जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई
सत्य सदैव के लिए ही सत्य होता है। असत्य चाहे कितनी बार बोल लिया जाए वह कभी भी सत्य नहीं हो सकता।इस संसार में चारों ओर सत्य से प्रतीत होने वाला असत्य बिखरा पड़ा है। यहाँ क्या सत्य है और क्या असत्य, पता लगाना मुश्किल अवश्य है परंतु असम्भव नहीं।
कांच के सहस्त्रों टुकड़ों के मध्य पड़ा इकलौता हीरा अपनी चमक को कभी खो नहीं सकता। भ्रम में जीने वाले मनुष्य कांच के टुकड़ों को हीरे समझ बैठे हैं और उनको बीन रहे हैं, उनका संग्रह कर अहंकार से भर रहे हैं परंतु जिस दिन पता चलेगा कि ये केवल कांच के टूकड़े मात्र हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जीवन के संध्या काल में हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाएंगे।
हमें इस भ्रम को मिटाना होगा।भ्रम के मिटते ही कांच के टुकड़ों के मध्य पड़े हीरे को पहिचान लेंगे। फिर कांच महत्वहीन हो जाएगा। यह शरीर और संसार के पदार्थ ही कांच है और इनके मध्य पड़ा हीरा परमात्मा है। भ्रम का निवारण होते ही संसार छूट जाएगा और परमात्मा शेष रह जाएंगे।
इस हीरे की पहिचान कौन कराएगा ? हीरे को कांच के माध्यम से नहीं पहिचान सकते, हीरे की पहिचान स्वयं हीरे से ही हो सकती है। इसी प्रकार परमात्मा की पहिचान केवल परमात्मा ही करा सकता है।उनकी कृपा से ही समस्त भ्रम मिट सकते हैं और हमें आत्म-बोध हो सकता है। बड़ी सूक्ष्मता से इस विषय पर कल से चिंतन करना प्रारम्भ करेंगे, एक नई श्रृंखला "जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई" में।
अभी गत दिनों हमने सत और असत पर एक लम्बा विवेचन किया है | इस विवेचन के पश्चात् स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि इस संसार में और संसार से परे जो कुछ भी है, एक परमात्मा ही है | परन्तु मनुष्य का कुछ ऐसा ही स्वभाव है कि वह जब पढता और सुनता है, तब तो उसे वह बात उचित प्रतीत होती है परन्तु सांसारिक जीवन के साथ उस बात का सामंजस्य बिठाना उसके लिए कठिन हो जाता है | जब आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन को भिन्न-भिन्न मान लिया जाता है, तब भ्रम की अवस्था पैदा होती है | यही कारण है कि मनुष्य अपने जीवन में शास्त्र, सत्संग और संत-सानिध्य का पूरा लाभ नहीं उठा पाता है |
सांसारिक जीवन को अध्यात्म से जोड़ देने का एक लाभ अवश्य है, वह लाभ है मनुष्य के जीवन से दुःख का चले जाना | भले ही आपको यह बात जम नहीं रही हो परन्तु यह शत-प्रतिशत सही है | हाँ, हमें अपनी भ्रम की इस दशा को छोड़ना होगा और प्रभु पर असीम श्रद्धा और विश्वास रखना होगा | बिना इसके जीवन में आनंद का आगमन नहीं हो सकता | यह भ्रम कैसे मिटे ? भ्रम के मिटाने में प्रभु की कृपा होना आवश्यक है और यह कृपा हमें परमात्मा पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखने से ही प्राप्त होती है |
जीवन में अध्यात्म मार्ग पर चलने को प्रारम्भ करने से ही भ्रम की स्थिति पैदा होती है, उससे पूर्व नहीं | कारण - जब तक हम नींद में रहते हैं, तब तक हमें देखा जाने वाला स्वप्न ही सत्य प्रतीत होता है परन्तु जब नींद टूटने लगती है और जागृति जीवन में आने लगती है, तब नींद में देखा जा रहा सत्य से प्रतीत होने वाला स्वप्न अथवा जागरण अवस्था में देखा जाने वाला सत्य - इन दोनों में कौन सा वास्तव में सत्य है, इस बात का भ्रम पैदा होना स्वाभाविक है | इसी भ्रम के कारण और निवारण को जानने और समझने का प्रयास हम इस श्रृंखला ‘जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई’ के अंतर्गत करेंगे ।
संसार में जितने भी प्राणी हैं, उन्होंने पूर्व मानव जीवन में किये गए कर्मों के अनुसार फल भोगने के लिए भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हैं | उन शरीरों से भोगे जाने वाले भोग समाप्त होते ही शेष बचे कर्मों के भोग भोगने के लिए नए मनुष्य शरीर के साथ इसी संसार में जन्म लेंगे | सभी शरीरों के अंत में मिलने वाले इस मनुष्य शरीर का जीव कितना लाभ उठा पाता है, यह उसके विवेक पर निर्भर करता है | मनुष्य शरीर के मिलने का कारण केवल शेष रहे भोग भोगना ही नहीं है बल्कि परमात्मा के साथ योग करना ही इसका मूल उद्देश्य है | इस स्थिति में आकर मनुष्य अगर पुनः भोगों में आसक्त होकर नए-नए कर्म करने में लग गया तो वह इसी संसार में उलझ कर रह जायेगा और फिर से नए-नए शरीर लेता रहेगा | इस प्रकार वह संसार के आवागमन-चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो पायेगा |
जीव को मनुष्य जीवन मिलता ही इसलिए है कि वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सके, लेकिन न जाने वह हर बार इस बात को क्यों भूल जाता है ? क्यों वह समझ नहीं पाता कि 84 के आवागमन से छूटना उसके लिए कितना आवश्यक है ? मनुष्य जीवन का उद्देश्य भोगों में आसक्त होना नहीं है बल्कि उस सत्य तक पहुँचना है, जहाँ पहुँच जाने के बाद फिर लौटकर संसार में आना नहीं पड़ता | मनुष्य का सबसे बड़ा भ्रम यही है कि उसने इस शरीर में रहते हुए सांसारिक भोगों को ही सत्य समझ लिया है | वास्तव में देखा जाये तो इन विषय-भोगों का सत्यता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध ही नहीं है ।
मनुष्य जब अज्ञान के कारण अपने वास्तविक स्वरुप को भूलकर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में अहंबुद्धि कर लेता है तब उसका झुकाव रजोगुण की तरफ हो जाता है | वास्तव में देखा जाये तो अपने शरीर को ही स्वयं का होना मान लेना उसका भ्रम मात्र है | रजोगुण की प्रधानता हो जाने के कारण उसमें विभिन्न संकल्प-विकल्प जन्म लेते हैं और वह अज्ञानी मनुष्य कामनाओं के वशीभूत होकर विषयों को भोगने के लिए विभिन्न प्रकार के कर्म करने लगता है | इस प्रकार बार-बार विषयों का सेवन करने से उसका चित्त/मन विषयों के प्रति आसक्त हो जाता है और विषय भी उसके मन में प्रवेश पा जाते हैं |
विषय भोगों से मिलने वाला सुख मनुष्य का केवल भ्रम मात्र है | अगर यह सुख ही शाश्वत और सत्य होता तो फिर वही सुख एक दिन दुःख में परिणित क्यों हो जाता है ? संसार में सुख-दुःख दोनों दिन-रात की तरह आते जाते रहते हैं | परन्तु मनुष्य इस भ्रम में जीता रहता है कि यह सुख सदा के लिए रहेगा | इसी भ्रम में वह जीवन भर दुःख का भोग करता है और सुख की प्रतीक्षा |
मनुष्य के लिए भ्रम क्या है ? भ्रम किसको कहते हैं ? जो जैसा दिखलाई पड़ रहा है, प्रतीत हो रहा है, अथवा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हमें जैसा ज्ञान हो रहा है, वह वास्तव में वैसा न होकर उससे एक दम भिन्न प्रकार का होता है | उसे ही भ्रम होना कहते हैं |
मनुष्य अपने जीवन काल में सदैव भ्रम में ही जीता रहता है | जिसे वह अपने सगे-सम्बन्धी, पुत्र, पत्नी आदि समझता है, वे सभी स्वार्थ के साथी हैं | जिस दिन उनका स्वार्थ पूरा नहीं होगा और न ही स्वार्थ पूरा होने की आशा रहेगी, उसी दिन वे आपसे दूर हो जायेंगे | सभी सम्बन्ध आपसी स्वार्थ-पूर्ति पर टिके होते हैं | सम्बन्ध में स्वार्थ क्या है ? स्वार्थ है-एक दूसरे के लिए सुख की व्यवस्था करना | मैं जो अपने पुत्र से चाहता हूँ लगभग वैसा ही कुछ पुत्र भी मेरे से पाने की आशा रखता है | जिस दिन किसी एक पक्ष से यह आशा समाप्त हो जाएगी, उसी दिन यह सम्बन्ध भी समाप्त हो जायेगा | सभी आपसी सम्बन्ध अपेक्षाओं पर ही टिके होते हैं और अपेक्षाएं भी केवल एक दूसरे से सुख पाने की रहती है | एक दूसरे से सुख की अपेक्षा करना भी एक प्रकार का भ्रम ही है |
आधुनिक विज्ञान के अनुसार भ्रम तीन प्रकार का होता है -
(क) मतिभ्रम (Hallucination) – इस प्रकार के भ्रम में कोई बाहरी कार्य होता ही नहीं है बल्कि केवल उसके होने का भ्रम होता है अर्थात जिसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं होती फिर भी उसके उपस्थित होने का अनुभव करना | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है - बाहरी उत्तेजना की अनुपस्थिति में बन गयी एक धारणा | जैसे व्यक्ति अकेला कमरे में बैठा बोल रहा है अर्थात उसे लगता है जैसे दीवार उससे बातें कर रही है जबकि वास्तव में दीवार बातें नहीं कर रही होती है | दूसरा उदाहरण - जैसे बाज़ार में चलते हुए उसे लगता है कि कोई उसका पीछा कर रहा है जबकि वास्तव में कोई भी उसका पीछा नहीं कर रहा होता है | इसी प्रकार व्यक्ति शांत वातावरण में बैठे कल्पना करता है जैसे घंटियों की आवाज़ उसके कानों में गूंज रही है | महर्षि पतंजलि ने अपने योग-दर्शन में मतिभ्रम को मन की विकल्प वृत्ति बताया है ।
इस प्रकार पहले प्रकार का भ्रम हुआ – मतिभ्रम | दूसरे प्रकार का भ्रम है – भ्रान्ति |
(ख) भ्रान्ति (delusion)- इस प्रकार के भ्रम में प्रत्यक्ष रूप से किसी भी बात के बारे में एक गलत धारणा बना ली जाती है | यह भ्रम एक प्रकार का दृढ विश्वास होता है जो तर्कसंगत तर्क के सामने / उसके विरोध में मजबूती से खड़ा हो जाता है | जैसे यह मान लेना कि पृथ्वी समतल यानि चपटी है | अब कोई भी व्यक्ति उसको बताये कि पृथ्वी गोल है, तो वह इस बात को स्वीकार कभी नहीं करेगा | इसी प्रकार एक अन्य भ्रान्ति आजकल लोगों में फ़ैल रही है कि कोरोना का टीका व्यक्ति को नपुंसक बना देता है, जबकि इस टीके का पौरुषत्व से कोई सम्बन्ध ही नहीं है | ऐसी ही कई भ्रांतियां हम जीवन भर अपने मन के भीतर पाले बैठे रहते हैं |
उपरोक्त दोनों प्रकार के भ्रम मानसिक रुग्णता के अंतर्गत आते हैं जिनकी एक मनोरोग चिकित्सक चिकित्सा कर सकता है | मनोरोग चिकित्सक मतिभ्रम और भ्रान्ति दोनों ही प्रकार के भ्रम का उपचार कर सकता है | परन्तु तीसरे प्रकार के भ्रम की चिकित्सा कोई गुरु ही कर सकता है क्योंकि इसकी कोई औषधि नहीं है | अतः यह तीसरी प्रकार का जो भ्रम है वह वास्तव में सही रूप से भ्रम कहलाने योग्य है | किसी भी साधारण और भले-चंगे मनुष्य को भी इस प्रकार का भ्रम हो सकता है | इस भ्रम का उपचार किसी औषधि से नहीं होता बल्कि केवल ज्ञान से ही इसका निवारण संभव है |
तीसरी प्रकार का जो भ्रम है, उसको जानना बड़ा ही महत्वपूर्ण है | अध्यात्म में इसी भ्रम का महत्त्व है क्योंकि यह भ्रम बिना ज्ञान के मिटता नहीं है | आइये ! इस भ्रम को भी जान लेते हैं |
(ग) भ्रम (Illusion)- इस प्रकार के भ्रम में बाहर प्रत्यक्ष रूप से कोई न कोई वस्तु अवश्य ही उपस्थित होती है परन्तु उसका अनुभव हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा कुछ भिन्न प्रकार से कर लिया जाता है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इस प्रकार के भ्रम में बाहरी उत्तेजना की उपस्थिति में हमारी इन्द्रियों द्वारा उसकी गलत व्याख्या कर ली जाती है | जैसे कमरे में पड़ी रस्सी को सांप समझ लेना | इसमें रस्सी बाहरी उत्तेजना है | रात को सूनसान क्षेत्र से अँधेरे में हवा से हिलते हुए आक के पौधे को कोई मनुष्य अथवा भूत समझ लेना | यहाँ आक का पौधा बाहरी उत्तेजना है | महर्षि पतंजलि ने अपने योगदर्शन में इस भ्रम को मन की विपर्यय वृति कहा है |
भ्रम की जो तीन अवस्थाएं बताई हैं, वे सब ‘माया’ के अंतर्गत आ जाती है | माया को ही हम सत्य समझ लेते हैं, अतः माया भी एक भ्रम हुई | माया का ज्ञान हमारे शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से होता है | माया भ्रम इसलिए हो जाती है क्योंकि हमें जो दिखलाई पड़ रहा है, उसको ही हम सत्य समझ लेते हैं | माया शाश्वत नहीं है | उसका एक दिन विलीन हो जाना निश्चित है | यह संसार और शरीर, सब कुछ माया के अंतर्गत है | संसार को ही सत्य समझ उसमें आसक्ति कर लेने के कारण ही हम सत्य से दूर हो जाते हैं | असत को सत मान लेना ही हमारा भ्रम है |
असत संसार को ही सत मान लेना हमारा भ्रम है | इसीलिए इस संसार को ‘माया’ कहा गया है | माया अर्थात भ्रम, जो दिखलाई तो अवश्य ही दे रही है और दिखने के कारण हमें वह सत्य भी प्रतीत हो रही है परन्तु वास्तव में वह सत्य है नहीं |
इस संसार में चारों और आकर्षण ही आकर्षण भरे पड़े हैं जो प्रतिपल मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करने में लगे हुए हैं | इस प्रकार के आकर्षण में फंसने को ही आसक्त होना कहते हैं | जब हमें भूख लगती है तब हम भोजन की ओर आकर्षित होते हैं और जब प्यास लगती है तो जल की ओर | जब किसी भी प्रकार भूख मिटे तब तक तो ठीक है परन्तु भूख मिटाने के लिए हमें विशेष प्रकार के व्यंजन ही चाहिए, ऐसी कामना रखना ही मनुष्य को उन पदार्थों के प्रति आसक्त कर देता है |
मनुष्य जीवन की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि उसकी भूख-प्यास कभी मिटती नहीं है | भूख-प्यास भी एक प्रकार की नहीं है | जितनी हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ है, उतनी प्रकार की ही हमारी भूख है | नाक की भूख गंध है | मनुष्य प्रतिपल सुगंधित वातावरण में ही रहना चाहता है | कान की भूख शब्द है | उसके माध्यम से मनुष्य प्रत्येक समय अपनी प्रशंसा और अन्य की आलोचना ही सुनना चाहता है | आँख की भूख सुन्दरता है | मनुष्य सदैव ही सुन्दर वस्तु की चाहना करता है | हमारी जीभ सदैव ही स्वादिष्ट भोजन की कामना करती है | त्वचा की भूख तो सबसे बड़ी भूख है | इसके माध्यम से मनुष्य सदैव स्पर्श सुख में खोया रहना चाहता है |
ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी हम ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, वह वास्तव में असत का ज्ञान है | असत का ज्ञान वास्तविक ज्ञान न होकर अज्ञान है | आधुनिक विज्ञान के अनुसार सभी ज्ञानेन्द्रियों का विकास चर्म से ही हुआ है | इसीलिए कहा जाता है कि चर्म से बनी इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से मनुष्य सभी समय चर्म-सुख में खोया रहना चाहता है | इन इन्द्रियों से मिलने वाला सुख वास्तव में सुख नहीं है | अतः ‘इन्द्रियों से सुख प्राप्त होता है’ यह मान लेना हमारा भ्रम ही है |
भ्रम मनुष्य में पैदा होता है, परमात्मा की बनाई इसी माया के कारण | हाँ, यह माया भी प्रभु की है | प्रभु की इस माया को जो समझ जाता है वह इस माया के पार चला जाता है | माया से पार जाने के लिए हमारे सभी भ्रम मिटने आवश्यक है | इसलिए सर्वप्रथम माया को जानना आवश्यक है | यह सत्य है कि परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की है | जीव का शरीर बनाने के बाद वह स्वयं अंतर्यामी रूप से उसमें प्रवेश करता है | प्रवेश करने के पश्चात् वह सबसे पहले अपने आप को ही एक मन के रूप में और बाद में दस इन्द्रियों के रूप में विभक्त कर लेता है | इस अवस्था में आकर अब वह एक जीव बन गया है जो इस मन और इन्द्रियों के माध्यम से विषयों का भोग करता है |
जब यह जीव विषय-भोग में रत रहता है तब उसमें संसार के प्रति आसक्ति-भाव पैदा हो जाता है और इस शरीर को ही ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ मानने लगता है | इस प्रकार वह शरीर को ही अपना स्वरुप समझने लगता है और अपने मूल स्वरुप को भूल जाता है | कर्मेन्द्रियों से कर्म करके वह उनके फल रूप में सुख-दुःख भोगता है | परन्तु इन भोगों से वह जीवनभर संतुष्ट नहीं हो पाता | इस प्रकार भोगों से संतुष्टि प्राप्त करने के लिए वह नए-नए शरीरों की यात्रा करता रहता है और संसार में भटकने लगता है | यही भगवान् की माया है |
मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह विभिन्न प्रकार के कर्म करता हुआ दुःख से बाहर निकलना चाहता है और सुख को प्राप्त करना चाहता है | वह यह नहीं समझ पाता कि यह सब माया है | वह माया से बाहर आने के लिए विभिन्न प्रकार के सकाम कर्म करता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि सकाम कर्म करते हुए माया से पार नहीं हुआ जा सकता |
यहाँ आकर प्रश्न उठता है कि फिर इस भ्रम से बाहर निकलने का उपाय क्या है ? इस माया से बाहर कैसे निकला जा सकता है ? इस माया से बाहर निकलने के लिए हमें गुरु की शरण में जाना होगा | हमारे गुरु भी ऐसे हों, जो वेदों के पारदर्शी विद्वान, तत्वज्ञानी और अनुभवी हों | गुरु के पास जाकर उनकी निष्कपट भाव से सेवा करें और उनके माध्यम से माया के स्वरुप, इसकी उत्पत्ति और विलयन को समझें | जब आप इस ज्ञान को आत्मसात कर लेंगे तब पहले शरीर और संतान आदि में अपनी आसक्ति छोड़ अनासक्त हो जाएँ | सर्वत्र और सबमें परमात्मा को देखें | अपने धर्म का पालन करें | जो कुछ मिल जाये उसी में संतोष धारण करें | अपनी समस्त इन्द्रियों को स्थिर रखें | केवल एक परमात्मा का ही आश्रय लें | परमात्मा की कृपा से ही हमारे सभी भ्रम मिट पाएंगे और हम उसकी इस माया से पार हो जायेंगे |
मनुष्य की महत्वपूर्ण आवश्यकताएं रोटी, कपडा और मकान हैं | इसके बाद आता है उसका परिवार | माया के पार जाने के लिए पहले घर छोड़ना पड़ता है | घर छोड़ने से आशय केवल घर का त्याग कर वन अथवा आश्रम में चले जाना नहीं है बल्कि घर में निवास करते हुए उसमें आसक्ति न रखना है | कपडे की आवश्यकताएं भी सीमित की जा सकती है और रोटी की भी | परिवार में आसक्ति छोड़ना तभी सुगम होगा जब रोटी, कपड़ा और घर से हम अनासक्त हो जाएँ | सबसे मुश्किल है, स्वयं के ‘मैं’ होने का अहंकार छोड़ना | अहंकार का परित्याग किये बिना माया से पार नहीं हुआ जा सकता | ‘मैं’ को छोड़ने से ही हम अपने वास्तविक स्वरुप तक पहुंचेंगे अन्यथा नहीं |
माया से पार हो जाना जितना सरल प्रतीत होता है उतना है नहीं | महान व्यक्ति भी माया से निकलकर पुनः माया में फंस जाते हैं | इसके लिए देवर्षि नारद के जीवन का एक दृष्टान्त देना चाहूँगा | काम को जीत लेने के बाद नारदजी एक बार प्रभु की माया में फंसकर विश्वमोहिनी से विवाह का सपना पाल बैठे थे | उस समय तो श्री हरि ने श्राप लेकर भी उनको माया में फंसने से बचा लिया था | जैसा कि मैंने पहले कहा है , अहंकार का त्याग करना असंभव सा है क्योंकि किसी न किसी बात को लेकर अहंकार अपना फन बार-बार उठाता रहता है | नारदजी को भी तो काम को जीत लेने का अहंकार हो गया था जिसको श्री हरि ने तोडना आवश्यक समझा था | नारदजी द्वापर युग में भी फिर एक बार माया के जाल में फंस गए थे |
हुआ यूँ कि एक बार नारदजी के मन में विचार आया कि संसार के लोग माया में फंसकर अपना स्वरुप तक भूल जाते हैं | सांसारिक लोग क्यों सब कुछ जानते हुए भी इस माया के वश में हो जाते हैं ? मुझे भी एक बार फिर से माया का साक्षात्कार कर लेना चाहिए | देखता हूँ, माया कैसे मुझे अपने वश में कर लेती है ?
नारदजी तो तीनों लोकों में निर्बाध घूम सकते हैं, उनके लिए दूर से भी दूर की यात्रा कर लेना असंभव नहीं है | अपनी मन की इच्छा पूरी करने के लिए एक दिन नारदजी पहुँच गए, द्वारकाधीश के यहाँ | द्वारका पहुँचते ही भगवान के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट कर दी | भगवान् श्री कृष्ण ने कहा 'त्रिलोकी में घूमते घूमते आप थक गए होंगे, कुछ समय के लिए तनिक विश्राम तो कर लीजिये | माया से सामना तो आपका कभी और किसी दिन भी हो सकता है |' इस प्रकार कई दिन तक नारदजी द्वारका में ही रहे | एक दिन भगवान् ने उनसे द्वारका के बाहर वन-भ्रमण पर चलने का आग्रह किया |
राजमहल को छोड़कर पैदल ही दोनों (नारदजी और श्री कृष्ण) वन की ओर चल पड़े | वन में टहलते टहलते भगवान् श्री कृष्ण को प्यास लगी | उन्होंने नारदजी को एक पात्र देते हुए कहा – “जाइए पता कीजिये , पास में ही कोई गाँव होगा, वहां जाकर मेरे लिए थोडा सा जल ले आइये | आज मैं कुछ ज्यादा ही थक गया हूँ, इस पेड़ के नीचे जरा विश्राम कर लेता हूँ | आप जल लेकर शीघ्र ही लौट आइए |” नारद मुनि पात्र लेकर जल लेने के लिए वहां से चल दिए | थोड़ी ही दूर चलते ही उन्हें एक गाँव दिखलाई पड़ा |
नारदजी ने उस गाँव में प्रवेश किया | वे उस गाँव के एक सुन्दर से घर के सामने जा पहुंचे और आवाज देते हुए गृह-स्वामी से जल देने का आग्रह किया | घर का दरवाज़ा खुला और एक अतिसुन्दर कन्या ने मुनि से आने का प्रयोजन पूछा | मुनि नारद तो उसकी सुन्दरता देखकर मुग्ध हो गए | द्वार पर मुनि को अचंभित खड़े देखकर कन्या ने अपने पिता को द्वार पर ही बुला लिया | कन्या के पिता ने आते ही मुनि को प्रणाम किया और आदर सहित घर के भीतर ले गए | उचित आसन देकर गृहस्वामी ने मुनि से आने का प्रयोजन पूछा | नारदजी जल लेना तो भूल गए और सीधे ही कन्या से विवाह करने का प्रस्ताव उसके पिता के समक्ष रख दिया |
कन्या के पिता ने कहा – “यह कन्या मेरी एक मात्र संतान है | इसके विवाह के लिए मेरी एक शर्त है | आपको विवाह उपरांत यहीं हमारे पास ही रहना होगा |” नारदजी तो कन्या के रूपजाल में गहराई तक उलझ गए थे | भगवान् के लिए जल लेना तो भूल गए और तत्काल ही उस शर्त को स्वीकार कर लिया | इस प्रकार नारदजी और कन्या का विवाह हो गया |
नारदजी विवाह उपरांत अपनी ससुराल में ही रहने लगे | घर और कृषि का कार्य नारदजी सम्हालने लगे | धीरे धीरे समय बीतता जा रहा था | समय पाकर कन्या के पिता का देहावसान हो गया था | तब तक नारदजी दो बच्चों के पिता बन चुके थे | नारदजी का गृहस्थाश्रम निर्बाध गति से सुखपूर्वक बीत रहा था | तभी एक दिन समय ने करवट ली |
प्राकृतिक प्रकोप से हो रही अतिवृष्टि ने गाँव को अपनी चपेट में ले लिया | गाँव के प्रायः घर एक-एक कर गिरते हुए खंडहर में बदलते जा रहे थे | नारदजी ने विचार किया कि समय रहते हमें भी इस घर को छोड़ देना चाहिए | उन्होंने अपनी पत्नी का हाथ पकड़ा और दोनों बच्चों को कंधे पर बिठाकर उस गाँव से बाहर निकल आये | सामने उफान मारते नदी बह रही थी | सुरक्षित स्थान की ओर जाने के लिए नदी को पार करना आवश्यक था | हिम्मत कर हाथ पकड़कर नारदजी अपनी पत्नी के साथ धीरे-धीरे नदी को पार करने लगे |
नदी के तेज बहाव में पहले उनसे अपनी पत्नी का हाथ छूटा और वह तेज जलधारा में बह गयी | फिर एक बालक भी उनके कंधे से फिसलकर नदी में जा गिरा | नदी के बीच पहुंचे ही थे कि दूसरा बच्चा भी नदी की धारा में बह गया | अब स्वयं के प्राण बचाने के लिए नारदजी पूरा जोर लगाकर नदी को शीघ्रता से पार करने का प्रयास कर रहे थे | तभी उनके पाँव भी उखड गए और वे नदी की तेज जल-धारा में बहने लगे | प्राणों की सुरक्षा के लिए वे सहायता के लिए चिल्लाने लगे – “बचाओ ! बचाओ !!”
तभी भगवान् श्री कृष्ण ने नारदजी को जोर जोर से हिलाते हुए पूछा – “नारद ! तुम कब आए ? मेरे लिए लाया गया जल कहाँ है ?” सुनकर नारदजी चौंके - “कहाँ गए मेरे बच्चे ? कहाँ है मेरी पत्नी ? ओह सब कुछ एक सपना था, भ्रम था |” प्रभु बोले – “नारद, यही माया है | माया में उतरकर इसको जानने समझने का प्रयास न करो | इसमें उतरोगे तो उलझते जाओगे, इसका आदि-अंत मिलना असम्भव है, फिर बाहर निकलना भी संभव नहीं रहेगा |केवल एक प्रभु की शरण में ही सदैव बने रहो, फिर मेरी यह माया भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी |’
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज, जिन्होने श्री रामचरितमानस जैसे महान ग्रन्थ की रचना की है, वे भी एक बार भ्रम के शिकार हो गए थे | एक बार उनके मन में अपने इष्ट प्रभु श्री राम के दर्शन की प्रबल इच्छा हुई | वे उनके दर्शन करने के लिए जगन्नाथपुरी की ओर चल दिए | मंदिर के सामने भारी भीड़ को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई | वे भी भीड़ के साथ दर्शन करने हेतु मंदिर में प्रवेश कर गए | गर्भगृह में मूर्ति की ओर देखते ही उन्हें बड़ी निराशा हुई | उन्होंने सोचा कि ये मेरे इष्ट कैसे हो सकते हैं, इनके तो हाथ भी नहीं है | भला, यह फिर कुछ करते भी कैसे होंगे ? बिना हाथों के तो वे धनुष-बाण कैसे धारण करेंगे ?
बिना हाथों की प्रभु की मूर्ति को देखकर, तुलसी उन्हें अपना इष्ट स्वीकार करने को तैयार नहीं थे | निराशा का भाव लिए वे दुखी मन से मंदिर के बाहर निकल आये | सूर्य अस्ताचल की ओर चला जा रहा था | सूरज को ढलते देखकर तुलसीदासजी महाराज मुंह लटकाए हुए एक निर्जन स्थान पर जाकर बैठ गए | थके-हारे और भूखे प्यासे गोस्वामीजी को आज अपनी यह यात्रा बड़ी निरर्थक प्रतीत हो रही थी |
धीरे-धीरे रात गहराती जा रही थी | भूख के मारे तुलसीदासजी महाराज बड़े व्याकुल हो रहे थे | तभी एक छोटा सा बालक एक थाली में भोजन लिए उनके सामने आ खड़ा हुआ | गोस्वामी तुलसीदासजी के पास बैठकर बालक बड़े प्रेम से बोला –‘बाबा, जगन्नाथजी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है | ग्रहण कीजिये |’ तुलसीदासजी ने कहा –‘मैं यह प्रसाद नहीं लूँगा, इसे वापिस ले जाइए |’
गोस्वामीजी तो जगन्नाथ भगवान् की बिना हाथों की मूर्ति देखकर बहुत व्यथित थे | उनके इष्ट तो शस्त्रधारी हैं, भला वे बिना हाथों के किसी अस्त्र-शस्त्र का उपयोग कैसे करेंगे ? भूख तो उनको थी परन्तु उन्होंने मना कर दिया | आहत मन भले ही दिखावे के तौर पर करे, भोजन का बहिष्कार कर ही देता है | बालक ने उनसे एक बार फिर से प्रसाद ग्रहण करने का आग्रह किया | बालक ने कहा – ‘जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ’, और आप इस प्रसाद को ग्रहण करने से मना कर रहे हैं | आपकी इनसे ऐसी क्या नाराजगी है, जो आप उनके द्वारा भेजे गए प्रसाद के हाथ तक नहीं लगा रहे हैं ?’ तुलसीदासजी ने कहा –‘मैं अपने इष्ट को भोग लगाये बिना कुछ भी ग्रहण नहीं करता हूँ और जगन्नाथ के जूठे हुए प्रसाद का मैं मेरे इष्ट को भोग नहीं लगा सकता |’
इतना सुनते ही बालक खिलखिलाकर हंस पड़ा और बोला – ‘यह आपके इष्ट ने ही तो भेजा है |’ तुलसीदासजी तो पहले से ही भीतर भरे पड़े थे | उबल पड़े – ‘बिना हाथ वाला मेरा इष्ट नहीं हो सकता |’
‘बिना हाथ वाला मेरे इष्ट धनुर्धारी राम नहीं हो सकते’, इतना सुनते ही बालक ने गोस्वामीजी से मुस्कुराकर पूछा कि फिर आपने श्री रामचरितमानस में उनके स्वरूप का इस प्रकार वर्णन क्यों किया है -
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना |
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ||
आनन रहित सकल रस भोगी |
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ||
एक छोटे से बालक के मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर गोस्वामीजी का चेहरा देखने लायक था | वे समझ गए कि यह कोई साधारण बालक नहीं है | “कहीं ये ही तो मेरे ईष्ट नहीं है ? मेरा भ्रम दूर करने के लिए ही तो कहीं ये बालक बनकर नहीं आये हैं ?” उनकी आँखे खुल गयी | उनकी आँखों से लगातार आंसू झरने लगे, मुंह से बोल तक नहीं निकल पा रहे थे |
बालक ने अपने दोनों हाथों से थाल को उतारकर तुलसीजी के सामने रख दिया और उनके आंसू अपने हाथों से पोंछते हुए बोला – “मैं ही राम हूँ | मेरे इस मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा रहता है | विभीषण प्रतिदिन मेरे दर्शन करने को लंका से चलकर आता है | तुम भी सुबह मेरे दर्शन करने आ जाना |’’ इतना कहकर थाली वहीं छोड़ वह बालक अदृश्य हो गया | तुलसीजी इस बात को सुनकर बड़े संतुष्ट हुए | फिर उन्होंने बड़े प्रेम से वह प्रसाद ग्रहण किया |
बालक द्वारा लाये गए जगन्नाथजी के प्रसाद को ग्रहण करते हुए तुलसीदासजी का रोम-रोम हर्षित हो रहा था | साथ ही मन में बड़ी भारी ग्लानि भी हो रही थी कि मेरे भ्रम का निवारण करने के लिए मेरे इष्ट को मेरे पास बालक बनकर आने का कष्ट उठाना पड़ा | फिर भी ख़ुशी इस बात की थी कि प्रातः मेरे इष्ट उसी मंदिर में दर्शन देकर मुझे कृतार्थ करेंगे | रात भर तुलसीजी के नेत्रों में नींद नहीं थी | राम-राम रटते सुबह हुई | दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर तुलसीदासजी महाराज मंदिर की ओर बढे | द्वार पर ही हनुमानजी महाराज ने उनका अभिवादन किया | पलकें झुकाए धीरे-धीरे चलते हुए गोस्वामीजी ने मंदिर में प्रवेश किया |
मंदिर के गर्भ-गृह के पास पहुंचकर गोस्वामीजी ने अपना सिर ऊपर उठाया और मूर्तियों की ओर देखा | उन्हें पूर्व की भांति जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ ही दिखलाई पड़ी | तत्काल ही उनका स्थान श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी की मूर्तियों ने ले लिया | इस प्रकार तुलसी को अपने इष्ट के दर्शन उन मूर्तियों में हुए | भगवान् ने अपने भक्त का भ्रम दूर करते हुए उनकी इच्छा का पूरा सम्मान किया | तुलसीदासजी भाव विभोर हो गए | उनको समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपने इष्ट की स्तुति किस प्रकार करे | देखा जाए तो जो राम है, वही कृष्ण है | दोनों में अंतर कर देना हमारी मानसिक रूग्ण अवस्था को ही प्रदर्शित करता है और केवल इसी कारण से हमें इन दोनों के अलग अलग होने का भ्रम पैदा हो जाता है |
जहाँ तुलसीदासजी जगन्नाथपुरी में ठहरे थे उस स्थान को ‘तुलसी चौरा’ कहा जाता है | आज के समय वह स्थान तुलसीदासजी की पीठ “बड़छता-मठ” के नाम से प्रसिद्ध है | गोस्वामीजी को भ्रान्ति रुपी भ्रम था कि मेरे इष्ट तो केवल श्री राम ही हैं | वे राम, जो शस्त्रधारी हैं, जो अपने धनुष बाण से निर्बलों की सहायता करते हैं | वे राम जिन्होंने इस धरा को असुरों से मुक्त किया और शरणागत की रक्षा की | परन्तु वे भूल गए कि श्री राम उसी ब्रह्म के अवतार हैं जो ब्रह्म बिना पैरों के ही चलता है, कान न होते ही सुनता है, बिना हाथों के बहुत प्रकार के कार्य कर लेता है, बिना जिह्वा के छहों रस का आनंद लेता है और बिना वाक् इन्द्रिय के बहुत योग्य वक्ता भी है | बिना त्वचा के ही स्पर्श का अनुभव कर लेता है, बिना आँखों के देख भी लेता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण भी करता है | वह विभिन्न रूप धारण कर सकता है । अतः जगन्नाथ और श्री राम में कोई भेद नहीं हो सकता | इनमें भेद करना ही हमारा भ्रम है।
इसी प्रकार हमें भी भ्रम होता है, निर्गुण और सगुण के बारे में | दोनों में कोई भेद नहीं है । भ्रम होता है-इनमें भेद मान लेने के कारण | गोस्वामीजी मानस में कहते भी हैं कि निर्गुण और सगुण में कुछ भी भेद नहीं है परन्तु वाद-विवाद करने वालों में से कोई भी उनकी बात को नहीं समझता | सगुण होने का अर्थ है, जो प्रकृति के तीनों गुणों से ओतप्रोत है और वह एक मनुष्य की तरह ही प्रतीत होता है | निर्गुण होने का अर्थ है कि उसमें प्रकृति का कोई गुण नहीं होता अर्थात वह गुणातीत होता है |
मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने समकक्ष और अपने जैसा प्रतीत होने वाले को अधिक महत्त्व देता है | यही कारण है कि वह अवतारों और विभिन्न देवताओं की पूजा करता है | इनकी पूजा करने के लिए उसने उनकी मूर्तियों का निर्माण किया | इन मूर्तियों की पूजा करने के लिए उसने विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को महत्त्व दिया | मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह साधन और क्रिया को महत्त्व अधिक देता है, जिस कारण वह साध्य से विमुख हो जाता है | साधन में विभिन्न प्रकार की क्रियाएं आती है, जिनसे हम साध्य को साधने का प्रयास करते हैं | ध्यान रखें, क्रियाओं पर अधिक ध्यान देने से साध्य से ध्यान हट जाने की प्रबल संभावनाएं बन जाती है |
वास्तविकता तो यह है कि परमात्मा तक पहुँचने के लिये प्रत्येक क्रिया अंततः जाकर प्रायः महत्वहीन ही सिद्ध होती है | परन्तु हम हैं कि इन क्रियाओं के जाल में इस प्रकार उलझ जाते हैं कि साध्य का मार्ग तक भूल जाते है | मार्ग भूलते ही नहीं है बल्कि उस मार्ग पर अग्रसर होने में उन क्रियाओं को ही बाधा बना कर खड़ी कर देते हैं ।
मेरे कहने का मंतव्य यह नहीं है कि परमात्मा को पाने के लिए क्रियाओं को करना अनुचित है | मैं यह कहना चाहता हूँ कि जिसके लिए ये क्रियाएं की जा रही हैं, उस 'एक' पर ही एकटक दृष्टि जमाये रखना क्रियाओं से अधिक महत्वपूर्ण है | इसलिए क्रियाओं के जाल में अटककर परमात्मा के मार्ग से भटके नहीं |
तुलसी ने निर्गुण निराकार ब्रह्म के बारे में मानस में स्पष्ट किया है –
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना |
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ||
आनन रहित सकल रस भोगी |
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ||
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा |
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ||
असि सब भाँति अलौकिक करनी |
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ||
जेहि इमि गावहि बेद बुध
जाहि धरहिं मुनि ध्यान ||
सोइ दसरथ सुत भगत हित
कोसलपति भगवान || बालकाण्ड – 118 ||
वह ब्रह्म बिना पैरों के ही चलता है, कान न होते ही सुनता है, बिना हाथों के बहुत प्रकार के कार्य कर लेता है, बिना जिह्वा के छहों रस का आनंद लेता है और बिना वाक् इन्द्रिय के बहुत योग्य वक्ता भी है | बिना त्वचा के ही स्पर्श का अनुभव कर लेता है, बिना आँखों के देख भी लेता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है | उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती | जिसका वेद और पण्डित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथ नंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान् श्री रामचन्द्रजी हैं |
गोस्वामीजी ने इन चौपाइयों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि जो निर्गुण निराकार है वही सगुण साकार के रूप में प्रकट होता है | निर्गुण निराकार होते हुए भी ब्रह्म बिना इन्द्रियों के ही सभी इन्द्रियों के काम कर लेता है |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को निर्गुण निराकार की बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि उस 'एक' के कारण ही व्यक्ति की सभी इन्द्रियों का कार्य करना संभव होता है | वे कहते हैं कि -
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् |
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च || गीता -13/14||
अर्थात वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाले हैं, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं तथा गुणों से रहित हैं और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता हैं |
परमात्मा बिना इन्द्रियों के भोक्ता कैसे बन गए हैं, यह बात भगवान् श्री कृष्ण इससे पूर्व के श्लोक में स्पष्ट करते हैं -
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोSक्षिशिरोमुखम् |
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति || गीता- 13/13 ||
अर्थात वे परमात्मा सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले हैं | वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है |
इससे स्पष्ट है कि प्राणियों में जो कुछ भी कार्य इन्द्रियों के द्वारा किया जाता है और उन इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी भोगा जाता है, उन सब के पीछे परमात्मा की भूमिका है अन्यथा ये सभी इन्द्रियां बेकार पड़ी मशीन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
यह सत्य है कि निर्गुण निराकार से ही सगुण साकार आता है | गुणातीत होने का अर्थ है, गुणों से जो प्रभावित नहीं है अर्थात उसे कुछ करने के लिए गुणों का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं होती | निर्गुण बिना किसी गुण के होते हुए भी सब कुछ कर सकता है | इसलिए जब संसार में हम कोई अप्रत्याशित घटना घटित होते हुए देखते हैं तो कहते हैं कि सब कुछ परमात्मा ही करता है | वह जब निर्गुण है, निराकार है तो ऐसा करना उसके द्वारा कैसे संभव हो सकता है ? यही बात हमारे भीतर भ्रम को जन्म दे देती है |
परमात्मा निर्गुण निराकार है जबकि जगत सगुण साकार है | परमात्मा दिखलाई नहीं पड़ रहे हैं, संसार तो दृष्टिगत भी है और आकर्षक भी | हमें जो कुछ दिखलाई पड़ रहा है, उसी की सत्य मानकर स्वीकार करते हैं, यही हमारा सबसे बड़ा भ्रम है | वास्तव में निर्गुण निराकार ने ही सगुण साकार सृष्टि की रचना की है | निर्गुण निराकार के बिना सगुण साकार का जन्म नहीं हो सकता | साथ ही यह भी सत्य है कि सगुण साकार के कारण ही निर्गुण निराकार की महत्ता है | स्वामीजी कहते हैं कि सगुण साकार में निर्गुण निराकार भी आ जाता है, अतः सगुण साकार की उपासना ज्यादा प्रभावी है | कहने का अर्थ है कि सगुण साकार यह संसार है जिसको भगवान् ने अपना आदि अवतार भी कहा है और इस संसार का आविर्भाव निर्गुण निराकार से हुआ है | दूसरे शब्दों में कह सकता हूँ कि संसार का सत्य यही है कि वह स्वयं परमात्मा पर आश्रित है |
निर्गुण निराकार से इस जगत का निर्माण हुआ है और वह परमात्मा इस जगत के कण-कण में व्याप्त है | इसका अर्थ हुआ कि बिना परमात्मा के इस जगत का अस्तित्व नहीं है | इसी बात को गोस्वामीजी ने मानस में इस प्रकार कहा है –
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई |
जदपि असत्य देत दुख अहई ||
यह सारा संसार परमात्मा पर ही आश्रित है | इस संसार में रहते हुए हम सुखी-दुखी होते रहते हैं, जबकि इस प्रकार सुख-दुःख भोगने का कोई औचित्य नहीं है |
संसार असत्य है क्योंकि यह प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है | परमात्मा अक्षर है, असीम है, अपरिवर्तनशील है और साथ ही निराकार भी | संसार का अस्तित्व स्वयं निर्गुण निराकार परमात्मा पर टिका है | सत्य केवल एक परमात्मा ही है | इस प्रकार संसार का अस्तित्व संसार के स्तर पर स्वीकार करना भी विचारणीय हो गया है | वास्तव में संसार को कार्य कहा जाता है और प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है | संसार के होने का कारण परमात्मा है | इस प्रकार संसार भी परमात्मा ही हुआ | अतः परोक्ष रूप से कहा जा सकता है कि परमात्मा सत्य हैं और संसार भी सत्य है | संसार को असत्य बनाती है, हमारी उसके प्रति आसक्ति | यह संसार हमारे लिए तभी सत्य सिद्ध हो सकता है, जब हम उस संसार को भी परमात्मा माने और संसार को परमात्मा तभी स्वीकार किया जा सकता है जब हम इसके प्रति अनासक्त हों |
संसार असत् है क्योंकि हमारी उसमें आसक्ति है | इसे हमने अपना और अपने लिए मान लिया है | संसार के असत् होने को स्वीकार करना आवश्यक है, तभी हमारे जीवन से दुःख दूर हो सकते हैं अन्यथा नहीं | इसके लिए हमें ज्ञान प्राप्त करना होगा | ज्ञान ही हमें सत् तक ले जा सकता है | असत् को सत् मान लेना ही हमारे जीवन में दुःख का एक मात्र कारण है | हमारा यह दुःख तब तक दूर नहीं होगा जब तक हम इस असत्य के पीछे छिपे सत्य को पहिचान नहीं लेते | यह पहिचान ज्ञान होने से ही हो सकती है अन्यथा नहीं | अज्ञान हमारी निद्रावस्था है जबकि ज्ञान हो जाना जाग्रत अवस्था कहलाती है |
सुषुप्ति अवस्था से जाग्रत अवस्था में आने से ही सारा भ्रम मिट जायेगा | सुषुप्ति की अवधि में एक स्वप्नावस्था भी आती है, जिसका सत्य से दूर दूर का कोई सम्बन्ध नहीं होता है | सपने में एक राजा भी भिखारी बन जाता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह वास्तव में वह भिखारी हो गया है | राजा जनक के जीवन का एक प्रसंग है | एक बार जनकजी अपने राजनिवास के शयनकक्ष में सो रहे थे | तभी उनको एक स्वप्न आया कि वे एक भिखारी हैं | कई दिनों से उन्हें भोजन नहीं मिला है | भूख के मारे उनका हाल बेहाल हो रहा है | वे कुछ खाने की खोज में इधर उधर भटक रहे है | तभी एक स्त्री भोजन लेकर उनके सामने आती है | स्त्री भोजन तो ले आयी परन्तु जनकजी के पास तो उसे लेने के लिए कोई पात्र तक नहीं है | देखिए, स्वप्न भी व्यक्ति को कहाँ से कहाँ ले जाता है, कल्पना से बाहर की बात है |
मरघट में इधर स्त्री भोजन लिए खड़ी है और उधर जनकजी के पास उस भोजन को प्राप्त करने के लिए कोई पात्र नहीं है | मरघट में भला भोजन के लिए पात्र कहाँ से मिलेगा ? जनकजी ने इधर उधर दृष्टि दौड़ाई | एक भग्न नर मुंड उन्हें दिखलाई पड़ा | उन्होंने भोजन लेने के लिए उसी खप्पर को एक पात्र बना लिया | स्त्री ने भोजन उस खप्पर में डाल दिया | जनकजी अपनी क्षुधा शांत करने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गए | ज्योंही वे उस भोजन को उदरस्थ करने वाले थे कि एक चील कहीं से उडती हुई आई | उस चील ने उस खप्पर में से भोजन उठाना चाहा परन्तु यह क्या ? चील के झपटते ही वह भोजन भरा खप्पर जनकजी के हाथ से नीचे गिर गया | खप्पर के नीचे गिरते ही उसमें से भोजन बिखरकर मिट्टी में मिल गया | भोजन अब खाने योग्य नहीं रह गया था | भूख से बिलबिला रहे भिखारी जनकजी के मुंह से एक चीख निकल गयी | इस चीख के साथ ही राजा जनकजी की आँख खुल गयी | यह क्या ? पसीने से लथपथ जनकजी तो राजमहल में सोये हुए है | वे सोचने लगे – “ओह ! यह तो एक स्वप्न था | मैं तो अभी राजा हूँ | फिर स्वप्न में जो जनक भिखारी बना घूम रहा था वह कौन था ?”
स्वप्न में अपनी दशा देखकर जनकजी को भी भ्रम हो गया | वे समझ नहीं पा रहे थे कि अभी जो मैं हूँ वह सत्य है अथवा जो स्वप्न मैंने देखा वह सत्य है | सत्य का निर्णय कौन करे ? सत्य का निर्णय केवल वही कर सकता है जिसने सत्य को जान लिया हो | सत्य पढने, बोलने, लिखने अथवा सुन लेने तक ही सीमित नहीं है बल्कि सत्य तो अनुभव करने की बात है | जब तक सत्य का अनुभव नहीं होता तब तक सारा पढ़ा, बोला, लिखा, सुना ज्ञान उच्छिष्ट के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
सत्य क्या है, वह स्वप्न अथवा यह सांसारिक जाग्रत अवस्था ? इस सत्य को जिसने जान लिया, वह ज्ञानी हो कर सारी माया के पार हो गया | ज्ञान को स्वयं के भीतर उतारकर आचरण में लाने से ही वह भ्रम को दूर करने में सहायक है अन्यथा ज्ञान उच्छिष्ट बनकर रह जाता है | जिसने इस ज्ञान को केवल पढ़ने, सुनने, लिखने और बोलने तक सीमित रखा उसका सारा ज्ञान वमन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जब आप पौष्टिक भोजन करते हैं, तब वह भोजन आपको तुष्टि और पुष्टि तभी दे पायेगा जब वह भोजन आपके भीतर जाकर रचे, पचे, उसका रस बने और धमनियों के माध्यम से शरीर में दौड़ते हुए एक शक्ति बन जाए | वमन कर देने पर वह भोजन चाहे कितना ही पौष्टिक हो आपको पुष्ट नहीं कर सकता |
सत्य का अनुभव जिस व्यक्ति ने कर लिया है उसी व्यक्ति को गुरु कहा जाता है | गुरु ही वह माध्यम है जिससे हमें सत्य की ओर जाने की राह मिलती है | गुरु ही हमारे सभी भ्रम दूर कर सकता है | जनकजी का भ्रम दूर उनका गुरु ही करेगा, यह जानकर विदेहराज पहुँच गए अपने गुरु अष्टावक्र के पास | ज्ञान का शरीर सौष्ठव और सुन्दरता से कोई सम्बन्ध नहीं है | घड़ा बाहर से भले ही कितना ही सुन्दर हो, जब तक वह अपने भीतर के जल को शीतल नहीं कर देता तब तक उसकी सुन्दरता व्यर्थ है | इसी प्रकार शरीर चाहे कितना ही बदसूरत हो, टेढ़ा-मेढा हो अगर भीतर ज्ञान भरा पड़ा है तो ही वह शरीर सबसे सुन्दर है | अष्टावक्र मुनि का शरीर आठ स्थानों से वक्रता लिए हुए था, इसी कारण उनका नाम अष्टावक्र पड़ा था | जनकजी ने अष्टावक्र जी को प्रणाम किया और अपने आने का प्रयोजन बताया |
जनकजी पूछ रहे हैं कि गुरुवर ! स्वप्न में जो मैं भिखारी था वह सत्य था अथवा जो मैं वर्तमान में एक राजा हूँ, वह सत्य है | अष्टावक्र जी ने बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया – “राजन ! न तो स्वप्न ही सत्य था और न ही अभी वर्तमान में जो आप राजा हैं, वह सत्य है | दोनों ही भ्रम मात्र है | आप शारीरिक नींद से जाग जाते हैं तो स्वप्न असत्य सिद्ध हो जाता है | उसी प्रकार आप आत्मिक रूप से जिस दिन जाग जायेंगे तो आपका यह राजा होना भी असत्य सिद्ध हो जायेगा | देखा जाये तो यह सारा संसार ही स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है | नींद का सपना तो शरीर के जागने से टूट सकता है परन्तु शरीर के जागते रहते जो आप अपने को राजा बना देख रहे हैं वह भी एक सपना ही है जोकि बिना ज्ञान के टूटना असंभव है |”
इसी प्रकार हम भी इस मनुष्य शरीर में स्वयं के बहुत कुछ होने का अहंकार लिए जी रहे हैं, वह भी हमारा मात्र भ्रम ही है | जिस दिन हमें ज्ञान हो जायेगा उस दिन हमारा यह भ्रम समाप्त होगा उससे पहले नहीं | संसार को एक सपना बताते हुए शंकर भगवान् पार्वतीजी को मानस में कह रहे हैं –
उमा कहउं मैं अनुभव अपना |
सत हरि भजनु जगत सब सपना ||
सत्य केवल एक परमात्मा है | उसके लिए सभी कर्म करना, उनका भजन करना है | यह सारा जगत एक भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | यह भ्रम तभी दूर हो सकता है जब ज्ञान हो जाये और यह ज्ञान बिना प्रभु की कृपा के अनुभव में आ नहीं सकता | इसलिए प्रभु की कृपा से ही भ्रम का निवारण हो सकता है अन्यथा नहीं |
भ्रम को मिटाने के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है | इसी बात को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज मानस में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि -
जौं सपनें सिर काटै कोई |
बिनु जागें न दूरि दुख होई ||
जिस प्रकार सपने में कोई हम पर आक्रमण करके हमारा शीश काटने लगता है तब हमें बहुत दुःख पहुंचता है | अपने सिर के कटने की पीड़ा किसी से भी सहन नहीं होती | सिर काटे जाने का यह दुःख तभी समाप्त हो सकता है, जब हम नींद से जाग जाएँ | इसी प्रकार इस संसार में हम आसक्त होकर बहुत से सुख-दुःख झेल रहे हैं | इसका एक मात्र कारण है कि हम इसी संसार को सत्य समझ रहे हैं | संसार का दुःख तभी दूर हो सकता है जब इस संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान हमें हो जाये |
कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से संसार की क्षण भंगुरता को बहुत ही सरल शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया है | कबीर कहते हैं –
पानी केरा बुलबुला अस मानुस की जात |
देखत ही छुप जायेगा ज्यों तारा प्रभात ||
यह मनुष्य जीवन जो हमें परमात्मा की असीम कृपा से मिला है, वह जीवन पानी में बने बुलबुले के सामान है | पानी में बने बुलबुले का कोई विश्वास नहीं है, न जाने वह कब फूट कर मिट जाए | भोर का तारा बुध को कहा जाता है | सूर्योदय से कुछ समय पहले ही उसके दर्शन होते हैं | सूर्योदय होते ही वह दिखलाई पड़ना बंद हो जाता है।
कबीर के कहने का मंतव्य है कि जो यह मनुष्य जीवन अल्प समय के लिए मिला है, उसको व्यर्थ न गवाएं बल्कि परमात्मा की प्राप्ति में लगायें | यह संसार एक भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | संसार की वास्तविकता को जान कर उससे भ्रममुक्त होना आवश्यक है | भ्रम निवारण हुए बिना असत्य ही सत्य प्रतीत होगा और ऐसे में सत्य तक पहुंचना असंभव हो जायेगा |
संसार के सत्य होने का भ्रम जो हमारे भीतर गहराई तक बैठ गया है, उस भ्रम का निवारण कैसे हो ? जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है कि सांसारिक भ्रम से हमें वही बाहर निकाल सकता है जिसने संसार के सत्य होने के भ्रम को तोड़ दिया है | अनुभव सिद्ध व्यक्ति ही हमें इस अवस्था से बाहर निकाल सकता है और वह व्यक्ति है – गुरु | गुरु उस रास्ते पर चल चूका है, जिस पर चलकर वह सत्य को उपलब्ध हो गया है | जब सत्य की खोज पूरी हो जाती है, तभी संसार असत्य सिद्ध होगा उससे पहले नहीं | हमारे पास दो रास्ते हैं – ज्ञान प्राप्त कर संसार को मात्र माया अथवा भ्रम मान लेना | यह ज्ञान हमें उपलब्ध करता है –गुरु | योग्य गुरु जो हमें मायिक संसार से बाहर निकलने में सहायता प्रदान करता है, वह बिना प्रभु की कृपा के हमें मिलता नहीं है | इसलिए दूसरा रास्ता है- परमात्मा के प्रति समर्पण | जब हम परमात्मा के प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो जाते है, तब हमरा भ्रम अनायास ही मिट जाता है | इसीलिए मानस में तुलसी लिखते हैं -
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई।
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।
आदि अंत कोउ जासु न पावा।
मति अनुमानि निगम अस गावा।।
इसलिए परमात्मा के प्रति समर्पित होकर इस संसार को असंग रहते हुए देखें | फिर संसार में भी परमात्मा दृष्टिगत होंगे | एक परमात्मा के अतिरिक्त इस संसार में जो कुछ भी आप देख रहे हैं, वह सब आपका भ्रम है | संसार तभी तक असत्य है जब तक हम उसे भोग और सुख प्राप्त करने की दृष्टि से देखते हैं अन्यथा परमात्मा का आदि अवतार होने से संसार असत्य कैसे हो सकता है ?
अगर माया असत है, भ्रम है, तो फिर सत्य क्या है ? एक बार आदि शंकराचार्यजी महाराज अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर थे | उस समय विद्युत् का उत्पादन नहीं होता था, केवल तारों और ग्रहों, उपग्रह आदि के प्रकाश से ही रात के समय आवागमन का मार्ग दिखलाई पड़ता था | उस मद्धम प्रकाश में एक शिष्य ने देखा कि यात्रा के आगे के मार्ग में एक सर्प लेटा हुआ है | उसने शंकराचार्य महाराज से कहा कि महाराज, आगे रास्ते में एक सर्प लेटा हुआ है | प्रत्युतर में आचार्यजी ने प्रश्न किया कि ध्यान से देखो क्या वह सर्प ही है ? शिष्य ने ध्यान से देखा तो उसे अनुभव हुआ कि वह सर्प न होकर एक टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ी है, जिसे उसने पहले भ्रमवश सर्प समझ लिया था | उस शिष्य ने कहा कि नहीं महाराज, यह सांप नहीं है बल्कि यह तो एक लकड़ी है | आचार्यजी ने फिर पूछा कि क्या तुमने उसको छूकर देखा है ? शिष्य ने कहा कि नहीं | इस पर शंकर ने कहा - “तो फिर सावधानी रखते हुए उसे छूकर देखो और पता लगाओ कि वास्तव में वह है क्या ?”
शिष्य ने सावधानी रखते हुए उसके थोडा और पास जाकर उसे ध्यान से देखा | अब वह टेढ़ी मेढ़ी लकड़ी भी उसे दिखलाई नहीं पड़ी | स्पष्ट था कि उसे अब वह न तो सर्प ही प्रतीत हो रहा था और न ही लकड़ी | निर्भय होकर उस शिष्य ने उस वस्तु का अपने हाथ से स्पर्श किया और फिर ऊपर उठा लिया | शिष्य दूर खड़ा-खड़ा ही बोला –‘महाराज, यह तो रस्सी है | भ्रमवश इसी रस्सी को मैंने पहले तो सर्प समझा और बाद में टेढ़ी-मेढ़ी एक लकड़ी | मेरा यह भ्रम था | सत्य में तो यह एक रस्सी है |’
शिष्य ने पहले जिसको सर्प समझा था और बाद में लकड़ी, वह दोनों ही न होकर अस्त-व्यस्त पड़ी एक साधारण सी रस्सी निकली | इस पर आदि शंकराचार्य महाराज ने कहा है कि सत्य तो यह है कि वह रस्सी भी नहीं है बल्कि उसका एक रस्सी होना भी भ्रम ही है | रस्सी को बिखेरना शुरू करोगे तो वहां धागे निकलेंगे | धागे को ध्यानपूर्वक देखोगे तो वे भी धागे न होकर रूई होगी | इस प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते हुए कहाँ तक पहुंचोगे, आप कल्पना कर सकते हो | इसलिए मैं कहता हूँ कि जो एक बार असत्य सिद्ध हो गया, समझो वह सदैव के लिए ही असत्य सिद्ध हो गया | तो फिर वह सर्प नहीं था, लकड़ी भी नहीं थी, रस्सी भी नहीं थी, धागा भी नहीं है, रूई भी नहीं है तो फिर आखिर वह है क्या ? प्रश्न को आपके विचारार्थ यहीं पर छोड़े जाता हूँ |
चलिए ! आगे बढ़ते हैं | शंकराचार्यजी महाराज ने सत्य की ओर संकेत तो कर दिया परन्तु शिष्य ने उसे कैसे और किस प्रकार समझा वह उसके विवेक पर निर्भर करता है | हम सब उस शिष्य की तरह ही इस संसार को लेकर एक प्रकार के भ्रम में जी रहे हैं | जो दिखलाई पड़ रहा है, उसी को सत्य समझ बैठे है, जबकि सत्य क्या है, उसकी एक झलक मात्र से हम अभी भी कोसों दूर खड़े हैं | संसार के प्रति हमारा यह भ्रम कैसे मिटेगा और उस सत्य तक हम कैसे पहुँच पाएंगे ? कौन हमें उस सत्य तक पहुंचाएगा ?
बिना परमात्मा की कृपा के किसी भी भ्रम का मिटना असंभव है | जगदीश्वर की धर्मपत्नी दक्षसुता सती को भी एक बार इसी प्रकार का भ्रम हो गया था और उस भ्रम को मिटाने के लिए उन्हें पार्वती के रूप में इस संसार में पुनः जन्म लेना पड़ा | जब शंकर भगवान् की पार्वती पर कृपा हुई तभी वह राम-कथा सुनकर इस भ्रम से मुक्त हो सकी |
भगवान् की बनाई माया के प्रति हमारा भ्रम पैदा ही क्यों होता है ? सबसे अधिक भ्रम तब होता है, जब हम सगुण रूप में प्रकट हुए परम ब्रह्म पर भी अविश्वास जताने लगते हैं | भगवान् राम को भी उस समय कितनों ने परमब्रह्म के रूप में देखा और जाना था ? यहाँ तक कि दशरथ महाराज को भी उनमें अपना पुत्र ही दिखलाई पड़ रहा था | इसी पुत्र की आसक्ति ने उनके प्राण तक ले लिए थे |
दक्ष-पुत्री सती के साथ भी तो यही हुआ था | शंकर भगवान् तो जानते थे कि सगुण और निर्गुण के मध्य कोई भेद नहीं है परन्तु सती उनकी पत्नी होते हुए भी इस बात को नहीं जान सकी थी | जिसका परिणाम उन्हें शंकर से परित्यक्त होने के रूप में मिला और धर्मपत्नी के पद से च्युत होना पड़ा था | शंकर भगवान् के साथ आसन पर सदैव उनके वाम पार्श्व में बैठने वाली सती को एक दिन उनके सम्मुख बैठना पड़ा |
शंकर जैसा गुरु किसी को भी नहीं मिल सकता, फिर भी सती को ज्ञान नहीं हो सका कि इस सृष्टि के कण-कण में परमात्मा व्याप्त हैं | जो कुछ भी आप संसार में देख रहे हैं, वह उसी की लीला मात्र है | अभिनय और वास्तविकता में अंतर को पहिचानना आवश्यक है | इस बात को जो जान लेता है वही ज्ञानी हो जाता है | हाँ, अभिनय की सर्वोच्च अवस्था में अभिनय और वास्तविकता में अंतर करना एक साधारण मनुष्य की क्षमता के बाहर की बात है | इस अंतर को गुरु ही स्पष्ट कर सकता है | इसके लिए आवश्यक है कि गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो | सती ने शंकर के कहे पर ही तो विश्वास नहीं किया था | उसी अविश्वास का परिणाम उन्हें अपने पति से परित्यक्त होकर भुगतना पड़ा |
गुरु भी तो परमात्मा की कृपा से ही मिलते हैं | बिना उसकी कृपा के गुरु भी आपको ज्ञान नहीं दे सकता | गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान की भूमिका आपके भीतर के विवेक को जाग्रत करने में है | विवेक सभी व्यक्तियों में जन्म से ही उपस्थित रहता है, उसको पैदा नहीं करना पड़ता | विवेक को तो जाग्रत किया जा सकता है और उसमें एक गुरु की भूमिका ही महत्वपूर्ण होती है |
जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चूका है कि माया का दूसरा नाम भ्रम ही है और यह भ्रम पैदा होता है, माया में उपस्थित प्रकृति के तीन गुणों के कारण | परमात्मा की बनाई इस माया से सभी प्राणी मोहित हो जाते है | परन्तु मनुष्य के पास तो विवेक है फिर भी मनुष्य भ्रमित क्यों हो जाता है ? प्रकृति के तीनों गुण आपस में जिस प्रकार तालमेल रखते हुए कार्य करते हैं, उससे भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है | भगवान् कहते हैं कि इन तीन गुणों के कारण जो भी भाव मनुष्य में होते हैं, वे सब मेरे कारण ही होते हैं | परन्तु मनुष्य उन भावों में उलझकर भ्रमित होकर रह जाता है | जैसे सात्विक भाव के कारण मनुष्य को सुख मिलता है और राजसिक भाव के कारण मनुष्य कर्म करने को उद्यत होता है | इसी प्रकार तामसिक भाव में मनुष्य ज्ञान से विमुख हो जाता है | इस प्रकार इन तीनों के कारण मनुष्य अपने ही गुणों के सामने पराजित हो जाता है | इन गुणों से उत्पन्न भावों से मोहित प्राणी भगवान् को नहीं जान सकता क्योंकि वह गुणों के आपसी कार्य को अपने द्वारा करना मान लेता है |
भगवान् कह रहे हैं कि जो भी तीनों भाव (सात्विक, राजसिक और तामसिक भाव ) हैं, वे सभी मेरे कारण ही होते हैं फिर भी वे भाव न तो मुझमें हैं और न ही मैं उनमें हूँ |(गीता-7/12) | परमात्मा तो गुणातीत है | अगर हम अपने इन भावों पर दृष्टि न रखकर अपनी समग्र दृष्टि को केवल परमात्मा पर रखेंगे तो फिर हम इन भावों के मूल अर्थात गुणों से तनिक भी प्रभावित न होकर भ्रमित भी नहीं होंगे | हम कुछ भी नहीं करते बल्कि गुण ही गुण में बरतते है (गुणा वर्तन्त इत्येव-गीता - 14/23) अर्थात गुणों के आपसी व्यवहार के कारण ही यह संसार गतिमान है, ऐसा मानने वाला फिर संसार में रहते हुए भी कभी भ्रमित नहीं होगा |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अपनी इस माया के बारे में बताते हुए अर्जुन को कह रहे हैं –
दैवी ह्येषा गुणमयी मम ममय दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || गीता – 7/14 ||
भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि मेरी यह माया दुरत्यय है अर्थात इससे पार होना कठिन है | जो केवल मेरी शरण होते हैं, वे इस माया से पार हो जाते हैं |
हम सब मृग मरीचिका के बारे में तो जानते ही हैं | तेज गर्मी में जब मृग को प्यास लगती है, तब वह जल की तलाश में मैदान में इधर उधर भटकता है | कहीं दूर उसको जल होने का आभास होते ही वह उस ओर दौड़ पड़ता है | दौड़ते दौड़ते वह बहुत दूर पहुँच जाता है परन्तु जल-स्रोत निकट आने के स्थान पर उससे उतना ही दूर बना रहता है | वह पलटकर देखता है तो उसे अपने पीछे भी वैसा ही जल स्रोत दिखलाई पड़ता है | वह पलटकर फिर पीछे की ओर दौड़ने लगता है | वह दिन भर इधर उधर दौड़ता रहता है परन्तु जल स्रोत तक कभी भी पहुँच नहीं पाता |
इधर उधर दौड़ते दौड़ते आखिर एक समय मृग की शक्ति चूक जाती है और वह भूमि पर गिर पड़ता है | इतनी अधिक दौड़ का परिणाम क्या निकला ? कुछ भी नहीं | जल स्रोत केवल माया थी, वहां जल कभी था भी नहीं | यही हमारे जीवन में होता है | माया के कारण हम इसी भ्रम में जी रहे होते हैं कि कल सुख मिलेगा | सुख की खोज में हम इधर उधर दौड़ते रहते हैं, परन्तु सुख कभी मिलता ही नहीं है | सुख क्यों नहीं मिलता ? क्योंकि सुख भी एक भ्रम ही है | मनुष्य की मानसिक दशा के अलावा सुख-दुःख कुछ भी नहीं है | यह मानसिक दशा जब तक परिवर्तित नहीं होगी तब तक माया हमें छलती रहेगी |
परमात्मा की माया के पार वही हो सकता है जिसने मायापति की शरण ले ली है | परमात्मा की शरण लेने का अर्थ है, सब कुछ परमात्मा ही है, यह स्वीकार कर लेना | फिर जीवन में सुख मिलता है, तो वह भी परमात्मा है और दुःख आया है तो भी परमात्मा का आगमन हुआ है, यह मान लेना | यह स्वीकार कर लेना भी सहज नहीं है क्योंकि हमें जो कुछ दिखलाई पड़ रहा है, केवल उसी को महत्वपूर्ण मानते हैं | दिखलाई माया पड़ती है परमात्मा नहीं | जिस दिन हम माया के पीछे छिपे परमात्मा को देख लेंगे उस दिन ही हम परमात्मा की शरण हो जायेंगे | ऐसा तभी होगा जब हमारे भीतर जो विवेक सोया पड़ा है उसे हम जाग्रत कर लेंगे |
श्रीरामचरितमानस में लक्ष्मणजी निषादराज गुह को कह रहे हैं –
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी |
परमारथी प्रपंच बियोगी ||
जानिअ तबहिं जीव जग जागा |
जब सब बिषय बिलास बिरागा ||
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा |
तब रघुनाथ चरन अनुरागा ||
अर्थात इस जगतरूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच से दूर बने हुए हैं | जगत में जीव को तभी जागा हुआ मानना चाहिए जब उसे सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाये | विवेक होने पर मोह रुपी भ्रम भाग जाता है और ज्ञान हो जाने पर श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम हो जाता है |
संसार से प्रेम को हमें एक तीव्र मोड़ देकर 180 अक्षांश तक घुमाना होगा और उसे परमात्मा के प्रेम में परिवर्तित करना होगा तभी हम इस माया के भ्रम से मुक्त हो सकेंगे अन्यथा नहीं |
पुनः चलते हैं शंकराचार्य जी महाराज के उस कथन की ओर जिसमें उन्होंने अपने शिष्य को कहा था कि जो बात एक बार असत्य सिद्ध हो जाती है, समझ लो वह सदैव के लिए असत्य सिद्ध हो गयी | पहले जो सांप दिखलाई दे रहा था, वह फिर एक लकड़ी प्रतीत होने लगी | छूकर देखने से वही लकड़ी एक रस्सी में परिवर्तित हो गयी थी | रस्सी का ताना-बाना उधेडा गया तो वह कई धागों में परिवर्तित हो गयी | उन धागों का जब विश्लेषण किया गया तो वह रूई में परिवर्तित हो गयी | आदि शंकर का कहना था कि यह भी रूई न होकर परमात्मा ही है | अगर हम गंभीरता से देखें तो एक परमात्मा के अतिरिक्त इस संसार में कुछ और है ही नहीं | इसलिए सर्वत्र एक परमात्मा को ही देखो | जब सब ओर परमात्मा ही दृष्टिगोचर होंगे तो फिर किसी प्रकार का भ्रम होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || गीता-6/30||
जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
सबमें एक उसको ही देखने का अर्थ है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई इस संसार में है ही नहीं | माया के पीछे मायापति को देखने से माया भ्रम नहीं हो सकती | फिर माया हमें छल नहीं सकती | माया हमें तभी तक भ्रमित करती है जब तक हम माया को ही सत्य समझकर उसमें आसक्त हो जाते हैं | एक परमात्मा की शरण ले लेने से माया प्रभावहीन होकर रह जाती है |
इसी बात को मानस में तुलसीदासजी ने भगवान् शंकर के मुख से इस रूप में कहलाया हैं -
“जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई |
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ||”
हे गिरिजे ! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्री रघुनाथजी है |
भ्रम है, माया को ही सत्य समझ लेना | सत्य कभी भी परिवर्तित नहीं होता जबकि असत कभी स्थिर नहीं रह सकता | इस संसार में सत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” (गीता-2/16) कहता है कि असत की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत का कहीं अभाव नहीं है | लेख के प्रारम्भ में मैंने कहा था कि हमारी इन्द्रियां जो कुछ भी देखती है, सुनती है, स्पर्श का अनुभव करती है, सूंघती है अथवा स्वाद लेती है, उन सबका अनुभव मन के माध्यम से जीव को होता है | जीव ही इन सभी का भोक्ता है | जीव परमात्मा का अंश है | इस प्रकार परोक्ष रूप से परमात्मा ही भोक्ता हो गए | साथ ही भगवान् कह रहे हैं कि मैं न तो कुछ करता हूँ और न ही लिप्त होता हूँ | ऐसे में भ्रम की स्थिति पैदा क्यों हो जाती है ?
भ्रम तभी उत्पन्न होता है जब जीव स्वयं को इन भोगों में आसक्त कर लेता है | भोगों के प्रति आसक्ति जीव को भोक्ता तो बना देती है परन्तु परमात्मा से उसे दूर कर देती है | ऐसे में मूल स्वरुप परमात्मा तक पहुँचने का एक ही मार्ग शेष बचता है, और वह मार्ग है परमात्मा के शरणागत हो जाना | शरणागति की अवस्था ही परमात्मा की कृपा होना है | उनकी कृपा से ही सभी प्रकार के भ्रमों का निवारण हो जाता है | इसीलिए गोस्वामीजी ने मानस में भगवान् शंकर के मुख से कहलाया है –
“जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई”
सार-संक्षेप -
हमारे जीवन में भ्रम मुख्य भूमिका निभाता है | प्रत्येक स्थान पर और प्रतिदिन भ्रम से हमारा आमना–सामना होता रहता है | एक बार भ्रम में पड़ने के बाद भी हम चेतते नहीं है और पुनः किसी दूसरे भ्रम के शिकार हो जाते हैं | माया को भ्रम का कारण माना गया है, इसीलिए माया को भ्रम भी कहा जाता है | जो दिखलाई पड़ रहा है, उसको सत्य तभी माना जा सकता है जब हम उसमें आसक्त न हों | मनुष्य आसक्त हुए बिना रह नहीं सकता क्योंकि वह दिखलाई पड़ रही माया को ही सत्य समझ लेता है | माया ही उसे जीवन में सुख-दुःख, राग-द्वेष, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि द्वंद्वों में उलझा देती है | यह जीवन इतना छोटा सा है कि हमें इन फालतू द्वंद्वों में ही फंसकर नहीं रह जाना चाहिए |
सत्य केवल एक ही हो सकता है और वह सत्य है-परमात्मा | दिखलाई न पड़ने के उपरांत भी हम उसका होना तो मान लेते है परन्तु उसके होने पर भी हमारा अडिग विश्वास नहीं रहता | माया का उद्भव कहाँ से होता है ? जहाँ से उसका सृजन हुआ है वह मायापति ही परमात्मा कहलाता है | जब हम उसकी माया में भी उसे ही देखने लगेंगे तब हमारे सभी भ्रम मिट जायेंगे | माया के पीछे परमात्मा को देखना ही भ्रम निवारण कर सकता है | इसके लिए हमें गुरु की शरण लेनी होगी, एक वही हमारा विवेक जाग्रत करने में सिद्धहस्त है | स्वामीजी कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में विवेक होता ही है उसे पैदा नहीं किया जा सकता बल्कि उसे जाग्रत करना होता है | विवेक के जाग्रत होते ही फिर परमात्मा तक पहुंचकर उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है | उनकी कृपा होते ही फिर किसी भी प्रकार का भ्रम पैदा नहीं हो सकता | भ्रम से ब्रह्म की हमारी यात्रा प्रभु कृपा से ही संपन्न हो सकती है | इसलिए सदैव याद रखें - परमात्मा की कृपा से ही माया से मुक्त हुआ जा सकता है |
“जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई”
इसी के साथ यह श्रृंखला समाप्त होती है | आप सभी का साथ बने रहने का आभार |
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||