प्रकार श्रवन करेंगे जैसा कि बोला गया है | उसी प्रकार आँखें भी उसी दृश्य को देखेगी, नाक भी उसी गंध का अनुभव करेगा और त्वचा भी उसी स्पर्श का अनुभव करेगी जिनके संपर्क में ये इन्द्रियाँ आएगी | कोई भी शक्ति इन इन्द्रियों से विषयों को अनुभव करने से रोक नहीं सकती | हाँ, अनुभव किये जाने वाले विषय को केवल अनुभव तक सीमित रखना हमारे हाथ में है | हमें अच्छे अथवा बुरे अनुभव के आधार पर विषयों का संग नहीं करना है | एक विषय हमें प्रिय लगता है तो उस विषय की ओर मन बार बार दौड़ने लगता है | ऐसी सोच का त्याग करना है, इसे ही विषयों का त्याग करना कहा गया है | इन्द्रियों के विषय, उसके प्रति आसक्ति और पुनः उस विषय को प्राप्त करने की कामना - ये तीन आपस में एक दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं | इनके जोड़ को तोड़ डालना सरल नहीं है | केवल विषयों के प्रति अनुरक्ति को तोड़ डालने से तीनों का त्याग सुगमता से हो जाता है |
विषयों के प्रति उदासीन हो जाने से केवल जीवन को उत्थान की ओर ले जाने की पात्रता मिलती है | अष्टावक्र कह रहे हैं कि विषयों का विष के समान त्याग कर देने के बाद मनुष्य को क्षमा, दया, सरलता, संतोष और सत्य को अमृत के समान जानकर उनका सेवन करे | इन पाँचों को अमृत के समान समझने का क्या कारण है ? इसका कारण है इनकी विषयों के विष से विमुख करने में भूमिका होती है | विषय स्वयं में तटस्थ है परन्तु उनसे मिलने वाले सुख-दुःख का भोग करना विष है | विषय-भोग फिर उस विषय के प्रति आसक्ति पैदा करता है | अतः विषय-भोग से बचने का उपाय है, विषयों के विष के स्थान पर सत्य, दया, सरलता, क्षमा और संतोष जैसे अमृत का पान करना |
क्षमा विषय-भोग में सहयोग करने अथवा बाधा डालने वाले तत्वों के प्रति उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष को मिटाती है | विषय-भोग मिलने से उस भोग के प्रति आसक्ति हो जाती है जोकि राग पैदा करती है और भोग के मिलने में बाधा डालने वाले के प्रति द्वेष | क्षमा, दया और सरलता को धारण करने से राग-द्वेष से दूर रहा जा सकता है | विषय-भोग के प्रति आसक्ति से विषय को बार-बार भोगने की कामना पैदा होती है | कामना पूर्ण हो गयी तो लोभ पैदा होता है और पूर्ण नहीं हुयी तो क्रोध उत्पन्न होता है | जो मिला है, उसमें संतोष कर लें तो न तो लोभ पैदा होगा और न ही क्रोध | क्षमा, सरलता, दया, संतोष और सत्य को धारण करने से विषयों के प्रति अनासक्त हुआ जा सकता है |
इस प्रकार अभी तक हुए विवेचन से स्पष्ट है कि विषयों को मन के माध्यम से सही दृष्टि से देखें और प्रारब्ध के कारण मिल रहे उन सभी भोगों को त्यागपूर्वक भोगें | ईशावास्योपनिषद यही कहती है – “त्येन त्यक्तेन भुंजीथा” अर्थात मिले हुए विषय-भोग को त्यागपूर्वक भोगो | यही बात अष्टावक्र जी भी कह रहे हैं | त्याग पूर्वक भोगने से विषय-भोग के प्रति आसक्ति पैदा नहीं होगी और न ही उनको बार-बार पाने की कामना मन में उठेगी | स्पष्ट है कि विषय-भोग ही आसक्ति और कामना के मूल में है |
अभी तक के विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य परमात्मा की माया के जाल में फंसकर रह जाता है | उस जाल से निकलने में उसे जन्म जन्मान्तर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है | यह प्रतीक्षा और लम्बी हो जाती है, जब परमात्मा की माया को वह अपनी माया ही समझ बैठता है | माया प्रकृति का ही नाम है | प्रकृति अक्रिय है और जब यह क्रियाशील हो जाती है तब माया कहलाने लगती है | क्रियाशील प्रकृति अर्थात माया के वशीभूत होकर जीव इसमें भटकने लगता है | भटकने का कारण है, स्वयं को माया का ही होना मान लेना | शरीर माया का अंग है, हम नहीं | इस माया के चक्र से बाहर निकलना कोई हंसी खेल नहीं है | माया के पार जाने के लिए हमें मन को अमन करना होगा |
कबीर कहते हैं –
माया माया सब करे, माया लखै न कोय |
जो मन से न उतरे, जानिए माया सोय ||
माया हमारे मन का ही खेल है | दूसरी दृष्टि से देखे तो माया परमात्मा के मन का खेल भी है | दोनों के खेल में एक मूलभूत अंतर है | हम माया के खेल में उलझ बैठे हैं और सुख-दुःख भोग रहे हैं जबकि परमात्मा हमारे माध्यम से केवल इस खेल का आनंद ले रहे हैं | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कहा जा सकता है कि हम स्वयं भी परमात्मा ही हैं अगर माया को मन से निकाल दें | माया को केवल क्रीडा समझकर उसका आनंद लें, उसमें फंसे नहीं | माया पर हुए इस महत्वपूर्ण विवेचन से दो सूत्र निकल कर हमारे समक्ष आए है –
1.जीवन में मैं, मेरा, तू और तेरा की भावना का त्याग कर दें | यही माया है जिसने हम सबको भ्रम में डाल रखा है |
2. माया का आवरण हटते ही मन भी शुद्ध हो जायेगा और एक परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, यह बोध भी हो जायेगा | यही आत्म-बोध है |
अब प्रश्न उठता है कि अगर माया भ्रम है, जिसने हमें संसार में उलझा रखा है, तो फिर सत्य क्या है ? अष्टावक्र जी कर रहे हैं कि विषयों को विष के समान छोड़कर क्षमा, दया, सरलता, संतोष और सत्य का अमृत के समान पान करो | सत्य तक पहुँचने में इनकी महत्वपूर्ण सहायक भूमिका है | सत्य अचिंतनीय है अर्थात चिंतन का विषय नहीं है बल्कि अनुभव का विषय है | फिर भी उसका चिंतन आपको सत्य तक पहुँचने का मार्ग तो प्रशस्त करता ही है |
सत्य क्या है ? इस पर विवेचन प्रारम्भ करने से पहले एक बात का संज्ञान लेना आवश्यक है कि भ्रम केवल माया से ही अस्तित्व में नहीं आता बल्कि भ्रम को पैदा करने में सत्य की भी कमोबेश भूमिका रहती है | सत्य जब प्रकट होता है तब सही दृष्टि में सत्य ही होता है परन्तु यह जब माया की छलनी से छनकर हम तक पहुंचता है, उसका स्वरुप बदल जाता है अर्थात सत्य को अगर सांसारिक दृष्टि से देखा जाये तो वह भ्रम ही प्रतीत होता है | इसलिए कहा जा सकता है कि बिना सत्य की पृष्ठभूमि के भ्रम अस्तित्वहीन है यानि बिना सत्य की उपस्थिति के भ्रम होने की सम्भावना बहुत कम रहती है |
क्रमशः
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