उपनिषद
सनातन धर्म की विशेषता है कि यह कभी भी एक निश्चित परम्परा का अनुगामी होने की बात नहीं करता। लकीर का फकीर होना अपनी बुद्धि को कुंठित कर लेना है । जिस संप्रदाय में बैठकर शास्त्रों पर कभी चर्चा नहीं हो सकती, शास्त्रार्थ नहीं हो सकता, प्रश्न -प्रतिप्रश्न नहीं हो सकते, भविष्य में वह संप्रदाय कट्टर हो जाता है। अन्ततः यह कट्टरता अन्य संप्रदायों के साथ साथ उस संप्रदाय के लिए भी घातक सिद्ध होती है।
जब तक धर्म-शास्त्रों पर चर्चा नहीं होगी, तब तक उसका सही अर्थ हमारे समझ में नहीं आ सकता। खुले मस्तिष्क से सनातन धर्म-शास्त्रों पर सहस्राब्दियों से चर्चा होती आई है और अभी भी यह प्रवाह चल रहा है। वेद जिस भाषा (वैदिक संस्कृत ) में लिखे गए है, उन्हें पढ़कर उनका अर्थ निकाल लेना आज के युग में असंभव सा होता जा रहा है।
हमारे पूर्वजों ने एक साथ बैठकर वेदों पर चर्चाएं की है, जो आज हमारे सामने उपनिषद के रूप में संकलित है । योग्य गुरु के निर्देशन में उपनिषदों का अध्ययन कर अज्ञेय को कुछ सीमा तक जाना भी जा सकता है। न जानने से कुछ जान लेना महत्त्वपूर्ण है लेकिन यह जानना सही रुप से होना चाहिए अन्यथा अधूरा ज्ञान कभी-कभी अज्ञान से भी अधिक खतरनाक सिद्ध होता है। अधूरा ज्ञान, बहुत जान लेने का अर्थात् ज्ञानी हो जाने का अहंकार पैदा करता है, जो मनुष्य के पतन का कारण बनता है।
। । हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल
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