मामनुस्मर युध्य च
कुछ समय पहले ही हमने ‘यज्ञ’
विषय पर गहन चिंतन किया था | उस विवेचन का निष्कर्ष था कि जीवन में यज्ञार्थ कर्म करते
हुए परमात्मा के द्वार तक पहुंचा जा सकता है | मनुष्य के जीवन की समस्या कर्म करना नहीं है बल्कि उसकी समस्या है जीवन
में यज्ञार्थ कर्म करना | जिस किसी प्राणी ने इस संसार में जन्म लिया है, वह कर्म
करने को विवश है | विवशता इसलिए कि पूर्व मानव जीवन में कर्म करते हुए उसका कर्म
करने का स्वभाव बन गया है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी तो कर्म करते हुए उनके
फल भोगकर उन कर्मों से मुक्त होते जाते हैं परन्तु मनुष्य को तो अपने जीवन में एक
से बढकर एक नए विषयों का सुख चाहिए और उसकी यह लालसा ही उसे कर्मों के जाल में इतना
अधिक उलझा देती है कि केवल एक जीवन में उससे मुक्त होना संभव नहीं हो सकता | ऐसे
में उसे फिर 84 लाख योनियों में भटकते हुए अपने द्वारा किये गए कर्म नष्ट करने
पड़ते हैं और सभी योनियों के अंत में जाकर के कहीं उसे पुनः मनुष्य योनि मिलती है |
पुनः मनुष्य योनि मिलने से भी क्या उसकी समस्या का निराकरण हो जायेगा ? नहीं होगा
क्योंकि 84 में भटकते भटकते वह अपने पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के जाल
में उलझने की घटना को पूर्णतया विस्मृत तक कर चूका होता है |
प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य जीवन के कारण ही क्या
हम 84 में भटकने को विवश हैं ? जी हाँ, यह शतप्रतिशत सत्य है | इसका अर्थ हुआ कि
फिर इसके विपरीत भी तो होना संभव हो सकता है | जिस प्रकार आँगन से सीढ़ियों के
माध्यम से ऊपर छत पर जाया जा सकता है उसी प्रकार इन्हीं सीढ़ियों के माध्यम से ऊपर
से नीचे भी तो आया जा सकता है | इस बात पर हमें ध्यान देना है कि एक ही प्रकार की सीढ़ियों
का उपयोग ऊपर और नीचे, दोनों ही ओर जाने के लिए किया जा सकता है | हमारा मन ही वह
सीढ़ी है जो हमें उत्थान और पतन, दोनों ही ओर ले जा सकती है | हमें मन का इस प्रकार
सदुपयोग करना है कि वह केवल उत्थान की सीढ़ी बनकर रह जाये और पतन की ओर ले जाने वाले
उसके सभी दरवाजे सदैव के लिए बंद हो जाएँ |
यदि हम मन के उत्थान वाले
रस्ते का उपयोग करें तो वह केवल एक ही ओर जाने वाला रास्ता (One way) बन सकता है |
परमात्मा का स्मरण केवल उत्थान की ओर ले जाने वाली सीढ़ी है, पतन की ओर ले जाने
वाली नहीं है | हमें परमात्मा का स्मरण करना है और साथ ही अपने जीवन में कर्म भी
करते रहना है तभी हम इन विभिन्न योनियों में भटकने से बच सकते हैं | मनुष्य का
जीवन मिला है, अपने मूल स्रोत तक पहुँचने के लिए, अपना स्वरुप पहचानने के लिए
अर्थात आत्म-बोध के लिए | हमारा मूल स्वरुप है सच्चिदानंद अर्थात परमात्मा | अतः
उस परमात्मा के स्वरूप का सतत स्मरण करते रहना ही हमें अपने मूल स्वरूप तक पहुंचा
सकता है |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
उद्धरेदात्मनात्मानं
नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो
बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः || गीता- 6/5 ||
अर्थात मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि
यह मनुष्य स्वयं ही तो अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है |
हम स्वयं ही तो अपने मित्र
हैं और स्वयं ही अपने शत्रु | मन को नियत्रण में रखकर उसे भटकने न दें, उसको विषय
भोगों की ओर दौड़ने न दें तभी हम स्वयं के मित्र बन जाते हैं और अगर इसी मन को
स्वेच्छाचारी बना दिया तो फिर हम स्वयं ही अपने शत्रु हो जाते हैं | मित्र आपको
उत्थान की ओर ले जाता है और शत्रु आपको पतन की ओर |
एक-एक सोपान चढते हुए
अपना उत्थान करना है अथवा उन्हीं सोपान से नीचे आकर अधोगति को प्राप्त होना है, मनुष्य
को अपने जीवन में यही निश्चय करना है | उत्थान की ओर जाना है, ऐसा निश्चय करने में
कर्म की भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि कर्म ही ऊँची-नीची योनियों में जाने का कारण
बनता है | किसी भी प्रकार के निश्चय को करने में मनुष्य के लिए स्वयं का विवेक
उपयोगी है | इस प्रकार मनुष्य के द्वारा स्व-विवेक से कर्म निश्चित करना हुआ ज्ञान
योग और निश्चित किये हुए शास्त्रीय कर्म को करना हुआ कर्म योग | परन्तु इन दोनों योग
को सुगम प्रकार से अपनाने में परमात्मा की कृपा महत्वपूर्ण है | परमात्मा का स्मरण
करते हुए विवेकपूर्वक किये गए कर्म मनुष्य के उत्थान में सहायक होते हैं | इस
प्रकार सदैव परमात्मा का स्मरण करना हुआ भक्ति योग |
ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी
महाराज कहा करते थे कि “गीताजी जैसा विलक्षण ग्रन्थ मैंने आज तक नहीं देखा है |
जितनी बार भी इसका अध्ययन करो, नए-नए अर्थ आपके सामने आते हैं |” आप किसी भी
प्रकार से इस ग्रन्थ का अध्ययन करें, नित नए अर्थ लिए प्रत्येक श्लोक आपके समक्ष पुनः
आकर खड़ा हो जाता है | यही कारण है कि इस ग्रन्थ का संसार में सर्वाधिक विवेचन किया
गया है और टीकाएँ लिखी गयी हैं और अभी भी यह कार्य निरंतर गतिमान है | यह केवल एक
धर्म अथवा सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है बल्कि मानव समुदाय के जीवन जीने की कला का
मार्गदर्शक है, यह ग्रन्थ |
अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में अपने
स्वजनों को एकत्रित हुआ देखकर मोहग्रस्त हो जाता है और अपने ही लोगों को मारते और
मरते हुए वह देखना नहीं चाहता | इस कारण से वह युद्धभूमि को छोड़कर भाग जाना चाहता
है | परन्तु भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को इतनी आसानी से महाभारत युद्ध से पलायन
नहीं करने देना चाहते | यहीं से गीता ज्ञान का प्रारम्भ होता है | सर्वप्रथम
सांख्य का उपदेश देने के उपरांत वे ज्ञान से कर्म को श्रेष्ठ बतलाते हैं तो अर्जुन
दुविधा में पड़ जाता है कि ज्ञान मार्ग सही है अथवा कर्म मार्ग |
अर्जुन को इसी उहापोह की स्थिति से बाहर निकालने
के लिए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को समस्त ज्ञान उड़ेलते हुए कहते हैं –“मामनुस्मर
युध्य च” (गीता-8/7) अर्थात मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर | बड़ी विकट परिस्थिति
में डाल दिया अर्जुन को, भगवान् ने | परमात्मा का स्मरण करना और युद्ध भी करना |
देखने में दोनों बातें एक दूसरे के विपरीत जाती जान पड़ती है | कहाँ युद्ध में
हिंसा का स्थान और कहाँ परमात्मा के स्मरण में “वासुदेव सर्वम्” का भाव | ऐसी
विपरीत बात आखिर भगवान् ने कैसे कह दी ? इस प्रकार भगवान् ने ऐसी बात कहकर अर्जुन की
समस्या को सुलझाने के स्थान पर और अधिक उलझा दिया |
अर्जुन पहले से ही द्वंद्व
में उलझा हुआ है कि युद्ध करूँ या न करूं और साथ ही साथ भगवान् ने युद्ध करने का स्पष्ट
आदेश देने के साथ ही परमात्मा का स्मरण करने का और कह दिया | अगर श्रीकृष्ण उसे केवल
परमात्मा का स्मरण करने का कह देते तो अर्जुन तो इसके लिए पहले से तैयार ही था
क्योंकि वह युद्ध नहीं करना चाहता था | परन्तु यहाँ तो युद्ध करने के साथ परमात्मा
का स्मरण, अब प्रश्न यही है कि अर्जुन किस प्रकार से इस दुविधा से बाहर निकल
पायेगा ?
हम नर है और वे नारायण |
वे लीला करते हैं हम उनकी लीला समझ नहीं सकते | उनकी लीला को ना समझना ही हमारे
समक्ष एक प्रकार से भ्रम की स्थिति पैदा करता है | हमारे भीतर परमात्मा के प्रति
श्रद्धा और विश्वास की कमी से ही यह भ्रम उत्पन्न होता है | हम गलत कह और कर सकते
हैं, समझ सकते हैं परन्तु नारायण कभी गलत कह नहीं सकते, कुछ गलत कर नहीं सकते और
कभी गलत हो नहीं सकते | उनमें श्रद्धा और विश्वास रखते हुए उनकी इसी बात को समझ कर
हमें अपने भीतर के भ्रम को समाप्त करना है | गहराई से चिंतन करें तो पाएंगे कि परमात्मा
का स्मरण करते हुए युद्ध करना मनुष्य जीवन की ही एक कला है, जो मनुष्य को सदैव हिंसा
भाव से दूर रखती है |
मनुष्य का जीवन अन्य
प्राणियों के जीवन की तरह इतना सहज और सरल नहीं है, जितना इसको समझा जाता है | सभी
प्राणियों को अपने पूर्व मानव जन्म में कृत कर्मों को केवल भोगना ही पड़ता है
परन्तु मानव जीवन में केवल भोग ही भोग नहीं होता बल्कि नए कर्म भी करने होते हैं |
वे नए कर्म किस प्रकार के हों, यही उसके समक्ष यक्ष-प्रश्न है जिसका उत्तर इतनी
सरलता से उसे मिलना संभव नहीं है | किस कर्म को करना है और किस को नहीं करना है,
कौन सा कर्म निषिद्ध कर्म है और कौन सा शास्त्रोक्त, इसी दुविधा में उसका जीवन
मुट्ठी से रेत की भांति धीरे-धीरे सरकता जाता है | यह कर्म के प्रति द्वंद्व की
स्थिति मनुष्य के जीवन में किसी युद्ध से कम नहीं है | ‘मामनुस्मर युध्य च’ कहने
में भगवान् का युद्ध से भावार्थ मनुष्य के जीवन में कर्मों को करने के बारे में
उसके भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व से है |
कुरुक्षेत्र युद्ध का मैदान
है | कुरु का अर्थ है करना अर्थात कर्म करना | धर्मक्षेत्र से अर्थ है कर्तव्य
क्षेत्र | यह युद्ध कर्म करने का है और वह भी कर्म केवल धर्म के अनुसार करना
अर्थात केवल कर्तव्य कर्म करना | अर्जुन का कर्तव्य कर्म/स्वाभाविक कर्म था युद्ध
करना, न कि युद्ध से पलायन कर जाना | इसलिए भगवान् ने उसे युद्ध करने के लिए कहा |
अर्जुन के स्थान पर अगर कोई व्यापारी होता तो वे उसे व्यापार करने के लिए कहते न
कि युद्ध करने के लिए | भगवान् श्री कृष्ण किसी को भी अपने कर्तव्य कर्म से विमुख
होने का कह ही नहीं सकते | इस प्रकार युद्ध करने से तात्पर्य कर्म करने से है, किसी
भी प्रकार की हिंसा से नहीं |
युद्ध करने के साथ ही वे
कहते हैं कि मेरा भी स्मरण कर | मेरा स्मरण करते हुए युद्ध कर अर्थात परमात्मा का
स्मरण करते हुए कर्म कर | परमात्मा का स्मरण हमें अनुचित कर्म करने ही नहीं देगा |
इस कारण से किसी भी प्रकार का कर्म-बंधन होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | जब
कर्म बंधन नहीं होगा तो हम मुक्त ही हैं | मनुष्य जन्म से ही मुक्त है, बस अपने
लिए एक संसार बनाकर बंधन में फंस जाता है | वह संसार बनाता है, सुख प्राप्ति के लिए
और सुख मिलना तो दूर, उलटे उसमें उलझ जाता है और फिर जीवनभर उससे बाहर निकलने को
छटपटाता रहता है परन्तु निकल नहीं पाता |
क्या स्मरण और कर्म, दोनों एक
साथ होने संभव है ? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है क्योंकि हम जीवन में जब भी परमात्मा
का स्मरण करते हैं तो हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म ठहर से जाते हैं और जब कोई
कर्म करते हैं तो परमात्मा विस्मृत हो जाते हैं | हमें स्मरण और कर्म, दोनों का एक
साथ होना संभव प्रतीत नहीं होता परन्तु भगवान् कहते हैं कि दोनों का एक साथ होना
संभव है | तभी तो भगवान् ने अर्जुन को कहा है कि मेरा स्मरण भी कर और युद्ध भी कर |
स्मरण और सुमिरन में अंतर है | हम प्रायः स्मरण
और सुमिरन को एक ही समझ लेते हैं | हाँ, यह सत्य है कि सुमिरन शब्द का जनक ‘स्मरण’
शब्द ही है | सुमिरन एक क्रिया (Action) है और स्मरण भाव (Passion) है | क्रिया से
भाव अधिक महत्वपूर्ण है | स्मरण एकाग्रचित्त होकर किया जाता है और फिर एक अवस्था
ऐसी आती है जब स्मरण सतत चलता रहता है जबकि सुमिरन कुछ समय के लिए किया जाता है और
प्रायः वह क्रिया से आगे नहीं बढ़ पाता क्योंकि सुमिरन में एकाग्रता का अभाव होता
है | नाम-सुमिरन करते हुए हमारा चंचल मन बाहर कहीं का कहीं भटकता रहता है और केवल जिह्वा
(Tongue) उस नाम का उच्चारण करती रहती है | सुमिरन में एकाग्रता उसे स्मरण में
परिवर्तित कर देती है, फिर जीवन में परमात्मा कभी विस्मृत नहीं होते | हमें अपने
जीवन को परमात्मा के स्मरण से भरना है तभी उसके स्मरण के साथ कर्म करते हुए भी हम
मुक्त हो सकते हैं |
एक बार स्मरण को जीवन
में उतार लिया तो फिर परमात्मा कभी भी विस्मृत नहीं होंगे और फिर जिह्वा से सुमिरन
की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी | पहुंचे हुए संत आपको कभी परमात्मा का सुमिरन
करते हुए दृष्टिगोचर नहीं होंगे क्योंकि उनके भीतर चौबीसों घंटे केवल परमात्मा का
स्मरण ही चलता रहता है और साथ ही साथ वे अपना कार्य भी करते रहते हैं | अतः यह
कहना कि स्मरण और कर्म साथ साथ होने संभव नहीं है, उचित प्रतीत नहीं होता | संत कबीर
एक जुलाहे थे, वे कपड़ा बुनते हुए भी परमात्मा का स्मरण बराबर करते रहते थे | उनसे
किसी ने पूछा कि आप दोनों कार्य एक साथ कैसे कर लेते हैं ? उत्तर में उन्होंने बड़ा
ही सुन्दर उदाहरण दिया | उन्होंने पनघट से पानी भरकर दो-दो घड़े सिर पर धरकर आ रही
पनिहारिनों की तरफ संकेत करते हुए कहा कि “देखो, सभी पनिहारिने अपने सिर पर घड़े
रखे हुए हैं और बातें भी करती चल रही है | सभी का बातों पर ध्यान है फिर भी
उन्होंने अपने सिर पर रखे घड़ों को विस्मृत नहीं किया है | अगर उनको घड़ों का स्मरण
नहीं रहता तो घड़े कभी के गिरकर टूट जाते |” पनिहारिन आपस में बातचीत का कर्म भी कर
रही है और सिर पर घड़े हैं, भीतर इसका स्मरण भी उन्हें है | इसी प्रकार अपने भीतर बैठे
परमात्मा को कभी भी विस्मृत न होने दें और फिर देखें, आपके द्वारा कर्म परमात्मा
के स्मरण के साथ साथ होते हैं अथवा नहीं | समस्या तो तभी होती है जब हम स्मरण के
नाम पर सुमिरन की क्रिया मात्र करते हैं और कर्म को सुमिरन से अलग एक भिन्न क्रिया
मान लेते हैं |
कर्म की पृष्ठभूमि में जब तक
कर्म फल रहेगा, सुमिरन स्मरण बन ही नहीं पायेगा | यह केवल मनुष्य के मन का खेल है |
मनुष्य का मन भटकता बहुत है | इस भटकाव का कारण है, विषय-भोग की कामना | विषय-भोग
की इच्छा सर्वप्रथम कर्म-फल निश्चित करती है और फिर कर्म-फल को प्राप्त करने के
लिए कर्म किये जाते हैं | कर्म जब फल के आश्रित होकर किये जाते हैं तो फिर केवल नाम-सुमिरन
ही हो सकता है, केवल जिह्वा ही परमात्मा के नाम को उच्चारित करती रह सकती है, मन से
उसका उच्चारण नहीं हो सकता क्योंकि मन में तो पहले से ही कर्मफल कुण्डली मारकर बैठा
हुआ है | जब तक परमात्मा के नाम का उच्चारण मन से नहीं होगा, भीतर की गहराई से
नहीं होगा, तब तक केवल नाम-सुमिरन ही चलता रहेगा, वह कभी भी स्मरण नहीं बन सकता | ऐसा
सुमिरन तो तोता भी कर सकता है और टेप-रिकार्डर भी | क्या तोता ऐसे सुमिरन से
परमात्मा तक पहुँच सकता है ? नहीं, कभी नहीं |
परमात्मा तक तो केवल उसके सतत स्मरण से ही
पहुंचा जा सकता है और वह भी इस प्रकार का स्मरण जब व्यक्ति साथ में कर्म भी करता
रहे और भीतर स्मरण भी चलता रहे | कर्म करते हुए स्मरण न रुके और स्मरण चलते हुए
कर्म भी न रुके | भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को इस प्रकार के स्मरण को करते हुए
युद्ध करने का कह रहे हैं | ऐसा युद्ध, जिसमें अर्जुन के हाथ में गांडीव भी हो और
भीतर श्री कृष्ण भी रहे | इस प्रकार युद्ध करने से ही अर्जुन को युद्ध में
विजयश्री प्राप्त हुयी और युद्ध में हुई हिंसा का परिणाम भी उसे भुगतना नहीं पड़ा |
हाँ, प्रत्येक कर्म का परिणाम तभी मिलता है, जब उस कार्य के फल को पहले ही निश्चित
किया जा चूका हो | अर्जुन तो युद्ध की संभावित जन-हानि जो कि केवल उसे और उसके परिवार
को ही होनी थी, से मोहग्रस्त हो गया था परन्तु भगवान श्री कृष्ण ने उसे कर्म रहस्य
समझाते हुए स्पष्ट कर दिया था कि अगर इस धर्म-युद्ध को जीतोगे तो पृथ्वी का राज्य
भोगने को मिलेगा और यदि पराजित भी हो जाओगे तो स्वर्ग मिल जायेगा | अर्जुन एक
क्षत्रिय होने के नाते युद्ध को अपना धर्म, अपना कर्तव्य मानते हुए करेगा और अपने
धर्म पर चलते हुए वीरगति को प्राप्त होना भी उचित है | अपने कर्तव्य कर्म जैसे धर्म
को छोड़कर दूसरे धर्म का अनुसरण करना अपयश ही दिला सकता है, सफलता उससे सदैव कोसों
दूर रहती है |
नाम-स्मरण भी एक प्रकार की भक्ति है। इस प्रकार की भक्ति और भक्तों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। राजस्थान वीरों की
भूमि तो है ही,
भक्ति भी यहां के लोगों में गहराई तक समाई हुई है | इस संसार मे पुरुष तो कई
भक्त हुए हैं परंतु महिलाओं की भक्ति को देखें तो प्रतीत होता है कि उनमें राजस्थान
की महिला भक्तों का अग्रणी स्थान है | हम आज बात करेंगे नागौर जिले में पैदा हुई तीन महिला भक्तों
की | मेड़ता के राज परिवार में जन्मी, पली और बढ़ी मीरा बाई सर्वकालीन नित्य वन्दनीय
भक्त हुयी हैं | उनका विवाह मेवाड़ जैसे वीरता विख्यात राजघराने में हुआ | भगवान्
श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति में मेवाड़ की मीरा बाई जग प्रसिद्ध है, जो सदैव कहती रही-“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोय”।
इसी श्रेणी में दूसरी महिला भक्त
हुयी है, करमा बाई | करमा बाई नागौर जिले की मकराना तहसील के कालवा गाँव में जाट
(डूडी) परिवार में पैदा हुई | करमा की विश्वास और श्रद्धा-भक्ति को हम कभी भी भूला
नहीं सकते जिसने खिचड़ी खाने के लिए परमात्मा को भी साकार रूप लेने को विवश कर दिया
था | जीवन के उतरार्ध में वह राजपूताना छोड़कर जगन्नाथपुरी चली गयी और अपने हाथों
से खिचड़ी पकाकर भगवान् को जीवन पर्यंत खिलाती रही | आज भी पुरी में भगवान् जगन्नाथ
के प्रथम भोग खिचड़ी का ही लगता है |
इसी प्रकार राजस्थान के नागौर जिले में
एक तीसरी महिला भक्त भी हुई है इसी मरुधरा पर, जिसको अभी भी बहुत
कम लोग ही जानते हैं। इनका जन्म (1568 ई.में) एक जाट (मांझू) परिवार में हुआ था | नाम
स्मरण से उसकी परमात्म भक्ति विशेष रूप से मारवाड़ क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है | इस
महिला भक्त का नाम है,
फूली बाई | जितनी प्रसिद्ध मीरा बाई और करमा बाई हुई उतनी प्रसिद्ध फूली बाई अवश्य
नहीं हुयी परन्तु नाम स्मरण में वह किसी से कम नहीं थी | इसलिए कल इस श्रृंखला में
हम फूली बाई की चर्चा करेंगे।
जोधपुर रियासत के सिंहासन पर उन दिनों महाराजा
जसवंतसिंह विराजमान थे। यह बात कोई 16वीं शताब्दी की है। तत्कालीन जोधपुर रियासत के बीकानेर रियासत की सीमा लगती थी |
जोधपुर रियासत का नागौर एक परगना था जो बीकानेर रियासत की सीमा के लगता हुआ
क्षेत्र था | आज स्वतन्त्र भारत के राजस्थान राज्य का नागौर एक जिला है। नागौर-सुजानगढ़
के मध्य में राष्ट्रीय राज मार्ग संख्या 65 पर एक गाँव पड़ता है- डेह । डेह से जब
सुजानगढ़ तहसील के गांव लालगढ़ जाने वाले मार्ग पर चलेंगे तो मुख्य मार्ग से हटकर
बाएँ ओर एक छोटा सा गांव आता है,
मांझवास (मांझावास/माजावास) । मांझवास सुजानगढ़ से लगभग 90 किलोमीटर और इसी
तहसील के लालगढ़ गाँव से 27 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा गाँव है | इसी मांझवास गाँव
में फूली बाई का जन्म हुआ था | उसने जीवनपर्यंत विवाह नहीं किया था इस कारण से वह सदैव
उसी गाँव में रही | कहा जाता है कि फूली बाई का बचपन से ही परमात्मा की भक्ति के
प्रति रूझान था | जैसा कि कहा जाता है कि जो जिसको और जैसा होना चाहता है,
परमात्मा उसको सब कुछ वैसा ही दे देते हैं और वह वैसा ही हो जाता है |
फूली को भी एक गुरु मिल गए, संत ज्ञानदेव
| फूली बाई ने उनको गुरु बनाकर उनसे गुरु मंत्र माँगा | चूंकि फूली अनपढ़ थी तो
गुरु ने उसे नाम स्मरण करने का कहा, केवल राम के नाम का स्मरण |
फूली ने श्रद्धा और विश्वास के साथ उस राम नाम के मंत्र को अपने मन में गहरे तक
बिठा लिया |
कोई भी कार्य करती, फूली राम नाम का सतत
सुमिरन करती रहती | घर की रसोई में काम करती तो मुंह मे राम का नाम, मवेशियों को चारा
देती तो राम का नाम यहां तक कि गोबर के उपले (थेपडी) बनाती तो भी राम का
नाम | उसने राम के नाम को कभी भी विस्मृत नहीं होने दिया | कहा जाता है कि फूली
बाई ने राम नाम को अपने भीतर इतनी गहराई तक बिठा लिया था कि चारों और के वातावरण
में भी राम नाम की तरंगें तक अनुभव की जा सकती थी | उसकी बनाई हुई थेपडी तक से भी
राम नाम की धुन निकलती थी |
फूली बाई की प्रसिद्धि और नाम स्मरण
भक्ति की चर्चा चारों और फैलने लगी | बात जोधपुर रियासत के तत्कालीन राजा
जसवंतसिंह जी तक भी पहुंची | उनके मन में भी फूली बाई से मिलने की प्रबल इच्छा हुई
| एक बार वे दिल्ली के शासक ओरंगजेब की तरफ से काबुल में युद्ध करने के लिए गए हुए
थे | युध्द भूमि से वापिस अपनी रियासत की ओर लौट रहे थे तो रास्ते में मांझवास
गांव से गुजरते हुए उन्हें फूली बाई का स्मरण हो आया | वे फूली बाई से मिलने उसके
घर पहुँच गए | फूली बाई से मिलकर महाराज जसवंतसिंह बड़े प्रसन्न हुए | महाराजा
जसवंतसिंह फूली बाई की नाम स्मरण भक्ति से बड़े प्रभावित हुए और उन्हें अपने राजमहल
में रानियों को ज्ञान देने के लिए आमंत्रित किया |
जसवंतसिंह जी के कई रानियां थी | महाराज पर
अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए वे आपस में लड़ती झगड़ती रहती थी | महाराजा को
अपने प्रभाव में लेने के लिए प्रत्येक रानी एक दूसरी से बढ़-चढ़कर दिन भर शारीरिक
श्रृंगार करती रहती थी | अचानक एक दिन फूली बाई उनका मार्गदर्शन करने रनिवास में
जा पहुंची | रानियों के शारीरिक मोह और उनके मध्य के राग-द्वेष को देखकर फूली
बाई ने कहा -
गहनों गांठो तन की शोभा, काया काचो
भाँडो।
‘फूली’ कव्हे थे राम भजो नित, लड़ो
क्यूं हो रांडो।।
दोहा राजस्थानी भाषा में है,
इसको हिंदी में थोडा स्पष्ट कर देता हूँ | इस दोहे में फूली बाई कहती है कि हे
रानियों, यह आभूषण तो केवल शरीर की शोभा बढ़ाते हैं और शोभा भी उस शरीर
की जो नश्वर है, कच्चे मिटटी के
बर्तन की तरह है, न जाने कब फूट जाए
? इसलिए तुम आपस में लड़ो-झगड़ो मत और न ही किसी
प्रकार का मन में राग-द्वेष रखो | प्रतिदिन परमात्मा का नाम स्मरण करो, इसी में आप
सब का कल्याण है |
फूली बाई मात्र नाम-स्मरण भक्ति
से उच्च अवस्था को प्राप्त हो गयी | आज भी मांझावास गाँव में श्याम मंदिर के पास
फूली बाई की समाधि सब का ध्यान आकर्षित करते हुए कह रही है कि शिक्षा का अभाव कभी
भी परमात्मा की राह में बाधा नहीं बन सकता | आवश्यकता है, पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ
परमात्मा के नाम का स्मरण करने की |
फूली बाई अनपढ़ थी, केवल नाम
स्मरण कर के परमात्मा में मिल गयी | इस दृष्टान्त से हमें नाम स्मरण के महत्त्व का
पता चलता है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||गीता-8/5||
अर्थात कोई भी मनुष्य शरीर
के त्यागने के समय अगर कोई मेरा स्मरण भी कर लेता है तो तत्काल ही “मैं” उसको
प्राप्त हो जाता हूँ, इस बात में कोई संशय नहीं है |
पढ़कर और सुनकर हम समझते हैं कि बस, इतना सा
करना और मुक्ति को पा जाना, इस प्रकार परमात्मा को प्राप्त करना तो बहुत ही सरल है
| हाँ, गीता के इस श्लोक को पढ़ने से तो ऐसा ही प्रतीत होता है परन्तु अंत समय में
भगवान् के नाम का स्मरण होना ही कठिन है | सब अजामिल का उदाहरण देते हैं परन्तु वे
अजामिल के बारे में जानते ही कितना है ? हम अजामिल को देखते हैं तो लगता है कि पुत्र
का नाम नारायण रख लेंगे तो अंत समय में उसको पुकार कर मुक्त हो जायेंगे | नहीं,
अंत समय में जब दम घुटने लगता है तब उस समय परमात्मा के नाम का जिह्वा तक आना
असंभव हो जाता है, ह्रदय से स्मरण करना तो बहुत दूर की बात है | उसका स्मरण तो तभी
हो सकता है, जब जीवन में परमात्मा को कभी विस्मृत ही न होने दिया हो | अजामिल तो जीवन
के प्रारम्भ से ही परमात्मा की भक्ति में लीन रहता था | वह तो कुसंगति में पड़कर
परमात्मा के मार्ग से भटक गया था | नगर वधू के घर में रहते हुए अजामिल को सौभाग्य
से एक बार फिर से सन्तो का संग मिला | सन्तो ने उसे बहुत प्रकार से समझाया परन्तु
अजामिल ने कहा कि दुर्व्यसनों में पड़े रहकर उस परम का सतत स्मरण करना उसके लिए
असंभव सा हो गया है | तब सन्तो ने उसे सुझाया कि तुम अपने पुत्र का नाम ही नारायण
रख लो | हो सकता है उस पुत्र को अंत समय में पुकारते हुए तुम्हें वास्तविक नारायण
का स्मरण हो जाये | जीवन के प्रारम्भ काल में स्मरण किये हुए नाम की विस्मृति कुछ
समय के लिए भले ही हो जाये परन्तु एक दिन यह स्मृति लौट भी सकती है |
अजामिल के जीवन के अंतिम
समय में भी यही हुआ | दम निकलने के समय हुई तड़प में उसने अपने पुत्र नारायण को ही
सहायता के लिए पुकारा था | तत्काल ही उसकी भीतर की गहराइयों में दबी हुई स्मृति
लौट आयी और वास्तविक नारायण का स्मरण हो आया | तत्काल ही घुटन की तड़प के स्थान पर चेहरे
पर शांति के भाव उभर आये | इस प्रकार जीवन के पूर्व काल का स्मरण प्रभावी हुआ और
परमात्मा प्रकट हो गए | ऐसी है नाम-स्मरण की महिमा |
हम सोचते हैं कि अभी जीवन का
संध्याकाल नहीं आया है | जब जीवन का उत्तर काल आएगा, उस समय भगवान के नाम का स्मरण
कर लेंगे | क्या आप बता सकते हैं कि अन्तकाल कब आएगा ? वह इसी क्षण भी आ सकता है |
अभी से उसके नाम का स्मरण प्रारम्भ करोगे तब अंत समय में सम्भावना रहेगी कि भीतर
उसका ही स्मरण चलेगा | अभी प्रारम्भ नहीं करोगे तो समझ लें, सरल नहीं है, अंतकाल
में परमात्मा का स्मरण हो जाना | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
यं यं स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||गीता-8/6||
अर्थात हे कौन्तेय, यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर
का त्याग करता है, उस भाव को ही वह प्राप्त होता है क्योंकि उसने सदैव वैसा ही
होने और पाने का चिंतन किया है |
हम जीवन भर चिंतन करते हैं
विषयों का, और चाहते हैं कि अंतिम समय में परमात्मा का चिंतन हो जाये | असंभव है
ऐसा हो पाना क्योंकि मनुष्य जीवन भर जिस बात का चिंतन करता है वह चिंतन उसकी स्थाई
स्मृति बन जाता है और यही स्मृति अन्तकाल में पुनः स्मरण हो आती है | जीवन भर
परमात्मा का स्मरण किया नहीं तो भला अंत समय में उसका स्मरण कैसे हो पाएगा ? जिस
दिन हम यह बात समझ जायेंगे उसी दिन से मन में तो परमात्मा का स्मरण करते रहेंगे और
अपनी कर्मेन्द्रियों से कर्म | दोनों साथ साथ क्यों नहीं चल सकते; चल सकते हैं |
मन का कार्य है मनन और कर्मेन्द्रियों का कार्य है कर्म करना | हरिः शरणम् आश्रम,
बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि “परमात्मा ने
मनुष्य को दो हाथ दिए हैं | एक हाथ से संसार में रहते हुए कर्तव्य कर्म करते रहो
और दूसरे हाथ से परमात्मा को पकडे रखकर उसका नाम स्मरण करते रहो | जब संसार में
रहते हुए कर्तव्य कर्म से मुक्त हो जाओ, संसार का त्याग कर दो और दोनों हाथों से
परमात्मा को पकड़ लो |”
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन
को यही समझा रहे हैं कि संसार में रहते हुए अपना नियत कर्म अर्थात युद्ध करो और
साथ ही साथ मेरा स्मरण भी करो | मन लगाओ परमात्मा में और कर्म करो संसार की सेवा
के लिए | फिर न तो कर्म रुकेंगे और न ही परमात्मा का स्मरण, बिना किसी बाधा के दोनों
साथ-साथ चलते रहेंगे |
प्रत्येक प्राणी में समान
रूप से एक विशेषता होती है कि वह दो प्रकार के कर्म एक साथ नहीं कर सकता | जैसे
कोई भी पशु भार ढोते समय अपना भोजन कर नहीं सकता अर्थात चर नहीं सकता और चरते-चरते
भार नहीं ढो सकता | ऐसी ही व्यवस्था मनुष्य के साथ भी है | आधुनिक समय में किसी भी
समारोह में भोजन की बफ़े व्यवस्था रहती है जिसमें एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलते
हुए भोजन सामग्री लेनी पड़ती है | इस बार आप किसी ऐसे समारोह में जाओ तब मेरी बात
पर ध्यान देना, ऐसी व्यवस्था में चलते समय हमारा भोजन करना रूक जाता है और भोजन
करते समय चलना थम जाता है | इसी प्रकार जब हम सुमिरन को केवल दैनिक क्रिया के रूप
में मात्र एक कर्म बना लेते हैं तब उसके साथ दूसरा कर्म करने में अड़चन आएगी ही, यह
निश्चित है | भारतीय संस्कृति में इस बात को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है और कहा
गया है कि एक बार में एक कार्य ही करो | हमारे यहाँ भोजन करते समय बात करना तक वर्जित
माना गया है क्योंकि बात करना वाक् इन्द्रिय का काम है और भोजन करना हाथ और मुख का
कार्य है | बात करते समय भोजन करने में बाधा पड़ती है | इस प्रकार की बाधा सुमिरन की
क्रिया और अन्य सांसारिक कर्म करने में भी उत्पन्न होती है | ऐसे में हम जब
नाम-सुमिरन को क्रिया मानकर करते हैं तो सांसारिक कार्यों को छोड़ना पड़ता है और
संसार के कार्य करते हैं तो सुमिरन छूट जाता है |
परन्तु स्मरण के साथ ऐसा
नहीं है क्योंकि स्मरण मन में होता है, अतः वह कर्म की श्रेणी में नहीं आता है, वह
मनन की श्रेणी में आता है | स्मरण के साथ साथ सुगमता से सभी प्रकार के कर्म किये
जा सकते हैं, इसमें कोई बाधा नहीं है |
मन और इन्द्रियों के
कार्य भिन्न-भिन्न है | मन के दो भाग हैं, मन और चित्त | मन का मन वाला भाग
कर्मेन्द्रियों से कार्य करवाता है और मन का दूसरा भाग अर्थात चित्त साथ ही साथ चिंतन
मनन भी करता रहता है जबकि इन्द्रियां केवल कार्य करती है, चिंतन नहीं | इस प्रकार
हम कह सकते हैं कि स्मरण तो मन से होता है और कर्म इन्द्रियों से | मन में विषयों
का स्मरण चलता रहेगा तो फिर इन्द्रियों से कर्म भी उसी स्मरण के अनुरूप होंगे | जब
मन से केवल परमात्मा का स्मरण होगा तो फिर कर्तव्य कर्म के अतिरिक्त कोई कर्म होगा
भी नहीं | इसलिए महत्वपूर्ण है कि हमारा मन किसका स्मरण कर रहा है, किसका चिंतन कर
रहा है | दिशा मन की बदलनी है, कर्म स्वतः ही परिवर्तित हो जायेंगे | परमात्मा का
स्मरण करते हुए सकाम कर्म हो ही नहीं सकते, यह शत प्रतिशत सत्य है | इस बात को अनुभव
ही किया जा सकता है, केवल पढ़ते और सुनते रहने से इसका अनुभव नहीं होगा | जरा परमात्मा
का स्मरण करके तो देखिये, जीवन प्रवाह की दिशा कैसे परिवर्तित हो जाती है ?
मामनुस्मर युध्य च -14- समापन कड़ी
अंत समय में परमात्मा का
स्मरण तभी हो पायेगा जब हम इस स्मरण को इसी जीवन में मन का स्थाई भाव बना लेंगे |
केवल कुछ समय के लिए सुमिरन को केवल क्रिया मात्र बनाकर सांसारिक कर्मों में लग
जाने से अंत समय में उस परम का स्मरण होना संभव नहीं होगा | गीता में भगवान् श्री
कृष्ण कहते हैं-
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ||गीता-8/7||
इसलिए हे अर्जुन ! तू सब समय में मेरा स्मरण कर और साथ ही साथ युद्ध भी कर |
इस प्रकार मुझ में अर्पण किये हुए मन और बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही
प्राप्त होगा |
स्मरण का प्रभाव स्पष्ट करते
हुए श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि स्मरण का सबसे अच्छा प्रभाव यह होता है कि
मन और बुद्धि मेरे में अर्पित हो जाती है | फिर मन के कहीं ओर अथवा विषयों की ओर
चले जाने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | मन अपनी वृतियों के कारण ही हमें पतन की
ओर ले जाता है | हमारे जीवन की सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम सदैव मन के वश में रहते
हैं, मन हमारे वश में नहीं रहता |
मन के बारे में अमृत बिंदु
उपनिषद् कहता है कि “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो” अर्थात मन ही मनुष्य के
बंधन और मोक्ष का कारण है | सांसारिक विषय-भोग में आसक्त होकर मनुष्य बन्ध जाता है
| हमें विषयों में आसक्ति का त्याग करना होगा | इसके लिए मन की वृतियों पर अंकुश
लगाकर उन वृतियों को रोक देना आवश्यक है | वृतियों का निरोध हो जाने पर मन का
भटकना स्वतः ही बंद हो जायेगा | इस मनोवृति निरोध में स्मरण की भूमिका महत्वपूर्ण
है |
मन की वृतियों का निरोध हो जाना
ही परमात्मा से योग हो जाना है | पतंजलि योग सूत्र का द्वितीय सूत्र यही कहता है –“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”
अर्थात चित्त की वृतियों का निरोध (सर्वथा रूक जाना) ही योग है | स्मरण से भी
समर्पण तक पहुंचा जा सकता है | समर्पण ही शरणागति है | आइये ! हम सभी परमात्मा के
स्मरण से परमात्मा को समर्पण की अवस्था तक पहुंचें | इसी शुभकामना के साथ इस
श्रृंखला को समाप्त करने की आज्ञा चाहूँगा | आप सभी का साथ बने रहने पर आभार |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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