Monday, August 24, 2020

यजुः

यजुः -

              बृहदारण्यक उपनिषद् आरण्यक ब्राह्मण का वह भाग है जिसमें यज्ञ और उपासना के रहस्य और ब्रह्म-विद्या का वर्णन रहता है | इसको जंगल में पढ़ते और पढ़ाते थे, इसीलिए इसे आरण्यक कहते हैं |  इस उपनिषद में ब्रह्म-विद्या के अन्तरंग बहिरंग आदि बहुत से साधनों का वर्णन है इसी कारण से इस उपनिषद को बृहदारण्यक कहा जाता है | इस उपनिषद के प्रथम अध्याय के तीसरे ब्राह्मण के 28 वें खण्ड में मुख्य रूप से तीन मन्त्र आते हैं, जिन्हें हम प्रायः प्रतिदिन पढ़ते और बोलते रहते हैं | ये मन्त्र यजु: कहलाते हैं | यजु:, यज् धातु से बना है जिसका अर्थ है समर्पण | इस प्रकार यजुः का अर्थ हुआ, परमात्मा को समर्पित प्रार्थना अर्थात यज्ञ-प्रार्थना (The sacrificial prayer) | जिन तीन यजुः पर हम चिंतन करने जा रहे हैं, वे हैं--

असतो मा सद्गमय |

तमसो मा ज्योतिर्गमय |

मृत्योर्माSमृतं गमय |

     इनका क्रमशः हिंदी में अर्थ है, मुझे असत (मिथ्या) से सत की ओर ले चलो | मुझे तमस (अंधकार, अज्ञान) से ज्योति (प्रकाश, ज्ञान) की ओर ले चलो | मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो |

        ये तीनों यजु: हैं |  इनका गान उस समय करना चाहिए जब ऋत्विज साम गान आरंभ करता है | यह उन्नति के पथ पर आगे बढ़ने का प्रतीक है | झूठ और अज्ञान ये दो मृत्यु है | सत्य और ज्ञान ये दो अमृत हैं | जो झूठ और अज्ञान से बचकर सत्य और ज्ञान का रास्ता अपना लेता है, वह मृत्यु से बचकर अमृत बन जाता है | स्वाभाविक ज्ञान और कर्म असत है और शास्त्रीय ज्ञान और कर्म सत हैं | इस प्रकार असत से मुझे सत की ओर ले जा, का अर्थ है, मुझे स्वाभाविक ज्ञान और कर्म से शास्त्रीय ज्ञान और कर्म की और ले जा | स्वाभाविक कर्म और ज्ञान प्रकृति में बांधे रखने वाले हैं, इसलिए वे मृत्यु है | शास्त्रीय कर्म और ज्ञान हमें बचाने वाले हैं, इसलिए वे अमृत है | इसलिए ज्ञान के सम्बन्ध में भी कहा गया कि मुझे अंधकार से ज्योति की और ले जा अर्थात अज्ञान से बचाकर मुझे ज्ञान करा |

असतो मा सद्गमय

       प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं कि मुझे आप असत से सत की ओर ले चलें | इस मन्त्र के अनुसार हमें असत से सत की ओर जाना है | इसका अर्थ हुआ कि हम अभी असत में जी रहे हैं | असत क्या है और सत क्या है ? जो सत नहीं है वह असत है | जो सत्य नहीं है वह असत्य अर्थात झूठ है | यह शाश्वत सत्य है कि झूठ के पैर नहीं होते अर्थात असत्य का कोई अस्तित्व नहीं है | हमारी दृष्टि में असत्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक हम सत्य को पहचान नहीं लेते | सत्य पहचान में कैसे आएगा ? असत्य के वातावरण में हम रह रहे हैं और ऐसे वातावरण में रहते हुए हम कभी भी सत्य को पहचान नहीं पाएंगे | असत्य को तभी पहचाना जा सकता है जब हम असत्य के घेरे से बाहर निकलकर उसका निष्पक्ष होकर अवलोकन करें | असत्य का वलय (Circle) इतना अधिक मजबूत है कि उससे बाहर निकलना बड़ा मुश्किल है | अगर हम एक बार के लिए उस घेरे से बाहर निकल भी गए तो  भी वह बार-बार हमें अपने भीतर लेने के लिए आकर्षित करता रहेगा | इस घेरे में से कोई मानसिक रूप से शक्तिशाली व्यक्ति ही बाहर निकलकर उसका अवलोकन कर सकता है अन्यथा प्रायः सभी उस घेरे को ही वास्तविक सत्य समझकर उसी को अपना आश्रय स्थल (Shelter) बना लेते हैं |

          हम जिस संसार में रहते हैं उसे और उसके पदार्थों को असत कहा गया है | शरीर भी एक पदार्थ है | सक्रिय शरीर की महता (Value) है जबकि निष्क्रिय शरीर का कोई महत्त्व नहीं है | जिस-जिस में निष्क्रियता है, वे सभी जड़ हैं और जिसमें सक्रियता है वह चेतन है | इस प्रकार निष्क्रिय शरीर जड़ हुआ और सक्रिय शरीर चेतन | केवल शरीर असत है और जिसके कारण से यह शरीर सक्रिय हुआ है उसको सत कहा जायेगा | जड़ हमें दिखलाई (Visible) पड़ रहा है परन्तु चेतन अदृश्य (Invisible) है | शरीर बाहर से दिखाई दे रहा है, चेतन हमारे भीतर है | हमें जड़ को देखकर, उसमें मोहित होकर जड़ता में सदैव के लिए जकडे नहीं रहना है | हमें जड़ता को त्यागकर इस शरीर के भीतर स्थित उस चैतन्य की ओर जाना है, उसे पहचानना है, जो कि सत है | एक प्रकार से यह यात्रा बाहर से हमारे भीतर की यात्रा है | हमारे भीतर में यह जड़ता कितनी गहराई तक घर कर गयी है, इसके लिए एक दृष्टान्त देते हुए अपनी बात कहना प्रारम्भ करूँगा |

           यह दृष्टान्त मैंने हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा के श्रीमुख से अनेकों बार सुना है | भाव वही है केवल शब्दों के थोड़े से हेर-फेर के साथ वह दृष्टान्त आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ |

          किसी नगर में एक सेठ अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक निवास कर रहा था | प्रायः धनाढ्य व्यक्ति जिस प्रकार के आस्तिक होते हैं, यह सेठ भी उनसे कम आस्तिक नहीं था | उसका दैनिक नियम था, ब्रह्म मुहूर्त में उठना, दैनिक क्रिया से निवृत हो परमात्मा की पूजा पाठ, सेवा अर्चना करना और प्रार्थना करना जिससे उसका काम–धंधा अच्छा चलता रहे | साथ ही साथ वह भगवान से अपनी मुक्ति की कामना भी करता | सब काम निबटाकर अपने व्यापार को सम्हालता और सायं घर आकर सोने से पूर्व फिर एक बार परमात्मा की आरती-पूजन करना | इस प्रकार सेठ का जीवन बड़े आनंद से गुजर रहा था |

            सेठ के परिवार में धर्मपत्नी के अतिरिक्त एक युवा पुत्र और उसकी पत्नी तथा एक पौत्र था | पुत्र व्यवसाय में अपने पिता का हाथ बंटाया करता और पुत्रवधू गृहकार्य में अपनी सास का | जैसा कि प्रायः होता है, सेठ का अपने पौत्र के साथ बड़ा लगाव था | पोता भी अपने दादा से बड़ा स्नेह करता था | दादा को भी घर आने के बाद अपने पौत्र को देखे बिना चैन नहीं मिलता था |

             एक दिन वृद्ध सेठ को वैकुंठ से बुलावा आ गया है | उसकी पूजा-पाठ, सेवा –अर्चना का प्रभाव कि साक्षात् भगवान आ गए लेने के लिए | सेठ को तत्काल ही मुक्त करने का कहते हुए अपने साथ चलने को कहा | सेठ ने कहा, “भगवन ! जीवन में अब जाकर तो कुछ सुख मिलने लगा है, थोड़े दिन जीवन के और मिल जाये तो अच्छा रहेगा | इस बार आप आओगे तब आपके साथ अवश्य ही चलूँगा |” भगवान ने कहा कि “तुम सदैव अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना करते थे, इसलिए सोचा क्यों न तुम्हें मुक्त कर ही दूं परन्तु तुम मुक्त होना भी कहाँ चाहते हो ? झूठे ही कहते रहते हो- मुक्त कर दो, मुक्ति चाहिए |” भगवान् उसे समझाते रहे लेकिन सेठ ने साथ जाने से स्पष्ट इनकार कर दिया | सेठ को गिडगिडाते देख कर भगवान को भी दया आ गयी | उन्होंने सेठ को जीवन जीने के लिए कुछ समय और दे दिया |

                  नियति का खेल देखिए, आखिर सेठजी एक दिन चल बसे | अपने पूर्वजन्म के कर्मों और परिवार में गहरी आसक्ति के कारण उनको अपने घर से निकल रहे गंदे पानी की नाली का कीड़ा बनना पड़ा | फिर भी कीड़ा बन कर वह सेठ बड़ा प्रसन्न था | एक दिन भगवान को स्मरण हो आया कि “अरे ! सेठ मुक्ति मांग रहा था | बहुत दिन हो गए, उसका जाकर पता करना चाहिए, कहाँ है वह आजकल, क्या कर रहा है अभी ?” भगवान से भला क्या कुछ कभी भी छिपा रह सकता है | उन्हें पता चल गया कि सेठ तो अपने घर की नाली का कीड़ा बना पड़ा है | झट पहुँच गए उस कीड़े के पास और बोले –“मैं आ गया हूँ सेठ, तुम्हें मुक्ति चाहिए थी न | चलो, आज मैं तुम्हें मुक्त करने आया हूँ |” सेठ, जो कीड़े के रूप में अपने घर की गंदे पानी के निकास की नाली में पड़ा था, बोला -“नहीं भगवन ! इस नाली के रास्ते से मेरे घर का पानी बाहर निकलता है | वह पानी मेरे पौत्र के नहाते समय उसके शरीर को स्पर्श कर आ रहा है | मुझे इस पानी के स्पर्श से बड़ा सुख मिलता है, उस जल को पीता हूँ तो मुझे बड़ा आनंद आता है | मुझे मुक्ति नहीं चाहिए | मैं जहाँ और जैसा भी हूँ, वहीं ठीक हूँ |” भगवान चले गए, यह सोचते हुए कि मुक्ति की इच्छा का प्रदर्शन तो सभी करते हैं परन्तु वास्तव में संसार से मुक्त होना कोई चाहता नहीं है | जिसको जैसी भी परिस्थिति मिली, उसने अपने आपको इस संसार में उसी अनुरूप ढाल लिया है | इस संसार में प्रारब्धवश मिली परिस्थिति को पाकर हर कोई खुश है |

                   इस संसार में ऐसा ही हाल हम सभी का है | इस संसार में जो भी परिस्थिति हमें मिली है, उसके अनुसार हमने स्वयं को ढाल लिया है | इन परिस्थितियों के बारे में बिना जाने कि ये हमारे अनुकूल है अथवा प्रतिकूल, हमने इनको अपनी नियति मान लिया है | परिस्थिति कैसी भी हो, परमात्मा ने हमें ऐसी क्षमता दी है कि हम इनसे भी मुक्त हो सकते हैं | इन परिस्थितियों को हमने अपने पैरों में बेड़ियाँ (Chains) बनाकर डाल लिया है और समझ रहे हैं कि ये बेड़ियाँ किसी अन्य ने हमें पहनाई है | नहीं, ये बेड़ियाँ हमें किसी अन्य ने नहीं पहनाई है बल्कि हमने स्वयं ही इन्हें पहनी है और वह भी अपनी इच्छा से | हम सोच रहे हैं कि कोई आकर हमें इन बेड़ियों से मुक्त करेगा | कोई भी आकर आपको इनसे मुक्त नहीं कर सकता, इनसे तो आपको, स्वयं को ही मुक्त होना है | इन बेड़ियों का कोई अस्तित्व न तो कभी था और न ही आज और अभी है | सभी प्रकार की बेड़ियाँ असत्य हैं | अंतर मात्र इतना ही है कि हमने इस असत्य को ही सत्य मान लिया है | सत्य तो वास्तव में मुक्ति ही है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही मुक्त हैं | बंधन में तो वह स्वयं बंधता है | सब कुछ हमारी सोच का ही परिणाम है |

            इस असत जगत में आकर हमारी स्थिति उस ऊँट की तरह हो गयी है, जिसने बिना रस्सी से बंधे हुए भी अपने आपको बंधा हुआ मान लिया था | उत्तर भारत में एक जाति है, रैबारी, जिनको राईका भी कहा जाता है | इनका मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन है | एक बार एक रैबारी अपने ऊँटों की टोली को लेकर दूर देश जा रहा था | रात में वह किसी एक स्थान पर रुकता, खूंटे गाड़कर उनसे अपने ऊँटों को अलग-अलग बाँध देता और दूसरे दिन सुबह उन्हें खोलकर फिर आगे की यात्रा पर निकल जाता | इस प्रकार वह अपनी यात्रा पर अनवरत गतिमान था | एक सुबह उसने ऊँटों को खोलते समय देखा कि एक ऊँट की रस्सी टूटकर इतनी छोटी सी रह गयी है कि उससे अब इस ऊंट को बांधना असंभव है अर्थात उस डोरी से ऊंट को अब और नहीं बांधा जा सकेगा | उसने सोचा कि रास्ते में पड़ने वाले किसी गाँव में रूककर वह नई रस्सी ले लेगा | दुर्भाग्य से रास्ते में कोई गाँव ऐसा नहीं आया जहाँ से उसे ऊंट को बांधने के लिए रस्सी मिल सके |

           साँझ ढलने लगी थी | रास्ते में उसे एक संत की कुटिया दिखलाई पड़ी | उसने सोचा कि क्यों न आज की रात उस कुटिया के पास ही डेरा डाला जाये | उसने एक-एक कर सभी ऊँटों के खूंटे गाड़े और उनसे उनको बाँध दिया | सभी ऊँट बंधने के बाद बैठकर चरने लगे थे | बस केवल वही एक ऊँट बंधे जाने से बचा था जिसकी रस्सी टूटकर इतनी छोटी हो गयी थी कि उससे उसे बांधा जाना संभव ही नहीं था | उसने उस ऊँट को बिना बांधे ही बैठाने का प्रयास किया परन्तु वह ऊँट तो ऐसा जिद्दी निकला कि लाख प्रयास के बाद भी वह बैठ नहीं रहा था | संत अपनी कुटिया के बाहर बैठे रैबारी के प्रयास को देख कर मंद-मंद मुसकुरा रहे थे |

          अब रैबारी परेशान | गया संत के पास, बोला-“महाराज, यह ऊँट मेरे लाख प्रयास करने के बाद भी क्यों नहीं बैठ रहा ? आप इसको बैठाने का कोई उपाय बताइए |”

संत ने छोटा सा उत्तर दिया-“पहले इसको बाँध तो दो |”

“महाराज, मेरे पास लम्बी रस्सी नहीं है, नहीं तो बाँध ही देता न |”

‘केवल तुम्हें पता है कि रस्सी लम्बी नहीं है परन्तु यह बात ऊँट थोड़े ही जानता है | तुम उसके लिए प्रतिदिन की भांति खूँटा गाडो और फिर उस छोटी से रस्सी को हाथ में पकड़कर बांधने का उपक्रम करो | तुम्हारे ऐसा करते ही ऊँट बैठ जायेगा |”

            रैबारी तुरंत ऊंट की ओर दौड़ा और उसने खूँटा गाड़कर उसे बांधने का प्रतिदिन की भांति ही उपक्रम किया | आश्चर्य, ऊँट भी बिना बंधे ही अपने आपको बंधा हुआ मानकर तुरंत ही बैठ गया और चरने लगा | तब कहीं जाकर रैबारी की जान में जान आई | रैबारी ने संत का बड़ा आभार माना और भोजन कर सोने चला गया |

        भोर हुई | रैबारी ने नित्य कर्म से निवृत होकर एक-एक कर ऊँटों को खोलने लगा | खोलते ही सभी ऊँट खड़े हो गए | बस, उसी एक ऊँट के कारण फिर एक समस्या आ गयी | जिस ऊँट को रात को बिना रस्सी के ही बांधने का उपक्रम करके बैठाया गया था, अब वह उठने का नाम ही नहीं ले रहा था | रैबारी पुनः संत की शरण में गया | बोला-“महाराज, फिर वैसी ही एक समस्या आ गयी है |’

संत बोले -“अब क्या हुआ ?”

“महाराज, अब वह ऊँट उठ ही नहीं रहा जो रात को बैठ नहीं रहा था |”

संत ने कहा-“अरे भैया ! उस ऊंट को पहले खूंटे से खोलो तो सही, फिर देखना वह अपने आप ही उठ जायेगा |”

“लेकिन महाराज आप जानते ही हैं, रात को उसको मैंने बांधा ही कहाँ था जो अब उसको जाकर खोलूं |”

“तुम भी निरे ऊँट हो | अरे ! रात को तुमने उसे बांधने का जो उपक्रम किया था, उससे वह अभी भी अपने आपको बंधा हुआ मान रहा है | तुम जाकर उसको खोलने का उपक्रम करो, वह अपने आपको बंधन मुक्त मानकर उठ खड़ा होगा |”

             रैबारी तुरंत ही दौड़ पड़ा और उसने ऊँट की रस्सी खोलने और खूंटे को उखाड़ने का उपक्रम किया | तुरंत ही ऊँट खड़ा हो गया और सभी ऊँटों के साथ आगे की यात्रा पर चलने को तैयार हो गया | रैबारी ने एक बार पुनः संत को धन्यवाद दिया और आगे की यात्रा पर निकल गया | रैबारी ने इससे सीख ली या नहीं ली इससे हमें क्या मतलब परन्तु आप तो समझ ही गए न | हम भी इसी प्रकार बिना किसी डोरी के अपने संसार से बंधे बैठे हैं | इस संसार के बंधन से निकलने का प्रयास ही स्पष्ट करेगा कि हमने इस दृष्टान्त से क्या कुछ सीखा है ?

          असत हमें बांधता है क्योंकि हम जाकर उससे बंधते हैं | सत हमें मुक्त करता है परन्तु विडंबना देखिये, हम सत को ओर जाते ही नहीं है | संसार असत है और परमात्मा सत हैं, केवल इतना सा ही जान लेना बड़ा महत्वपूर्ण है | संसार की असत्यता का भान हुए बिना हमें सत्य नहीं मिल सकता | संसार को जानने के लिए हमें संसार से अलग अर्थात संसार से दूर होकर उसका अवलोकन करना होगा | अगर मैं आपके बारे में सब कुछ जानना चाहता हूँ, तो मेरे द्वारा आपको जानना तभी संभव हो पायेगा जब मैं आपसे दूर जाकर खड़ा हो जाऊं | यहाँ दूर चले जाने से अर्थ भौतिक रूप से दूर चले जाने से नहीं है बल्कि आपके प्रति जो मेरा आसक्तिपूर्ण सम्बन्ध है, उससे दूर चले जाने से है | मैं आपके पास रहते हुए आपको कभी भी नहीं जान पाऊँगा | आपके पास होने का अर्थ है कि मैं आपसे बंधा हूँ, चाहे वह बंधन मित्र के रूप में हो चाहे भाई के रूप में अथवा अन्य किसी नाम और रूप से हो | मेरा आचार, मेरे विचार और आपके प्रति मेरा व्यवहार उस बंधन के अनुरूप ही होगा | हमारा हाल भी इस असत संसार में रहते हुए ऐसा हो गया है |

              इसलिए हम परमात्मा से सर्वप्रथम यही प्रार्थना करते हैं – “असतो मा सद्गमय |” जैसा कि मैंने लेख की भूमिका यजुः में कहा है कि स्वाभाविक ज्ञान और कर्म असत है | स्वाभाविक ज्ञान और कर्म अर्थात वह ज्ञान और कर्म जो हमारे स्वभाव में है | स्वभाव हम जन्म के साथ लेकर आये हैं | हमारा स्वभाव बनता है हमारे पूर्वजन्म के कर्मों से | हम अपने पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर इस संसार में एक व्यक्ति के रूप में आये हैं | हमारा स्वभाव ही हमें संसार में उलझाकर छोड़ देता है | हम एक संसार से निकल कर दूसरे संसार में पड़ गए हैं और यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक हम असत से दूर होकर सत की ओर नहीं चलने लगेंगे |  

             स्वाभाविक ज्ञान और कर्म के अनुसार स्वप्न की सी स्थिति इस संसार की है | यह संसार स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं और स्वप्न कभी भी सत्य नहीं होता | नींद में देखे घटनाक्रम को तो हम स्वप्न मानकर व्यथित नहीं होते परन्तु वास्तविक जीवन में किसी  घटना के घटित होने पर हम व्यथित हो जाते हैं | जबकि दोनों में कोई मूलभूत अंतर ही नहीं है | अंतर केवल इतना ही है कि नींद में देखे स्वप्न को हम नींद से जागते ही झूठा मान लेते हैं, उसे अपने जीवन की वास्तविकता न मानकर मन की कल्पना मात्र मान लेते हैं | विडम्बना है कि वास्तविक जीवन में ऐसी ही घटित होने वाली घटना को देख कर हम उसे असत्य मानने को तैयार नहीं हैं | जिस दिन हम उसको भी झूठा मानने लगेंगे तभी हमारी यात्रा की दिशा सत्य की ओर हो जाएगी |

                  अपनी इस बात को स्पष्ट करने के लिए फिर एक दृष्टान्त देता हूँ | एक राजा और एक रानी, उनके इकलौता पुत्र, राजकुमार | बहुत बड़े राज्य के राजा | दुर्भाग्यवश राजकुमार असाध्य रोग से ग्रस्त हो गया | वैद्यों ने बहुत चिकित्सा की लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ | अंततः एक दिन राज-वैद्य ने कह ही दिया कि आज की रात राजकुमार के जीवन की कदाचित् अंतिम रात होगी | राजा-रानी दोनों रात को अश्रुपूरित नयन लिए राजकुमार के पास बैठ गए | रात गहरा रही थी | दिन भर व्यस्त रहने के कारण राजा को थोड़ी नींद सी आने लगी परन्तु रानी की आँखों से नींद कोसों दूर थी, आखिर मां जो ठहरी |

            राजा उसी कमरे में विश्राम करने लगा | आँख लगनी थी, लग गयी और सपना शुरू हो गया | सपने में भी एक बहुत बड़े राज्य का राजा | सुन्दर रानी, और सात सुन्दर राज कुमार | अचानक एक दिन पडौसी राज्य के राजा ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया | राजा उस समय आखेट पर गया हुआ था | शत्रु राजा के आक्रमण का प्रत्युतर देने सातों राजकुमार चल पड़े परन्तु अनुभवहीनता के कारण सातों ही खेत रहे | आखेट से राजा लौटा तो उसके सामने उसके सात राजकुमारों के शव पड़े थे | तभी राजा को आखेट से लौटा देखकर रानी ने जोर से विलाप किया | इस प्रकार रानी के अचानक विलाप करने से राजा की नींद टूट गयी और स्वप्न भंग हो गया |

             नींद से जागते ही राजा ने देखा कि उसका मृत्यु शैया पर पड़ा असाध्य रोग से पीड़ित राजकुमार चल बसा है और उसकी पत्नी यानि रानी उसके शव से लिपटकर विलाप कर रही है | वह इस वास्तविक जीवन वाली रानी के विलाप का कारण समझ गया था | वह रानी के पास गया, उसे सांत्वना देने का असफल प्रयास किया | उसको कभी सपने वाले सात राजकुमारों के शव दिखाई दे रहे थे और कभी साक्षात् सामने पड़े राजकुमार का शव | वह सोच-विचार रहा था कि वह किसके लिए विलाप करे, उन स्वप्न वाले सात राजकुमारों के लिए या वास्तविक जीवन वाले इस एक राजकुमार के लिए | इस प्रकार सोच में डूबा राजा ने विलाप ही नहीं किया | वह कभी इधर अपने राजकुमार का शव देखता और कभी उधर सपने में मृत सात राजकुमारों के शवों पर विचार करता |

              आखिर रानी भी कितनी देर तक रोती | वह भी रोते-रोते थक गयी थी | उसने सिर उठाकर राजा की ओर देखा | राजा राजकुमार के शव की ओर टकटकी लगाये चुपचाप बैठे थे | वे किसी भी प्रकार का रोना-धोना नहीं कर रहे थे | रानी ने हिम्मत कर राजा से पूछा- “क्या आपको अपने प्रिय राजकुमार के चले जाने का कोई दुःख नहीं हुआ है ? आप अपने चहेते और इकलौते राजकुमार के जाने पर विलाप क्यों नहीं कर रहे हैं ?” राजा ने कहा कि “मैं एक प्रकार की दुविधा में हूँ कि इस इकलौते राजकुमार की असामयिक मृत्यु का दुःख करूँ अथवा उन सात राजकुमारों की मृत्यु का, जिनके शव अभी-अभी मैंने स्वप्न में देखे हैं |”

        आपकी दृष्टि में राजा के लिए दुःख करने का कारण किसके प्रति बनता है ? हाँ, आपका सोचना सत्य है कि राजा को वास्तविक संसार के राजकुमार के शव पर विलाप करना चाहिए क्योंकि स्वप्न में देखे गए संसार का तो अस्तित्वहीन है | परन्तु सत्य तो यह है कि दुःख करने का कोई कारण उपरोक्त दोनों ही परिस्थितियों में नहीं बनता क्योंकि दोनों ही संसार स्वप्न मात्र है | नींद में देखा स्वप्न हमें स्वप्न प्रतीत होता है परन्तु जाग्रत अवस्था में अपने संसार में रहते हुए हमें वह संसार स्वप्न नहीं लगता | जबकि वास्तविकता यह है कि दोनों ही मात्र स्वप्न हैं; एक नींद में देखा गया स्वप्न है तो दूसरा जागते हुए देखा गया स्वप्न है | नींद में देखा गया स्वप्न हो अथवा जागते हुए देखा जा रहा स्वप्न यानि संसार, है तो दोनों ही क्षण भंगुर | दोनों ही स्थितियों में दिखलाई पड़ने वाले जैविक सम्बन्धों को हम स्थाई होना मान लेते हैं, यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी समस्या है | यहाँ इस क्षण भंगुर संसार में कोई भी सम्बन्ध स्थाई नहीं है |

               हम नींद की अवस्था में स्वप्न की सत्ता को मान लेते हैं परन्तु उसकी सत्ता तो जाग जाने पर समाप्त हो जाती है परन्तु जाग जाने के उपरांत जो भी हम व्यवहार करते हैं उस संसार की सत्ता का समाप्त होना बड़ा ही मुश्किल है | स्वप्न अथवा कल्पना लोक की सत्ता प्रतिभासित सत्ता (Phenomenal reality) कहलाती है | जाग्रत अवस्था में जो सत्ता की प्रतीति होती है वह व्यावहारिक सत्ता (Transcendental reality) कहलाती है | ये दोनों ही सत्ता असत है, इसलिए उनका अस्तित्व बना रह ही नहीं सकता | वास्तविक सत्ता तो केवल एक ही है और वह है परमात्मा की सत्ता (Absolute reality), यही सत्ता सत है | वास्तविक समस्या तो व्यावहारिक सत्ता से बाहर निकल जाने की है | जिस दिन व्यावहारिक सत्ता का परमात्मिक सत्ता में लय हो जायेगा, तब हमारी असत से सत की यात्रा पूर्णता को प्राप्त कर लेगी |

               इस भौतिक संसार में पिता-माता, पुत्र-पुत्री, दादा-दादी आदि से आपका केवल जैविक सम्बन्ध है | हम प्रत्येक जैविक सम्बन्ध के मात्र एक ‘माध्यम’ हैं, हम उनके ‘कारण’ नहीं है | जिस कार्य में आप केवल एक ‘माध्यम’ बनते हो तो उस कार्य के आप कभी ‘कर्ता’ हो ही नहीं सकते | जब आप किसी कार्य का ‘कारण’ बन जाते हो तो फिर स्वतः ही आप उस कार्य के ‘कर्ता’ भी बन जाते हो | कर्ता बनोगे तो फिर सुख-दुःख का भोक्ता भी आपको ही बनना पड़ेगा | ‘माध्यम’ होने में कर्तापन का अभाव होता है, जबकि ‘कारण’ बनने में कर्तापन का भाव होता है | ‘मैं’ और ‘मेरे’ का भाव ही हमें संसार के बंधन में बांधता है, अन्यथा इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही ‘मुक्त’ है | जन्म से ही मुक्त होना सत्य है और ‘मैं’ और ‘मेरा’ को मानना असत्य है |

          जब आप किसी कार्य के कर्ता बनते हो तो फिर कर्म भी आपके द्वारा ही किया गया माना जायेगा | कर्म करना, कर्ता के स्वभाव पर निर्भर होता है | कर्म स्वयं सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक नहीं होता बल्कि कर्ता सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक स्वभाव वाला होता है | मनुष्य का स्वभाव उसके अपने गुणों के अनुसार होता है और उसी स्वभाव के अनुसार वह कर्ता बनकर कर्म करता है | गुण केवल प्रकृति में रहते हैं | इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य के स्वाभाविक कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं और ये गुण ही उसे प्रकृति के साथ बांधते हैं |

              यह गुण, स्वभाव, कर्ता, कर्म और फिर कर्म से पुनः गुण की अटूट श्रृंखला चलती रहती है जो मनुष्य को प्रकृति से मुक्त नहीं होने देती | प्रकृति न तो असत है और न ही सत | शास्त्रों में प्रकृति को अनिर्वचनीय (Unexpressible) कहा गया है अर्थात जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है | इसी प्रकृति से जगत बनता है, जिसे माया कहा जाता है | यह माया असत है | माया के कारण ही हम सभी अपने-अपने  संसार का निर्माण कर लेते हैं | इसलिए माया की तरह यह संसार भी असत हुआ | क्यों कहा जाता है, माया को असत ? माया प्रकृति के कारण है तो क्या प्रकृति भी असत है ? प्रकृति सत से आई है परन्तु न तो उसे सत ही कहा जा सकता है और न ही असत | असत तो इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि सत से यह सीधे सीधे बनी है और इसे सत इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह परिवर्तनशील है | सत्ता केवल एक की ही रह सकती है, दो की नहीं | इसलिए सत्ता एक सत की होती है, किसी दूसरे की नहीं | गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –‘नासतो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सतः |’ (गीता-2/16) अर्थात असत की तो सत्ता नहीं है और सत का कहीं अभाव नहीं है |

                 प्रकृति दिखलाई पड़ रही है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी सत्ता हो गयी | उसकी सत्ता दिखलाई दे रही है इसलिए हम उसको ही सत मान लेते हैं | प्रकृति की सत्ता दिखलाई देने के दो कारण है – प्रथम, हमें जो दिखलाई पड़ रहा है, उसके अस्तित्व से कैसे इनकार किया जा सकता है ? दूसरा - हमारी आसक्ति, हमारा प्रकृति की ओर आकर्षण हमें उसकी सत्ता को मानने को एक मजबूत आधार प्रदान करता है | हाँ, दोनों ही दृष्टि में प्रकृति की सत्ता को मानना अनुचित नहीं है परन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि जिसके स्थायित्व में ही शंका हो, परिवर्तनशीलता जिसका गुण हो, उसकी सत्ता कैसे स्वीकार्य हो सकती है ?

               सामने एक दीवार है, उसकी सत्ता आपको दिखलाई पड़ रही है क्योंकि उसके मुक्का मारने पर आपको दर्द होता है, आँख बंद कर चलोगे तो सामने की दीवार से सिर भी टकरा सकता है | यह सब देखकर आप कहोगे कि स्पष्ट दिखाई दे रही है न दीवार की सत्ता ! अगर दीवार की सत्ता नहीं है तो फिर हाथ और सिर में चोट कैसे लगी ? लेकिन जरा दूसरी प्रकार से सोचिये ! यही दीवार बीस वर्षों बाद क्या इसी मजबूती के साथ खड़ी रहेगी ? नहीं न, एक दिन यह भी कमजोर होकर गिर जाएगी | दीवार की सत्ता कैसे बीस वर्षों में तिरोहित हो गयी जबकि जो सत्ता आज है वह तो सदैव के लिए होनी चाहिए थी | यह नहीं हो सकता कि आज तो दीवार की सत्ता है और कल उसकी सत्ता नहीं रहेगी | देखना है तो यह देखो कि इस दीवार की जो सत्ता आज हमें दिखाई दे रही है उस सत्ता के पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही है ? जो शक्ति इस दीवार की दिखलाई पड़ रही छद्म सत्ता के पीछे खड़ी है, वास्तव में सत्ता केवल उसी की है | दीवार में दिखलाई देने वाली सत्ता दीवार की सत्ता न होकर उसको मजबूती प्रदान करने वाली शक्ति की सत्ता है |

                 यही नियम प्रकृति पर भी लागू होता है क्योंकि दीवार का कारण अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति ही है | प्रकृति की माया से ही इस दीवार का निर्माण हुआ है | इस माया के कारण हमें उसी की ही सत्ता दिखलाई अवश्य पड़ रही है परन्तु उसके पीछे भी किसी न किसी की सत्ता अवश्य है | देखा जाये तो उसको अर्थात प्रकृति को उस सत ने सत्ता कुछ काल के लिए सौंप रखी है | वास्तव में सत्तावान तो केवल एक सत ही है और वह सत है परमपिता परमेश्वर | इसीलिए कहा जाता है कि असत के पीछे भी सत का हाथ होता है तभी वह असत होकर भी सत नज़र आता है | हमारी यह भ्रान्ति तभी समाप्त होगी जब हम उसी असत के पीछे छुपे हुए सत को जानने के लिए उसकी ओर चलेंगे और उसे जान लेंगे | ज्ञान हो जाने पर असत की सत्ता समाप्त हो जाएगी और फिर चहुँ ओर सत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होगा |

      आदिगुरू शंकराचार्य विवेक-चूड़ामणि में कहते हैं-

                  माया मायाकर्यं सर्वं महदादि देहपर्यंतम् |

               असदिदमानात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ||125||

अर्थात माया और महतत्व से लेकर देहपर्यंत माया के सम्पूर्ण कार्यों को मरु मरीचिका के समान असत और अनात्म जान |

             अब तक किये गए विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्य एक ही है और वह है, परम पिता परमेश्वर | वास्तव में देखा जाये तो यही अवस्था मनुष्य की जाग्रत अवस्था है | केवल आँखें खुली रखने को ही जागना नहीं कहा जाता | अगर हमारा सम्बन्ध प्रकृति के साथ बना हुआ है तो हम बंधन में हैं, हम असत्य के साथ है न कि सत्य के | हम सत्य को कैसे पहचान सकते हैं ? यह जानना अति आवश्यक है अन्यथा हम सत्य की और कैसे चलेंगे ? हमें सत्य को जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए बल्कि सर्वप्रथम असत्य क्या, कैसे और क्यों है, उसको पहचानना चाहिए |

           हमें असत की ही सत्ता दृष्टिगोचर क्यों हो रही है ? दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रश्न यह बनता है कि परमात्मा (सत) और हमारे मध्य ऐसी कौन सी बाधा है, जो हमें असत से सत की ओर जाने नहीं देती ? यह बाधा दो कारण से है अर्थात सत और असत के मध्य पड़े दो आवरण | पहला आवरण है, माया का और दूसरा आवरण है हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का अर्थात प्रारब्ध का | प्रारब्ध का आवरण तो प्रारब्ध भोगते ही हट जायेगा परन्तु माया का जो यह आवरण है वह बिना परमात्मा की कृपा हुए नहीं हटेगा |

             प्रारब्ध को तो हम समझ गए कि यह हमारे पूर्व जन्म की शेष रही कामनाएं हैं और साथ ही वे कर्म भी हैं जिनके फल अभी मिलने शेष हैं परन्तु यह माया क्या बला है ? माया हमारे मन की अवस्था का नाम है हमारे मन की कल्पना का नाम है | इसको मृग-मरीचिका भी कहा जा सकता है जैसे मृग को प्यास लगने पर दूर कहीं जल होने का आभास होता है परन्तु वास्तव में वहां जल होता नहीं है | इसी प्रकार हम अपने द्वारा निर्मित संसार से सुख पाने की कामना करते हैं परन्तु वास्तव में देखा जाये तो इस संसार में सुख है ही नहीं | मृग को जल की प्यास है, वह जंगल में मरीचिका मे जल समझकर उसमें उलझ जाता है और दौड़ते दौड़ते दम तोड़ देता है | इसी प्रकार हम भी सुख की चाह में जीवन भर कोल्हू के बैल बनकर रह जाते हैं और एक दिन हम भी सुख से वंचित रहते हुए मृग की परिणिति तक पहुँच जाते है |  

         हमारे और परमात्मा के मध्य जो माया का आवरण पड़ा है, वह हमारे कारण ही पड़ा है | कहने का अर्थ है कि इस आवरण को हमने स्वयं के ऊपर जान-बुझकर ओढ़ रखा है | हमारा मन इसके लिए उत्तरदायी है | मन बड़ा चंचल है और वह विषय भोगों की ओर रह रह कर दौड़ता रहता है | भोगों से हमें एक प्रकार का छद्म शारीरिक सुख मिलता है और हम पुनः वैसा ही सुख पाने की कामना करने लगते हैं | मन उन कामनाओं का जन्म स्थान है और इसका परिणाम यह होता है कि वह कर्मेन्द्रियों से अपनी इच्छानुसार कर्म करवाने में लग जाता है | वास्तव में इस संसार में कोई भी भोग सदा के लिए सुख ही सुख नहीं दे सकता | प्रत्येक भोग के साथ सुख-दुःख दोनों जुड़े होते हैं | आज जो भोग सुखदाई प्रतीत होते हैं, वही भोग भविष्य में दुःख का कारण बनते हैं | प्रत्येक विषय-भोग से प्राप्त होने वाला सुख अनित्य है और जो अनित्य है, वह कभी सत नहीं हो सकता |  

          असत और सत के मध्य पड़े माया के इस परदे को परमात्मा की कृपा होने से ही हटाया जा सकता है | इस प्रकार स्पष्ट है कि हमें असत से सत की ओर परमात्मा ही ले चलेंगे परन्तु उसके लिए हमारे भीतर उस परम की ओर जाने की मुमुक्षा भी होनी चाहिए | सनातन शास्त्रों में इसे स्व-कृपा कहा गया है | स्व-कृपा का अर्थ है, स्वयं को सत की ओर जाने के लिए तैयार कर लेना, उस ओर चलने के लिए कमर कस लेना | यह नहीं होगा कि असत से सत की और हमें परमात्मा ले जाने लगे और हम पीछे मुड़-मुड़ कर असत की ओर ही आकर्षित होते रहें | मनुष्य जीवन की एक बहुत बड़ी विडंबना है कि उसे मार्ग में आ रही बाधाओं को देखकर अपना पुराना स्थान ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है और वह उसी स्थान पर पुनः लौटने का प्रयास करता है | अतः आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम यह पक्का निर्णय कर लें कि अब हमें असत में नहीं रहना है बल्कि सत को पाने के लिए उसकी ओर ही जाना है | सत की ओर जाने का दृढ़ निश्चय ही स्व-कृपा कहलाता है |

             आइये ! सत की ओर चलने के लिए दृढ़ता होने की बात को एक दृष्टान्त के माध्यम से स्पष्ट करते हैं | एक कलाकार ने ईश्वर की मूर्ति बनाने के लिए दो पत्थरों का चयन किया | दोनों को अपने पास रखकर उसने अपने औजार उठाये | सर्वप्रथम उसने एक पत्थर को उठाया और उसे अपने पास व्यवस्थित ढंग से रखा | उसने पत्थर का भलीभांति निरीक्षण किया और उसके अनावश्यक भाग को हटाने के लिए उस पर छैनी-हथौड़े से चोट करने लगा | थोड़ी देर तो वह पत्थर प्रतिमा बनने के लिए चोट सहता रहा पर थोड़ी ही देर में उसका धीरज छूट गया | वह बुरी तरह रोने लगा और शिल्पकार से और अधिक चोट न करने की प्रार्थना करने लगा | मूर्तिकार भी समझ गया कि यह पत्थर मूर्ति बनना ही नहीं चाहता तो फिर वह व्यर्थ में इस पर प्रयास क्यों करे ? पत्थर को तराशते समय कहीं चोट न सह पाने के कारण यह टूट कर बिखर गया तो उसका अब तक का प्रयास व्यर्थ ही चला जायेगा | यह सोचकर उसने उस पत्थर को उसके हाल पर ही छोड़ दिया और दूसरे पत्थर को उठाकर उसमें से प्रतिमा निकालने के लिए उसे तराशने लगा |

               कुछ दिनों बाद उस दूसरे पत्थर से भगवान की बड़ी सुन्दर मूर्ति बनकर तैयार हो गयी | कुछ समय पश्चात् उसी स्थान पर मंदिर बनाकर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गयी | मंदिर में भक्त गण आने लगे | सुन्दर प्रतिमा सब भक्तों का मन मोह लेती | वे भगवान की मूर्ति को प्रसाद और पुष्प अर्पित करते और उसके सामने दंडवत प्रणाम करते | पहले वाला पत्थर वहीँ मंदिर के द्वार पर ही पडा था | उसको इस बात से ईर्ष्या होती कि मंदिर के भीतर वाली प्रतिमा भी तो पूर्व में मेरे जैसा ही पत्थर थी फिर आज क्यों लोग उसे तो पूजते हैं और मेरे ऊपर बैठकर मेरे पास में ही जूते-चप्पल खोल देते हैं, इतना ही नहीं; कभी-कभी मेरे ऊपर अपना पैर तक रख देते हैं ?

            एक दिन सायंकालीन आरती के बाद जब सभी भक्त मंदिर से लौट गए तो बाहर पड़े पत्थर ने गर्भ गृह में मूर्ति बने हुए पत्थर से पूछा- “तुम और मैं, दोनों एक ही खदान से निकाले गए, दोनों को एक ही शिल्पकार ने पसंद किया परन्तु ऐसा क्या हो गया कि भक्त लोग तुम्हें तो पूजते हैं और मुझ पर पैर रखते हैं ?” प्रतिमा बन चुके पत्थर ने उत्तर दिया –“ मैं भगवान बनना चाहता था, उसके लिए चोट पर चोट सहता गया | उसी का परिणाम है कि आज मैं पूजा जाने लगा हूँ | इच्छा तो तुम्हारी भी प्रतिमा बनने की ही थी, परन्तु तू दो-चार चोट भी सहन नहीं कर सका और टूटने लगा | इसलिए तुमने मूर्ति बनने के स्थान पर पत्थर ही बने रहने का निश्चय कर लिया | अगर तू भी तराशने के लिए मारी जाने वाली चोटों से विचलित नहीं होता तो आज तू भी पूजा जाता |”

              दूसरे पत्थर ने मूर्ति बनने के लिए बहुत सारी चोटें सही, फिर भी वह व्यथित नहीं हुआ | इसे कहते है, स्व-कृपा | असत से सत की ओर चलने के मार्ग में विपरीत परिस्थितियाँ आएगी, शारीरिक और मानसिक दुःख भी उठाने पड़ सकते हैं परन्तु आपको जरा सा भी विचलित नहीं होना है | असत में जो आपको सुख दिखाई दे रहा है वह छद्म सुख है, उस सुख के पीछे छिपा दुःख केवल अवसर मिलने की प्रतीक्षा कर रहा है | अवसर मिलते ही वह सुख का स्थान ले लेगा | इस मार्ग में विपरीत परिस्थितियों को सहकर ही सत तक पहुंचा जा सकता है, जहाँ अनंत आनंद आपकी प्रतीक्षा कर रहा होता है | हाँ, इसके लिए आपको स्वयं पर कृपा बनाये रखनी होगी |

               प्रत्येक पत्थर में कोई न कोई छुपी हुई कलाकृति अवश्य होती है | हमें उस कलाकृति को देखने के लिए पत्थर के अनावश्यक भाग को हटाना पड़ता है | पत्थर से अनावश्यक भाग को हटाते ही कलाकृति स्वतः ही हमारे सामने प्रकट हो जाती है | इसी प्रकार सत्य को सामने लाने के लिए हमें जीवन से असत्य को पहचान कर उससे धीरे-धीरे दूर होना होगा | इतना कर लेने से सत्य स्वतः ही एक दिन हमारे सामने प्रकट हो जायेगा |

               सत्य सदैव के लिए सत्य होता है, केवल एक दिन के लिए नहीं | वह कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी सत्य ही रहेगा | उसको अपने सत्य होने का प्रचार नहीं करना पड़ता और न ही उसे कोई प्रमाण देना पड़ता है | असत्य को अवश्य ही स्वयं को सत्य बताने के लिए प्रचार करना पड़ता है | सत्य को अपना रूप प्रकट करने के लिए कोई मुखौटा नहीं चाहिए जबकि असत्य को सत्य होने का प्रमाण देने के लिए सत्य का मुखौटा लगाये घूमना पड़ता है जिससे लोग उसे भी सत्य समझे | असत्य कुछ समय के लिए ऐसा कर सत्य प्रतीत हो सकता है लेकिन एक न एक दिन उसकी वास्तविकता सबके सामने आ ही जाएगी | इसीलिए कहा जाता है कि सत्य को सदैव के लिए छिपाया नहीं जा सकता |

            अब आते हैं, मूल बात पर | जब सबके पीछे सत्य की ही सत्ता है तो फिर उसी सत्ता के द्वारा सृजित असत्य कैसे हो जाता है ? उस सत का सृजन कभी भी असत नहीं हो सकता, अगर यह बात है तो फिर संसार को असत क्यों कहा जाता है ? संसार को असत इसलिए कहा जाता है क्योंकि हम इसे अपना मानकर, अपने लिए मानकर इसमें आसक्ति कर बैठते हैं | इसके प्रति हमारी आसक्ति के कारण ही हम इसके साथ बंध गए हैं | जिसके साथ बंधते हैं वह असत है क्योंकि सत तो स्वयं ही मुक्त है | सत किसी को अपने साथ बांधता नहीं है | वह तो प्रत्येक को सदैव मुक्त ही रखता है, किसी को बंधन में नहीं डालता | बंधन असत के प्रति ही होता है, सत तो सदैव बंधन मुक्त है |

        हम प्रकृति के प्रति आसक्त नहीं होते बल्कि उसके गुणों के प्रति आसक्त हो जाते हैं | प्रकृति त्रिगुणी है और उसके इन्हीं तीनों गुणों की ओर हम आकर्षित हो जाते हैं | यहाँ यह समझने की भूल न कर बैठना कि प्रकृति के गुण हमें बाँध लेते हैं | हमें गुण नहीं बांधते हैं बल्कि हम स्वयं प्रकृति के गुणों से आकर्षित हो गुणों और प्रकृति के साथ बंध जाते हैं | यही तो प्रकृति की माया है | गुणों के साथ बंध जाना ही हमें संसार से सुख प्राप्त करने के लिए कर्म करने को प्रेरित करता है क्योंकि गुण ही व्यक्ति का स्वभाव बनाते हैं और स्वभावानुसार ही प्रत्येक व्यक्ति कर्म करता है |

             इस प्रकार स्पष्ट है कि स्वाभाविक कर्म के कारण ही हम माया के साथ बंधते हैं | मनुष्य के स्वाभाविक कर्म प्रायः सकाम कर्म ही होते हैं | कर्म से मनुष्य का स्वभाव बनता है और स्वभाव बनता है पूर्व मानव जीवन में कामना पूर्ति के लिए किये गए कर्म से | असत की ओर न जाकर हमें सत की ओर जाना है, यही प्रार्थना इस मन्त्र के माध्यम से हम परमात्मा से कर रहे हैं | असत में न उलझकर सत को पाने के लिए हमें अपना स्वभाव परिवर्तित करना होगा | एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अपना स्वभाव परिवर्तित कर सकता है अन्य प्राणियों को तो केवल स्वभावानुसार कर्म करते हुए उनका फल ही भोगना होता है |

       हम विवेचन के उस मोड़ तक पहुँच गए हैं जहाँ आकर हमें यह जानना आवश्यक है कि मनुष्य को अपना स्वभाव परिवर्तित करने के लिए क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर जानना आवश्यक है | जीवन में स्वाभाविक कर्म आपको करने ही होंगे क्योंकि आप जन्म से ही अपने स्वभाव के वशीभूत होकर कर्म करने को बाध्य हैं | गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि-

        स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |

        कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि तत् ||गीता-18/60||

अर्थात हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा |

           इससे अधिक स्वाभाविक कर्म को स्पष्ट भला और कौन कर सकता है ? अर्जुन क्षत्रिय है और युद्ध करना उसका स्वाभाविक कर्म है | पूर्व जन्म के कर्मों और कामनाओं के कारण ही अर्जुन इस जन्म में क्षत्रिय कुल में पैदा हुआ है | अर्जुन की तरह हम भी पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर बने अपने स्वभाव के कारण कर्म के साथ बंधे हुए हैं | इस प्रकार हम भी अर्जुन की तरह स्वाभाविक कर्म को करने को बाध्य हैं और कर्म करने की यह बाध्यता त्रिगुणी प्रकृति के कारण ही है | इसलिए यह एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि स्वाभाविक कर्म करने से हम किसी भी परिस्थिति में बच नहीं सकते और न ही पलायन कर सकते हैं | स्वाभाविक कर्म तो हमें प्रत्येक परिस्थिति में करने ही होंगे |

            अर्जुन परिजनों और मित्रों के प्रति मोहवश स्वाभाविक क्षत्रिय कर्म से भाग रहा था, पलायन कर रहा था | आप अपने मोह के कारण इन कर्मों को करने से दूर हो जाते हैं, तो भी आपकी मुक्ति नहीं हो सकती क्योंकि आपके स्वाभाविक कर्म ही आपके प्रारब्ध कर्म है और प्रारब्ध कर्मों के फल को भोगना ही पड़ता है | किये हुए कर्म फल देने के लिए हजारों जन्मों तक आपका पीछा करते हैं | जब तक वे समस्त कर्म नहीं भोग लिए जाते तब तक आप नए नए व भिन्न-भिन्न स्थूल शरीर पाते रहेंगे और सांसारिक चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पाएंगे | इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि आप स्वाभाविक कर्म कर प्रारब्ध को भोगते हुए उनके साथ-साथ शास्त्रीय कर्म भी करते रहें और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने का प्रयास करते रहें | एक समय ऐसा आएगा जब स्वाभाविक कर्मों से आप पूर्ण रूप से मुक्त हो चुके होंगे |

                     जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि यह गुण, स्वभाव, कर्ता, कर्म और फिर कर्म से पुनः गुण की अटूट श्रृंखला चलती रहती है जो मनुष्य को सांसारिक माया से कभी भी मुक्त नहीं होने देती, इस बात को थोडा और स्पष्ट का देते हैं | परमात्मा ने प्रकृति बनाई और प्रकृति ने अपने आपको दो भागों में विभाजित कर लिया | दोनों ही प्रकृति में परमात्मा ने अपना प्रतिबिम्ब देखा | एक सत्व प्रधान प्रकृति जिसे विद्या माया भी कहा जाता है और दूसरी सत्व मलिन प्रकृति, जिसे अविद्या माया कहा जाता है | सत्व प्रधान प्रकृति में परमात्मा के प्रतिबिम्ब को अपना परमात्मा होने का ज्ञान रहता है, इसलिए इस प्रकृति में पड़े परमात्मा के प्रतिबिम्ब को ईश्वर कहा जाता है | इस प्रकृति में सत है क्योंकि उसे स्वयं का ज्ञान है | दूसरी सत्व मलिन प्रकृति है, जिससे संसार का सृजन हुआ है | इस प्रकृति की चकाचौंध को देखकर परमात्मा का प्रतिबिम्ब अपना स्वरूप भूल जाता है अर्थात उसे अपने परमात्मा होने का ज्ञान नहीं रहता | यह सत्व मलिन प्रकृति असत अर्थात अविद्या माया है | “असतो मा सद्गमय” का अर्थ है कि हम परमात्मा के प्रतिबिम्ब हैं, हम सत्व मलिन प्रकृति की चकाचौंध के प्रभाव में आकर अपना स्वरूप भूल गए हैं | हमें इस असत के मोह को त्यागकर अपने आपके सत अर्थात ईश्वर होने का ज्ञान करना है | इसी को असत से सत की ओर गमन करना कहते हैं | इस मन्त्र के माध्यम से हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें असत की ओर नहीं बल्कि सत की ओर ले चलें |  

            प्रकृति में ही तीन गुण होते हैं, सत्व, रजस और तमस | प्रकृति के बारे में उसके द्वारा जो कुछ करना कहा जाता है, वह सब इन तीन गुणों का आपस में क्रिया करना ही होता है | इन गुणों के कारण ही प्रकृति है और मनुष्य में यही प्रकृति उसका स्वभाव भी निर्धारित करती है | मनुष्य का स्वभाव अर्थात मनुष्य की प्रकृति | इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गुणों से ही स्वभाव बनता है | स्वभाव किसे कहते हैं ? एक शब्द है स्वरूप और दूसरा शब्द है स्वभाव | स्वरूप का अर्थ है, जो हम वास्तव में हैं और स्वभाव का अर्थ है, जैसा हम स्वयं को मानते हैं अथवा जैसा हम बनना चाहते हैं | इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्वरूप को भूल जाना ही हमारा स्वभाव हो गया है | हम शरीर नहीं है क्योंकि शरीर प्रकृति का अंश हैं परन्तु हम स्वयं को यह शरीर होना ही मान बैठे हैं, यह हमारा स्वभाव है | हमें अपने स्वभाव को छोड़कर स्वरूप की ओर जाना है | हमारा स्वभाव है कि यह सरलता से नहीं छूटता क्योंकि यह गुणों के साथ बंधा जो है |

            स्वभाव यकायक हमसे छूटेगा नहीं बल्कि हमें अपने स्वभाव को ही परिवर्तित करना होगा | सर्वप्रथम हमें अपने स्वभाव को तमस प्रधान से रजस प्रधान में परिवर्तित करना होगा फिर इसे सत्व प्रधान बनाना होगा | सत्व प्रधान स्वभाव से एक छलांग लगेगी और तत्काल ही हम अपने स्वरूप में स्थित हो जायेंगे | यह परिवर्तन कैसे होगा ? इस प्रक्रिया को समझने के लिए गुणों की क्रियाओं को समझना होगा | “गुणा गुणेषु वर्तन्तः’’, यह मूल मन्त्र है क्रियाओं का | सत्व, रजस और तमस गुण आपस में क्रियाएं करते हैं | मनुष्य को छोड़कर अन्य कोई प्राणी गुणों की इन क्रियाओं को नियंत्रित नहीं कर सकता | संसार के समस्त प्राणियों में केवल एक मनुष्य का मन ही इन क्रियाओं में हस्तक्षेप कर सकता है | गुणों की क्रियाओं में यह हस्तक्षेप उसके मन में उठ रही कामनाओं के कारण होता है | कामनाओं के कारण गुणों की आपस में हो रही क्रियाएं मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले कर्म में परिवर्तित हो जाती है | क्रिया और कर्म में यही अंतर है कि क्रिया स्वतः होती है और उसका किसी भी प्रकार से पूर्व निर्धारित परिणाम नहीं होता है जबकि कर्म में कुछ करने से पहले मनुष्य उसका फल निश्चित करता है और क्रिया बाद में होती है | क्रिया और कर्म दोनों का ही एक निश्चित परिणाम होता है | अंतर केवल इतना सा ही है कि पहले परिणाम को निश्चित कर फिर उस परिणाम को प्राप्त करने के लिए कर्म किये जाते हैं जबकि क्रिया स्वयमेव होती है और क्रिया के उपरांत उसका परिणाम मिलना भी निश्चित है |

              क्रिया हो अथवा कर्म, फल सबका मिलना निश्चित है | क्रिया का फल आपको भोगना नहीं पड़ता क्योंकि क्रिया का होना आपके हाथ में नहीं बल्कि प्रकृति के हाथ में है | कर्म का फल आपको भोगना ही पड़ेगा क्योंकि इन कर्मों का परिणाम कर्म करने से पूर्व ही आपके द्वारा निश्चित किया जा चूका होता है | कर्म आपका कई जन्मों तक पीछा नहीं छोड़ेंगे, यह भी निश्चित है | आपके द्वारा किये गए कर्म आपके गुणों को भी परिवर्तित कर देता है क्योंकि गुणों की प्राकृतिक क्रियाओं में आपने हस्तक्षेप किया है | कर्मों से परिवर्तित हुए गुण आपके स्वभाव को परिवर्तित कर देते हैं | यह स्वभाव आपके साथ जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहेगा चाहे आपने कितने ही शरीर क्यों न बदल लिए हो |

        नए शरीर में जाकर नये जीवन में आपके इस स्वभाव के कारण ही आप कर्म करना प्रारम्भ करते हैं | इसीलिए इन कर्मों को स्वाभाविक कर्म कहा जाता है | इन कर्मों से मिलने वाला फल आपको सुख देता है और आप उस फल के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) के प्रति आसक्त हो जाते हो | इन विषयों को प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले कर्म आपके पूर्व मानव जन्म में अधूरी रह गयी कामनाओं का परिणाम है | यह आसक्ति आपसे पुनः वैसे ही कर्म कराना चाहती है जिससे आपको अपने मन के अनुरूप फल मिलते रहें | परन्तु इस वर्तमान जीवन में स्वाभाविक कर्म से आपको उतना ही फल मिलेगा जितने फल की आपने पूर्व मनुष्य जीवन में कामना की थी | जब एक निश्चित परिणाम के लिए कर्म करने के पश्चात् वैसे ही फल मिलने बंद हो जाते हैं तब आप किसी और नए फल को प्राप्त करने की कामना के साथ नए कर्म करने लगते हैं | इस कारण से आपका स्वभाव जन्म जन्मान्तर तक वैसे का वैसा ही बना रहता है, वह परिवर्तित नहीं हो सकता |

         असत से सत की और जाने के लिए आपको अपने स्वाभाविक कर्म त्यागने होंगे क्योंकि स्वाभाविक कर्म आपको प्रकृति के साथ अर्थात इस संसार और शरीर के साथ आपको बांधने वाले हैं | स्वाभाविक कर्म त्यागकर उनके स्थान पर शास्त्रीय कर्म करें जिन्हें विहित कर्म भी कहा जाता है | विहित कर्म सकाम कर्म भी हो सकते हैं और निष्काम कर्म भी | सकाम कर्म अपने जीवनयापन के लिए और निष्काम कर्म स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किये जाते हैं | धीरे-धीरे आपके सकाम कर्म एक-एक कर छूटते चले जायेंगे और उनका स्थान निष्काम कर्म लेते जायेंगे | कामना छोड़ देने से आपके गुणों में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जाता है और आपके गुण सत्व प्रधान हो जाते हैं | सत्व प्रधान होते ही आपका स्वभाव भी सात्विक हो जायेगा | फिर ऐसे स्वभाव युक्त मनुष्य से केवल सात्विक कर्म ही होंगे |

            अब प्रश्न यह उठता है कि सात्विक स्वभाव से सात्विक कर्म हुए, ऐसे में ये सात्विक कर्म भी तो स्वाभाविक कर्म ही हो गए | इस प्रकार सात्विक कर्म भी तो आपको गुणों और प्रकृति के साथ बांधने वाले हुए | हाँ, यह सत्य है कि सात्विक स्वाभाविक गुण भी बांधने वाले होते हैं परन्तु स्वभाव सत्व हो गया और सत्व स्वभाव तक पहुँचने के बाद गुणों से ऊपर उठ जाना सरल है | सात्विक स्वभाव भी तो प्रारंभ में शास्त्रीय कर्म करने से बनता है परन्तु शास्त्रीय कर्म करते-करते एक दिन आप गुणातीत हो जाते हैं क्योंकि शास्त्रीय कर्मों को करने से आपके भीतर का कर्ता भाव धीरे-धीरे मलिन होता जाता है और एक दिन यह भाव पूर्णतः समाप्त हो जाता है | यह अवस्था सत तक पहुँच जाने की अवस्था है |

              सारांश यह है कि स्वाभाविक कर्म से जब आपको अपनी कामना के अनुसार फल मिल जाये और वैसे ही कर्म आगे भी करते रहने से वैसे ही और अधिक फल मिलने असंभव हो जाये तो समझ लें कि अब आपके लिए केवल शास्त्रीय कर्म करने का समय आ गया है | नहीं तो, एक ही प्रकार के कर्म करते-करते आपका स्वभाव भी वैसे का वैसा ही बना रहेगा और आप असत में ही जीवन भर पड़े रहेंगे | ऐसे में भला परमात्मा द्वारा मिले हुए मनुष्य जीवन का क्या लाभ ? मनुष्य का जीवन हमें असत में ही बने रहने के लिए नहीं मिला है | असत योनियों में तो जन्म-जन्मान्तरों से भटकते हुए आ ही रहे हो, अब तो सत की ओर चलना प्रारम्भ करो | प्रभु से यही प्रार्थना करो-“असतो मा सद्गमय”| हे परमपिता ! मैं असत संसार में अब और अधिक पड़ा रहना नहीं चाहता, मुझे अब आप असत से सत की ओर ले चलो |

            “असतो मा सद्गमय” अर्थात असत से सत की और जाने में कर्म-योग की प्रधानता बताई गयी है | वास्तव में देखा जाये तो मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य तो मृत्यु से अमरत्व की और जाना ही है |

भागवत में कहा गया है-

      निर्विण्णानां ज्ञायोगो न्यासिनामिह कर्मसु |

      तेष्वनिर्विण्णाचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ||भागवत-11/20/7||

                भगवान श्री कृष्ण उद्धवजी को कह रहे हैं कि उद्धवजी ! जो लोग कर्मों तथा उनके फलों से विरक्त हो गए हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञान योग के अधिकारी हैं | इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से वैराग्य नहीं हुआ है, वे सकाम व्यक्ति कर्म योग के अधिकारी हैं |

        इस प्रकार स्वाभाविक कर्मों में आसक्त व्यक्ति शास्त्रीय कर्म करते हुए सत की ओर चल सकते हैं | उन्हें मात्र इतना ही करना होगा कि वे कर्मों को शास्त्रों के अनुसार करे | कर्मों को शास्त्रों के अनुसार करने को ही कर्म-योग कहा गया है | कर्मों से वैराग्य होना इस असत संसार में रहते हुए जरा मुश्किल है | ऐसे में असत से सत की ओर जाने के लिए कर्म-योग ही सबसे उपयुक्त है |

             कर्मों के कारण ही हम असत में भटक रहे हैं | न तो हमसे आसक्ति का त्याग होता है और न ही कामनाओं का | आसक्ति और कामना ही कर्म करने को विवश करती हैं और कर्म ही हमें इस संसार सागर में भटकाते रहते हैं | इस भटकाव से निकलने के लिए आसक्ति और कामना का त्याग कर शास्त्रीय कर्म करते हुए स्वयं के स्वभाव को परिवर्तित करना होगा, तभी हमारी यात्रा असत से सत की ओर होगी |

       जो लोग कर्मों तथा उनके फलों से विरक्त हो गए हैं उनके लिए भगवान ने ज्ञान-योग को उपयुक्त बताया है | ज्ञान-योग को साधने के लिए भी प्रभु से प्रार्थना करनी होगी कि हे प्रभु ! मैं अज्ञान रुपी अंधकार में पड़ा हुआ हूँ आप मुझे इस अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर ज्ञान के प्रकाश की और ले चलो – “तमसो मा ज्योतिर्गमय” |

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

तमसो मा ज्योतिर्गमय

            तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात “हे परमेश्वर ! मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल |” हम परमात्मा से यह प्रार्थना तो प्रतिदिन करते हैं परन्तु फिर भी अन्धकार को ही अपनी नियति समझते हुए हार कर बैठ गए हैं | जिस किसी ने भी अंधकार को ही प्रकाश समझ लिया है, उसे प्रकाश की अल्प उपस्थिति भी अँधा बना देती है | ऐसे व्यक्ति को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना जरा मुश्किल है |

          इस विषय के अंतर्गत हम तमस/अज्ञान क्या है, ज्योति/ज्ञान क्या है और अज्ञान से ज्ञान की और किस प्रकार जाया जा सकता है आदि महत्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चा करेंगे | चर्चा का प्रारम्भ एक दृष्टान्त के साथ करना चाहूँगा, जिससे विषय वस्तु को सरलता से समझा जा सके |

           एक बहुत ही प्यारी बोध कथा है | एक निर्जन स्थान पर बने कारागार की काल कोठरी में कुछ आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कैदी भरे पड़े थे | उनको जीवनपर्यंत अर्थात इस जीवन की अंतिम साँस तक उस काल कोठरी में रहने की सज़ा मिली थी | सज़ा मिले हुए भी कोई बीसों वर्ष बीत चुके थे | सभी कैदियों ने अपने आपको उस कारागार के वातावरण के अनुरुप स्वयं को अनुकूल बना लिया था | केवल एक कैदी को इतने वर्षों के बीत जाने के बाद भी आशा थी कि एक दिन वह इस कारागृह से मुक्त अवश्य होकर रहेगा | काल कोठरी में केवल एक छोटा सा दरवाजा था जो केवल भोजन के समय ही खुलता था और शेष समय बंद रहता था | दरवाजे के सामने अपने आप में अँधियारा समेटे एक बरामदा था जिसमें प्रकाश की एक किरण तक प्रवेश नहीं कर पाती थी | दरवाजे की विपरीत दिशा में एक छोटा सा छेद था जिसमें दिन के समय प्रायः प्रकाश की थोड़ी-बहुत किरणें प्रवेश पा जाती थी |

             सभी बंदियों में से वह एक बंदी जो अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल ढालने में विफल रहा था, उन किरणों को देखकर सोचता रहता कि यहाँ जेल के बाहर अवश्य ही कोई अच्छी सी दुनियां है तभी तो वहां इतना प्रकाश फैला हुआ है | वह अपने साथियों से इस सम्बन्ध में बात करता परन्तु उसके साथी भी इतने मूर्ख थे कि वे उस काल कोठरी के अँधेरे को ही अपना जीवन और नियति समझ बैठे थे | एक दिन अपनी समस्त शक्ति बटोरकर वह एक कैदी, जो उन सबसे अलग था, दीवार तोड़कर वहां से निकल भागा | शेष बचे कैदियों ने इस घटना को उसका दुर्भाग्य माना | अन्य कैदियों में से किसी ने भी उस काल कोठरी में से बाहर निकल कर भागने का प्रयास तक नहीं किया |

             वह एक कैदी जो कारागृह से निकल कर भागा था, उसकी यात्रा अंधकार से प्रकाश की यात्रा थी | उसने अँधेरे को कभी स्वीकार नहीं किया इसीलिए वह एक दिन प्रकाश को पा सका | जिस दिन हम अँधेरे को ही पसंद करने लगते हैं, संसार की कोई भी शक्ति हमें प्रकाश की ओर नहीं ले जा सकती | अतः आवश्यक है कि सर्वप्रथम हम अँधेरे को अँधेरा मान कर स्वीकार करें | जबकि हम इसके ठीक विपरीत करते हैं | हम अंधकार को ही प्रकाश समझ बैठे हैं | हमारी स्थिति भी उस काल कोठरी में रह रहे अन्य कैदियों की तरह ही है | हम अंधकार में रह रहे हैं, यह सत्य है और इस अन्धकार में भी बैठे रहने के दो कारण हैं | पहला कारण तो यह कि हम अंधकार को ही प्रकाश मान बैठे हैं क्योंकि प्रकाश को देखे बरसों बीत चुके हैं और उसकी स्मृति का एक अंश तक जीवन में शेष नहीं रहा है | हम सदैव अन्धकार को ही देखते आये हैं और इस कारण से अन्धकार को ही प्रकाश समझने लगे है | यह हमारा अन्धकार के प्रति मोह (अज्ञान) है | एक दूसरा कारण यह है कि किसी जीवन में कभी प्रकाश की ओर चले तो थे, प्रकाश मिला नहीं और अंधकार को ही हम अपनी नियति मान बैठे | यह हमारी निराशा का प्रतीक है |

               इस संसार को छोड़कर हम कहीं जा नहीं सकते | अतः यह निश्चित है कि हम इस संसार में रहने को विवश है | हमारी इस विवशता के पीछे उपरोक्त दो कारणों में से कोई एक कारण अवश्य है | विचार कीजिये, इनमें से कौन सा एक कारण है जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर जाने से रोक देता है | जब हम कारण तक पहुँच जायेंगे तब हमें अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव होगा और तत्काल ही हमारी यात्रा प्रकाश की दिशा की ओर प्रारम्भ हो जाएगी |

       तमस यानि अंधकार | अंधकार का अस्तित्व है ही नहीं, अस्तित्व तो प्रकाश का होता है | अस्तित्व दिन का है, रात का अस्तित्व है ही नहीं क्योंकि रात को कभी न कभी समाप्त होना ही है | हम अंधकार को ही सत्य मानकर बैठे हैं जबकि अंधकार असत्य है, सत्य तो केवल प्रकाश है | अंधकार हमें सत इसलिए प्रतीत होता है क्योंकि प्रकाश की अनुपस्थिति को हम सत्य समझने लगे हैं जबकि प्रकाश कभी भी अनुपस्थित हो ही नहीं सकता | अंधकार की परिभाषा में प्रकाश का न होना आता है जबकि प्रकाश सर्वत्र उपस्थित है, केवल एक परदे के कारण, एक आवरण के कारण हमें वह कुछ समय के लिए दृष्टिगोचर नहीं होता | प्रकाश सत्य है, मध्य में किसी आवरण के आ जाने से उसकी तीव्रता कम होकर अन्धकार होने का आभास अवश्य दिला सकती है परन्तु इससे अन्धकार सत्य नहीं हो जाता | मध्य के आवरण के हटते ही सत्य प्रकट हो जाता है | आवरण के कारण कथित सत की अनुपस्थिति (तमस) को स्वीकार कर लेना ही असत में पड़े रहना है | वास्तविकता तो यह है कि सत का कभी भी और कहीं पर भी अभाव नहीं है | ”नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |”

           एक छोटा सा प्रकाश पुंज वर्षों के अन्धकार को मिटा सकता है परन्तु वर्षों के अंधकार मिलकर भी प्रकाश को क्षण भर के लिए नहीं मिटा सकते | सूर्य करोड़ों वर्षों से अपनी ज्योति से अपने सौर मंडल को प्रकाशित कर रहा है परन्तु क्या अन्धकार में इतनी शक्ति है कि वह सूर्य की ज्योति को लील सके | शताब्दियों से सूर्यग्रहण होते आये हैं, क्या सूर्य की अपनी ज्योति नष्ट हो गयी ? नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता | सूर्यग्रहण क्या है ? हमारे और सूर्य के मध्य आ जाने वाला एक आवरण (चंद्रमा) मात्र ही तो है | जैसे सत्य को मिटाना असत्य के बस की बात नहीं वैसे ही ज्योति को मिटाना अन्धकार के बस की बात नहीं है | हाँ, अंधकार को मिटाया जा सकता है, प्रकाश की दिशा की ओर गमन करके | वृहदारण्यक उपनिषद के इसी मन्त्र से हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि मुझे इस तमस में और अधिक नहीं रहना है, मुझे ज्योति की ओर ले चलो |

                      एक राजा था | वह बड़ा ही न्यायप्रिय और दयालु था | उसके राज्य की प्रजा बड़ी सुखी थी | राजा बड़ा ज्ञानवान था | उसके तीन पुत्र थे | राजा वृद्ध हो चला था | परम्परा के अनुसार बड़े राजकुमार को ही राजगद्दी मिलनी चाहिए थी | परन्तु राजा इन तीनों में से किसी एक योग्य राजकुमार को ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था | समस्या थी कि इस बात की परीक्षा कैसे की जाये जिससे उनकी योग्यता उसके समक्ष प्रकट हो सके | बहुत सोच विचार करने के बाद अंततः एक उपाय राजा के मस्तिष्क में आ ही गया |

             एक दिन राजा ने अपने तीनों पुत्रों को बुलाया | राजा ने उनकी बुद्धिमानी परखने के लिए सबको एक-एक स्वर्ण मुद्रा दी और महल के सबसे बड़े कक्ष को दिखलाते हुए कहा कि आपमें से प्रत्येक को मैं यह एक-एक स्वर्ण मुद्रा दे रहा हूँ, इससे आपको केवल एक ही प्रकार की वस्तु से इस विशाल कक्ष को पूरा का पूरा भरना है, थोड़ा सा भी स्थान रिक्त नहीं रहना चाहिए | आप सभी को एक सप्ताह का समय दे रहा हूँ, ठीक एक सप्ताह बाद इसी कक्ष में हम मिलेंगे | तीनों राजकुमार एक-एक स्वर्ण मुद्रा लेकर उस विशाल कक्ष को भरने के लिए कुछ न कुछ लेने के लिए चले गए |

               बड़ा राजकुमार सोचने लगा कि भला इस एक मुद्रा से इतना पर्याप्त सामान क्या आ सकता है, जिससे उस विशाल कक्ष को सम्पूर्ण रूप से भरा जा सके | उसने बहुत सोच-विचार किया | उसे महसूस हुआ कि केवल रूई ही इस मुद्रा से पर्याप्त मात्रा में आ सकती है जिससे कि उस कक्ष को पूरा भरा जा सके | उसने उस मुद्रा से रूई खरीदी और निश्चिन्त होकर अपने कक्ष में आकर सो गया | मंझले राजकुमार ने सोचा कि एक मुद्रा से भला क्या आ सकता है ? शहर भर का कचरा ले जाता हूँ, इतने में तो केवल वही मिलेगा और उससे वह विशाल कक्ष भी भर जायेगा | इसी प्रकार छोटे राजकुमार ने भी झट विचार किया और पट से कुछ सामान खरीदकर वह भी जाकर अपने कक्ष में सो गया |

               निश्चित दिन तीनों राजकुमार विशाल कक्ष में पहुंचे | राजा उनके आने की राह देख ही रहा था | सबसे पहले बड़े राजकुमार ने रूई से कक्ष को भरना प्रारम्भ किया परन्तु यह क्या ! कक्ष तो अभी भी आधा रिक्त रह गया | अब मंझले राजकुमार की बारी थी | उसने शहर के इकट्ठे किये कचरे से कक्ष भरना प्रारम्भ किया | तीव्र दुर्गन्ध से वहां पर कोई खड़ा नहीं रह सका | कक्ष तो भर गया था परन्तु दुर्गन्ध ने सभी का वहां खड़े रहना असंभव कर दिया था | राजा ने अपने सेवकों को तत्काल कक्ष साफ़ करने का आदेश दिया | सफाई हो जाने के बाद राजा ने तीसरे राजकुमार को बुलाया | राजा ने कहा कि तुम क्या लाए हो, कैसे भरोगे इस कक्ष को ?

            राजकुमार ने विशाल कक्ष के एक-एक कर सभी दरवाज़े-खिड़कियाँ बंद करवा दिए | अब उस कक्ष में केवल अंधकार का साम्राज्य था | कोई किसी को देख नहीं पा रहा था | राजकुमार ने अपनी जेब से एक मोमबत्ती और माचिस निकाली | माचिस से तीली रगड़ कर आग पैदा की और उस आग से मोमबत्ती को जलाया | तत्काल ही सम्पूर्ण विशाल कक्ष प्रकाश से भर गया | राजा बड़ा प्रसन्न हुआ | राजा ने उसकी बुद्धिमानी की प्रशंसा की और उसे ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया |

           क्या दो बड़े राजकुमार कक्ष को प्रकाश से भरना नहीं जानते थे ? वे भी जानते होंगे, इसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता | परन्तु उनके मस्तिष्क में समय रहते इतनी छोटी सी बात नहीं आई | आखिर जीवन में हम छोटी-छोटी बातों से संतुष्ट होते ही कहाँ हैं ? हम सोचते हैं कि संतुष्टि करोड़ों रुपये पास में होंगे तभी मिलेगी और जब करोड़ों हो जाते हैं तो संतुष्टि की सीमा भी बढकर अरबों तक पहुँच जाती है | सांसारिक व्यक्ति वस्तुओं और व्यक्तियों से संतुष्ट होना चाहता है, यही अज्ञान है, तमस है, अंधकार है, ज्योति और हमारे मध्य पड़ा हुआ आवरण है | दोनों राजकुमारों की दृष्टि सांसारिक थी, वे अंधकार में जी रहे थे उन्होंने प्रकाश की ओर दृष्टि तक नहीं डाली | वे सोच रहे थे कि मात्र एक मुद्रा से भला क्या खरीदा जा सकता है ? लेकिन छोटे राजकुमार की दृष्टि सकारात्मक थी | उसने बुद्धि और ज्ञान का संतुलन बिठाया और समझ गया कि उसके राजा पिता को एक सही उत्तराधिकारी से किस प्रकार की अपेक्षा है ?

           यह जो सांसारिक सोच है न, वही हमारा स्वाभाविक ज्ञान है | हम अनंत जन्मों से संसार से सुख प्राप्त करने की एक ही कामना करते आ रहे हैं | उन्हीं कामनाओं ने हमसे कर्म करवाएं हैं और सकाम कर्मों को करते करते हमारा स्वभाव ऐसा बन गया है कि हम ज्ञान पर सांसारिक वस्तुओं को वरियता देने लगे हैं | यह सांसारिक वस्तुओं को वरियता देना ही एक प्रकार से हमारी स्थाई सोच बन चूका है और हमारी इसी सोच को स्वाभाविक ज्ञान कहा जाता है | देखा जाये तो ऐसा स्वाभाविक ज्ञान, वास्तव में ज्ञान न होकर अज्ञान ही है | अज्ञान के कारण हम सांसारिक बंधनों से मुक्त नहीं हो पाते | इसीलिए कहा जाता है कि स्वाभाविक ज्ञान बंधन पैदा करता है और शास्त्रीय ज्ञान हमें मुक्त करता है |

            हम लोग प्रायः बुद्धि (Intelligence) और ज्ञान (Knowledge) को समानार्थी शब्द मान लेते हैं, जबकि दोनों शब्दों में भिन्नता हैं | बुद्धि में ज्ञान समा सकता है, परन्तु अकेला ज्ञान बुद्धि के बिना व्यर्थ (Useless) है | बुद्धि इस भौतिक शरीर के अन्य जड़ तत्वों की तरह ही एक जड़ तत्व है, जबकि ज्ञान बाह्य है और शरीर में केवल बुद्धि ही उसको ग्रहण (Receive) कर सकती है | बुद्धि के अतिरिक्त इस भौतिक शरीर का कोई भी तत्व ज्ञान ग्रहण करने योग्य नहीं है | बुद्धिमान पुरुष (Intellectual) ही ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता रखता है |          

            बुद्धि का विकास ही मानव को अन्य जीवों से अलग करता है | बौद्धिक क्षमता (Intelligence capacity) का अर्थ है, आप इस बुद्धि का उपयोग किस प्रकार से करते हैं ? बुद्धि का होना, ज्ञान प्राप्ति के लिए तो आवश्यक है परन्तु ज्ञान को आत्मसात कर उसका उपयोग करना आपकी बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है | बौद्धिक क्षमता का अल्प रूप में होने का अर्थ है, ज्ञान का सही उपयोग नहीं हो पाना | अतः बुद्धि के साथ-साथ बौद्धिक क्षमता का होना भी आवश्यक है | आइये, सर्वप्रथम हम बुद्धि के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर लें |

बुद्धि (Intelligence) -

            हमारी  बुद्धि ही ज्ञान  (Knowledge) प्राप्त करती है, उसे विकसित (Develop) करती है और उसका उपयोग (Use) करती है | आप में उपस्थित ज्ञान का उपयोग करना आपकी बुद्धि पर निर्भर (Depend) करता है | बुद्धि भ्रष्ट (Corrupt) हो जाती है, तो यही ज्ञान समय व आवश्यकता पड़ने पर भी उपयोगी नहीं होता | बुद्धि अगर  सात्विक (Righteous) रही तो इसी ज्ञान (Knowledge) को विवेक (Wisdom) बनाकर सही कार्य में उसका उपयोग कर लेती है | भौतिक शरीर के सभी तत्व जड़ प्रकृति के हैं और बुद्धि भी इनसे भिन्न नहीं है | बुद्धि के जड़ तत्व (Founder element) होने के कारण ही ज्ञान का उपयोग प्रायः हम अपने निजी (Self) स्वार्थ और स्वयं के शरीर की सेवा के लिए ही करते हैं | हमारी बुद्धि अगर सात्विक हुई तो यही ज्ञान संसार की सेवा का आधार बन जाता है | सात्विक बुद्धि कैसी होती है, इसको भगवान श्रीकृष्ण गीता में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं –

             प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये |

             बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ||गीता-18/30 ||

अर्थात हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्ति-मार्ग (Tendency) और निवृति-मार्ग (Retirement) को, कर्तव्य (Dutiful) और अकर्तव्य (Undutiful) को, भय (Apprehension) और अभय (Fearlessness) को तथा बंधन (Bondage) और मोक्ष (Salvation) को यथार्थ रूप (Correctly) से जानती (Understand) है, वह सात्विक बुद्धि (Righteous intelligence) कहलाती है |

             यहाँ प्रवृति-मार्ग से तात्पर्य संसार व शरीर में आसक्ति होना है जबकि निवृति-मार्ग से तात्पर्य संसार व शरीर से विमुख (Untoward) होकर एक परमात्मा की शरण और संसार की सेवा में लग जाना है | कर्तव्य (Duty) वह कर्म है, जो हम अपने स्वभाव के अनुसार करते हैं | ऐसे कर्म शास्त्रोक्त और विहित (Prescribed) होते हैं, जबकि अकर्तव्य में कर्म प्रायः शास्त्र विरुद्ध और निषिद्ध (Prohibited) होते हैं | आवश्यकता है कि हम अपना कर्तव्य पहचानें | कर्तव्य को पहचानने में बुद्धि की भूमिका ही महत्वपूर्ण होती है | व्यक्ति को सदैव मृत्यु का भय, कुछ खोने का भय सताता रहता है | इसके अतिरिक्त कई कारण और भी है जो भय पैदा करते हैं | बुद्धि ज्ञान का सदुपयोग कर हमें भयमुक्त करती है | बंधन और मोक्ष, हमारी मानसिक अवस्था के दो नाम है | जब हम किसी में आसक्त रहते हैं, हम बंधन में रहते है और जब अनासक्त अवस्था में रहते है, मुक्त रहते हैं | बंधन और मोक्ष का ज्ञान भी हमें हमारी बुद्धि ही कराती है |         

               बुद्धि भी सात्विक, राजसिक और तामसिक प्रकृति की होती है | सात्विक बुद्धि उत्थान (Upward) के मार्ग पर ले जाती है, जबकि तामसिक बुद्धि पतन (Downfall) के मार्ग पर | प्रायः हम लोग बुद्धि और ज्ञान को एक दूसरे का पर्याय समझ लेते हैं, वस्तुतः यह सत्य नहीं है | बुद्धि (Intelligence) हमारे मस्तिष्क (Brain) के द्वारा ज्ञान को ग्रहण (Receive) करने की क्षमता को कहते हैं | मनुष्य में ज्ञान को आत्मसात करने की क्षमता सभी प्राणियों में सर्वाधिक होती है, अतः इसे सभी प्राणियों में सर्वाधिक बुद्धिमान (Intellect) कहा जाता है | शेष सभी प्राणियों में ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता मनुष्य से नीचे की सीढ़ियों (Steps) में धीरे-धीरे कम होती जाती है |

              मनुष्य की बौद्धिक स्थति से नीचे की स्थिति में चिम्पाजी आते हैं, फिर उनके नीचे बन्दर जैसे अन्य स्तनपायी | स्तनपायियों (Mammals) से कम बुद्धि पक्षियों (Aves) में, उससे कम सरीसृपों (Reptiles) में, फिर उभयचर (Amphibians) में और अंत में मछली (Fishes) जैसे जीवों में | उपरोक्त सभी प्राणी रीढ़धारी (Vertebrates) है | रीढधारियों से कम बुद्धि रीढविहीन (Non-vertebrates) प्राणियों में और अंत में सबसे अल्प बुद्धि एक कोशिकीय (Unicellular) जीव में होती है | यह स्पष्ट है कि एक कोशिकीय जीव से बुद्धि का विकास होते-होते मनुष्य के रूप में सर्वाधिक बुद्धि वाले जीव का पदार्पण इस धरती पर हुआ है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि विकास का आधार बुद्धि को ही माना जाना चाहिए, न कि आज के तथाकथित भौतिक विकास को |

            परमात्मा ने भी बौद्धिक विकास को ही वास्तविक विकास कहा है | परन्तु हम इस संसार में भौतिक विकास को ही वास्तविक विकास मान बैठे हैं | भौतिक विकास को विकास न कहकर आध्यात्मिक पतन कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि भौतिक विकास की चकाचौंध में हम धीरे-धीरे अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत (Forget) करते जा रहे है | आज की आवश्यकता है कि हम अपनी बुद्धि को भौतिक विकास के तले न दबने दें और उचित (Right) अनुचित (Wrong) को पहचान पाने की क्षमता को विकसित करें | मेरे कहने का अभिप्राय (Meaning or aim) यह नहीं है कि भौतिक विकास होना अनुचित है | एक सीमा तक भौतिक विकास भी आवश्यक है परन्तु यह बौद्धिक विकास का स्थान कभी नहीं ले सकता |

         अनुचित तो भौतिक विकास की चमक से प्रभावित होकर अपना वास्तविक स्वरूप भूल जाना है | आज भौतिक विकास नहीं होता तो मेरा यह लेखन भी संबवतः आपके पास तक इतनी सुगमता से पहुँच नहीं पाता | भौतिक विकास के तले दबिये नहीं, बल्कि इस विकास को अपने आध्यात्मिक उत्थान (Spiritual development) का साधन बनाइये | तभी हम अपनी बुद्धि को कुंद (Blunt) होने से रोक सकते है | कुंद बुद्धि ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सकती और बिना ज्ञान को आत्मसात किये मनुष्य पशु समान (Like an animal) ही रह जाता है | ऐसे में केवल शारीरिक रूप से मनुष्य होने में ही मनुष्य की मनुष्यता नहीं है बल्कि उसके आध्यात्मिक रूप से मनुष्य होने में ही उसकी मनुष्यता है | कहने का अर्थ है कि हमें केवल अपने शारीरिक सुख के लिए स्वाभाविक ज्ञान से कर्म कर बंधन में नहीं पड़ना है बल्कि स्वयं शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर अपने स्वरूप में स्थित होकर मुक्त होना है |

           ज्ञान को जानने से पहले बुद्धि को जान लेना इसलिए आवश्यक है क्योंकि बुद्धि ही ज्ञान को ग्रहण करती है | ज्ञान बाह्य तत्व (External element) है जबकि बुद्धि शारीरिक तत्व | बुद्धि को जान लेने के बाद अब हम मूल विषय (Main topic) ज्ञान की ओर चलते हैं |

ज्ञान (Knowledge) –

          ज्ञान क्या है ? इसकी क्या परिभाषा है ? वैसे देखा जाये तो ज्ञान की कोई सर्वसम्मत एक परिभाषा नहीं है और हो भी नहीं सकती क्योंकि ज्ञान को समझाने और समझने के लिए मात्र कुछ शब्द ही पर्याप्त नहीं है | ज्ञान शब्दों की पहुँच से बहुत ही दूर है | मेरी दृष्टि में ज्ञान वह ग्राह्य (Admissible) तत्व है, जो बुद्धि के द्वारा ग्रहण (Assumption) किया जाता है | बुद्धि में ज्ञान के प्रवेश करते ही विचार आने प्रारम्भ हो जाते हैं और ज्यों ही बुद्धि विचार की अवस्था से निकलकर जीवन में ज्ञान का उपयोग करती है, वह विवेक (Discretion) बन जाती है | कहने का अर्थ है कि केवल ज्ञान का बुद्धि में प्रवेश कर जाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में उतारना अधिक महत्वपूर्ण है |

           बुद्धि विचार का जीवन है जबकि विवेक होश का जीवन है | व्यक्ति विचार करता है, तो पक्ष-विपक्ष और तर्क-वितर्क साथ-साथ चलते हैं और व्यक्ति द्वंद्व (Conflict) में फंस जाता है | अंततः जो अधिक प्रभावी होता है, व्यक्ति उसी मार्ग पर चल देता है | जबकि विवेक पूर्ण जीवन तर्क-वितर्क का जीवन न होकर सतर्कता (Alertness) का जीवन है | बुद्धि में केवल ज्ञान का पड़ा होना मात्र एक बोझ (Burden) है जबकि विवेक ज्ञान का बोध (Realisation) है | बुद्धि में ज्ञान का बोझ अहंकार (Ego) और बंधन (Bondage) पैदा करता है, जबकि उसका बोध (विवेक) हमें हल्का और मुक्त करता है | ज्ञान बाहर से मिलता है जबकि विवेक भीतर से जाग्रत होता है | विचार विकार पैदा कर सकते हैं जबकि सतर्कता हमें विकारों में उलझने नहीं देती | बुद्धि में उपस्थित ज्ञान हमें जीवन-पथ के काँटों से सुरक्षित रखता है जबकि विवेक हमारे द्वारा दूसरों को भी इन काँटों में उलझने से बचाता है | अतः मात्र ज्ञान ग्रहण कर विचार पैदा करने से कुछ नहीं होगा | आवश्यकता है विचारवान (Thinker) से विवेकी (Rational) बनने की अर्थात निर्विचार (Thoughtless) होकर विवेकवान होना | केवल बुद्धि में ज्ञान ठूंसकर हम अहंकारी ही हो सकते हैं, अतः इससे अधिक महत्वपूर्ण उस ज्ञान से विवेकवान (Sensible) बनकर जीना है |

             अब प्रश्न उठता है कि हमें यह ज्ञान कहाँ से मिलेगा अर्थात हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर कौन ले जायेगा ? जैसे असत से सत की और जाने के लिए स्व-कृपा आवश्यक है, वैसे ही तमस से ज्योति अर्थात अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने के लिए गुरु-कृपा और शास्त्र-कृपा आवश्यक है | गुरु हमें ज्ञान की ओर ले जाता है, इसके लिए गुरु हमें  सर्वप्रथम हमारे हाथ में शास्त्र देता है | शास्त्रों का अध्ययन कर हम गुरु के पास जाते हैं और वे हमें उसका मर्म समझाते हैं | केवल शास्त्र पढ़ना ही पर्याप्त नहीं है, गुरु से उसको भलीभांति समझकर जीवन में उतारना आवश्यक है |  

                      जो ज्ञान हम विद्यालयों में जाकर प्राप्त करते हैं, उसे शिक्षा कहा जाता है | शिक्षा (Education) हमें सीख (Lesson) देती है, जो जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होती है | शिक्षा देने वाले हमें कई मिल जाते हैं और उनको हम शिक्षक (Teacher) कहते हैं, जबकि ज्ञान केवल गुरु (Preceptor) ही दे सकता है | शिक्षा सीख (Lesson) है तो ज्ञान सत्य (Truth) है | हमारा शिक्षक एक साधारण व्यक्ति अथवा सद् साहित्य भी हो सकता है परन्तु गुरु तो साक्षात् परमात्मा स्वरूप है, वही गोविन्द है और न केवल गोविन्द ही बल्कि उससे भी कहीं अधिक ऊपर | तभी तो कबीर कह उठते हैं –

             गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय |

             बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ||

            गुरु गोविन्द से भी पहले होता है, शिक्षक उसकी कहीं से भी बराबरी नहीं कर सकता | सीख देने वाले से सत्य का साथ करा देने वाला सदैव ही महान होता है |

 गुरु के बारे में कहा गया है –

             गुरुबुध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने |

             तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु कर्तवयशच मनीषिभिः ||गुरु गीता-1/25||

                 अर्थात आत्मा में गुरु बुद्धि के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है, सत्य नहीं है | अतः आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए बुद्धिमानों को सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए |

             गुरु हमारे स्व-चेतन (Selfconscious) से भिन्न नहीं है | बुद्धिमान पुरुषों को ज्ञान लेने के लिए गुरु के पास जाना चाहिए | गुरु सर्वोच्च ज्ञान देता है, शिक्षक केवल शिक्षा तक ही सीमित है | शिक्षा और ज्ञान में अंतर है | भौतिक शिक्षा अनुकरण (Simulation) से सीखी जाती है जिसका सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन और बुद्धि तक ही सीमित है | लेकिन जो बुद्धि से भी परे है और जो आपकी आत्मा से जुडा है और सत्य के अनुभव पर आधारित है, वही ज्ञान है | शिक्षा कई बार अहंकार पैदा कर देती है क्योंकि शिक्षित व्यक्ति को यश (Glory) मिलता है, लेकिन ज्ञान अहंकार को दूर करता है क्योंकि ज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्ति स्व (Self) से जुड़ जाता है |

      स्वामी विवेकानंद ने एक आदर्श गुरु में तीन विशेषताओं का होना बताया है | प्रथम, गुरु शास्त्र मर्मज्ञ होना चाहिए | दूसरी, गुरु निष्पाप होना चाहिए | तीसरी, गुरु को उद्देश्य का पूरा ज्ञान होना चाहिए | शास्त्रों को केवल पढ़कर आप बौद्धिक क्षमता का विकास कर सकते हैं परन्तु सत्य को नहीं पा सकते | इसके लिए आपको ऐसे व्यक्ति से मार्गदर्शन मिलना आवश्यक है जो इन शास्त्रों का मर्म जानता हो | जिस व्यक्ति ने शास्त्रों का मर्म जान लिया वह पाप रहित होगा, यह निश्चित है | पाप कर्म ऐसे व्यक्ति से स्वप्न में भी नहीं हो सकते | जो व्यक्ति निष्पाप और शास्त्रों का मर्म जानने वाला होगा, वह निश्चित ही अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हुआ ही है, साथ ही वह यह भी जानता है कि किसी मुमुक्षु को उसे किस प्रकार अंगुली पकड़ कर उसके उद्देश्य की ओर अग्रसर करना है | इसीलिए कहा जाता है कि गुरु इस यात्रा में मार्गदर्शक की भूमिका में रहता है |

                  दिगम्बर जैन मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज कहते हैं कि ज्ञान को पाकर भी कई लोग ज्ञान को समझ नहीं सकते, उन्हें वह तुच्छ (Miserable) लग सकता है | यह भी एक प्रकार का अहंकार ही है | सद्गुरु का अर्थ है-एक ऐसा सच जो हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाये | इसीलिए हमें सद्गुरु की आवश्यकता होती है | वह हमारे अहंकार को पूर्ण रूप से समाप्त कर ज्ञान को अंतर्मन में उतार देता है | पहले हमारी आत्मा और उसके बाद धीरे-धीरे हमारी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन और बुद्धि गुरु-प्रदत्त ज्ञान को आत्मसात कर लेती है और हम ज्ञान में डूब जाते हैं | ऐसा हो जाने पर ही ज्ञान का आनन्द आना प्रारम्भ होता है, प्रतिपल, प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक परिस्थिति में | यह अवस्था सद्गुरु के आशीर्वाद के बिना नहीं आ सकती |

                सिर्फ ज्ञान प्राप्त कर लेने से ही कोई ज्ञानी नहीं हो जाता बल्कि ज्ञान के साथ जीने वाला ही ज्ञानी होता है | ज्ञान के साथ जीना हमें सद्गुरु सिखाता है और सद्गुरु बिना ईश्वर के आशीर्वाद के मिल नहीं सकता | मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज आगे कहते हैं कि ‘आज की आवश्यकता है कि हम सब ज्ञानी बनें, केवल ज्ञान को लेकर बैठें नहीं बल्कि ज्ञान को अपने में बैठा लें |’ हमारे पास सतत जानकारियां आती रहती हैं परन्तु वह ज्ञान नहीं होता है बल्कि सूचना (Information) मात्र होती हैं | ज्ञान सूचना से एक दम अलग है | ज्ञान वह है, जिसमें बुद्धि का उपयोग करते हुए हम कुछ अनुभव (Experience) प्राप्त करते हैं | ऐसा होने पर ज्ञान की केवल बातें भर नहीं होती परन्तु जीवन में उसका उपयोग (Use) अधिक किया जाता है |

            गंभीरता से देखें तो ज्ञान में स्वयं की कोई चेतना (consciousness) नहीं होती है | ज्ञान मृत (Dead) होता है, उसे चेतन करने के लिए बुद्धि (Intelligence) की आवश्यकता होती है | बुद्धि में ज्ञान का प्रवेश (Enterance) तो हो जाता है परन्तु वह स्वयंमेव सक्रिय (Active) नहीं होता | उसे स्वयं को सक्रिय करने के लिए बुद्धि से संयोग (Conjunction) की आवश्यकता होती है |

            ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए उसका सक्रिय होना आवश्यक है | ज्ञान का सक्रिय होना मनुष्य के विवेक पर निर्भर है और विवेक बाहर से नहीं मिलता बल्कि उसका स्फुरण (Ignition) मनुष्य के भीतर होता है | ज्ञान उचित-अनुचित में अंतर नहीं कर सकता बल्कि विवेक यह अंतर स्पष्ट करता है | विवेक जिसे प्रज्ञा (Wisdom) भी कहा जाता है, वह प्रज्ञा ही बुद्धि को स्थिरता (Stability) प्रदान करती है | पुस्तक में पड़ा ज्ञान मृत ही पड़ा रहेगा यदि उसे बुद्धि व विवेक का सामर्थ्य (Capacity), सहयोग (Cooperation) व सक्रियता (Activity) नहीं मिले | चतुर मनुष्य बुद्धि की साधना कर अपने विवेक (Discrimination) से ज्ञान का सदुपयोग करते हैं और मूर्ख मनुष्य ज्ञानी होकर भी बुद्धि और विवेक के अभाव में ज्ञान का सदुपयोग नहीं कर पाते और जड़ कहे जाते हैं | ज्ञान का दुरुपयोग करने वाले मनुष्य में विवेक का अभाव होता है | ज्ञान दही है, बुद्धि मथनी है और विवेक घृत होता है |

             दही को अगर मथनी के साथ रख भी दिया और मथनी का उपयोग नहीं किया जाये तो उससे घृत नहीं निकाला जा सकता | घृत निकालने के लिए दही को मथना आवश्यक है | दही को मथने के लिए मथनी का होना आवश्यक है | मथनी से दही को मथकर ही घी निकाला जा सकता है | यह बुद्धि रुपी मथनी सभी प्राणियों में केवल मनुष्य के पास ही सक्रिय अवस्था में उपलब्ध है | ज्ञान रुपी दही को इस बुद्धि रुपी मथनी से मथकर मनुष्य घृत रुपी विवेक प्राप्त कर सकता है | यह विवेक ही मनुष्य के द्वारा ज्ञान का सदुपयोग करवाता है, अन्यथा ज्ञान केवल बोझ बनकर रह जाता है | ‘ज्ञानं भारः क्रियाः बिना’ अर्थात बिना ज्ञान को काम में लिए वह ज्ञान केवल बोझ ही साबित होता है | ज्ञान को सक्रिय विवेक करता है | बिना विवेक के ज्ञान मात्र बोझ है और विवेक से सक्रियता पाकर वही ज्ञान मनुष्य को आत्म-बोध प्राप्त करने की अवस्था तक ले जा सकता है |

       बुद्धि, ज्ञान और विवेक को जान लेने के उपरांत अज्ञान को जानना भी आवश्यक है | प्रायः हम लोग अज्ञान को ही ज्ञान समझ लेने की भूल कर बैठते हैं | यह भूल हमारी तभी मिट सकती है, जब अज्ञान को भी भली-भांति समझ लें | अज्ञान को समझ पाना ही मुश्किल है क्योंकि वह तो ज्ञान बनकर अपने भीतर गहरे समाया हुआ है | प्रायः जब भी अज्ञान को अनावृत किए जाने का प्रयास किया जाता है मन उस प्रयास को स्वीकार करने के लिए के लिए तैयार नहीं होता है | भला, बरसों तक जिस अज्ञान को ज्ञान समझकर सींचा गया है उसको एक दिन में उखाड फैंकना संभव कैसे होगा ?

अज्ञान (Ignorance)-

              ज्ञान का विलोम शब्द है अज्ञान (Ignorance) | अज्ञान का अर्थ ज्ञान की अनुपस्थिति नहीं है बल्कि ज्ञान को सही प्रकार से न समझना है | प्रायः हम अज्ञान को ज्ञान समझने की भूल कर बैठते हैं, अतः सर्वप्रथम हमें इन दोनों में अंतर समझना आवश्यक है | जिस ज्ञान को प्राप्त कर भी सदुपयोग नहीं करें अथवा जीवन में न उतारें, वह सारा का सारा ज्ञान, अज्ञान ही है | दोनों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं | दोनों की प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में बतलाने का प्रयास कर रहा हूँ, जिसको समझकर हम ज्ञान को भी स्पष्टतः समझ पाएंगे |

  गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

             अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् |

             एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोSन्यथा || गीता-13/11 ||

अर्थात अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को ही देखना - यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत देखना है वह अज्ञान है | जिस ज्ञान के द्वारा आत्म और अनात्म वस्तु को जाना जा सके उस ज्ञान को अध्यात्म ज्ञान कहते हैं | इसके अतिरिक्त जो मान, दंभ, हिंसा आदि हैं, वे सब अज्ञान हैं |

         मनुष्य अपने स्वभाव और स्वरुप को पहिचान ले वही अध्यात्म ज्ञान है | एक परमात्मा ही है, परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, यह तत्व ज्ञान है | इसके अतिरिक्त जो कुछ भी सोचा,समझा, सुना, कहा आदि किया जाता है वह सब अज्ञान है |

            जिसके कारण स्वार्थ, विनाश, क्रूरता, अशांति और भय में वृद्धि हो, वह अज्ञान है किंतु जो व्यक्ति को उदार, निर्भीक, सहनशील और विनम्र बनाये, वही ज्ञान है | अज्ञान की शक्तियां दुरुपयोग करने हेतु हमें प्रेरित करती है, किंतु जो शक्ति अपने सामर्थ्य के प्रति हमें अपने उत्तरदायित्व को समझाए और जो न केवल अपने अपितु अपने से भी पहले संसार के कल्याण (Welbeing of all) हेतु प्रोत्साहित (Encourage) करे, वही ज्ञान है | ज्ञान का मूल उद्देश्य ही परोपकार (Charity) और सृजन (Creation) है | दूसरों की भावना को समझना, उनका आदर करना, ज्ञान है | ज्ञान हमें दूसरों के सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील (Sensitive) बनाता है | जो दूसरों की भावनाओं का अनादर करे, भला वह ज्ञान कैसे हो सकता है ? अज्ञान के कारण व्यक्ति सांसारिकता में बंधता जाता है और मोह-माया में उलझता जाता है | अज्ञान परम सत्य से दूर ले जाने का माध्यम है जबकि ज्ञान हमें परम सत्य को प्राप्त कराता है | अज्ञान हमारी मृत्यु है जबकि ज्ञान अमरता |

                अल्प रूप से कहूँ तो यह कहा जा सकता है कि जो सांसारिकता का ज्ञान कराये, मोह, ममता, आसक्ति, क्रोध, अहंकार आदि विकारों में उलझाकर रख दे, वह अज्ञान है | उसे ज्ञान कदापि नहीं कहा जा सकता | जो परम सत्य से साक्षात्कार करा दे, परमात्मा की तरफ अग्रसर कर दे, केवल वही ज्ञान है | अज्ञान हमें सदैव बाहर भीतर दोनों ही ओर से अशांत बनाये रखता है | ज्ञान शांति प्रदान करता है |

             ज्ञान प्रकाश है और अज्ञान अंधकार है | इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान की मात्रा (Quantity) का अज्ञान और ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं है बल्कि ज्ञान की गुणवत्ता (Quality) ही उसे ज्ञान और अज्ञान में विभाजित कर देती है | हम ज्ञान प्राप्त कर उसका उपयोग केवल अपने निजी स्वार्थ के लिए करते रहे तो ऐसा ज्ञान अज्ञान ही कहा जायेगा | जब यही ज्ञान ‘वासुदेव सर्वम्’ तक हमें पहुँचा देगा तभी हम स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर परमार्थ में विश्वास करने लगेंगे | स्वाभाविक ज्ञान अज्ञान है क्योंकि यह हमें स्व का बोध नहीं करा सकता इसलिये इसे बंधनकारी माना गया है और यह अज्ञान ही है | स्व का ज्ञान अर्थात आत्मबोध कराने वाला ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है |

             संसार में हम इसी प्रकार ज्ञान के अहंकार में डूबे हुए बंधनों में जकडे पड़े हैं यह सोचकर के ही कि हमारे जितना ज्ञानी कोई नहीं है | ज्ञान तो अहंकार समाप्त करता है, ऐसे में इसको ज्ञान कैसे कहा जा सकता है ? यह तो मात्र अज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हमें इसी अज्ञान से ज्ञान की ओर जाना है | इसमें गुरु और शास्त्र की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | शास्त्रों को पढ़ लेना मात्र ही ज्ञानी हो जाना नहीं है बल्कि ज्ञान को जीवन में किस प्रकार उपयोग में लेना है, वह महत्वपूर्ण है | ज्ञान को उपयोगी बनाना हमें गुरु ही सिखा सकता है | इसके लिए गुरु का अनुभवी होना और अपने उद्देश्य के प्रति गंभीर होना आवश्यक है | एक दृष्टान्त के माध्यम से यह बात और अधिक स्पष्ट हो जाएगी |

            एक राजा अपने विशाल साम्राज्य को सम्हालते हुए भी बड़ा मुमुक्षु था | उसको प्रतिदिन इस बात की जिज्ञासा रहती थी कि राजा जनक की तरह मैं भी जीवन मुक्त कैसे हो सकता हूँ ? राज्य के राज-गुरु बड़े ज्ञानी थे | वे राजा को दिन भर शास्त्रों से दृष्टान्त देते हुए उन पर ज्ञान की वर्षा करते रहते थे | राजा भी बड़ी तल्लीनता से राज-गुरु की बातें सुनता था परन्तु जैसी प्रगति मुक्त होने के पथ पर होनी चाहिए थी, वैसी प्रगति नहीं हो पा रही थी | राज-गुरु राजा को ज्ञान तो बड़ा उच्च कोटि का देता था परन्तु राजा उस ज्ञान से कभी भी संतुष्ट नज़र नहीं आ रहा था |

       एक दिन राज दरबार में एक सिद्ध महात्मा पधारे | राजा ने अपने मन की दुविधा उनके सामने प्रकट की | महात्मा राज-गुरु से भी मिले | राज-गुरु के ठाट-बाट देखकर महात्मा सब कुछ समझ गए | महात्मा ने राजा से कहा कि “आपकी समस्या का हल करने के लिए मुझे एक दिन के लिए आपका राज-सिंहासन चाहिए | हाँ, साथ ही आपके सभी सेवक मेरी आज्ञा का पालन भी उसी प्रकार करे, जैसे आपकी आज्ञा का करते हैं |” राजा तो अपने जीवन में ज्ञान से संतुष्ट होना चाहता था, उन्होंने तत्काल ही इसकी स्वीकृति दे दी |

         दूसरे दिन राज दरबार में राजा के सिंहासन पर महात्माजी जा विराजे | महात्मा ने सेवकों को आदेश दिया कि राज-गुरु को दरबार में बुलाया जाये | आदेश सुनते ही राज-गुरु अपने आसन से खड़े हो गए | राजा ने सेवकों को आदेश दिया कि राज-गुरु को दरबार में बाएँ एक खम्भे से बाँध दिया जाये | बिना किसी झिझक के सेवकों ने राज-गुरु को एक खम्भे से बाँध दिया गया | अब महात्माजी ने सेवकों को आदेश दिया कि राजा को दरबार के दाएँ एक खम्भे से बाँध दो | इस बार सेवक कुछ झिझके परन्तु राजा ने इशारों में उन्हें महात्मा की आज्ञा का पालन करने को कहा | इस प्रकार राजा भी एक खम्भे से बाँध दिए गए |

        अब राज दरबार की स्थिति बड़ी विचित्र बन गयी थी | एक खम्भे से राज-गुरु और उसके सामने ही दूसरे खम्भे से राजा स्वयं बंधे बैठे हैं और राज गद्दी पर महात्मा जी विराजे हुए हैं | सेवक महात्मा जी की अगली आज्ञा का इंतजार करने लगे | महात्मा जी ने सेवकों को एक कोने में जाकर चुपचाप खड़े रहने का आदेश देते हुए राजा से कहा-“राजन, आप जरा राज-गुरु के बंधनों को खोल कर उन्हें मुक्त कर दें |” राजा अचंभित, बोले-“महात्मन् ! मैं स्वयं बंधा हुआ हूँ | भला इस परिस्थिति में मेरा राज गुरु को खोलना कैसे संभव हो सकता है ?” अब महात्मा ने राज-गुरु को आदेश दिया कि आप अब राजा के बंधन खोल दें | इस पर राज-गुरु झल्लाते हुए से महात्मा जी से कहने लगे- ”मैं स्वयं बंधा हुआ हूँ, भला मैं राजा को कैसे खोल सकता हूँ ?”

        राज-गुरु का उत्तर सुनकर महात्मा राजा की तरफ उन्मुख होकर कहने लगे –‘यह सत्य है कि एक बंधन में जकड़ा व्यक्ति भला किस दूसरे व्यक्ति के बंधनों को कैसे खोल सकता है ? राजन ! आपकी समस्या का राज यही है कि आप सांसारिक बंधन में पड़े राज-गुरु से मुक्त होने का ज्ञान लेना चाह रहे हैं | बंधन में पड़ा व्यक्ति मुक्त होने का ज्ञान भले ही चाहे जितना दे दे, वह ज्ञान कभी भी प्रभावी नहीं हो सकता | मुक्त होने के लिए आप किसी ऐसे ज्ञानी गुरु से ज्ञान लें जो स्वयं मुक्त हो | ऐसा गुरु ही आपको इस अज्ञान से छुटकारा दिला सकता है |”

             इस दृष्टान्त से निष्कर्ष निकलता है कि सच्चा गुरु वही होता है जिसने ज्ञान को केवल अपनी जिह्वा तक ही सीमित करके नहीं रखा है बल्कि उस ज्ञान को जिया है | जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि शास्त्र में समाहित ज्ञान मृत है | वह ज्ञान मृत तब तक बना रहेगा है जब तक कि गुरु उस ज्ञान को सक्रिय न कर दे | इसलिए गुरु का चुनाव करना बड़ा ही महत्वपूर्ण है | आज के तथाकथित धर्म गुरु आपको अपने परिवार और संसार के बंधनों से तो अलग कर देते हैं परन्तु स्वयं के स्वार्थ के लिए अपने साथ बाँध लेते हैं | यह तो उसी प्रकार हुआ जैसे इधर खड्ड से निकले और उधर खाई में गिरे | अतः ध्यान रखें, गुरु और शास्त्र कृपा के लिए आपको सही गुरु चुनना है, जो स्वयं तो प्रकाशित हो ही साथ ही आपको भी अन्धकार से निकलने की क्षमता रखता हो |

            एक मात्र गुरु ही वह व्यक्ति है जो हमें हमारे अज्ञान का ज्ञान करा सकता है | गुरु अनुभवी, निष्पाप होने के साथ साथ जीवन के उद्देश्य को पहिचान कर उस तक पहुँचाने और पहुँचाने की क्षमता रखने वाला होना चाहिए | अगर ऐसा नहीं है तो फिर कबीर का कहा ही चरितार्थ होगा –“अँधा अंधे ठेलिया, दोनों कूप पडंत” | अतः गुरु के चयन में सावधानी ही आपको संसार सागर से पार ले जा सकती है अन्यथा जीवन में ज्ञान के नाम पर भार ढोते रहने के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे |

        जिस प्रकार असत से सत की ओर जाने के लिए स्व-कृपा आवश्यक है उसी प्रकार तमस से ज्योति की ओर जाने के लिए गुरु और शास्त्र-कृपा आवश्यक है | इस प्रकार हम असत से सत की और चलते हुए अंधकार से प्रकाश की और चलने की तैयारी में है | यह यात्रा ही हमें मृत्यु से अमृत की और ले जाने में सहायक सिद्ध होंगी | कल से हम यजुः के तीसरे मन्त्र वर्णित ‘मृत्यु और अमृत’ के बारे में चर्चा प्रारम्भ करेंगे, “मृत्योर्माSमृतं गमय” विषय के अंतर्गत | 

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

मृत्योर्माSमृतं गमय  

          बृहदारण्यक उपनिषद् के अध्याय प्रथम ब्राह्मण द्वितीय के खंड 28 के तीन यजु में मुख्य यजु है, “मृत्योर्माSमृतं गमय” अर्थात हे परमात्मा ! मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चल | संसार में आकर कोई भी प्राणी मृत्यु का वरण नहीं करना चाहता वरन अमरत्व ही चाहता है | यह यजु पहले के दो यजु का निष्कर्ष है अर्थात पहले दो यजु का परिणाम यह यजु है | इस यजु को समझने के लिए हमें सर्वप्रथम यह जानना होगा कि मृत्यु क्या है और अमरता क्या है ?

            हमारी मृत्यु केवल मात्र इस भौतिक स्थूल शरीर का मर जाना ही नहीं है | इस भौतिक शरीर का मरना और जन्म लेना तो चलता रहता है परन्तु इसमें उपस्थित आत्मा का जन्मना और मरना असंभव है | ऐसे में अमरत्व किसको चाहिए ? भौतिक शरीर तो अमर हो नहीं सकता और आत्मा, आत्मा तो सदैव अमर है ही |

       इस मनुष्य जीवन के दो ध्रुव है, एक मृत्यु और दूसरा अमृत | शरीर का जन्म लेना और मर जाने को स्वयं का जन्म लेना और मर जाना मान लेने का अर्थ है कि हम जीवन के मृत्यु वाले ध्रुव पर ही अटके हुए हैं | हमें इस ध्रुव को छोड़कर अमृत वाले ध्रुव तक जाना है | मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही मृत्यु के ध्रुव से अमृत के ध्रुव की यात्रा है, अन्य कोई उद्देश्य इस जीवन का है ही नहीं | हम सदैव अमर ही हैं क्योंकि हमारा स्वरूप ही अमृत है, मृत्यु है ही नहीं | हम अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं इसलिए हम कई जन्मों से मृत्यु के ध्रुव पर ही अटके पड़े हैं |

        मृत्यु क्या है ? मृत्यु है मनुष्य जीवन पाकर भी असत संसार में पड़े रहना, अज्ञान में जीना | असत से सत की ओर तथा अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने का एक ही अर्थ है- मृत्यु से अमृत की ओर जाना | पहले दो यजु यही बात तो कह रहे हैं | हमें अपने आप को मृत्यु से अमृत की ओर ले जाना कैसे संभव होगा ? इसको संभव बनाने के लिए भगवद्-कृपा का होना आवश्यक है | हमने देखा कि असत से सत की ओर चलने के लिए स्व-कृपा होना आवश्यक है | इसी प्रकार तमस से ज्योति अर्थात अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने के लिए शास्त्र-कृपा और गुरु-कृपा को महत्वपूर्ण बताया गया है | इसी प्रकार मृत्यु से अमृत की ओर ले चलने के लिए भगवद्-कृपा का होना आवश्यक है | वैसे देखा जाये तो परमात्मा की कृपा उसी पर होती है, जो स्वयं पर कृपा कर सकता हो तथा साथ ही जिस पर शास्त्र और गुरु की कृपा भी हो |

            परमात्मा की हमारे ऊपर कृपा होगी, तभी हम सत को जानने के उत्सुक हो जायेंगे तथा हमें सद्गुरु भी मिल जायेंगे और गुरु शास्त्रों के माध्यम से हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर चलने को प्रेरित करेंगे | अंततः हमारे ऊपर भगवद-कृपा भी हो जाएगी | इस प्रकार चारों कृपाओं का परिणाम यही होगा कि हमारी यात्रा मृत्यु से अमृत की ओर प्रारम्भ हो जाएगी | मनुष्य असत और अज्ञान में पड़कर जीवन भर अशांत बना रहता है | मनुष्य जीवन में अशांति ही उसकी मृत्यु है | शांत जीवन ही अमृत है | अशांत जीवन का कारण है सत्य को न जानना | हम जीवन में सुख चाहते हैं और वह सुख भी भौतिक पदार्थों में ढूँढते हैं | इसके कारण हम पदार्थों के संग्रह और उन पदार्थों से भोग प्राप्त करने की कामना और कर्म करने में ही अपने बहुमूल्य जीवन को नष्ट कर देते हैं | जीवन में भोग (काम) और संग्रह (लोभ) कभी भी शांति प्रदान नहीं कर सकते | प्रश्न यही उठता है कि फिर जीवन में हमें शांति किस प्रकार मिल सकती है ?

         मनुष्य को शांति मिलती है, ज्ञान होने से | ज्ञान हमें कामना और भोगों की वास्तविकता से परिचय कराता है तथा लोभ से दूर रखता है | इस ज्ञान को प्राप्त करते ही हम तत्काल अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं | आइये ! हम भी जानें कि ज्ञान मनुष्य को शांति कैसे प्रदान करता है ?

   गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

        श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय |

        ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || गीता-4/39||

अर्थात जिसने इन्द्रियों को नियंत्रित कर लिया है, जो सदैव तत्पर रहता है और जो श्रद्धावान है, वही मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है | ऐसा मनुष्य ज्ञान को प्राप्त कर बिना किसी विलम्ब के, तत्काल ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है |

          ज्ञान शांति तो प्रदान करता है, परन्तु ज्ञान किस प्रकार की योग्यता रखने वाले व्यक्ति को प्राप्त होने पर ही शांति प्रदान करता है, यह इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है | व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने के लिए परमात्मा के प्रति श्रद्धा रखना आवश्यक है | यह श्रद्धा ज्ञान को ग्रहण करने के लिए व्यक्ति को सक्रिय बनाये रखती है | बिना ऐसी सक्रियता और तत्परता के ज्ञान प्राप्त होना असंभव है | मनुष्य का मन सदैव ही इन्द्रिय भोगों की ओर दौड़ता रहता है, जिस कारण से उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं हो पाती है और ज्ञान पाने के प्रति तत्परता भी नहीं रहती | अतः सर्वप्रथम अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक है |

              जितेन्द्रिय पुरुष ही ज्ञान प्राप्ति को तत्पर हो सकता है और परमात्मा के प्रति श्रद्धावान भी | संसार से आसक्ति हटाने के लिए जितेन्द्रिय होना आवश्यक है | जितेन्द्रिय होने का अर्थ यह नहीं है कि इन्द्रियों को बलपूर्वक दबाया जाये | ऐसा करना तो स्वयं के लिए और अधिक संकट पैदा कर लेना है |

          इन्द्रियों का स्वभाव है कि वह भोगों को उपलब्ध कराने के लिए, उनकी ओर दौड़ेगी ही | नियंत्रण तो आपको अपने मन पर करना होगा, जो विषय-भोगों के प्रति आसक्ति-भाव रखता है | इसी आसक्ति के कारण मन में कामनाएं, इच्छाएँ और वासनाएं जन्म लेती है | मन को नियंत्रण में रखना बहुत ही मुश्किल है | उसको नियंत्रण में रखने के लिए मन में कामनाओं को ही उठने देने से रोकना होगा | भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं –

             एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना |

             जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || गीता-3/43||

अर्थात बुद्धि से सूक्ष्म आत्मा को जानकर हे महाबाहो ! अपनी बुद्धि के द्वारा इस मन को वश में करके तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |

         अज्ञान हमारे मन को बुद्धि पर अधिक प्रभावी बना देता है, जिस कारण से हमारे भीतर विवेक पैदा नहीं हो पाता | आत्मा बुद्धि से भी सूक्ष्म है, और वह आत्मा ही हम है | अतः आत्मा से बुद्धि को सक्रिय कर विवेक से मन को नियंत्रित करते हुए कामनाओं को उठने से रोका जा सकता है | इन्द्रियों का कार्य ही भोग उपलब्ध कराना है, उनको जोर-जबरदस्ती से नियंत्रित करना अनुचित है | जो व्यक्ति इन्द्रियों को दबाकर उनसे विषयों का सेवन नहीं करता, उससे वह स्वयं के द्वारा इन्द्रियों को नियंत्रित कर लेने का दावा तो कर सकता है परन्तु उसके मन में इन विषयों का चिंतन सदैव चलता रहता है और उसमें विभिन्न प्रकार की कामनाएं जन्म लेती रहती है | कामनाओं पर नियन्त्रण करने से ही इन्द्रियाँ और मन नियंत्रित हो सकते हैं और यह नियंत्रण बुद्धि और ज्ञान से ही संभव है | कामनाओं पर नियंत्रण कर लिए जाने से ही शांति प्राप्त हो सकती है |

    भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –

              विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृह |

              निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति || गीता-2/50 ||

   अर्थात जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होकर विचरण करता है, केवल वही शांति को प्राप्त होता है |

                 इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं कि स्पृहा अर्थात महत्वाकांक्षा  (Ambitions) व्यक्ति की जब बहुत अधिक हो जाती है, तब कामनाएं (Desires) पैदा होती है और कामनाओं के पूरा होने पर अहंकार (Ego) पैदा होता है | यही अहंकार और अधिक महत्वाकांक्षा पैदा करता है और नई कामनाओं के जन्म का एक आधार तैयार करता है | इस प्रकार यह अटूट दुष्चक्र (Vicious cycle) चलता रहता है | इस चक्र को तोड़ने के लिए ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होना आवश्यक है |

       ममता, स्पृहा और अहंकार के मूल में सदैव विभिन्न प्रकार की कामनाएं ही रहती है, जो मन को नियंत्रण में न रख पाने के कारण बार-बार जन्म लेती रहती है | इन कामनाओं को उठने से रोकना ही जीवन को परम शांति उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक है |

            ज्ञान-मार्ग पर चलते हुए भी कर्म करते हुए भी शांति प्राप्त की जा सकती है | ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए जीवन में शांति को दो प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है | प्रथम तो ज्ञान के अनुसार कर्म करते रहना तथा दूसरा, ज्ञान प्राप्त कर पूर्व में किये गए कर्मों को नष्ट कर देना | कर्म अगर ज्ञान को ध्यान में रखते हुए किये जाये, तो वे फल नहीं देते हैं अर्थात कर्मफल नहीं देते, इसका अर्थ है कि वे सभी कर्म अकर्म बन जाते हैं |

           कर्म को अकर्म बना देना भी ज्ञान से ही संभव है और कर्मों को नष्ट कर देना भी ज्ञान से ही संभव है | कर्म अकर्म तब बन जाते हैं जब आप उन कर्मों को निष्काम भाव से करते हैं, संसार की सेवा के लिए करते हैं, न कि स्वयं की कामना पूर्ति के लिए | निष्काम-कर्म भी बिना ज्ञान को आत्मसात किये करने संभव नहीं है | इसलिए ज्ञान की भूमिका कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण रहती है | 

          शांति प्राप्त करने के लिए ज्ञान-मार्ग के अनुसार दूसरा तरीका है, कर्मों को करने के बाद उन्हें नष्ट कर देना | प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार का कर्म अवश्य ही करता है परन्तु सभी व्यक्ति अपने कर्मों को नष्ट नहीं कर सकते | कर्मों को नष्ट वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे कर्मों के बारे में ज्ञान प्राप्त हो गया हो | कर्मों के ज्ञान का अर्थ है-कर्म के विज्ञान को जानना (प्रत्येक कर्म प्रकृति के गुणों की गुणों में हो रही क्रिया मात्र है), कर्मों के स्वरूप को पहचान लेना (विहित कर्म अथवा निषिद्ध कर्म) और कर्मों की गति (प्रत्येक कर्म का कैसा भी हो, एक परिणाम अवश्य ही निश्चित होता है) को समझ लेना | कर्मों को नष्ट कर देना इतना ही सरल होता तो प्रत्येक व्यक्ति विकर्म करके बाद में उन्हें नष्ट कर सकता था परन्तु इतना आसान नहीं है, इन कर्मों को नष्ट करना | जिस मनुष्य को कर्मों का प्रत्येक कोण से ज्ञान हो गया है वह भविष्य में किसी प्रकार के निषिद्ध कर्म करता ही नहीं है, केवल ऐसे पुरुष ही कर्मों को नष्ट करने के अधिकारी होते हैं | श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

यथैधांसि समिद्धोSग्निर्भस्मसात्कुरुतेSर्जुन |

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || गीता-4/37||

अर्थात हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञान रुपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है |

             धधकती ज्वाला में जो भी वस्तु अग्नि उत्पन्न करने वाली होती है, उसको अगर डाला जाये तो वह भी अग्नि को समर्पित होकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में कर्म का ईंधन डालने पर वह भी भस्म हो जाता है | इस श्लोक के अनुसार ज्ञान अग्नि के समान है और कर्म ईंधन के समान | ज्ञान की अग्नि न हो तो कर्म का ईंधन समाप्त नहीं हो सकता | कर्मों को समाप्त करने के लिए ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है | यह ज्ञान कर्मों को किस प्रकार नष्ट करता है, इसके दो रास्ते हैं | एक तो कर्म करने के बाद ज्ञान के द्वारा यह स्वीकार कर लेना कि किया गया कर्म निम्न प्रकृति का था जिससे भविष्य में वैसे कर्म की पुनरावृति नहीं होगी | ऐसा हो जाने पर पूर्व में किये गए पाप-कर्म भी नष्ट हो जाते हैं | डाकू अंगुलिमाल और रत्नाकर इसके उदाहरण हैं | दोनों को जब इस बात का ज्ञान हो गया था, तत्काल ही अंगुलिमाल तो महान बौद्ध-भिक्षु बन गया था और डाकू रत्नाकर महाकवि वाल्मीकि, जिनकी रचना वाल्मीकि रामायण जग प्रसिद्ध है |

           ज्ञान के द्वारा कर्मों को नष्ट करने का दूसरा रास्ता है, कर्मों के विज्ञान को जान लेना | कर्मों के होने के तरीकों को जान लेने से भी कर्म नष्ट हो जाते हैं | कर्मों का विज्ञान कहता है कि कर्म प्रकृति प्रदत्त गुणों के गुणों में (गुणों की आपस में एक दूसरे गुण से) क्रिया होने से ही होते हैं, मनुष्य इन क्रियाओं का कर्ता नहीं है | इस बात का ज्ञान हो जाने पर व्यक्ति उन कर्मों को अपने द्वारा किया जाना मानता ही नहीं है | जब प्रत्येक कर्म गुणों की गुणों से आपस में क्रिया के द्वारा होना माना जाता है, ऐसे में कोई भी उचित/अनुचित कर्म किसी व्यक्ति के द्वारा किया हुआ कैसे माना जा सकता है ? ऐसे में उस व्यक्ति के पूर्वकृत सभी कर्म भी नष्ट हो जाते हैं और भविष्य में किये जाने वाले कर्मों का स्वरूप भी परिवर्तित हो जाता है | इसीलिए गीता में आगे भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |

तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति || गीता-4/38||

अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है | ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्ध अन्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है |

        निष्काम-कर्म करने वाले मनुष्य का अंतःकरण शुद्ध हो जाता है | यह कर्म-योग है, जिसमें मन और इन्द्रियों को नियंत्रित कर लिया जाता है और यह सब बुद्धि और विवेक के जाग्रत हो जाने से ही संभव है | ज्ञान जब बुद्धि में समा जाता है तब आत्मा के द्वारा उसको विवेक में परिवर्तित कर दिया जाता है | ज्ञान दही है, बुद्धि मथनी है और मथने वाला आत्मा (हम स्वयं) है | मथने का परिणाम घृत को पाना है अर्थात विवेक का पैदा होना | आत्मा ज्ञान की तरह कोई बाह्य तत्व नहीं है, बल्कि आप स्वयं ही आत्मा है | स्वयं के द्वारा बुद्धि में ज्ञान को ले लेने के उपरांत आप स्वयं ही उसे विवेक में परिवर्तित कर सकते हैं | इसीलिए कहा जाता है कि विवेक भीतर से जाग्रत होता है जबकि ज्ञान बाहर से प्राप्त किया जाता है | विवेक कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन कर सकता है | इस प्रकार या तो कर्म नष्ट हो जाते हैं अथवा कर्मों का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है | दोनों ही परिस्थितियों में व्यक्ति में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है | इसीलिए गीता के इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह अन्य कोई नहीं है | 

           श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्री नरसिंह भक्त प्रह्लाद को कहते हैं – ‘भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं कलेवरं कालजवेन हित्वा | (भागवत-7/10/13) अर्थात भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल को और कुशलता पूर्वक निष्काम-कर्म करते हुए पाप-कर्मों का नाश कर समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे | श्रीमद्भागवत महापुराण का यह श्लोक स्पष्ट करता है कि पूर्वकृत पुण्य-कर्मों के फलों को तो भोगना ही होगा परन्तु पूर्व में किये गए पाप-कर्मों को कुशलता पूर्वक निष्काम-कर्म करते हुए नष्ट किया जा सकता है | कर्मों को कुशलतापूर्वक करना केवल ज्ञान को आत्मसात करने से ही संभव हो सकता है |

    गीता में ही भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

                ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः |

                युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ||गीता-6/8||

अर्थात जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टी तथा स्वर्ण में सम बुद्धि वाला है-ऐसा व्यक्ति योगी कहा जाता है |

             जिसका मन, बुद्धि ज्ञान से, ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है उसका अहंकार भी नष्ट हो जाता है | इस प्रकार सम्पूर्ण अंतःकरण तृप्ति को उपलब्ध हो जाता है | ज्ञान जब साधन से साध्य बन जाता है तब वह विज्ञान कहलाता है | जब व्यक्ति का अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से संतृप्त हो जाता है तब उसकी दृष्टि में मिट्टी और सोने में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रह जाता है | भेद न रहने का कारण है कि उसने मन सहित सभी ग्यारह इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिसके कारण उसके भीतर किसी भी प्रकार का विकार जन्म ही नहीं लेता है | ऐसा निर्विकार और जितेन्द्रिय पुरुष योगारूढ़ कहलाता है |

                 ज्ञान जब विवेक में परिवर्तित हो जाता है, तभी वह वास्तव में व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है अन्यथा ज्ञान बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता | ‘ज्ञानं भारः क्रिया बिना’ अर्थात ज्ञान का अगर उपयोग नहीं किया जाये, तो वह बोझ ही है | जब ज्ञान बोझ बन जाता है, तब वह अज्ञान ही कहलाता है | संसार में प्रवृति होना अज्ञान है जबकि सत्य को पा लेना ही ज्ञान है | अतः ज्ञान को बोध बनायें, बोझ नहीं |

             ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: |

             तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ||गीता-5/16||

अर्थात जिनका अज्ञान परमात्मा के तत्वज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है |

           व्यक्ति में अज्ञान वह है, जो संसार में सुख खोजता है, ज्ञान वह है जो परमात्मा को पाना चाहता है | सुख असत्य है और दुःख का बीज भी, जबकि सत्य परमात्मा और परम शांति को उपलब्ध होना है | ज्ञान आपको प्रकाशित कर देता है, सत्य से आपका परिचय करा देता है और मुक्त करता है जबकि अज्ञान आपको अन्धकार की ओर धकेल देता है, बंधन में डाल देता है | बंधन अशांति पैदा करता है जबकि मुक्त होना ही परम शांति को उपलब्ध होना है |

          अभी तक किये गए विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान को आत्मसात कर लेने के उपरांत ही कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित करते हुए भक्ति को उपलब्ध हुआ जा सकता है | बिना ज्ञान के कर्मों में कुशलता लाना लगभग असंभव है | मनीषियों का कहना है कि ज्ञान मार्ग पर चलकर भी भक्ति को प्राप्त हुआ जा सकता है और भक्ति-मार्ग पर चलकर भी ज्ञान पाया जा सकता है | वे कहते हैं कि ज्ञान-मार्ग से भक्ति-मार्ग अधिक सरल है | मेरा मानना है कि आधुनिक युग में जहाँ शिक्षा केवल रोजगारोन्मुखी हो चुकी है, वहां सीधे भक्ति-मार्ग को पकड़ना जरा कठिन होता जा रहा है | ऐसे में ज्ञान-मार्ग को साधन बनाते हुए भक्ति को अधिक शीघ्रता से उपलब्ध हुआ जा सकता है | वास्तव में देखा जाये तो कर्म-मार्ग और भक्ति-मार्ग, दोनों को जोड़ने वाला मार्ग ही ज्ञान-मार्ग है |

           ज्ञान के महत्त्व को देखते हुए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में ज्ञानी भक्त को अपना सबसे प्रिय भक्त बताया है |

  तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते |

  प्रियो हि ज्ञानिनोSत्यर्थमहं स च मम प्रियः ||गीता-7/17||

अर्थात सभी भक्तों में ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है |

     प्रभु को ज्ञानी भक्त क्यों प्रिय हैं ? इसका कारण है कि ज्ञानी भक्त को परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है | वह परमात्मा को तत्व से जानता है, अपनी बुद्धि और विवेक से | जबकि अन्य भक्त चाहे वे आर्त हों, अर्थार्थी हो अथवा जिज्ञासु, सभी केवल अपने स्वार्थवश परमात्मा की आराधना करते हैं | आर्त भक्त को अपने दुःख को दूर करने का स्वार्थ होता है, अर्थार्थी को अर्थ प्राप्त करने का स्वार्थ होता है और जिज्ञासु को केवल परमात्मा को जानने का परन्तु ज्ञानी भक्त परमात्मा को पूर्ण रूप से जानकर उससे प्रेम करने लगता है, वह अपने आपको परमात्मा से अलग नहीं मानता और सभी में तथा सभी जगह एक परमात्मा को ही देखता है, पूर्ण बोध के साथ | यही उदारता उसको परमात्मा का प्रिय भक्त बना देती है |

गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् |

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ||गीता-7/18||

अर्थात सभी भक्त उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा ही स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह मन बुद्धि वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति स्वरूप मुझ में ही स्थित है |

               वास्तविक ज्ञानी भक्त अपने आपको परमात्मा से अलग समझता ही नहीं है | भगवान की भक्ति में भी भक्त अपने से अलग परमात्मा को मानता है, भक्त अलग और भगवान अलग | यह द्वैत-वाद है | वास्तव में द्वैत है ही नहीं, भगवान और भक्त एक ही है, अतः यहाँ केवल वह एक ही है | वह एक है, केवल उस एक को ही मानने के सिद्धांत को अद्वैत-वाद कहा जाता है |

          भक्ति के लिए ज्ञान और वैराग्य दोनों की आवश्यकता होती है | कुछ कथित ज्ञानीजन मानते हैं कि परमात्मा का ज्ञान हो जाने पर भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है, मैं उनकी इस बात से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ | ऐसे ज्ञानीजन भक्ति को तिरस्कृत करते हैं | साथ ही ऐसे भक्तजन भी हैं जो ज्ञान और वैराग्य की उपेक्षा करने लगते हैं | वास्तविकता यह है कि ज्ञान और वैराग्य एक दूसरे के पूरक हैं | इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान के अभाव में भक्ति अंधी है और भक्ति के अभाव में ज्ञान पंगु | एक के अभाव में दूसरा पंगु बन जाता है | अतः ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति होनी चाहिए | 

           इस प्रकार हम ज्ञान के बारे में सूक्ष्म रूप से जानने के बाद कह सकते हैं कि कर्म-योग से भी शांति को तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब हमें हमारे द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक कर्म का वास्तविक ज्ञान हो | ज्ञान को प्राप्त करने के बाद भी अगर हम अपने मन के अनुसार चलते रहे तो फिर ऐसा ज्ञान अज्ञान ही कहलाने योग्य है | ज्ञान को बुद्धि के समन्वय से विवेक पूर्वक आचरण में लेने से ही ज्ञान की सार्थकता है | ज्ञान हमें संसार के जाल में फंसने से सदैव बचाए रखने में सहायक सिद्ध होता है जिससे हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकें | हमारा वास्तविक स्वरूप ही परमात्मा का स्वरूप है, उससे कहीं भी और किसी प्रकार से भिन्न नहीं है | कर्मों में आसक्ति, उनके फलों के साथ बंध जाना और उनमें छुपे हुए दुःख को नहीं पहचान पाना हमें ज्ञान प्राप्त करने से वंचित कर देता है |

              कर्मों के स्वरूप का ज्ञान हमें कर्म-मार्ग से भी शांति प्राप्त करवा सकता है परन्तु परम शान्ति को उपलब्ध होने के लिए हमें ज्ञान को भी प्राप्त कर उसका जीवन में सदुपयोग करना आवश्यक है | कर्म अविद्या से सम्बंधित है और ज्ञान विद्या से सम्बंधित है | अतः कर्म-योग और ज्ञान योग को समझने के लिए विद्या-अविद्या के अंतर को समझना होगा | इस अंतर को स्पष्ट करते हुए ईशावास्योपनिषद कहता है –

विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभयं सह |

अविद्यया मृत्युं तीत् र्व़ा विद्ययामृतमश्नुते || ईशावास्योपनिषद-11||

अर्थात जो मनुष्य ज्ञान के और कर्म के तत्व को दोनों को साथ-साथ यथार्थ रूप से जान लेता है, वह कर्मों के अनुष्ठान से मृत्यु को पार करके तथा ज्ञान के अनुष्ठान से अमृत को भोगता है अर्थात परम शांति को प्राप्त कर लेता है | 

          कर्म-योग से मृत्यु को पार किया जा सकता है परन्तु परमात्मा को पाने के लिए ज्ञान के साथ उसका समन्वय (Coordination) होना आवश्यक है |  इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि ज्ञान परम शान्ति को प्राप्त करने के लिए कितना महत्वपूर्ण है | ज्ञान ही हमें परमात्मा के साक्षात् स्वरूप का दर्शन कराता है | कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों एक दूसरे के पूरक हैं और तीनों का समन्वय ही व्यक्ति के लिए परम शान्ति के द्वार खोलता है | अतः आवश्यक है कि तीनों योगों को प्राप्त करने हेतु यथोचित साधन करते हुए परमात्मा तक पहुँच बनाई जाये |

           इतने विवेचन से स्पष्ट है कि शास्त्रोक्त ज्ञान के अनुसार हमें शास्त्रोक्त कर्म ही करने चाहिए | इस प्रकार से किये गए कर्म हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले जायेंगे अन्यथा अपने पूर्व जन्म के स्वभावानुसार किये जाने वाले कर्म तो इस मरण धर्मा संसार से हमें कभी भी मुक्त नहीं होने देंगे | ज्ञान हमें विशुद्ध बुद्धि के द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करता है | ज्ञान के बिना हम अमृत तक पहुँच ही नहीं सकते |

            स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि ज्ञानी का ध्यान दो प्रकार का होता है | प्रथम, प्रत्येक ऐसी वस्तु से विचार हटाकर उसको अस्वीकार कर देना जो ‘हम’ (असत) नहीं हैं | दूसरा, केवल उसी बात पर दृढ रहना जो वास्तव में ‘हम’ (सत) हैं | यह ‘हम’ कौन है, ‘हम’ आत्मा हैं, केवल सच्चिदानंद परमात्मा | हम जीवन भर स्वयं को संसार में रहते हुए संसार का ही मान बैठे हैं जबकि वास्तव में हम संसार के नहीं है बल्कि स्वयं सच्चिदानंदघन परमात्मा हैं | हम जिसको सारे संसार में खोजते फिर रहे हैं वह हमारे भीतर ही बैठा है | आवश्यकता है स्वयं के भीतर प्रवेश करने की | किसी ने सत्य ही कहा है-“परमात्मा खोजने से नहीं मिलते हैं बल्कि खो जाने से मिलते है |” किसको खोना है ? स्वयं को खोना है और स्वयं के खो जाने से जो सामने प्रकट होता है वही परमात्मा है |

      मुण्डक उपनिषद में इस ‘स्वयं को खो देने’ वाली बात को बहुत ही सुन्दर तरीके से बताया गया है –

              द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते |

              तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ||

              समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोSनीशया शोचति मुह्यमान |

              जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ||3/1/1-2||

       अर्थात एक साथ रहने वाले परस्पर सखाभाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) एक ही वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते हैं; तथा उन दोनों में से एक तो उस वृक्ष के सुख-दुःख रूप कर्म फलों का स्वाद ले-लेकर उपभोग करता है और दूसरा उन फलों को न खाता हुआ केवल देखता रहता है | इस वृक्ष पर रहने वाला वह पहला पक्षी (जीवात्मा) है जोकि आसक्ति में आकंठ डूबा हुआ है और मोहित होकर शोक करता रहता है | जब कभी भगवद-कृपा से यह अपने से भिन्न परमेश्वर को और उसकी महिमा को प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह सर्वथा शोक रहित हो जाता है |

       एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं | पेड़ के शिखर पर बैठा हुआ पक्षी तो शांत, सुन्दर और पूर्णता लिए हुए है | नीचे बैठा हुआ पक्षी बार-बार एक टहनी से दूसरी टहनी पर फुदकता हुआ कभी तो मधुर फल खाकर प्रसन्न होता है और कभी कटु फल खाकर दुखी होता है | एक दिन उसने जब सामान्य से अधिक कटु फल खा लिए तो उसने ऊपर शांत बैठे पक्षी की ओर देखा और सोचा “मैं भी उस पक्षी सदृश हो जाऊं तो कितना अच्छा हो |” यह सोचकर वह उस पक्षी की ओर बढ़ता है और ऊँची टहनी पर फुदक जाता है | तभी अच्छे से, सुन्दर से फल को सामने देखकर वह उस पक्षी सदृश होने का विचार भूल जाता है और पूर्ववत् मधुर-कटु दोनों ही प्रकार के फल खाने लगता है और सुखी-दुखी होता रहता है | एक दिन उसने पुनः अपने से ऊपर शांत बैठे पक्षी पर दृष्टि डाली और फिर फुदककर उसके कुछ और पास तक पहुँच गया |

            ऐसा कई बार हुआ और अंतत एक दिन वह उस शांत पक्षी तक पहुँच ही गया | उस शांत बैठे पक्षी के पंखों की चमक से वह चौंधिया गया और उसे वह पक्षी कुछ कुछ अपना सा प्रतीत हुआ | अंत में उसे यह देखकर बड़ा विस्मय हुआ कि वहां तो केवल एक ही पक्षी है और वह एक पक्षी तो वह स्वयं ही है | तब जाकर उसे समझ में आया कि वह स्वयं तो सदैव ऊपर वाला पक्षी ही था, नीचे वाले पक्षी का तो कोई अस्तित्व कभी था ही नहीं | वह तो केवल उस एक पक्षी का प्रतिबिम्ब मात्र ही था | जीवात्मा अर्थात हम मनुष्य उस नीचे वाले पक्षी के समान हैं | मनुष्य अगर नित्य निरंतर प्रयास करे तो उस ऊपर वाले पक्षी के स्थान तक पहुँच सकता है और वहां पहुँचने पर उसका निष्कर्ष होगा कि वह तो सदैव आत्मा ही था, अब तक स्वयं को जो समझ रहा था वह तो मात्र स्वप्न था, भ्रम था और स्वप्न का कभी भी अस्तित्व होता नहीं है |

           ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ज्ञानी को अपने मन में निरंतर स्मृति में रखना चाहिए-“ॐ तत् सत्त्” अर्थात ॐ ही एक मात्र सत्ता है | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि तात्विक एकता ही ज्ञानयोग का आधार है | दिन रात स्वयं से कहते रहो-‘सोSहं,सोSहं’ वह मैं ही हूँ, वह मैं ही हूँ | तैतरीय उपनिषद का एक मन्त्र है –

           यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते |

           अथ तस्य भयं भवति || तैतरीय उप.-2/7||(ब्रह्मानंद वल्ली-सातवाँ अनुवादक)

अर्थात जब तक हममें यह विश्वास है कि हम ईश्वर से किंचित् भी भिन्न हैं, तब तक भय हमारे साथ है | भयग्रस्त रहकर हम कभी भी प्रगति नहीं कर सकते, यह सत्य है | भय ही मृत्यु है और अभय हो जाना ही अमृत को पा लेना है |

             ईश्वर से अभिन्न होने पर ही हम भय मुक्त हो सकते हैं, इससे पूर्व नहीं | ज्ञान हमें भयमुक्त करता है | जिसमें अभी भी किसी बात को लेकर भय है इसका अर्थ है कि ईश्वर और स्वयं को लेकर वह एक संशयात्मक स्थिति में है | जब ईश्वर और स्वयं की एकता का अनुभव हो जाता है, मनुष्य तत्काल ही भयमुक्त हो जाता है |

              ज्ञान हमें सत की ओर संकेत करता अवश्य है, हमारे कर्मों में सुधार भी लाता है परन्तु इसके साथ इसमें एक बड़ा दोष भी है और वह दोष है अहंकार, ज्ञानी होने का अहंकार | इस एक विकार के आते ही ज्ञान अज्ञान में परिवर्तित होने लगता है और कर्मों में कर्ता भाव आ जाता है | यह अहम् भाव “मैं” कहलाता है | यह “मैं” ही मृत्यु है और इस “मैं” से मुक्त हो जाना ही अमृत को पा लेना है | कबीर कहते हैं –

     जब ‘मैं’ था तब ‘हरि’ नहीं, अब ‘हरि’ है ‘मैं’ नाहिं |

     सब अँधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या मांहि ||

             परमात्मा की अनुभूति ‘मैं’ को समाप्त कर देती है | कहने का अर्थ है कि अहंकार के समाप्त होने से ही परमात्मा को जाना जा सकता है | परमात्मा से अभिन्नता हमारी उसके साथ एकता, अहंकार को मध्य में से हटा देने पर ही स्पष्ट होती है | अहंकार के समाप्त होते ही आप स्वयं वही हो जाते हो, जो आप वास्तव में हैं | अहंकार का आवरण ही मनुष्य को परमात्मा से अलग कर देता है | इसलिए इस बात का सदैव स्मरण रखें कि ज्ञान का अहंकार हमें परमात्मा से कभी भी परिचित नहीं होने देगा, स्वयं से भी परिचित नहीं होने देगा | ज्ञान के अहंकार से स्वयं को दूर रखिये, तभी हम अमरता का अनुभव कर सकते हैं अन्यथा तो जीवन भर मृत्यु में ही पड़े रहेंगे |

ज्ञानयोगी के लक्षण-

1.वह ज्ञान के अतिरिक्त और किसी वस्तु की कामना नहीं करता |

2.उसकी सभी इन्द्रियां नियंत्रण में रहती है |

3.वह यह भली भांति जानता है कि एक ब्रह्म को छोड़कर अन्य सब मिथ्या है |

4.उसे मुक्ति की सदैव इच्छा होती है |

5.ज्ञानी सब कुछ दूसरों के लिए अथवा परमात्मा के लिए करता है | इस प्रकार वह सभी प्रकार के कर्मफलों का त्याग करता है |

         ईश्वर का साक्षात्कार कभी भी इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता | इसका अर्थ है कि ज्ञान कभी भी इन्द्रियजन्य नहीं हो सकता | ज्ञान में हमें नानात्व (Multiformity) को त्यागना होगा और एकत्व (Uniformity) का अनुभव करना होगा | विचार (Thoughts) बहुत ही महत्वपूर्ण हैं | हम जैसा विचार करते हैं, वैसे ही हम हो जाते हैं | हमें संसार का विचार नहीं करना है, हमें सदैव परमात्मा का ही विचार करना है | संसार का विचार त्याग कर परमात्मा का विचार करना ही मृत्यु से अमृत की ओर जाना है | ज्ञान ही हमें संसार (असत) से परमात्मा (सत) की ओर ले जाने में सहायक है | असत में पड़े रहना ही मृत्यु है और सत को जान लेना ही अमृत को पा लेना है | शरीर असत है इसलिए इसको मरणधर्मा कहा गया है | स्वामी शरणानन्द जी महाराज से किसी ने उनका परिचय पूछा तो उन्होंने बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया | उन्होंने कहा- “मेरा शरीर सदैव मृत्यु में रहता है और मैं सदैव अमरता में रहता हूँ, बस इतना अल्प सा ही मेरा परिचय है |”

           यदि मनुष्य केवल कार्य-कारणों से बद्ध रहता है तो वह केवल मृत्यु में ही रह सकता है | अमरत्व तो केवल निरुपाधिक के लिए ही संभव हो सकता है | हम मुक्त होंगे तभी हम आत्मा हैं | अमरता केवल तभी है, जबकि हम मुक्त हों | जब तक हम अहं भाव द्वारा निर्मित संसार का त्याग नहीं करते तब तक हम परमात्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते | संसार के त्याग का अर्थ है अहं भाव को पूर्णतया भूल जाना, शरीर और संसार में रहना परन्तु उनके द्वारा संचालित नहीं होना | जो सत को जान लेता है वह असत अर्थात माया के भ्रम में नहीं पड़ता वरन केवल सत्यता देखता है | जो सत को नहीं जानता, वह माया में केवल भ्रम ही देखता है और उसे ही सत समझता है | केवल ज्ञान ही उसे वास्तविक सत्य से परिचित करा सकता है |     

          एक लम्बी अवधि से हम तीनों यजु का विवेचन कर रहे हैं | इन यजुओं में प्रार्थना की गयी है कि हे ईश्वर मुझे असत की ओर नहीं, सत की ओर ले चलो; अन्धकार की ओर नहीं, प्रकाश की ओर ले चलो तथा मृत्यु की ओर नहीं, अमृत की ओर ले चलो | परमात्मा तो ले जाने को तत्पर खड़े हैं परन्तु चलना हमें ही होगा | चलने के पहले हमें उस दिशा का ज्ञान होना ही चाहिए जिस ओर हमें जाना है | यह दिशा का संकेत हमें ज्ञान होने से ही मिलता है | मैं अपनी बात को स्पष्ट करूँ इसके पहले आपको एक कहानी सुनाता हूँ |

           एक भगवान् का उपासक साधक था, नाम हरीश चन्द्र | मैसूर का निवासी, बड़ी ही दयनीय हालात में अपना जीवन निर्वाह कर रहा था | एक रात उसको स्वप्न आया | उसने स्वप्न में देखा कि जिस स्थान पर वह निवास कर रहा है वहाँ से हजारों मील दूर देश की राजधानी दिल्ली में यमुना नदी पर एक बहुत बड़ा पुल है, जिसके प्रवेश द्वार के बाजू में ही तीन फीट गहरे जमीन के नीचे खजाना गड़ा है | खजाने में बेशकीमती हीरे-जवाहरात और अकूत स्वर्ण आभूषण भरे पड़े है | अचानक उसका स्वप्न भंग हो गया | जागने के बाद उसने स्वप्न पर विचार करते हुए अनुमान लगाया कि मेरी गरीबी की स्थिति के कारण यह मेरे मन का ही एक प्रपंच है, जो कि स्वप्न में भी अमीर होने की कल्पना कर रहा है | दूसरी रात फिर वही स्वप्न और वही राजधानी का दृश्य, वही पुल और पुल के प्रवेश द्वार के पास ही जमीन के भीतर गड़ा खज़ाना |

             हरीश अब सोच में पड़ गया कि यह कैसा स्वप्न है जो लगातार दो दिन तक मुझे भ्रमित कर रहा है | कहीं ऐसा तो नहीं है कि भगवान् को मेरी दीन अवस्था पर दया आ गयी हो और वे मुझ पर कृपा कर रहे हो | परन्तु मेरे पास तो इतने पैसे भी नहीं है कि साधारण श्रेणी की टिकट लेकर दिल्ली जा सकूँ | इस प्रकार दिन भर विचार करते करते रात हो आई | लगातार तीसरी रात भी फिर वही स्वप्न | दिल्ली में यमुना नदी का वही विशाल पुल जिसके प्रवेश द्वार पर ही तीन फीट नीचे अकूत खज़ाना दबा हुआ | अचानक स्वप्न भंग हो गया | हरीश चन्द्र पसीने से भीगा हुआ सोचने लगा-“क्यों न किसी से दो पैसे उधार लेकर दिल्ली हो ही आऊं | कौन जाने, सचमुच में वहां खज़ाना गड़ा हो ?

      अगले ही दिन अपने मित्र से कुछ रुपये उधर लेकर हरीश चन्द्र दिल्ली के लिए चल पड़ा | दो दिन बाद पहुँच गया देश की राजधानी में | घूमते घूमते पहुँच गया दिल्ली के पास बह रही यमुना नदी के किनारे | आश्चर्य, वही नदी, वैसा ही पुल जैसा वह सपने में तीन दिन से लगातार देखता आ रहा था | उसको अब विश्वास हो चला था कि हो न हो, आज मेरे ऊपर अवश्य ही परमात्मा की विशेष कृपा हुई है | वह अब तेज कदमों से यमुना पर बने पुल के प्रवेश द्वार की ओर बढ़ चला | उसने देखा कि प्रवेश द्वार पर एक सिपाही पहरा दे रहा है | वह उसे देखकर थोडा डर गया और उलटे पाँव वापिस लौट पड़ा | कुछ देर इधर उधर भटकने के बाद पुनः उसी पुल के पास पहुंचा | वहां अब भी वही सिपाही सजग रहते हुए पहरा दे रहा था |

           इस प्रकार हरीश चन्द्र ने उस पुल के तीन-चार चक्कर लगाये परन्तु सिपाही था कि वहां से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था | प्रशासन ने उस पुल कि निगरानी के लिए 24 घंटे पहरा बैठा रखा था क्योंकि उस पुल पर से यमुना नदी में कूदकर प्रतिदिन कोई न कोई व्यक्ति आत्महत्या कर लेता था | जब सिपाही ने हरीश चन्द्र को बार-बार पुल की तरफ आते-जाते देखा तो उसे संशय हुआ कि हो न हो, यह व्यक्ति पुल से कूद कर आत्महत्या करने का प्रयास कर सकता है | जब हरीश चन्द्र फिर एक बार पुनः उस पुल के प्रवेश द्वार पर पहुंचा तो सिपाही ने उसे पकड़ लिया | जब सिपाही ने उससे कड़ाई से पूछताछ की तो वह घबरा गया और उसने अपने स्वप्न की बात बता दी | बात सुनकर सिपाही ठठाकर हंस पड़ा |

         सिपाही ने हरीश चन्द्र को कहा कि “मैं भी पिछले तीन दिनों से एक ही स्वप्न देख रहा हूँ | सपने में मैंने देखा कि मैसूर में एक हरीश चन्द्र नाम का व्यक्ति रहता है | उसके पलंग के नीचे जमीन में तीन फीट की गहराई पर एक अकूत खज़ाना गडा पड़ा है | परन्तु मैं तुम्हारी तरह मूर्ख नहीं हूँ जो इस खजाने की तलाश में हजारों मील दूर चलकर जाऊं क्योंकि मैं जानता हूँ कि सपने कभी सत्य नहीं होते |” इतना कहकर सिपाही ने हरीश चन्द्र को वापिस इधर न आने की चेतावनी देते हुए लौटा दिया | 

         हरीश चन्द्र मायूस होकर मैसूर लौट आया | उसने सोचा कि परमात्मा ने तीन दिनों तक मुझे एक सा स्वप्न दिखा कर मेरे साथ एक प्रकार से मजाक ही किया है | अपनी दीन अवस्था से वह पहले ही दुखी था और ऊपर से मित्र की उधार चुकाने की चिंता और परेशान कर रही थी | घर पहुंचकर वह रात को विश्राम करने लगा | अचानक उसे दिल्ली वाले सिपाही की बात याद आई | उसने कोने में पड़ी कुदाल उठाई और लगा पलंग के नीचे आँगन को खोदने | बड़ा कठोर था आँगन | उस आँगन से भी दृढ था हरीश चन्द्र का सिपाही के स्वप्न पर विश्वास | पसीने पसीने हो चला था, हरीश परन्तु कुदाल को तेजी से आँगन पर चला रहा था |

         यह क्या ? कुदाल एक वस्तु से टकराई और टन की आवाज़ हुई | हरीश ने देखा कि एक धातु का बड़ा बर्तन वहां गडा है | उसने सावधानी से उसे बाहर निकाल कर खोला | यह हीरे जवाहरात और स्वर्ण आभूषणों से भरा एक घड़ा था | आज उसका सपना सचमुच में ही सत्य होने जा रहा था परन्तु यह सत्य उसके स्वयं के घर में ही घटित होने जा रहा था, घर से बाहर किसी राजधानी में नहीं |

           यह मात्र एक कहानी है परन्तु एक निश्चित सन्देश देती हुई | परमात्मा रुपी खज़ाना आपको स्वयं के भीतर ही मिलेगा कहीं बाहर नहीं | हम सत को स्वयं से बाहर ढूँढते फिरते हैं, ज्योति को स्वयं में न देखकर बाहर ढूँढने निकल पड़ते हैं और इसी प्रकार अमृत को भी अपने से बाहर खोजते रहते हैं | स्वयं से कहीं बाहर नहीं है, सत्य, प्रकाश और अमृत | स्वयं के भीतर ही है सब कुछ | इनको खोजने के लिए बाहर की यात्रा नहीं करनी है | इनको पाने के लिए तो अपने अंदर की यात्रा करने की आवश्यकता है | परमात्मा से हम प्रार्थना तो करते हैं कि वे हमें सत्य, ज्ञान और अमृत की ओर ले जाएँ परन्तु हम उनको पाने के लिए दिशा ही विपरीत चुन लेते हैं |

                मैंने पहले भी कहा है, “परमात्मा खोजने से नहीं मिलते, खोने से मिलते हैं |” हमारा खोना तभी संभव हो सकता है जब हम बाहर न देखकर जरा अपने भीतर झांके | जब भीतर सत्य दृष्टिगत होगा, प्रकाश नज़र आएगा वहां अमृत भी मिल जायेगा | तीनों के मिलते ही असत, तमस और मृत्यु तीनों ही खो जायेंगे | असत, तमस और मृत्यु ही “मैं” है और इस “मैं” के खोते ही परमात्मा प्रकट हैं |

       वास्तव में देखा जाये तो असत, तमस और मृत्यु का अस्तित्व है ही नहीं | यह तो हमने अज्ञानवश इन तीनों के होने को मान लिया है | ज्ञान के द्वारा जब यह बात स्पष्ट हो जायेगी, तभी हमें अमरता का अनुभव होगा उससे पूर्व नहीं | ऐसे किसी भी अनुभव के लिए हमें मनुष्य (मनुष्यत्वं) जीवन तो मिला हुआ है ही, इसके साथ स्वयं को भी तैयार करना होगा (मुमुक्षुत्वं) और किसी गुरु की शरण में जाना होगा (महापुरुष सानिध्य) | आदि गुरु शंकराचार्य विवेक चूड़ामणि में कहते हैं -

दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् |

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रयः ||विवेक चूड़ामणि-3||

अर्थात भगवद कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व और महान पुरुषों का संग-ये तीनों ही दुर्लभ है |

            अंत में कहना चाहूँगा कि ‘असतो मा सद्गमय’ और ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ तथा ‘मृत्योर्माSमृतं गमय’ मन्त्रों द्वारा हम परमात्मा से जो प्रार्थना करते हैं उस प्रार्थना को उनके द्वारा स्वीकार कर लेना भगवद कृपा ही है | भगवद कृपा को प्राप्त करने के लिए प्रारम्भ में हमें स्वयं को इस मार्ग पर चलने के लिए तैयार करना होगा (स्व-कृपा) | इसके पश्चात् एक आदर्श गुरु का सानिध्य प्राप्त कर (गुरु-कृपा) उनसे शास्त्रों के मर्म (शास्त्र-कृपा) को जानना होगा | इस प्रकार गुरु से प्राप्त ज्ञान को नौका बनाकर हम मृत्यु से अमृत की ओर जाने की यात्रा प्रारम्भ कर सकते हैं | इस यात्रा का उद्देश्य ही हमें उस परम का अनुभव कराना है, जिसके स्वरुप को हम विस्मृत कर चुके हैं और वह स्वरुप है- सच्चिदानंद स्वरुप जो मृत्यु से परे हैं | यही स्वरुप हमारा वास्तविक स्वरुप है | स्वभाववश हम असत,तमस और मृत्यु में रहते हुए अपने वास्तविक स्वरुप को विस्मृत कर चुके हैं | हमें अपना स्वभाव त्यागकर अपने स्वरुप की स्मृति को प्राप्त करना होगा | इसी यात्रा को मृत्यु से अमरता की ओर जाना कह सकते हैं और यह परमात्म-कृपा से ही संभव है | आइये ! प्रतिदिन प्रभु से यही प्रार्थना करें और सही दिशा का चयन कर मनुष्य-जीवन का उद्देश्य बनाते हुए उस मार्ग पर स्वयं चलने को उद्यत हो जाएँ -

असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय || मृत्योर्माSमृतं गमय |||

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||


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