Tuesday, January 2, 2024

ब्रह्म -केनोपनिषद

 ब्रह्म

       ज्ञान असीम है और वहां तक पूर्ण रूप से पहुँचना ससीम के वश में नहीं है । दो-चार अक्षर पढ़कर, संतों के दर्शन लाभ कर, देवालयों का भ्रमण कर और चार मित्रों की तुलना में कुछ अधिक जानकर अगर कोई अपने आप को ज्ञानी समझने लगता है, तो जान लीजिए कि वह अभी तक ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ है । ससीम, कभी भी असीम की थाह नहीं पा सकता । असीम तक पहुँचने के लिए स्वयं को असीम होना पड़ता है । 

           शाश्वत असीम है और उसका ज्ञान भी असीम है । असीम के एक अंश में, चारदीवारी के भीतर बैठकर असीम को वाणी, लेखन आदि के माध्यम से अभिव्यक्त करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । जब तक हम अपने द्वारा बनाई गयी इस दीवार को तोड़ कर असीम के साथ अपनी एकता का अनुभव नहीं कर लेते, तब तक कुछ भी कहना-लिखना समय की बर्बादी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । इसलिए ज्ञान प्राप्त करने की मुमुक्षा को तब तक बनाए रखें, जब तक असीम का अनुभव न हो जाय।

            इसका अर्थ यह नहीं है कि ससीम होते हुए हम असीम की चर्चा भी न करें । “असीम की चर्चा” हमारे लिए प्रेरणा का एक स्रोत है । यदि असीम पर हुई चर्चा पर हम मनन न करें तो ऐसी चर्चा भी मात्र समय काटने अथवा मनोरंजन का एक साधन मात्र ही सिद्ध होगी । भगवद् चर्चा से मिली अल्प सी प्रेरणा भी हमारे लिए मुक्ति का द्वार खोल सकती है । इसलिए भगवद् चर्चा अवश्य करें, उसके रस में डूबें और परमात्मा की ओर चलने को उद्यत हों ।

           असीम का अनुभव हमसे हमारी इंद्रियाँ, मन आदि छीन लेते हैं । ऐसे में ब्रह्म का स्वरूप क्या है, वह कैसा है, क्या करता है, आदि सभी प्रश्न बेमानी हो जाते हैं । ब्रह्म, वाणी का विषय है ही नहीं, न ही वह लिखने-पढ़ने का विषय है । उसको तो केवल संकेत से ही समझाया, बतलाया और लिखा जा सकता है । इतना सब करने के पश्चात् भी उसको पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि ब्रह्म ज्ञान की उच्चावस्था तक पहुँचकर योगी मौन हो जाते हैं । फिर भी समय-समय पर संसार के मुमुक्षुओं के लिए कुछ सिद्ध पुरुष, महात्मा आदि ब्रह्म ज्ञान की और संकेत अवश्य करते रहते हैं ।

       ब्रह्म कौन है, वह कैसा है ? केनोपनिषद् में ब्रह्म की ओर संकेत करते हुए गुरु कहते हैं - “तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि” अर्थात् उसको ही तू ब्रह्म जान । ब्रह्म को जानने के कौन से संकेत हैं ? आइए! इसी विषय पर चिंतन करते हैं।

                 उस एक परम को जानना भौतिक शरीर और जड़ अंतःकरण से भला कैसे संभव हो सकता है ? जड़ से जड़ को जाना जा सकता है और चेतन (Conscious) से भी जड़ को जाना जा सकता है परंतु चेतन को जानने के लिए स्वयं का चेतन होना आवश्यक है। प्रश्न उठता है कि जड़ का चेतन होना कैसे संभव है ?  इसके लिए दो मार्ग हैं - ज्ञान (बृह्मविद्या) का मार्ग और भक्ति का मार्ग । 

         पहला मार्ग भक्ति का है । भक्ति मार्ग में पहले परमात्मा को माना जाता है और मानने के उपरांत धीरे-धीरे उसको जानना भी संभव हो जाता है हालाँकि भक्ति में मानने के बाद परमात्मा को जानने की जिज्ञासा तक भी समाप्त हो जाती है । परब्रह्म को जानने का दूसरा मार्ग है, ज्ञान का । ज्ञान मार्ग की सबसे बड़ी विडंबना है कि जानने की विधि के लिये जिन साधनों (मन, बुद्धि आदि) को उपयोग में लिया जाता है, वे सब असत ही हैं और असत से  सत को जान लेना असंभव सा है। 

           ज्ञान मार्गी व्यक्ति, शास्त्रों और गुरु के सान्निध्य से बहुत कुछ सीख और जान तो जाता है परंतु क्या इतना सा ही जानने से ब्रह्म को जान लिया जाता है ? यह अल्प रूप से कुछ जान लेना ब्रह्म को जानना नहीं है । ऐसा जानना आपके भीतर केवल जान लेने का अहंकार ही पैदा कर सकता है। अल्प ज्ञान आपके मुख से ज्ञान की बातें कहला सकता है, आपको प्रखर वक्ता भी बना सकता है परंतु वास्तविकता यह है कि फिर भी आप उस परम को जानने से कोसों दूर खड़े रह जाते हैं । अगर इतने पर भी आप नहीं चेते तो जीवनभर सत्य से कोसों दूर ही खड़े रह जाओगे, उस तक कभी भी पहुँच नहीं पाओगे ।

        तो फिर क्या हम ब्रह्म को कभी भी नहीं जान पाएँगे ?  ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा आपको गुरु के पास ले जाती है और गुरु का ज्ञान आपको केवल उस ओर संकेत भर कर सकता है, हाथ पकड़ कर आपको वहाँ तक नहीं ले जा सकता । गुरु केवल उस रास्ते को प्रकाशित कर सकता है, लेकिन चलना तो आपको ही पड़ेगा । आप कहेंगे, “गुरु उस परब्रह्म के बारे में संकेत ही क्यों करता है, बता क्यों नहीं सकता ?” नहीं बतला सकता क्योंकि परब्रह्म वाणी का विषय ही नहीं है । वाक् इंद्रिय जड़ है और जड़ से चेतन की ओर संकेत भर ही किया जा सकता है, उसके माध्यम से उसको जनाया नहीं जा सकता ।

            भक्ति के ऊपर तो पूर्व में कई बार लिखा जा चुका है, अब थोड़ा ज्ञान (ब्रह्मविद्या) के बारे में भी जान लेते हैं । ब्रह्म विद्या का उद्देश्य परमात्मा को जान लेना है परंतु जानने का अभिमान नहीं करना है । अभिमान करते ही सब ‘जाना हुआ‘ भी ‘नहीं जाना’ हुआ हो जाता है । यही कारण है कि ज्ञानीज़न जान लेने के उपरांत मौन हो जाते हैं । मौन होने का अर्थ है - बाहर भीतर दोनों ओर से मौन । कबीर इस मौन को कहते हैं - गूँगे की शक्कर । जिस प्रकार गूँगा व्यक्ति शक्कर की मिठास को शब्दों के माध्यम से नहीं बता सकता, उसी प्रकार ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचकर ज्ञानी भी मौन हो जाता है । 

          जो मौन नहीं हो पाता, इसका अर्थ है, उसने परब्रह्म को अभी तक जाना ही नहीं है । जान लेने का अभिमान “न जानने” का संकेत है । उस ब्रह्म को जानना कितना कठिन है ? चलिए ! केनोपनिषद में प्रवेश करते हुए उसमें आई एक कथा के माध्यम से बात को आगे बढ़ाते हैं ।

             देव-लोक और असुर-लोक के मध्य किसी न किसी बात को लेकर युद्ध चलता ही रहता है | असुर अपने गुरु शुक्राचार्यजी के सान्निध्य में युद्ध जीतने के गुर सीखते हैं और युद्ध में देवताओं को कड़ी टक्कर देते हैं | देवता युद्ध के मामले में असुरों के सामने थोड़े कमजोर पड़ जाते हैं | देवताओं के गुरु हैं, बृहस्पति । अपनी पराजय को निकट जानकार देवगण अपने गुरु को साथ ले परमात्मा की शरण में जाते हैं | परमात्मा की देवताओं पर विशेष कृपा रहती है | परमात्मा या तो उन्हें युद्ध जीतने के गुर बता देते हैं अथवा देवताओं की तरफ से युद्ध मैदान में स्वयं ही उतर पड़ते हैं | अंततः देवताओं की ही जीत होती है | 

               युद्ध में जिस ओर परमात्मा होते हैं, युद्ध में वही पक्ष जीतता है | कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में पांडवों की विजय उसी दिन सुनिश्चित हो गयी थी, जिस दिन अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण से उनकी सेना मांगने के  स्थान पर स्वयं उन्हीं को मांग लिया था | श्री कृष्ण ने कहा भी था कि मैं युद्ध में अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाऊंगा और न ही युद्ध करूंगा फिर भी अर्जुन ने उनकी सेना नहीं ली, स्वयं उनको ही ले लिया । उस समय अर्जुन ने सही निर्णय लिया था । जिसके साथ सदैव स्वयं भगवान् रहते हैं, उसको जय-पराजय की चिंता कभी करनी भी नहीं चाहिए ।

              हमारे जीवन की विडम्बना है कि हम परमात्मा को विपरीत परिस्थितियों में याद तो करते हैं परन्तु मन में एकमात्र इच्छा केवल उस परिस्थिति से बाहर निकलने की ही रहती है | परमात्मा का सकाम स्मरण आपकी कामना तो पूरी कर देता है परन्तु उनकी जो कृपा मिलनी चाहिए, उस कृपा से आप दूर हो जाते हैं | परमात्मा की दया तो सब पर समान रूप से रहती है परन्तु उनकी कृपा किसी किसी को ही मिलती है |

              इसी प्रकार की कृपा से देवताओं ने असुरों के विरुद्ध एक और युद्ध तो जीत लिया परन्तु जीत का श्रेय परमात्मा को न देकर देवताओं ने स्वयं ही ले लिया | जब किसी सफलता का श्रेय स्वयं द्वारा ले लिया जाता है तो मनुष्य के भीतर अभिमान का अंकुर निकल ही आता है, फिर ये तो देवता ठहरे । देवता भी अहंकारित होकर अपनी विजय का गुणगान चहुँओर करते फिर रहे थे | परमात्मा को किसी का भी अहंकार पसंद नहीं है । फिर वह अहंकार अगर किसी अपने प्रिय अथवा भक्त का हो तो वे इसे किंचित् मात्र भी सहन नहीं कर सकते | इसे सहन न करने का एक मात्र कारण है कि वे जानते हैं कि अहंकार बड़े बड़ों का पतन कर सकता है | परमात्मा से अपने प्रियजनों का, भक्तों का संभावित पतन स्वीकार नहीं होता | अतः उनको पतन से बचाने के लिए वे कोई न कोई लीला रच ही देते हैं | 

             देवऋषि नारद भगवान् के प्रिय भक्त हैं | उन पर परमात्मा की असीम कृपा बरसती है | जब देवर्षि ने एक बार कामदेव को जीत लिया था तब उनको भी अहंकार हो गया था | अहंकार में पतन होना स्वाभाविक है | अपने प्रिय भक्त का पतन रोकने के लिए परमात्मा ने लीला करते हुए शीलनिधि राजा और उनके लिए एक राज्य तक की रचना कर दी थी | शीलनिधि की कन्या विश्वमोहिनी के लिए स्वयंवर रचा गया जिसमें नारदजी को भगवान ने भयंकर बन्दर सी देह देकर बिठा दिया था | कहाँ तो कुछ समय पहले नारदजी ने काम को जीत लिया था और कहाँ अब आकर शीलनिधि की कन्या विश्वमोहिनी के रूपजाल में फंस गए थे ? मन मायाजाल से मुक्त हुआ तभी माना जायेगा, जब सावधानी रखते रखते शरीर का अंत हो जायेगा अन्यथा जीवन में कब व्यक्ति इस माया के जाल में आकर फंस जायेगा, कहा नहीं जा सकता | नारदजी तो श्रीहरिः के प्रिय हैं | श्रीहरिः ने नारदजी का क्रोध में दिया श्राप तक स्वीकार कर लिया और नारदजी को संभावित पतन से बचा लिया | 

               पतन से बचाकर भगवान् ने नारदजी को भविष्य के लिए सावधान करते हुए कहा कि -

जपहु जाइ संकर सत नामा | 

होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा || 

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी |

 ते न पाव मुनि भगति हमारी || 

अस उर धरि महि बिचरहु जाई | 

अब न तुम्हहि माया नियराई || 

     जाकर शंकरजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी | हे मुनि ! शंकर जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता | हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो | अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी |

              देखा जाए तो पतन का मुख्य कारण, हमारे भीतर अहंकार का जन्म लेना ही है | अहंकार पैदा होने का कारण है, किसी कार्य का स्वयं को कर्ता मान लेना | सब जानते हैं कि हम जो भी कर्म अपने द्वारा किया जाना मानते हैं, वास्तव में वह कर्म प्रकृति के तीन गुणों की आपसी क्रियाओं के कारण ही संभव होता है | इसमें हमारी किसी प्रकार की भूमिका नहीं रहती बल्कि केवल प्रकृति की भूमिका रहती है | प्रकृति परमात्मा का व्यक्त रूप है, इसलिए जो कुछ भी यहाँ हो रहा है, उन सबमें परमात्मा की परोक्ष भूमिका रहती है | इसलिए अहंकार को अपने भीतर कभी भी जन्म न लेने दे, तभी हम परमात्मा को जान सकेंगे | 

            परमात्मा को जानने के लिए स्वयं को कर्ताभाव से मुक्त रखना आवश्यक है | देवताओं द्वारा असुरों पर विजय प्राप्त कर लेने से उनमें कर्ता भाव आ गया था, जिसके कारण वे अहंकार से भर गए थे | परमात्मा ने उनके इस अहंकार को दूर करना आवश्यक समझा | वे दिव्य यक्ष का रूप धरकर देव-लोक की ओर चले | 

             “कौन है, यह दिव्य यक्ष ? इसको पहले कभी नहीं देखा । देवलोक में किस कारण से आया है ?” देव-लोक में अचानक प्रकट हुए दिव्य यक्ष को देखकर इंद्र उसका परिचय जानने को उत्सुक हुआ | लेकिन यह क्या ?  यक्ष तो वापिस लौटने लगा | सभी देवताओं की उत्सुकता बढ़ने लगी कि वह यक्ष कौन था और इधर क्या करने आया था ? इंद्र ने उसका परिचय जानने के लिए सर्वप्रथम अग्नि देव को उसके पीछे भेजा |

           देवताओं में सर्वाधिक बलशाली, अपनी वक्र दृष्टि से क्षण भर में कठोरत्तम वस्तु तक को जलाकर भस्म कर डालने वाले अग्नि देव के सामने भला किसी की क्या बिसात ? सब क्षेत्रों में अग्र स्थान रखने के कारण ही उनका नाम अग्नि पड़ा । यहाँ तक कि ऋग्वेद का प्रारंभ ही उनके नाम की प्रथम ऋचा  (ॐ अग्निमीले पुरोहितं…..) से होता है । ऐसे सामर्थ्यवान अग्निदेव अपने आसन से उठकर, अहंकार भाव से सीना तानकर उसी समय देवसभा को छोड़ उस यक्ष का पीछा करने लगे। अचानक दिव्य यक्ष उनके सामने प्रकट हो गए । अग्निदेव ने अभिमान के साथ पूछा -“ कौन हो तुम ? यहाँ किसलिए आए हो ?” यक्ष ने पूछा - “मेरे बारे में जानने से पहले आप अपना परिचय दीजिए, आप कौन हैं और आपकी क्या योग्यता है ?”

                “मैं अग्निदेव हूँ। जिस पर भी मेरी दृष्टि पड़ती है, उसको जलाकर राख कर देता हूँ । मुझे  जातवेदा भी कहते हैं। यहाँ जो कुछ भी उत्पन्न होता है, उसके बारे में मैं सब कुछ जानता हूँ।” अग्निदेव ने बड़े अभिमान के साथ कहा । यक्ष ने भूमि पर से एक सूखा तिनका उठाया और अग्नि देव को दिखाते हुए पुनः नीचे रखा और कहा कि जरा इस तिनके को जलाकर दिखाइए ।अग्नि देव ने हंसते हुए कहा - “बस, इतना सा काम । यह तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है ।” 

             परंतु यह क्या ? सूखे तिनके के भस्मीभूत होने की बात तो दूर, उसमें से हल्का सा धुँआ तक नहीं उठा । अग्निदेव ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी परंतु तिनका जस का तस रहा । अग्नि देव का गर्व चूर-चूर हो गया । अब तो बड़ी शर्मनाक स्थिति में आ गये, अग्निदेव । उनके पास मुँह लटकाकर देवलोक लौट जाने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं था । अग्निदेव उस यक्ष से आगे कुछ कहे-पूछे बिना शर्मिंदा होकर देवताओं के पास उल्टे पाँव लौट आए । 

         अग्निदेव ने आकर सारा वृतांत इंद्रदेव को कह सुनाया । “मैंने यक्ष के बारे में जानने का प्रयास किया परंतु उल्टे उसने ही मुझे निरुत्तर कर दिया । मुझे अपने सामर्थ्य पर इतना अभिमान था और मुझसे एक साधारण सा कार्य भी नहीं हो सका, इसका मुझे खेद है ।” इतना कहकर अग्निदेव वापस अपने आसन पर सिर झुककर बैठ गये ।

        इंद्र ने अब अपने दूसरे सशक्त देवता वायु को यक्ष के बारे में पता करने के लिए भेजा । वायु देव ने सोचा कि चाहे कोई कितना ही शक्तिशाली हो, मेरे प्रचंड वेग के सामने बड़े-बड़ों को भी धराशायी होना पड़ता है। मैं देखता हूँ कि आख़िर यह यक्ष कौन से खेत की मूली है ? अपनी शक्ति के मद में चूर वायुदेव यक्ष की ओर चल पड़े । पास पहुँचते ही यक्ष को पूछ पड़े - “कौन हो तुम ? यहाँ किसलिए आए हो ?” यक्ष ने पूछा - “मेरे बारे में जानने को बहुत उत्सुक हैं आप । जरा, पहले आप अपना परिचय तो दीजिए कि आप कौन हैं और आपकी क्या योग्यता है ?”

                “मैं वायु देवता हूँ। जिस पर भी मेरी दृष्टि पड़ती है, उसको क्षण भर में ज़मीन से उठाकर ऊपर अंतरिक्ष में उड़ा डालता हूँ। मुझे  मातरिश्वा भी कहते हैं, जिसका अर्थ होता है अंतरिक्ष में भी बिना किसी आधार के विचरण करने वाला । मेरे को गमन के लिए किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती । भूमि से अंतरिक्ष तक जो भी कुछ है, सबको मैं पलक झपकते ही उड़ाकर तहस नहस कर सकता हूँ।” वायु ने बड़े गर्व के साथ कहा ।

        यक्ष ने भूमि पर से एक सूखा तिनका उठाया और वायु देव को दिखाते हुए पुनः नीचे रखते हुए कहा कि जरा इस तिनके को उड़ाकर दिखाइए । वायुदेव ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी परंतु तिनका जस का तस रहा, जरा सा भी अपने स्थान से नहीं हिला। वायुदेव का गर्व भी चूर-चूर हो गया । वायुदेव भी यक्ष को कुछ कहे-पूछे बिना शर्मिंदा होकर देवताओं के पास लौट आये । वायुदेव ने लौटकर देवताओं को यक्ष का परिचय जानने में स्वयं का असफल होना बताया ।

                          अपने दो अत्यंत बलशाली देवों की असफलता ने इंद्र को भी बहुत कुछ सोचने समझने को विवश कर दिया। जिन देवताओं के बल से असुरों से हाल में ही युद्ध जीता गया था, आज वे ही दोनों देव भरी सभा में अपना सिर नीचे झुकाए शर्मिंदा होकर बैठे थे। अभी भी यक्ष का परिचय नहीं मिल सका था। सभी देवताओं ने इंद्रदेव से प्रार्थना की कि यक्ष का परिचय पाना अब केवल  आपके बस की बात है । बहुत सोच विचारकर इंद्रदेव ने स्वयं ही यक्ष के पास जाकर उसका परिचय लेने का निर्णय किया।

            जब तक देवराज इंद्र उस स्थान पर पहुँचते, जहां यक्ष से दोनों देव पूर्व में मिले थे, यक्ष वहाँ से आगे निकल चुके थे । कहाँ गए, किधर गये ? इंद्र कुछ भी नहीं जान सके ।

        अग्नि और वायु देव ने जहां यक्ष का होना बताया था, वहाँ देवराज के पहुँचने से पहले ही दिव्य यक्ष अंतर्धान हो चुके थे | इंद्र को यक्ष दिखलाई नहीं पड़ा, लेकिन वे वायु और अग्नि के समान वापिस नहीं लौटे | वे यही सोचकर यहाँ आये थे कि उस यक्ष का परिचय जानकर ही रहूँगा । वे इधर उधर घूमकर यक्ष को ढूँढ ही रहे थे कि उसी समय वहीं पर शैलपुत्री पार्वती प्रकट हो गई । देखते ही इंद्रदेव ने शिवप्रिया को प्रणाम किया । 

           वास्तव में इंद्रदेव पर कृपा करते हुए परम ब्रह्म ने ही वहां उमा स्वरूपा साक्षात् ब्रह्मविद्या को प्रकट किया था | देवराज इंद्र ने पार्वतीजी से पूछा - “देवी ! आप सर्वज्ञ शिव की स्वरूपा-शक्ति हैं | मुझे सबसे पहले यह बतलाइये कि यहां कुछ देर पहले एक दिव्य यक्ष खड़े थे,  वे कौन थे और किस कारण से यहाँ आये थे ? अब वे कहाँ चले गए ?” 

                  देवी भगवती ने बताया - “ वे साक्षात् परम ब्रह्म थे | परमब्रह्म कहाँ नहीं है ? वे सब जगह हैं, कभी भी अव्यक्त से व्यक्त हो सकते हैं और कभी भी अन्तर्धान । तुम देवता लोग असुर विजय को अपनी सामर्थ्य मानने लगे थे और स्थान स्थान पर अपनी महिमा गाते फिर रहे थे | उस विजय का आपको बहुत अभिमान हो गया था  | क्या आप जानते हैं कि वह युद्ध आपने किसके बल से जीता था ? अपने बल का अभिमान करने के स्थान  पर आपको इसका श्रेय स्वयं के स्थान पर परम ब्रह्म को देना चाहिए था | आप लोगों के भ्रम और अभिमान को दूर करने के लिए ही उन्होंने दिव्य यक्ष का रूप धारण किया है ।” पार्वतीजी से इतना सुनते ही देवराज की आँखें खुल गयी । उन्होंने दिव्य यक्ष के बारे में समझ लिया कि वे ही साक्षात् परमब्रह्म हैं |

             जो गुरु और शास्त्रों के संकेत को नहीं समझता वह जीवनभर स्वनिर्मित संसार में उलझा रहता है और  कभी भी मुक्त नहीं हो सकता । इस संसार में आवागमन के चक्र में घूमते रहना ही उसकी नियति बन जाती है । ब्रह्मविद्या परमब्रह्म का संकेत मात्र ही तो करती है। जो उसके संकेत को समझ जाता है, उसका कल्याण हो जाता है ।

                     इस पूरी कथा से निष्कर्ष निकल कर आता है कि अपनी प्रत्येक सफलता को हम अपनी सामर्थ्य समझ लेते हैं जबकि वास्तविकता है कि उस सामर्थ्य के पीछे केवल परमपिता का बल ही है | जिस दिन वह बल क्षीण होने लगता है, तब सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी हम बड़े असहाय हो जाते हैं | इस बात को हम जितनी जल्दी स्वीकार कर लेते हैं, उतनी ही जल्दी  परमात्मा के निकट हो जाते हैं | इस कथा में जो तीनों देवता हैं (अग्नि, वायु और इंद्र), वे अन्य सभी देवताओं से श्रेष्ठ हैं क्योंकि इन्होने दिव्य यक्ष जोकि परमब्रह्म थे, को देखा है, उनके साथ वार्तालाप किया है और उनके बारे में जाना है | 

            अग्नि और वायुदेव तो श्रेष्ठ है ही पर उनसे भी श्रेष्ठ देवराज इंद्र हैं क्योंकि अग्नि और वायु देव ने तो केवल उस परमब्रह्म को देखा और उनसे वार्तालाप ही किया था, जबकि इंद्रदेव ने परमब्रह्म को जाना है | देवराज ने परमब्रह्म को नहीं देखा और उनसे वार्तालाप भले ही नहीं किया हो परन्तु देवी भगवती से सुनकर उनके मन ने परमब्रह्म को स्पर्श कर लिया था | इसलिए देवताओं में इंद्र सर्वश्रेष्ठ हुए | अपने मन से परम को स्पर्श कर लेने का अर्थ ही तत्वज्ञान की प्राप्ति होना है, परमात्मा को तत्व से जान लेना है | 

                   यह कथा केवल कहने सुनने भर की नहीं है | इस पर चिंतन करें तो स्पष्ट होता है कि परमात्म तत्व को जानने की तीन अवस्थाएँ हैं | तीनों अवस्थाओं से परमात्मा को जाना जा सकता है | ये अवस्थाएं हैं - आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक | आधिभौतिक अवस्था देवताओं की अवस्था है, जिन्होंने अपने देवों (अग्नि, वायु और इंद्र) से सुनकर परम ब्रह्म को जाना है | आधिदैविक अवस्था अग्नि और वायुदेव की है, जिन्होंने भले ही कुछ समय के लिए ही सही, परमब्रह्म के दर्शन किये हैं, साथ ही उनसे वार्तालाप भी किया है, जिनके कारण उन्होंने परम को जाना है | क्षण मात्र का दर्शन भी परमात्मा को प्राप्त करने की व्याकुलता पैदा कर देता है । आधिदैविक में परमात्मा के दर्शन इस प्रकार होते हैं, जैसे कोई बिजली सी कौंधती हो । इस दर्शन से परमात्मा को पाने के लिए मन में उत्पन्न होने वाली व्याकुलता उस तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त है | देवऋषि नारद को पूर्वजन्म में भगवान् ने इसी प्रकार क्षण भर के लिए दर्शन दिए थे, (भागवतजी के प्रथम स्कंध का छठा अध्याय, श्लोक संख्या 19 -20 ) जिसके कारण वे परमात्मा तक पहुँच सके थे ।

             तीसरी अवस्था, आध्यात्मिक अवस्था है, जिसमें देवराज इंद्र है, जिन्होंने मां भगवती से ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हुए परमब्रह्म को जाना है, भले ही इन्होंने उनके दर्शन नहीं किये हों या उनसे वार्तालाप नहीं किया हो परन्तु उनके मन ने परमात्मा का स्पर्श अवश्य कर लिया था | मन को स्पर्श करना ही व्यक्ति को अपनी गलती का स्मरण करा देता है । इंद्रदेव की गलती थी कि उन्होंने परमात्मा को विस्मृत कर दिया था । उसके बाद ही वे प्रतिपल परमात्मा का स्मरण करने लगे थे | वे परमब्रह्म को प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक व्याकुल हो उठे थे  । (“तद्विस्मरेन परमव्याकुलता”- नारद भक्तिसूत्र - 19) । अतिशय व्याकुलता व्यक्ति के मन में तभी उत्पन्न होती है, जब वह अपने लक्ष्य को हर हालत में प्राप्त करना चाहता हो ।

            तीनों ही अवस्थाओं की विशेषता यह है कि इनमें परमात्मा की ओर चलने की, उनको प्राप्त करने की ललक मन में पैदा होती है । एक परमात्मा की ही सर्वत्र स्वीकार्यता हो जाती है । इस कारण से व्यक्ति का कर्तापन भी चला जाता है | ऐसे में व्यक्ति को फिर अभिमान किस बात पर होगा ?

                   प्रश्न उठता है कि परमब्रह्म तक पहुँचने के लिए उपासना का क्या प्रकार होना चाहिए और उस उपासना का फल कैसा होगा ? सबसे महत्वपूर्ण बात कि वह परमब्रह्म सबके लिए प्रापणीय (Achievable) है, केवल आवश्यकता है उनको पाने की व्याकुलता मन में हो | जिस प्रकार जल के प्रवाह में बहता हुआ व्यक्ति जब जल की अथाह गहराई में चला जाता है, तब वह श्वास लेने के लिए जिस प्रकार व्याकुल हो जाता है, उतनी व्याकुलता जिस दिन हमारे में पैदा हो जाएगी फिर हमें परमात्मा मिल कर ही रहेंगे |  इतनी व्याकुलता के साथ उसकी उपासना करनी चाहिए | ऐसी उपासना का परिणाम परमब्रह्म तक पहुँचना ही है |  

           परमात्मा की उपासना के कई प्रकार हो सकते हैं । अंततः लक्ष्य ब्रह्मविद्या को ही प्राप्त करना होता है । इसके लिए हमें किसी पहुँचे हुए गुरु का सान्निध्य ग्रहण करना चाहिए । गुरु के पास जाकर उनकी सेवा करनी चाहिए । सेवा ही हमें उस ज्ञान (ब्रह्मविद्या) तक ले जाएगी, जिससे परमात्मा तक पहुँचना सुगम होगा । जब तक संतुष्ट न हों, तब तक गुरु से प्रतिप्रश्न भी करने चाहिए ।

                परमब्रहम की उपासना और ब्रह्मविद्या का उपदेश कोई गुरु ही दे सकता है | व्याकुल शिष्य जब गुरु  के पास जाता है, तब उनसे प्रश्न पूछता है - 

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणं प्रथमः प्रैति युक्तः | 

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति || (केनोपनिषद-1/1)

                  किसकी सत्ता से स्फूर्ति पाकर, प्रेरित होकर यह मन विषयों में गिरता है ? किसके द्वारा नियुक्त होकर सबसे श्रेष्ठ प्राण चलता है ? किसके द्वारा क्रियाशील हुई इस वाणी को लोग बोलते हैं ? कौन प्रसिद्द देव नेत्रेन्द्रिय  और श्रोत्रेन्द्रिय के विषयों को अनुभव में लाते हैं ?

     परमात्मस्वरूप हमारी आत्मा जब शरीर और मन का संग कर उसके गुणों की और आकर्षित हो जाती है, तब वह जीवात्मा हो कर विभिन्न विषयों का सुख लेने लगती है । यह सब हमारे मन के कारण होता है । आख़िर यह मन विषयों में क्यों गिरता है ? जिस समय हम इसके मूल कारण तक पहुँच जाएंगे, तब मन पर नियंत्रण करने की राह भी निकल आएगी ।

            केनोपनिषद के पहले ही मन्त्र में शिष्य अपने गुरु के समक्ष चार प्रश्न रख देता है | मन (अंतःकरण), प्राण, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ, ये चारों अपने अपने कार्य में संलग्न रहते हैं | प्रश्न है कि इनकी कार्य करने की क्षमता आखिर है किसकी ? इन सबको योग्यता प्राप्त कराने वाला केवल एक ही है, यह सत्य है | प्रश्न है कि वह कौन है और कैसा है ? 

            गुरु भी इस प्रश्न का उत्तर सीधे सीधे न देकर पहेलियां सी बुझाने लगते हैं | समझदार शिष्य un पहेलियों में छिपे उत्तर को ग्रहण कर लेते हैं। गुरू कह रहे हैं कि जो मन का मन (कारण) है, प्राण का प्राण है, वाक् इन्द्रिय का वाक् है, श्रोत्रेन्द्रिय का श्रोत्र है और जो चक्षु इन्द्रिय का चक्षु  है, वह ही इन सबका प्रेरक और सामर्थ्य है | वह सामर्थ्यवान प्रेरक और कोई नहीं, परम ब्रह्म ही है । ज्ञानीजन उस परमब्रह्म को जानकर जीवन्मुक्त हो जाते हैं | कहने का अर्थ है कि जो समस्त जगत का कारण है, वही इन सबको सामर्थ्य प्रदान करता है | सामर्थ्य उन भौतिक इन्द्रियों और प्राण-मन आदि की नहीं है बल्कि वे सब परमात्मा की शक्ति से ही अपना अपना कार्य कर पा रहे हैं | उनको जान लेना ही सब कुछ जान लेना है | उसको जान लेने के बाद संसार से आवागमन मिट जाता है |

                        गुरु ने परोक्ष रूप से शिष्य को समझा तो दिया कि जिनके कारण ये सब अपना कार्य करते हैं, वही सामर्थ्यवान है । गोस्वामीजी ने मानस में (बालकाण्ड -117/7-8) इसी बात को बड़ी सहजता से कह दिया है -

"जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू। 

मायाधीस ग्यान गुन धामू।। 

जासू सत्यता तें जड़ माया । 

भाव सत्य इव मोह सहाया ।।" 

अर्थात् — यह जगत् प्रकाश्य है और श्रीरामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं । वे मायाके स्वामी और ज्ञान तथा गुणोंके धाम हैं । जिनकी सत्तासे, मोहकी सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है ।

            इसी प्रकार आदिपुरुष शंकराचार्य महाराज विवेक चूड़ामणि में कहते हैं -

एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो

          निरन्तराखण्डसुखानुभूति ।

सदैकरुपः प्रतिबोधमात्रो

          येनेशिता वागसवश्चरन्ति ।। 133 ।।

      यही नित्य अखण्ड आनन्द अनुभवरूप अन्तरात्मा पुराणपुरुष है, जो सदा एक रूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वाक् आदि इंद्रियाँ और प्राण चलते हैं ।

             जिस कार्य को हम अपने द्वारा करना मानते हैं अर्थात् यह कहना कि ‘मैं देखता, सुनता अथवा करता हूँ’, ऐसा कहना वास्तव में असत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । कुछ भी करने की शक्ति केवल उस एक परमात्मा की ही है, जिसके कारण यह भोगायतन स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर क्रियाशील बने हुए हैं । जिस पल वह अपनी शक्ति समेट लेता है, फिर यह शरीर क्रियाहीन बन्द पड़े बेकार यंत्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहता ।

       जगत् केवल परमात्मा के कारण ही अस्तित्ववान है । जगत् का अर्थ है, जो निरंतर गतिमान है अर्थात् जिसमें प्रतिपल परिवर्तन हो रहा हो । इसी जगत् के अन्तर्गत इंद्रियों सहित हमारा यह शरीर है । हमारा शरीर भी प्रतिपल बदल रहा है । शरीर में इंद्रियाँ है, जो अपना अपना कार्य कर रही है । उनकी यह कार्य करने की क्षमता स्वयं की नहीं है बल्कि वह क्षमता किसी अन्य के सामर्थ्य से संभव हुई है । 

            आँखें इस शरीर के भी हैं और आँखें कैमरे के भी  होती है । क्या कैमरा स्वयं देख सकता है ? थोड़े दिनों पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें किसी मॉल में एक ग्राहक कहता है - “ऊपर वाला सब देख रहा है” और तत्क्षण मॉल में ऊपर छत से लटकता एक कैमरा दिखाया जाता है । विज्ञापन में इस प्रकार कहने का अर्थ है कि जो भी यहाँ गतिविधि हो रही है, उसको ऊपर लगे हुए कैमरे के माध्यम से देखा जा रहा है अर्थात् इस मॉल में हो रही गतिविधि कोई न कोई देख रहा है और उस गतिविधि को देखने का माध्यम कैमरा है ।

                कहने का अर्थ है कि ऊपर लगा हुआ कैमरा देख नहीं सकता परंतु उस कैमरे के माध्यम से मॉल में होने वाली गतिविधि देखी जा सकती है । ठीक ऐसा ही हमारी आँखों  के साथ है । आँख केवल कैमरा भर है, देखने का एक माध्यम है । उस आँख के द्वारा देखे जाने की सामर्थ्य किसी अन्य की है । इसलिए “आँखें देखती है” उसके स्थान पर कहा जाना चाहिए कि “आँखों के माध्यम से देखा जा रहा है “। 

    ऐसा ही हमारे संपूर्ण शरीर के साथ है । मन और इंद्रियों से सुसज्जित यह शरीर प्राणों से ऊर्जावान दिखलाई अवश्य पड़ रहा है परंतु उसकी ऊर्जा का केंद्र कहीं दूसरी ओर ही है । इसकी ऊर्जा को स्वयं की ऊर्जा समझ लेना ही अज्ञान है जो केवल मनुष्य का अहंकार ही पोषित करता है । वास्तव में जहां पर इस ऊर्जा का मुख्य केंद्र स्थित है, उस केंद्र का नाम ही परमब्रह्म है । उस केन्द्र का ही चारों ओर प्रसार हो रहा है, जिसे हम सृष्टि कह रहे हैं । केन्द्र सृजनहार है और सृष्टि उसका सृजन ।

      गुरु शिष्य को इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि उस परम तक न तो मन पहुँच सकता है और न ही कोई इन्द्रियाँ अथवा प्राण आदि पहुँच सकते हैं | न उस परमात्मा को बुद्धि से जाना जा सकता है और न ही कोई दूसरे से सुनकर इसे जान सकता है | इसका अर्थ हुआ कि वह परमब्रह्म बुद्धि द्वारा जानने में आने वाले से भिन्न है | जिससे भी इसको जानने के बारे में सुना है वह उस प्रकार जानने में नहीं आ सकता क्योंकि परमात्मा इस प्रकार जानने से भी विलक्षण है | 

           जो वाणी के द्वारा नहीं बतलाया जा सकता परंतु जिसके कारण वाणी बोली जाती है अर्थात् जिसकी शक्ति से वक्ता बोलने में समर्थ होता है, उसको ही तू ब्रह्म जान । वाणी के द्वारा बताने में आने वाले तत्व की जो लोग उपासना करते है, वास्तव में वह ब्रह्म नहीं है।

           जिसको कोई मन से नहीं समझ सकता बल्कि जिसके कारण मन जाना हुआ हो जाता है, उसको ही तू ब्रह्म जान । मन और बुद्धि के द्वारा जानने में आने वाले जिस तत्व की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है ।     

          जिसको कोई भी व्यक्ति अपने नेत्रों से नहीं देख सकता परंतु जिससे नेत्र अपने विषयों को देखता है उसको ही तू ब्रह्म जान। इन नेत्रों से जो कुछ भी दृश्यमान है, उसके आधार पर लोग उसको ही ब्रह्म जानकार जिसकी उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।

            जिसको कोई भी व्यक्ति अपने कानों के द्वारा नहीं सुन सकता परंतु जिसके कारण इन कानों से सुना जाता है, उसको ही तू ब्रह्म जान । श्रोत इंद्रिय के माध्यम से जो सुनकर जानने में आता है और उसको ही लोग तत्व जानकार उसकी उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है ।

           जो प्राण के कारण चेष्टायुक्त नहीं होता बल्कि जिससे प्राण चेष्टा युक्त होता है, उसको ही तू ब्रह्म जान। प्राणों की शक्ति से चेष्टा युक्त दिखने वाले तत्व की जो लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है ।

            इस प्रकार गुरु द्वारा परोक्ष रूप से परम ब्रह्म की ओर संकेत कर दिया गया है । इस संकेत से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि परमब्रह्म कौन है ? प्रश्न उठता है कि क्या इतना जान लेने से ही उस परब्रह्म को जान लिया गया है ? सत्य तो यह है कि जिसको कोई नहीं जान सकता अर्थात् जो जानने में नहीं आता आख़िर उसको कैसे जाना जा सकता है ? हम प्रायः सब कुछ पढ़-सुनकर कह देते हैं कि हम उसको जान चुके हैं परन्तु वास्तव में हमने कुछ नहीं जाना है । 

                 गुरुदेव कहते हैं कि यदि तू यह मानता है कि मैं ब्रह्म को भलीभाँति जान गया हूँ, तो निश्चय ही ब्रह्म का स्वरूप थोड़ा सा ही जानता है क्योंकि इस परमात्मा का आंशिक स्वरूप तू स्वयं है तथा इसका जो आंशिक स्वरूप देवताओं में है, इन सबको मिला कर भी यह अल्प ही है । इसलिए मैं मानता हूँ कि ये तेरे द्वारा जाना हुआ निस्संदेह विचारणीय है। इस जीवात्मा को और समस्त विश्व-ब्रह्मांड में व्याप्त जो ब्रह्म की शक्ति है, उस सबको मिलाकर भी देखा जाए तो वह ब्रह्म का एक अंश ही है । गीता में भगवान कहते भी हैं - “एकांशेन स्थितो जगत्”,(गीता-10/42) मेरे एक अंश में यह जगत स्थित है अर्थात् अनंत ब्रह्मांड मेरे किसी एक अंश में है । अतः जो हम ऐसा कहते हैं कि ब्रह्म को जान लिया है, वह सचमुच विचारणीय है।

नाहं मन्ये सुवेदिति नो न वेदेति वेद च ।

यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ।। केनोपनिषद-2/2 ।।

           “मैं ब्रह्म को भलीभाँति जान गया हूँ” मैं यह नहीं मानता, न ही मैं ऐसा मानता हूँ कि नहीं जानता क्योंकि मैं जानता भी हूँ । यह जानना इतना विलक्षण है कि जो हम में से कोई भी उस ब्रह्म को जानता है, वही मेरे ऐसा कहने का अभिप्राय जानता है कि “मैं जानता हूँ” और “मैं नहीं जानता” ये दोनों ही सही नहीं है । इसका अर्थ है कि “उस ब्रह्म को मैं भलीभाँति जानता हूँ, यह मैं नहीं मानता और न ही ऐसा मानता हूँ कि मैं उसे नहीं जानता, क्योंकि मैं जानता भी हूँ । फिर भी मेरा यह जानना वैसा नहीं है, जैसा कि किसी ज्ञाता का ज्ञेय वस्तु को जानना है ।” 

                 जिसका यह मानना कि ब्रह्म जानने में नहीं आता, वास्तव में उसका ही उसको जाना हुआ है। जिसका यह मानना कि उसका वह ब्रह्म जाना हुआ है, वह वास्तव में उसको नहीं जानता क्योंकि जानने का अभिमान रखने वालों के लिए वह परमब्रह्म जाना हुआ नहीं है । जिनमें ज्ञान का अभिमान नहीं है, उसका ही अपरोक्ष रूप से वह ब्रह्म जाना हुआ है। देखा जाए तो परमात्मा स्वयं ही अपने आपको जानते हैं, दूसरा कोई उनको नहीं जानता । सही भी है, असीम को ससीम नहीं जान सकता, असीम को असीम ही जान सकता है । अतएव जो यह मानता है कि मैंने ब्रह्म को जान लिया है, मैं ज्ञानी हूँ, परमात्मा ज्ञेय है, वह वास्तव में भ्रम में है क्योंकि ब्रह्म इस प्रकार ज्ञान का विषय नहीं है। जितने भी ज्ञान के साधन हैं वे परमात्मा तक पहुँच ही नहीं सकते । परमात्मा का साक्षात्कार उन्हीं महापुरुषों को होता है, जिनमें जानने का किंचितमात्र भी अभिमान नहीं है ।

                 इतने विवेचन से जो संकेत मिलता है उससे स्पष्ट है कि परमात्मा का ज्ञान कराने वाली जो ज्ञानरूपी शक्ति है, वह मनुष्य को परमात्मा से ही मिलती है । यदि इस मनुष्य शरीर के रहते परब्रह्म को जान लिया तब तो अच्छा है और यदि शरीर के रहते उसे नहीं जान पाए तो फिर ……? इस बात पर विचार अवश्य करें । 

        परमात्मा को जानने वाला जानता है कि वह तो कण-कण में है । इसीलिए बुद्धिमान पुरुष प्राणी मात्र में परमात्मा को मानकर इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं ।

तस्यै तपो दम: कर्मेति प्रतिष्ठा वेदा: सर्वांगानि सत्यमायतनम् ।।केनोपनिषद-4/8।।

इस रहस्यमयी बृह्मविद्या के तप (तपस्या), दम (मन-इंद्रियों का नियंत्रण) और कर्म (कर्तव्य पालन), ये तीनों आधार हैं। वेद उस विद्या के संपूर्ण अंग है अर्थात् वेदों में इस बृह्मविद्या के अंग-प्रत्यंगों का विस्तार सहित वर्णन है, सत्यस्वरूप परमेश्वर उसका अधिष्ठान प्राप्तव्य है। 

           गुरु के द्वारा प्रदत्त ब्रह्म विद्या संकेत मात्र ही है । शास्त्रों से पढ़कर और गुरु से सुनकर हम ब्रह्म के बारे में जान लेने का दावा तो कर सकते हैं, परंतु वास्तव में हमने उसको जाना नहीं है । बृह्मविद्या को स्थायित्व तप, दम और कर्म से मिलता है । तप, दम और कर्म इस भौतिक शरीर के द्वारा सतत चलने वाली प्रक्रियाऐं है । इस प्रक्रिया में जरा सी भी चूक हुई नहीं कि स्थिति से गिरने में देर नहीं लगती ।

        कर्तव्य कर्म का कभी भी त्याग नहीं किया जाना चाहिए । जितने भी कर्म इस शरीर की कर्मेन्द्रियों के माध्यम से होते हैं, वे स्वयं के लिए न होकर संसार की सेवा के लिए किए जाने चाहिए । सकाम कर्म आपको संसार-चक्र से मुक्त नहीं होने देते । अतः जो भी कर्म हों, वे सभी निष्काम होने चाहिए । निष्काम कर्म के लिए इंद्रियों और मन पर नियंत्रण होना आवश्यक है ।

      मन और इंद्रियों पर नियंत्रण को ही यहां दम कहा गया है । सबसे महत्वपूर्ण है, मन पर नियंत्रण । मन पर नियंत्रण से इंद्रियाँ स्वतः ही नियंत्रण में आ जाएगी । मन और इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिये गीता में भगवान ने अभ्यास और वैराग्य, ये दो उपाय बताए हैं । इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए जिस संयम की आवश्यकता होती है, वह तप के माध्यम से उपलब्ध होती है ।

    तप, जिसके लिये शरीर को तपाना पड़ता है । तपाना का अर्थ गर्मी से तपाना नहीं है बल्कि तपाने का अर्थ शरीर की सहनशीलता और सौम्यत्व से है । गीता में तीन प्रकार के तप अर्थात् शरीर, वाणी और मन के तप बताए गए हैं । देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीज़न का पूजन, शरीर की बाहर भीतर की पवित्रता, जीवन में सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा - इनको शरीर सम्बन्धी तप कहा गया है ।

      जो किसी को उद्वेलित न करे, प्रिय, हितकारी, और यथार्थ को प्रकट करती जो वाणी है उसको वाणी सम्बन्धी तप कहा गया है । इस तप के अन्तर्गत शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि भी आ जाते हैं । मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, सौम्य स्वभाव, मन का निग्रह और इसकी पवित्रता - इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप है । इस प्रकार तप, दम और कर्म बृह्मविद्या को स्थिरता देते हुए परमब्रह्म तक की राह को सुगम बना देते हैं ।

           कठोपनिषद में नचिकेता प्रसंग आता है । गौतमवंशीय नचिकेता को उसके पिता क्रोध में आकर यम को दान में दे देते हैं । छोटा सा अबोध बालक तत्काल ही घर छोड़ यम-निवास के लिए चल देता है । यमराज किसी कार्यवश बाहर गए हुए थे । नचिकेता तीन दिन तक भूखा प्यासा यम द्वार पर बैठा उनकी प्रतीक्षा करता है । तीन दिन बाद जब यम लौटते हैं तो देखते हैं कि एक ब्राह्मण बालक घर के द्वार पर भूखा प्यासा बैठा उनकी प्रतीक्षा कर रहा है । यम यह देखकर व्यथित हो जाते हैं । वे इन तीन दिनों की क्षतिपूर्ति के लिए नचिकेता को तीन वरदान मांगने का कह देते हैं ।

       नचिकेता के द्वारा मांगा गया तीसरा वर बहुत ही महत्वपूर्ण था । उन्होंने तीसरे वर के रूप में यम से बृह्मविद्या देने का आग्रह किया । बृह्मविद्या का अधिकारी हर कोई नहीं हो सकता, उसके लिए तो नचिकेता जैसा मुमुक्षु होना चाहिए । यमराज विविध प्रकार के प्रलोभन देते हैं, पर नचिकेता अपनी माँग से विचलित नहीं होता । आख़िर नचिकेता के सामने झुकते हुए यमराज को उसे बृह्मविद्या का उपदेश देना ही पड़ा ।

           बृह्मविद्या को सुन-पढ़कर रट लिया और ब्रह्म ज्ञानी हो गये, ऐसा नहीं होना चाहिए । यह तो स्वयं को भ्रम में डालना हुआ । बृह्मविद्या का आधार है - तप, दम और कर्म ।इन्हीं तीन के कारण बृह्मविद्या को स्थिरता मिलती है । वेदों में बृह्मविद्या के सभी अंगों की विस्तृत व्याख्या है । अतः उस ब्रह्म को लक्ष्य करके तप, दम और निष्काम कर्म आदि का आचरण करते हुए उस तत्व की खोज करें। ऐसा करने वाले ही उस परब्रह्म को प्राप्त कर सकते हैं ।

              जो कोई भी इस प्रसिद्ध बृह्मविद्या को भलीभाँति जान लेता है, वह समस्त पापों को नष्ट करते हुए उस सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परम धाम में प्रतिष्ठित हो जाता है अर्थात् सदैव के लिए स्थित हो जाता है ।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल


                       

    

                  

                    

                  


              

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