Saturday, August 20, 2022

भगवान से अपनापन

 भगवान से अपनापन

     श्री कृष्ण जन्माष्टमी के प्रवचन कार्यक्रम के अंतिम और तीसरे दिन आचार्य श्री गोविंदराम शर्मा ने ब्रह्मलीन स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दिये गए महत्वपूर्ण सूत्र 'भगवान से अपनापन' का विस्तार से विवेचन किया। उन्होंने बताया कि एक परमात्मा ही अपने है, संसार अपना नहीं है। हम संसार को अपना मान बैठे हैं। जिसने संसार को अपना माना है, उसके लिए परमात्मा दूर से भी दूर है और जिसने परमात्मा को अपना मान लिया है उसके लिए परमात्मा निकट से भी निकट है।

       इस जगत में एक परमात्मा ही हैं,उनसे अलग कुछ भी नहीं है। केश भर भी कोई वस्तु यहां अपनी नहीं है। हम संसार की वस्तुओं को अपने लिए मानते हैं, यही हमारी सबसे बड़ी भूल है।केवल भगवान को अपना मानना ही सबसे श्रेष्ठ है।यह साधन आपको समत्व और शांति उपलब्ध करवा सकता है। संसार को अपना मान लेने पर जीवन में राग-द्वेष और अशांति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता।जितना हम संसार को अपना मानेंगे,उतने ही परमात्मा से दूर होते चले जायेंगे।

      इस स्थूल शरीर से होने वाली क्रियाएं,मन से होने वाला चिंतन और यहां तक कि समाधि भी अपने लिए नहीं है।इनसे संबंध विच्छेद कर लेने से जिस तत्व की प्राप्ति होती है, केवल वही अपना है। उसी तत्व का नाम परमात्मा है।भगवान को अपना माने बिना भजन करने से वैसी सिद्धि नहीं मिल सकती जैसी भगवान को अपना मान कर भजन करने से मिलती है।भगवान हमारे अपनेपन को ही देखते हैं ।भगवान में अपनापन कर लेने से भगवान हमारे गुण-दोष की ओर दृष्टि तक नहीं डालते क्योंकि हम अब उन्हीं के हो गए हैं।

      जैसे कन्या का विवाह होते ही अपने ससुराल को ही अपना घर मान लेती है वैसे ही हमें भी तत्काल ही भगवान को अपना मान लेना चाहिए । भगवान से अपनापन कर उनसे सांसारिक वस्तुएं मांगना उचित नहीं है।जब परमात्मा ही अपने हो गए हैं, तो फिर संसार का सब कुछ भी तो अपना हो गया। जैसे पिता की सब वस्तुओं पर पुत्र का अधिकार होता है वैसे ही परम पिता को अपना मान लेने से हम स्वतः उनके उत्तराधिकारी भी हो जाते हैं।भगवान सर्वसमर्थ है, वे सब कुछ दे सकते हैं,परंतु हमें मांगना नहीं है।वे जिस परिस्थिति में भी हमें रखें उसे स्वीकार करना है।

       इस प्रकार तीन दिवसीय प्रवचन में प्रथम दिन नाम जप (पुकार) का, दूसरे दिन ईश्वर का स्मरण (प्रार्थना) और तीसरे दिन भगवान से अपनापन (प्रेम) विषय पर आचार्यजी ने विवेचन किया। नाम जप एक क्रिया है इसलिए इसका संबंध 'करने' से है। ईश्वर के स्मरण का संबंध 'होने' से है । इसी प्रकार भगवान से अपनापन का सम्बंध स्वयं भगवान से अर्थात 'है' से है। इस प्रकार यह प्रवचन श्रृंखला 'करने' से 'होने' और फिर होने से 'है' तक की यात्रा है। सुधि श्रोताओं और पाठकों के लिए आचार्यजी का यही संदेश है।

हरि:शरणम् आश्रम बेलड़ा,हरिद्वार से, दिनांक 19 अगस्त2022 

प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरि:शरणम्।।

Friday, August 19, 2022

ईश्वर का स्मरण

 ईश्वर का स्मरण

     कल के अपने प्रवचन में आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा ने नाम जप की महिमा बताई थी।आज ईश्वर के स्मरण पर प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा कि परमात्मा को हमें जीवन में एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं होने देना चाहिए। परमात्मा के विस्मरण का अर्थ है, जीवन में अभाव का होना। जीवन में जहां पर भी हमें किसी अभाव अनुभव होता है, परमात्मा का स्मरण उस अभाव की पूर्ति कर देता है। इसलिए परमात्मा को सदैव स्मृति में बनाये रखें। श्रीरामचरितमानस में हनुमानजी महाराज भगवान श्री राम को कह रहे हैं कि-

कह हनुमंत विपत्ति प्रभु सोई।

जब तब सुमिरन भजन न होई ।।

    जीवन में विपत्ति उसी को मानना चाहिए, जब भगवान की विस्मृति हो जाये।

          भगवान का स्मरण ही उसकी प्रार्थना है। आचार्यजी ने ध्रुव,प्रह्लाद, शिबि, वक्त्रासुर, रंतिदेव, अर्जुन आदि के द्वारा की गई भगवान की स्तुति को उद्घृत करते हुए भगवान के स्मरण को स्पष्ट किया और प्रार्थना की महत्ता बताई।

           ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कहा है कि 'हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं'-यह प्रार्थना बड़े काम की है। थोड़ी थोड़ी देर में इस प्रार्थना को दोहराते रहने से परमात्मा की विस्मृति कभी नहीं होगी।श्रीमद्भागवत महापुराण में आता है -'हरिस्मृति: सर्वविपद्वि मोक्षणम्'(8/10/55)अर्थात भगवान की स्मृति सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश करने वाली है। भगवान को याद करने मात्र से ही वे प्रसन्न हो जाते हैं-'अच्युतः स्मृतिमतरेण'।

       भगवान की स्मृति आपको आलोकित कर देती है। स्मृति से हमें बिना मांगे ही सब कुछ मिल जाता है।स्वामीजी कहते हैं कि जब बिना मांगे ही हमें सब कुछ मिल जाता है तो फिर 'हे नाथ !मैं आपको भूलूँ नहीं'-ऐसा कहने में हमारा क्या जाता है ? ऐसा कहते रहने से कल्याण ही कल्याण है, फिर भगवान हमें छोड़ सकते ही नहीं। यह कहते हुए एक बच्चे की तरह भगवान के पीछे पड़ जाएं फिर भगवान से जो कुछ भी माँगोगे वही मिल जाएगा। 'योगक्षेम वहाम्यहम्' (गीता-9/22) का यही अर्थ है कि फिर भगवान हमें अप्राप्ति की प्राप्ति करवा देते हैं और प्राप्त की रक्षा करते हैं।

     आगे आचार्यजी स्वामीजी के कथन को उद्घृत करते हुए कहते हैं कि जैसे मूल को सींचने से जल पेड़ के पत्ते पत्ते तक पहुंच जाता है और सम्पूर्ण पेड़ को पुष्टि मिलती है वैसे ही ईश्वर के सतत स्मरण से हमें शक्ति मिलती है। संत,श्रेष्ठ पुरुष, हितेषी और सुहृद वही है, जो हमें बार बार परमात्मा का स्मरण करते रहें । प्रवचन के समापन करते हुए आचार्यजी कहते हैं कि साधु,वृद्ध,रोगी और विधवा/विधुर के लिए तो एक भगवत्स्मरण के अतिरिक्त और कोई कार्य होना ही नहीं चाहिए।

     अतः आप सभी प्रत्येक कार्य में भगवान को याद करने की आदत डाल लें ।भगवान का स्मरण ही मुख्य है, अन्य काम गौण है। गीता में भगवान श्री कृष्ण 9वें अध्याय के 22 वें श्लोक में कहते हैं -

   अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

   तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

     जो निष्कामी पूर्ण ज्ञानी हैं, जो संन्यासी अनन्यभावसे युक्त हुए अर्थात् परमदेव मुझ नारायणको आत्मरूप से जानते हुए मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी श्रेष्ठ -- निष्काम उपासना करते हैं? निरन्तर मुझमें ही स्थित उन परमार्थ ज्ञानियोंका योगक्षेम मैं चलाता हूँ। अप्राप्त वस्तुकी प्राप्तिका नाम योग है और प्राप्त वस्तुकी रक्षाका नाम क्षेम है? उनके ये दोनों काम मैं स्वयं किया करता हूँ। क्योंकि ज्ञानीको तो मैं अपना आत्मा ही मानता हूँ और वह मेरा प्यारा है इसलिये वे उपर्युक्त भक्त मेरे आत्मारूप और प्रिय हैं।

हरि:शरणम् आश्रम, बेलड़ा, हरिद्वार से, दिनांक 18 अगस्त2022

प्रस्तुति डॉ. प्रकाश काछवाल

।।हरि:शरणम्।।

Thursday, August 18, 2022

नाम जप की महिमा

 नाम जप की महिमा

हरि:शरणम् आश्रम के आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा ने नाम जप महिमा पर  अपना प्रवचन  भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार की तीन अतुल्य सम्पतियों का उल्लेख करते हुए किया। भाईजी की ये तीन अतुल्य संपतियां है -

1.सबमें भगवान को देखो।2. भगवान में अटूट श्रद्धा रखो।3.भगवन्नाम का आश्रय लो।

    आचार्यजी ने कहा कि नाम जप में आप भगवान का कोई भी नाम ले सकते हैं,जैसे राम, कृष्ण,नारायण आदि। यहां तक कि हरि:शरणम् के जप से भी कल्याण हो सकता है। इसके लिए उन्होंने कलकत्ता के सेठ रूडमलजी का दृष्टांत देते हुए बताया कि मरणासन्न स्थिति में उन्होंने हरि:शरणम् का जप किया और वे रोगमुक्त हो गए।महामना मालवीयजी ने भाईजी को नारायण नाम की महिमा बतलाते हुए गोरखपुर प्रवास की अवधि में कहा था कि किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले इस नाम का जप करने से उन्हें सफलता मिली है।इसी प्रकार भाईजी ने गांधीजी से हुई अपनी भेंट का जिक्र करते हुए कहा है कि तुलसी माला देने पर गांधीजी ने उनसे प्रतिदिन एक माला अधिक नाम जप करने का वादा करवाया था।

      आचार्य श्री गोविंद राम जी शर्मा ने एक संत का दृष्टांत देते हुए राम नाम के अमूल्य होने को स्पष्ट किया। जैसे हीरे को एक जोहरी ही परख सकता है उसी प्रकार नाम का मूल्य वही समझ सकता है जिसने इसका जप करते हुए नामी को प्राप्त किया हो। एक बार भी जिसने मज़बूरी में भी भगवान का नाम ले लिया, उसका सम्मान भी सभी देवता, यहां तक कि ब्रह्मा,शंकर और इंद्र भी करते हैं। दो भाइयों का दृष्टांत देते हुए आचार्यजी ने येन केन प्रकारेण नाम लेने के महत्व को स्पष्ट किया।

       नाम जप वह पुल है, जो कि व्यक्ति को परमात्मा तक ले जाता है।व्यक्ति चाहे जिस योग से परमात्मा की ओर चलना चाहता हो, नाम जप उसमें सहयोगी ही है। जो कोई योग आदि नहीं जानता वह भी नाम जप से संसार सागर से पार हो जाता है। ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी को उद्घृत करते हुए आचार्यजी कहते हैं कि नामजप से प्रारब्ध तक बदल जाता है।मन लगे चाहे न लगे नामजप व्यर्थ नहीं जाता।मन लगाकर लिया गया नाम सुमिरन है। सुमिरन से भगवान शीघ्र मिल जाते हैं।भगवान का होकर भगवान का नाम लेने से भगवान दौड़े चले आते हैं जैसे "माँ, माँ" पुकारने से बच्चे की माँ दौड़कर उस तक पहुंच जाती है।

      आचार्यजी आगे कहते हैं कि कलियुग में तो राम का नाम लेना ही पर्याप्त है।नामजप एक पुकार है जो परमात्मा तक अवश्य ही पहुंचती है क्योंकि नामजप में नामी की मुख्यता है। नामजप में किसी विधि की आवश्यकता नहीं है जबकि अन्य अनुष्ठान में विधि अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

कलिजुग जोग न जप न ग्याना।

एक अधार राम गुन गाना।।

कलियुग केवल नाम अधारा ।

सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।।

     राम नाम जप को कल्प वृक्ष बताते हुए आचार्य जी कहते है कि कोई कहे कि इससे कुछ नहीं होता है तो फिर कुछ नहीं होगा और कोई कहता है कि इससे कुछ हो सकता है तो फिर सब कुछ हो जाता है।

   अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्तवा क्लेवरम्।

   य: प्रयाति स मद्भावं यान्ति नास्त्यत्र संशयः।।गीता-8/5।।

अर्थात अंतिम समय में जो मेरे नाम का स्मरण कर लेता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है।

     आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा के डेढ़ घंटे के प्रवचन को कुछ शब्दों में समेटने का यह छोटा सा प्रयास है। कल फिर दूसरे दिन के प्रवचन के सार संक्षेप के साथ उपस्थित होऊंगा।

।। हरि:शरणम्।।

प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल

हरि:शरणम् आश्रम, बेलड़ा, हरिद्वार से 17 अगस्त 2022