राधे-राधे
वृन्दावन भगवान श्री कृष्ण की लीला स्थली है । वृन्दावन में अभिवादन की शैली ही राधे-राधे है । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ के निवासियों में राधा कितनी गहराई तक बैठी हुई है । सन्तजन भगवान श्रीकृष्ण तक पहुँचने के लिए ‘राधा’ नाम का ही आश्रय लेते हैं । कहा जाता है कि राधे-राधे का स्मरण करने मात्र से ही भगवान कृष्ण दौड़े चले आते हैं । प्रश्न उठता है कि राधा नाम में ऐसा कौन सा आकर्षण है , इस नाम में ऐसी कौन सी शक्ति है कि अनन्त ब्रह्मांडों के स्वामी भी उनके वश में है ।
राधा-कृष्ण, नाम भले ही दो हों, फिर भी एक दूसरे से इतने जुड़े हैं कि दोनों में भेद करना असम्भव है । भेद है ही नहीं तो भेद करना संभव भी कैसे हो सकता है । श्रीमद्भागवत महापुराण में राधा का केवल संकेत मात्र मिलता है । राधा का विस्तार से वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण में मिलता है । आज भी राधा को लेकर आमजन में भी कई भ्रांतियां है । मेरे कई मित्रों ने राधा के बारे में मुझसे ऐसे ही बहुत से प्रश्न किए जिनका उत्तर तत्काल मेरे पास भी नहीं था । अपनी क्षमता अनुसार जितना भी संभव हो सका राधा के बारे में जानने का प्रयास किया ।
राधा भगवान श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है । जिस प्रकार पुरुष-प्रकृति दो प्रतीत होते हुए भी एक ही हैं, उसी प्रकार कृष्ण-राधा भी दो न होकर एक ही हैं । श्रीकृष्ण पुरुष है तो राधा उनकी शक्ति- प्रकृति ।
राधा कौन थी ? राधा को समझने के लिए सबसे पहले कृष्ण को समझना होगा । कृष्ण परमात्मा के आठवें अवतार हुए हैं । प्रथम सात अवतारों ने संसार में आकर केवल दिव्य लीला की थी । श्रीकृष्ण ने दो लीलाएँ की - दिव्य और सांसारिक । इसीलिए उनको परमात्मा का पूर्ण अवतार माना जाता है । उनकी दिव्य लीला मथुरा के कारागार में अवतरित होने से लेकर पुनः मथुरा पहुँचने तक चली । यह अवधि लगभग ग्यारह वर्ष की थी यानि जब कृष्ण कंस का वध करने मथुरा पहुँचे तब उनकी आयु ग्यारह वर्ष थी । उसके बाद उनकी सांसारिक लीला प्रारम्भ हुई ।
अब बात करते हैं, राधा की । कृष्ण का अवतरित होने का एक महत्वपूर्ण कारण था, इस भूमि को अत्याचारियों से मुक्त करना । इसके लिए परमात्मा ने निश्चय किया कि मैं देवकी के आठवें गर्भ से कृष्ण के रूप में अवतरित होऊँगा । इस निश्चय के साथ ही भगवान स्वयं आह्लादिनी शक्ति बनकर पहले राधा के रूप में बरसाना में वृषभानु के यहाँ कन्या के रूप में अवतरित हुए । राधा के जन्म के समय उनमें वही लक्षण और चिन्ह थे जो परमात्मा के अवतार में होते हैं । कृष्ण के रूप में भगवान ने कई वर्षों बाद अवतार लिया । यही कारण है कि राधा कृष्ण से आयु में बड़ी थी ।
आह्लादिनी शक्ति का अर्थ है जिससे आनंद मिले । प्रेम में आनंद है और वासना में सुख । सुख, दुःख में परिवर्तित हो सकता है परंतु आनंद नित्य है, बदलता नहीं है । वैष्णव संप्रदाय के अनुसार भगवान का सच्चिदानंद (सत्+चित+आनन्द) स्वरूप है । शैव इसे सत्यम् शिवम् सुंदरम् कहते है । सत् और सत्य एक ही है । चित अर्थात् चैतन्य (conscious) या शिवम् और आनन्द अर्थात् सुंदर । परमात्मा सत् है अर्थात् He exists, परमात्मा चैतन्य है अर्थात् He is conscious और परमात्मा आनन्द स्वरूप हैं अर्थात् He is pleasureful । परमात्मा के इसी आनंद स्वरूप की अभिव्यक्ति राधा के रूप में हुई है । कृष्ण का नारी अर्थात् स्त्री रूप ही राधा है और राधा का पुरुष रूप श्रीकृष्ण ।
राधा के रूप में परमात्मा के प्रकट होने का कारण संसार को दिव्य प्रेम से परिचित कराना था । कृष्ण की दिव्य लीला इसी प्रेम का दर्शन कराती है । रासलीला में वासना कहीं पर भी नहीं है, है तो केवल एक प्रेम । प्रेम ही परमात्मा है, यह दिव्य लीला कृष्ण का भगवान होना सिद्ध करती है । बृज में केवल राधा और गोपिकाएँ ही जानती थी कि कृष्ण परमात्मा हैं । मथुरा में केवल वसुदेव ही यह बात जानते थे । भागवत के दशम स्कन्ध के तीसरे अध्याय में वसुदेवजी शिशु कृष्ण को देखकर यह बात कहते हैं कि प्रभु ! मैं जान गया हूँ कि आप साक्षात् परमात्मा हैं ।
गोपाल सहस्रनाम में राधा और कृष्ण को एक ही शक्ति के दो रूप बताया गया है । इसका अर्थ हुआ कि राधा ही कृष्ण है और कृष्ण ही राधा है । कृष्ण की बांसुरी राधा को प्रिय थी और कृष्ण को बांसुरी और राधा । दोनों ही प्रेम और आनंद के प्रतीक हैं । कहा जाता है कि राधा और कृष्ण का विवाह वृंदावन के भांडीरवन में हुआ था, लेकिन इसका शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार राधा का विवाह रायाण (अयन) के साथ निश्चित हुआ था । राधा को जब इस बात का पता चला तब वह घर में अपने को छायारूप में छोड़कर वहाँ से चली गई अर्थात अंतर्धान हो गई । यह ठीक वैसा ही है जैसे पंचवटी में सीता को अग्नि-प्रवेश कराकर उसके छाया रूप को वहाँ रखा गया था । रावण ने इसी छाया-सीता का अपहरण किया था । इसका अर्थ है कि रायाण का विवाह भी राधा से नहीं हुआ बल्कि उसकी छाया से हुआ था ।
राधा-कृष्ण के बारे में एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि इनके मध्य शारीरिक प्रेम (वासना) तो क़तई नहीं था । उनके मध्य दिव्य प्रेम था । दिव्य प्रेम में दो होने का प्रश्न ही नहीं होता । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि राधा और कृष्ण दो न होकर एक ही हैं । कहा जाता है कि राधा जब सो रही होती थी और कृष्ण नाम से कोई आवाज़ देता तो वह नींद से जाग जाती थी । इसी प्रकार जब कृष्ण कुछ कर रहे होते और कोई राधा नाम की पुकार लगाता है तो वे उसके पास दौड़े चले आते हैं । इसीलिए वृंदावन में राधा का अधिक महत्व है । आज भी कृष्ण को प्रसन्न और उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए प्रायः लोग राधे-राधे बोलते हैं ।
प्रेम और आनंद अविनाशी है बिलकुल परमात्मा की तरह । कृष्ण जब मथुरा चले गए तब भी गोपियाँ उनके विरह में प्रेम का आनंद ले रही थी । राधा भी उनमें एक थी । उन्होंने कभी भी कृष्ण को इस बारे में उलाहना नहीं दिया । कहा जाता है कि जब कृष्ण द्वारिका में अपनी सांसारिक लीला को समेटने की तैयारी कर रहे थे, तब बरसाना से अंतर्धान हुई उनकी आह्लादिनी शक्ति राधा भी उनके पास पहुँच गई । वह भी भौतिक देह त्यागने की तैयारी में थी । उसने अपने शरीर की अंतिम इच्छा कृष्ण के सामने व्यक्त की थी कि मैं बांसुरी सुनना चाहती हूँ, आप बांसुरी बजाइये । कृष्ण ने वृंदावन छोड़ने के बाद बांसुरी को हाथ तक नहीं लगाया था परंतु अपनी लीला को समेटने से पूर्व उन्होंने अंतिम बार बांसुरी बजाई । बांसुरी की धुन में डूबकर दोनों आनन्द विभोर हो गये । बांसुरी वादन के समाप्त होते ही राधा ने अपनी देह त्याग दी और ब्रह्मलोक को चली गई । थोड़े दिनों बाद श्रीकृष्ण भी देह त्यागकर चले गए ।
श्रीकृष्ण की दिव्य लीला में राधा है और सांसारिक लीला में रुक्मणी । कहीं कहीं दोनों को लक्ष्मी का अवतार भी बताया गया है परन्तु राधा और कृष्ण को एक ही मानें तो यह बात गले नहीं उतरती । शारीरिक प्रेम में रुक्मणी जँचती है और दिव्य प्रेम में राधा । ग्यारह वर्ष तक भगवान श्रीकृष्ण ने जो लीला की थी वे सब उन्हें परमात्मा सिद्ध करती है चाहे वह पूतना का वध हो अथवा गोवर्धन को एक अंगुली पर उठाना या दिव्य प्रेम को प्रकट करती रास - लीला ।
भागवत जी के दसवें स्कंध में पांच अध्याय ऐसे है, जो कृष्ण के दिव्य प्रेम को स्पष्ट करते हैं। इनको रास-पंचाध्यायी भी कहते हैं। इन पांच अध्यायों को गंभीरता से पढ़ने पर दिव्य प्रेम और शारीरिक प्रेम का अंतर स्पष्ट हो जाएगा और सारी भ्रांतियां दूर हो जाएगी ।
ग्यारह वर्ष के बाद की सांसारिक लीला कृष्ण को मनुष्य के रूप में ही अभिव्यक्त करती है चाहे वह कुरुक्षेत्र का युद्ध ही क्यों न हो । इसी अवधि में उन्होंने प्रेम की प्रतीक बांसुरी को छुआ तक नहीं और जब छुआ तो अंतिम बार और लीला का संवरण कर दिया ।
और अन्त में अपनी बात -
राधा-कृष्ण के बारे में जो पढ़ा, सुना और समझा उसको अनुभव कर अल्प रूप से आपके साथ साझा किया है । इनके प्रेम की चर्चा जितनी करलें, कम ही है । राधा-कृष्ण की लीला निश्छल और निष्काम प्रेम का प्रकटीकरण है । इसका उद्देश्य हमें दिव्य प्रेम से परिचित कराना है । तेत्तरीय उपनिषद् में कहा गया है - “रसो वै स:” अर्थात् परमात्मा रस (प्रेम, आनंद) स्वरूप हैं । जिसको जिसमें रस आता है अथवा जिसको जिससे रस मिलता है उसके लिये वही परमात्मा है । किसी को धन में रस मिलता है, किसी को स्त्री में । अद्वैत सिद्धांत के अनुसार सर्वत्र केवल एक परमात्मा ही है, दूसरा है ही नहीं । जब सब कुछ परमात्मा ही हैं तो धन और स्त्री भी उनसे अलग नहीं हैं । ये रस अवश्य हैं परंतु विनाशशील रस हैं । इनका आदि भी है और अन्त भी है । परंतु प्रेम और आनंद अखण्ड और अनंत रस हैं । इनका विनाश नहीं हो सकता । इसलिए प्रेम रस में डूबकर आनंदित होइए आसक्त नहीं । राधा-कृष्ण अनासक्त प्रेम के प्रतीक हैं , यही दिव्य प्रेम है ।
इसी के साथ इस लेख का समापन करते हैं, दिव्य-प्रेम का नहीं । प्रेम से बोलिए - राधे-राधे ।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम् ।।
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