Wednesday, June 25, 2025

य: पश्यति स पश्यति

 य: पश्यति स पश्यति  

            “पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:” के विवेचन से स्पष्ट है कि भौतिक दृष्टि से देखे जाने वाले दृश्य की समीक्षा यदि ज्ञान दृष्टि से करें तो जो परिणाम निकलकर आता है, वह सत्य के क़रीब होता है । जो सत्य है, वह सदैव के लिए सत्य होता है । एक परमात्मा ही सत्य है । अतः जो भी कुछ हमारी दृष्टि में आए उसमें परमात्मा को देखना ही वास्तव में सही देखना है ।

       यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

       तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। गीता -6/30 ।।

          गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।

           भगवान कहते हैं - “उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।” इसका सीधा सा एक ही अर्थ निकलता है कि परमात्मा और जीवात्मा में फिर कोई भेद नहीं रह जाता अर्थात् आत्मा ही परमात्मा हो जाती है । आत्मा का परमात्मा होना केवल सांसारिक दृष्टि से कहा जाता है, वास्तव में तो आत्मा और परमात्मा एक ही है । जिस दिन इन दोनों की एकता का ज्ञान हो जाएगा उसी दिन हमें स्वयं का ज्ञान हो जाएगा, हम आत्म-ज्ञान की अवस्था तक पहुंच जाएंगे ।

           सबसे महत्त्वपूर्ण है, हमारा देखना । जिस दिन हम भौतिक दृष्टि के भुलावे से बाहर निकल कर ज्ञानदृष्टि से देखने लगेंगे तब वास्तव में हमारा देखना सही होगा । सर्वत्र, सम रूप से परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करना ही सही देखना है । जो इस प्रकार देखता है, वह सही देखता है । 

               पिछली सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने ‘सापेक्षता का सिद्धान्त’ (theory of relativity) दिया था । यह सिद्धान्त कहता है कि पदार्थ की मात्रा (ग्राम में) को प्रकाश की गति (किमी प्रति सेकिंड) के वर्ग से गुणा करें तो जो प्रतिफल मिलता है, उतनी ऊर्जा उस पदार्थ में समाहित है । प्रकाश की गति है, तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड । इस प्रकार एक ग्राम पदार्थ की मात्रा को दो बार प्रकाश की गति से गुणा करेंगे तो जो ऊर्जा उस पदार्थ के विखण्डन से निकलेगी, वह अकल्पनीय होगी ।  इसी सिद्धांत के आधार पर आगे जाकर रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने परमाणु बम का निर्माण किया । परमाणु बम के परीक्षण के समय एक पदार्थ की विध्वंसक शक्ति को देखकर उस महान वैज्ञानिक के मुख से गीता का वह श्लोक निकला, जिसका अर्थ है -“ मैं संपूर्ण लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ ।” वह श्लोक गीता के ग्यारहवें अध्याय का बत्तीसवां श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -

            कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो 

                    लोकान् समाहतुर्मिह प्रवृत्तः ।

            ऋतेपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे 

                    येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योद्धा: ।।

अर्थात् मैं संपूर्ण लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगों का संहार करने के लिए यहाँ आया हूँ । तुम्हारे प्रतिपक्ष में जो योद्धा खड़े हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध न करने पर भी नहीं रहेंगे ।

                परमात्मा ही उस पदार्थ में अक्रिय ऊर्जा के रूप में स्थित है, जो समय आने पर अपनी विशालता का परिचय देते हुए काल बनकर पृथ्वी के दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं । प्रश्न है कि क्या हम एक ग्राम पदार्थ में इतनी विशाल ऊर्जा को देख पा रहे हैं ? नहीं न । नहीं देख पा रहे हैं तो क्यों नहीं देख पा रहे हैं ? क्या हम पदार्थ में स्थित अक्रिय ऊर्जा रूपी उस परमात्मा को देख पा रहे हैं ? हमारे लिए चिंतन का मुख्य विषय यही है । जो परमात्मा को सर्वत्र और संसार के प्रत्येक कण में देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

           क्यों हम पदार्थ के प्रत्येक कण में स्थित परमात्मा को देख नहीं पाते ? इस बात को जानने के लिए आइये !  आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित सापेक्षता के इस सिद्धांत के दूसरे पक्ष की बात भी करते हैं । इस दूसरे पक्ष के अनुसार एक स्थान पर खड़ा व्यक्ति जो भी दृश्य देख रहा है, उस स्थान से हटकर कुछ दूरी पर खड़ा कोई अन्य व्यक्ति उसी दृश्य को पहले वाले से भिन्न प्रकार से देखेगा । उदाहरणार्थ समानान्तर पटरियों पर एक समान गति से एक ही दिशा में जा रही दो रेलगाड़ियों में बैठे व्यक्ति एक दूसरे को स्थिर बैठे दिखलाई पड़ेंगे जब कि दोनों गाड़ियों में बैठे व्यक्ति एक ही दिशा में गतिमान हैं । अब एक दूसरी अवस्था की ओर दृष्टि डालते हैं - बाईं गाड़ी अगर दाईं वाली गाड़ी से तेज गति से चल रही है तो बायीं गाड़ी में बैठे व्यक्ति को दाईं गाड़ी उल्टी दिशा में चलती नज़र आयेगी और दायीं गाड़ी में बैठे व्यक्ति को स्वयं की गाड़ी तो रूकी हुई और बायीं गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ती दिखलाई देगी, जबकि दोनों ही गाड़ियाँ एक ही दिशा में चल रही होती है ।

               कहने का अर्थ है कि एक ही घटना को दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर देख रहे हैं तो उन दोनों के द्वारा एक ही घटना की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाएगी । आपके जीवन को आप स्वयं जिस प्रकार से देख रहे हैं, दूसरा व्यक्ति उसे अपने सापेक्ष देखेगा, आपके सापेक्ष नहीं । आप जीवन में दुःखी हैं तो हो सकता है कोई अन्य आपको उस अवस्था में भी सुखी देख रहा हो । जिसके पास धन का अभाव है, वह थोड़ा सा धन रखने वाले को भी धनवान समझेगा । इसी प्रकार लाखों में खेलने वाला, एक करोड़पति को देखकर स्वयं को ग़रीब समझेगा । ऐसा होना सापेक्षता की दृष्टि से सामान्य बात है । 

               सापेक्षता का सिद्धान्त यही बात कहता है कि देखने के साधन (नेत्र) भले ही एक समान हो परन्तु स्थान, समय और परिस्थितियां व्यक्ति की दृष्टि को परिवर्तित कर देती है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि केवल इन भौतिक आँखों से देखना ही सही देखना नहीं है ।

                दृष्टि तो एक ही होती है, मन उसका विश्लेषण अपने स्तर पर करता है तो वह असत् दृष्टि अथवा भौतिक दृष्टि कहलाती है । जब दृष्टि का विश्लेषण बुद्धि के स्तर पर होता है, तब यही दृष्टि ज्ञान-दृष्टि कहलाती है । मन से जब देखे गए दृश्य का विश्लेषण किया जाता है, तब जो भी दृश्य सामने प्रकट होता है वह वास्तव में वैसा होता ही नहीं है अर्थात् दृश्य कुछ और ही होता है और मनुष्य देखता कुछ और ही है । इसको भ्रम की अवस्था कहा जाता है जैसे रस्सी में सर्प को देखना । यह भ्रम दूर तभी होता है, जब ज्ञान दृष्टि से उस दृश्य का विश्लेषण किया जाता है ।

          जनकपुर में जब धनुष-यज्ञ को देखने श्रीराम, अपने अनुज लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र के साथ यज्ञभूमि पहुँचते हैं तो वहाँ उपस्थित जनों ने राम को किस प्रकार देखा, उसका वर्णन गोस्वामीजी ने बड़े सुंदर ढंग से किया है ।

 “जिन्ह के रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ।।”

            महान रणधीर उन्हें ऐसे देख रहे हैं मानो स्वयं वीर-रस शरीर धारण किए हुए हों । कुटिल राजा प्रभु को देखकर डार गए मानो कोई बड़ी भयानक मूर्ति हो । छल से जो राक्षस वहां राजा बनकर बैठे थे,उन्होंने प्रभु को साक्षात् काल के समान देखा । जनकपुर के वासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्य के भूषण रूप और नेत्रों को सुख प्रदान करने वाले के रूप में देखा । नारियाँ उनका श्रृंगार-रस की अनुपम मूर्ति के रुप में दर्शन कर रही हैं । विद्वानों को प्रभु विराट स्वरूप में दिखलाई पड़ रहे हैं । जनकजी और उनकी रानियाँ भगवान को अपने बच्चे के समान देख रहे हैं । योगियों को शान्त, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे । हरि: भक्तों को वे अपने इष्टदेव जान पड़े । इस प्रकार सबने अपनी अपनी भावदृष्टि के अनुसार श्रीराम को देखा । तुलसी कह रहे हैं -

          एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ ।

           तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ।।

          अब भावदृष्टि से चलते हैं, सिद्धदृष्टि की ओर । सिद्ध पुरुष की दृष्टि ज्ञान की सर्वोच्च दृष्टि होती है । हम बात कर रहे हैं, महर्षि वाल्मीकीजी की जो जीवन में तामसिक अवस्था से निकलकर ज्ञान के सर्वोच्च शिखर तक पहुंच गए । तामसिक वृत्ति में आकण्ठ डूबा व्यक्ति जब गुणातीत अवस्था को उपलब्ध होता है तब उसकी दशा और दिशा दोनों ही बदल जाती है । दोलक (pendulum)  जब एक ओर  से गति करता है तब वह दूसरी ओर जाकर सर्वोच्च ऊँचाई को छू लेता है और फिर पुनः पहली ओर गति करता है । इस प्रकार यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है । परंतु तामसिक व्यक्ति में जब परिवर्तन आता है, तब वह स्थाई परिवर्तन होता है । वह पतन की पराकाष्ठा से निकलकर ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचकर समता में स्थित हो जाता है । ऐसे व्यक्ति का फिर पतन नहीं होता । समता में स्थित व्यक्ति के पास दोनों दृष्टियां होती है फिर भी वह भौतिक दृष्टि के आकर्षण से विचलित नहीं होता । वह भौतिकता की बातों को समझते हुए भी ज्ञानदृष्टि को सदैव जाग्रत अवस्था में बनाए रखता है ।

                अपनी वनगमन यात्रा की अवधि में भगवान श्रीराम, अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ आगे बढ़ते हुए वाल्मीकिजी के आश्रम पहुँच जाते हैं । वाल्मीकिजी, सर्वोच्च ज्ञानदृष्टि रखने वाले, प्रभु को देखते ही पहचान जाते है और उनकी स्तुति करते हैं । प्रेम का आदान-प्रदान होता है । वन में आगे बढ़ने को आतुर भगवान उनको पूछ ही लेते हैं -“आप ऐसा कोई स्थान बताइए जहां मैं रह सकूँ ।”  

          वाल्मीकिजी क्या उत्तर दे रहे हैं, सुनिए । तुलसी लिख रहे हैं -

 पूँछेहु मोहि कि रहूँ कहँ मैं पूँछत सकुचाहुँ ।

जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखवाऊँ ठाउँ ।।

अर्थात् आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ ? परंतु मैं यह यह पूछते हुए सकुचाता हूँ कि जहां आप न हों, वह स्थान बतला दीजिए । तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखलाऊँ ।

       यह है वाल्मीकीजी की दृष्टि और उनका देखना ।

                महत्वपूर्ण है, आपका देखना कि आप प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु और स्थान को किस प्रकार से देखते हैं ? सापेक्षिक रूप से देखेंगे तो भ्रमित हो जाएँगे क्योंकि केवल इस प्रकार से देखने पर आप सत्य से दूर होते चले जाते हैं । दूसरी बात, एक ही प्रकार से देखने से भी आप भ्रमित हो सकते हैं क्योंकि एक दिशा से देखने पर आप उसका केवल एक पक्ष ही देख सकते हैं । सत्य देखना तो तभी संभव है जब आप प्रत्येक दृश्य को समग्र रूप से देखें । समग्र रूप से देखने पर जो आपका अनुभव होगा, वास्तव में वही देखना सही होगा ।

         एक दृष्टांत के माध्यम से बात को आगे बढ़ाते हैं । एक राहगीर अपनी राह आगे बढ़ रहा था । उसने देखा कि रास्ते में थोड़ी दूर आगे ही एक पेड़ की घनी छाया में एक युवा युगल बैठा है । युवक की गोद में युवती उसके वक्ष का सहारा लिए आँखें बंद किए विश्राम कर रही है । युवक बार- बार उसके चेहरे को बड़े प्रेम से निहार रहा है और बीच-बीच में उसके बालों को सहला भी रहा है । पास में ही एक मदिरा की ख़ाली बोतल भी पड़ी है । दृश्य देखकर राहगीर कुछ क्षणों के लिए ठिठक जाता है । वह सोच रहा है कि “कितना घोर कलियुग आ गया है ?  एक युग़ल मदिरा के नशे में मदहोश होकर भरी दोपहर बीच रास्ते में किस प्रकार प्रेमालाप कर रहा है ? इनको शर्म भी नहीं आती ।”

          बात उस राहगीर अकेले की नहीं है । उसके स्थान पर हम में से भी कोई भी होता, तो उस दृश्य को देखकर यही सोचते । कारण ? आधुनिक युग में ऐसे दृश्य देखने के हम अभ्यस्त हो चुके हैं । कई बार तो ऐसे-ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं, जो हमें विचलित कर देते हैं । ऐसे किसी दृश्य से आँख चुराना हमें उसके समग्र दर्शन से वंचित कर देता है । जिस दिन हम उस दृश्य का गहराई से अवलोकन करेंगे तब हमारी सोच बदल भी सकती है । गंभीर अवलोकन के परिणाम निश्चित ही हमारी पूर्व सोच के विपरीत होंगे ।

                   आइए ! आगे बढ़ते हैं और चलते हैं, पुनः उस राह पर, जहां एक राहगीर युवक-युवती के मध्य हो रहे कथित प्रेमालाप के दृश्य को देखकर ठिठका हुआ है । थोड़ी देर बाद हिम्मत कर राहगीर आगे बढ़ता है । उस युगल को वह कुछ भला-बुरा बोलने वाला ही होता है कि उससे पहले ही वह युवक बोल पड़ता है - ‘यह मेरी बहिन है । कुछ समय से बीमार चल रही है । चिकित्सक को दिखाने के लिए पास के ही गाँव जा रहा हूँ । रुग्णता के कारण यह जल्दी थक गई है, थोड़ी देर के लिए विश्राम कर रहे हैं । इस बोतल में जल था, समाप्त हो गया है । क्या आपके पास हमारे लिए थोड़ा सा जल होगा ?”

        कुछ समय पूर्व जो विचार राहगीर के मन में चल रहे थे, अचानक ही वे एकदम परिवर्तित हो गए । उसने क्या- क्या कल्पना की थी और अंततः वास्तविकता क्या निकली ? पहले की कल्पना से एकदम विपरीत, क्योंकि पूर्व में उसकी दृष्टि समग्र नहीं थी । हम सांसारिक व्यक्तियों की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम किसी भी बात को हल्के रूप से लेते हुए एक सोच बना लेते है और इस कारण से सत्य से दूर होते चले जाते हैं । जिस दिन हम समग्र रूप से विचार करने लगेंगे, तब जो दृश्य दिखलाई पड़ेगा वही वास्तव में हमारा सही देखना होगा ।

         संसार में अगर सबसे बड़ा कोई पाप है तो वह है, किसी को बुरा देखना/समझना, और यह पाप प्रायः हम सभी करते रहते हैं । इस पाप से बचना बड़ा ही कठिन कार्य है क्योंकि हमारे मस्तिष्क में एक बात स्थाई रूप से बैठ गई है कि हम निष्पाप हैं, हमारे अतिरिक्त सभी बुरे हैं । इस प्रकार हम स्वयं को दूध का धुला समझने लगे हैं । जिस दिन हम स्वयं से किसी और की तुलना करने के पूर्व अपने आप की स्थिति को देख लेंगे, स्वयं का अवलोकन करने लगेंगे, फिर किसी को बुरा समझने की गलती नहीं करेंगे । 

            दूसरे को बुरा समझने की हमारी मानसिकता पर गहरी चोट करते हुए कबीर कहते हैं -

          बुरा जो मैं देखन चला, बुरा न मिलिया कोय ।

          जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।

        क्या कारण है कि हम बिना कुछ सोचे-समझे हर किसी को भी बुरा समझ लेते हैं ?  बुराई एक ऐसी चीज है, जो किसी में भी थोड़ी-बहुत मिल ही जाती है । किसी को बुरा समझना सिद्ध करता है कि हमारे भीतर में वह बुराई छिपी बैठी है । हम जो कोई अनुचित कार्य करने जा रहे होते हैं, वह हम इसलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि संसार और समाज का भय हमारे भीतर समाया है । संसार का भय ही रोकता है हमें, अन्यथा हम भी ……..। जब हम वही अनुचित कार्य किसी दूसरे को करते देखते हैं, तत्काल ही वह बुराई हमारे भीतर से निकल कर जिह्वा पर आ जाती है और हम उसे बुरा घोषित कर देते हैं ।

           जैसा व्यक्ति स्वयं होता है, दूसरे व्यक्ति को उसी दृष्टि से देखता है । महाभारत क़ालीन एक प्रसंग स्मृति में आ रहा है । एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन भीष्म पितामह के पास बैठे थे । चर्चा चल रही थी कि व्यक्ति संसार को किस प्रकार देखता है ? पितामह ने समझाया कि जैसी व्यक्ति की दृष्टि होती है, उसी प्रकार की सृष्टि उसे दिखलाई पड़ती है । व्यक्ति स्वयं जैसा होता है, उसी अनुसार उसका व्यवहार होता है । केवल व्यवहार ही नहीं, सामने वाले व्यक्ति की प्रत्येक गतिविधि में वह अपना ही प्रतिबिंब देखता है । कहा भी जाता है कि चोर को सारे चोर ही नज़र आते हैं । 

            अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर के पास ही किसी गाँव में पहले दुर्योधन को भेजा । उन्होंने कहा - “ पुत्र दुर्योधन ! तुम वेश बदलकर पास के गाँव में जाओ और पता लगा कर आओ कि वहाँ किस प्रकार के लोग निवास करते हैं ?” 

          दुर्योधन का तो बाल्यकाल से ही अहंकारी व्यक्तित्व था । पिता तो जन्म से ही अंधे थे और माता ने अपने पति को जन्मान्ध जानकार आँखों पर पट्टी बांध ली थी । पिता के अंधेपन ने उन्हें बड़े राजपुत्र होने के बाद भी राजगद्दी से वंचित कर दिया था । यह टीस धृतराष्ट्र के साथ साथ दुर्योधन को भी सताती रहती थी । वह स्वयं को हस्तिनापुर का भावी सम्राट समझने लगा था । इस कारण से उसका स्वभाव भी वैसा ही हो गया था । गाँव में पहुँचते ही उसने एक राजा की तरह अहंकारयुक्त भाषा में वहाँ के निवासियों से वार्तालाप किया । निम्न स्तर के प्रदर्शन को देखते हुए वहाँ के निवासियों ने भी दुर्योधन के साथ रूखा व्यवहार किया । दुर्योधन ने लौटकर भीष्म पितामह को बताया कि “उस गाँव के निवासी बड़े ही बुरे हैं । उन्होंने न तो मेरा सम्मान किया और तो और उन्होंने मुझसे जल तक का भी नहीं पूछा ।”

          अब युधिष्ठिर की बारी थी । वेश बदलकर युधिष्ठिर उस गाँव में पहुँचे । उन्होंने वहाँ पहुँचते ही सभी बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम किया, बराबर वालों से गले मिले और अपने से छोटों के सिर पर बड़े स्नेह से हाथ फेरा । ग्रामवासी उनके व्यवहार से गद्गद हो गए । उन्होंने युधिष्ठिर को स्वादिष्ट भोजन कराया और अनेकों उपहार भेंट में दिए । युधिष्ठिर ने लौटकर भीष्मजी को बताया कि “उस गाँव के निवासी तो बड़े भले हैं । मेरा बहुत उत्साह से स्वागत किया और स्वादिष्ट जलपान भी कराया । लौटते समय भेंटस्वरूप बहुत से उपहार भी दिए ।”

              हस्तिनापुर के दोनों राजकुमारों में ऐसा कौन सा अंतर था, जोकि गाँव वालों ने उनके प्रति किए जाने वाले व्यवहार में इतना बड़ा अंतर कर दिया ?  दोनों के भीतर जिस भलाई-बुराई की बहुलता थी उसके सतह पर आने से ही ग्रामवासियों का उनके प्रति व्यवहार भी भिन्न-भिन्न हो गया । कहने का अर्थ है कि आपकी जैसी दृष्टि होगी, वैसी ही आपकी सृष्टि हो जाएगी । किसी को गुलाब के पौधे में मुस्कुराते हुए फूल नज़र आते हैं तो किसी को केवल काँटे ।

              ऐसा नहीं है कि व्यक्ति केवल बुरा ही बुरा होता है । बुरे से बुरे व्यक्ति के भीतर किसी कोने में अच्छाई भी छिपी रहती है । उस अच्छाई को सतह पर तभी लाया जा सकता है, जब उसे कोई सही मार्गदर्शक मिले । प्रत्येक मनुष्य के भीतर दैवी सम्पदा और आसुरी सम्पदा,दोनों ही निवास करती है ।जो सम्पदा प्रभावशाली होती है, व्यक्ति का व्यवहार और आचरण उसी अनुरूप होता है । दैवी सम्पदा की बहुलता व्यक्ति में सत्व गुणों की बढ़ोतरी करने वाली होती है, जबकि आसुरी सम्पदा तामसिक गुणों को बढ़ाती है । आसुरी सम्पदा मनुष्य को पतन की ओर ले जाती है । अतः मनुष्य को अपने जीवन में सदैव ऐसा प्रयास करते रहना चाहिए कि उसके भीतर दैवी सम्पदा बढ़ती रहे । दैवी सम्पदा ही आपको परमात्मा के द्वार तक ले जाती है ।

             मनुष्य के भीतर अल्प रूप से रहने वाली सम्पदा भी संगति के प्रभाव से बढ़ सकती है । प्रभावशाली दैवी सम्पदा वाला अजामिल भी एक बार तो कुसंग में पड़कर पतन को प्राप्त हो गया था परंतु संतों के मिलन से वह पुनः दैवी सम्पदा से युक्त हो गया । अंगुलिमाल डाकू, घने जंगल में रहकर राहगीरों की हत्याएं किया करता था । वह प्रतिदिन जंगल से गुजरने वाले पहले व्यक्ति को मारकर उसकी अंगुलियों की माला बनाकर अपने गले में पहनता था । उसका संकल्प था, एक सौ व्यक्तियों को मारना, अभी तक वह 99 हत्याएँ कर चुका था । बस, आज अंतिम हत्या होगी, सोचकर वह घात लगाकर बैठा था । तभी तथागत का उधर से निकलना हुआ । उन्होंने अंगुलिमाल को ज्ञान दिया । अंगुलिमाल का विवेक जाग्रत हो गया । वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा । इस प्रकार भगवान बुद्ध की कुछ समय के लिए संगति मिलने पर वह निर्मम डाकू, एक बोध भिक्षु बन गया । इसी प्रकार ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला रत्नाकर भी संगति के प्रभाव से पतन की ओर जाता हुआ भी पुनः उत्थान की राह चल पड़ा था । दो पल का सत्संग भी किसी डाकू को कैसे महात्मा बना देता है, यह कहानी है उस रत्नाकर की है, जो “रामायण” जैसी कालजयी रचना कर वाल्मीकि बन गया ।

                   आज बात करते हैं, डाकू रत्नाकर की, जिसके डर से उस क्षैत्र का पूरा जंगल काँपता था । रत्नाकर का जन्म एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था । पैदा होते ही एक निःसंतान भीलनी उसे उठाकर ले गई । जीविकोपार्जन के लिए उस भीलनी के पास एक ही साधन था, जंगल से गुजरने वाले राहगीरों को लूटना । बड़ा होने पर रत्नाकर भी इस व्यवसाय में पारंगत हो गया । समय पाकर रत्नाकर का विवाह भी हो गया और फिर संतानें भी । थोड़े समय बाद भीलनी भी चल बसी । रत्नाकर के परिवार में रह गये - उसके दत्तक पिता, पत्नी, पुत्र तथा पुत्री । सारे परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेवारी अकेले रत्नाकर पर आ गयी । जंगल में राहगीरों के साथ लूटपाट की घटनाएँ बढ़ गई । अब रत्नाकर, राहगीर के पास थोड़ा-बहुत जो भी होता था, लूट लेता था, उनके पास कुछ भी छोड़ता नहीं था । इस प्रकार बुरी संगति ने एक ब्राह्मण पुत्र को भयानक ख़ूँख़ार डाकू बना दिया ।

             परिस्थितियाँ सदैव एक जैसी नहीं रहती, वे प्रारब्धवश बदलती रहती है । दैवसंयोग से एक दिन देवर्षि नारद उसी जंगल से वीणा बजाते हुए नारायण-नारायण का जाप करते हुए जा रहे थे । आज रत्नाकर के सामने किसी राहगीर को लूटने का यह सुबह से प्रथम अवसर था । उसने नारदजी को रोका और पास में जो है, वह सब कुछ सौंपने का आदेश दिया । भला नारदजी जैसे भगवद्भक्त के पास एक वीणा के अतिरिक्त और क्या रहा होगा ? रत्नाकर ने उस वीणा को भी लूटना चाहा । नारदजी ने कहा -“ तुम जो कुछ भी कर रहे हो, वह पापकर्म है । क्या तुम इस पाप का परिणाम जानते हो ? ऐसे कर्म का सदैव ही बुरा परिणाम होता है । यह महान पाप है । तुम किसके लिये यह पाप कर रहे हो ?”

           मनुष्य पापकर्म करता है, अपनी इच्छा से और दोष परिस्थितियों पर मढ़ देता है । जीवन में कोई भी परिस्थिति इतनी जटिल नहीं होती कि उससे बाहर निकलने के लिए व्यक्ति पाप करने को विवश हो जाए । रत्नाकर के लिए तो अपने परिवार के भरण-पोषण करने के लिए लूटपाट करना ही सबसे सुगम था ।

           नारदजी के इस प्रकार प्रश्न करने पर रत्नाकर बोला -“ मुझे अपने परिवार का भरण-पोषण करना है, उसी के लिए यह कर्म कर रहा हूँ ।” नारदजी ने कहा -“ तुम जानते हो न कि यह पापकर्म है और इसका फल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा ।” रत्नाकर ने कहा -“ मैं अकेला ही क्यों भोगूँगा, ये कर्म तो मैं पूरे परिवार के लिए कर रहा हूँ । वे भी इस कर्म के परिणाम को भोगेंगे ।” नारदजी ने कहा कि “तुम मेरी वीणा भले ही ले लो, पर पहले अपने पारिवारिक सदस्यों से पूछ कर आओ कि क्या वे भी तुम्हारे पाप कर्म में भागीदार हैं ?” 

            नारदजी से ऐसा सुनकर रत्नाकर भी सोचने को विवश हो गया । उसने नारदजी को कहा -“तुम कहीं भाग न जाना । मैं अभी अपने पिता, पत्नी और बच्चों को पूछकर आता हूँ कि क्या मेरे द्वारा किए जाने वाले कर्मों के फल के वे भी भागीदार हैं अथवा नहीं ?”

             एक पेड़ से देवर्षि को बांधकर रत्नाकर अपने घर पहुँचा । पिता, पत्नी और बच्चों से वही प्रश्न पूछा जो नारदजी ने उसको पूछा था । उत्तर में सभी ने एक ही बात कही ।”आपके कर्मों के लिए हम तनिक भी ज़िम्मेवार नहीं हैं । हमारा भरण-पोषण करना आपका कर्तव्य है । आप इस कर्तव्य को कैसे निभाते हैं, यह आप जानें ।” उत्तर सुनते ही रत्नाकर के मस्तिष्क में बिजली सी कौंध गई । उसके ज्ञानचक्षु खुल गए । 

              रत्नाकर ने लौटकर देवर्षि के बंधन खोले और उनके चरणों में गिर पड़ा । आज उसे इस सांसारिक जीवन का अमूल्य ज्ञान मिल गया था । जिस रत्नाकर को अपने मुँह से “राम” कहना तक गँवारा नहीं था, वह राम-राम के स्थान पर मरा-मरा जपता था, वही डाकू रत्नाकर भगवान राम पर महाकाव्य ‘रामायण’ लिखकर वाल्मीकि नाम से अमर हो गया । गोस्वामीजी ने मानस में इनके बारे में लिखा है -

      उलटा नाम जपत जेहि जाना । वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना ।।

           हमारे यहाँ ऐसे अनगिनत दृष्टांत मिल जाएंगे, जो सिद्ध करते हैं कि जिसे हम बुरा समझते हैं, वह व्यक्ति केवल बुरा ही नहीं होता, भलाई भी उसके भीतर छिपी रहती है । हमारी दृष्टि एकाकी रूप से क्या देखती है, उसी को हम उसकी वास्तविकता समझ लेते हैं । जब विभिन्न व्यक्तियों की भौतिक दृष्टि भी देखे हुए की एक समान व्याख्या न कर उस दृश्य की भिन्न-भिन्न व्याख्या करती है तो ऐसे में उस दृष्टि से किए गए दर्शन को सत्य कैसे कहा जा सकता है ? इसका अर्थ हुआ कि जो कुछ भी हम अपने नेत्रों से देखते हैं, उस दृष्टि को समग्रता मिलने पर ही हमें वास्तविक दृष्टि प्राप्त होगी अन्यथा तो हम जो कुछ देखते हैं वह सत्य से कोसों दूर ही रह जाएगा ।

         नेत्रों से देखने में स्थान, समय और परिस्थिति की भूमिका रहती है । उस समय, उस स्थान के घटनाक्रम को देखने के स्थान पर हमारे मन के भीतर किसी और विषय का चिंतन चल रहा हो तो हम वहाँ पर उपस्थित रहकर अपने नेत्रों से देखते हुए भी नहीं देख रहे होते हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक घटनाक्रम को देखने के लिए व्यक्ति की मानसिक दशा उसी के अनुरूप होनी चाहिए ।

             भौतिक नेत्रों से देखा गया वास्तव में देखना नहीं होता क्योंकि असत् से केवल असत् को ही देखा जा सकता है सत् को नहीं । जिसको सत् देखना आ गया वास्तव में वही व्यक्ति सही देख रहा है । गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही बात कह रहे हैं । 

            समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।

            विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।। गीता-13/27।।

अर्थात् जो नष्ट होते हुए सभी प्राणियों में परमेश्वर को नाशरहित और समरूप से देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

                 संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब नाशवान है । सभी प्राणियों  के शरीर पदार्थ मात्र है । पदार्थ के परिवर्तनशील और नाशवान होने के कारण शरीर को भी असत् कहा जाता है । असत् इसलिए क्योंकि शरीर अविनाशी नहीं है । जिस क्षण हम अपनी भौतिक दृष्टि से किसी वस्तु अथवा पदार्थ को देखते हैं, उसके दूसरे ही क्षण उसमें परिवर्तन आ जाता है । हमारी आँखें जब तक मस्तिष्क को उस वस्तु को देखने का संदेश भेजती है, तब तक उस वस्तु में परिवर्तन हो जाता है । मस्तिष्क द्वारा जिस स्थिति में वह वस्तु देखी गई है, वास्तव में मस्तिष्क द्वारा देखे जाने तक उस में तनिक सा परिवर्तन हो चूका होता है । हम इस परिवर्तन का संज्ञान लेने में असमर्थ हैं क्योंकि हमें अत्यल्प से परिवर्तन को समझने का अनुभव ही नहीं है ।

          सूर्य प्रतिदिन उदय-अस्त होता है । हम जिस समय सूर्य की स्थिति देख रहे होते हैं वह सूर्य की तात्कालिक स्थिति नहीं होती । सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने में लगभग साढ़े सात मिनट लग जाते हैं । इसका अर्थ है कि सूर्य की स्थिति जो हम अभी देख रहे हैं, वास्तव में साढ़े सात मिनट पूर्व सूर्य उस स्थिति में था । हमारे देखने के समय तो सूर्य उस स्थिति से बहुत आगे बढ़ चुका होता है । 

         इसी प्रकार संसार का प्रत्येक पदार्थ भी प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है । हमारे सौरमंडल का केंद्र यह सूर्य भी एक दिन अपनी समस्त ऊर्जा खो देगा । आज मोक्षदायिनी गंगा जिस प्रवाह से बह रही है, उसका प्रवाहित बने रहना भी एक दिन असंभव हो जाएगा ।

            सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि असत् दृष्टि से सत् को देखा नहीं जा सकता । जिसको सत् को देखना आ जाता है, वही वास्तव में सही देख रहा होता है । गीता का यह श्लोक (13/27) इसी बात को स्पष्ट करता है । भगवान कह रहे हैं कि नष्ट होते हुए सभी प्राणियों में समरूप से स्थित नाशवान परमेश्वर को जो देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

            संसार के समस्त प्राणी नष्ट कैसे हो रहे हैं ? जिसने इस धरा पर जन्म लिया है, उसकी मृत्यु होना अवश्यंभावी है । जिस दिन शरीर पैदा होता है, उसी समय से उसकी मृत्यु होना प्रारम्भ हो जाती है । हम अपने बच्चे का प्रथम, द्वितीय, तृतीय……. आदि अनेकों जन्मदिन मनाकर खुश होते हैं । उस समय हम यह भूल जाते हैं कि बच्चे के शरीर ने मृत्यु की तरफ़ अपना एक कदम और बढ़ा लिया है ।

         शरीर की मृत्यु शरीर में हो रहे परिवर्तन के कारण होती है । शरीर में होने वाला यह परिवर्तन इतनी धीमी गति से होता है कि हमें उसका तत्क्षण भान तक नहीं होता । यह भान तब होता है, जब शरीर की अवस्था परिवर्तित होने लगती है । कल का अबोध शिशु एक दिन बालक बन जाता है । यही बालक युवावस्था पाकर फूला नहीं समाता । वह भूल जाता है कि वह प्रोढ़ावस्था के रास्ते को पार कर एक दिन वृद्ध हो जाएगा और अंततः मृत्यु को प्राप्त होगा ।

         शरीर की इस अवस्था परिवर्तन की कौन समीक्षा करता है, इस शारीरिक परिवर्तन को कौन अनुभव करता है ? जो शरीर में स्थित रहकर अपने शरीर की अवस्थाओं को परिवर्तित होते देख रहा है, वह “मैं” ही वास्तव में देखने वाला है ।  वह “ मैं” ही नाशरहित है, अविनाशी है । मैं युवा हूँ, मैं प्रोढ हूँ, मैं वृद्ध हो गया हूँ आदि कहने वाला “मैं” ही अविनाशी है परंतु शरीर के साथ एकता कर वह उस शरीर के मरने को स्वयं का मरना कह रहा है । शरीर में स्थित यह “मैं” स्वयं को अहंकारवश “मैं” कह रहा है । शरीर से सम्बन्ध न मानने पर इस “मैं” का भी लोप हो जाता है । स्वामीजी कहते हैं कि “मैं हूँ” में से जब “मैं” का लोप हो जाता है तब “हूँ” का भी लोप हो जाता है और शेष केवल “है” रह जाता है । “मैं हूँ” (अहंकार) के मिटते ही शेष केवल “है” अर्थात् परमेश्वर ही रह जाता है ।

             प्राणियों के नष्ट होते जा रहे शरीरों में एक अविनाशी परमेश्वर ही समरूप से स्थित है । ऐसा नहीं है कि मनुष्य में कोई उच्च कोटि का परमेश्वर निवास करता है और मच्छर में निम्न कोटि का । प्राणियों के सभी शरीरों में एक ही परमेश्वर समान रूप से स्थित है । जो व्यक्ति सभी नाशवान प्राणियों में समान रूप से स्थित एक अविनाशी परमात्मा को देखता है, वास्तव में वही सही देखता है । 

             हम देखने में गलती कहाँ करते हैं ? हम गलती करते हैं कि रूप, नाम और आकार को ध्यान में रखते हुए प्राणियों को देखते हैं । यह गधा है, यह घोड़ा है, यह पुरुष है, यह स्त्री है, यह ब्राह्मण है, यह शूद्र है आदि । हम सभी प्राणियों का केवल बाहरी स्वरूप देखते हैं, उनके भीतर प्रवेश कर वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाते । जब तक हम स्वयं अपने स्वरूप तक नहीं पहुँचेंगे, तब तक सभी प्राणियों में परमात्मा को नहीं देख पाएंगे । स्वयं के स्वरूप तक पहुँचने के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । 

             प्रश्न उठता है कि सभी प्राणियों में समरूप से स्थित अविनाशी परमेश्वर को देखने के लिए ज्ञान का होना क्यों आवश्यक है ? मनुष्य और अन्य जीवों में अन्तर केवल मनुष्य की विकसित बुद्धि के कारण ही है । सभी जीव भोग योनि के अन्तर्गत है, जबकि मनुष्य जीवन, भोग के साथ- साथ योग के लिए भी है । योग होता है, सत् के साथ और भोग होता है असत् के साथ । अन्य प्राणी पशु आदि भोग में ही मस्त रहते हैं, योग करना उनकी बुद्धि से परे की बात है । योग के लिए विकसित बुद्धि की आवश्यकता होती है, जोकि मनुष्य के पास जन्मजात है । स्वयं को जानने के लिए विषयों के प्रति अनासक्त होकर मन को नियंत्रित करना पड़ता है । मन के नियंत्रित होते ही बुद्धि मुक्त होकर विचार को जन्म देती है जो मनुष्य को विवेकी बना देती है । स्वतंत्र बुद्धि में जब ज्ञान उपजता है, तब वही ज्ञान विवेक कहलाता है । विवेक का सदुपयोग कर मनुष्य स्वयं को जान सकता है । इसे ही मनुष्य द्वारा आत्मज्ञान की अवस्था को प्राप्त होना कहते हैं ।

         मनुष्य अपने शरीर और अपने बनाए संसार में आसक्त होकर स्वयं के स्वरूप से दूर होता जाता है । शरीर और संसार के साथ मोह रखना ही उसका अज्ञान है । पूर्व में मैंने जो दैव और आसुरी सम्पदा के बारे में बात की थी, उसमें विशेष बात यही है कि आसुरी संपदा युक्त व्यक्ति मोह के जाल में फँस जाता है । भोग और संग्रह में रत ऐसे मनुष्य विभिन्न चिंताओं से घिरे रहते हैं और इसी संसार को सत्य मान लेते हैं । भोग और संग्रह का मोह कामना पैदा करता है जिससे आसुरी स्वभाव वाला मनुष्य पाप करने को विवश हो जाता है । यह पाप उस मनुष्य को कहाँ तक ले जा सकता है, इसको स्पष्ट करते हुए भगवान गीता में कहते हैं -

    अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता: ।

    प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।। गीता-16/16।।

अर्थात् कामनाओं के कारण तरह-तरह से भ्रमित चित्तवाले, मोहजाल में अच्छी तरह फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगों में अत्यंत आसक्त रहने वाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं ।

            स्वर्ग और नर्क इसी धरती पर ही हैं । चिंता जो हृदय के भीतर जलन पैदा करती है, वह क्या नर्क की अग्नि में जलने से कम है ? भ्रमित चित्त वाला इस संसार में रहते हुए भी संयोग से प्राप्त हुए पदार्थों से सुख प्राप्त करने से चूक जाता है । जो उपलब्ध है, उससे सुख तभी लिया जा सकता है जब मन के भीतर और अधिक प्राप्त करने की कामना नहीं हो । आत्म-संतुष्टि ही स्वर्ग है । असंतुष्ट जीवन ही नारकीय जीवन है । शरीर छोड़ने के बाद नर्क मिलेगा अथवा स्वर्ग, भला जीतेजी कोई बता सकता है ? स्वर्ग अथवा नर्क को प्राप्त व्यक्ति लौटकर आ नहीं सकता और जीतेजी वहाँ कोई जा नहीं सकता । इसलिए इसे ही सत्य मान लें और स्वीकार कर लें कि इस जीवन में जो भी स्वर्ग अथवा नर्क भोगोगे, शरीर के चले जाने पर वही आगे भी तैयार मिलेगा ।

              हमारे ऋषियों ने स्वर्ग-नर्क की कल्पना यूँही नहीं की है । उन्होंने अपने जीवनकाल में विभिन्न मनुष्यों के जीवन का बड़ी गंभीरता से अवलोकन और अध्ययन किया है । यहीं इसी धरा पर उन्होंने मनुष्यों को स्वर्ग-नर्क को भोगते देखा है । उन्होंने देखा है कि कर्मों के अनुसार ही मनुष्य के साथ ऐसा होता है । जब कुछ काम्य कर्मों का परिणाम इसी जीवन में तत्काल मिल सकता है, तो संचित कर्मों का भविष्य में कैसा परिणाम मिलेगा, कल्पना की जा सकती है । स्वर्ग-नरक की कल्पना का मुख्य आधार यही है ।

                भगवान गीता में कहते हैं, “क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु” (गीता-16/19) अर्थात् मैं उन्हें (पापाचारियोंको) बार-बार आसुरी योनियों में गिराता रहता हूँ । आसुरी योनि में जन्म लेना ही नरक भोगना है । सभी प्राणियों की योनियां ‘भोग-योनि’ कही जाती है । प्रत्येक विषय-भोग, मनुष्य जीवन के कर्मों का परिणाम होता है । जैसा भोग होगा, उसी प्रकार का उस प्राणी का जीवन होगा । केवल मनुष्य नाम का एक मात्र जीव ऐसा है, जिसकी योनि, भोग योनि के साथ-साथ योग-योनि भी है । दुर्भाग्यवश आसुरी सम्पदा की बहुलता और उसके प्रभाव के कारण उसकी यह मनुष्य योनि भी केवल भोग-योनि बनकर रह जाती है अन्यथा तो परमात्मा से योग करने के लिए ही उसे यह जीवन मिला ही है ।

         मैं ‘मोह’ को मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी कहता हूँ । यह त्रासदी इस मायने में है कि मोह के कारण मनुष्य स्वयं के बारे में सोचना बंद कर अपने शरीर और संसार के बारे में सोचने लग जाता है । आपका यह शरीर और आपके द्वारा रचित यह संसार, किसी दलदल से कम नहीं है । इस दलदल में जब आकण्ठ डूब जाते हो तब अनुभव होता है कि हम बुरी तरह फँस गए हैं । फँसे सो तो फँसे, परंतु इस दलदल से बाहर निकलने के प्रयास में और अधिक फँसते जा रहे हैं । 

                  मोह में अधिक से अधिक फँसते जाने का कारण है कि हम इस दलदल से बाहर निकलने के लिए सहारा भी दलदल में जो पहले से ही फँसे पड़े हैं, उनका ले रहे हैं । जैसे कीचड़ से कभी कीचड़ को साफ़ नहीं किया जा सकता उसी प्रकार असत् से बाहर असत् के सहारे नहीं निकला जा सकता । संसार की सारी क्रियाएं असत् है । असत् से बाहर निकलने और सत् तक पहुँचने के लिए हम उन्हीं क्रियाओं का सहारा ले रहे हैं, जोकि असत् है । क्रियाएं असत् प्रकृति में होती है, सत् तो अक्रिय है । समस्त क्रियाओं के शान्त होने पर ही सत् की प्राप्ति होगी अन्यथा नहीं ।

                     एक दृष्टांत के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ । एक सेठजी थे । उनका प्रतिदिन का नियम था कि पण्डितजी से भागवत कथा सुना करते थे । कथा में प्रतिदिन कोई न कोई ऐसा प्रसंग आ जाता था, जो वैराग्य के लिए प्रेरित करने वाला होता था, जैसे चित्रकेतु-अंगिरा, नारद संवाद, ययाति प्रसंग आदि । कथा के अंत में पण्डितजी सेठ को पूछते - “सेठजी, कुछ समझे ?” सेठ कहता - “पण्डितजी, आप ही समझ लो ।” सेठ-पण्डित के मध्य प्रतिदिन इस प्रकार के संवाद का नियम सा बन गया था । कथा समाप्त कर पण्डितजी अपनी दक्षिणा लेकर पोथी समेटते और घर चले जाते ।

            एक दिन पण्डितजी कथा करने सेठ के यहाँ नहीं पहुँचे । सेठ कथा सुनकर ही दुकान जाता था । आज पण्डितजी के आने में देरी होते देखकर सेठ ने अपने नौकर को उन्हें लिवाने भेजा । नौकर जब पण्डितजी के घर पहुँचा तो पंडिताइन मिली । उसने पंडिताइन से पण्डितजी के बारे में पूछा । पंडिताइन ने कहा कि वे तो सुबह-सुबह ही जंगल की तरफ़ निकल गए और जाते-जाते कह गए कि सेठजी के यहाँ से कोई बुलाने आए तो कहला देना कि उन्हें भागवत-कथा समझ में आ गई है ।

        कथा करना, कथा कहना और कथा सुनना हमारे यहाँ की परम्परा है । ऐसी कथा की परम्परा तब तक केवल क्रिया मात्र है जब तक उस कथा का प्रभाव जीवन में परिलक्षित नहीं होता । सेठजी-पण्डितजी की इस कथा का मर्म यह है कि हम सत् तक पहुँचने की कितनी ही क्रियाएं कर लें, जब तक असत् की कामना मन से दूर नहीं होगी तब तक सत् की झलक तक नहीं मिलेगी । मूल बात एक ही है कि हमें सत् तक पहुँचना है । असत् के सहारे हम सत् तक कभी नहीं पहुँच सकते । असत् का त्याग ही हमें सत् तक पहुँचा सकता है । मोह, असत् की सत्ता को प्रगाढ़ करता है । हमारे इस मोह ने ही संसार को सत्ता प्रदान की है ।

               मोह के कारण ही “मैं और मेरा” की भावना पैदा होती है । “अहंता और ममता” का जनक हमारा मोह ही है । मोह के कारण ही हमें कोई अपना दिखाई पड़ता है और कोई दूसरा जबकि यहाँ कोई और नहीं है, कोई ग़ैर नहीं है । अपना और पराया देखना वास्तव में सही देखना नहीं है । “कोई और नहीं, कोई ग़ैर नहीं”, ऐसा दिखना ही सही है ।”य: पश्यति स पश्यति” कहने का अर्थ यही है, सबमें एक अविनाशी परमेश्वर को देखना ।

         मोह ही काम, क्रोध और लोभ का जनक है । इन तीनों (काम, क्रोध और लोभ)  को नरक का द्वारा कहा जाता है । शास्त्रों में इन तीनों का त्याग करना बताया गया है । इन तीनों के त्याग के लिए आवश्यक है कि हम मोह-जाल से मुक्त हों । मोह ही मनुष्य के बंधन का मूल कारण है । मोह कोई एक स्थान अथवा क्षेत्र तक सीमित हो तो कोई बात नहीं परंतु यह मोह तो प्रत्येक क्षेत्र में हो सकता है । हम पहले दो क्षेत्रों (संसार और शास्त्र) के मोह की बात करते हैं । मोह सांसारिक और शास्त्रीय दो प्रकार के मुख्य हैं । दोनों ही प्रकार के मोह मनुष्य को अपने बंधन में जकड़ लेते हैं, फिर उसका मुक्त होना लगभग असंभव हो जाता है । आप सोचते होंगे कि शास्त्रों की ऊँची-ऊँची बातें करने वाले मुक्त हैं । नहीं, आपकी सोच ग़लत है । शास्त्रीय मोह तो सांसारिक मोह से भी अधिक ख़तरनाक है ।

            सांसारिक मोह में बंधा व्यक्ति तो शास्त्र और सन्त की शरण में जाकर मुक्त हो सकता है परन्तु शास्त्रीय मोह में बंधा व्यक्ति मुक्त होने के लिए जाये तो कहाँ जाये ? शास्त्रों को पढ़कर जो ज्ञान व्यक्ति को प्राप्त होता है, वह ज्ञान उसमें अहंकार पैदा करता है । इस अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को सबसे बड़ा ज्ञानी समझने लगता है । यह अहंकार ही उसके बंधन का कारण है जो जीतेजी उसे मुक्त नहीं होने देता । शास्त्रों से ज्ञान लेकर आप अच्छे और कुशल वक्ता, लेखक आदि बन सकते हैं, शास्त्रार्थ कर विजयी हो सकते हैं परन्तु मुक्त नहीं हो सकते क्योंकि मुक्ति के लिए अहंकार-शून्य होना आवश्यक है । ज्ञान से उत्पन्न हुआ अहंकार किसी शास्त्र मर्मज्ञ और अनुभवी सन्त की शरण में जाने से ही दूर हो सकता है अन्यथा नहीं । 

               प्रश्न उठता है कि हमारा यह मोह दूर कैसे हो ?  भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में मोह से मुक्त होने के मुख्य रूप से तीन मार्ग बताए हैं, जिन्हें योग कहकर सम्बोधित किया गया है । ये तीन मार्ग हैं - कर्म-योग, ज्ञान-योग और भक्ति- योग । तीनों ही योग में ज्ञान की भूमिका कमोबेश रहती ही है । भक्ति-योग में मुख्यता परमात्मा के प्रति शरणागत हो जाने की है । 

       कर्म-योग में संसार की सेवा के लिये कर्म किए जाते हैं और स्वयं की प्रत्येक चाहना (कामना) का अन्त करना होता है । ज्ञान-योग में संसार और शरीर के प्रति अनासक्त होना पड़ता है । विवेक का सदुपयोग कर प्रत्येक प्रकार की आसक्ति से दूर हुआ जा सकता है । भक्ति-योग में श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु की शरण में जाना होता है । परमात्मा के प्रति आस्था इतनी दृढ़ होनी चाहिए कि ममता के समस्त बंधन तोड़कर एक ही बात मन में रहे कि केवल भगवान ही मेरे हैं । मोह- निवृत्ति के जितने अन्य उपाय हैं, वे सभी साधन इन तीनों के अन्तर्गत आ जाते हैं ।

                 तीनों योग जिस प्रकार से मनुष्य की मोह-निवृत्ति करते हैं, उससे मुख्य रूप से एक ही बात निकलकर सामने आती है कि सर्वत्र और सबमें एक परमात्मा को देखना ही इनका आधार है । मोह में होता है, सब प्राणियों को अलग-अलग देखना । इस प्रकार देखना ही व्यक्ति को काम, क्रोध और लोभ में फँसा देता है । कहा जाता है कि मोह व्यक्ति को लूला-लंगड़ा कर देता है । मनुष्य को काम अंधा, क्रोध बहरा और लोभ गूँगा बना देता है । जब व्यक्ति मोह के कारण इन तीन विकारों में फँसता है, तब उसके  मस्तिष्क की सोचने-समझने की क्षमता (बुद्धि) नष्ट हो जाती है, तभी तो व्यक्ति अंधा, लंगड़ा, गूँगा और बहरा हो जाता है ।

                मस्तिष्क की सोचने, समझने और विचार करने की क्षमता बुद्धि के पास होती है । मोह के कारण बुद्धि की कमान (control) मन के पास चली जाती है जिसके कारण व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है । जितने भी विकार शरीर में प्रवेश करते है, वे सब मन के रास्ते ही करते हैं । विकार स्वरूप में आ ही नहीं सकते । विकारों से मुक्त होने के लिए मन से बुद्धि को मुक्त कराना आवश्यक है । मनुष्य के समक्ष आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियां इसमें मुख्य भूमिका निभाती है । प्रतिकूल परिस्थिति से मुक्त होने का विचार ही बुद्धि को मन से अलग करता है और इसी से विवेक के जाग्रत होने की संभावना बढ़ जाती है । विचार, बुद्धि में विवेक को उत्पन्न करता है और विवेक का सदुपयोग कर मनुष्य मोह से मुक्त होता है ।

                 विवेक से ही व्यक्ति को आत्म-अनात्म का ज्ञान होता है । शरीर और संसार अनात्म है । अनात्म में ही विकार होते हैं, आत्म में नहीं । इसे ही आत्मज्ञान को उपलब्ध होना कहा जाता है । आत्मज्ञान को प्राप्त हुआ व्यक्ति फिर सांसारिक दृष्टि से देखते हुए भी सबको अलग-अलग न देखकर सबमें एक परमात्मा को ही देखता है । कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग, ये तीन तभी सिद्ध होते हैं जब व्यक्ति कम से कम इतने ज्ञान को तो उपलब्ध हो जाए अन्यथा न तो उससे संसार की सेवा होगी, न वह अनासक्त हो पाएगा और न ही परमात्मा के प्रति समर्पित होगा ।

           मोह निवृत्ति के मुख्य रूप से जो तीन साधन अर्थात् योग बताए गए हैं, उनका परिणाम तो एक ही होता है परंतु प्रक्रिया में भिन्नता होती है । परिणाम होता है, संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो जाना । संसार को जानने से मोह की निवृत्ति होती है । जब व्यक्ति का मोह दूर हो जाता है, तब वह जो देखता है, वही वास्तव में उसका सही देखना है ।

         हम लोग प्रायः इन तीनों योग की तुलना करते हुए भ्रमित हो जाते हैं । इसी भ्रम के कारण विवाद तक उत्पन्न हो जाते हैं । कोई भक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करता है तो कोई ज्ञान को । ऐसे विवाद में फँसकर हम भी मोहित हो जाते हैं और सब अपने ही कथन को सही बताने लगते हैं । महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कौन सा योग सर्वश्रेष्ठ है, महत्वपूर्ण है कि आप किस योग-मार्ग के लिए स्वयं को उपयुक्त मानते हैं । जिस योग से आपकी मोहनिवृति हो जाए, आपके लिए वही योग श्रेष्ठ है ।

          कर्म में “करना” महत्वपूर्ण है, ज्ञान में “जानना” महत्वपूर्ण है और भक्ति में “मानना” महत्वपूर्ण है । करके भी जाना और माना जा सकता है, जानकर भी करना और मानना हो सकता है तथा मानकर भी करना और जाना जा सकता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि ये तीनों अर्थात् करना, जानना और मानना, आपस में एक दूसरे से संबंधित भी है और एक दूसरे के सहयोगी भी । इसलिए इन तीनों योग के विषय में किसी प्रकार के विवाद का कोई स्थान नहीं है ।

          विवाद का कारण हमारा अहं-भाव है और इस अहं-भाव का कारण हमारा करने और जानने का राग है । “मानने” में अहं का कोई स्थान ही नहीं है, अतः इसमें अहंकार पैदा होने का कोई प्रश्न ही नहीं है । सीधा “मानना” भक्ति योग में ही होता है इस लिए भक्ति योग को शेष दोनों योगों से श्रेष्ठ कहा जाता है ।

          भक्ति-योग में जब परम को मान लिया जाता है, तब मोह के बियावान से बाहर निकला जा सकता है । गणित के अनसुलझे प्रश्न को सुलझाने के लिए हमें सर्वप्रथम कुछ न कुछ मानना पड़ता है । उस माने गये के आधार पर हम कुछ समीकरण का उपयोग “करते” हुए उस प्रश्न के उत्तर को “जान” लेते है । जैसे प्रश्न हो कि ‘राम ने अपनी पूँजी में से एक तिहाई अपने मकान की मरम्मत में लगा दिये, पाँचवा भाग बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर दिए और एक चौथाई भाग घर खर्च में लगा दिए । अब उसके पास शेष पूँजी बीस हज़ार ही बची है तो उसके पास कुल पूँजी कितनी थी ?’ 

        इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिये हम उसकी कुल पूँजी “X” मान लेते हैं । यह मानना हुआ । फिर इसकी आगे गणना करते हैं, यह “करना” हुआ । अंत में जो “X” का परिणाम मिलता है, वह उस “X” को “जानना” हुआ । इस प्रकार हम पहले मानते हुए कुछ करते हैं और अंत में माने हुए को जान लेते हैं । ठीक ऐसा ही भक्ति-योग है । 

          भक्ति योग में माने हुए को निष्काम कर्म करते हुए जान लिया जाता है । इसी प्रकार कर्मयोग में संसार की सेवा करते हुए जान लिया जाता है जिससे अंततः परम को मानना हो जाता है । ज्ञानयोग में जानने का प्रयास करते हुए ज्ञान प्राप्त कर नैष्कर्म्यता को उपलब्ध हुआ जाता है और अंततः परमात्मा की स्वीकार्यता हो जाती है ।

       सबसे महत्वपूर्ण बात - कर्मयोग और ज्ञानयोग, दोनों में परिश्रम और पराश्रय (दूसरे पर निर्भरता) है जबकि भक्तियोग में इन दोनों की आवश्यकता नहीं है । भक्तियोग में विश्राम और भगवद् आश्रय (आत्म-निर्भरता) है । 

          भक्तियोग में सीधा परमात्मा से संबंध बनता है जबकि ज्ञान और कर्मयोग में संसार से सम्बन्ध विच्छेद करना होता है । कर्म और ज्ञानयोग में संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिए साधन करना आवश्यक है । हम परमात्मा के अंश है, इसलिए परमात्मा से सम्बन्ध बनाने में किसी प्रकार का प्रयास आवश्यक नहीं है । इस प्रकार स्वतः सिद्ध है कि भक्तियोग में किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता नहीं है ।

        भक्तियोग की स्वतंत्रता निर्विवाद है । अब प्रश्न उठता है कि ज्ञानयोग और कर्मयोग, इन दोनों में कौन सा योग श्रेष्ठ है ?  भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं -

यत्सांख्यै प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं सांख़्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति ।।5/5।।

अर्थात् सांख्ययोगियों के द्वारा जो तत्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग को एक देखता है, वही ठीक देखता है ।

      ज्ञानयोग और कर्मयोग, दोनों का फल एक ही होता है - संसार से सम्बन्ध विच्छेद । संसार से सम्बन्ध विच्छेद का अर्थ यह नहीं है कि संसार छोड़कर कहीं दूर निकल जाएँ । कहीं दूर भी चले जाओगे, तो वहाँ भी संसार साथ रहेगा । मैं आपके भीतर रचे-बसे संसार की बात कर रहा हूँ । आपके भीतर का संसार शून्य हो गया है, तो संसार में रहते हुए भी आपका संसार से सम्बन्ध विच्छेद है । संसार के मोह से दूर हो जाना, संसार में अनासक्त भाव से रहना ही संसार से संबंध विच्छेद करना है ।

              ज्ञान की उपलब्धि मनुष्य को संसार की नश्वरता का ज्ञान करा देती है, जिससे वह अपने जीवन में कामशून्य हो जाता है अर्थात् फिर उसके भीतर कामनाएँ जन्म नहीं लेती । कर्मयोग में मनुष्य स्वयं के लिए कर्म करना छोड़ देता है, जिसके फलस्वरूप उससे केवल निष्काम कर्म ही होते हैं । निष्काम कर्म में सबकी सेवा है जो संसार से सम्बन्ध विच्छेद करवा देती है ।

          संसार में जितने भी कर्म होते हैं, वे काम के वशीभूत होकर किए जाते हैं । ऐसे ही कर्म हमें संसार के साथ बाँधते है । संसार असत् है । शरीर भी असत् है । अंतःकरण में केवल बुद्धि ही ऐसी है, जिसमें विवेक जाग्रत होकर असत् को सत् का ज्ञान करा सकता है । ज्ञान होते ही मनुष्य सच्चिदानन्द स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है ।

               शरीर और संसार असत् है । शरीर के भीतर बुद्धि भी असत् है । बुद्धि असत् के अन्तर्गत अवश्य है परंतु असत् बुद्धि सत् के कारण ही क्रियाशील होती है । इस प्रकार असत् बुद्धि भी सत् की कृपा से सक्रिय होकर विवेक को जाग्रत करती है । विवेक के माध्यम से ही व्यक्ति सत् तक पहुँचता है । सत् तक पहुँचने का अर्थ है, स्वयं को जानना । व्यक्ति स्वयं शरीर नहीं है, यह जानना उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है । शरीर से भिन्न केवल परमात्मा है । वे परमात्मा ज्ञानमय है और उनका स्वरूप सच्चिदानन्द है । शरीर से आसक्ति हटते ही हमें स्वयं के भी सच्चिदानन्द होने का ज्ञान हो जाता है ।

             परमात्मा सच्चिदानन्द है । सत्+चित्त+आनन्द=सच्चिदानन्द । इस प्रकार कहा जा सकता है कि परमात्मा सत् हैं, चैतन्य है और आनन्द स्वरूप है । परमात्मा सत्य है कहने का अर्थ है कि परमात्मा का अस्तित्व (existence) है । परमात्मा चैतन्य हैं अर्थात् वे अक्रिय होते हुए भी चैतन्य (activated) हैं । परमात्मा आनन्द स्वरूप हैं अर्थात् उनमें सुख-दुःख नहीं है, केवल आनन्द हैं अर्थात् वे आनन्दमय (pleasureful) है । जीवात्मा को परमात्मा का अंश कहा जाता है अर्थात् जीवात्मा का स्वरूप भी वही है, जोकि परमात्मा का है ।

            जीवात्मा जब परमात्मा का अंश है तो फिर वह सुखी-दुःखी क्यों होता रहता है, उसको तो सदा ही आनन्दित रहना चाहिए । सत् का अंश होते हुए भी वह असत् संसार और शरीर के प्रति आसक्त हो गया है और स्वयं को असत् ही समझने लगा है । उसकी यह समझ ही उसे मोहग्रस्त कर देती है । मोह के दलदल से वह तभी निकल पाएगा जब कोई उसे सत् होने का ज्ञान करा दे । असत् जो कुछ भी देखता है, वह सही देखना नहीं है । इसलिए असत् दृष्टि से सत् को नहीं देखा जा सकता।

                 सत् को सत् से ही देखा जा सकता है । इसके लिए ज्ञानदृष्टि का विकसित होना आवश्यक है । फिर उस दृष्टि से जो देखना होगा, वह वास्तव में सही देखना होगा । ज्ञानदृष्टि ही हमें स्वरूप का ज्ञान कराती है । गीता-ज्ञान सुनना प्रारम्भ करने से पूर्व अर्जुन के पास केवल असत् दृष्टि थी, तभी तो वह पारिवारिक मोह के दलदल में फँसा हुआ था । उस मोहरूपी  दलदल से बाहर निकलने के लिए साक्षात् परमात्मा (सत्) ने ही उसको ज्ञानदृष्टि दी । कहने का अर्थ है कि अर्जुन को सत् तक पहुँचाने के लिए सत् को ही आना पड़ा । असत् से असत् का ही ज्ञान हो सकता है, सत् का नहीं । तभी सांसारिक व्यक्ति ज्ञान कितना ही दे दे अथवा ले ले, उसकी मोह से निवृत्ति तब तक नहीं होगी जब तक कोई निर्मोही आकर उसे ज्ञान न करा दे ।

             मनुष्य को उसके जीवन-काल में प्रकृति के विभिन्न रूप और नाम उसको आकर्षण प्रदान करते हैं । इसमें प्रकृति के तीन गुणों की भूमिका रहती है । प्रकृति के उस आकर्षण से मनुष्य प्रभावित होकर संसार के साथ तादात्म्य कर लेता है । इस स्थिति में आकर उसे संसार ही सत्य नज़र आने लगता है । यही उसका अज्ञान है । इसी अज्ञान को उसका मोह कहा जाता है । मोह के कारण वह “मैं,मेरा” के बंधन में बंध जाता है । जब तक उसकी दृष्टि परिवर्तित नहीं होगी, वह इस बंधन से मुक्त नहीं हो सकता ।

         मनुष्य की विडम्बना है कि वह सभी प्राणियों के भौतिक शरीर के एक समान तत्वों को, उसमें स्थित एक समान अवयवों को और उस शरीर में हो रही एक समान क्रियाओं को देखकर भी वह यह समझ नहीं पाता कि परमात्मा ने सबको एक समान ही बनाया है । वह केवल शरीर की भिन्न-भिन्न आकृतियों को, भिन्न-भिन्न रूपों और नामों को देखकर उनमें भेद कर उलझ गया है । सभी प्राणी परमात्मा की कृतियाँ है, उन्हीं के अंश हैं क्योंकि वह स्वयं विभिन्न शरीरों के भीतर बैठकर उनको संचालित कर रहा है ।

               ज्ञान को उपलब्ध होते ही मनुष्य स्वयं के सहित सभी प्राणियों में स्थित परमात्मा को देखने लगता है । “वासुदेव: सर्वम्” को देखना ही सही देखना है । फिर यह-वह, मैं-तुम, उच्च-निम्न आदि सभी का लोप हो जाता है और सर्वत्र एक परमात्मा ही हैं, इसका अनुभव होता है । इस अवस्था को प्राप्त कर मनुष्य को परमात्मा के अतिरिक्त कोई अन्य दिखलाई नहीं पड़ता । इस प्रकार का देखना ही सही देखना है । 

            जब सब कुछ परमात्मा ही है, तो किसमें तो राग हो और किससे द्वेष; फिर न तो कोई और है, न कोई ग़ैर । जब शरीर के आधार पर भेद समाप्त हो जाता है तब व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा तक पहुँच जाता है । मानस में कहा गया है -“ जानत तुम्हहि तुमई होई जाइ” । वाल्मीकिजी अपने आश्रम में पधारे भगवान श्रीराम को कहते हैं कि हे प्रभु ! जो आपको जान जाता है, वह स्वयं “आप” ही (परमात्मा) हो जाता है ।

                    जीवात्मा एक है, एकदम परमात्मा की तरह । कोई भेद नहीं है जीवात्मा और परमात्मा में । भेद है, दृष्टि का, जो सदैव दृश्य की तरफ़ आकर्षित होती है । जिस शरीर को जीवात्मा अधिग्रहीत करती है, उस शरीर का होना भी परमात्मा से है । अधिग्रहण करने वाला और अधिग्रहित होने वाला, दोनों को भौतिक दृष्टि से देखें तो एक ही प्रतीत होते हैं । अधिग्रहणकर्ता (जीवात्मा) अधिग्रहित (शरीर) को ही स्वयं (मैं) होना मान लेता है, जबकि दोनों में भिन्नता है । ऐसी दृष्टि ही मनुष्य को संसार के साथ बाँधती है क्योंकि वह सभी प्राणियों को अलग-अलग देखती है । यह अपना है, यह पराया है । इसलिए भौतिक दृष्टि का देखना सत्य नहीं है ।

            बाहर की दृष्टि अज्ञान दृष्टि है क्योंकि वह असत् शरीर के असत् नेत्रों से मिलती है । भीतर की दृष्टि ज्ञान-दृष्टि है । सुषुप्ति की अवस्था में वह दबी रहती है परंतु जब यह जाग्रत होती है, तब भौतिक दृष्टि से देखे गए दृश्य का सूक्ष्मता से अवलोकन करती है और असत् का त्याग कर सत् को स्वीकार करती है । अधिग्रहित असत् है, अधिग्रहणकर्ता सत् है । शरीर नाशवान है, जीवात्मा अविनाशी है । शरीर असत् है, जीवात्मा सत् है । शरीर जो कुछ भी करे, उसमें जीवात्मा की कोई भूमिका नहीं है । जीवात्मा न तो कर्ता है और न भोक्ता । फिर शरीर में आए परिवर्तन, क्षरण और विनाश से उसको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला क्योंकि वह स्वयं अविनाशी है । ऐसा देखना ही वास्तव में सही देखना है ।

            जीवात्मा भिन्न-भिन्न शरीरों में व्याप्त होते हुए भी भिन्न-भिन्न न होकर एक ही है । अथाह जल के भीतर जल से भरे घड़ों की आकृति, नाम और रूप-रंग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं परंतु सबमें जल एक समान भरा होता है । घड़े के बाहर-भीतर सब जगह एक जल ही जल है । यह देखना ही सही देखना है । भिन्न-भिन्न शरीरों के भीतर एक परमात्मा ही रहते है, जिसकी दृष्टि ने इसको समझ लिया, वही वास्तव में सही देख रहा है ।

 समं सर्वेषु भूतेसर्वेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।

 विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।। गीता-13/27।।

अर्थात् जो नष्ट होते हुए सभी प्राणियों में परमेश्वर को नाशरहित और समरूप से देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

           इसी श्लोक के साथ यह लेखमाला समाप्त होती हैं । इस यात्रा की अवधि में साथ बने रहने के लिए आपका हृदय से आभार ।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

        

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