गुरु-25
मनुष्य का शरीर परमात्मा द्वारा बनाई गई सर्वोत्तम कृति है। हम इस शरीर को पाकर जीवनभर विषय भोगों से प्राप्त होने वाले कथित सुखों को प्राप्त करने की भाग दौड़ में लग जाते हैं। मैंने विषयों से प्राप्त होने वाले सुखों को कथित सुख कहा है क्योंकि उनको केवल सुख कहा ही जाता है वास्तविकता में वह सुख न होकर दुःख प्राप्त होने की प्रारंभिक अवस्था होती है। अनुभव किए जाने वाले सुख के पीछे दुःखों का आगमन छिपा होता है। इस बात को केवल वही व्यक्ति समझ सकता है, जिसने अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करना सीख लिया है। यह शरीर हमारा गुरु है और यह तभी गुरु बन सकता है, जब हम अपने मस्तिष्क के दरवाजे और खिड़कियां खुली रख विवेक का आदर करें।
हाँ, यह शतप्रतिशत सत्य है कि मनुष्य का शरीर ही उसके लिये मुक्ति का द्वार खोल सकता है। इसी शरीर से हमें विवेक और वैराग्य उपलब्ध होता है।जीवन में जब विवेक और वैराग्य का पदार्पण हो जाता है, तब व्यक्ति की आसक्ति अपने शरीर के प्रति समाप्त हो जाती है। इसी अवस्था को उपलब्ध होने पर ही व्यक्ति को अनुभव होता है कि केवल विषय भोग में रत रहने से तो इस संसार में सदैव के लिए आना-जाना बना ही रहेगा। मुक्ति के लिए तो विषयासक्ति और शरीर के प्रति आसक्ति, दोनों का त्याग करना होगा और यह त्याग बिना विवेक और वैराग्य के होना असंभव है।
इस संसार में शरीर का तो जीना मरना लगा ही रहता है। शरीर में आसक्त होकर उसे पकड़े रखने का केवल एक ही परिणाम होता है, जीवन मे दुःख पर दुःख भोगते जाओ।दूसरी ओर इसी शरीर से तत्व विचार कर सकते हैं।परंतु आत्म ज्ञान को प्रवृत्त मनुष्य को सदैव यह ध्यान में रखना होगा कि यह शरीर तो मरणधर्मा है। एक दिन इसका जाना निश्चित है।इसलिए शरीर से सदैव असंग होकर रहें और तत्व ज्ञान के लिए आतुर।हम इस शरीर को कथित सुख देने के लिए ही विभिन्न प्रकार की कामनाएं और कर्म करते हैं। जिसके लिए हम केवल भोग और संग्रह करने में ही लगे रहते हैं।परिणाम-हमारा धन, हमारा परिवार आदि बढ़ते जाते हैं और व्यक्ति जीवन भर उनके पालन-पोषण में ही लगा रहता है। देह की आयु पूरी होने पर शरीर तो चला जाता है और पीछे वृक्ष की तरह दूसरे शरीर के लिए बीज बोकर उसके लिए भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
मनुष्य का शरीर परमात्मा द्वारा बनाई गई सर्वोत्तम कृति है। हम इस शरीर को पाकर जीवनभर विषय भोगों से प्राप्त होने वाले कथित सुखों को प्राप्त करने की भाग दौड़ में लग जाते हैं। मैंने विषयों से प्राप्त होने वाले सुखों को कथित सुख कहा है क्योंकि उनको केवल सुख कहा ही जाता है वास्तविकता में वह सुख न होकर दुःख प्राप्त होने की प्रारंभिक अवस्था होती है। अनुभव किए जाने वाले सुख के पीछे दुःखों का आगमन छिपा होता है। इस बात को केवल वही व्यक्ति समझ सकता है, जिसने अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करना सीख लिया है। यह शरीर हमारा गुरु है और यह तभी गुरु बन सकता है, जब हम अपने मस्तिष्क के दरवाजे और खिड़कियां खुली रख विवेक का आदर करें।
हाँ, यह शतप्रतिशत सत्य है कि मनुष्य का शरीर ही उसके लिये मुक्ति का द्वार खोल सकता है। इसी शरीर से हमें विवेक और वैराग्य उपलब्ध होता है।जीवन में जब विवेक और वैराग्य का पदार्पण हो जाता है, तब व्यक्ति की आसक्ति अपने शरीर के प्रति समाप्त हो जाती है। इसी अवस्था को उपलब्ध होने पर ही व्यक्ति को अनुभव होता है कि केवल विषय भोग में रत रहने से तो इस संसार में सदैव के लिए आना-जाना बना ही रहेगा। मुक्ति के लिए तो विषयासक्ति और शरीर के प्रति आसक्ति, दोनों का त्याग करना होगा और यह त्याग बिना विवेक और वैराग्य के होना असंभव है।
इस संसार में शरीर का तो जीना मरना लगा ही रहता है। शरीर में आसक्त होकर उसे पकड़े रखने का केवल एक ही परिणाम होता है, जीवन मे दुःख पर दुःख भोगते जाओ।दूसरी ओर इसी शरीर से तत्व विचार कर सकते हैं।परंतु आत्म ज्ञान को प्रवृत्त मनुष्य को सदैव यह ध्यान में रखना होगा कि यह शरीर तो मरणधर्मा है। एक दिन इसका जाना निश्चित है।इसलिए शरीर से सदैव असंग होकर रहें और तत्व ज्ञान के लिए आतुर।हम इस शरीर को कथित सुख देने के लिए ही विभिन्न प्रकार की कामनाएं और कर्म करते हैं। जिसके लिए हम केवल भोग और संग्रह करने में ही लगे रहते हैं।परिणाम-हमारा धन, हमारा परिवार आदि बढ़ते जाते हैं और व्यक्ति जीवन भर उनके पालन-पोषण में ही लगा रहता है। देह की आयु पूरी होने पर शरीर तो चला जाता है और पीछे वृक्ष की तरह दूसरे शरीर के लिए बीज बोकर उसके लिए भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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