Monday, June 30, 2025

यात्रा-वृत्तान्त (आदि कैलाश, ॐ पर्वत)

 यात्रा-वृत्तान्त 

       तीर्थ-यात्रा के बारे में एक प्रसिद्ध श्लोक है -

      उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यान-धारणा ।

     कनिष्ठा शास्त्र चिन्तन तीर्थ-यात्राऽधमाधमा ।।

             अर्थात् आत्म-बोध के लिए सबसे उत्तम सहज-अवस्था को प्राप्त करना है । मध्यम अवस्था ध्यान-धारणा की है । शास्त्र-चिन्तन को कनिष्ठ श्रेणी में रखा गया है और अधम से भी अधम श्रेणी में तीर्थ-यात्रा है । 

               आत्म-बोध के लिए हमारे शास्त्रों ने तीर्थ-यात्रा को सबसे निम्न श्रेणी की माना है । क्यों ? क्योंकि तीर्थ-यात्रा को हमने मात्र पर्यटन बनाकर छोड़ दिया है । तीर्थ के हाथ लगाकर आ गए और मोक्ष हो जाएगा, ऐसी धारणा ने ही इस यात्रा को अधम से भी अधम की श्रेणी में रख दिया है । 

        अगर प्रत्येक तीर्थ-यात्रा अधम से अधम होती तो क्या आदि शंकर अपने अल्पकालीन जीवन में पूरे भारत का दो बार भ्रमण कर लेते ? आदि शंकराचार्य ने जो भी तीर्थ अपनी यात्रा में खोजे थे, उन सभी का प्रकृति से सम्बन्ध अवश्य रहा है । इसका अर्थ है कि यात्रा का महत्व तीर्थ के कारण नहीं है, बल्कि प्रकृति के कारण है । यदि हम तीर्थ-यात्रा को केवल तीर्थ के दर्शन तक सीमित मानेंगे और लौटकर पुनः अपने संसार में रम जाएंगे तो फिर ऐसी यात्रा अधम से भी अधम श्रेणी में रखने लायक़ ही है ।

        प्रत्येक यात्रा तीन तल में से किसी एक तल पर की जाती है । यात्रा के ये तीन तल हैं - स्थूल शरीर के स्तर पर, मन के स्तर पर और आत्मा के स्तर पर । केवल शरीर के तल पर जो यात्रा की जाती है, उसमें स्थूल शरीर को विश्राम दिया जाता है । इसमें स्थान परिवर्तन करते हुए शरीर को विश्राम दिया जाता है । मन के तल पर जो यात्रा की जाती है उसमें मन का रंजन अर्थात् मनोरंजन अधिक होता है । तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण यात्रा आत्मा के स्तर पर की जाती है । आत्मा के तल पर की जाने वाली यात्रा में मनुष्य स्वयं को प्रकृति में खो देता है । यह परमात्मा तक पहुँचने की यात्रा है ।

          इस बात को सरलता से समझने के लिए नृत्य- कला का उदाहरण देता हूँ । जो नृत्य स्थूल शरीर के तल पर किया जाता है, उसमें कामुकता भरी होती है । ऐसा नृत्य काम वासना को जाग्रत करता है । मन के तल पर किए जाना वाला नृत्य केवल मनोरंजन करता है । इसमें कामुकता न होकर केवल मनोरंजन होता है । आत्मा के तल पर किया जाने वाला नृत्य आपको परमात्मा तक ले जाता है । ऐसा नृत्य मीरा बाई तथा चैतन्य महाप्रभु जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है । 

         नृत्य की तरह ही प्रत्येक यात्रा का भी एक तल होता है । आत्मिक स्तर पर जाकर की जाने वाली यात्रा ही वास्तव में तीर्थ-यात्रा है अन्यथा तो सब यात्राएं महज़ स्थूल शरीर का स्थान परिवर्तन और मनोरंजन बनकर रह जाती है । विभिन्न तीर्थों अथवा विग्रह की की जाने वाली परिक्रमा भी आत्मिक तल पर की जाने वाली यात्रा ही है । जैसे गिरिराज परिक्रमा, मंदिर में विग्रह की परिक्रमा, चौरासी कोस परिक्रमा, नर्मदा परिक्रमा आदि ।

                यदि हम अपनी यात्रा में प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो शीघ्र ही सहजावस्था को प्राप्त हो सकते हैं । प्रकृति से सम्बन्ध स्थापित करने से अर्थ है स्वयं को प्रकृति में खो देना । प्रकृति में स्वयं को खोकर ही आत्म-बोध को उपलब्ध हुआ जा सकता है । इसलिए तीर्थ-यात्रा का उद्देश्य यदि प्रकृति में डूबना है तो ऐसी यात्रा मुक्ति के द्वार खोलने वाली बन जाती है । प्रत्येक जीवन एक सफ़र से अधिक कुछ नहीं है । इस सफ़र का उद्देश्य है, आत्म-बोध को उपलब्ध होना । आत्म-बोध ही परमात्मा के अस्तित्व की पुष्टि करता है । 

            परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव तभी होता है, जब आप स्वयं चेतन रहें । चेतन रहेंगे तो जीवन में गति होगी ही और उस गति के कारण ही परमात्मा के होने का ज्ञान होता है । एक ही स्थान पर रहते हुए गति करना जड़ता की निशानी है । जड़ता आपको संसार में उलझाकर रख देती है । यही गति जब अलग अलग दिशाओं में, अलग अलग स्थानों के लिए होती है तब यह गति यात्रा बन जाती है । यात्रा यदि प्राकृतिक स्थानों की ओर हो तो ऐसी यात्राऐं ही एक दिन आपको प्रकृति के साथ एकाकार कर देती है । 

           प्रकृति के साथ एकाकार होने से अर्थ है, संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाना । संसार से सम्बन्ध ही बन्धन है जबकि प्रकृति में खो जाना मुक्ति है । संसार से आपका प्रत्येक सम्बन्ध स्वार्थ पर आधारित होता है, इसलिए वह बन्धन है । प्रकृति के साथ आपका नि:स्वार्थ सम्बन्ध होता है जोकि आपके लिए परमात्मा के द्वार खोलता है ।

           संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने में यात्रा की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है । हमारे शास्त्रों में धार्मिक यात्राओं का वर्णन आता है । चाहे इन यात्राओं को आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण न माना गया हो फिर भी इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । जिस प्रकार नदी का बहना महत्वपूर्ण है वैसे ही जीवन में यात्राएं करना भी महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार एक स्थान पर इकट्ठा हुआ जल कुछ समय पश्चात् गंदा हो जाता है उसी प्रकार साधु को भी एक स्थान पर अधिक समय तक टिकना नहीं चाहिए । कारण ? एक जगह टिकने से ही उस स्थान के प्रति मोह पैदा हो सकता है । मोह से फिर आसक्ति, कामनाएँ आदि । यह सब बंधनकारी हैं जो व्यक्ति के संसार की जनक हैं और उसे संसार के साथ बाँधनेवाली भी हैं ।

                गोरखनाथ के गुरु मच्छिन्द्रनाथ (कई जगह इनको गोरखनाथ का शिष्य भी बताया गया है) भी कई दिनों से एक स्थान पर जाकर टिक गए थे । उन्होंने संन्यास त्याग कर गृहस्थ के रूप में जीने का निश्चय कर लिया था । गोरख उन्हें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उस स्थान पर पहुँचे जहां उनके गुरु बहुत समय से टिके हुए थे । गुरु को पास ही कहीं टिका जानकर गोरख ने गाया - ‘भाग मच्छन्दर गोरख आया’ । सुनते ही मच्छिन्द्रनाथ को वास्तविकता का ज्ञान हुआ और तत्काल ही उन्होंने उस स्थान को छोड़ दिया ।

             जो आत्म-बोध की यात्रा पर है, उसके लिए आत्मा के तल पर की जाने वाली ऐसी यात्राएं महत्वपूर्ण है । परमात्मा के अस्तित्व की पुष्टि प्रकृति ही करती है और प्रकृति की विशालता में खो जाने का अर्थ है, परमात्मा तक पहुंच जाना । इसलिए जिसका शरीर साथ दे, जिसमें यात्रा करने का मनोबल है, जो आत्म-बोध के लिए लालायित है उसे अनिकेत होकर प्रकृति में खो जाना चाहिए । मेरे मत में ऐसी यात्राऐं आपके लिए आनन्द का द्वार खोल सकती है । 

              ऐसी ही एक यात्रा का वर्णन करने के लिए आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ । उत्तराखण्ड को देवभूमि कहा जाता है । जिसको आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ना है, उसके लिए निःसंदेह यह क्षेत्र देवभूमि ही है । उत्तराखण्ड में दो मण्डल हैं - गढ़वाल और कुमाऊँ । गढ़वाल मण्डल में हमारे उत्तर दिशा के चार धाम हैं - यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ । आदि शंकराचार्य ने जितने भी स्थानों की यात्राएं की थी उन सब में एक समानता है कि वे सभी स्थान प्रकृति की गोद में स्थित हैं, जिनमें ये चार धाम भी हैं । 

         गढ़वाल मण्डल के इन चार धामों की यात्रा कई बार पूर्व में कर चुका हूँ इसलिए इस बार किसी नए स्थान पर जाने की सोच थी । मस्तिष्क में फिर एक बार उत्तराखण्ड की यात्रा का ही विचार आया ।  उत्तर दिशा में स्थित इस प्रदेश में मुझे शान्ति का असीम अनुभव होता है । उत्तराखण्ड का दूसरा मण्डल है - कुमाऊँ । इसमें भी कई तीर्थ-स्थान है जिन्हें प्रकृति ने अपनी गोद में समेट रखा है । इनमें आदि कैलाश और ॐ पर्वत मुख्य हैं । इस बार आदि कैलाश ॐ पर्वत की यात्रा पर जाने का अवसर मिल ही गया । इसी यात्रा के अनुभव आपके साथ बाँटने जा रहा हूँ ।

              अप्रेल 2025 के मध्य में अपने साथियों के मध्य इस यात्रा की चर्चा की । अंततः श्री रामचन्द्र सोनी ने साथ चलने की हामी भरी । रामजी भी प्रायः ऐसी यात्राएं करते रहते हैं । चलो एक से दो भले, यह सोचकर यात्रा का कार्यक्रम बनाने में लगा । कई travel agencies से बात हुई । अंत में नागार्जुन ट्रैवेल्स, पिथौरागढ़ द्वारा संचालित की जाने वाली यात्रा में जाने का निश्चय किया । चूँकि 10 मई के दल में स्थान नहीं मिला तो 17 मई वाले ग्रुप में जाने का निश्चय किया ।

       ‘ज़ेहि कें जेहि पर सत्य स्नेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ।।’ ( मानस - 259/6)  जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । हमारा आदि कैलाश के प्रति स्नेह था, वहाँ जाने में अब किसी प्रकार का संदेह नहीं रहा । सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा था । रजिस्ट्रेशन फ़ार्म भरकर अग्रिम धन राशि जमा करवा दी गई । शेष राशि यात्रा प्रारम्भ होने वाले दिन देनी थी । ट्रैवल्स के निर्देशानुसार पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा के लिए आवश्यक सामान एकत्रित करना था । जिनमें मुख्य था - पैदल चलने के लिए ट्रेक शूज़, ट्रेक सूट, गर्म कपड़े, सिर को सर्दी से बचाने के लिए टोपी, तेज धूप से बचने के लिए कैप, काला चश्मा, सनस्क्रीन लोशन, सैनिटाइज़र, टोर्च, रैन कोट आदि ।

        यात्रा के लिए इनर लाइन परमिट भी आवश्यक था क्योंकि जिस क्षेत्र में हम जा रहे थे वह सीमांत क्षेत्र है, जिसका नियंत्रण भारतीय सेना के पास है । ॐ पर्वत और आदि कैलाश भारत-नेपाल-तिब्बत सीमा पर स्थित है । इनर लाइन परमिट के लिए पुलिस क्लीयरेंस आवश्यक होती है, जोकि सुजानगढ़ थाने से ले ली गई । दुर्गम स्थान पर यात्रा शारीरिक जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है । इसके लिए ट्रैवल एजेंसी आपसे पर्वतीय क्षेत्र के हाई एल्टीट्यूड के लिये स्वस्थ होने का प्रमाण पत्र चाहती है, जिसको हमने राजकीय चिकित्सालय सुजानगढ़ से प्राप्त कर लिया ।

            प्रत्येक पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा में आपके साथ दुर्घटना कभी भी घटित हो सकती है । इसकी ज़िम्मेदारी कोई एजेंसी अपने ऊपर लेना नहीं चाहती । इसके लिए वह पचास रुपये के स्टाम्प पेपर पर आपसे एक शपथ पत्र (Affidavit) लेती है । यह पत्र नोटरी द्वारा सत्यापित कर हस्ताक्षरित किया जाना आवश्यक है । हमने यात्रा प्रारम्भ तिथि से काफ़ी पहले ही सभी आवश्यक काग़ज़ात तैयार कर एजेंसी को भिजवा दिए थे , जिससे इनर लाइन परमिट प्राप्त करने हेतु कार्यवाही प्रारंभ की जा सके ।

        इतना सब कुछ निश्चित हो जाने पर यात्रा प्रारम्भ होने वाले स्थान पर जाने और वहाँ से लौटने के लिए रेल टिकिट का इंतज़ाम करना आवश्यक था । संयोग से रानीखेत एक्सप्रेस जोकि काठगोदाम- जैसलमेर के बीच वाया जयपुर होकर चलती है, उसमें यात्रा समाप्ति के दिन अर्थात् 23 मई को वरिष्ठ नागरिक कोटे से दो सीट थ्री एसी में मिल गई । हमने इस टिकट को सबसे पहले बनाया । चूँकि यात्रा 17 मई को काठगोदाम से सुबह 7 बजे प्रारम्भ होनी थी, अतः उससे पूर्व वहाँ पहुँचना भी था । रानीखेत एक्सप्रेस में 16 मई को जयपुर से काठगोदाम के लिए लम्बी वेटिंग थी और तत्काल टिकट के बनाने का हम ख़तरा मोल लेना नहीं चाहते थे ।

          अंत में निर्णय किया कि 15 मई की रात की गाड़ी से गुड़गाँव चला जाए । वहाँ 16 को सुबह पहुँचकर शाम को दिल्ली से चलने वाली संपर्क क्रांति से रात को हल्द्वानी पहुँच जाएं । दोनों ही गाड़ियों में सीट मिल गई । हल्द्वानी में रूकने के लिए रेलवे स्टेशन पर ही रिटायरिंग रूम बुक करवा लिया गया । वापस लौटने की टिकिट पहले बनवा ही ली थी ।

            यात्रा प्रारम्भ होने से पूर्व आपको बताता चलूँ कि यह यात्रा सात दिन और छः रात के लिए है । ट्रैवल एजेंसी ने हमें पूर्व में ही सारा कार्यक्रम दे दिया है । 17 मई का रात्रि विश्राम पिथौरागढ़ में, 18 मई को धारचूला, 19 व 20 मई को गूंजी, 21 मई को फिर धारचूला में और अंतिम रात्रि विश्राम (22 मई को) पाताल भुवनेश्वर नामक स्थानों पर होना है । मौसम की अनिश्चितता और लैंड स्लाइडिंग क्षेत्र होने के कारण को देखते हुए कार्यक्रम परिवर्तित भी हो सकता है । हम भी ऐसी प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं । यात्रा पर निकलने से पूर्व कई मित्रों और संबंधियों ने दुर्गम स्थानों की यात्रा में होने वाले सम्भावित ख़तरे के प्रति आगाह करते हुए यात्रा पर न जाने का आग्रह भी किया था । कइयों ने तो भारतीय सेना द्वारा आतंक के विरुद्ध चलाए जा रहे ऑपरेशन सिंदूर का कारण भी बताया परंतु हमारे निकलने से चार दिन पूर्व सीज़ फ़ायर भी हो गया ।

              जब एक उद्देश्य के लिए यात्रा पर निकलना हो और वह यात्रा भी आत्मा के तल पर की जानी हो तो फिर कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक सकती । भीतर किसी भी प्रकार के भय के होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । यदि आप निर्भीक नहीं है तो ऐसे दुर्गम स्थान पर जाने की योजना भी न बनाएं । दुर्घटना घटित होना आपके नियंत्रण में नहीं है । वह घर पर भी घटित हो सकती है और हो सकता है कि बाहर भी घटित न हो । सबसे पहले सब कुछ परमात्मा पर छोड़ना होता है । परमात्मा की शरण लेने वाले को किसी प्रकार का भय नहीं सताता । मैं और मेरे साथी रामजी, दोनों ही इस बारे में एक मत थे । दोनों के विचार ऐसी यात्रा के लिए एक समान होना भी बड़ी बात है । 

            इस प्रकार यात्रा की पूरी तैयारी कर 15 मई को सुजानगढ़ से निकल पड़े और दिल्ली होते हुए 16 मई की रात हल्द्वानी पहुँचकर विश्राम कर लिया । 17 मई को सुबह 6 बजे टेम्पो ट्रैवलर के चालक का फ़ोन आया कि काठगोदाम स्टेशन से सुबह 7 बजे यात्रा प्रारम्भ होगी । हम सुबह चार बजे उठकर नहा-धो प्रातःकालीन प्रार्थना कर तैयार तो बैठे थे ही, झटपट सामान समेटा और 6.45 की गाड़ी से चलकर 7 बजे काठगोदाम पहुँच गए । हल्द्वानी और काठगोदाम के बीच मात्र 7 किमी की दूरी है और बस, ऑटो आदि की सुविधा भी उपलब्ध रहती है । चूँकि हम हल्द्वानी के रेलवे रिटायरिंग रूम में ठहरे थे, इसलिए ट्रेन से जाना ही उचित समझा ।

             काठगोदाम स्टेशन से बाहर ही हमें टेम्पो ट्रैवलर का चालक मिल गया । हमने गाड़ी के उपर सामान चढ़वाया और सुबह की चाय पीने चले गए । एक-एक कर सभी साथी यात्री आते जा रहे थे । सभी से परिचय हुआ । कुल मिलाकर 14 यात्री इस टेम्पो ट्रैवलर में होने हैं । एक डॉक्टर दीपक हैं, जो सूरत (गुजरात) में नेफ्रोलॉजिस्ट हैं ।  दो हम सुजानगढ़ से हैं ही । स्वरूपगंज (राजस्थान) के एक निजी स्कूल की संचालिका श्रीमती ललिता गहलोत अपने पति और पुत्र के साथ हमारे सहयात्री हैं । गुना (मध्यप्रदेश) से श्री नितिन जोशी के परिवार से उनके सहित कुल पाँच यात्री हैं । सबसे अन्त में चंडीगढ़ से आने वाली तीन महिलाओं का नेतृत्व श्रीमती रमा कक्कड़ कर रही हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर 14 पर्यटक इस गाड़ी में हो गए हैं । 

यात्रा का प्रथम दिन -

            एक संघ/दल के साथ यात्रा करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले विभिन्न लोगों से आपका परिचय होता है और एक दूसरे की संस्कृति और रीतिरिवाजों को समझने का अवसर मिलता है । एक दूसरे से आत्मिक स्तर पर सम्पर्क स्थापित होता है क्योंकि ऐसे सम्बन्ध में किसी प्रकार के स्वार्थ की कोई भूमिका नहीं होती । निःस्वार्थ सम्बन्ध किसी प्रकार का सांसारिक बन्धन भी पैदा नहीं करता ।

           सभी तैयारियों के साथ काठगोदाम से यात्रा प्रारम्भ हुई । चंडीगढ़ से आने वाले तीन यात्रियों के कारण हमें यहीं काठगोदाम में ही दस बज गए थे । सबसे पहले भीमताल पर रुकना था । भीमताल का नाम पाण्डु-पुत्र भीम के नाम पर पड़ा है । कहा जाता है कि जब पाण्डव स्वर्गारोहण कर रहे थे तब रास्ते में इसी स्थान पर द्रौपदी को प्यास लगी । तब भीम ने ज़मीन के भीतर से जल को सतह पर लाने के लिए अपना एक बाण चलाया । भूमिगत जल के प्रवाह से यहाँ एक झील बन गई । कहा जाता है कि आज भी भूमि के भीतर से जल का प्रवाह निरंतर हो रहा है । इस झील से आस-पास के क्षेत्रों में जल-वितरण भी होता है फिर भी इसके जलस्तर में कभी कोई कमी नहीं आती ।

            भीमताल पर पर्यटकों की बड़ी भारी भीड़ रहती है, विशेष रूप से इस गर्मी के मौसम में । प्रायः युवा पीढ़ी और हाल में ही विवाह किए जोड़े बहुतायत से आते हैं । उनका उद्देश्य केवल शारीरिक सुख लेना और मनोरंजन करना होता है । खाने पीने और झील में नौकायन करने की सुविधा उपलब्ध है । हमने चलती गाड़ी से ही भीमताल को निहारा क्योंकि हमें पहले ही बहुत देर हो चुकी थी ।

          भीमताल के बाद आज के लिए अगला पड़ाव जागेश्वर धाम है । अभी तक काठगोदाम से मात्र 20 किमी ही चले हैं । भीमताल से चलने के बाद भोवाली गाँव का तिराहा आता है, जहां से बाईँ ओर का रास्ता सीधा नैनीताल को जाता है और दाहिनी ओर जाने वाला रास्ता अल्मोडा होते हुए आगे पिथौरागढ़ जाता है, जहां हमें रात्रि विश्राम करना है । नैनीताल से 10-12 किमी दूर पंगोट गाँव है, जहां आप पहाड़ी पक्षियों को देख सकते हैं । परन्तु हमें तो जागेश्वर महादेव जाना है, इसलिए हमने दाहिनी ओर का रास्ता पकड़ा । 

          भीमताल से अल्मोडा लगभग 65 किमी दूर है । धीरे-धीरे गर्मी कम हो रही है और हवाओं में ठंडक बढ़ रही है । अल्मोडा के रास्ते में अचानक दृष्टि कैंची धाम पर जाकर टिक जाती है । चालक से हमने आग्रह किया कि हम नीम करौली बाबा धाम के दर्शन कर लेते हैं परंतु उसने कहा कि आज शनिवार होने के कारण भीड़ अधिक है, जिससे ज़्यादा समय लग सकता है । उसने लौटते समय दर्शन कराने का आश्वासन दिया ।

              पहाड़ों की घुमावदार सड़कों पर सफ़र करने से गुना (मप्र) से आई एक महिला को वमन होने लगी । पहाड़ी घुमावदार रास्तों पर लगातार गाड़ी से बाहर देखते रहने पर चक्कर आना स्वाभाविक है । चक्कर के कारण उल्टियाँ होने लगती है । ये उल्टियाँ तब तक जरा भी कम होने का नाम नहीं लेती, जब तक कि गाड़ी से उतरकर घड़ी दो घड़ी विश्राम न कर लिया जाए । वमन को रोकने की कोई दवा भी कारगर नहीं होती । हाँ, अगर सफ़र प्रारम्भ करने से एक घंटे पहले दवा ले ली जाए तो उल्टियों को होने से रोका जा सकता है ।

                कैंची धाम की भीड़ से निकलने में ही आधा-पौन घण्टा लग गया । सभी का भूख के मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था ।  आख़िर एक अच्छी जगह देखकर चालक ने गाड़ी रोकी । हमारे चालक का नाम राजू है । लगभग 35 वर्ष का पहाड़ी युवा बड़ी कुशलता से गाड़ी चला रहा है । हमें पूरी यात्रा में कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि कहीं दुर्घटना हो भी सकती है । सभी ने अपनी रुचि के अनुसार कुछ न कुछ भोजन ले लिया । हाँ, इस tour package में केवल सुबह का नाश्ता और रात को भोजन ही शामिल है । दोपहर के भोजन और चाय-पानी आदि की व्यवस्था हमें स्वयं के स्तर पर ही करनी है ।

            ख़ैर ! भोजन करके आगे निकलने में ही चार बज गए । अभी अल्मोडा 10- 12 किमी दूर था । वहाँ से जागेश्वर महादेव लगभग 35 किमी है । लगभग एक घण्टे बाद हम जागेश्वर धाम पहुँच गए । जागेश्वर धाम में शंकर भगवान के 125 मंदिर एक ही परिसर में बने हुए हैं, जोकि चारों ओर पहाड़ों से घिरे सुरम्य वातावरण में स्थित है । मंदिरों के पश्चिम में एक छोटी नदी बहती है, जिसको गंगा की ही एक धारा माना जाता है । पहाड़ों पर देवदार के लम्बे-लम्बे वृक्ष हैं जिनके मध्य बहती हुई हवा वातावरण में सनसनाहट पैदा कर रही है ।

          सचमुच यहाँ परमात्मा ने प्रकृति के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त किया है । एक पल के लिए भी आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते । प्रकृति में खो जाना ही स्वयं को भूल जाना है । फिर एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा रहता ही कहाँ है ? जागेश्वर महादेव को एक ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है । यथास्थान अपने जूते उतारकर गर्भगृह में जाकर शिव की आराधना की और पूरे परिसर का अवलोकन किया ।

           जागेश्वर महादेव परिसर में एक ऐसा देवदार वृक्ष देखने को मिला जिसको अर्द्धनारीश्वर कहा जाता है । इस वृक्ष का नीचे मूल से निकलता तना तो एक ही है परंतु ऊपर बढ़ने के साथ-साथ तने के मध्य एक खाँचा सा बनने लगता है और ऊपर जाने पर तना स्पष्ट रूप से दो भागों में विभाजित हो जाता है । तने के एक भाग को शिव और दूसरे को पार्वती का रूप बताते हैं । प्राकृतिक रूप से देवदार वृक्ष में तना इस प्रकार दो में विभाजित प्रायः नहीं होता । 

           इसी वृक्ष के पास केदारनाथ मंदिर की प्रतिकृति बनाई गई है । बाहर से देखने पर यह केदारनाथ मंदिर ही प्रतीत होता है । इसके भीतर शिवलिंग भी उसी आकार का है, जैसा कि मूल केदारनाथ मंदिर में है । जागेश्वर महादेव के परिसर में निश्चय ही एक अलौकिक अनुभव होता है । हालाँकि एक वर्ष पूर्व भी मैं यहाँ श्री केशवगिरि के साथ आ चुका हूँ, फिर भी इस बार के अनुभव में भी कोई कमी नहीं रही । गत वर्ष हमने कसारदेवी की यात्रा की थी, जोकि अल्मोडा से 8 किमी दूर विपरीत दिशा में है । उसी समय हमने नैनीताल के पास स्थित पहाड़ी पक्षियों के स्थान पंगोट, चितई गोलू देवता और मुक्तेश्वर की यात्रा भी की थी । 

              जागेश्वर धाम के सुरम्य वातावरण में सभी इतने खो गए कि शाम उतर आने का पता ही नहीं चला । अभी भी पिथौरागढ़ लगभग 70 किमी दूर है । चालक राजू ने सभी को गाड़ी में बिठाया और हम अपने रात्रि विश्राम स्थल की ओर आगे बढ़ने लगे । आज कोई और दर्शनीय स्थल हमारी सूची में प्रस्तावित नहीं था, अतः  कहीं रूकने का प्रश्न ही नहीं था । रात को लगभग 8 बजे पिथौरागढ़ पहुँचे । होटल ज्यौनार पैलेस में रुकने की व्यवस्था थी । भोजन तैयार था, सभी ने अपनी रुचि अनुसार भोजन किया और विश्राम करने चले गए ।

यात्रा का दूसरा दिन -

         पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड का सीमांत ज़िला है । यहीं पर नागार्जुन ट्रैवेल्स का कार्यालय भी है । पिथौरागढ़ में दिल्ली से आए दल के दो यात्री शुभम् और हैदराबाद के सत्यनारायण जी से मिलना हुआ । दोनों व्यवस्था को लेकर बड़े खिन्न दिखे । लेकिन थोड़ी देर में ही व्यवस्थापकों ने उनकी भी उचित व्यवस्था कर दी । यहाँ से  सत्यनारायणजी पंद्रहवें यात्री के रूप में हमारे साथ हो गए। सभी को नाश्ता-चाय आदि करने के बाद वरदानी पार्क के view point पर मिलने का संदेश नागार्जुन से मिला था । सभी लोग उसी गाड़ी में बैठकर वरदानी पार्क में view point पर पहुँच गए । View point से पिथौरागढ़ का शानदार विहंगम दृश्य मन को मोह लेता है।

        कंपनी के सहायक निदेशक देवेशजी ने आने में थोड़ी देर कर दी थी । फिर भी आने के बाद उन्होंने सभी यात्रियों को पहाड़ी क्षेत्र में यात्रा को आनंददायक बनाने के कई सूत्र दिए । आदि कैलाश और ॐ पर्वत पंद्रह हज़ार फीट से अधिक ऊँचाई पर होने के कारण वहाँ ऑक्सीजन की मात्रा बहुत ही कम रहती है । वहाँ वनस्पतियाँ भी नहीं होती, केवल नंगे और बर्फ से ढके पहाड़ ही पहाड़ हैं ।

             सांस लेने में दिक़्क़त हो सकती है, क्योंकि लगभग छः किमी की पैदल trek भी है । इसके लिए गाइड के साथ ऑक्सीजन का सिलिंडर भी रहता है जिसका आवश्यकता पड़ने पर उपयोग किया जा सकता है । कपूर को रूमाल में बांधकर सूंघते रहने से भी सांस में आराम मिलता है । जहां पर भी शारीरिक थकान अनुभव हो, वहाँ पर रूककर गहरे गहरे सांस लेनी है । ऐसे कई सूत्र बताने के उपरांत उन्होंने पूरे यात्रा मार्ग को रेखांकित किया और समझाया कि ऊपर सुविधाओं का अभाव है, इसलिए उसी अनुरूप स्वयं को ढालना है ।

         उन्होंने सभी को चाय पिलाई और शेष राशि जमा कराने का कहा । हम सब ने इस कार्य को तत्काल ही पूरा किया । सभी को शुभकामनाएँ देते हुए उन्होंने हमें आगे की यात्रा के लिए विदा किया । आज हमारा रात्रि विश्राम धारचूला में होना है । वहीं हमें इनर लाइन परमिट भी मिलेगा । वहीं से हमारी गाड़ी भी बदल जाएगी क्योंकि आगे का रास्ता ऊबड़ खाबड़ और कठिन है । वहाँ पर टेम्पो ट्रैवलर नहीं जा सकती ।

           पिथौरागढ़ से धारचूला का रास्ता बड़ा कठिन है । कहीं अच्छी रोड़ है तो कहीं कहीं कच्ची भी है । यहाँ से निकलने के पश्चात् हम काली नदी के साथ - साथ चलने लगते हैं । काली नदी भारत और नेपाल के मध्य प्राकृतिक सीमा भी बनाती है । काली नदी के पश्चिम में भारत है और पूर्व में नेपाल । दोपहर बाद भोजन के लिए रूकना था । चालक राजू ने जौल जीबी नामक गाँव में गाड़ी को रोका । यहाँ कुछ मध्यम स्तर के रेस्तरां है, जहां शुद्ध सात्विक भोजन मिल जाता है । सबसे बड़ी समस्या है, बिना प्याज़ लहसुन के खाने की परंतु आग्रह करने पर तत्काल बना भी दिया जाता है ।

           हम जहां भोजन के लिए रुके हैं, उसी रेस्तरां के पीछे ही काली नदी बहती है । इसी स्थान पर पश्चिम दिशा से धौली/गोरी नदी आकर काली के साथ संगम करती है । काली नदी के पार नेपाल का जौल जीबी गाँव है । भारत-नेपाल सीमा के दोनों ओर बसे गाँव प्रायः एक ही नाम के मिलते हैं जो दोनों देशों की एक ही संस्कृति होने की पुष्टि करते हैं । नदी के ऊपर दोनों गाँवों को जोड़ता झूला पुल बना है, जिसके दोनों ओर संबंधित देशों की सुरक्षा चौकियाँ बनी हुई है । कोई भी अपना मूल पहचान पत्र दिखाकर दूसरी ओर जा सकता है ।

        भोजन कर हम कुछ लोग नदी पर चले गए और उसके बहाव के साथ मन की चंचलता को भी बहा दिया । नदी का बहाव मन को शान्त कर देता है और आप गहरे ध्यान की अवस्था में चले जाते हैं । यदि गाड़ी चालक राजू आवाज़ नहीं देता तो शायद हमें समय का ज्ञान भी नहीं रहता । तत्काल ही हम नदी के किनारे को छोड़ गाड़ी में आ बैठे और धारचूला की ओर बढ़ चले । पिथौरागढ़ से धारचूला लगभग 70 किमी है और वह दूरी तय कर हम सायं 5 बजे वहाँ पहुँच गये । होटल कैलाश मानस में हमारे रूकने की व्यवस्था है ।

              होटल कैलाश मानस के संचालक भी रेलवे सेवा से निवृत्त एक चिकित्सक निकले । हमारे दल में हम पहले से ही दो चिकित्सक थे और अब इन तीसरे चिकित्सक महोदय से मिलकर बड़े खुश हुए । होटल अच्छी है और व्यवस्थाएँ भी नाम अनुरूप है । एक घंटे के विश्राम के पश्चात् हम होटल संचालक डॉ. साहब के पास नीचे स्वागत कक्ष में आए । उनसे नदी पार धारचूला (नेपाल) जाने के बारे में जानकारी ली । रामजी को दो तीन चीज़ें ख़रीदनी थी । धारचूला (भारत) का बाज़ार रविवार होने के कारण आज बंद है । नेपाल जाने पर उसी दिन वापस लौटना भी आवश्यक था क्योंकि कल आगे की यात्रा पर निकलना है । दोनों देशों को जोड़ने वाला नदी पुल भारतीय समय अनुसार शाम 7 बजे बन्द हो जाता है । शाम के छः बज चुके थे । हम तत्काल ही पुल की ओर शीघ्रता से बढ़ चले ।

             भारतीय सुरक्षा चौकी पर हमने आधार कार्ड दिखाकर रजिस्टर में अपना नाम अंकित कराया और पुल को पार कर दार्चुला (नेपाल) में प्रवेश कर गए । वहाँ का बाज़ार छोटा सा है और चीनी माल से भरा पड़ा है । रामजी ने दस्ताने, पुलोवर और छोटा पिट्ठू बैग ख़रीदा । इनका बाज़ार मूल्य दोनों देशों में लगभग समान ही है । सीमा के दोनों ओर स्थित इन स्थानों पर दोनों ही देशों की मुद्राएँ स्वीकार की जाती हैं । एक भारतीय रुपया नेपाल के 1.80 रुपए के बराबर है ।

         नेपाल का समय भारतीय समय से 15 मिनट आगे है । नेपाल की घड़ियों में 7.05 बजते देखकर हम तत्काल ही पुल पार कर भारतीय सीमा में आ गए । किसी प्रकार का सन्देह होने पर यहाँ कस्टम चेकिंग होती है परन्तु हमारी नहीं हुई । हम अपनी होटल लौट आए । यहाँ हमें रात का भोजन बिना लहसुन प्याज़ के सुलभ हो गया । भोजन कर रात्रि विश्राम करने अपने कमरे में चले गए ।

यात्रा का तीसरा दिन -

      प्रतिदिन की तरह यहाँ भी साढ़े तीन बजे उठकर आवश्यक क्रियाओं से निवृत हो पाँच बजे प्रार्थना की । यहाँ नेट की गति सामान्य थी इसलिए आचार्यजी का प्रवचन भी साफ और आराम से सुन सके । वातावरण में ठंडक थी परंतु गीज़र होने के कारण गर्म पानी सुलभ हो गया था । साढ़े छः बजे होटल की छत पर जाकर प्रकृति का आनन्द लिया । सूर्य भगवान उदित हो रहे थे । रामजी के साथ थोड़ी आध्यात्मिक चर्चा हुई । आठ बजे नाश्ता किया । तभी व्हाट्सएप पर संदेश मिला कि इनर लाइन परमिट मिल गया है और आगे की यात्रा ठीक नौ बजे शुरू होगी । सामान तो पैक पहले ही कर चुके थे, इसलिए बैठकर प्रतीक्षा करने लगे ।

       टेम्पो ट्रैवलर यहाँ से आगे नहीं जाएगा । आगे के लिए हमें महिंद्रा गाड़ियां (बोलेरो, स्कॉर्पियो) उपलब्ध कराई गई । पाँच-पाँच यात्रियों के तीन ग्रुप बनाए गए क्योंकि एक गाड़ी में चालक के अलावा पाँच व्यक्ति ही बैठ सकते हैं । गाड़ी के पिछले भाग में हमारा सामान रखा गया । मेरे और रामजी के अलावा चंडीगढ़ की तीन देवियाँ हमारी सहयात्री हैं । गणेश इस गाड़ी का चालक है, जोकि धारचूला का ही रहने वाला है । हम पांचों का इनर लाइन परमिट पहले ही गणेश को दे दिया गया है ।

        ठीक नौ बजे हम गूंजी के लिए निकल पड़े । आज का रात्रि विश्राम गूंजी में करना है । धारचूला समुद्र तल से 2500 मीटर ऊँचाई पर है और गूंजी लगभग 3200 मीटर की ऊंचाई पर । रास्ते में एक जगह गिरते-बहते झरने देखकर हम रुके । कुछ फ़ोटो भी ली और ठण्डी-ठण्डी हवाओं के साथ प्रकृति में खो गए । 

             आगे की यात्रा में बीएसएफ/आईटीबीपी द्वारा विभिन्न स्थानों पर जांच की जाती है । इनर लाइन परमिट चार दिन के लिए ही मिलता है । चार दिनों के भीतर आपको वापस धारचूला लौटना पड़ता है । धारचूला से गूंजी के रास्ते में अच्छी ख़ासी बरसात शुरू हो गई, जिससे ठण्ड अपना प्रभाव दिखाने लगी । एक जगह जहां जांच हो रही थी, अवसर देखकर हमने अपनी बैग से गर्म कपड़े निकाल लिए । गर्म कपड़े पहनकर गाड़ी से बाहर निकले तो प्रकृति का सुंदर रूप देखकर देखते ही रह गए । दृश्य बड़ा ही मन को मोहने वाला था । पहाड़ों से अठखेलियाँ करते हुए बादल, ऊपर से पड़ती मद्धम फुँहारें और दूर बर्फ से लदी पहाड़ों की चोटियाँ; सब स्वर्ग में होने की अनुभूति दे रहे थे । शान्त वातावरण, जिसमें कृत्रिमता का ज़रा सा भी भाव नहीं था । ऐसी रचना करना एक परमात्मा के अतिरिक्त किसी दूसरे के बूते की बात नहीं हो सकती ।

           प्रकृति की गोद में खड़े होकर ऐसा अनुभव कर रहे थे मानो परमात्मा हमें पुकार रहे हैं । हवा की गति उसके अस्तित्व का भान करा रही थी । ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो परमात्मा स्वयं हमारा स्पर्श कर रहे हैं । एक वही तो सर्वत्र है, केवल हमारी दृष्टि ही उसे देख नहीं पा रही है । इसमें दृष्टि का भी भला क्या दोष ? जिसने आज तक केवल स्थूल को ही देखा हो, वह भला उस दिव्यता का दर्शन कैसे कर सकती है ? दिव्य दृष्टि चाहिए, उसके दर्शन के लिए । ऐसी दृष्टि जो स्थूल और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हो, जिससे केवल अनुभव किया जा सके, उस असीम की उपस्थिति का । कहाँ नहीं है वो ? यहाँ पर भी वही है और वहाँ पर भी वही था । फ़र्क़ इतना है कि संसार के शोरगुल में उसका अनुभव नहीं हुआ और यहाँ प्रकृति के मौन में उसका स्पष्ट रूप से अनुभव हो रहा है । जिस किसी को यहाँ पर भी उसका अनुभव नहीं हो रहा है, समझ लीजिए, वह केवल भौतिक रूप से यहाँ है, मानसिक रूप से वह अभी भी अपने संसार में ही खोया हुआ है ।

            भगवान गीता में कहते हैं - 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। 6/30 ।।

          जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।

               हम सबके शरीर प्रकृति के अंश हैं ।  प्रकृति में परमात्मा को देखना सबमें परमात्मा को देखना है । जब तक स्थूल में परमात्मा को नहीं देखेंगे तब तक दिव्य-दर्शन होना असम्भव है । दिव्यता इसी में है कि आपको सर्वत्र एक परमात्मा ही दिखे, दूसरा कोई नहीं । ऐसी दिव्यता की अवस्था तक शीघ्र पहुँचने के लिए प्रकृति के अतिरिक्त दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता । यही कारण है कि प्रकृति के साथ एकाकार हो जाना आपको शीघ्र ही परमात्मा के द्वार तक ले जाता है ।

              चलिए ! हमारी जाँच हो चुकी है । गणेश सभी काग़ज़ात दिखाकर वापस आ गया है । अब आगे की यात्रा पर चलते हैं । प्रकृति की छटा से आत्ममुग्ध हुए और कुछ बढ़ती जा रही ठण्ड से प्रभावित होकर सभी मौन धारण कर मंज़िल तक पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । शाम के पांच बज चुके हैं । काली नदी के किनारे दूर कहीं बस्ती दिखलाई पड़ रही है, यही गूंजी है । थोड़ी देर में हम वहाँ पहुँच जाते हैं । छोटे-छोटे कई होमस्टे बने है । शिवशंकरजी होमस्टे में एक छोटा सा कमरा मिला है । मैंने और रामजी ने अपना सामान उस छोटे से कमरे में रखा और उस होमस्टे का अवलोकन करने लगे ।

        इस होमस्टे की महिला मालकिन है जिसके दो संतान हैं -  एक पुत्र और एक पुत्री । माँ और ये दोनों हमारी सेवा में रत है । बच्चों के पिताजी नहीं रहे । दोनों बच्चे बारहवीं में पढ़ रहे हैं । यह परिवार यात्रियों से इन दो महीनों में होने वाली आय पर ही निर्भर है । 16-17 साल के दोनों बच्चे, लोकेंद्र और सुनयना अपनी मां के साथ सुबह चार बजे उठकर काम पर लगते हैं, जो रात को 11 बजे तक सारा काम निपटाकर सोते हैं । प्रारब्ध (कर्मों) का खेल भी अजीब है, इसीलिए स्वामीजी कहते हैं कि कर्मों का रहस्य जल्दी से हर किसी को समझ में नहीं आता । 

       इसी होमस्टे में हमारे अलावा दूसरे लोग भी ठहरे हैं । सभी कमरों के बीच दो ही बाथरूम है । हमने लोकेंद्र (होमस्टे की मालकिन का लड़का) से सुबह चार बजे गर्म पानी उपलब्ध कराने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गया । गूंजी में दिन का तापमान चार अंश सेलिशियस रहता है और रात का तापमान माइनस सोलह अंश सेलिशियस तक गिर जाता है ।

             हमने अपने आपको गूंजी की अत्यधिक ऊँचाई के अनुकूल बनाने के लिए पैदल चलने का अभ्यास करने का निर्णय किया । मैं, रामजी और डॉ. दीपक (सूरत) सेना क्षेत्र की ओर घूमने निकल पड़े । सुरक्षा गार्ड से इजाज़त लेकर ॐ पर्वत-लिपुलेख दर्रे के रास्ते पर कुछ दूर घूमे । वहीं सेना के अधिकारियों और कर्मचारियों के निवास बने हुए हैं । चारों ओर सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त लगी । यहाँ फ़ोटोग्राफ़ी पर सख़्त प्रतिबन्ध है । वातावरण में ठण्डक बढ़ती जा रही है और तापक्रम माइनस चार तक गिर चुका है । हवा की गति बढ़ती जा रही थी, साथ ही ठण्ड की तीव्रता भी । हमने लौटना ही उचित समझा ।  लौटकर भोजन किया । बिना लहसुन प्याज़ के मेरा भोजन अलग से बना दिया गया था । यहाँ निजी तौर पर सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पादन होता है, इसलिए रात को इन्वर्टर की रोशनी से ही काम चलाना पड़ता है, वह भी दो घण्टे में हांफना शुरू कर देता है और थोड़ी देर बाद बंद हो जाता है । ब्रह्ममुहूर्त में उठकर दैनिक कार्यों के लिए मोबाइल के प्रकाश का ही सहारा लेना पड़ता है ।

यात्रा का चौथा दिन -

                हमेशा की तरह सुबह साढ़े तीन बजे उठा और लोकेंद्र को जगाया । उसने लकड़ियों से चूल्हा जलाया और पानी गर्म करने लगा । स्नान कर नित्य-स्तुति और गीता भागवत-पाठ किया । साथ ही रामजी भी उठ गए और ध्यान करने लगे । मोबाइल के संकेत बिलकुल ही नहीं मिल रहे हैं । रात को थोड़ी देर के लिए आए ज़रूर थे परन्तु किसी से भी सम्पर्क करने के लिए अपर्याप्त थे । शीघ्र ही नाश्ता आदि करके तैयार हो गए । सुबह जल्दी ही छः-साढ़े छः तक आदि कैलाश के लिए निकलना होगा ।

           रात को ही हमारे साथ धारचूला से आई तीन देवियों ने अपना अलग कार्यक्रम बना लिया था । उनको आज लिपुलेख जाना है । उनकी गाड़ी भी गणेश वाली है । हमारे साथ आए गाइड ने हम दोनों को दूसरी गाड़ी में जगह दी है । मेरे और रामजी के अलावा उस गाड़ी में दिल्ली वाले शुभम् हैं । साथ ही हैदराबाद से आए उमाशंकरजी और उनकी धर्मपत्नी राधिकाजी हैं । चालक धारचूला के होशियार सिंह जी हैं । शुभम् का दिल्ली में फ़र्नीचर का काम है । राधिकाजी सीए हैं और उनके पति व्यापारी । 

        आज आदि कैलाश की यात्रा करनी है, जिसमें छः किमी की ट्रैकिंग भी होगी । हम सभी सात बजे जोलिंगकांग के लिए निकल गए जो गूंजी से 35 किमी दूर है । रास्ते में नबी और कुट्टी, दो गाँव पड़ते हैं । कुट्टी से निकलते ही हमारी गाड़ी का बाँई तरफ़ का पिछला टायर पंक्चर हो गया । सौभाग्यशाली रहे कि गाड़ी का संतुलन नहीं बिगड़ा । टायर बदलकर हम जोलिंगकांग लगभग 9 बजे पहुँच गये । रास्ते में ही आदि कैलाश पर्वत के दर्शन होने लगते हैं । इसकी आकृति मूल कैलाश (जोकि तिब्बत में है) से बहुत कुछ मिलती है । जोलिंगकांग समुद्रतल से 5000 मीटर ऊपर है । यह आदि कैलाश की पैदल यात्रा का आधार शिविर है । यहाँ से हमें समुद्र तल से 6000 मीटर ऊपर तक जाना है, जहां पहले पार्वती मंदिर और कुण्ड आएगा । फिर भीम की खेती देखते हुए गौरी कुण्ड जाएँगे । फिर वहाँ से पुनः आधार शिविर लौटेंगे ।

            छोटे से रेस्तरां में चाय पीकर संकरी पगडंडी पर कदम बढ़ाते हुए पार्वती मंदिर की ओर पैदल चल पड़े । ऑक्सीजन की कमी हमें सांस लेने में दिक़्क़त दे रही थी । आज टट्टू वालों की हड़ताल है क्योंकि उनकी लापरवाही के कारण दो दिन पूर्व टट्टू से गिरकर एक महिला की मृत्यु हो गई थी । इसलिए धारचूला SDM ने टट्टुओं के परिचालन पर रोक लगा दी है, जिसके विरोध में आज यह हड़ताल है । अब केवल पैदल चलने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं है । रूकते-चलते गहरी सांस लेते हुए आख़िर डेढ़ घंटे बाद पार्वती मंदिर पहुँच गए । वहाँ पूजा अर्चना कर पास में स्थित पार्वती कुण्ड के दर्शन किए ।

         एक ओर आदि कैलाश पर्वत है, बीच में पार्वती कुण्ड है और दूसरी ओर पार्वती मंदिर । वहाँ के पुजारी ने बताया कि पार्वती ने शंकर को पति रूप में पाने के लिए यहीं तपस्या की थी । उस अवधि में मां पार्वती इस कुण्ड में ही प्रतिदिन स्नान करती थी । उधर दूसरी ओर आदि कैलाश पर शिव रहते थे । जब पार्वती की तपस्या सफल हो गई तब शंकर-पार्वती का विवाह इसी स्थान पर हुआ था । विवाहोपरांत पार्वती के अनुरोध पर शंकर भगवान अपनी भार्या के साथ आदि कैलाश छोड़ मूल कैलाश की ओर चले गए और उसी को अपना निवास स्थान बना लिया ।

           कुछ समय वहाँ विश्राम कर हम आगे की यात्रा पर चल पड़े । रामजी मेरे साथ ही हैं । आगे की यात्रा बड़ी कठिन है क्योंकि अब खड़ी चढ़ाई है । रास्ते में ग्लेशियर पिघलने के कारण रास्ते पर पानी आ जाता है, जिससे फिसलन हो जाती है । ऊँचाई बढ़ने के साथ ही सांस लेने में दिक़्क़त आ रही है परंतु हमने सोच लिया था कि स्वाभाविक रूप से ही आगे बढ़ना है, सम्भव होगा तब तक ऑक्सीजन की सहायता नहीं लेनी है ।

           हमने थोड़ी देर तीनों स्थानों (आदि कैलाश, पार्वती कुण्ड और पार्वती मन्दिर) का भाव विभोर होकर अवलोकन किया और गौरी कुण्ड के दर्शन करने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे । पार्वती कुण्ड से लगभग डेढ़ किमी चले होंगे कि एक ऊँचे स्थान पर पहुँच गए । पीछे नीचे दूर पार्वती मंदिर का गुम्बज नज़र आ रहा था और आगे हमारे सामने थी एक हरी-भरी घाटी । यही भीम की खेती है । पास में ही भीम सरोवर है । कहा जाता है कि इस स्थान पर हरियाली कभी समाप्त नहीं होती, यहाँ तक कि हिमपात होने पर भी । समुद्रतल से 3500 मीटर ऊँचाई के बाद प्रायः वनस्पति नहीं मिलती परंतु यहाँ लगभग 5500 मीटर की ऊँचाई पर भी अच्छी ख़ासी हरियाली है । इसे विज्ञान की भाषा में अपवाद ही कहा जाएगा ।

         इस ऊँचाई से आगे का रास्ता दुर्गम और ऊबड़-खाबड़ पथरीला भी है । ऑक्सीजन लगातार कम होती जा रही है । सांस लेने में भी दिक़्क़त बढ़ती जा रही है । हम दोनों ने आधार शिविर लौटने का निश्चय किया । शरीर के साथ ज़्यादती करना उचित भी नहीं है । हम वापस नीचे जोलिंगकांग लौट आए और गाड़ी में साथ आए साथियों का इंतज़ार करने लगे । लगभग एक घण्टे बाद उमाशंकरजी और उनकी पत्नी राधिकाजी लौट आए । वे पार्वती मंदिर से ही लौट आए हैं । चालक होशियारसिंह जी भी वहीं मिल गए । अब इंतज़ार था शुभम् का । 26 साल का युवा, आगे गौरी कुण्ड की ओर चला गया था । वह भी थोड़ी देर में आ गया ।

              सभी बहुत अधिक थक गए थे । अल्प मात्रा में भोजन कर गाड़ी में बैठ गए और साढ़े चार बजे तक गूंजी लौट आए । थोड़ी देर विश्राम कर शाम छः बजे होमस्टे से बाहर निकलकर चहलक़दमी की । ठण्ड बढ़ती जा रही थी । कमरे पर लौटकर भोजन किया और अगले दिन ॐ पर्वत की यात्रा की तैयारी कर सो गए । आज की तरह कल सुबह भी जल्दी निकलना होगा । हाँ, कल पैदल रास्ता नाममात्र का ही रहेगा । 

 यात्रा का पांचवां दिन 

         कल की तरह आज भी लोकेंद्र ने समय से पूर्व ही पानी गर्म कर दिया था । दैनिक स्नानादि कर्म से निवृत होकर नित्य-स्तुति की और फिर सात बजे के लगभग गाड़ी से ॐ पर्वत की ओर चले । आर्मी क्षेत्र के सुरक्षा गार्ड ने हमारे इनर लाइन परमिट जाँचे । आज का रास्ता बड़ा ही ऊबड़-खाबड़ और सड़कविहीन था । जगह-जगह खड्डों में पिघलते ग्लेशियरों का जल भरा हुआ है । यहाँ जगह-जगह BRO, ITBP और BSF की चौकियाँ बनी हुई है, जो आपकी जाँच करती रहती है । पूरे रास्ते सैनिकों का आवागमन देखने को मिलता है । जगह-जगह शिव से संबंधित उक्तियाँ लिखी हुई मिलती हैं । एक उक्ति जो मुझे बहुत अच्छी लगी वह है - “शिव मौन में मिलते हैं शोर में नहीं । इसलिए कृपया शान्त होकर प्रकृति का आनन्द लें । शिव यहीं आपके आस-पास ही हैं ।” 

            लगभग एक-डेढ़ घण्टे चलने के बाद हमें पहली बार ॐ पर्वत के दर्शन हुए । तब तक हम गूंजी से लगभग 18 किमी दूर आ गए थे । दो किमी और चलने के बाद हम उस स्थान पर पहुँच गए जहां से ॐ पर्वत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । हम सभी के मोबाइल कैमरे इस अद्भुत दृश्य को क़ैद करने में लग गए । सामने ही लगभग 200 मीटर दूर एक ऊँचा स्थान है जहां से ॐ पर्वत के स्पष्ट दर्शन होते हैं । ॐ पर्वत का शब्दों के माध्यम से वर्णन करना लगभग असम्भव है । अपनी स्थूल आँखों से उसे निहारते हुए कब आप ॐ में खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता ।

        मांडूक्य उपनिषद् में ॐ का वर्णन आता है । प्रकृति का उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय जिसमें होता है, उस परमात्मा को ॐ नाम से कहा जाता है । ॐ जीव की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, तीनों अवस्थाओं का भी प्रतीक है । आप ॐ को किसी भी प्रकार लें, यह सत्य है कि अव्यक्त परमात्मा को ॐ अक्षर से व्यक्त किया जाता है ।

           ॐ पर्वत को देखते हुए ॐ में लीन हो जाना आपको परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव कराता है । ॐ ही ओंकार है, यह प्रणव भी है । गुरु नानक कहते हैं - ‘एक ओंकार सतिनाम । करता पुरखु, निरभउ, निरवैर । अकाल मूरति अजूनि सैभं गुरु प्रसादि ।’ अर्थात् वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत है, स्वयंभू है और गुरु की कृपा से प्राप्त होता है ।

           यहाँ गुरु नानकदेव कह रहे हैं कि वेदों में जिसे प्रणव कहा गया है, वह ओंकार ही सतनाम है, तत्व का नाद है । वही कर्ता-पुरुष यानी करनेवाला, सृजन करने वाला है, वह स्वयं भय और वैर रहित है, समय से परे है और स्वयंभू है । नानकदेव ने जो सबसे बड़ी बात कही है वह यह है कि उस तत्व की प्राप्ति अपने पुरुषार्थ से कम और गुरूकृपा से अधिक होती है । सारांश है कि आध्यात्मिक ज्ञान का आधार भक्ति, समर्पण और निरहंकार होने में है । यही संकेत हमें महापुरुषों की वाणी में मिलता है । इसलिए पुरुषार्थ करने के साथ-साथ गुरु की शरण लीजिए, वे ही आपको समर्पण और निरहंकार होने का मार्ग दिखलाएँगे ।

                  इसी ओंकार/प्रणव के साकार ॐ रूप में दर्शन कर हम अपने आपको भाग्यशाली समझ रहे हैं । ॐ की ओर चलना ही असली यात्रा है जिसके लिए गुरु का मार्गदर्शन मिलना आवश्यक है । इससे आगे की यात्रा आज की तरह मात्र भौतिक यात्रा नहीं है बल्कि आध्यात्मिक यात्रा है जिसके लिए गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और भक्ति का होना आवश्यक है ।

         चलिए ! आज तो इसी भौतिक यात्रा पर आगे बढ़ते हैं और ॐ पर्वत के बारे में कुछ और जानने का प्रयास करते हैं ।

       पर्वत पर ॐ की आकृति प्राकृतिक रूप से बनी हुई है । सर्दियों में हिमपात होने पर पूरा पहाड़ बर्फ से ढक जाता है । मार्च के बाद जब बर्फ पिघलनी शुरू होती है तब चारों ओर की बर्फ पहले पिघलती है और ॐ की आकृति उभरकर स्पष्ट दिखलाई देने लगती है । अभी भी ॐ के साइड में हल्की बर्फ है, जून के मध्य तक ॐ एकदम स्पष्ट नज़र आने लगेगा । “ॐ पर्वत” स्थित हिमालय की गोद में उस ॐ के ध्यान में खो जाने का जो परमानंद प्राप्त हुआ, कोई भी शब्द उन पलों के आनंद की अनुभूति को व्यक्त नहीं कर सकता ।

           जहां से हम ॐ पर्वत निहार रहे हैं, उस स्थान के दाहिनी ओर ‘पार्वती की नाभि’ नामक पर्वत है । बर्फ पिघलने पर यहाँ शिव, पार्वती और नंदी की आकृति उभर आई है और पार्वती की नाभि तक दिखलाई पड़ने लगी है । शायद इसी कारण इस स्थान का नाम ‘नाभिढांग कैम्प’ पड़ा होगा । यहाँ सेना की एक चौकी बनी हुई है । इसी पर्वत से थोड़ी दूर पर शेष नाग पर्वत की पीक भी दिखलाई देती है ।

             जहां से ॐ पर्वत के स्पष्ट दर्शन होते हैं, वहाँ से 200 मीटर की दूरी पर दुर्गा मां का मंदिर बना हुआ है, जिसकी देखभाल ITBP करती है । पुजारी भी ITBP का ही है । यहाँ नियमित पूजा आरती होती है । यहाँ से वापसी का मन तो नहीं करता लेकिन घड़ी के कांटे बता रहे हैं कि शीघ्र ही चलना चाहिए, रास्ते में काली मंदिर भी देखना है । काली मंदिर यहाँ से गूंजी लौटते समय बीच रास्ते में पड़ता है, जहां से काली नदी का उद्ग़म होता है । काली मंदिर के पास ही सेना की चेकपोस्ट है, यहाँ फिर से एक बार लौट रहे यात्रियों की जाँच की जाती है । जाँच का उद्देश्य है कि जितने और जो भी यात्री ऊपर गए हैं, वे सब लौट आए हैं या नहीं ।

        गूंजी से काली मंदिर, ॐ पर्वत होते हुए आगे लिपुलेख दर्रा (pass) का मार्ग है । उसी मार्ग से हम ॐ पर्वत देखकर लौट रहे हैं । यही कैलाश मानसरोवर की यात्रा का मार्ग है । कैलाश मानसरोवर को जाने वाले यात्री काली माता के दर्शन करके ही आगे बढ़ते हैं । काली मंदिर के सामने एक बहुत ऊँचा पहाड़ है जिसमें एक गुफा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है । यह व्यास गुफा है । कहा जाता है कि वेदव्यासजी ने यहाँ साधना की थी । यहीं मां ने उनको स्वप्न में दर्शन दिए थे । उन्होंने ही यहाँ काली मंदिर का निर्माण कराया था । 

           काली नदी माँ काली के चरणों से निकलती है और गूंजी से नीचे की ओर बहते हुए भारत-नेपाल की सीमा बनाती है । मन्दिर के गर्भगृह में जाकर माता की पूजा अर्चना कर बाजू में स्थित शिव मंदिर में भगवान आशुतोष की पूजा की । मंदिर से बाहर निकलने पर बाँई ओर सेना की कैंटीन है । यहां चाय-नाश्ते की अच्छी व्यवस्था है । किसी को कैंटीन से सामान ख़रीदना हो तो ख़रीद भी सकते हैं ।

        अब हम गूंजी की ओर लौट चले हैं । आज रात्रि विश्राम धारचूला में करना है, इसलिए पहले से ही पैक किया सामान होमस्टे से उठाया और आगे की यात्रा पर निकल पड़े । दो दिन पूर्व जिस दिन हम गूंजी आ रहे थे, उस समय बरसात हो रही थी । उसी रात धारचूला और गूंजी के मध्य में लैंडस्लाइड हो गई थी, जिससे रास्ता बन्द हो गया था । गत रात्रि को ही रास्ता खोल दिया गया था जिससे हमें भी यहाँ से निकलने केलिए हरी झण्डी मिल गई ।

             शाम साढ़े चार बजे धारचूला पहुँच गए हैं । होटल वही दो दिन पूर्व वाली कैलाश मानस ही मिली है । विश्राम कर रात को हल्का भोजन लिया और सोने चले गए । सुबह उसी टेम्पो ट्रैवलर से चालक राजू के साथ पाताल भुवनेश्वर के लिए रवाना होंगे ।

यात्रा का छठा दिन  - 

           सुबह दैनिक कार्यक्रम से निवृत होकर नाश्ता-चाय लेकर क़रीब नौ बजे पाताल भुवनेश्वर के लिए निकले । धारचूला से पाताल भुवनेश्वर की दूरी लगभग 170 किमी की है और पहाड़ी रास्ता होने के कारण समय लगना भी निश्चित है । रास्ते में भोजन आदि में भी समय लगना था फिर भी शाम चार बजे पाताल भुवनेश्वर मन्दिर के पास गाड़ी पहुँच गई । 

                   गाड़ी से मंदिर के ऊपरी प्रवेश द्वार तक लगभग एक किमी पैदल चलना पड़ा । पाताल भुवनेश्वर के दर्शन से पहले वृद्ध भुवनेश्वर के दर्शन करने होते हैं । उनके दर्शन, पूजादि कर पाताल भुवनेश्वर मंदिर की और चले । स्वागत कक्ष में मोबाइल और बैग आदि जमा कराना पड़ता तथा 260 रू की रसीद कटती है । फिर लाइन में लगना होता है । नम्बर आने पर ही मंदिर की गुफा में प्रवेश मिलता है क्योंकि गुफा में जाने-आने का एक ही रास्ता है इसलिए सुरक्षा के लिए उचित व्यवस्था बनाए रखना आवश्यक भी है । गुफा के भीतर कैमरा, फोन आदि ले जाना निषेध है।

              पाताल भुवनेश्वर गुफा 90 फीट गहरी है । गुफा में उतरने के लिए एक बहुत ही तंग रास्ता है जिसमें ऊपर-नीचे, आजू-बाजू चट्टाने हैं । एक बार में एक ही व्यक्ति बड़ी मुश्किल से उतर/चढ़ सकता है । चोट लगने और फिसलने का ख़तरा बराबर बना रहता है । अधिक आयु, दमा और हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों का प्रवेश प्रतिबंधित है । कई लोग तो गुफा का संकरा प्रवेश द्वार और नीचे घुप्प अंधेरा देखकर प्रवेश की हिम्मत तक नहीं करते । नीचे उतरने अथवा ऊपर चढ़ने में फिसलने से बचने के लिए दोनों ओर की चट्टानों पर मोटी-मोटी साँकलें लगी हुई है, जिनको दोनों हाथों से पकड़ कर नीचे उतरा अथवा ऊपर चढ़ा जा सकता है । आख़िर बड़े प्रयास से गुफा में नीचे उतर ही गए । नीचे गुफा में विद्युत प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है । ऑक्सीजन कनसनट्रेटर मशीन भी लगी हुई है, जो निरंतर वातावरण में ऑक्सीजन का आवश्यक स्तर बनाए रखती है ।

                आज तो हम जैसे पाताल लोक ही पहुंच गए । 33 कोटि देवताओं के अद्भुत दर्शनों और इतनी पवित्र और प्राचीन गुफा में प्रवेश के आनंद ने तो  जीवन धन्य कर दिया । यहाँ नहीं आते तो एक महत्वपूर्ण स्थान देखने से वंचित रह जाते । सारी सृष्टि, चारों युग, कामधेनु, वासुकि व तक्षक नाग, ब्रह्मा, विष्णु महेश, शेषनाग, गंगा अवतरण आदि सभी की प्राकृतिक मूर्तियाँ सजीव सी प्रतीत होती हैं, देखकर आश्चर्य होता है ।

पाताल भुवनेश्वर का इतिहास -

           कहा जाता है कि त्रेता युग में एक राजा हुए थे, ऋतुपर्ण । उनको सर्वप्रथम इस गुफा में प्रवेश करने पर साक्षात् शिव के दर्शन हुए थे । शिव ने राजा को निर्देश दिया कि इस बात को किसी अन्य को न बताएँ अन्यथा आपकी मृत्यु हो जाएगी और हम भी यह स्थान छोड़ अन्यत्र चले जाएंगे । पीछे केवल हमारे प्रतीक चिन्ह ही रह जाएँगे । राजा ऋतुपर्ण नियमित रूप से शिव के दर्शन को इस पाताल लोक में आता था । यह बात उनकी पत्नी से छिपी न रह सकी । पत्नी ने आग्रह किया कि बतायें कि वे प्रतिदिन कहाँ जाते हैं ?

          राज हठ और बाल हठ की तरह नारी हठ भी कई बार व्यक्ति के समक्ष कठिन परिस्थिति पैदा कर देता है । राजा ने बहुत समझाया और यहाँ तक कह दिया कि यह सब बताने पर मेरी मृत्यु हो जाएगी फिर भी रानी को नहीं मानना था तो नहीं ही मानी । हारकर ऋतुपर्ण ने सारी बात बताकर मृत्यु का वरण कर लिया । रानी को बड़ा दुःख हुआ पर अब कुछ भी नहीं हो सकता था । थोड़े दिनों बाद रानी उस पाताल गुफा में पहुँची तो उसे संपूर्ण सृष्टि के केवल प्रतीक चिन्ह ही मिले ।

               सन् 819 में आदि शंकराचार्य इस स्थान पर पहुँचे और उन्होंने इस गुफा में पूजा अर्चना की उचित व्यवस्था की । आज उन्हीं पुजारियों की 19 वीं पीढ़ी इस गुफा की देखभाल कर रही है । प्रशासन का सहयोग मात्र इसकी सुरक्षा व्यवस्था देखने तक सीमित हैं । देवदार वृक्षों के घने जंगल से घिरे इस स्थान पर आने पर एक अलौकिक अनुभव होता है । पाताल भुवनेश्वर की गुफा में पहुँचने पर ऐसा लगता है मानो आप त्रेता में पहुँच गए हैं । ऐसा अनुभव होता है मानो परमात्मा की इस सृष्टि के साथ आप स्वयं को भूलकर परमात्मा में समाहित हो गए हैं । पाताल भुवनेश्वर की इस गुफा के दर्शन का वर्णन शब्दों के माध्यम से करना असम्भव है । अनुभव करने के लिए तो इस गुफा की गहराई में उतरना ही होगा ।

         पाताल भुवनेश्वर मंदिर के दर्शन करने के पश्चात् हमें रात्रि विश्राम स्थल तक जाना है । हमारे ग्रुप के रात्रि विश्राम के लिए कुमाऊँ मण्डल विकास निगम (kmvn) के गंगोलीहाट स्थित यात्री निवास और पार्वती रिसोर्ट गंगोलीहाट में व्यवस्था की गई है । हम तीनों (मैं, रामजी और डॉ. दीपक) ने kmvn के यहाँ जाना निश्चित किया क्योंकि उस स्थान के पास ही सिद्धपीठ कालिका मंदिर भी है । टेम्पोट्रैवलर से हमने पहले 11 सदस्यों को रिसोर्ट छोड़ा और फिर हम kmvn के रेस्टहाउस पहुँचे । रात के साढ़े आठ बज चुके थे, इसलिए जाते ही हल्का भोजन लिया और सो गए ।

यात्रा का सातवाँ दिन - 

          सुबह नियमित कार्यक्रमों से निवृत हो कालिका मंदिर के लिए निकले । kmvn के विश्रामगृह से मंदिर के लिए ऊँचे नीचे पहाड़ी रास्ते पर क़रीब डेढ़ किमी जाना था और उतना ही वापस आना था । हम साढ़े पाँच बजे निकले और पूजा कर सात बजे तक लौट आए । मंदिर पहाड़ों से घिरा हुआ है और बड़ा ही रमणीय स्थान है । अब वापसी यात्रा प्रारम्भ होनी है और शाम तक काठगोदाम भी पहुंचना है । रास्ते में गोलू देवता मंदिर और कैंची धाम भी रूकना है । आज रात की रानीखेत एक्सप्रेस से रवाना होकर कल सुबह जयपुर पहुँचेंगे ।

             नाश्ता कर गाड़ी में बैठकर पहले पार्वती रिसोर्ट गए और वहाँ से सभी सहयात्रियों को साथ लेकर हमारी यात्रा शुरू हुई । इतने दिनों में सभी की आपस में गहरी जान पहचान हो गई थी । सभी ने वापसी यात्रा में मनोरंजन करते हुए खूब आनन्द लिया । दोपहर साढ़े बारह बजे चितई पहुँचे जहां गोलू देवता का मंदिर है । जिस प्रकार धारी देवी को गढ़वाल क्षेत्र को धारण करने वाली देवी माना जाता है उसी प्रकार कुमाऊँ क्षेत्र के आधार गोलू देवता है । गोलू देवता को न्याय का देवता भी कहा जाता है । यहाँ लोग बड़ी श्रद्धा से अपनी मनोकामना लिखकर लाते हैं और एक घण्टी के साथ देवता के सामने लटका जाते हैं । कोई भी व्यक्ति इन चिट्ठियों को आराम से पढ़ सकता है ।

            गोलू देवता की घोड़े पर सवार छोटी सी मूर्ति है, जिसके आप गर्भगृह में जाकर दर्शन कर सकते हैं । मंदिर परिसर में लाखों घंटियाँ और मनोकामना लिखी चिट्ठियाँ लटक रही हैं । आपको सिर झुकाकर चलना पड़ता है, नहीं तो सिर का किसी न किसी घण्टी से टकराना निश्चित है । लोग अपनी श्रद्धानुसार एक किग्रा की छोटी घण्टी से लेकर सौ किग्रा तक के बड़े घण्टे तक लटका जाते हैं । कहा जाता है कि यहाँ आने वाले की प्रत्येक मनोकामना पूरी होती है । हमारे भी कई सहयात्रियों ने देवता के समक्ष अपनी कामनाएँ रखी हैं । सभी ने मुझको भी कहा परन्तु मेरी कोई कामना है ही नहीं, तो क्या कहता । केवल यही कहा - सर्वे भवन्तु सुखिनः ।

                        मन्दिर परिसर से निकलकर आगे की यात्रा पर चले । भोजन कैंचीधाम में ही करने का निश्चय किया । दोपहर बाद दो बजे कैंची पहुँच गए । यह धाम नीम करौली बाबा के कारण प्रसिद्ध है । कहा जाता है कि बाबा हनुमानज़ी के परम भक्त और सिद्ध वचन थे । मंदिर में कोई प्रसाद नहीं चढ़ता । हां, कम्बल चढ़ाई जा सकती है । बाबा सदैव एक कम्बल ओढ़े रहते थे । बाबा के रहते यहां कुछ भी नहीं था । बाबा का वृंदावन में निर्वाण हुआ था, उसके बाद इस धाम का उनके अनुगामियों ने विकास किया । प्रतिदिन हज़ारों श्रद्धालु यहाँ आते हैं । मंगल और शनिवार को तो यह संख्या लाखों में पहुँच जाती है । परिसर में व्यवस्थाएं अच्छी और नियंत्रित हैं ।

            कैंचीधाम परिसर का अवलोकन कर उसके सामने स्थित एक भोजनालय में हमने भोजन किया और भीड़ से बचते-बचाते गाड़ी तक पहुँचकर काठगोदाम के लिए निकल पड़े । शाम छः बजे काठगोदाम पहुँच गए । सभी सहयात्रियों को धन्यवाद और शुभकामनाएं दी और रात की गाड़ी से जयपुर के लिए निकल पड़े ।

              सुबह साढ़े दस बजे जयपुर और देर रात सुजानगढ़ पहुँच गए । आदि कैलाश और ॐ पर्वत की यह यात्रा हमें अलौकिक अनुभव देने वाली रही । इस यात्रा के लिए नागार्जुन ट्रैवेल्स को हृदय से धन्यवाद । इस आध्यात्मिक यात्रा में अतिदुर्गम स्थानों में भी हमारे अन्नदाता रहे उन अनजान और सेवाभावी लोगों का आभार, जिन्होंने हमें  इतना स्वादिष्ट और सात्विक भोजन प्रदान किया, आवास उपलब्ध कराया और हमें ज़रा सी भी तकलीफ़ नहीं होने दी ।

                रही tour package की बात । यात्रा दो स्थान से शुरू होती है - दिल्ली से और काठगोदाम/हल्द्वानी से । दिल्ली से प्रारंभ होने वाली यात्रा की क़ीमत काठगोदाम/हल्द्वानी से शुरू होने वाली यात्रा से पाँच हज़ार रुपए अधिक है । इस यात्रा के लिए दो प्रकार के पैकेज हैं - स्टैण्डर्ड और डीलक्स । काठगोदाम/हल्द्वानी से यात्रा का स्टैण्डर्ड पैकेज पच्चीस हज़ार का है और डीलक्स पैकेज तीस हज़ार का । स्टैण्डर्ड पैकेज में कुछ सुविधाएँ कम है, वैसे दुर्गम स्थान की यात्राओं में सुविधाओं के बारे में कभी सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि सुविधाएँ घर छोड़ते ही दूर की कौड़ी हो जाती है । यात्रा में तो प्रत्येक कठिनाई को सहन करना चाहिए ।

              हम यात्रा करने से बचने का प्रयास ही केवल इसलिए करते हैं कि मार्ग में हमें सुविधाएं नहीं मिलेगी । एक उम्र के बाद तो असुविधा की बात जचती भी है परंतु पचास वर्ष की आयु तक तो विपरीत परिस्थितियों को सुगमता से सहन किया जा सकता है । विडम्बना है कि हमने तीर्थ-यात्रा के लिए वृद्धावस्था को ही उपयुक्त माना है । मेरे मत में यात्राएं जीवन के पूर्वार्ध में ही कर लेनी चाहिए ।   

            जीवन में की जाने वाली प्रत्येक यात्रा आपको नए-नए अनुभव कराती है । जीवन के सातवें दशक में यात्रा करने से शरीर को तो कुछ असुविधा हो सकती है परंतु आत्मिक स्तर पर की जाने वाली यात्रा में मनोबल उच्च स्तर का होता है । सबसे महत्वपूर्ण बात - प्रकृति से मिलना, उसके साथ एकाकार होने का अनुभव आपको परमात्मा की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है । लक्ष्य यदि आत्म-बोध का हो तो यात्रा उसका एक साधन है । साधन से साध्य तक पहुंचने में साधक और साधना दोनों मिट जाते हैं और केवल एक साध्य ही बच रहता है । फिर यात्रा में होने वाला कोई भी कष्ट अनुभव में ही नहीं आता क्योंकि संसार और शरीर दोनों खो जाते हैं । अंततः प्रकृति हमें परमात्मा के द्वार पर ले जाकर खड़ा कर देती है । इससे आगे की यात्रा स्वयं के भीतर की यात्रा है जो मौन होकर की जाती है । मौन हो जाने में प्रकृति की सीधी भूमिका रहती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।  

         इस तीर्थ-यात्रा में प्रकृति के साथ जो सम्बन्ध स्थापित हुआ वह अवर्णनीय और अविस्मरणीय है । सांसारिक गतिविधियों से दूर, प्रकृति और परमात्मा में खोए हुओं को सप्ताह के दिनों की याद तक नहीं रही, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है । केवल इस यात्रा-वृत्तान्त पढ़ने से ही अलौकिक अनुभव नहीं होगा, ऐसे अनुभव के लिए तो निर्भय और अनिकेत होकर यात्रा के लिए निकलना पड़ता है । तीर्थ-यात्रा आपको परमात्मा की तरफ़ चलने में उत्प्रेरक का कार्य करती है और उनसे निकटता का अनुभव कराती है । 

                  आपको भी समय निकालकर आत्मिक तल पर जाकर प्रकृति के साथ एकाकार होने का प्रयास करना चाहिए । मेरा मानना है कि ऐसी यात्रा आपको परमात्मा के द्वार तक अवश्य ही ले जाएगी । इस यात्रा-वृत्तान्त में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक साथ बने रहने के लिए आपका हृदय से आभार । 

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल



Wednesday, June 25, 2025

य: पश्यति स पश्यति

 य: पश्यति स पश्यति  

            “पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:” के विवेचन से स्पष्ट है कि भौतिक दृष्टि से देखे जाने वाले दृश्य की समीक्षा यदि ज्ञान दृष्टि से करें तो जो परिणाम निकलकर आता है, वह सत्य के क़रीब होता है । जो सत्य है, वह सदैव के लिए सत्य होता है । एक परमात्मा ही सत्य है । अतः जो भी कुछ हमारी दृष्टि में आए उसमें परमात्मा को देखना ही वास्तव में सही देखना है ।

       यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

       तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। गीता -6/30 ।।

          गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।

           भगवान कहते हैं - “उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।” इसका सीधा सा एक ही अर्थ निकलता है कि परमात्मा और जीवात्मा में फिर कोई भेद नहीं रह जाता अर्थात् आत्मा ही परमात्मा हो जाती है । आत्मा का परमात्मा होना केवल सांसारिक दृष्टि से कहा जाता है, वास्तव में तो आत्मा और परमात्मा एक ही है । जिस दिन इन दोनों की एकता का ज्ञान हो जाएगा उसी दिन हमें स्वयं का ज्ञान हो जाएगा, हम आत्म-ज्ञान की अवस्था तक पहुंच जाएंगे ।

           सबसे महत्त्वपूर्ण है, हमारा देखना । जिस दिन हम भौतिक दृष्टि के भुलावे से बाहर निकल कर ज्ञानदृष्टि से देखने लगेंगे तब वास्तव में हमारा देखना सही होगा । सर्वत्र, सम रूप से परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करना ही सही देखना है । जो इस प्रकार देखता है, वह सही देखता है । 

               पिछली सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने ‘सापेक्षता का सिद्धान्त’ (theory of relativity) दिया था । यह सिद्धान्त कहता है कि पदार्थ की मात्रा (ग्राम में) को प्रकाश की गति (किमी प्रति सेकिंड) के वर्ग से गुणा करें तो जो प्रतिफल मिलता है, उतनी ऊर्जा उस पदार्थ में समाहित है । प्रकाश की गति है, तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड । इस प्रकार एक ग्राम पदार्थ की मात्रा को दो बार प्रकाश की गति से गुणा करेंगे तो जो ऊर्जा उस पदार्थ के विखण्डन से निकलेगी, वह अकल्पनीय होगी ।  इसी सिद्धांत के आधार पर आगे जाकर रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने परमाणु बम का निर्माण किया । परमाणु बम के परीक्षण के समय एक पदार्थ की विध्वंसक शक्ति को देखकर उस महान वैज्ञानिक के मुख से गीता का वह श्लोक निकला, जिसका अर्थ है -“ मैं संपूर्ण लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ ।” वह श्लोक गीता के ग्यारहवें अध्याय का बत्तीसवां श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -

            कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो 

                    लोकान् समाहतुर्मिह प्रवृत्तः ।

            ऋतेपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे 

                    येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योद्धा: ।।

अर्थात् मैं संपूर्ण लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगों का संहार करने के लिए यहाँ आया हूँ । तुम्हारे प्रतिपक्ष में जो योद्धा खड़े हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध न करने पर भी नहीं रहेंगे ।

                परमात्मा ही उस पदार्थ में अक्रिय ऊर्जा के रूप में स्थित है, जो समय आने पर अपनी विशालता का परिचय देते हुए काल बनकर पृथ्वी के दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं । प्रश्न है कि क्या हम एक ग्राम पदार्थ में इतनी विशाल ऊर्जा को देख पा रहे हैं ? नहीं न । नहीं देख पा रहे हैं तो क्यों नहीं देख पा रहे हैं ? क्या हम पदार्थ में स्थित अक्रिय ऊर्जा रूपी उस परमात्मा को देख पा रहे हैं ? हमारे लिए चिंतन का मुख्य विषय यही है । जो परमात्मा को सर्वत्र और संसार के प्रत्येक कण में देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

           क्यों हम पदार्थ के प्रत्येक कण में स्थित परमात्मा को देख नहीं पाते ? इस बात को जानने के लिए आइये !  आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित सापेक्षता के इस सिद्धांत के दूसरे पक्ष की बात भी करते हैं । इस दूसरे पक्ष के अनुसार एक स्थान पर खड़ा व्यक्ति जो भी दृश्य देख रहा है, उस स्थान से हटकर कुछ दूरी पर खड़ा कोई अन्य व्यक्ति उसी दृश्य को पहले वाले से भिन्न प्रकार से देखेगा । उदाहरणार्थ समानान्तर पटरियों पर एक समान गति से एक ही दिशा में जा रही दो रेलगाड़ियों में बैठे व्यक्ति एक दूसरे को स्थिर बैठे दिखलाई पड़ेंगे जब कि दोनों गाड़ियों में बैठे व्यक्ति एक ही दिशा में गतिमान हैं । अब एक दूसरी अवस्था की ओर दृष्टि डालते हैं - बाईं गाड़ी अगर दाईं वाली गाड़ी से तेज गति से चल रही है तो बायीं गाड़ी में बैठे व्यक्ति को दाईं गाड़ी उल्टी दिशा में चलती नज़र आयेगी और दायीं गाड़ी में बैठे व्यक्ति को स्वयं की गाड़ी तो रूकी हुई और बायीं गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ती दिखलाई देगी, जबकि दोनों ही गाड़ियाँ एक ही दिशा में चल रही होती है ।

               कहने का अर्थ है कि एक ही घटना को दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर देख रहे हैं तो उन दोनों के द्वारा एक ही घटना की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाएगी । आपके जीवन को आप स्वयं जिस प्रकार से देख रहे हैं, दूसरा व्यक्ति उसे अपने सापेक्ष देखेगा, आपके सापेक्ष नहीं । आप जीवन में दुःखी हैं तो हो सकता है कोई अन्य आपको उस अवस्था में भी सुखी देख रहा हो । जिसके पास धन का अभाव है, वह थोड़ा सा धन रखने वाले को भी धनवान समझेगा । इसी प्रकार लाखों में खेलने वाला, एक करोड़पति को देखकर स्वयं को ग़रीब समझेगा । ऐसा होना सापेक्षता की दृष्टि से सामान्य बात है । 

               सापेक्षता का सिद्धान्त यही बात कहता है कि देखने के साधन (नेत्र) भले ही एक समान हो परन्तु स्थान, समय और परिस्थितियां व्यक्ति की दृष्टि को परिवर्तित कर देती है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि केवल इन भौतिक आँखों से देखना ही सही देखना नहीं है ।

                दृष्टि तो एक ही होती है, मन उसका विश्लेषण अपने स्तर पर करता है तो वह असत् दृष्टि अथवा भौतिक दृष्टि कहलाती है । जब दृष्टि का विश्लेषण बुद्धि के स्तर पर होता है, तब यही दृष्टि ज्ञान-दृष्टि कहलाती है । मन से जब देखे गए दृश्य का विश्लेषण किया जाता है, तब जो भी दृश्य सामने प्रकट होता है वह वास्तव में वैसा होता ही नहीं है अर्थात् दृश्य कुछ और ही होता है और मनुष्य देखता कुछ और ही है । इसको भ्रम की अवस्था कहा जाता है जैसे रस्सी में सर्प को देखना । यह भ्रम दूर तभी होता है, जब ज्ञान दृष्टि से उस दृश्य का विश्लेषण किया जाता है ।

          जनकपुर में जब धनुष-यज्ञ को देखने श्रीराम, अपने अनुज लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र के साथ यज्ञभूमि पहुँचते हैं तो वहाँ उपस्थित जनों ने राम को किस प्रकार देखा, उसका वर्णन गोस्वामीजी ने बड़े सुंदर ढंग से किया है ।

 “जिन्ह के रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ।।”

            महान रणधीर उन्हें ऐसे देख रहे हैं मानो स्वयं वीर-रस शरीर धारण किए हुए हों । कुटिल राजा प्रभु को देखकर डार गए मानो कोई बड़ी भयानक मूर्ति हो । छल से जो राक्षस वहां राजा बनकर बैठे थे,उन्होंने प्रभु को साक्षात् काल के समान देखा । जनकपुर के वासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्य के भूषण रूप और नेत्रों को सुख प्रदान करने वाले के रूप में देखा । नारियाँ उनका श्रृंगार-रस की अनुपम मूर्ति के रुप में दर्शन कर रही हैं । विद्वानों को प्रभु विराट स्वरूप में दिखलाई पड़ रहे हैं । जनकजी और उनकी रानियाँ भगवान को अपने बच्चे के समान देख रहे हैं । योगियों को शान्त, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे । हरि: भक्तों को वे अपने इष्टदेव जान पड़े । इस प्रकार सबने अपनी अपनी भावदृष्टि के अनुसार श्रीराम को देखा । तुलसी कह रहे हैं -

          एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ ।

           तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ।।

          अब भावदृष्टि से चलते हैं, सिद्धदृष्टि की ओर । सिद्ध पुरुष की दृष्टि ज्ञान की सर्वोच्च दृष्टि होती है । हम बात कर रहे हैं, महर्षि वाल्मीकीजी की जो जीवन में तामसिक अवस्था से निकलकर ज्ञान के सर्वोच्च शिखर तक पहुंच गए । तामसिक वृत्ति में आकण्ठ डूबा व्यक्ति जब गुणातीत अवस्था को उपलब्ध होता है तब उसकी दशा और दिशा दोनों ही बदल जाती है । दोलक (pendulum)  जब एक ओर  से गति करता है तब वह दूसरी ओर जाकर सर्वोच्च ऊँचाई को छू लेता है और फिर पुनः पहली ओर गति करता है । इस प्रकार यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है । परंतु तामसिक व्यक्ति में जब परिवर्तन आता है, तब वह स्थाई परिवर्तन होता है । वह पतन की पराकाष्ठा से निकलकर ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचकर समता में स्थित हो जाता है । ऐसे व्यक्ति का फिर पतन नहीं होता । समता में स्थित व्यक्ति के पास दोनों दृष्टियां होती है फिर भी वह भौतिक दृष्टि के आकर्षण से विचलित नहीं होता । वह भौतिकता की बातों को समझते हुए भी ज्ञानदृष्टि को सदैव जाग्रत अवस्था में बनाए रखता है ।

                अपनी वनगमन यात्रा की अवधि में भगवान श्रीराम, अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ आगे बढ़ते हुए वाल्मीकिजी के आश्रम पहुँच जाते हैं । वाल्मीकिजी, सर्वोच्च ज्ञानदृष्टि रखने वाले, प्रभु को देखते ही पहचान जाते है और उनकी स्तुति करते हैं । प्रेम का आदान-प्रदान होता है । वन में आगे बढ़ने को आतुर भगवान उनको पूछ ही लेते हैं -“आप ऐसा कोई स्थान बताइए जहां मैं रह सकूँ ।”  

          वाल्मीकिजी क्या उत्तर दे रहे हैं, सुनिए । तुलसी लिख रहे हैं -

 पूँछेहु मोहि कि रहूँ कहँ मैं पूँछत सकुचाहुँ ।

जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखवाऊँ ठाउँ ।।

अर्थात् आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ ? परंतु मैं यह यह पूछते हुए सकुचाता हूँ कि जहां आप न हों, वह स्थान बतला दीजिए । तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखलाऊँ ।

       यह है वाल्मीकीजी की दृष्टि और उनका देखना ।

                महत्वपूर्ण है, आपका देखना कि आप प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु और स्थान को किस प्रकार से देखते हैं ? सापेक्षिक रूप से देखेंगे तो भ्रमित हो जाएँगे क्योंकि केवल इस प्रकार से देखने पर आप सत्य से दूर होते चले जाते हैं । दूसरी बात, एक ही प्रकार से देखने से भी आप भ्रमित हो सकते हैं क्योंकि एक दिशा से देखने पर आप उसका केवल एक पक्ष ही देख सकते हैं । सत्य देखना तो तभी संभव है जब आप प्रत्येक दृश्य को समग्र रूप से देखें । समग्र रूप से देखने पर जो आपका अनुभव होगा, वास्तव में वही देखना सही होगा ।

         एक दृष्टांत के माध्यम से बात को आगे बढ़ाते हैं । एक राहगीर अपनी राह आगे बढ़ रहा था । उसने देखा कि रास्ते में थोड़ी दूर आगे ही एक पेड़ की घनी छाया में एक युवा युगल बैठा है । युवक की गोद में युवती उसके वक्ष का सहारा लिए आँखें बंद किए विश्राम कर रही है । युवक बार- बार उसके चेहरे को बड़े प्रेम से निहार रहा है और बीच-बीच में उसके बालों को सहला भी रहा है । पास में ही एक मदिरा की ख़ाली बोतल भी पड़ी है । दृश्य देखकर राहगीर कुछ क्षणों के लिए ठिठक जाता है । वह सोच रहा है कि “कितना घोर कलियुग आ गया है ?  एक युग़ल मदिरा के नशे में मदहोश होकर भरी दोपहर बीच रास्ते में किस प्रकार प्रेमालाप कर रहा है ? इनको शर्म भी नहीं आती ।”

          बात उस राहगीर अकेले की नहीं है । उसके स्थान पर हम में से भी कोई भी होता, तो उस दृश्य को देखकर यही सोचते । कारण ? आधुनिक युग में ऐसे दृश्य देखने के हम अभ्यस्त हो चुके हैं । कई बार तो ऐसे-ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं, जो हमें विचलित कर देते हैं । ऐसे किसी दृश्य से आँख चुराना हमें उसके समग्र दर्शन से वंचित कर देता है । जिस दिन हम उस दृश्य का गहराई से अवलोकन करेंगे तब हमारी सोच बदल भी सकती है । गंभीर अवलोकन के परिणाम निश्चित ही हमारी पूर्व सोच के विपरीत होंगे ।

                   आइए ! आगे बढ़ते हैं और चलते हैं, पुनः उस राह पर, जहां एक राहगीर युवक-युवती के मध्य हो रहे कथित प्रेमालाप के दृश्य को देखकर ठिठका हुआ है । थोड़ी देर बाद हिम्मत कर राहगीर आगे बढ़ता है । उस युगल को वह कुछ भला-बुरा बोलने वाला ही होता है कि उससे पहले ही वह युवक बोल पड़ता है - ‘यह मेरी बहिन है । कुछ समय से बीमार चल रही है । चिकित्सक को दिखाने के लिए पास के ही गाँव जा रहा हूँ । रुग्णता के कारण यह जल्दी थक गई है, थोड़ी देर के लिए विश्राम कर रहे हैं । इस बोतल में जल था, समाप्त हो गया है । क्या आपके पास हमारे लिए थोड़ा सा जल होगा ?”

        कुछ समय पूर्व जो विचार राहगीर के मन में चल रहे थे, अचानक ही वे एकदम परिवर्तित हो गए । उसने क्या- क्या कल्पना की थी और अंततः वास्तविकता क्या निकली ? पहले की कल्पना से एकदम विपरीत, क्योंकि पूर्व में उसकी दृष्टि समग्र नहीं थी । हम सांसारिक व्यक्तियों की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम किसी भी बात को हल्के रूप से लेते हुए एक सोच बना लेते है और इस कारण से सत्य से दूर होते चले जाते हैं । जिस दिन हम समग्र रूप से विचार करने लगेंगे, तब जो दृश्य दिखलाई पड़ेगा वही वास्तव में हमारा सही देखना होगा ।

         संसार में अगर सबसे बड़ा कोई पाप है तो वह है, किसी को बुरा देखना/समझना, और यह पाप प्रायः हम सभी करते रहते हैं । इस पाप से बचना बड़ा ही कठिन कार्य है क्योंकि हमारे मस्तिष्क में एक बात स्थाई रूप से बैठ गई है कि हम निष्पाप हैं, हमारे अतिरिक्त सभी बुरे हैं । इस प्रकार हम स्वयं को दूध का धुला समझने लगे हैं । जिस दिन हम स्वयं से किसी और की तुलना करने के पूर्व अपने आप की स्थिति को देख लेंगे, स्वयं का अवलोकन करने लगेंगे, फिर किसी को बुरा समझने की गलती नहीं करेंगे । 

            दूसरे को बुरा समझने की हमारी मानसिकता पर गहरी चोट करते हुए कबीर कहते हैं -

          बुरा जो मैं देखन चला, बुरा न मिलिया कोय ।

          जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।

        क्या कारण है कि हम बिना कुछ सोचे-समझे हर किसी को भी बुरा समझ लेते हैं ?  बुराई एक ऐसी चीज है, जो किसी में भी थोड़ी-बहुत मिल ही जाती है । किसी को बुरा समझना सिद्ध करता है कि हमारे भीतर में वह बुराई छिपी बैठी है । हम जो कोई अनुचित कार्य करने जा रहे होते हैं, वह हम इसलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि संसार और समाज का भय हमारे भीतर समाया है । संसार का भय ही रोकता है हमें, अन्यथा हम भी ……..। जब हम वही अनुचित कार्य किसी दूसरे को करते देखते हैं, तत्काल ही वह बुराई हमारे भीतर से निकल कर जिह्वा पर आ जाती है और हम उसे बुरा घोषित कर देते हैं ।

           जैसा व्यक्ति स्वयं होता है, दूसरे व्यक्ति को उसी दृष्टि से देखता है । महाभारत क़ालीन एक प्रसंग स्मृति में आ रहा है । एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन भीष्म पितामह के पास बैठे थे । चर्चा चल रही थी कि व्यक्ति संसार को किस प्रकार देखता है ? पितामह ने समझाया कि जैसी व्यक्ति की दृष्टि होती है, उसी प्रकार की सृष्टि उसे दिखलाई पड़ती है । व्यक्ति स्वयं जैसा होता है, उसी अनुसार उसका व्यवहार होता है । केवल व्यवहार ही नहीं, सामने वाले व्यक्ति की प्रत्येक गतिविधि में वह अपना ही प्रतिबिंब देखता है । कहा भी जाता है कि चोर को सारे चोर ही नज़र आते हैं । 

            अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर के पास ही किसी गाँव में पहले दुर्योधन को भेजा । उन्होंने कहा - “ पुत्र दुर्योधन ! तुम वेश बदलकर पास के गाँव में जाओ और पता लगा कर आओ कि वहाँ किस प्रकार के लोग निवास करते हैं ?” 

          दुर्योधन का तो बाल्यकाल से ही अहंकारी व्यक्तित्व था । पिता तो जन्म से ही अंधे थे और माता ने अपने पति को जन्मान्ध जानकार आँखों पर पट्टी बांध ली थी । पिता के अंधेपन ने उन्हें बड़े राजपुत्र होने के बाद भी राजगद्दी से वंचित कर दिया था । यह टीस धृतराष्ट्र के साथ साथ दुर्योधन को भी सताती रहती थी । वह स्वयं को हस्तिनापुर का भावी सम्राट समझने लगा था । इस कारण से उसका स्वभाव भी वैसा ही हो गया था । गाँव में पहुँचते ही उसने एक राजा की तरह अहंकारयुक्त भाषा में वहाँ के निवासियों से वार्तालाप किया । निम्न स्तर के प्रदर्शन को देखते हुए वहाँ के निवासियों ने भी दुर्योधन के साथ रूखा व्यवहार किया । दुर्योधन ने लौटकर भीष्म पितामह को बताया कि “उस गाँव के निवासी बड़े ही बुरे हैं । उन्होंने न तो मेरा सम्मान किया और तो और उन्होंने मुझसे जल तक का भी नहीं पूछा ।”

          अब युधिष्ठिर की बारी थी । वेश बदलकर युधिष्ठिर उस गाँव में पहुँचे । उन्होंने वहाँ पहुँचते ही सभी बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम किया, बराबर वालों से गले मिले और अपने से छोटों के सिर पर बड़े स्नेह से हाथ फेरा । ग्रामवासी उनके व्यवहार से गद्गद हो गए । उन्होंने युधिष्ठिर को स्वादिष्ट भोजन कराया और अनेकों उपहार भेंट में दिए । युधिष्ठिर ने लौटकर भीष्मजी को बताया कि “उस गाँव के निवासी तो बड़े भले हैं । मेरा बहुत उत्साह से स्वागत किया और स्वादिष्ट जलपान भी कराया । लौटते समय भेंटस्वरूप बहुत से उपहार भी दिए ।”

              हस्तिनापुर के दोनों राजकुमारों में ऐसा कौन सा अंतर था, जोकि गाँव वालों ने उनके प्रति किए जाने वाले व्यवहार में इतना बड़ा अंतर कर दिया ?  दोनों के भीतर जिस भलाई-बुराई की बहुलता थी उसके सतह पर आने से ही ग्रामवासियों का उनके प्रति व्यवहार भी भिन्न-भिन्न हो गया । कहने का अर्थ है कि आपकी जैसी दृष्टि होगी, वैसी ही आपकी सृष्टि हो जाएगी । किसी को गुलाब के पौधे में मुस्कुराते हुए फूल नज़र आते हैं तो किसी को केवल काँटे ।

              ऐसा नहीं है कि व्यक्ति केवल बुरा ही बुरा होता है । बुरे से बुरे व्यक्ति के भीतर किसी कोने में अच्छाई भी छिपी रहती है । उस अच्छाई को सतह पर तभी लाया जा सकता है, जब उसे कोई सही मार्गदर्शक मिले । प्रत्येक मनुष्य के भीतर दैवी सम्पदा और आसुरी सम्पदा,दोनों ही निवास करती है ।जो सम्पदा प्रभावशाली होती है, व्यक्ति का व्यवहार और आचरण उसी अनुरूप होता है । दैवी सम्पदा की बहुलता व्यक्ति में सत्व गुणों की बढ़ोतरी करने वाली होती है, जबकि आसुरी सम्पदा तामसिक गुणों को बढ़ाती है । आसुरी सम्पदा मनुष्य को पतन की ओर ले जाती है । अतः मनुष्य को अपने जीवन में सदैव ऐसा प्रयास करते रहना चाहिए कि उसके भीतर दैवी सम्पदा बढ़ती रहे । दैवी सम्पदा ही आपको परमात्मा के द्वार तक ले जाती है ।

             मनुष्य के भीतर अल्प रूप से रहने वाली सम्पदा भी संगति के प्रभाव से बढ़ सकती है । प्रभावशाली दैवी सम्पदा वाला अजामिल भी एक बार तो कुसंग में पड़कर पतन को प्राप्त हो गया था परंतु संतों के मिलन से वह पुनः दैवी सम्पदा से युक्त हो गया । अंगुलिमाल डाकू, घने जंगल में रहकर राहगीरों की हत्याएं किया करता था । वह प्रतिदिन जंगल से गुजरने वाले पहले व्यक्ति को मारकर उसकी अंगुलियों की माला बनाकर अपने गले में पहनता था । उसका संकल्प था, एक सौ व्यक्तियों को मारना, अभी तक वह 99 हत्याएँ कर चुका था । बस, आज अंतिम हत्या होगी, सोचकर वह घात लगाकर बैठा था । तभी तथागत का उधर से निकलना हुआ । उन्होंने अंगुलिमाल को ज्ञान दिया । अंगुलिमाल का विवेक जाग्रत हो गया । वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा । इस प्रकार भगवान बुद्ध की कुछ समय के लिए संगति मिलने पर वह निर्मम डाकू, एक बोध भिक्षु बन गया । इसी प्रकार ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला रत्नाकर भी संगति के प्रभाव से पतन की ओर जाता हुआ भी पुनः उत्थान की राह चल पड़ा था । दो पल का सत्संग भी किसी डाकू को कैसे महात्मा बना देता है, यह कहानी है उस रत्नाकर की है, जो “रामायण” जैसी कालजयी रचना कर वाल्मीकि बन गया ।

                   आज बात करते हैं, डाकू रत्नाकर की, जिसके डर से उस क्षैत्र का पूरा जंगल काँपता था । रत्नाकर का जन्म एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था । पैदा होते ही एक निःसंतान भीलनी उसे उठाकर ले गई । जीविकोपार्जन के लिए उस भीलनी के पास एक ही साधन था, जंगल से गुजरने वाले राहगीरों को लूटना । बड़ा होने पर रत्नाकर भी इस व्यवसाय में पारंगत हो गया । समय पाकर रत्नाकर का विवाह भी हो गया और फिर संतानें भी । थोड़े समय बाद भीलनी भी चल बसी । रत्नाकर के परिवार में रह गये - उसके दत्तक पिता, पत्नी, पुत्र तथा पुत्री । सारे परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेवारी अकेले रत्नाकर पर आ गयी । जंगल में राहगीरों के साथ लूटपाट की घटनाएँ बढ़ गई । अब रत्नाकर, राहगीर के पास थोड़ा-बहुत जो भी होता था, लूट लेता था, उनके पास कुछ भी छोड़ता नहीं था । इस प्रकार बुरी संगति ने एक ब्राह्मण पुत्र को भयानक ख़ूँख़ार डाकू बना दिया ।

             परिस्थितियाँ सदैव एक जैसी नहीं रहती, वे प्रारब्धवश बदलती रहती है । दैवसंयोग से एक दिन देवर्षि नारद उसी जंगल से वीणा बजाते हुए नारायण-नारायण का जाप करते हुए जा रहे थे । आज रत्नाकर के सामने किसी राहगीर को लूटने का यह सुबह से प्रथम अवसर था । उसने नारदजी को रोका और पास में जो है, वह सब कुछ सौंपने का आदेश दिया । भला नारदजी जैसे भगवद्भक्त के पास एक वीणा के अतिरिक्त और क्या रहा होगा ? रत्नाकर ने उस वीणा को भी लूटना चाहा । नारदजी ने कहा -“ तुम जो कुछ भी कर रहे हो, वह पापकर्म है । क्या तुम इस पाप का परिणाम जानते हो ? ऐसे कर्म का सदैव ही बुरा परिणाम होता है । यह महान पाप है । तुम किसके लिये यह पाप कर रहे हो ?”

           मनुष्य पापकर्म करता है, अपनी इच्छा से और दोष परिस्थितियों पर मढ़ देता है । जीवन में कोई भी परिस्थिति इतनी जटिल नहीं होती कि उससे बाहर निकलने के लिए व्यक्ति पाप करने को विवश हो जाए । रत्नाकर के लिए तो अपने परिवार के भरण-पोषण करने के लिए लूटपाट करना ही सबसे सुगम था ।

           नारदजी के इस प्रकार प्रश्न करने पर रत्नाकर बोला -“ मुझे अपने परिवार का भरण-पोषण करना है, उसी के लिए यह कर्म कर रहा हूँ ।” नारदजी ने कहा -“ तुम जानते हो न कि यह पापकर्म है और इसका फल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा ।” रत्नाकर ने कहा -“ मैं अकेला ही क्यों भोगूँगा, ये कर्म तो मैं पूरे परिवार के लिए कर रहा हूँ । वे भी इस कर्म के परिणाम को भोगेंगे ।” नारदजी ने कहा कि “तुम मेरी वीणा भले ही ले लो, पर पहले अपने पारिवारिक सदस्यों से पूछ कर आओ कि क्या वे भी तुम्हारे पाप कर्म में भागीदार हैं ?” 

            नारदजी से ऐसा सुनकर रत्नाकर भी सोचने को विवश हो गया । उसने नारदजी को कहा -“तुम कहीं भाग न जाना । मैं अभी अपने पिता, पत्नी और बच्चों को पूछकर आता हूँ कि क्या मेरे द्वारा किए जाने वाले कर्मों के फल के वे भी भागीदार हैं अथवा नहीं ?”

             एक पेड़ से देवर्षि को बांधकर रत्नाकर अपने घर पहुँचा । पिता, पत्नी और बच्चों से वही प्रश्न पूछा जो नारदजी ने उसको पूछा था । उत्तर में सभी ने एक ही बात कही ।”आपके कर्मों के लिए हम तनिक भी ज़िम्मेवार नहीं हैं । हमारा भरण-पोषण करना आपका कर्तव्य है । आप इस कर्तव्य को कैसे निभाते हैं, यह आप जानें ।” उत्तर सुनते ही रत्नाकर के मस्तिष्क में बिजली सी कौंध गई । उसके ज्ञानचक्षु खुल गए । 

              रत्नाकर ने लौटकर देवर्षि के बंधन खोले और उनके चरणों में गिर पड़ा । आज उसे इस सांसारिक जीवन का अमूल्य ज्ञान मिल गया था । जिस रत्नाकर को अपने मुँह से “राम” कहना तक गँवारा नहीं था, वह राम-राम के स्थान पर मरा-मरा जपता था, वही डाकू रत्नाकर भगवान राम पर महाकाव्य ‘रामायण’ लिखकर वाल्मीकि नाम से अमर हो गया । गोस्वामीजी ने मानस में इनके बारे में लिखा है -

      उलटा नाम जपत जेहि जाना । वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना ।।

           हमारे यहाँ ऐसे अनगिनत दृष्टांत मिल जाएंगे, जो सिद्ध करते हैं कि जिसे हम बुरा समझते हैं, वह व्यक्ति केवल बुरा ही नहीं होता, भलाई भी उसके भीतर छिपी रहती है । हमारी दृष्टि एकाकी रूप से क्या देखती है, उसी को हम उसकी वास्तविकता समझ लेते हैं । जब विभिन्न व्यक्तियों की भौतिक दृष्टि भी देखे हुए की एक समान व्याख्या न कर उस दृश्य की भिन्न-भिन्न व्याख्या करती है तो ऐसे में उस दृष्टि से किए गए दर्शन को सत्य कैसे कहा जा सकता है ? इसका अर्थ हुआ कि जो कुछ भी हम अपने नेत्रों से देखते हैं, उस दृष्टि को समग्रता मिलने पर ही हमें वास्तविक दृष्टि प्राप्त होगी अन्यथा तो हम जो कुछ देखते हैं वह सत्य से कोसों दूर ही रह जाएगा ।

         नेत्रों से देखने में स्थान, समय और परिस्थिति की भूमिका रहती है । उस समय, उस स्थान के घटनाक्रम को देखने के स्थान पर हमारे मन के भीतर किसी और विषय का चिंतन चल रहा हो तो हम वहाँ पर उपस्थित रहकर अपने नेत्रों से देखते हुए भी नहीं देख रहे होते हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक घटनाक्रम को देखने के लिए व्यक्ति की मानसिक दशा उसी के अनुरूप होनी चाहिए ।

             भौतिक नेत्रों से देखा गया वास्तव में देखना नहीं होता क्योंकि असत् से केवल असत् को ही देखा जा सकता है सत् को नहीं । जिसको सत् देखना आ गया वास्तव में वही व्यक्ति सही देख रहा है । गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही बात कह रहे हैं । 

            समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।

            विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।। गीता-13/27।।

अर्थात् जो नष्ट होते हुए सभी प्राणियों में परमेश्वर को नाशरहित और समरूप से देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

                 संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब नाशवान है । सभी प्राणियों  के शरीर पदार्थ मात्र है । पदार्थ के परिवर्तनशील और नाशवान होने के कारण शरीर को भी असत् कहा जाता है । असत् इसलिए क्योंकि शरीर अविनाशी नहीं है । जिस क्षण हम अपनी भौतिक दृष्टि से किसी वस्तु अथवा पदार्थ को देखते हैं, उसके दूसरे ही क्षण उसमें परिवर्तन आ जाता है । हमारी आँखें जब तक मस्तिष्क को उस वस्तु को देखने का संदेश भेजती है, तब तक उस वस्तु में परिवर्तन हो जाता है । मस्तिष्क द्वारा जिस स्थिति में वह वस्तु देखी गई है, वास्तव में मस्तिष्क द्वारा देखे जाने तक उस में तनिक सा परिवर्तन हो चूका होता है । हम इस परिवर्तन का संज्ञान लेने में असमर्थ हैं क्योंकि हमें अत्यल्प से परिवर्तन को समझने का अनुभव ही नहीं है ।

          सूर्य प्रतिदिन उदय-अस्त होता है । हम जिस समय सूर्य की स्थिति देख रहे होते हैं वह सूर्य की तात्कालिक स्थिति नहीं होती । सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने में लगभग साढ़े सात मिनट लग जाते हैं । इसका अर्थ है कि सूर्य की स्थिति जो हम अभी देख रहे हैं, वास्तव में साढ़े सात मिनट पूर्व सूर्य उस स्थिति में था । हमारे देखने के समय तो सूर्य उस स्थिति से बहुत आगे बढ़ चुका होता है । 

         इसी प्रकार संसार का प्रत्येक पदार्थ भी प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है । हमारे सौरमंडल का केंद्र यह सूर्य भी एक दिन अपनी समस्त ऊर्जा खो देगा । आज मोक्षदायिनी गंगा जिस प्रवाह से बह रही है, उसका प्रवाहित बने रहना भी एक दिन असंभव हो जाएगा ।

            सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि असत् दृष्टि से सत् को देखा नहीं जा सकता । जिसको सत् को देखना आ जाता है, वही वास्तव में सही देख रहा होता है । गीता का यह श्लोक (13/27) इसी बात को स्पष्ट करता है । भगवान कह रहे हैं कि नष्ट होते हुए सभी प्राणियों में समरूप से स्थित नाशवान परमेश्वर को जो देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

            संसार के समस्त प्राणी नष्ट कैसे हो रहे हैं ? जिसने इस धरा पर जन्म लिया है, उसकी मृत्यु होना अवश्यंभावी है । जिस दिन शरीर पैदा होता है, उसी समय से उसकी मृत्यु होना प्रारम्भ हो जाती है । हम अपने बच्चे का प्रथम, द्वितीय, तृतीय……. आदि अनेकों जन्मदिन मनाकर खुश होते हैं । उस समय हम यह भूल जाते हैं कि बच्चे के शरीर ने मृत्यु की तरफ़ अपना एक कदम और बढ़ा लिया है ।

         शरीर की मृत्यु शरीर में हो रहे परिवर्तन के कारण होती है । शरीर में होने वाला यह परिवर्तन इतनी धीमी गति से होता है कि हमें उसका तत्क्षण भान तक नहीं होता । यह भान तब होता है, जब शरीर की अवस्था परिवर्तित होने लगती है । कल का अबोध शिशु एक दिन बालक बन जाता है । यही बालक युवावस्था पाकर फूला नहीं समाता । वह भूल जाता है कि वह प्रोढ़ावस्था के रास्ते को पार कर एक दिन वृद्ध हो जाएगा और अंततः मृत्यु को प्राप्त होगा ।

         शरीर की इस अवस्था परिवर्तन की कौन समीक्षा करता है, इस शारीरिक परिवर्तन को कौन अनुभव करता है ? जो शरीर में स्थित रहकर अपने शरीर की अवस्थाओं को परिवर्तित होते देख रहा है, वह “मैं” ही वास्तव में देखने वाला है ।  वह “ मैं” ही नाशरहित है, अविनाशी है । मैं युवा हूँ, मैं प्रोढ हूँ, मैं वृद्ध हो गया हूँ आदि कहने वाला “मैं” ही अविनाशी है परंतु शरीर के साथ एकता कर वह उस शरीर के मरने को स्वयं का मरना कह रहा है । शरीर में स्थित यह “मैं” स्वयं को अहंकारवश “मैं” कह रहा है । शरीर से सम्बन्ध न मानने पर इस “मैं” का भी लोप हो जाता है । स्वामीजी कहते हैं कि “मैं हूँ” में से जब “मैं” का लोप हो जाता है तब “हूँ” का भी लोप हो जाता है और शेष केवल “है” रह जाता है । “मैं हूँ” (अहंकार) के मिटते ही शेष केवल “है” अर्थात् परमेश्वर ही रह जाता है ।

             प्राणियों के नष्ट होते जा रहे शरीरों में एक अविनाशी परमेश्वर ही समरूप से स्थित है । ऐसा नहीं है कि मनुष्य में कोई उच्च कोटि का परमेश्वर निवास करता है और मच्छर में निम्न कोटि का । प्राणियों के सभी शरीरों में एक ही परमेश्वर समान रूप से स्थित है । जो व्यक्ति सभी नाशवान प्राणियों में समान रूप से स्थित एक अविनाशी परमात्मा को देखता है, वास्तव में वही सही देखता है । 

             हम देखने में गलती कहाँ करते हैं ? हम गलती करते हैं कि रूप, नाम और आकार को ध्यान में रखते हुए प्राणियों को देखते हैं । यह गधा है, यह घोड़ा है, यह पुरुष है, यह स्त्री है, यह ब्राह्मण है, यह शूद्र है आदि । हम सभी प्राणियों का केवल बाहरी स्वरूप देखते हैं, उनके भीतर प्रवेश कर वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाते । जब तक हम स्वयं अपने स्वरूप तक नहीं पहुँचेंगे, तब तक सभी प्राणियों में परमात्मा को नहीं देख पाएंगे । स्वयं के स्वरूप तक पहुँचने के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । 

             प्रश्न उठता है कि सभी प्राणियों में समरूप से स्थित अविनाशी परमेश्वर को देखने के लिए ज्ञान का होना क्यों आवश्यक है ? मनुष्य और अन्य जीवों में अन्तर केवल मनुष्य की विकसित बुद्धि के कारण ही है । सभी जीव भोग योनि के अन्तर्गत है, जबकि मनुष्य जीवन, भोग के साथ- साथ योग के लिए भी है । योग होता है, सत् के साथ और भोग होता है असत् के साथ । अन्य प्राणी पशु आदि भोग में ही मस्त रहते हैं, योग करना उनकी बुद्धि से परे की बात है । योग के लिए विकसित बुद्धि की आवश्यकता होती है, जोकि मनुष्य के पास जन्मजात है । स्वयं को जानने के लिए विषयों के प्रति अनासक्त होकर मन को नियंत्रित करना पड़ता है । मन के नियंत्रित होते ही बुद्धि मुक्त होकर विचार को जन्म देती है जो मनुष्य को विवेकी बना देती है । स्वतंत्र बुद्धि में जब ज्ञान उपजता है, तब वही ज्ञान विवेक कहलाता है । विवेक का सदुपयोग कर मनुष्य स्वयं को जान सकता है । इसे ही मनुष्य द्वारा आत्मज्ञान की अवस्था को प्राप्त होना कहते हैं ।

         मनुष्य अपने शरीर और अपने बनाए संसार में आसक्त होकर स्वयं के स्वरूप से दूर होता जाता है । शरीर और संसार के साथ मोह रखना ही उसका अज्ञान है । पूर्व में मैंने जो दैव और आसुरी सम्पदा के बारे में बात की थी, उसमें विशेष बात यही है कि आसुरी संपदा युक्त व्यक्ति मोह के जाल में फँस जाता है । भोग और संग्रह में रत ऐसे मनुष्य विभिन्न चिंताओं से घिरे रहते हैं और इसी संसार को सत्य मान लेते हैं । भोग और संग्रह का मोह कामना पैदा करता है जिससे आसुरी स्वभाव वाला मनुष्य पाप करने को विवश हो जाता है । यह पाप उस मनुष्य को कहाँ तक ले जा सकता है, इसको स्पष्ट करते हुए भगवान गीता में कहते हैं -

    अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता: ।

    प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।। गीता-16/16।।

अर्थात् कामनाओं के कारण तरह-तरह से भ्रमित चित्तवाले, मोहजाल में अच्छी तरह फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगों में अत्यंत आसक्त रहने वाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं ।

            स्वर्ग और नर्क इसी धरती पर ही हैं । चिंता जो हृदय के भीतर जलन पैदा करती है, वह क्या नर्क की अग्नि में जलने से कम है ? भ्रमित चित्त वाला इस संसार में रहते हुए भी संयोग से प्राप्त हुए पदार्थों से सुख प्राप्त करने से चूक जाता है । जो उपलब्ध है, उससे सुख तभी लिया जा सकता है जब मन के भीतर और अधिक प्राप्त करने की कामना नहीं हो । आत्म-संतुष्टि ही स्वर्ग है । असंतुष्ट जीवन ही नारकीय जीवन है । शरीर छोड़ने के बाद नर्क मिलेगा अथवा स्वर्ग, भला जीतेजी कोई बता सकता है ? स्वर्ग अथवा नर्क को प्राप्त व्यक्ति लौटकर आ नहीं सकता और जीतेजी वहाँ कोई जा नहीं सकता । इसलिए इसे ही सत्य मान लें और स्वीकार कर लें कि इस जीवन में जो भी स्वर्ग अथवा नर्क भोगोगे, शरीर के चले जाने पर वही आगे भी तैयार मिलेगा ।

              हमारे ऋषियों ने स्वर्ग-नर्क की कल्पना यूँही नहीं की है । उन्होंने अपने जीवनकाल में विभिन्न मनुष्यों के जीवन का बड़ी गंभीरता से अवलोकन और अध्ययन किया है । यहीं इसी धरा पर उन्होंने मनुष्यों को स्वर्ग-नर्क को भोगते देखा है । उन्होंने देखा है कि कर्मों के अनुसार ही मनुष्य के साथ ऐसा होता है । जब कुछ काम्य कर्मों का परिणाम इसी जीवन में तत्काल मिल सकता है, तो संचित कर्मों का भविष्य में कैसा परिणाम मिलेगा, कल्पना की जा सकती है । स्वर्ग-नरक की कल्पना का मुख्य आधार यही है ।

                भगवान गीता में कहते हैं, “क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु” (गीता-16/19) अर्थात् मैं उन्हें (पापाचारियोंको) बार-बार आसुरी योनियों में गिराता रहता हूँ । आसुरी योनि में जन्म लेना ही नरक भोगना है । सभी प्राणियों की योनियां ‘भोग-योनि’ कही जाती है । प्रत्येक विषय-भोग, मनुष्य जीवन के कर्मों का परिणाम होता है । जैसा भोग होगा, उसी प्रकार का उस प्राणी का जीवन होगा । केवल मनुष्य नाम का एक मात्र जीव ऐसा है, जिसकी योनि, भोग योनि के साथ-साथ योग-योनि भी है । दुर्भाग्यवश आसुरी सम्पदा की बहुलता और उसके प्रभाव के कारण उसकी यह मनुष्य योनि भी केवल भोग-योनि बनकर रह जाती है अन्यथा तो परमात्मा से योग करने के लिए ही उसे यह जीवन मिला ही है ।

         मैं ‘मोह’ को मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी कहता हूँ । यह त्रासदी इस मायने में है कि मोह के कारण मनुष्य स्वयं के बारे में सोचना बंद कर अपने शरीर और संसार के बारे में सोचने लग जाता है । आपका यह शरीर और आपके द्वारा रचित यह संसार, किसी दलदल से कम नहीं है । इस दलदल में जब आकण्ठ डूब जाते हो तब अनुभव होता है कि हम बुरी तरह फँस गए हैं । फँसे सो तो फँसे, परंतु इस दलदल से बाहर निकलने के प्रयास में और अधिक फँसते जा रहे हैं । 

                  मोह में अधिक से अधिक फँसते जाने का कारण है कि हम इस दलदल से बाहर निकलने के लिए सहारा भी दलदल में जो पहले से ही फँसे पड़े हैं, उनका ले रहे हैं । जैसे कीचड़ से कभी कीचड़ को साफ़ नहीं किया जा सकता उसी प्रकार असत् से बाहर असत् के सहारे नहीं निकला जा सकता । संसार की सारी क्रियाएं असत् है । असत् से बाहर निकलने और सत् तक पहुँचने के लिए हम उन्हीं क्रियाओं का सहारा ले रहे हैं, जोकि असत् है । क्रियाएं असत् प्रकृति में होती है, सत् तो अक्रिय है । समस्त क्रियाओं के शान्त होने पर ही सत् की प्राप्ति होगी अन्यथा नहीं ।

                     एक दृष्टांत के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ । एक सेठजी थे । उनका प्रतिदिन का नियम था कि पण्डितजी से भागवत कथा सुना करते थे । कथा में प्रतिदिन कोई न कोई ऐसा प्रसंग आ जाता था, जो वैराग्य के लिए प्रेरित करने वाला होता था, जैसे चित्रकेतु-अंगिरा, नारद संवाद, ययाति प्रसंग आदि । कथा के अंत में पण्डितजी सेठ को पूछते - “सेठजी, कुछ समझे ?” सेठ कहता - “पण्डितजी, आप ही समझ लो ।” सेठ-पण्डित के मध्य प्रतिदिन इस प्रकार के संवाद का नियम सा बन गया था । कथा समाप्त कर पण्डितजी अपनी दक्षिणा लेकर पोथी समेटते और घर चले जाते ।

            एक दिन पण्डितजी कथा करने सेठ के यहाँ नहीं पहुँचे । सेठ कथा सुनकर ही दुकान जाता था । आज पण्डितजी के आने में देरी होते देखकर सेठ ने अपने नौकर को उन्हें लिवाने भेजा । नौकर जब पण्डितजी के घर पहुँचा तो पंडिताइन मिली । उसने पंडिताइन से पण्डितजी के बारे में पूछा । पंडिताइन ने कहा कि वे तो सुबह-सुबह ही जंगल की तरफ़ निकल गए और जाते-जाते कह गए कि सेठजी के यहाँ से कोई बुलाने आए तो कहला देना कि उन्हें भागवत-कथा समझ में आ गई है ।

        कथा करना, कथा कहना और कथा सुनना हमारे यहाँ की परम्परा है । ऐसी कथा की परम्परा तब तक केवल क्रिया मात्र है जब तक उस कथा का प्रभाव जीवन में परिलक्षित नहीं होता । सेठजी-पण्डितजी की इस कथा का मर्म यह है कि हम सत् तक पहुँचने की कितनी ही क्रियाएं कर लें, जब तक असत् की कामना मन से दूर नहीं होगी तब तक सत् की झलक तक नहीं मिलेगी । मूल बात एक ही है कि हमें सत् तक पहुँचना है । असत् के सहारे हम सत् तक कभी नहीं पहुँच सकते । असत् का त्याग ही हमें सत् तक पहुँचा सकता है । मोह, असत् की सत्ता को प्रगाढ़ करता है । हमारे इस मोह ने ही संसार को सत्ता प्रदान की है ।

               मोह के कारण ही “मैं और मेरा” की भावना पैदा होती है । “अहंता और ममता” का जनक हमारा मोह ही है । मोह के कारण ही हमें कोई अपना दिखाई पड़ता है और कोई दूसरा जबकि यहाँ कोई और नहीं है, कोई ग़ैर नहीं है । अपना और पराया देखना वास्तव में सही देखना नहीं है । “कोई और नहीं, कोई ग़ैर नहीं”, ऐसा दिखना ही सही है ।”य: पश्यति स पश्यति” कहने का अर्थ यही है, सबमें एक अविनाशी परमेश्वर को देखना ।

         मोह ही काम, क्रोध और लोभ का जनक है । इन तीनों (काम, क्रोध और लोभ)  को नरक का द्वारा कहा जाता है । शास्त्रों में इन तीनों का त्याग करना बताया गया है । इन तीनों के त्याग के लिए आवश्यक है कि हम मोह-जाल से मुक्त हों । मोह ही मनुष्य के बंधन का मूल कारण है । मोह कोई एक स्थान अथवा क्षेत्र तक सीमित हो तो कोई बात नहीं परंतु यह मोह तो प्रत्येक क्षेत्र में हो सकता है । हम पहले दो क्षेत्रों (संसार और शास्त्र) के मोह की बात करते हैं । मोह सांसारिक और शास्त्रीय दो प्रकार के मुख्य हैं । दोनों ही प्रकार के मोह मनुष्य को अपने बंधन में जकड़ लेते हैं, फिर उसका मुक्त होना लगभग असंभव हो जाता है । आप सोचते होंगे कि शास्त्रों की ऊँची-ऊँची बातें करने वाले मुक्त हैं । नहीं, आपकी सोच ग़लत है । शास्त्रीय मोह तो सांसारिक मोह से भी अधिक ख़तरनाक है ।

            सांसारिक मोह में बंधा व्यक्ति तो शास्त्र और सन्त की शरण में जाकर मुक्त हो सकता है परन्तु शास्त्रीय मोह में बंधा व्यक्ति मुक्त होने के लिए जाये तो कहाँ जाये ? शास्त्रों को पढ़कर जो ज्ञान व्यक्ति को प्राप्त होता है, वह ज्ञान उसमें अहंकार पैदा करता है । इस अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को सबसे बड़ा ज्ञानी समझने लगता है । यह अहंकार ही उसके बंधन का कारण है जो जीतेजी उसे मुक्त नहीं होने देता । शास्त्रों से ज्ञान लेकर आप अच्छे और कुशल वक्ता, लेखक आदि बन सकते हैं, शास्त्रार्थ कर विजयी हो सकते हैं परन्तु मुक्त नहीं हो सकते क्योंकि मुक्ति के लिए अहंकार-शून्य होना आवश्यक है । ज्ञान से उत्पन्न हुआ अहंकार किसी शास्त्र मर्मज्ञ और अनुभवी सन्त की शरण में जाने से ही दूर हो सकता है अन्यथा नहीं । 

               प्रश्न उठता है कि हमारा यह मोह दूर कैसे हो ?  भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में मोह से मुक्त होने के मुख्य रूप से तीन मार्ग बताए हैं, जिन्हें योग कहकर सम्बोधित किया गया है । ये तीन मार्ग हैं - कर्म-योग, ज्ञान-योग और भक्ति- योग । तीनों ही योग में ज्ञान की भूमिका कमोबेश रहती ही है । भक्ति-योग में मुख्यता परमात्मा के प्रति शरणागत हो जाने की है । 

       कर्म-योग में संसार की सेवा के लिये कर्म किए जाते हैं और स्वयं की प्रत्येक चाहना (कामना) का अन्त करना होता है । ज्ञान-योग में संसार और शरीर के प्रति अनासक्त होना पड़ता है । विवेक का सदुपयोग कर प्रत्येक प्रकार की आसक्ति से दूर हुआ जा सकता है । भक्ति-योग में श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु की शरण में जाना होता है । परमात्मा के प्रति आस्था इतनी दृढ़ होनी चाहिए कि ममता के समस्त बंधन तोड़कर एक ही बात मन में रहे कि केवल भगवान ही मेरे हैं । मोह- निवृत्ति के जितने अन्य उपाय हैं, वे सभी साधन इन तीनों के अन्तर्गत आ जाते हैं ।

                 तीनों योग जिस प्रकार से मनुष्य की मोह-निवृत्ति करते हैं, उससे मुख्य रूप से एक ही बात निकलकर सामने आती है कि सर्वत्र और सबमें एक परमात्मा को देखना ही इनका आधार है । मोह में होता है, सब प्राणियों को अलग-अलग देखना । इस प्रकार देखना ही व्यक्ति को काम, क्रोध और लोभ में फँसा देता है । कहा जाता है कि मोह व्यक्ति को लूला-लंगड़ा कर देता है । मनुष्य को काम अंधा, क्रोध बहरा और लोभ गूँगा बना देता है । जब व्यक्ति मोह के कारण इन तीन विकारों में फँसता है, तब उसके  मस्तिष्क की सोचने-समझने की क्षमता (बुद्धि) नष्ट हो जाती है, तभी तो व्यक्ति अंधा, लंगड़ा, गूँगा और बहरा हो जाता है ।

                मस्तिष्क की सोचने, समझने और विचार करने की क्षमता बुद्धि के पास होती है । मोह के कारण बुद्धि की कमान (control) मन के पास चली जाती है जिसके कारण व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है । जितने भी विकार शरीर में प्रवेश करते है, वे सब मन के रास्ते ही करते हैं । विकार स्वरूप में आ ही नहीं सकते । विकारों से मुक्त होने के लिए मन से बुद्धि को मुक्त कराना आवश्यक है । मनुष्य के समक्ष आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियां इसमें मुख्य भूमिका निभाती है । प्रतिकूल परिस्थिति से मुक्त होने का विचार ही बुद्धि को मन से अलग करता है और इसी से विवेक के जाग्रत होने की संभावना बढ़ जाती है । विचार, बुद्धि में विवेक को उत्पन्न करता है और विवेक का सदुपयोग कर मनुष्य मोह से मुक्त होता है ।

                 विवेक से ही व्यक्ति को आत्म-अनात्म का ज्ञान होता है । शरीर और संसार अनात्म है । अनात्म में ही विकार होते हैं, आत्म में नहीं । इसे ही आत्मज्ञान को उपलब्ध होना कहा जाता है । आत्मज्ञान को प्राप्त हुआ व्यक्ति फिर सांसारिक दृष्टि से देखते हुए भी सबको अलग-अलग न देखकर सबमें एक परमात्मा को ही देखता है । कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग, ये तीन तभी सिद्ध होते हैं जब व्यक्ति कम से कम इतने ज्ञान को तो उपलब्ध हो जाए अन्यथा न तो उससे संसार की सेवा होगी, न वह अनासक्त हो पाएगा और न ही परमात्मा के प्रति समर्पित होगा ।

           मोह निवृत्ति के मुख्य रूप से जो तीन साधन अर्थात् योग बताए गए हैं, उनका परिणाम तो एक ही होता है परंतु प्रक्रिया में भिन्नता होती है । परिणाम होता है, संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो जाना । संसार को जानने से मोह की निवृत्ति होती है । जब व्यक्ति का मोह दूर हो जाता है, तब वह जो देखता है, वही वास्तव में उसका सही देखना है ।

         हम लोग प्रायः इन तीनों योग की तुलना करते हुए भ्रमित हो जाते हैं । इसी भ्रम के कारण विवाद तक उत्पन्न हो जाते हैं । कोई भक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करता है तो कोई ज्ञान को । ऐसे विवाद में फँसकर हम भी मोहित हो जाते हैं और सब अपने ही कथन को सही बताने लगते हैं । महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कौन सा योग सर्वश्रेष्ठ है, महत्वपूर्ण है कि आप किस योग-मार्ग के लिए स्वयं को उपयुक्त मानते हैं । जिस योग से आपकी मोहनिवृति हो जाए, आपके लिए वही योग श्रेष्ठ है ।

          कर्म में “करना” महत्वपूर्ण है, ज्ञान में “जानना” महत्वपूर्ण है और भक्ति में “मानना” महत्वपूर्ण है । करके भी जाना और माना जा सकता है, जानकर भी करना और मानना हो सकता है तथा मानकर भी करना और जाना जा सकता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि ये तीनों अर्थात् करना, जानना और मानना, आपस में एक दूसरे से संबंधित भी है और एक दूसरे के सहयोगी भी । इसलिए इन तीनों योग के विषय में किसी प्रकार के विवाद का कोई स्थान नहीं है ।

          विवाद का कारण हमारा अहं-भाव है और इस अहं-भाव का कारण हमारा करने और जानने का राग है । “मानने” में अहं का कोई स्थान ही नहीं है, अतः इसमें अहंकार पैदा होने का कोई प्रश्न ही नहीं है । सीधा “मानना” भक्ति योग में ही होता है इस लिए भक्ति योग को शेष दोनों योगों से श्रेष्ठ कहा जाता है ।

          भक्ति-योग में जब परम को मान लिया जाता है, तब मोह के बियावान से बाहर निकला जा सकता है । गणित के अनसुलझे प्रश्न को सुलझाने के लिए हमें सर्वप्रथम कुछ न कुछ मानना पड़ता है । उस माने गये के आधार पर हम कुछ समीकरण का उपयोग “करते” हुए उस प्रश्न के उत्तर को “जान” लेते है । जैसे प्रश्न हो कि ‘राम ने अपनी पूँजी में से एक तिहाई अपने मकान की मरम्मत में लगा दिये, पाँचवा भाग बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर दिए और एक चौथाई भाग घर खर्च में लगा दिए । अब उसके पास शेष पूँजी बीस हज़ार ही बची है तो उसके पास कुल पूँजी कितनी थी ?’ 

        इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिये हम उसकी कुल पूँजी “X” मान लेते हैं । यह मानना हुआ । फिर इसकी आगे गणना करते हैं, यह “करना” हुआ । अंत में जो “X” का परिणाम मिलता है, वह उस “X” को “जानना” हुआ । इस प्रकार हम पहले मानते हुए कुछ करते हैं और अंत में माने हुए को जान लेते हैं । ठीक ऐसा ही भक्ति-योग है । 

          भक्ति योग में माने हुए को निष्काम कर्म करते हुए जान लिया जाता है । इसी प्रकार कर्मयोग में संसार की सेवा करते हुए जान लिया जाता है जिससे अंततः परम को मानना हो जाता है । ज्ञानयोग में जानने का प्रयास करते हुए ज्ञान प्राप्त कर नैष्कर्म्यता को उपलब्ध हुआ जाता है और अंततः परमात्मा की स्वीकार्यता हो जाती है ।

       सबसे महत्वपूर्ण बात - कर्मयोग और ज्ञानयोग, दोनों में परिश्रम और पराश्रय (दूसरे पर निर्भरता) है जबकि भक्तियोग में इन दोनों की आवश्यकता नहीं है । भक्तियोग में विश्राम और भगवद् आश्रय (आत्म-निर्भरता) है । 

          भक्तियोग में सीधा परमात्मा से संबंध बनता है जबकि ज्ञान और कर्मयोग में संसार से सम्बन्ध विच्छेद करना होता है । कर्म और ज्ञानयोग में संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिए साधन करना आवश्यक है । हम परमात्मा के अंश है, इसलिए परमात्मा से सम्बन्ध बनाने में किसी प्रकार का प्रयास आवश्यक नहीं है । इस प्रकार स्वतः सिद्ध है कि भक्तियोग में किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता नहीं है ।

        भक्तियोग की स्वतंत्रता निर्विवाद है । अब प्रश्न उठता है कि ज्ञानयोग और कर्मयोग, इन दोनों में कौन सा योग श्रेष्ठ है ?  भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं -

यत्सांख्यै प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं सांख़्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति ।।5/5।।

अर्थात् सांख्ययोगियों के द्वारा जो तत्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग को एक देखता है, वही ठीक देखता है ।

      ज्ञानयोग और कर्मयोग, दोनों का फल एक ही होता है - संसार से सम्बन्ध विच्छेद । संसार से सम्बन्ध विच्छेद का अर्थ यह नहीं है कि संसार छोड़कर कहीं दूर निकल जाएँ । कहीं दूर भी चले जाओगे, तो वहाँ भी संसार साथ रहेगा । मैं आपके भीतर रचे-बसे संसार की बात कर रहा हूँ । आपके भीतर का संसार शून्य हो गया है, तो संसार में रहते हुए भी आपका संसार से सम्बन्ध विच्छेद है । संसार के मोह से दूर हो जाना, संसार में अनासक्त भाव से रहना ही संसार से संबंध विच्छेद करना है ।

              ज्ञान की उपलब्धि मनुष्य को संसार की नश्वरता का ज्ञान करा देती है, जिससे वह अपने जीवन में कामशून्य हो जाता है अर्थात् फिर उसके भीतर कामनाएँ जन्म नहीं लेती । कर्मयोग में मनुष्य स्वयं के लिए कर्म करना छोड़ देता है, जिसके फलस्वरूप उससे केवल निष्काम कर्म ही होते हैं । निष्काम कर्म में सबकी सेवा है जो संसार से सम्बन्ध विच्छेद करवा देती है ।

          संसार में जितने भी कर्म होते हैं, वे काम के वशीभूत होकर किए जाते हैं । ऐसे ही कर्म हमें संसार के साथ बाँधते है । संसार असत् है । शरीर भी असत् है । अंतःकरण में केवल बुद्धि ही ऐसी है, जिसमें विवेक जाग्रत होकर असत् को सत् का ज्ञान करा सकता है । ज्ञान होते ही मनुष्य सच्चिदानन्द स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है ।

               शरीर और संसार असत् है । शरीर के भीतर बुद्धि भी असत् है । बुद्धि असत् के अन्तर्गत अवश्य है परंतु असत् बुद्धि सत् के कारण ही क्रियाशील होती है । इस प्रकार असत् बुद्धि भी सत् की कृपा से सक्रिय होकर विवेक को जाग्रत करती है । विवेक के माध्यम से ही व्यक्ति सत् तक पहुँचता है । सत् तक पहुँचने का अर्थ है, स्वयं को जानना । व्यक्ति स्वयं शरीर नहीं है, यह जानना उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है । शरीर से भिन्न केवल परमात्मा है । वे परमात्मा ज्ञानमय है और उनका स्वरूप सच्चिदानन्द है । शरीर से आसक्ति हटते ही हमें स्वयं के भी सच्चिदानन्द होने का ज्ञान हो जाता है ।

             परमात्मा सच्चिदानन्द है । सत्+चित्त+आनन्द=सच्चिदानन्द । इस प्रकार कहा जा सकता है कि परमात्मा सत् हैं, चैतन्य है और आनन्द स्वरूप है । परमात्मा सत्य है कहने का अर्थ है कि परमात्मा का अस्तित्व (existence) है । परमात्मा चैतन्य हैं अर्थात् वे अक्रिय होते हुए भी चैतन्य (activated) हैं । परमात्मा आनन्द स्वरूप हैं अर्थात् उनमें सुख-दुःख नहीं है, केवल आनन्द हैं अर्थात् वे आनन्दमय (pleasureful) है । जीवात्मा को परमात्मा का अंश कहा जाता है अर्थात् जीवात्मा का स्वरूप भी वही है, जोकि परमात्मा का है ।

            जीवात्मा जब परमात्मा का अंश है तो फिर वह सुखी-दुःखी क्यों होता रहता है, उसको तो सदा ही आनन्दित रहना चाहिए । सत् का अंश होते हुए भी वह असत् संसार और शरीर के प्रति आसक्त हो गया है और स्वयं को असत् ही समझने लगा है । उसकी यह समझ ही उसे मोहग्रस्त कर देती है । मोह के दलदल से वह तभी निकल पाएगा जब कोई उसे सत् होने का ज्ञान करा दे । असत् जो कुछ भी देखता है, वह सही देखना नहीं है । इसलिए असत् दृष्टि से सत् को नहीं देखा जा सकता।

                 सत् को सत् से ही देखा जा सकता है । इसके लिए ज्ञानदृष्टि का विकसित होना आवश्यक है । फिर उस दृष्टि से जो देखना होगा, वह वास्तव में सही देखना होगा । ज्ञानदृष्टि ही हमें स्वरूप का ज्ञान कराती है । गीता-ज्ञान सुनना प्रारम्भ करने से पूर्व अर्जुन के पास केवल असत् दृष्टि थी, तभी तो वह पारिवारिक मोह के दलदल में फँसा हुआ था । उस मोहरूपी  दलदल से बाहर निकलने के लिए साक्षात् परमात्मा (सत्) ने ही उसको ज्ञानदृष्टि दी । कहने का अर्थ है कि अर्जुन को सत् तक पहुँचाने के लिए सत् को ही आना पड़ा । असत् से असत् का ही ज्ञान हो सकता है, सत् का नहीं । तभी सांसारिक व्यक्ति ज्ञान कितना ही दे दे अथवा ले ले, उसकी मोह से निवृत्ति तब तक नहीं होगी जब तक कोई निर्मोही आकर उसे ज्ञान न करा दे ।

             मनुष्य को उसके जीवन-काल में प्रकृति के विभिन्न रूप और नाम उसको आकर्षण प्रदान करते हैं । इसमें प्रकृति के तीन गुणों की भूमिका रहती है । प्रकृति के उस आकर्षण से मनुष्य प्रभावित होकर संसार के साथ तादात्म्य कर लेता है । इस स्थिति में आकर उसे संसार ही सत्य नज़र आने लगता है । यही उसका अज्ञान है । इसी अज्ञान को उसका मोह कहा जाता है । मोह के कारण वह “मैं,मेरा” के बंधन में बंध जाता है । जब तक उसकी दृष्टि परिवर्तित नहीं होगी, वह इस बंधन से मुक्त नहीं हो सकता ।

         मनुष्य की विडम्बना है कि वह सभी प्राणियों के भौतिक शरीर के एक समान तत्वों को, उसमें स्थित एक समान अवयवों को और उस शरीर में हो रही एक समान क्रियाओं को देखकर भी वह यह समझ नहीं पाता कि परमात्मा ने सबको एक समान ही बनाया है । वह केवल शरीर की भिन्न-भिन्न आकृतियों को, भिन्न-भिन्न रूपों और नामों को देखकर उनमें भेद कर उलझ गया है । सभी प्राणी परमात्मा की कृतियाँ है, उन्हीं के अंश हैं क्योंकि वह स्वयं विभिन्न शरीरों के भीतर बैठकर उनको संचालित कर रहा है ।

               ज्ञान को उपलब्ध होते ही मनुष्य स्वयं के सहित सभी प्राणियों में स्थित परमात्मा को देखने लगता है । “वासुदेव: सर्वम्” को देखना ही सही देखना है । फिर यह-वह, मैं-तुम, उच्च-निम्न आदि सभी का लोप हो जाता है और सर्वत्र एक परमात्मा ही हैं, इसका अनुभव होता है । इस अवस्था को प्राप्त कर मनुष्य को परमात्मा के अतिरिक्त कोई अन्य दिखलाई नहीं पड़ता । इस प्रकार का देखना ही सही देखना है । 

            जब सब कुछ परमात्मा ही है, तो किसमें तो राग हो और किससे द्वेष; फिर न तो कोई और है, न कोई ग़ैर । जब शरीर के आधार पर भेद समाप्त हो जाता है तब व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा तक पहुँच जाता है । मानस में कहा गया है -“ जानत तुम्हहि तुमई होई जाइ” । वाल्मीकिजी अपने आश्रम में पधारे भगवान श्रीराम को कहते हैं कि हे प्रभु ! जो आपको जान जाता है, वह स्वयं “आप” ही (परमात्मा) हो जाता है ।

                    जीवात्मा एक है, एकदम परमात्मा की तरह । कोई भेद नहीं है जीवात्मा और परमात्मा में । भेद है, दृष्टि का, जो सदैव दृश्य की तरफ़ आकर्षित होती है । जिस शरीर को जीवात्मा अधिग्रहीत करती है, उस शरीर का होना भी परमात्मा से है । अधिग्रहण करने वाला और अधिग्रहित होने वाला, दोनों को भौतिक दृष्टि से देखें तो एक ही प्रतीत होते हैं । अधिग्रहणकर्ता (जीवात्मा) अधिग्रहित (शरीर) को ही स्वयं (मैं) होना मान लेता है, जबकि दोनों में भिन्नता है । ऐसी दृष्टि ही मनुष्य को संसार के साथ बाँधती है क्योंकि वह सभी प्राणियों को अलग-अलग देखती है । यह अपना है, यह पराया है । इसलिए भौतिक दृष्टि का देखना सत्य नहीं है ।

            बाहर की दृष्टि अज्ञान दृष्टि है क्योंकि वह असत् शरीर के असत् नेत्रों से मिलती है । भीतर की दृष्टि ज्ञान-दृष्टि है । सुषुप्ति की अवस्था में वह दबी रहती है परंतु जब यह जाग्रत होती है, तब भौतिक दृष्टि से देखे गए दृश्य का सूक्ष्मता से अवलोकन करती है और असत् का त्याग कर सत् को स्वीकार करती है । अधिग्रहित असत् है, अधिग्रहणकर्ता सत् है । शरीर नाशवान है, जीवात्मा अविनाशी है । शरीर असत् है, जीवात्मा सत् है । शरीर जो कुछ भी करे, उसमें जीवात्मा की कोई भूमिका नहीं है । जीवात्मा न तो कर्ता है और न भोक्ता । फिर शरीर में आए परिवर्तन, क्षरण और विनाश से उसको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला क्योंकि वह स्वयं अविनाशी है । ऐसा देखना ही वास्तव में सही देखना है ।

            जीवात्मा भिन्न-भिन्न शरीरों में व्याप्त होते हुए भी भिन्न-भिन्न न होकर एक ही है । अथाह जल के भीतर जल से भरे घड़ों की आकृति, नाम और रूप-रंग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं परंतु सबमें जल एक समान भरा होता है । घड़े के बाहर-भीतर सब जगह एक जल ही जल है । यह देखना ही सही देखना है । भिन्न-भिन्न शरीरों के भीतर एक परमात्मा ही रहते है, जिसकी दृष्टि ने इसको समझ लिया, वही वास्तव में सही देख रहा है ।

 समं सर्वेषु भूतेसर्वेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।

 विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।। गीता-13/27।।

अर्थात् जो नष्ट होते हुए सभी प्राणियों में परमेश्वर को नाशरहित और समरूप से देखता है, वही वास्तव में सही देखता है ।

           इसी श्लोक के साथ यह लेखमाला समाप्त होती हैं । इस यात्रा की अवधि में साथ बने रहने के लिए आपका हृदय से आभार ।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल