ईश्वर का स्मरण
कल के अपने प्रवचन में आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा ने नाम जप की महिमा बताई थी।आज ईश्वर के स्मरण पर प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा कि परमात्मा को हमें जीवन में एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं होने देना चाहिए। परमात्मा के विस्मरण का अर्थ है, जीवन में अभाव का होना। जीवन में जहां पर भी हमें किसी अभाव अनुभव होता है, परमात्मा का स्मरण उस अभाव की पूर्ति कर देता है। इसलिए परमात्मा को सदैव स्मृति में बनाये रखें। श्रीरामचरितमानस में हनुमानजी महाराज भगवान श्री राम को कह रहे हैं कि-
कह हनुमंत विपत्ति प्रभु सोई।
जब तब सुमिरन भजन न होई ।।
जीवन में विपत्ति उसी को मानना चाहिए, जब भगवान की विस्मृति हो जाये।
भगवान का स्मरण ही उसकी प्रार्थना है। आचार्यजी ने ध्रुव,प्रह्लाद, शिबि, वक्त्रासुर, रंतिदेव, अर्जुन आदि के द्वारा की गई भगवान की स्तुति को उद्घृत करते हुए भगवान के स्मरण को स्पष्ट किया और प्रार्थना की महत्ता बताई।
ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कहा है कि 'हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं'-यह प्रार्थना बड़े काम की है। थोड़ी थोड़ी देर में इस प्रार्थना को दोहराते रहने से परमात्मा की विस्मृति कभी नहीं होगी।श्रीमद्भागवत महापुराण में आता है -'हरिस्मृति: सर्वविपद्वि मोक्षणम्'(8/10/55)अर्थात भगवान की स्मृति सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश करने वाली है। भगवान को याद करने मात्र से ही वे प्रसन्न हो जाते हैं-'अच्युतः स्मृतिमतरेण'।
भगवान की स्मृति आपको आलोकित कर देती है। स्मृति से हमें बिना मांगे ही सब कुछ मिल जाता है।स्वामीजी कहते हैं कि जब बिना मांगे ही हमें सब कुछ मिल जाता है तो फिर 'हे नाथ !मैं आपको भूलूँ नहीं'-ऐसा कहने में हमारा क्या जाता है ? ऐसा कहते रहने से कल्याण ही कल्याण है, फिर भगवान हमें छोड़ सकते ही नहीं। यह कहते हुए एक बच्चे की तरह भगवान के पीछे पड़ जाएं फिर भगवान से जो कुछ भी माँगोगे वही मिल जाएगा। 'योगक्षेम वहाम्यहम्' (गीता-9/22) का यही अर्थ है कि फिर भगवान हमें अप्राप्ति की प्राप्ति करवा देते हैं और प्राप्त की रक्षा करते हैं।
आगे आचार्यजी स्वामीजी के कथन को उद्घृत करते हुए कहते हैं कि जैसे मूल को सींचने से जल पेड़ के पत्ते पत्ते तक पहुंच जाता है और सम्पूर्ण पेड़ को पुष्टि मिलती है वैसे ही ईश्वर के सतत स्मरण से हमें शक्ति मिलती है। संत,श्रेष्ठ पुरुष, हितेषी और सुहृद वही है, जो हमें बार बार परमात्मा का स्मरण करते रहें । प्रवचन के समापन करते हुए आचार्यजी कहते हैं कि साधु,वृद्ध,रोगी और विधवा/विधुर के लिए तो एक भगवत्स्मरण के अतिरिक्त और कोई कार्य होना ही नहीं चाहिए।
अतः आप सभी प्रत्येक कार्य में भगवान को याद करने की आदत डाल लें ।भगवान का स्मरण ही मुख्य है, अन्य काम गौण है। गीता में भगवान श्री कृष्ण 9वें अध्याय के 22 वें श्लोक में कहते हैं -
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
जो निष्कामी पूर्ण ज्ञानी हैं, जो संन्यासी अनन्यभावसे युक्त हुए अर्थात् परमदेव मुझ नारायणको आत्मरूप से जानते हुए मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी श्रेष्ठ -- निष्काम उपासना करते हैं? निरन्तर मुझमें ही स्थित उन परमार्थ ज्ञानियोंका योगक्षेम मैं चलाता हूँ। अप्राप्त वस्तुकी प्राप्तिका नाम योग है और प्राप्त वस्तुकी रक्षाका नाम क्षेम है? उनके ये दोनों काम मैं स्वयं किया करता हूँ। क्योंकि ज्ञानीको तो मैं अपना आत्मा ही मानता हूँ और वह मेरा प्यारा है इसलिये वे उपर्युक्त भक्त मेरे आत्मारूप और प्रिय हैं।
हरि:शरणम् आश्रम, बेलड़ा, हरिद्वार से, दिनांक 18 अगस्त2022
प्रस्तुति डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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