यज्ञ
यज्ञ क्या है ? हम प्रायः अग्नि में घृत
आदि की आहुति देने को ही यज्ञ समझ बैठे हैं | यज्ञ को केवल मात्र इसी एक क्रिया से
नहीं समझा जा सकता | यज्ञ अपने आप में विस्तार लिए हुए एक शब्द है जिसकी परिभाषा
करना इतना सरल नहीं है | अल्प रूप से कहा जाये तो कहा जा सकता है कि लोक
कल्याणार्थ किए जाने वाले कर्म यज्ञ कहलाते हैं | परमात्मा के लिए किये जाने वाले
समस्त कर्मों को भी यज्ञ कहा जाता है | यज्ञ परमात्मा से योग करने का एक साधन है |
साधन वह होता है जो हमें साध्य तक पहुंचा दे | परमात्मा तक पहुँचने के कई साधन है,
जिसमें यज्ञ भी एक साधन है | सबसे पहले हम इन विभिन्न साधनों के बारे में अल्प
चर्चा कर लेते हैं |
किसी भी साधन के उपयोग करने को साधना कहा
जाता है | हमारी साधना ही हमें साध्य तक पहुंचा सकती है | साध्य तक पहुँचने के लिए
प्रथम साधना है, विवेक | हमें मनुष्य जीवन में अपने विवेक का उपयोग करना आना चाहिए
| जीवन में विवेक आहार से लेकर सभी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने के लिए आवश्यक
है | जिस व्यक्ति में अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने की क्षमता नहीं है,
समझ लीजिये, वह अपने विवेक का उपयोग नहीं कर रहा है |
दूसरी
साधना है, विमोक अर्थात कामनाओं से मुक्ति | जब तक मन में कामनाएं उठती रहेगी तब
तक हम संसार के बंधन में पड़े रहेंगे, उससे मुक्त न हो सकेंगे | यदि यह संसार ही
मनुष्य जीवन का ध्येय होता तो हम इस भौतिक शरीर में ही अमर हो जाते | हमें
परमात्मा तक ले जाने तक यह संसार एक साधन बने, तभी तक संसार हमारे लिए ठीक है |
हमारा संसार है, हमारे पारिवारिक सदस्य जैसे पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि, धन-सम्पति
आदि | इनसे सम्बन्ध रखना तभी तक उचित है जब तक हमारी उन्नति में ये योगदान करते हों
अन्यथा इनसे सम्बन्ध रखने का कोई औचित्य नहीं है |
तीसरी साधना है, अभ्यास | मन की गति को संसार से
हटाकर परमात्मा की ओर करने का अभ्यास | हमें ध्यान रखना होगा कि मन सदैव परमात्मा
में ही लगा रहे, परमात्मा का ही चिंतन करता रहे | जैसे तेल को एक पात्र से दूसरे
पात्र में डालते समय उसकी धारा को सतत प्रवाहित बनाये रखना पड़ता है, वैसे ही इस चंचल
मन का प्रवाह सदैव परमात्मा की ओर ही बनाये रखना होगा | इसी को अभ्यास कहा जाता है
| जप और भजन-कीर्तन आदि इसमें मुख्य
भूमिका निभाते हैं | परमात्मा में मन को सदैव लगाये रखने के लिए किये जाने वाले
अभ्यास में संगीत सबसे बड़ा सहायक है | भक्ति के महान आचार्य नारद से भगवान् श्री
हरि कहते हैं –
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च |
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||पद्म
पुराण उ.खण्ड-14/23||
अर्थात हे नारद, न मैं
वैकुण्ठ में रहता हूँ, न योगियों के ह्रदय में ही | मैं तो वहीँ रहता हूँ, जहाँ
मेरे भक्तगण मेरा गान करते हैं |
चतुर्थ साधना है, पवित्रता | पवित्रता
के अंतर्गत कई बातें आ जाती हैं जिनमें प्रमुख है- सत्यता, आर्जव अर्थात सरलता,
दया, अहिंसा, दान, चित्त की प्रसन्नता आदि | शरीर के बाहर और भीतर की शुद्धता हमें
परमात्मा की ओर ले जाने में सहायक सिद्ध होती है |
पांचवीं साधना है, क्रिया | क्रिया स्वयं के लिए
नहीं बल्कि दूसरों की भलाई के लिए | क्रिया ही कर्म है और दूसरों की भलाई के लिए
किये जाने वाले कर्म ही यज्ञ कहलाते हैं |
यह स्पष्ट है कि परमात्मा से योग का एक साधन
यज्ञ भी है | गीता में तो भगवान् श्री कृष्ण यहाँ तक कह देते हैं कि मैं यज्ञ में सदैव
प्रतिष्ठित हूँ | इस प्रकार ये पांच मुख्य साधन हैं जो हमें अपने साध्य तक पहुंचा
सकते हैं | पांचवा साधन है, क्रिया | क्रिया की भूमिका यज्ञ में होती है | कल से
हम श्रृंखला के मुख्य विषय ‘यज्ञ’ पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे |
यज्ञ के बारे में श्री कृष्ण गीता में
अर्जुन को कह रहे हैं –
यज्ञार्थत्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं
कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः
समाचर || 3/9 ||
अर्थात यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले
कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ प्राणी समुदाय कर्मों से बंधता है |
इसलिए हे कौन्तेय ! तू अनासक्त होकर उस यज्ञ के निमित कर्तव्य कर्म कर |
इस श्लोक से यज्ञ की परिभाषा भी स्पष्ट हो
जाती है कि संसार की सेवा के लिए किये जाने वाले कर्म ही यज्ञ कहलाते है | इसके
अतिरिक्त जो भी सकाम कर्म है, जो कर्म स्वार्थपूर्ति हेतु किये जाते है, वे सभी
कर्म बंधन पैदा करते हैं | यज्ञ-कर्म, बंधन से मुक्त होते हैं | मनुष्य में केवल
वे ही कर्म बंधन पैदा करते हैं, जो कर्म स्वार्थपूर्ति हेतु किये जाते हैं | जन
कल्याणार्थ किये जाने वाले कर्म प्रायः बंधन से मुक्त होते हैं |
मनुष्य जीवन में यज्ञ की आवश्यकता क्या है
? आगे इस बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं –
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच
प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोSस्त्विष्टकामधुक्
||3/10||
अर्थात प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि
में यज्ञ सहित कर्मों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग यज्ञ के द्वारा वृद्धि को
प्राप्त होओ | यह यज्ञ तुम्हें इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |
इस श्लोक से स्पष्ट है कि यज्ञ में
कर्मों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | बिना कर्म के यज्ञ संपन्न होना संभव ही
नहीं है | परोक्ष रूप से कहा जा सकता है कि कर्म ही यज्ञ है और यज्ञ ही कर्म है | भगवान्
श्री कृष्ण ने गीता में कई स्थानों पर यज्ञ को स्पष्ट किया है | तृतीय एवं चतुर्थ
अध्याय में तो उन्होंने यज्ञ को विस्तार से समझाया भी है | इसीलिए गीता को कर्म-योग
का ग्रन्थ कहा गया है |
भगवान् श्री कृष्ण यज्ञ-कर्म ही क्यों करने
आवश्यक है, इसको समझाते हुए अर्जुन को कह रहे हैं कि -
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह
यः |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स
जीवति ||3/16||
अर्थात हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में
परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं चलता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन
नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पुरुष व्यर्थ ही जीता
है |
सृष्टि-चक्र देने और लेने पर ही
टिका हुआ है | जहाँ केवल लेने ही लेने का भाव रहता है, वहां सृष्टि-चक्र का संतुलन
बिगड़ जाता है और प्रकृति के कोप के रूप में उसके दुष्परिणाम मनुष्य के साथ-साथ सभी
प्राणियों को भुगतने पड़ते हैं |
यज्ञ से क्या तात्पर्य है ? यज्ञ का तात्पर्य है- त्याग,
बलिदान, शुभ कर्म | यज्ञ
को यजन भी कहा जाता है | यजन शब्द यज् धातु से बना है | यज् का अर्थ समर्पण से
होता है | पदार्थ (ईंधन, घी आदि), कर्म (सेवा, तर्पण), श्राद्ध, योग, इन्द्रिय
निग्रह इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है | अग्नि-कुण्ड में
अग्नि के माध्यम से देवता के निकट हवि पहुँचाने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं |
हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में
फल, शहद, घी, काष्ठ
इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है | 'यज्ञ' का अर्थ केवल
आग में घी डालकर मंत्र पढ़ना ही नहीं होता | यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म, श्रेष्ठ
कर्म, सतकर्म, वेदसम्मत कर्म | सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए
आह्वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है | मांगो, विश्वास करो
और फिर पा लो | यही है यज्ञ का रहस्य |
यज्ञ क्या है और यज्ञ कर्म क्यों करने
चाहिए इसको स्पष्ट करने के लिए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ:
कर्मसमुद्भवः।।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि
ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्त्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं
यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।3/14-15।।
अर्थात सम्पूर्ण प्राणी अन्न
से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है
और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है | कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न
होने वाला जान और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान | इससे सिद्ध
होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है |
भगवान् ने इस प्रकार इन
श्लोकों के माध्यम से सम्पूर्ण सृष्टि चक्र को समझाया है | हमारा स्थूल शरीर
अन्नमय कोष है | यह कोष अन्न से निर्मित हुआ है | अन्न से ही सम्पूर्ण प्राणी
उत्पन्न हुए हैं | सभी प्राणियों के स्थूल शरीर अन्नमय कोष ही हैं | अन्न उत्पन्न
होता है, वर्षा से | अगर बरसात न हो तो कृषि कार्य नहीं हो सकते जो कि अन्न पैदा
करने के लिए आवश्यक है | ऐसे में अकाल की स्थिति पैदा हो जाएगी | बिना अन्न के
प्राणियों का जीवन खतरे में पड़ जायेगा | अन्न के बिना शरीर के कार्यों के लिए
उर्जा नहीं मिल सकती क्योंकि अन्न प्राणी के लिए उर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है |
अन्न के लिए वर्षा का होना
आवश्यक है और वर्षा होती है, यज्ञ से | यज्ञ होते हैं शास्त्रोक्त कर्म करने से | आज
जब शास्त्रोक्त कर्म से मनुष्य विमुख हुआ जा रहा है, उसका परिणाम अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि
तथा अनावृष्टि के रूप में समय-समय पर हमारे सामने आ रहा है | सामान्य वृष्टि होती
कहीं पर भी दिखाई नहीं देती |
शास्त्रोक्त कर्म वे कर्म
हैं, जिनके करने से प्राणियों की उन्नति होती है, विनाश नहीं | इन्हें विहित कर्म
भी कहा जाता है | विहित कर्म ज्ञान हो जाने पर ही होने सम्भव हैं और ज्ञान हमें
वेद-शास्त्रों से मिलता है | चारों वेद परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं | इसलिए वेद
को वेद भगवान् कहा जाता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि परम पिता परमात्मा ही यज्ञ
में निवास करते हैं | इसीलिए यज्ञ को यज्ञ-भगवान् कहा जाता है |
यज्ञ के चार अंग हैं - स्नान, दान, हवन और जप | स्नान का अर्थ है बाह्य
शरीर और भीतर अंतर्मन की शुद्धि | दान का अर्थ है, जो भी आपके पास पदार्थ, धन, समय
आदि आवश्यकता से अधिक है, उनको स्वार्थ रहित होकर संसार हितार्थ उपयोग में ले लेना
| हवन एक क्रिया है, जिसमें अग्नि को घी, समिधा आदि समर्पित की जाती है | जप भी
यज्ञ का एक अंग है, जिसमें परमात्मा का ध्यान किया जाता है |
यज्ञार्थ कर्म करने का अर्थ है, परमात्मा के
लिए कर्म करना | हम सभी कर्म परमात्मा को अर्पित कर दें तो वे कर्म यज्ञ-कर्म
कहलायेंगे | परन्तु कर्म तो सकाम कर्म भी होते हैं और विकर्म भी | क्या सभी प्रकार
के कर्म परमात्मा को समर्पित किये जा सकते हैं ? जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक
कर्म का फल अवश्य ही मिलता है और साथ में हम यह भी जानते हैं कि कोई भी कर्म दोष
से मुक्त नहीं है अर्थात प्रत्येक कर्म का शुभ अथवा अशुभ फल मिलना निश्चित है |
ऐसे में प्रथम रास्ता तो यह है कि सभी कर्म परमात्मा के लिए किये जाएँ तो फिर हमसे
विकर्म होंगे ही नहीं | दूसरा रास्ता है कि कर्म करने के बाद उनके समस्त फलों को
परमात्मा को अर्पित कर दिए जाएँ | दोनों ही रास्ते सही हैं | जब कर्म-फल को
परमात्मा को अर्पित कर दिया जाता है तो उस कर्म के फल को कर्ता द्वारा सहज भाव से
भोग भी लिया जाता है और भविष्य में उससे निषिद्ध कर्म तो होंगे ही नहीं |
यज्ञ-कर्म कौन से कर्म होते
हैं ? इसको जानने के लिए प्रत्येक कर्म के पीछे छिपे उद्देश्य को जानना होगा | प्रत्येक
कर्म का कारण प्रकृति के गुण ही हैं, यह हम जानते भी हैं | प्रकृति के गुणों के
कारण ही सभी प्रकार के कर्म होते हैं, कर्मों में कर्ताभाव रखने वाला व्यक्ति केवल
इन गुणों का उपयोग करते हुए कर्म कर सकता है | कर्म करने के पीछे कोई न कोई कामना
अवश्य ही होती है | उन कामनाओं को ध्यान में रखते हुए ही कर्म किये जाते हैं |
कर्म करने के लिए कामना के साथ साथ भावना का भी महतवपूर्ण स्थान है | कामनाएं किसी
निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कर्म करवाती है जबकि भावना कर्म करने के तरीके
को निश्चित करती है | इसका अर्थ हुआ कि आपके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में
प्रकृति का तो महत्वपूर्ण स्थान है ही, साथ ही आपकी कामना और कर्म करने के पीछे की
भावना भी महत्वपूर्ण है |
यज्ञ के सन्दर्भ में कर्म के प्रकार -
कर्म के पीछे छिपी कामना और
भावना | कामना कहती है कि मेरी पूर्ति के लिए कर्म करो और भावना कहती है .......,
भावना क्या कहती है ? भावना व्यक्ति के स्वभाव पर कर्म का प्रकार निश्चित करती है
| भावना कहती है कि कर्म किसी भी प्रकार से करो परन्तु करो जिससे उद्देश्य की
पूर्ति निश्चित हो सके | कर्ता की भावना के परिपेक्ष्य में देखें तो कर्म तीन
प्रकार से किये जा सकते हैं – प्रथम प्रकार के वे कर्म हैं, जिनमें प्रकृति को कुछ
भी दिया नहीं जाता बल्कि कर्म करते हुए उससे केवल लिया ही लिया जाता है | कहने का
अर्थ है, केवल लेना ही लेना, देना कुछ भी नहीं जैसे लकड़ी चाहिए, जंगल काट लिए और
पेड़ लगाये नहीं | यह प्रकृति से चोरी है | ये कर्म सबसे निम्न श्रेणी के कर्म हैं |
ऐसे कर्मों से आप केवल प्रकृति को विनाश की ओर धकेलते हैं और प्रकृति का विनाश
आपका स्वयं का ही विनाश है, समस्त प्राणी समुदाय का विनाश है | इस प्रकार के
कर्मों में येन केन प्रकारेण कामना पूर्ति ही एक मात्र उद्देश्य होता है | ऐसे सभी
कर्म विकर्म की श्रेणी में आते हैं |
भावना के अनुसार दूसरी प्रकार
के वे कर्म हैं जिनमें आपकी प्रकृति को देने की भावना तो है परन्तु बदले में उससे उतना
ही या उससे कुछ अधिक ही लेने की भावना भी है | इसको कहते हैं दे दो और ले लो (Give
and take) अर्थात एक हाथ से कुछ दिया और दूसरे हाथ से वापिस ले भी लिया | ऐसा करना
प्रकृति में एक निश्चित संतुलन बनाये रखने की भावना तो है परन्तु इसमें
आपका स्वार्थ महत्वपूर्ण है क्योंकि आपको किसी से कुछ लेना है इसलिए आप पहले उसको कुछ
दे भी रहे हो | इन कर्मों में आपके द्वारा देना इस बात पर निर्भर करता है कि आप
उसके बदले लेना कितना चाहते हो ? इस कर्म के पीछे कम देकर बदले में अधिक लेने का
स्वार्थ रहता है | ऐसे समस्त कर्म सकाम कर्म की श्रेणी में आते हैं |
तीसरे प्रकार के कर्म वे कर्म
हैं जिनके पीछे केवल देने ही देने की भावना रहती है, लेने का कोई उद्देश्य नहीं
होता | वास्तव में ऐसे कर्म ही उच्च कोटि के होते हैं | इस प्रकार के कर्म प्राणी
समुदाय की उन्नति में सहायक कर्म हैं | जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि
प्रत्येक कर्म बिना किसी फल अथवा परिणाम का हो ही नहीं सकता | ऐसा ही इस कर्म के
साथ भी है | इस कर्म के पीछे देने की भावना रहती है, बदले में लेने की नहीं, फिर भी
परिणाम में कुछ न कुछ तो मिलेगा ही, यह निश्चित है | कर्म हुआ है तो फल अवश्य ही
मिलना है और देने के बदले जो फल मिलता है, उसको लेना नहीं बल्कि पाना कहते हैं |
कहने का अर्थ है कि इस कर्म में दिया और पाया (Give and get) जाता है, दिया और
लिया (Give and take) नहीं | ऐसे कर्म निष्काम कर्म कहलाते हैं | वास्तव में ऐसे
कर्मों को ही यज्ञ-कर्म कहा जाता है |
इस प्रकार हमने देखा कि कर्म
तीन प्रकार से किये जा सकते हैं-प्रथम प्रकार के वे कर्म, जिनमें हम देना तो कुछ
भी नहीं चाहते परन्तु लेना सब कुछ चाहते हैं | इन कर्मों को तामसिक कर्म की श्रेणी
में रखा जा सकता है | दूसरे प्रकार के वे कर्म हैं, जिनको हम अपनी कामनापूर्ति के
लिए कुछ ले-दे कर करते हैं परन्तु चाहते हैं देना कम पड़े और बदले में ले ज्यादा
लें | इन कर्मों को राजसिक कर्म भी कह सकते हैं | तीसरे प्रकार के वे कर्म हैं जो
कि नि:स्वार्थ भाव से किये जाते हैं, जिनमें हमें केवल देना ही देना होता है, बदले
में लेने की किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखनी है बल्कि जो कुछ भी हमें मिल जाये
उसमें संतुष्ट रहना है | ऐसे कर्म सात्विक कर्म कहलाते हैं |
वैसे कर्म सात्विक राजसिक
अथवा तामसिक प्रकृति के नहीं होते बल्कि कर्ता जिस स्वभाव का होता है, उससे उसी
प्रकार के कर्म कहे जाते हैं | इसी कारण से कर्म को कर्ता के स्वभावानुसार
सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है | कर्ता के सात्विक,
राजसिक अथवा तामसिक गुणों की प्रकृति वाला होने में उसकी कर्म के करने के पीछे की
भावना प्रदर्शित होती है और उसी भावना के अनुसार उसके कर्म होते हैं | इसका अर्थ
हुआ कि मनुष्य को अपनी प्रकृति के गुणों में परिवर्तन करते हुए अपना स्वभाव
परिवर्तित करना होगा | यज्ञ की क्रिया इसी कार्य को करती है | यज्ञ-कर्म करने से
धीरे धीरे मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आता है और वह सात्विक गुणों की
उच्चावस्था को प्राप्त कर लेता है |
इस प्रकार स्पष्ट है कि
यज्ञ को श्रद्धापूर्वक किया जाये तो व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाया जा सकता
है | श्रद्धा के बिना किया हुआ यज्ञ असत ही कहा गया है, अतः यज्ञ-कर्म
श्रद्धापूर्वक करने चाहिए | गीता में भगवान कहते हैं –
अश्रद्धया हुतं दत्तं
तपस्तप्तं कृतं च यत् |
असदित्युच्यते पार्थ न च
तत्प्रेत्य नो इह ||गीता-17/28||
अर्थात हे पार्थ ! बिना
श्रद्धा के किया गया तप, हवन, दान और कर्म सब असत है | यह सब न तो इस लोक में
लाभदायक है और न ही इस देह को त्यागने के बाद लाभदायक होंगे |
इस प्रकार इतने विवेचन के
बाद हमने पाया कि यज्ञार्थ कर्म ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है | यज्ञ में ही परमात्मा
निवास करते हैं | परमात्मा को प्राप्त करना है तो यज्ञ-कर्म करें | यज्ञ-कर्म ही
हमें परमात्मा तक ले जा सकते हैं | यज्ञ वह साधना है जो हमें आत्म-ज्ञान करा सकती
है | गीता में कर्म-योग को इसीलिए महत्वपूर्ण बतलाया गया है | बिना कर्म के यज्ञ
संपन्न नहीं हो सकता इसका अर्थ है कि बिना कर्म किये परमात्मा तक भी नहीं पहुंचा
जा सकता | चलिए ! यज्ञ कितने प्रकार के होते हैं और उन यज्ञों में कर्म कैसे किये
जाते हैं, ये भी जान लेते हैं |
श्रीमद्भगवद्गीता में यज्ञ-
गीताजी में भगवान को प्राप्त
करने का एक साधन कर्म-योग अर्थात यज्ञ-कर्म को बताया गया है | यज्ञ-कर्म से कितने
प्रकार के यज्ञ हो सकते हैं ? गीता के चतुर्थ अध्याय में बारह प्रकार के यज्ञ का
वर्णन आता है | जो निम्न प्रकार से हैं -
1.ब्रह्म यज्ञ- सर्वत्र ब्रह्म को देखना |
ब्रह्मार्पण हविर्ब्रह्माग्नौ
ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्य
ब्रह्मकर्मसमाधिना || गीता-4/24||
अर्थात जिस यज्ञ में जिससे अर्पण
किया जाता है, वे स्रुक् आदि पात्र भी ब्रह्म है, हव्य पदार्थ भी ब्रह्म है, और
ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्म ही
है | इस प्रकार ऐसे यज्ञ करने वाले जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गयी
है, उसके द्वारा प्राप्त फल भी ब्रह्म ही है |
2.भगवदर्पणरूप यज्ञ- समस्त पदार्थों और क्रियाओं को भगवान
का और भगवान के लिए मानना | यह यज्ञ देवताओं के लिए किया जाता है |
3.जीवात्मरूप यज्ञ- असत को त्यागकर सत में लीन हो जाना |
परमात्मा से अभिन्न हो जाना | इस यज्ञ में ब्रह्मरूप अग्नि में जीवात्मारुप का हवन
किया जाता है अर्थात “ब्रह्म का विचार” रुपी अग्नि में स्वयं के जीव होने के भाव
की आहुति दी जाती है | इस यज्ञ में साधक ब्रह्म के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए
स्वयं के उससे अलग होने के भाव का लोप करता है |
4.संयमरूप यज्ञ- एकांत में इन्द्रियों को नियंत्रण में
रखना, उनको विषयों में प्रवृत न होने देना | इस प्रकार के यज्ञ में संयम अग्नि है
और समस्त इन्द्रियों की उसमें आहुति देते हुए यज्ञ किया जाता है |
5.विषयहवनरूप यज्ञ- इन्द्रियां अगर विषयों में प्रवृत
हो गयी हो तो भी राग-द्वेष को उत्पन्न न होने देना | इस प्रकार के यज्ञ में अग्नि
होती है इन्द्रियां और उसमें समस्त इन्द्रिय जनित विषयों की आहुति दी जाती है |
विषय में अगर इन्द्रियाँ प्रवृत हो भी गयी हों तो भी अपने में राग-द्वेष को
उत्पन्न न होने देना | इस प्रकार धीरे-धीरे विषय जो कि इस यज्ञ में हव्य है, उन
विषयों के प्रति समाप्त होती जाती है |
6.समाधिरूप यज्ञ- मन, बुद्धि और दसों इन्द्रियों और
प्राणों को नियंत्रित कर ज्ञान से प्रकाशित हो जाना | इस यज्ञ में आत्म-संयम रखते
हुए सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं की आहुति दी जाती है |
7.द्रव्य यज्ञ- सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से
संसार की सेवा में अर्पित कर देना | इस यज्ञ में मोह पैदा करने वाले पदार्थों जैसे
धन आदि पदार्थों को संसार की सेवा में अर्पण कर दिया जाता है |
8.तपोयज्ञ- कठिनाइयों को सहज रूप में सह लेना | जितनी
भी भौतिक शारीरिक और मानसिक कठिनाइयाँ साधक के समक्ष आती है, उनको सहन कर लेना ही
इस हवन की मुख्य विशेषता है |
9.योगयज्ञ- कार्य के सिद्ध अथवा असिद्ध होने पर भी सम
भाव में बने रहना | व्यक्ति को प्रायः कार्य की सिद्धि का इंतजार रहता है | कार्य
सिद्ध न होने पर उसमें विषमता आ जाती है | सिद्धि-असिद्धि दोनों ही अवस्थाओं में
सम रहने को ही योग-यज्ञ कहा जाता है |
10.स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ- शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप
आदि करना |
11.प्रणायामरूप यज्ञ –पूरक, कुम्भक और रेचक प्राणायाम करना | कुछ योगी अपान
में प्राण का (पूरक), प्राण और अपान की गति को रोक कर (कुम्भक) और फिर प्राण में
अपान का हवन (रेचक) करते हैं तथा कई अन्य प्राण का प्राण में ही हवन करते हैं |
12.स्तंभवृति प्राणायामरूप यज्ञ- नियमित आहार करते हुए
प्राण-अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना | यह स्तम्भ-वृति प्राणायाम रूप यज्ञ
कहलाता है |
इस प्रकार हम
श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित बारह प्रकार के यज्ञों से परिचित हुए | वैसे मुख्य रूप
से यज्ञों को केवल दो विभागों में भी बांटा जा सकता है – द्रव्यमय यज्ञ और ज्ञान
यज्ञ | जिन यज्ञों में पदार्थ और क्रिया की मुख्यता रहती है, वे द्रव्यमय-यज्ञ
कहलाते हैं | वह द्रव्य धन के रूप में भी हो सकता है और पदार्थ के रूप में भी | द्रव्यमय
यज्ञ में व्यक्ति अपने पास जो भी द्रव्य होता है उसको लोक कल्याणार्थ समर्पित करता
है | प्रायः व्यक्ति में कुछ न कुछ करते रहने का भाव रहता ही है उनके लिए द्रव्यमय
यज्ञ करना अधिक सहज है | द्रव्यमय यज्ञ करने से द्रव्य के प्रति मोह (अज्ञान) को
समाप्त करने में सहायता मिलती है | द्रव्यमय यज्ञ में क्रिया की प्रधानता अवश्य
रहती है परन्तु अज्ञान को नष्ट करने में इसकी भूमिका होने से इंकार नहीं किया जा
सकता | द्रव्यमय यज्ञ से निसंदेह ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है परन्तु द्रव्यमय यज्ञ का
परिणाम भी ज्ञान को प्राप्त करने के रूप में मिल सकता है |
जिस यज्ञ में विवेक और विचार
की मुख्यता रहती है, उसे ज्ञान-यज्ञ कहा जाता है | ज्ञान-यज्ञ द्रव्यमय यज्ञ से श्रेष्ठ
है क्योंकि इस यज्ञ में पदार्थ और क्रिया के स्थान पर विवेक और विचार की मुख्यता
है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाजज्ञानयज्ञ:
परन्तप |
सर्वं कर्माखिलं पार्थ
ज्ञाने परिसमापते ||गीता-4/33||
अर्थात हे अर्जुन !
द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में
आकर समाप्त हो जाते हैं |
ज्ञान में कर्म आकर कैसे
समाप्त हो जाते हैं ? ज्ञान हमें कर्म में कर्तापन के भाव से अलग करता है और जब हम
किसी कर्म के कर्ता नहीं रहते तो फिर वह कर्म भी कर्म नहीं रहता और केवल मात्र क्रिया
बन कर रह जाता है | क्रिया प्रकृति के गुणों का कार्य है न कि किसी प्राणी का |
प्रत्येक क्रिया का भी एक निश्चित परिणाम होता है परन्तु जब कर्ताभाव नहीं रहता तब
उसके परिणाम से व्यक्ति सुखी-दुखी नहीं होता | इसीलिए ज्ञान-यज्ञ को द्रव्यमय यज्ञ
से श्रेष्ठ बताया गया है |
वेद के अनुसार यज्ञ-
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते
हैं –
एवं बहुविधा यज्ञा वितता
ब्रह्मणो मुखे |
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं
ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ||गीता-4/32||
अर्थात इसी प्रकार वेद के अनुसार भी बहुत से प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, उन
सबको तू मन, इन्द्रियों और शरीर की क्रिया द्वारा संपन्न होने वाला जान | इनको
जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा |
वेद के अनुसार यज्ञ के प्रकार
बतलाने के पीछे भगवान् का मंतव्य यही था कि संसार में प्रत्येक मनुष्य कर्म करना
चाहता है | बिना कर्म किये वह क्षण मात्र के लिए भी नहीं रह सकता | हालाँकि
ज्ञान-यज्ञ द्रव्यमय यज्ञ से श्रेष्ठ है फिर भी कर्मनिष्ठ व्यक्ति के लिए शरीर की
क्रिया द्वारा किये जाने वाला यज्ञ भी उचित है |
क्रिया रुपी यज्ञ के माध्यम से
हम ऋण मुक्त होते हैं | इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य पर चार
प्रकार के ऋण रहते हैं | ये ऋण है- 1. ऋषि ऋण 2. देव ऋण 3. पितृ ऋण और 4. भूत ऋण |
इन सभी ऋणों से मुक्त होने के लिए यज्ञ करने का विधान है | बिना ऋण मुक्त हुए
मोक्ष होना असंभव है | इन ऋणों से मुक्त होने के लिए ही वेदों में विभिन्न प्रकार
के यज्ञों का विधान है |
वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के
होते हैं-1. ब्रह्मयज्ञ 2. देवयज्ञ 3. पितृयज्ञ 4. वैश्वदेव
यज्ञ 5. अतिथि यज्ञ | उक्त पांच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों
में विस्तार दिया गया है | वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं |
।।ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं
तन्नासुव ।।-यजु.
भावार्थ : हे ईश्वर, हमारे सारे दुर्गुणों को दूर कर दो और जो अच्छे गुण, कर्म और
स्वभाव हैं, वे हमें प्रदान करो |
आइये ! अब हम एक-एक कर वेदानुसार
यज्ञों पर भी विचार कर लेते हैं |
1.ब्रह्मयज्ञ- समस्त जड़ पदार्थों और प्राणी जगत में
सबसे उच्च श्रेणी में है मनुष्य | मनुष्य से उच्च है पितर, अर्थात
माता-पिता और आचार्य | पितरों से उच्च हैं देव, अर्थात प्रकृति की पांच
शक्तियां, देवी-देवता और देव से उच्च है- ईश्वर और हमारे ऋषिगण
| इस प्रकार ईश्वर अर्थात ब्रह्म सर्वोच्च हैं | ब्रह्म के लिए किये जाने वाले
कर्म ब्रह्म-यज्ञ कहलाते हैं | यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय
तथा वेदपाठ करने से | इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' चुकता होता है | इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी
पुष्ट होता है |
2.देवयज्ञ- देवयज्ञ, जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से
सम्पन्न होता है | इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है, यही
अग्निहोत्र यज्ञ भी है | यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है | इसे
करने के निश्चित नियम हैं | इससे 'देव ऋण' चुकता होता
है |
हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है।
हवन में सात पेड़ों की समिधाएं (लकड़ियां) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जांटी, जामुन और शमी
| हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है, रोग और शोक मिटते हैं | इससे गृहस्थ
जीवन पुष्ट होता है |
3.पितृयज्ञ- सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और
जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो उन्हें तर्पण कहा जाता है |
वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति
सम्मान का भाव है | यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से | इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता
होता है | पुराणों में इसे श्राद्ध कर्म कहा गया है |
4.वैश्वदेवयज्ञ- इसे ‘भूत यज्ञ’ भी कहते हैं | पंच
महाभूत से ही मानव शरीर है | सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और
कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है
अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम
करें जिससे भोजन पकाया गया है | फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें, ऐसा
वेद-पुराण कहते हैं |
5.अतिथि यज्ञ- अतिथि यज्ञ से अर्थ है मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल
देना | अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और
धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है | इससे संन्यास आश्रम पुष्ट
होता है, यही पुण्य है और सामाजिक कर्त्तव्य भी है |
उक्त पांच यज्ञों के ही पुराणों में अनेक प्रकार
और उप-प्रकार हो गए हैं जिनके अलग-अलग नाम हैं और जिन्हें करने की विधियां भी
अलग-अलग हैं किंतु मुख्यत: यह पांच यज्ञ ही माने गए हैं | इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और
अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है किंतु इन्हें आज जिस रूप में किया जाता
है पूर्णत: अनुचित है | यहां लिखे हुए यज्ञ के अलावा अन्य किसी प्रकार के यज्ञ
नहीं होते | यज्ञकर्म को कर्त्तव्य व नियम के अंतर्गत माना गया है |
यज्ञ और विज्ञान –
अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP)
यज्ञ से विभिन्न प्रकार के रोगों की चिकित्सा के लिए शोध कर रहा है, जिसे यज्ञोपैथी
कहा जाता है | गत दिनों जब मैं पोर्ट ब्लेयर (अंडमान व निकोबार द्वीप-समूह) के
भ्रमण पर था, तब वहां यज्ञ का इसी प्रकार का एक अनुष्ठान देखने को मिला था |
चिकित्सा क्षेत्र से सम्बंधित होने के कारण मेरी यज्ञोपैथी में रुचि हुई और मैंने
इसको जानने का प्रयास किया | पोर्ट ब्लेयर में उस समय इस शोध कार्य में रत श्रीमती
टी. राजेश्वरी आई हुई थी जिनसे युग निर्माण योजना कार्यालय में मेरी भेंट हुई थी |
यज्ञोपैथी विषय पर मेरा उनसे वार्तालाप हुआ था जिसके आधार पर ही मैं यज्ञ और
रोग-चिकित्सा के सम्बन्ध में आज कुछ लिख पा रहा हूँ |
यज्ञोपैथी के अनुसार यज्ञ
एक वैज्ञानिक विधा है जोकि शत-प्रतिशत
कारगर है | इसमें यजन, पूजन, सम्मिलित विचार, वस्तुओं का
वितरण आदि आते हैं | बदले के कार्य, आहुति, अर्पण आदि के
अर्थ में भी यह शब्द उपयोग होता है।
यज्ञ, तप का ही एक
रूप है | विशेष सिद्धियों या उद्देश्यों के लिए यज्ञ किए जाते हैं | चार वेदों में
यजुर्वेद यज्ञ के मंत्रों से भरा है | इसके अलावा वेद आधारित अन्य शास्त्र, ब्राह्मण
ग्रंथों और श्रोत सूत्रों में यज्ञ विधि का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है | वैदिक
कालिन कार्यों एवं विधानों में यज्ञ को प्रधान धार्मिक कार्य माना गया है |
यज्ञ इस संसार तथा स्वर्ग
दोनों में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का प्रमाणिक
मार्ग या साधन है | यज्ञ एक वैज्ञानिक विद्या है जो शत-प्रतिशत उपयोगी एवं प्रामाणिक है | यज्ञ को
पूरी तरह शास्त्र सम्मत एवं विधि-विधान से करने पर इसके अद्भुत परिणाम प्राप्त
होते हैं | यज्ञ से आसपास का वातावरण शुद्ध, पवित्र एवं दिव्य ऊर्जा से
संपन्न होता है | आसपास के वातावरण में विभिन्न प्रकार की बीमारियों के कीटाणु
यज्ञ की धूम और मंत्रों की ध्वनि तरंगों से नष्ट हो जाते हैं | इतना ही नहीं
पर्यावरण के संतुलन एवं संतुलित वर्षा में यज्ञ का महत्वपूर्ण योगदान है | यज्ञ की
उपयोगिता एवं सफलता के तीन प्रमुख आधार है-
1. मंत्रों की ध्वनि का विज्ञान |
2. दिव्य जड़ी-बूटियों एवं वनस्पतियां |
3. साधक की एकाग्रता एवं मनोबल |
यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यंत्र
समझना चाहिए जिसके सभी पूर्जे ठीक-ठीक एवं उचित स्थान पर संलग्न हो | जो यज्ञ का
ठीक प्रयोग जानते हैं वे पूर्णत: वर्चस्वी निश्चित रूप से होते हैं | यज्ञ की विधा
एक ऐसी विद्या है जो अति प्राचीन काल से चली आ रही है, यहां तक कि सृष्टि की उत्पत्ति
भी यज्ञ का फल कही जाती है | सृष्टि की रचना से पूर्व स्वयं शक्ति अर्जित करने के
लिए यज्ञ किया जाता था एवं विभिन्न प्रकार की शक्तियां प्राप्त की जाती थी |
विभिन्न शारीरिक और मानसिक रोगों की जड़ केवल
शरीर में ही न होकर मुख्य रूप से मन में होती है | यज्ञ शारीरिक और मानसिक रोगों
से मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधि है | ऐसा मानकर अपने मानसिक संतुलन को स्थिर रखा
जाय तो कोई
शारीरिक रोग होने पर भी जीवन क्रम को सामान्य ढंग से चलाया जा सकता है | मानसिक
संतुलन साधने के लिए यह मान्यता बड़ी ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है |
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रत्येक व्याधि की मूल
मन में होती है और इस तथ्य को सभी रोगों में एक समान रूप से लागू होते देखा भी जा
सकता है | प्रत्येक व्याधि की प्रतिक्रिया, लक्षण आदि शरीर पर भले ही दिखाई
देते हों, लेकिन उनकी जड़ मनुष्य के मन में होती है | वृक्ष की
जड़ जिस प्रकार जमीन के भीतर होती है और उसका तना, शाखाएँ, पत्ते, फूल, फल और शिखर
आकाश में होते हैं, उसी प्रकार रोगों का स्वरूप, उत्पात, प्रतिक्रिया
शरीर के तल पर दिखाई देते हैं, लेकिन उनका मूल मन में होता है | इस तथ्य को दृष्टिगत
रखते हुए महर्षियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा है- “प्रज्ञापराधं रोगस्य मूल कारणं’ अर्थात् प्रज्ञापराध, मानसिक
अस्त-व्यस्तता, असंतुलित मनःस्थिति, चिन्ता, क्षोभ और
अन्यान्य मानसिक विकृतियाँ समस्त रोगों का मूल कारण है | यदि अपनी मानसिक स्थिति
को नियन्त्रित करते हुए उसे शांत-संतुलित बनाया जाय, तो शरीर को
पूर्ण स्वस्थ, पुष्ट और रोगमुक्त रखा जा सकता है | अतः शरीर का
निदान-परीक्षण बाद में, पहले मन को ही स्वस्थ बनाये रखने की बात सोचनी चाहिए
| इसके लिए प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से परे मन को हलका-फुलका बनाने वाली किसी भी
एक विधि का सहारा लिया जा सकता है |
इस प्रकार की विभिन्न
विधियों में वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा संपादित यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है | ऐलोपैथी, नेचरोपैथी, होम्योपैथी, बायोकेमिकल
चिकित्सा पद्धति आदि चिकित्सा प्रणालियों की तरह विभिन्न देशों में यज्ञों से भी
रोगों के उपचार की विधि खोज ली गयी है और उसका सफलतापूर्वक उपयोग किया जाने लगा है
| अब तो यज्ञ को मानसिक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधि समझा जाने लगा है |
कई देशों में यज्ञ-चिकित्सा दिनों-दिन लोकप्रिय होती जा रही है | इस चिकित्सा
पद्धति के अंतर्गत रोगियों को यज्ञ के वायु से निकलने वाली तरंगों को
श्वास-प्रश्वास के माध्यम से ही देने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है | पागल और
विक्षिप्त समझे जाने वाले व्यक्तियों की मस्तिष्कीय क्षमता पहले ही प्रयास में इस
योग्य तो नहीं बन पाती कि वे बताई गयी विधि का अक्षरशः पालन कर लें; लेकिन
धीरे-धीरे वे एक-दूसरे के श्वास-प्रश्वास करने की शैली को पहचानने लगते हैं और तथा
उन श्वास-प्रश्वास (प्राणायाम) द्वारा ही उत्तर देने लगते हैं |
प्राणायाम के माध्यम से रोगी का
यह क्रम धीरे-धीरे शरीर के अंतःस्थल तक भी पहुँच जाता है और परिणामतः रोगी के
रोगमुक्त होने में दिनों-दिन सफलता प्राप्त होने लगती है | जिन व्यक्तियों को
विक्षिप्त मान लिया जाता है और पागल समझकर समाज से अलग कर दिया जाता है, ऐसे व्यक्ति
का मस्तिष्क वास्तव में ख़राब होकर एकदम बेकार नहीं हो जाता है | वस्तुतः लोग
भावनाओं पर अत्यधिक ठेस लगने के कारण मस्तिष्कीय संतुलन खो बैठते हैं | कभी-कभी यह
असर इतना गहरा हो जाता है कि वह व्यक्ति समाज की धारा से पूरी तरह कट-पिटकर अपने
आप में सिमट जाता है | यज्ञ में भावनाओं को जाग्रत करने और सम्बल प्रदान करने को
ही नहीं, उनको परिष्कृत करने तथा उनका संतुलन साधने की
प्रभावशाली क्षमता है | शरीर शास्त्रियों की मान्यता है कि मस्तिष्क के कुछ भाग
भावनाओं को उत्तेजित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं |
यज्ञ से उत्पन्न तरंगों (विद्युत्
चुम्बकीय तरंगों) का उन अंगों पर बहुत अच्छा और अनुकूल प्रभाव पड़ता है | यज्ञ
द्वारा मस्तिष्क के बीमार न्यूरोन्स के कारण सिकुड़ी हुई मांस-पेशियों को शक्ति
मिलती है | फलतः व्यक्ति को भावनात्मक बल और आनन्द मिलता है | वे न्यूरोन्स और
मांसपेशियाँ जो किसी कारणवश निष्क्रिय हो जाती हैं, पुनः सक्रिय हो उठती हैं | इसी नियम को एक विधि-व्यवस्था
के साथ रोग चिकित्सा के लिए अपनाया जाता है और अब तो जटिल से जटिल रोगों का उपचार
भी यज्ञोपैथी द्वारा किये जाने की विधियाँ खोज ली गयी हैं | यज्ञोपैथी के माध्यम
से विभिन्न रोगों के उपचार की यह पद्धति तो कुछ वर्षों पूर्व ही आविष्कृत की गयी
है |
अब चिकित्साशास्त्रियों का
ध्यान इस दिशा में भी गया है कि जब बाहरी चिकित्सीय उपकरण (Medical equipments) इतना
प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, तो स्वयं अपने ही कर्म (यज्ञ करना) तो और अधिक प्रभाव
उत्पन्न करते होंगे | इस विषय पर चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान भले ही अभी गया हो, परन्तु यह तो
प्राचीनकाल से हमारे ऋषियों द्वारा जान, समझ लिया गया है कि यज्ञ के
द्वारा समस्त रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है | यज्ञ मनुष्य को न केवल
हलका-फुलका व प्रफुल्लित कर देता है, वरन् उसकी कई चिंताओं, दबावों और
तनावों तथा समस्याओं के बोझ को भी बड़ी सीमा तक समाप्त कर देता है | भारतीय
मनीषियों ने यज्ञ की इस शक्ति को हजारों वर्ष पूर्व पहचान कर उसका उच्च उद्देश्यों
के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया था | यज्ञ साधना का अपना एक स्वतंत्र विज्ञान है
| कोई आश्चर्य नहीं कि यज्ञ का स्वास्थ्य प्रयोजन के लिए उपयोग करते-करते विज्ञान
इस तथ्य को भी बहुत जल्दी स्वीकार करने की स्थिति में आ जाय कि यज्ञ मानव मात्र, प्राणिमात्र
के लिए प्रत्येक प्रकार से कल्याणकारी है | वर्तमान की अनेकानेक समस्याओं का
समाधान उसमें सन्निहित है |
यज्ञ का प्रभाव सूक्ष्म-विज्ञान
पर आधारित यज्ञ की प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता हविर्द्रव्यों, समिधाओं, मंत्रोच्चार, प्रयोक्ता (User)
अर्थात प्रयोग करने वाले के व्यक्तित्व एवं समय-विशेष पर आधारित होती है | इन सभी
का समुचित संतुलन बन जाने पर यज्ञ में एक विशिष्ट प्रकार का चुम्बकीय प्रभाव
(Magnetic effect) एवं उसका प्रवाह (Flow) उत्पन्न होता है | यह यजनकर्त्ता के
साथ-साथ सम्पूर्ण वातावरण पर सकारात्मक (Positive) प्रभाव प्रस्तुत करता है | प्राय:
यज्ञ करने पर यज्ञीय धूम्र नीचे से ऊपर की ओर चलता है | यदि वायु स्थिर हो, हवा न चल रही हो तो इस धूएँ का बहाव सीधा (Straight),
उर्ध्व (Vertical) एवं नियंत्रित (Controlled) होता है | वायु मिश्रित धूएँ में
विद्युत् आविष्ट कणों (Electicaly charged particles) तथा आयनों (Ions) का एक मिश्रण
होने के कारण इसके सीधे ऊपर की ओर चलने के वही प्रभाव होंगे; जोकि एक विद्युत्-प्रवाह के होते हैं | जिस तरह से
किसी भी विद्युतीय-प्रवाह से चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field) बनता है, उसी तरह से
यज्ञकुंड से उठने वाले धूएँ के चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र बनता है और यह यजनकर्त्ता
को सीधे प्रभावित करता है |
यज्ञ-विज्ञान की प्रमाणिकता को सिद्ध
करने के लिए यह आवश्यक है कि हवन-कुंड से उठने वाली यज्ञ-शिखा का विस्तृत भौतिक
विश्लेषण किया जाये | इससे स्पष्ट हो जायेगा कि यज्ञ-कुंड से काफी मात्रा में
विद्युत् चुम्बकीय तरंगे उठती हैं और ये तरंगे सूक्ष्म या अतिलघु (Microwave or
ultrashort wave) स्तर की होती हैं | इन तरंगों की प्रगाढ़ता यज्ञ-कुंड के आस-पास
के वातावरण को ठंडा करने से और बढ़ जाती हैं | हवन कुंड के चारों ओर एक नाली बनाकर
उसमें जल भरने से तथा यज्ञ शाला के निकट अनेक जल भरे कलश स्थापित करने को इसी
उद्देश्य की पूर्ति के रूप में समझा जा सकता है | सस्वर मंत्रोच्चार से उत्पन्न
ध्वनि-कम्पनों से यज्ञ-शिखा पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि जिसके कारण उससे निकलने
वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगे (Electro magnetic waves) प्रभावित होती हैं | इस
तरह से रेडियो-प्रसारण (Radio transmission) जैसा एक तन्त्र भौतिकी के आधार पर कार्य
करता हुआ देखा जा सकता है |
हवन-कुंड विशेष धातुओं, जैसे चांदी
या ताम्बे का बनाकर इन विद्युत् तरंगों की आवृत्ति (Frequency) तथा आवेग (Impulse)
को नियंत्रित किया जा सकता है, साथ ही मंत्रोच्चार से स्वयं यजन कर्त्ता को
विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का केंद्र बनते हुए स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है |
मंत्रोच्चार करने वाले व्यक्ति की सम्पूर्ण काया शरीर में उठने वाली यांत्रिक
कम्पनों से झंकृत (Vibrate) होने लगती है | शरीर का पत्येक कोश, प्रत्येक कोशिका
एक विद्युत्
संधारित्र (Electric capacitor) है | सामान्यत: रेडियो तथा टेलीविजन आदि यंत्रों
में लगने वाले विद्युत् संधारित्रों की क्षमता शरीर को कोशकीय क्षमताओं से कहीं कम
होती है | किसी भी मानक से इस क्षमता को बहुत विस्मयकारी कहा जा सकता है |
प्राय: व्यक्ति यह नहीं
जानता कि उसके शरीर में इतनी भारी विद्युत्-शक्ति को धारण करने की भी क्षमता है |
जब शरीर का प्रत्येक अवयव, कोश एवं ऊतक ध्वनि-कम्पनों से झंकृत होने लगता है; तो भौतिकी (Physics)
के शब्दों में ये कम्पन (Vibrations) एक विद्युत् संधारित्र के कम्पन माने जा सकते
हैं तथा इन कम्पनों से विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का बनना अवश्यम्भावी है |
वैद्युतीय चुम्बकीय तरंगें हवनकुंड के आस-पास
बैठे हुए यज्ञ-कर्त्ताओं को सीधे (Direct) भी प्रभावित करेंगी तथा परावर्तित (Reflect)
होकर भी | इन तरंगों का परावर्तन इसलिए होना सम्भव है क्योंकि यज्ञीय अग्नि-शिखा विद्युत् आवेशधारी आयनों
तथा कणों का एक समूह है | इस समूह से विद्युत् चुम्बकीय तरंगें परावर्तित होकर
मंत्रोच्चार करने वाले व्यक्ति तथा अन्य यजनकर्ताओं पर पड़ना वैसे ही समझा जा सकता
है जैसे शार्टवेव रेडियो ट्रांसमीटर (SW Radio trans-meter) से चलने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगें पृथ्वी
के वायुमंडल आयन मंडल (Ionosphere) परत से टकराकर वापिस आती हैं और पृथ्वी की
गोलस्थ अर्थात भूमंडल (Globe) पर दूर-दूर तक फ़ैल जाती है | इस प्रक्रिया में अग्निशिखा
को एक प्रबल प्रवर्तक (Amplifier) के रूप में माना जा सकता है, जिसमें विद्युत् का स्रोत
विद्युत् लाइन या कोई बैटरी नहीं वरन यज्ञीय ऊर्जा, अग्निशिखा है | यज्ञ का प्रभाव केवल मनुष्य के शरीर पर ही नहीं; मन और अन्त:चेतना
पर भी पड़ता है | इसका स्थूल रूप यज्ञोपैथी के रूप में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता
है | यज्ञोपैथी में स्थूल चुम्बकों (Magnets) का प्रयोग तो नहीं होता पर यज्ञ-प्रक्रिया के फलस्वरूप चुम्बकीय क्षेत्र और
प्रबल विद्युत् तरंगें अवश्य बनती हैं | यज्ञीय धूम्र में ऋण आवेशग्रस्त (Negative
charged) कणों का होना रसायनशास्त्र के आधार पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है |
आज यज्ञोपैथी भले ही एक परिकल्पना (Hypothesis)
लग रही हो, परन्तु एक दिन यह वास्तविकता हो जाएगी | आज का युग आपा-धापी का युग है,
जिसमें मनुष्य को प्रत्येक कार्य त्वरित गति (Instant) से चाहिए | ऐसे समय में
यज्ञोपैथी मानसिक रोगों में ही सार्थक सिद्ध हो सकती है, जिसकी अन्य किसी भी
पद्धति में त्वरित गति से चिकित्सा होना संभव नहीं है | हाँ, यह बात सिद्ध हो चुकी
है कि मनुष्य के स्वस्थ होने के पीछे केवल तन का स्वस्थ होना ही पर्याप्त नहीं है,
मन की भूमिका भी स्वस्थ रहने में महत्वपूर्ण है | कोई भी रोग असाध्य (Incurable) तब
हो जाता है, जब रोगी मानसिक रूप से निर्बल (Mentally weak) हो | यज्ञ की क्रियाएं मानसिक स्थिति को दृढ करती है, इस बात में तनिक
भी संदेह नहीं है | अगर मानसिक दृढ़ता हो तो जीवन रेखा का बढ़ जाना निश्चित है | कहा
भी जाता है- “मन के हारे हार है मन के जीते जीत“| यज्ञ से मानसिक विकार पर
नियंत्रण हो सकता है तो किसी भी प्रकार के रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है | अभी यज्ञोपैथी
पर और अधिक शोध (Research) की आवश्यकता है | एक दिन हमारे ऋषियों की साधना पुनः अपना
प्रभाव दिखलाएगी और हम सब रोग मुक्त हो सकेंगे, यही आशा है |
श्रीमद्भगवद्गीता गीता, वेद और वैज्ञानिक
आधार पर विवेचन करने के बाद हमारे समक्ष यज्ञ का एक समग्र रूप स्पष्ट होकर आया है |
जिस यज्ञ को आज तक मात्र अग्नि में हवन सामग्री को समर्पित करते हुए कुछ मन्त्र
उच्चारित करने की क्रिया मात्र समझा जा रहा है, यज्ञ उससे कहीं बढकर है | आइये ! अब
यज्ञ के विवेचन से प्रमुख रूप से जो सार की बातें निकल कर हमारे समक्ष आई हैं, उन्हें
भी जान लेते हैं |
1. यज्ञ एक विशेष प्रकार का
कर्म है | इसको केवल अग्नि में समर्पित किये जाने वाले हव्य तक ही सीमित नहीं
मानें |
2. यह यज्ञ जगत और उसके
जीवों के साथ ही उत्पन्न हुआ है और जब तक यज्ञ रहेगा तब तक जीव-जगत भी रहेगा |
3.प्रज्ञा और यज्ञ का आपस
में गहरा सम्बन्ध है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
ज्ञानं ज्ञेय परिज्ञाता त्रिविधा:
कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः
कर्मसंग्रहः || गीता-18/18||
अर्थात ज्ञान, ज्ञेय और
परिज्ञाता इन तीनों से कर्म प्रेरणा होती तथा करण, कर्म और कर्ता इन तीनों से
कर्मसंग्रह होता है |
कहने का अर्थ है कि ज्ञाता, ज्ञान और
ज्ञेय, इन तीनों से कर्म करने की प्रेरणा होती है | कर्म प्रेरणा होने से कर्ता,
कर्म और करण से कर्म संपन्न होते हैं जिनसे कर्म संग्रह होता है | परन्तु ज्ञान पूर्वक
कर्म करने से कर्मसंग्रह नहीं होता अर्थात उस कर्म का संचय नहीं होता और उसका फल भी
नहीं मिलता |
4. यज्ञ से उपयोगी वस्तु का
उत्पादन होता है | वैशेषिक दर्शन के अनुसार इस संसार में कोई नयी वस्तु नहीं बनती
बल्कि प्रकृति में उपस्थित वस्तुओं के अणुओं के संयोग से ही नयी वस्तु अस्तित्व में
आती है |
5. इष्ट वस्तु का उत्पादन
ही यज्ञ है | हालाँकि इसके साथ अनुपयोगी वस्तु भी उत्पन्न हो सकती है | यज्ञोपैथी में
यज्ञ के इसी लक्षण के आधार पर चिकित्सा की जाती है |
6. यज्ञ प्रक्रिया एक
निश्चित चक्र में होती है | इसके चक्र के तीन अर्थ हैं | पहला अर्थ कि उत्पादन के लिए
सदा नयी स्थिति बनाने की आवश्यकता नहीं है | दूसरा, यज्ञ चक्र चलते रहने से ही
मनुष्य सभ्यता चल सकती है | तीसरा अर्थ है कि जिस वस्तु द्वारा सभी प्रकार के यज्ञ
चक्र चलते रहें, वही उपयोगी है | अतः कहा जा सकता है कि यज्ञ वह कर्म है जो चक्रीय
क्रम में इच्छित वस्तु का उत्पादन करता है |
7.सबसे महत्वपूर्ण बात,
यज्ञ को समर्पित किये बिना केवल स्वयं के लिए ही पकाने और खाने वाला चोर है | ऐसा
करने वाले केवल पाप को ही खाते हैं | (गीता-3/12-13)
गत दिनों हमने यज्ञ का विभिन्न कोणों
से विवेचन किया है | परिणाम क्या निकला, यह पाठक की मनःस्थिति पर निर्भर करता है |
आत्म-कल्याण की दृष्टि से जितना श्रीमद्भगवद्गीता में यज्ञ के बारे में भगवान्
श्री कृष्ण ने समझाया है, मेरी समझ में उतना पर्याप्त है | इस श्रृंखला का समापन
करते हुए गीता के कुछ श्लोक उद्घृत करना चाहूँगा |
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् |
अधियज्ञोSहमेवात्र देहे देहभृतां वर || 8/4 ||
अर्थात हे अर्जुन ! क्षर
भाव यानि नाशवान पदार्थ अधिभूत है, पुरुष ब्रह्मा अधिदैव है और इस देह में
अंतर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ |
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् |
मन्त्रोSहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्
||9/16||
अर्थात क्रतु मैं हूँ, यज्ञ
मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ,मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और
हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ |
यज्ञदानतपःकर्म न त्याजं कार्यमेव तत्
|
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्
|| 18/5 ||
अर्थात यज्ञ, दान और तप
रुपी कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि किये जाने से ये तीनों ही कर्म मनीषियों
को पवित्र करने वाले हैं |
इस प्रकार गीता में भगवान् श्री कृष्ण
स्पष्ट कर देते हैं कि अधियज्ञ मैं ही हूँ और यज्ञ के लिए की जाने वाली क्रियाएं,
हव्य, हवन करने वाला, समिधा आदि सभी वे ही हैं अतः कर्म भी केवल उन्हीं के लिए ही करना
चाहिए | इसीलिए गीता का समापन करते हुए भी वे यही कहते हैं कि यज्ञार्थ कर्म का
त्याग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ये कर्म पवित्र करने वाले हैं |
ऋग्वेद की प्रथम ऋचा कहती है – ‘ॐ
अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् | होतारं रत्नधातमम् |’ अर्थात हम उस
अग्निदेव की स्तुति करते हैं, जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे
बढाने वाले), देवता (अनुदान देने वाले), ऋत्विज् (समयानुकूल यज्ञ का संपादन
करनेवाले), होता (देवों का आह्वाहन करनेवाले) याजकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों
से) विभूषित करनेवाले हैं |
बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि बाह्य जगत में
स्वभावतः जो यज्ञ हो रहे हैं, उन्हीं का अनुकरण हमारे ये यज्ञ हैं | यज्ञ नया
उत्पन्न नहीं किया जाता बल्कि उसको विस्तार दिया जा सकता है | यज्ञ वह विधा है
जिसमें मनुष्य व्यष्टि भाव का त्याग कर समष्टि भाव को उपलब्ध होता है | सारांश यह
है कि व्यष्टि जीवन को समष्टि जीवन के साथ मिला देना ही यज्ञ का रहस्य है |
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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