Monday, June 27, 2022

ते न परहिं भवकूपा

 ते न परहिं भवकूपा 

       मनुष्य भी अजीब प्राणी है | संसार के सभी जीवों का एक निश्चित जीवन होता है परन्तु मनुष्य अपने जीवन में कई उतार चढाव देखता है | अमीबा इस संसार का सबसे छोटा जीव है, क्षुद्र जीव है | केवल एक कोशिका में उसका सम्पूर्ण जीवन सिमट कर रह जाता है | अमीबा के अतिरिक्त शेष सभी प्राणियों के शरीर बहुकोशीकीय होते हैं और मनुष्य शरीर तक आते आते तो शरीर की रचना करोड़ों कोशिकाओं के कारण बहुत अधिक जटिल हो जाती है | यह जटिलता ही मनुष्य के जीवन को उलझाकर रख देती है | जो इस उलझन से बाहर निकलना जान गया, समझो उसने अपना कल्याण कर लिया | बहुधा लोग तो इस शरीर के दायरे से भी बाहर निकल नहीं पाते |

             बात को एक कहानी से प्रारम्भ करते हैं | बचपन में आधारभूत शिक्षा प्राप्त करते समय यह कहानी पढ़ी थी | एक कुआं था जिसमें मेंढकों का एक परिवार रहा करता था | एक दिन कुएं से जल निकालने के लिए आयी बाल्टी में जल के साथ एक मेंढक भी चला गया | बाल्टी में जल के साथ वह मेंढक भी कुएं से बाहर निकल आया | कुएं से बाहर के संसार को देखकर उस मेंढक को बड़ा अचरज हुआ | उसने आज से पहले कुएं के सीमित संसार के अतिरिक्त कुछ देखा भी नहीं था | वह फुदकते फुदकते चारों ओर के संसार को आश्चर्य से देख रहा था | यकायक उसे अपने कुएं के संसार का ध्यान आया | वह लौट चला उस कुएं की ओर, अपने साथियों को बाहर के संसार के बारे में बताने के लिए | कुएं के पास आकर उसने एक लम्बी छलांग लगाई और पुनः अपने संसार में लौट आया |

          कुएं में लौटते ही मेंढकों की भीड़ ने उसे चारों ओर से घेर लिया | उसको सभी मेंढक आश्चर्य से देख रहे थे | तभी उस मेंढक समुदाय का मुखिया जो कि अपने आपको सबसे बड़ा ज्ञानी समझ रहा था, उसके पास आया | बाहर के संसार को देखकर आया मेंढक अपने मुखिया को बाहर के संसार की असीमता (एक मेंढक के लिए तो कुएं से बाहर का संसार असीम ही है) के बारे में समझाने लगा | अहंकार में डूबा मुखिया बार-बार अपने शरीर में पहले से अधिक वायु भरकर उस मेंढक से बाहर के संसार की विशालता से तुलना करने को कहता |

         मुखिया मेंढक प्रत्येक बार पहले से अधिक हवा को अपने शरीर में भरता गया और प्रत्येक बार वह मेंढक इंकार करते हुए कहता रहा कि नहीं, बाहर का संसार आपके इस बढे हुए शरीर से भी बहुत बड़ा है | आखिर मेंढक के शरीर की भी स्वयं को विस्तारित करने क्षमता होती है | शरीर की क्षमता से अधिक वायु भर लेने के कारण उस मुखिया का शरीर फट गया | यह देखकर सभी मेंढक भयभीत होकर बाहर के संसार की विशालता की कल्पना करते हुए डर गए | अपने मुखिया की मृत्यु से भयभीत होकर एक भी मेंढक बाहर के संसार को देखना नहीं चाहता था | सभी मेंढक उस कुएं के संसार को ही अपना भविष्य मान कर उसमें ही संतुष्ट रहने लगे | एक भी मेंढक उस कुएं से बाहर के संसार को देखने के लिए आतुर नहीं था परंतु एक मेंढक जिसने एक बार कुएं से बाहर का संसार देख लिया था, वह बाहर जाने को बड़ा आतुर था | प्रत्येक मेंढक उसे कुएं से बाहर न निकलने के लिए समझा रहा था फिर भी वह सदैव उस कुएं से बाहर निकलने का प्रयास करता रहा | अंततः एक दिन उसको अवसर मिल ही गया | जल भरने के लिए कुएं में उतरी एक बाल्टी में छलांग लगाकर बैठ गया और कुएं से बाहर निकल गया |

              इस कहानी के कुएं के मेंढकों की तरह ही इस संसार में प्रायः मनुष्य जी रहे हैं | किसी के मन में भी इस सांसारिक कुएं से बाहर निकलने की इच्छा नहीं है | अगर कोई कोई बाहर निकलने का प्रयास भी करता है तो उसको या तो बीच रास्ते से ही पुनः इस संसार में अन्य लोग लौटा लाते हैं या फिर वह स्वयं ही अनिश्चितता के कारण लौट आता है | हम सब कूप मंडूक बने बैठे हैं | इस संसार से बाहर की कभी-कभी कल्पना अवश्य कर लेते हैं परन्तु इससे बाहर निकलने का पूर्ण प्रयास कभी नहीं करते | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं कि संसार रुपी इस भवकूप से केवल बाहर निकलना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि पुनः इस भवकूप में आकर न गिरना सबसे महत्वपूर्ण है | इस संसार में कौन मनुष्य ऐसा है जो इस सांसारिक कुएं से बाहर निकलने का प्रयास करते हुए पुनः इस कुएं में नहीं गिरता ? दुबारा इस संसार में न आने के लिए हमें प्रयास करना होगा | इसके लिए हमें क्या करना चाहिए और हम वैसा क्यों नहीं कर पाते हैं, वह जानना अधिक आवश्यक है | इस बात पर हम चिंतन करेंगे हमारी इस नयी श्रृंखला “ते न परहिं भवकूपा” में । 

       श्रीमद्भागवत महापुराण में इस संसार को भगवान् का आदि-अवतार कहा गया है | ऐसा कहने का अर्थ हुआ कि यह संसार जिससे हम बाहर निकलकर पुनः लौटना नहीं चाहते, वह भगवान् का ही रूप है | जब यह संसार परमात्म-स्वरुप है तो फिर ऐसे कौन से कारण है कि हमारा इस संसार से बाहर निकलने का एक बार नहीं कई-कई बार मन करता है | हम सब इस संसार में आकर दुःख को प्राप्त हुए हैं, यह संसार दुखालय है | भगवान् का प्रथम अवतार है तो फिर भला यह संसार दुखालय कैसे हो सकता है ? संसार भगवान् का आदि-अवतार है, इसका अर्थ हुआ कि फिर हम भी भगवान् के ही अंश हैं | सही बात तो यह है कि हमारी सोच ने इस संसार को दुखालय बना दिया है अन्यथा भगवान् की कोई भी कृति दुखपूर्ण अथवा दुखदायी नहीं है | भगवान् स्वयं सच्चिदानंद है और हम भगवान् के अंश होने के कारण हम भी चिदानंद है | स्वयं के आनंद स्वरुप होने के बाद भी इस संसार में हमें दुःख क्यों भोगने पड़ रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें अपनी दृष्टि सृष्टि के निर्माण की ओर ले जानी होगी |

        श्रुति कहती है –“सोSकामयात | बहुस्याम् प्रजायेयेति | स तपोSतप्यत | स तपस्तप्त्वा | इदं सर्वमसृजत ||”(तैत्तरीयोपनिषद-2/6/4) अर्थात परमात्मतत्व ने आदिकाल में कामना की - “मैं अपनी  प्रजा के जन्म हेतु बहुरूप हो जाऊं |” अतः उन्होंने स्वयं को पूर्णरूप से एकाग्र किया और अपने चिंतन की शक्ति से तथा तप से उसने समस्त ब्रह्मांड की सृष्टि की | आगे श्रुति कहती है सृजन के पश्चात् वह उसमें प्रवेश कर गया | प्रविष्ट होकर यहाँ वह “है” (सत) बन गया तथा वहां संभाव्य (कल्पनीय, probable)बन गया |  इस प्रकार दो बन कर वह अनिरुक्त (अनिर्वचनीय) और निरुक्त(निर्वचनीय), बन गया, वह निलयन अर्थात आवासभूत तत्व तथा अनिलयन अर्थात आवासरहित तत्व बन गया | वही ज्ञान बन गया और वही अज्ञान भी बन गया | वही सत्य भी बन गया और वही अनृत (असत्य) भी बन गया | अल्प शब्दों में इन दो अंशों को प्रकृति और पुरुष भी कहा जा सकता है | इस प्रकार दो दिखलाई पड़ते हुए भी वह एक ही है | वह सम्पूर्ण सत्य है, जो कुछ भी विद्यमान है वह सब कुछ ‘वही’ बन गया | इसीलिए ‘उसके’ विषय में कहा जाता है कि वह ‘सत्य-स्वरुप’ है |

              ‘एकोहं बहुस्याम’ (छान्दोग्योपनिषद्) अर्थात भगवान् ने मन में कामना की कि मैं एक हूँ, मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ | क्यों चाहा भगवान् ने एक से अनेक होना ? जीवन में अकेला बैठा व्यक्ति चिंतन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकता और फिर चिंतन की भी तो अपनी एक सीमा होती है | जिस विषय पर चिंतन की आवश्यकता होती है, उस आवश्यकता के समाप्त होते ही चिंतन भी स्वतः ही समाप्त हो जाता है | जीवन में चिंतन अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है | साथ ही यह भी सत्य है कि केवल चिंतन ही करते रहने से मनुष्य एकाकी और रूखा सूखा स्वभाव का हो जाता है, जैसा कि एक ज्ञानी के साथ होता है | दो होकर, आपस में एक दूसरे से प्रेम करते हुए ‘एक’ हुआ जा सकता है | इसी को आनंद की अवस्था कहते हैं | जीवन में प्रफ्फुलित रहने के लिए आनंद का होना आवश्यक है और यह आनंद एक के अकेले रहने से उपलब्ध नहीं हो सकता | आनंद उठाने के लिए भी कम से कम एक से दो होना आवश्यक है |

            उपरोक्त श्रुति के अनुसार परम पिता भगवान् ने अपने में ही अपने आपको दो में विभाजित किया – प्रकृति और पुरुष | कामना के कारण उन्होंने पुर का निर्माण किया और उस पुर में प्रवेश कर पुरुष कहलाये | यह पुरुष प्रकृति से घिरा रहता है, जिसे माया भी कहा जाता है | फिर सृष्टि का विस्तार हुआ और वह विस्तार अभी भी अनवरत हो रहा है | ये अलग अलग दो न होकर एक में ही दो हुए हैं | इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक से दो होकर ही भगवान् आनंद में डूब सके | अकेले तो वे केवल सत्य थे और चैतन्य स्वरुप थे परन्तु सच्चिदानंद स्वरुप को उपलब्ध होने के लिए उन्हें एक से दो होना पड़ा | यहाँ इस बात को सदैव स्मरण में रखें कि वे एक से दो स्वयं में ही हुए हैं, स्वयं से बाहर नहीं |

         भगवान् जब एक से दो हो जाते हैं और इस धरा पर किसी रूप में (पुरुष) अवतरित होते हैं तब साथ में प्रकृति अर्थात माया भी शरीर ग्रहण करती है | राम के साथ सीता, कृष्ण के साथ राधा और शंकर के साथ गौरी का शरीर धारण करना इसी का उदाहरण है | राधा को तो भगवान् श्री कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति तक कहा गया है, जिससे वे आनंद को उपलब्ध हुए हैं | चलिए ! भगवान् ने अपने आनंद के लिए दो स्वयं में बनाये । अब हम अपने द्वारा बनाये दो की ओर चलते हैं |

            पुरुष और प्रकृति, दो होकर भी दो नहीं है, साथ ही दोनों एक होते हुए भी क्रियाशीलता के स्तर पर एक दूसरे से भिन्न हैं | पुरुष अक्रिय है जबकि प्रकृति सक्रिय | प्रकृति की सक्रियता भी पुरुष की अक्रियता के कारण ही संभव होती है | इस बात का पुरुष को ज्ञान तो रहता है परन्तु जब पुरुष शरीर धारण करता है तब प्रकृति की सक्रियता देखकर उसके प्रति आकर्षित हो जाता है | प्रकृति में स्थित होकर पुरुष स्वयं के होने के ज्ञान को विस्मृत कर देता है | प्रकृति का चंचल होना उसका स्वभाव है | चंचल होते हुए भी प्रकृति उदासीन है | उदासीन होते हुए भी प्रकृति में आकर्षण होता है | उसके इस आकर्षण के कारण पुरुष का ज्ञान विस्मृत हो जाता है और वह स्वयं के मूल स्वरुप को भूल जाता है | उसे शरीर की इन्द्रियों से जो अनुभव होता है, उसे ही सत्य समझ लेता है और प्रकृति के आकर्षण में बन्ध जाता है | प्रकृति का आकर्षण उसे ऐसा अनुभव कराता है मानो वह स्वयं शरीर (प्रकृति) ही है | उसका ऐसा मान लेना ही सत प्रकृति को भी  असत बना देता है | वास्तव में सत से आयी प्रकृति असत है ही नहीं | उसको असत बना देता है पुरुष का उसके प्रति आसक्ति का भाव | इस अवस्था में अर्थात प्रकृति में स्थित हो जाने से उसे दुःख के अतिरिक्त जीवन में कुछ भी नहीं मिल सकता  क्योंकि वह स्वाधीन न रहकर प्रकृति के अधीन हो गया है | परमात्मा भी शरीर धारण करते हैं, फिर भी वे अपने सांसारिक जीवन में प्रकृति के अधीन नहीं होते बल्कि प्रकृति को अपने अधीन ही रखते हैं |

           परमात्मा जब अवतार लेते हैं, तब उनके शरीर में स्थित पुरुष को स्वयं के होने का ज्ञान विस्मृत नहीं होता | उन्हें सदैव यह ध्यान में रहता है कि वे अक्रिय हैं परन्तु फिर भी अपने देह काल में बाह्य रूप से अर्थात संसार के स्तर पर रहते हुए मनुष्योचित्त व्यवहार करते रहते हैं | व्यवहार रूप से परमात्मा में और साधारण मनुष्य में कोई भिन्नता नज़र नहीं आती परन्तु मानसिक स्तर पर वे एक साधारण मनुष्य से भिन्न बने रहते हैं | अवतार काल में कोई भी सांसारिक परिस्थिति उनको विचलित नहीं कर सकती | भगवान् श्री राम को जिस दिन राजतिलक होकर राज्य मिलना था, उसी दिन उनको वनवास मिला फिर भी वे विचलित नहीं हुए | न राज्य मिलने की बात सुनकर उन्हें ख़ुशी हुई और न ही वनवास मिलने पर उन्हें कोई दुःख हुआ | वनवास की अवधि में पत्नी सीता का अपहरण हो जाने पर वे विलाप करते हैं, उनकी इस दशा को देखकर सती को मोह हो जाता है | सती उनकी परिक्षा लेने के लिए सीता का रूप धरकर उनके पास जाती है परन्तु श्री राम उनको पहिचान लेते है | वे छद्म रूप से सीता बनी सती को पहिचान जाते हैं | वास्तव में देखा जाये तो उस समय पत्नी वियोग में उनका विलाप करना मात्र मनुष्योचित्त व्यवहार था | इस सांसारिक विपरीत परिस्थिति में भी वे ज्ञान-शून्य नहीं हुए थे, तभी तो उन्होंने सीता का रूप धरे सती को तत्काल पहिचान लिया था | हम तो छोटी सी बात पर ही ज्ञान-शून्य हो जाते हैं और विवेकशक्ति का विपरीत परिस्थितियों में उपयोग करने से चूक जाते हैं |

           प्रकृति में आकर्षण है परन्तु उसमें आकर्षित पुरुष ही होता है | संसार में हम जब शरीर धारण करते हैं तब उस शरीर के केंद्र में आत्मा स्थित होती है, परिधि पर हमारी इन्द्रियाँ और शरीर के बाहर रहते हैं, सभी इन्द्रियों के विषय | शरीर, इन्द्रियां और विषय सब प्रकृति के अंग है जबकि केंद्र में बैठी आत्मा ही वास्तव में परमात्मा है | शरीर के भीतर बैठी आत्मा के कारण हमारा शरीर उसके निकट है और शरीर के बाहर रहने वाले विषय-भोग उससे बहुत दूर | परन्तु प्रकृति के आकर्षण के कारण बाहर दिखने वाले विषय तो हमें निकट प्रतीत होने लगते हैं और केंद्र में बैठी आत्मा यानि परमात्मा को हम भूल जाते हैं | निकट लगने वाले विषय हमें सांसारिक भोगों में लगा देते हैं और उन भोगों को बार-बार भोगने के लिए हम अपना एक संसार बना लेते हैं | यह स्वनिर्मित संसार ही हमारे बंधन का कारण बनता है |

         स्वनिर्मित संसार से हमारा क्या आशय है ? एक तो वह संसार है जो परमात्मा ने बनाया है और दूसरा संसार वह है जो मनुष्य स्वयं बना लेता है | जिस प्रकार परमात्मा के बनाये संसार में परमात्मा की कोई आसक्ति नहीं रहती उसी प्रकार हमारी भी परमात्मा के द्वारा बनाये हुए संसार में कोई आसक्ति नहीं रहती | परमात्मा ने इतना विशाल जगत बनाया है जिसमें अनेकों ब्रह्मांड है | उस ब्रह्मांड में अनेकों सौर मंडल है | प्रत्येक सौर मंडल में अनेकों ग्रह है | इन ग्रहों में हमारी पृथ्वी भी एक है | इस पृथ्वी पर अरबों मनुष्य है, खरबों जीव जंतु और पेड-पौधे हैं | इनके अतिरिक्त सृष्टि के निर्जीव पदार्थ जैसे पहाड़, मरुस्थल, धातुएं आदि भी इस धरा पर परमात्मा ने सृजित किये हैं |

            इनमें से कौन अपना है और कौन पराया ? देखा जाये तो सभी अपने हैं क्योंकि सभी परमात्मा द्वारा निर्मित है | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कहा जा सकता है कि सभी ब्रह्मांडों में एक परमात्मा ही उपस्थित हैं | परन्तु हम केवल आसक्त उन्हीं के प्रति हैं, जिनसे हमें सुख प्राप्त होने की सम्भावना नज़र आती है, जिनको हम भोग सकते हैं | हमारी अपनी कामनाओं की पूर्ति के जो भी माध्यम है, जिनके द्वारा हमें सुख मिलने की जरा सी भी सम्भावना नज़र आती है, हम उस साधन और उस माध्यम को अपना और अपने लिए मानकर उसमें आसक्त हो जाते हैं | ये साधन और माध्यम ही हमारा स्वनिर्मित संसार बनाते है |

          स्वनिर्मित संसार हमें परमात्मा से दूर कर देता है और हम अपने ही बनाये इस संसार में उलझकर बन्ध जाते है, उसके अधीन हो जाते हैं | यह पराधीनता हमें अपने स्वरुप से दूर ले जाती है | सुख की कामना हमें उस कर्म के प्रति आसक्त करती है, जिस कर्म को करने से ये भोग सुलभ होते हैं | जिस व्यक्ति या प्राणी अथवा माध्यम से हमें वे भोग मिल सके हैं/मिल सकते हैं, उस माध्यम को हम अपना और अपने लिए मान लेते हैं | विभिन्न प्रकार के भोगों की कामना हमसे कर्म करवाती है | जिस व्यक्ति के माध्यम से हमें भोग सुगमता से मिलने की सम्भावना होती है, उस व्यक्ति से हमारी एक अपेक्षा बन जाती है | जब अपेक्षा के अनुरूप उस व्यक्ति से सुख नहीं मिल पाता तब हमें दुःख पहुंचता है, और वही हमारा उससे द्वेष का कारण बनता है |

           कामनाएं किसी की भी एक जीवन में पूरी नहीं हो सकती | साथ ही यह भी सत्य है कि एक कामना पूरी होती है तो फिर दूसरी कामना पैदा हो जाती है | इस प्रकार अनेकों कामनाएं हमें अपने इस संसार में उलझा देती है और कामनाओं के जाल में जकड़े हुए हम एक शरीर से दूसरे शरीर में आते-जाते रहते हैं | इस प्रकार अपना बनाया संसार ही हमारे लिए वह कुआँ बन जाता है जिसमें हम बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं | परमात्मा का बनाया हुआ ही यह कुआँ है परन्तु परमात्मा इस कुएं के प्रति तनिक भी आसक्त नहीं है | वे तो इस भवकूप के बाहर बैठे, दृष्टा भाव से अपनी कृति में चल रही क्रियाओं का आनंद ले रहे हैं | वे कर्म नहीं करते बल्कि क्रियाओं के जनक हैं | क्रियाएं चलती रहती है और वे देखते रहते हैं | उनको न तो क्रियाओं के कारण कोई दुःख मिलता है और न ही सुख | वे प्रत्येक परिस्थिति में सम रहते है, निर्विकार रहते हैं |

             जिन्होंने इस संसार की रचना की है, वही रचियता इस संसार के अंग अंग में बसे हैं | उनके लिए सभी अपने हैं, फिर भी उनका न कोई अपना है और न कोई पराया | आसक्ति ही अपना और पराये का भेद करती है | जब पराया कोई नहीं है तो सभी अपने हुए | जब सभी अपने हैं तो फिर इस शब्द "अपना" का उपयोग करना ही व्यर्थ प्रतीत होता है | जब तक ‘मैं’ की उपस्थति है तब तक ‘तुम’ के भी उपस्थित होने की सम्भावना है | जब तक ‘मैं’ उपस्थित है, तब कोई कोई ‘मेरा’ भी अवश्य उपस्थित है, यह निश्चित बात है | इसलिए हमें विचार करना चाहिए कि इस ‘मैं’ और ‘मेरा’ के चक्र से कैसे बाहर निकला जा सकता है ? जब हम इस चक्रव्यूह को तोड़ देंगे तो फिर इस भवकूप में बार-बार नहीं गिरेंगे | ‘मैं’ और ‘मेरा’ को तोड़ डालना ही वह छलांग है, जो हमें इस भवकूप से बाहर निकाल देगी और हम जगत की वास्तविकता को समझ पाएंगे |

          संसार के सृजन का ज्ञान हो जाने के बाद हमें संसार में अपनी तात्कालिक स्थिति का अवलोकन करना होगा | हम किस दशा में रहते हुए इस संसार का सुख-दुःख क्यों झेल रहे हैं ? हमारी किनसे क्या अपेक्षाएं हैं और उनसे कैसे मुक्त हुआ जा सकता है ? हमारी कौन सी कामनाएं हैं, जो आज तक पूरी नहीं हुयी है ? हमने आज तक इस संसार से जो भी चाहा है क्या वह आज तक हमें मिल पाया है ? मिल गया तो वह कैसे मिला और नहीं मिला तो क्यों नहीं मिला ? क्या इन के मिलने अथवा न मिलने के पीछे मेरी अपनी कोई भूमिका थी ? कौन से कार्य ऐसे हैं जो आपने किये और अगर आप नहीं करते तो वे नहीं होते ? इनके अतिरिक्त भी अन्य कई प्रश्न और भी हो सकते हैं क्योंकि इस सांसारिक जीवन से असंतुष्ट रहने के कई कारण हो सकते हैं | अतः हमें इन सभी बातों और कारणों पर विचार कर स्वयं को इस संसार से बाहर निकालने के लिए तैयार करना होगा |  

          गंभीरता से विचार करने पर हम पाएंगे कि जीवन में हमारी व्यक्तिगत रूप से सुख-दुःख  मिलने में किसी भी प्रकार की कोई भूमिका नहीं रही | जब भी हम कोई कर्म करते हैं तो उसका फल मिलना निश्चित है | परन्तु सब कर्मों के फल हमारी इच्छानुरूप ही मिलें, यह निश्चित नहीं है | जब यह सत्य है तो फिर कामना पूर्ति के लिए कर्म करने में हमारी भूमिका ही कहाँ रह जाती है ? संसार में लाखों विषय-भोग बिखरे पड़ें है और वे आपको सुगमता से उपलब्ध तभी तक हैं जब तक आपके मन में उनको प्राप्त करने की कोई कामना नहीं है | सुगमता से उपलब्ध हुए विषय को एक बार जब आप भोग लेते है तब आपके भीतर उस विषय-भोग को फिर से पाने की कामना पैदा हो जाती है | उस कामना के वशीभूत होकर आप कर्म करते हैं | कर्म करने से जब वह भोग मिल जाता है तो आपकी उस कर्म के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है | इस प्रकार बार-बार ऐसा होने से विषय-भोग आपसे दूर जाने लगते हैं परन्तु आप इस बात को स्वीकार नहीं करते और फिर अपनी क्षमता से अधिक कर्म करते हुए उसे पाने का प्रयास करते हैं | एक अवस्था ऐसी आती है जब आप उस भोग को पर्याप्त कर्म करके भी प्राप्त करने में विफल हो जाते हैं | शरीर साथ छोड़ रहा होता है और भोग को भोगने की कामना अभी तक भी बलवती बनी हुई है | तो जाइए ! भोग चाहिए तो नए-नए शरीर लेते रहिये और कूपमंडूक बन जाइये | जन्म-जन्मान्तर से हमारी यही तो नियति बनी हुयी है |

           कूप मंडूक ? वह मेंढक जिसने एक छोटे से कुए को ही अपना संसार मान लिया और उसमें ही संतुष्ट है | इसी प्रकार मनुष्य ने भी अपना संसार रचकर उसको ही अपने जीवन का ध्येय  मान लिया है | उसे अपने संसार में जो सुख मिलता है, उसे ही जीवन में मिलने वाला चरम सुख मान लिया है | जीवन का आनंद क्या है ? इसको समझने के लिए संसार के चक्रव्यूह को तोड़कर उससे बाहर निकलना होगा | जब बाहर निकलोगे तब आपका बनाया यह संसार आपके लिए बेमानी हो जायेगा, अर्थहीन हो जायेगा | तब आप सोचेंगे कि इतने वर्ष जीवन के आपने व्यर्थ ही गँवा दिए |

           कुत्ता अनायास मिली सूखी हड्डी चबाते हुए सोचता है कि हड्डी बड़ी रसदार है | वह नहीं जानता कि जिसे वह रस समझ रहा है वह सूखी हड्डी चबाने के कारण उसके मुंह की झिल्ली से उसी का रक्त निकलकर उसे मिल रहा है | वह सुखकारी रस उसे स्वयं के रक्त से ही मिल रहा है | यही हाल मनुष्य के जीवन का है | जिसे वह संसार से मिलने वाला सुख समझ रहा है, वास्तव में वह उसके स्वयं का शोषण है जोकि संसार से सुख पाने के स्वार्थ के कारण हो रहा है | संसार के सभी सम्बन्ध स्वार्थ के सम्बन्ध हैं | बिना स्वार्थ के यहाँ कोई किसी को घास तक नहीं डालता और इधर हमारा यह हाल है कि ‘मेरा-मेरा’ कहते सबका मुख सूखा जा रहा है |

          जीवन के धरातल पर सब एक दूसरे के ऊपर तब तक आश्रित है जब तक एक दूसरे का स्वार्थ पूरा हो रहा है | जिस दिन स्वार्थपूर्ति की अपेक्षा समाप्त हो जाती है, फिर कोई किसी को नहीं पूछता | इसलिए संसार के सम्बन्धों को ‘मेरा-मेरा’ कहना छोड़ दो और एक परमात्मा का आश्रय ले लो, जिससे बड़ा आपका सम्बन्धी इस संसार में अन्य कोई नहीं है | संसार बंधन है और बंधन पराधीनता का प्रतीक है | मुक्त जीवन ही वास्तव में जीवन है | केवल शरीर को छोड़ देना ही मुक्ति नहीं है | शरीर तो रुग्ण और जीर्ण-शीर्ण होकर आपके न चाहने पर भी एक दिन स्वतः ही समाप्त जायेगा लेकिन मुक्ति फिर भी नहीं होगी | मनुष्य अपने जीवन में ही मुक्त होना चाहता है और हो भी सकता है परन्तु संसार के बंधन तोडना नहीं चाहता | ये बंधन स्वयं को ही तोड़ने पड़ते है क्योंकि आप स्वयं अपनी इच्छा से इस संसार के साथ बंधे है |

             मुक्ति का मार्ग कठिन नहीं है परन्तु संसार के बंधन तोड़ने में सबको भय लगता है | भय किस बात का ? जो जीवन में मिला है, उसके खो जाने का | इस शरीर के समाप्त हो जाने का भय अर्थात मृत्यु का भय | शरीर के समाप्त हो जाने के बाद इस संसार का क्या होगा ? आगे मुझे यह सब मिलेगा अथवा नहीं | याद रखें, परमात्मा द्वारा सृजित इस संसार में कभी भी कुछ भी नहीं खोता है | आपने जो भी जीवन में कामना की है, परमात्मा ने उस कामना को पूरा करने के लिये सब साधन बनाये हैं | परन्तु जब कामना ही आपकी अनुचित हो तो इसमें परमात्मा का क्या दोष ? आपने पत्नी मांगी परमात्मा ने आपको दे दी | आपने पुत्र मांगे, परमात्मा ने आपको दे दिए | धन माँगा, धन मिल गया | आपने कामनाओं को विस्तार दे दिया, परिवारजनों से अपेक्षाएं करने लगे, यह आपका संसार हो गया, अब यह परमात्मा के बनाये संसार से भिन्न हो गया | अब आपकी सभी अपेक्षाएं एक-एक कर टूटने लगी, आपको दुःख पहुंचा | धन का आपने सदुपयोग नहीं किया, धीरे-धीरे वह भी नष्ट होने लगा, आपको दुःख पहुंचा |

             जब तक आप परमात्मा के सृजित संसार के लिए जियेंगे, तब तक आपकी समस्त कामनाएं पूरी होगी क्योंकि यह शरीर संसार की सेवा के लिए ही मिला है | संसार की सेवा आपको आनंद देती है | जिस दिन आप स्वयं के स्वार्थ के लिए जीने लगेंगे, सुखी नहीं रह सकेंगे | स्वयं के लिए सुख चाहना ही संसार के साथ आपको बांधता है जबकि संसार की सेवा आपको मुक्त करती है | सेवा ही आपको परमत्मा की तरफ ले जाती है | इसलिए ‘मैं’, 'मेरा’ और ‘मेरे लिए’ के बंधन को तोड़ दो और मुक्त होकर जीओ | कबीर कहते हैं -

      मैं मेरे की जेवड़ी, गल बंधा संसार |

      दास कबीरा क्यूँ बंधे, जा के राम अधार ||

            ‘मैं और मेरा’ वह रस्सी है, जो आपके गले में पड़ी हुयी है। यही आपको संसार के साथ बांधे रखती है | संसार का आश्रय लेना ही आपको बंधन में डालता है | एक परमात्मा का आश्रय लेने से यह बंधन समाप्त हो जाता है | जरा सोचिये ! जीवनभर हमने इस संसार से ही कुछ पाने की इच्छा रखी है, क्या मन में कभी परमात्मा को पाने की भी कामना की है ? नहीं, की न | जिस दिन परमात्मा को पाने की आपके भीतर मुमुक्षा पैदा हो जाएगी, उस दिन आपके जीवन की दशा और दिशा, दोनों ही बदल जाएगी |

        एक राजा था | उसने अपने राज्य में मुनादी करवा दी कि कल सुबह से शाम तक जो भी निश्चित किये गए स्थान पर आएगा, वह वहां से अपने मनपसंद की वस्तु नि:संकोच वहां से ले जा सकता है | शर्त यह है कि एक व्यक्ति एक बार ही वहां आएगा और वहां से कोई भी अच्छी लगने वाली एक वस्तु ही वहां से ले जा सकेगा | मुनादी सुनकर राज्य की प्रजा बड़ी हर्षित हुई | रात को उस राज्य के किसी भी निवासी की आँखों में नींद नहीं थी | सब कल्पना कर रहे थे, वहां प्रदर्शित की जाने वाली वस्तुओं की और वहां से कौन सी वस्तु लानी है उसकी | राजा के यहाँ भला किस वस्तु की कमी हो सकती है |

            निश्चित किये हुए स्थान पर राज-कर्मचारियों ने खजाने में पड़ी बहुमूल्य वस्तुएं लाकर करीने से सजा दी | प्रातः होते ही निश्चित समय पर उस स्थान के द्वार खोल दिए गए | एक एक कर प्रजा अन्दर जा रही थी और जिस वस्तु पर उनकी दृष्टि जाती वह वस्तु उठाकर बाहर ले आते | पहरेदारों की तेज़ नज़र द्वार पर लगी हुई थी | कोई भी व्यक्ति न तो एक से अधिक वस्तु बाहर लेकर आ सकता था और न ही दुबारा उस मंडप में प्रवेश कर सकता था | किसी की दृष्टि स्वर्ण निर्मित हार पर पड़ी तो उसने उसी को लेना अपना सौभाग्य समझा | किसी की दृष्टि मोतियों की माला पर पड़ी, वह उसी को पाकर संतुष्ट था |

          उसी भीड़ में एक नन्हीं सी बालिका भी थी | वह मंडप में प्रवेश कर धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी | वह एक-एक वस्तु का अवलोकन कर रही थी | उसको किसी भी वस्तु ने अपनी और आकर्षित नहीं किया | आगे बढ़ते बढ़ते वह ऐसे स्थान पर पहुंची जहां पर न तो कोई वस्तु थी और न ही कोई प्रजाजन | फिर भी वह आगे बढ़ती रही | मंडप के अंतिम छोर पर उसने राजा को बैठे देखा | उसके चेहरे पर मुस्कान की लकीरें खिंच आयी | वह दौड़कर राजा की गोदी में जा बैठी | तत्काल ही राजा ने समय समाप्ति की घोषणा करवा दी | अब शर्त के अनुसार राजा उस नन्हीं मुन्नी बालिका के हो गए थे |

           राजा ने बालिका को गोद में उठाया और धीरे-धीरे मंडप के मुख्य द्वार तक पहुंच गए | बाहर प्रजा खड़ी राजा के जयकारे लगा रही थी | सबको अपनी मनपसंद की वस्तु मिल गयी थी, इसलिए सब खुश थे | क्या आप जानते हैं कि सबसे अधिक खुश कौन था ? हाँ, वह बालिका जिसने सभी बहुमूल्य वस्तुओं को छोड़ राजा को पाना उचित समझा | अब उसको कोई भी वस्तु नहीं चाहिए थी क्योंकि राजा उसको मिल गए थे | जिसको राजा मिल गए फिर उसके पास क्या कमी हो सकती है ? जो राजा का, वह सब अप्रत्यक्ष रूप से उसका ही तो हुआ |

         यह कहानी कहती है कि हम क्षुद्र सांसारिक वस्तुओं के लिए परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं | जब सब कुछ परमात्मा द्वारा ही सृजित है फिर सब कुछ परमात्मा का ही तो है | सांसारिक वस्तुएं हमें तात्कालिक सुख अवश्य प्रदान कर सकती है परन्तु एक न एक दिन उन सबका समाप्त हो जाना निश्चित है क्योंकि वे सभी विनाशशील है | संसार का विनाश हो सकता है परन्तु परमात्मा अविनाशी है | अविनाशी के अंतर्गत संसार की सभी विनाशशील वस्तुएं आ जाती है परन्तु संसार की सभी विनाशशील वस्तुओं से उस एक अविनाशी को प्राप्त नहीं किया जा सकता | इसलिए प्राप्त करना हो तो फिर संसार की भौतिक वस्तुओं को छोड़ कर, क्यों न एक परमात्मा को ही प्राप्त कर लें ? अविनाशी की कामना आपको मुक्त करती है जबकि विनाशशील की प्राप्ति/कामना आपको बंधन में डालती है | दिन प्रति दिन परिवर्तित होता जा रहा यह अपना संसार ही वह कूप है जिसमें हम बार बार गिरते रहते है | केवल शरीर बदलते हैं परन्तु कुआं वही रहता है और हम वहां के कूपमंडूक बने रहते हैं | ऐसी परिस्थिति को देखकर कबीर मुक्त होने के लिए कह उठते हैं -

     कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ |

     गलै राम की जेवड़ी, जित खेंचे तित जाऊँ ||

           मुझे संसार की नाशवान वस्तुओं की कोई कामना नहीं है | संसार की कामना से नहीं बंधा हूँ, मैं | मेरे गले में ये जो बंधन पड़ा हुआ है, वह राम को पाने की कामना का बंधन है | अब तो जहां राम ले जायेंगे, मैं उनके पीछे-पीछे खिंचता हुआ वहीँ चला जाऊंगा |

         शरीर मरणधर्मा है परन्तु मन नहीं मरता है | मन के कारण जो कर्म किये हैं, वे सभी कर्म हमें बार-बार इस संसार में नया शरीर लेने को विवश करते हैं | कर्म का हमने क्या बुरा किया जो वे हमें इस भवकूप से मुक्त नहीं होने देते ? कर्म जब तक क्रिया की अवस्था में रहता है तब तक वह तत्काल फल दे देता है और वह फल इस शरीर द्वारा स्वीकार भी कर लिया जाता है | परन्तु जब उसी क्रिया का फल हम अपनी इच्छानुसार चाहने लग जाते हैं, तब वह कर्म बन जाती है और उसका फल कब, कहाँ और कैसे मिलना है, यह सब प्रकृति के नियमानुसार निश्चित किया हुआ होता है | फल की कामना से किये जाने वाले कर्म, फल दिए बिना नहीं रह सकते और ऐसे कर्म कभी नष्ट भी नहीं होते | ऐसे कर्मों के फल के लिए ही हमें भिन्न-भिन्न समय पर और अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न शरीर धारण करने पड़ते हैं |

            उपरोक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे कर्म अगर क्रिया में परिवर्तित हो जाते हैं तो प्रकृति के नियमानुसार वे हमें व्यथित नहीं कर सकेंगे | इसके लिए हमें कर्मों का ज्ञान होना आवश्यक है | कर्म स्वयं के लिए और स्व-निर्मित संसार के लिए करना, सुख और दुःख दोनों को ही देने वाले होते हैं | साथ ही साथ ये कर्म हमें अपने संसार के साथ बांध भी देते हैं | हमें ऐसे कर्मों से मुक्त होने के लिए सभी कर्म केवल संसार की सेवा के लिए ही करने चाहिए | सेवा के लिए किये जाने वाले कर्म स्वार्थरहित और बिना कर्ताभाव के होते हैं | अगर सेवा के लिए किये जाने वाले कर्मों में तनिक भी स्वार्थ भाव अथवा कर्तृत्व का अभिमान आ गया, तो ऐसे कर्म भी बंधन का कारण बन जाते हैं |

           देह को बनाये रखने के लिए सभी प्राणियों को भोजन की आवश्यकता होती है | अतः केवल शरीर को चलाने के लिए किये जाने वाले कर्म हमें बाँधते नहीं हैं परन्तु संग्रह की दृष्टि से किये जाने वाले कर्म अवश्य ही बांधने वाले होते हैं | इसलिए जीवन में संतुष्ट होना, मुक्त होने के लिए बहुत आवश्यक है | इस प्रकार कर्मों के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान रखते हुए कर्म करेंगे तो फिर बार-बार इस संसार में आना नहीं पड़ेगा | गीता तो यहाँ तक कहती है कि ज्ञान की अग्नि आपके सम्पूर्ण कर्मों को भी जला देती है क्योंकि ज्ञान हो जाने से सभी कर्म मात्र प्रकृति की क्रिया बन कर रह जाते हैं | उस क्रिया का फल मात्र इतना सा ही होता है, जितना जले हुए कर्मों की शेष रही भस्म से हो सकता है |

           हम बात कर रहे थे, मनुष्य के मन की | मन पर नियंत्रण स्थापित करना बड़ा ही मुश्किल कार्य है | ‘मन को जिसने जीत लिया, उसने संसार को भी जीत लिया’ ऐसा कहा जाता है | “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:” अर्थात मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है | अगर मन विषयों मे आसक्त न होकर इन्द्रियों को उस ओर न दौड़ाये तो फिर जीवन में बंधन का कोई कारण नहीं रह जाता है | बंधन हमारे मन के कारण है क्योंकि मन विभिन्न शरीरों (इन्द्रियों) के माध्यम और कई जन्मों से अनेक विषयों का स्वाद चखता आ रहा है | विभिन्न विषयों में स्वाद की आसक्ति ही मनुष्य को कर्म करने के लिए विवश करती है और फिर उसके द्वारा किये गये कर्म ही संसार में आवागमन का कारण बनते हैं |

           मन का निरोध तब तक असफल है, जब तक कि भीतर से विषय-रस की निवृति नहीं होती | प्रायः व्यक्ति इन्द्रियों को बल पूर्वक रोक तो लेता है परन्तु भीतर ही भीतर उस इन्द्रिय से सम्बंधित विषय का रस लेता रहता है | शरीर और मन के माध्यम से प्रकृति में स्थित पुरुष ही इस रस का भोक्ता बनता है परन्तु वृद्धावस्था आते-आते शरीर की भोगने की क्षमता भी धीरे-धीरे चुकती जाती है | शरीर भले ही बुढा हो जाता हो परन्तु मन कभी भी बुढा नहीं होता | मन बुढा नहीं होता इसी कारण से रस से निवृति नहीं हो पाती | इसलिए अगर रस से निवृति लेनी है तो इसका प्रयास शरीर के सशक्त रहते हुए ही करना होगा | एक चिकित्सक होने के नाते मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि रस में आसक्ति बुढ़ापे में ओर अधिक तीव्र हो जाती हैं | मुंह में दांत नहीं, पेट में आंत काम नहीं करती, पाचन शक्ति दगा दे रही होती है फिर भी स्वादिष्ट भोजन से किसी प्रकार का परहेज नहीं है, रसदार भोजन से मोह छूटता ही नहीं है | आँखों में मोतियाबिंद उतर रहा है फिर भी पडौस की नयी बहू कैसी दिखाई देती है, उसके सौन्दर्य को निहारने का रस मन से नहीं जा रहा | अगर आर्थिक रूप से सक्षम है तो फिर कहना ही क्या ? प्रत्येक रस को शरीर के निर्बल होते हुए भी भोगने की इच्छा बलवती होती जाती है | स्वामीजी इसीलिए कहते थे कि भोग और संग्रह की वृति के कारण ही जीवन में सारी समस्या है | रस की निवृति फिर भला कैसे हो ? कहाँ तक गिनाऊं, रस से निवृति वृद्धावस्था में भी संभव नहीं हो पा रही है | रस से निवृति नहीं तो फिर मुक्ति भी नहीं | ऐसे में कूपमंडूक बनकर इसी सांसारिक कुएं में बार-बार गिरना पड़ेगा |

        हम मन को भला दोष कितना ही दे दें, आधुनिक युग में तो बुद्धि तक भी भ्रष्ट होती जा रही है | भौतिक संसार में दृश्य-श्रवण के इतने अधिक साधन है कि विवेक खोकर, भले मानुष भी उन्हें देख-सुन कर पतन को प्राप्त हो रहे हैं | बुद्धि का नियंत्रण मन पर होना चाहिए परन्तु इन आधुनिक साधनों के कारण मन का बुद्धि पर एकाधिपत्य स्थापित होता जा रहा है | जो भी इस संसार में दृष्टिगत है, उसको ही हम अपनी कुंद हुई बुद्धि के कारण सत्य मान बैठे हैं | कोई विवेकी महापुरुष ऐसे व्यक्ति को समझाने का तनिक भी प्रयास करता है तो उसको बड़ा बुरा लगता है | यही कारण है कि आज हो रहे सामाजिक पतन को रोकने का उपाय करते हुए कोई भी भला व्यक्ति दिखलाई नहीं पड़ रहा है | अंधों के शहर में दर्पण को बेचने का कोई औचित्य भी नहीं है |

          बुद्धि में परिवर्तन होना तो तभी संभव हो सकता है, जब व्यक्ति स्वयं परिवर्तित होना चाहे | गीता में कहा गया है कि बुद्धि से परे अर्थात सूक्ष्म अहम् है, जहां काम निवास करता है | अहम् बुद्धि को नियंत्रित करता है | कामना के अहम् में रहने के कारण हम अपनी बुद्धि पर भी नियंत्रण खो देते हैं, जिससे हम भ्रम की अवस्था में चले जाते हैं और अपने वास्तविक स्वरुप को भूल जाते हैं | वास्तविक स्वरुप की विस्मृति होते ही जो कुछ भी इन्द्रियों से अनुभव में आता है, उसी संसार में ही हमें सत्यता नज़र आने लगती है |  सत हमारा वास्तविक स्वरुप है परन्तु इस संसार में आसक्ति के कारण उस सत्य को तो भूल जाते हैं और जो असत संसार है, वही हमें सत नज़र आने लगता है |

      इसलिये आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम अहम् को काम से मुक्त करें | इसके लिए ज्ञान प्राप्त कर विवेक को जगाना होगा जिससे बुद्धि मन को अपने नियंत्रण में ले ले | मन के नियंत्रित होते ही फिर काम से मुक्त होकर अपने स्वरूप तक पहुँचने में देर नहीं लगेगी |जब हम ज्ञानयुक्त होकर इस संसार की रचना को समझ लेंगे तब फिर बार-बार शरीर धारण करने के चक्रव्यूह को तोड़कर बाहर भी निकल जायेंगे | यही व्यक्ति की शरीर रहते हुए जीवन-मुक्त हो जाने की अवस्था है |

          प्रश्न उठता है कि ज्ञान क्या है ? श्रृंखला के प्रारम्भ में हमने परमात्मा के स्वरुप की चर्चा करते हुए स्वयं को अपने में ही दो रूप में विभाजित कर लेने की चर्चा की थी | पुरुष और प्रकृति | प्रकृति क्रियाशील है और इसे माया भी कहा जाता है | माया को ही सत्य मान लेने के कारण जीवन में सारी समस्याएं पैदा होती है | माया मृगमरीचिका की तरह होती है, जिसमें जल होने का आभास तो होता है परन्तु जल कहीं भी नहीं होता है | इसी प्रकार संसार से सुख मिलने का आभास तो होता है परन्तु यहां सुख होता नहीं है | जिस प्रकार मृगमरीचिका की ओर प्यास बुझाने के लिए मृग दौड़ता है परन्तु जल न मिलने के कारण वह प्यासा ही रह/मर जाता है उसी प्रकार संसार में व्याप्त माया से सुख मिलने की कामना कभी भी पूरी नहीं होती और देह छूट जाती है | यह अतृप्त रह जाने की अवस्था ही मनुष्य को भवकूप में बार-बार गिराती रहती है | जिस दिन हम इस माया को पहिचान लेंगे उस दिन हम सुख प्राप्त करने की कामना को भी त्याग देंगे | सुख की कामना ही क्यों, फिर तो प्रत्येक कामना से मुक्त हो जायेंगे |

              मृगमरीचिका के बारे में मृग को कितना ही समझा दें कि वहां जल नहीं है, जल का भ्रम है फिर भी मृग उस बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि उसे जल दिखलाई जो पड़ रहा है | ज्ञानीजन कितना ही समझा दें कि संसार में दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है फिर भी मनुष्य कहेगा – ‘जी नहीं, सुख इसी संसार से मिलेगा' क्योंकि संसार उसे आकर्षक लग रहा है | यही उसका अज्ञान है | गीता कहती है कि जो मनुष्य अध्यात्म-ज्ञान में सदैव स्थित रहता है, तत्वज्ञान के रूप में परमात्मा का दर्शन करता है, केवल यही ज्ञान है, शेष सारा अज्ञान है | अध्यात्म ज्ञान में स्थित रहने का अर्थ है, स्वयं के वास्तविक रूप को स्मृति में सदैव बनाये रखना और तात्विक ज्ञान वह है जिसमें ऐसा अनुभव किया जाता है कि जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, वह परमात्मा का सृजन होने के कारण परमात्मा ही है | है भी यही सत्य, संसार में जो कुछ दृष्टिगत है अथवा अदृश्य है, वह सब कुछ एक परमात्मा ही है, परमात्मा के अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है | यह ज्ञान जब तक स्मृति में बना रहेगा तब तक ईश्वर की माया होते हुए भी उसमे हम उलझेंगे नहीं, आसक्त नहीं होंगे बल्कि उसका अनासक्त भाव से आनंद लेते हुए उसमें भी परमात्मा को ही देखेंगे |

           ज्ञान की अवस्था प्राप्त कर लेने के बाद भी व्यक्ति की स्मृति माया के आकर्षण में कई बार भ्रमित हो जाती है | इसलिए ज्ञान पर दृढ़ता बनाए रखना आवश्यक है | ज्ञान की दृढ़ता भक्ति से होती है और जब एक बार भक्ति में उतरते हैं तब अनुभव होता है कि इतने दिन बेमतलब ही इधर-उधर भटक रहे थे | भक्ति व्यक्ति को शीघ्र ही ज्ञान का अनुभव करा देती है | फिर व्यक्ति कर्मों और विषयों में आसक्त न होकर निष्काम हो जाता है | निष्काम व्यक्ति स्वार्थ रहित होता है | निस्वार्थता उसे निर्भय कर देती है | परन्तु कहना जितना सरल है, उतना भगवान् की भक्ति में उतरना सरल नहीं है | अनेक जन्मों से मनुष्य के अंतःकरण में पड़ी यह करने और जानने की ग्रंथि सुगमता से खुलती नहीं है | इसलिए कर्म और ज्ञान आदि का अनुभव करने के पश्चात् ही एक दिन विवेक जाग्रत होता है और व्यक्ति संत और शास्त्र के माध्यम से भक्ति को उपलब्ध होता है |

           गीता में भगवान् स्पष्ट करते हैं कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं | जो इनको तत्व से भलीभांति जान लेता है, वह अपने शरीर को त्यागने के बाद नया शरीर लेकर इस संसार में वापिस नहीं लौटता | श्रृंखला के प्रारम्भ में ही हमने परमात्मा के संसार-सृजन पर बात की थी | उसी अनुरूप इस सृष्टि का निर्माण हुआ | भगवान् भी अनेकों बार इस संसार में शरीर धारण कर अवतरित हुए हैं | उनके शरीर धारण करने की प्रक्रिया और कर्मों का हम गहनता से अध्ययन करें तो पाएंगे कि उन्होंने कितने सुन्दर तरीके से अपने जीवन में कर्म किये हैं और हमारे लिए नए मापदंड स्थापित करके गए हैं | उस मापदंड के अनुरूप अगर हम अपना जीवन बना लें और आचरण करने लगें तो हम भी परमात्मा हो सकते हैं | 

              इस संसार में आकर परमात्मा ने भी सबको अपने जैसा ही देखा, इसका अर्थ है कि हम सब परमात्मा से अभिन्न हैं | केवल संसार के विषय-भोगों में आसक्त होकर ‘मेरा-तेरा’ में उलझकर रह गए हैं | जिस दिन इस तात्विक ज्ञान का हमें अनुभव हो जायेगा कि एक परमात्मा ही सब जगह और सबमें है, फिर ‘अपना-पराया’ का सारा भेद समाप्त हो जायेगा | सत्य भी यही है कि संसार में परमात्मा से अलग कुछ भी नहीं है।

          गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मुझे सब जगह देखता है, सबमें मुझे देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है | इतनी स्पष्टता से भगवान् कह रहे हैं तो फिर बताने को शेष क्या रह जाता है ? मनुष्य की विडंबना यही है कि वह शास्त्रों के ज्ञान और सांसारिक जीवन में अंतर कर देता है | शास्त्रीय ज्ञान को जीवन में उतारकर उसे संसार में रहते हुए उपयोग में लीजिये, फिर देखें कि दुखदाई संसार कितना अलग प्रतीत होता है | संसार में आकर दुखी इसलिए होते हैं कि हम स्वयं को परमात्मा से अलग मानने लगे हैं | ज्ञान कितना ही पढ़ लें, सुन लें अथवा लिख लें, आचरण में लाये बिना वह बंधनकारी है, ऐसा ज्ञान हमें मुक्त नहीं कर सकता | परमात्मा को सर्वत्र देखना ही नहीं बल्कि सर्वत्र उसकी उपस्थिति का अनुभव भी होना चाहिए |

         सर्वत्र परमात्मा को देखना कितना मुश्किल है, हम सब जानते हैं | आपकी दृष्टि अपने चारों ओर रस को खोजने की, रस को देखने की और उस रस को अनुभव करने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि परमात्मा को देखना लगभग असंभव हो जाता है | शास्त्र और सत्संग के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर दिखावे के तौर पर भले ही हम साधू होने का ढोंग कर लें परन्तु जब तक रस के प्रति आसक्ति नहीं छूटेगी, तब तक सर्वत्र परमात्मा दिखलाई नहीं देंगे | रस मिलने के मूल स्थान से दूर चला जाना भी रस से छूटने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि विषय भले ही शरीर के बाहर बैठे हों, रस तो मन के भीतर बैठा है | मन को निर्मल बनाये बिना संसार से भागकर जंगल में चले जाने से भी कुछ नहीं होगा | जिस रस को संसार में रहते हुए बाहर देख रहे हो जंगल में जाकर वही विषय-रस अपने शरीर के भीतर देखते रहोगे | जंगल में जाने का उद्देश्य अगर विषयों से मुक्त होना ही है, तो इस उद्देश्य में तभी सफलता मिलेगी जब भीतर का रस समाप्त हो अन्यथा घर और वन में कोई अंतर नहीं रहेगा | रस समाप्त हो जाने पर फिर आप वन में रहो अथवा संसार में, कोई फर्क नहीं पड़ेगा | फिर तो चारों ओर परमात्मा के ही दर्शन होंगे |

       रस की निवृति कुछ करने अथवा जानने से समाप्त नहीं होगी | हाँ, ये दोनों एक सीमा तक इसमें सहायक हो सकते हैं परन्तु सम्पूर्ण रूप से कारगर नहीं हो सकते | इसके लिए तो स्वयं को परमात्मा में लगाना होगा | भगवान् में लगते ही सभी दुविधाएं मिट जाएगी और एक स्थिति ऐसी आएगी जब चहुँ ओर परमात्मा के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आएगा | इस स्थिति में आकर भक्त ही भगवान् हो जाता है | भगवान् होते ही सभी भेद मिट जाते हैं | भेद संसार करता है, परमात्मा में कोई भेद नहीं है | भेद जहाँ दो रहते हैं वहां होता है | एक तो एक ही होता है, वहां किसी दूसरे का कोई स्थान ही नहीं रहता |

         स्वामीजी से किसी ने प्रश्न पूछा कि भक्त जब अपने आपको भगवान् मानने लगता है तो अपने को शरीर सहित मानता है अथवा शरीर रहित ? स्वामीजी ने बड़ा ही सटीक उत्तर दिया कि स्वयं को भगवान् मानने से शरीर भी साथ में हो जाता  है अर्थात शरीर और स्वयं में कोई भेद नहीं रहता है | परन्तु अगर भक्त शरीर को मुख्य मानता है और स्वयं भगवान् के साथ नहीं होगा तो फिर वह भगवान् कैसे हो सकता है ? भक्ति में सत के साथ असत हो जाता है और सांसारिक भोग भोगने में असत के साथ सत हो जाता है | असत के साथ सत हो जाने से सब कुछ असत ही होकर रह  जाता है | इसलिए शरीर को मुख्य न मानें और स्वयं को ही मुख्य मानें तो फिर दो का भेद नहीं रहेगा और सब कुछ सत ही सत हो जायेगा |

          विषय-भोग में आसक्ति के कारण सत अर्थात भगवान् को हम अलग मान लेते हैं और संसार को अलग | संसार असत है और हम असत के साथ बन्ध जाते हैं और मूल को भूल जाते हैं | मूल को जान लेंगे तो फिर असत का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और सब कुछ सत हो जायेगा | इसलिए भगवान् में श्रद्धा और विश्वास रख भक्ति करें तो असत से मुक्त हो जायेंगे और जन्म-मरण के चक्कर से निकल जायेंगे |

          मनु और शतरूपा ने अपने पुत्र उत्तानपाद को राज्य सौंपकर परमात्मा को पाने के लिए जंगल में जाकर साधना की थी | उनकी साधना से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनका पुत्र होना स्वीकार किया था | नया शरीर पाकर मनु अवध के सम्राट दशरथ बने और शतरूपा महारानी कौशल्या बनी | अपने दिए वरदान को सफल बनाने हेतु स्वयं भगवान् श्रीराम के रूप में इन दोनों के पुत्र बने | रानी कौशल्या को जब प्रसव पीड़ा होना प्रारम्भ हुई तब चतुर्भुज रूप धरकर स्वयं परमात्मा उनके सामने प्रकट हुए | तब माता कौशल्या ने उनकी स्तुति की है जिसको गोस्वामीजी ने श्री रामचरितमानस में बहुत ही सुन्दर रूप से प्रस्तुत किया है |

        कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता |

        माया गुण ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ||

        करुना सुख सागर सब गुण आगर जेहि गावहिं श्रुति संता |

        सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ||

        दोनों हाथ जोड़कर कौशल्या कह रही है - हे अनन्त ! मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ ? वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं | श्रुतियां और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले श्रीपति भगवान् मेरे लिए प्रकट हुए हैं |

             जिसका कोई ओर-छोर न हो, आदि-अंत पकड़ में नहीं आये वे अनन्त हैं | एक परमात्मा ही अनन्त है, अन्य कोई नहीं | जिसको मापा नहीं जा सकता, जिनका परिमाण अर्थात आकार, भार, मात्रा आदि ज्ञात नहीं की जा सके उसको परिमाण रहित कहा जाता है | इसलिए उनको ज्ञान से परे कहा गया है | सनातन धर्मशास्त्रों ने उन्हें माया और माया के गुणों से अतीत कहा है | संत जिनको दया का सागर कहते हैं अर्थात वे दयावान है |

      अवध की महारानी कौशल्या भगवान् की स्तुति करते हुए कहती है कि- 

            ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै |

            मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहे ||

           उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै |

           कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ||

    वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्मांडों के समूह भरे हैं | जिसने इस संसार की रचना की है वह असीम एक मां के गर्भ में भला कैसे समा सकता है ? यह हंसी की बात नहीं है तो और क्या है ? तुम एक मां के गर्भ में रहो, इस हंसी की बात सुनने पर धीर विवेकी पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती | अनन्त ब्रह्मांडों के स्वामी के गर्भ में रहने की बात सुन और जान कर ही विवेकी मनुष्य भ्रमित हो सकते हैं | विवेकी पुरुष की बुद्धि भी तो आखिर असत ही तो है | परमात्मा ब्रह्मांड के प्रत्येक कण में भी है और सम्पूर्ण ब्रह्मांडों के स्वामी भी है |

        जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए | जब कौशल्या को ज्ञान की स्मृति हो आई कि परमात्मा प्रत्येक स्थान पर हैं, एक सुई की नोंक जितना स्थान भी भगवान् से रिक्त नहीं है, तब उनको सारा रहस्य समझ में आ गया कि परमात्मा मनुज रूप धरकर बहुत से चरित्र करना चाहते हैं | भगवान ने फिर पूर्वजन्म की सुन्दर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का प्रेम प्राप्त हो अर्थात भगवान् के प्रति माता के मन में पुत्र भाव पैदा हो जाये | मनु और शतरूपा ने पूर्वजन्म में तपस्या करते हुए परमात्मा जैसा ही पुत्र तो चाहा था | तब भगवान् साक्षात् प्रकट हुए थे और कहा था कि सम्पूर्ण जगत में मैं अपने जैसा कहाँ ढूँढने जाऊंगा ? इसलिए अगले जन्म में मैं स्वयं ही तुम्हारा पुत्र बनकर आऊंगा | आज कौशल्या को भगवान् उसी बात का स्मरण करा रहे हैं | कौशल्या जान गयी है कि साक्षात् भगवान् ही उनके पुत्र बन रहे हैं | यह सुनकर कौशल्या के मन में उनके प्रति वात्सल्य भाव पैदा हो गया |

       कौशल्या के भीतर भगवान् के प्रति वात्सल्य भाव तो पैदा हो गया परन्तु पुत्र को सांसारिक रूप से प्रेम करना तभी संभव है जब भगवान् अपना चतुर्भुज रूप समेटकर मां के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म ले | तब कौशल्या ने कहा कि अब आप अपना यह रूप छोड़कर आप मेरे गर्भ से शिशु बनकर प्रकट हों | मैं आपको पुत्र रूप में तभी प्रेम कर सकूंगी | मुझे परम सुख तभी मिलेगा जब आप पुत्र के रूप में जन्म लेंगे |  

          माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा |

          कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ||

          सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा |

          यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ||

          माता की वह बुद्धि परिवर्तित गयी, तब वह बोली - हे तात ! यह रूप छोड़कर अत्यंत प्रिय बाललीला करो, यह सुख मेरे लिए परम अनुपम होगा | यह वचन सुनकर भगवान् ने बालक रूप धरकर रोना शुरू कर दिया | गोस्वामीजी कह रहे हैं कि जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे हरि के पद को प्राप्त करते हैं और फिर संसार रुपी कुएं में नहीं गिरते | 

       प्रभु जब जब मानव रूप धरकर इस धरा पर आये हैं और विभिन्न प्रकार की लीलाएं की है, उसका आनंद लेना ही एक भक्त के जीवन की अभिलाषा होती है | भगवान् के विभिन्न चरित्रों का गान करने से मनुष्य स्वयं ही भगवान् के समकक्ष हो जाता है | फिर उसे इस संसार में बार-बार नए नए शरीर धारण कर आना नहीं पड़ता |

          विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार |

          निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ||मानस-1/192||

ब्राह्मण, गौ, देवता और संतों के लिए भगवान् ने मनुष्य रूप में अवतार लिया | वे माया और उसके तीनों गुणों तथा इन्द्रियों से परे हैं | उनका दिव्य शरीर उनकी अपनी इच्छा से बना है |

          श्री मद्भागवत महापुराण के दूसरे स्कंध के 9 वें अध्याय में 32 से लेकर 35 श्लोक अर्थात इन चार श्लोकों को भागवतजी के प्राण कहा गया है | कहा जाता है कि परमात्मा का ज्ञान इन चार श्लोकों में समाहित है | इन श्लोकों को चतुःश्लोकी भागवत भी कहा जाता है | इन श्लोकों में भगवान् स्वयं कहते हैं कि –

         सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था | मेरे अतिरिक्त न तो स्थूल था और न ही सूक्ष्म और न ही दोनों का कारण अज्ञान | जहां सृष्टि नहीं है, वहां मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ भी प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं हूँ; और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ |

       वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चंद्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश-मंडल के नक्षत्रों में राहू की भांति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझनी चाहिए | 

        राहू को एक ग्रह कहा जाता है परन्तु वह ग्रह नहीं भी है क्योंकि उसे देखा नहीं जा सकता | इस के कारण सूर्य और चन्द्र ग्रहण होते हैं और यह ग्रहण होना भी परमात्मा की माया है क्योंकि कभी किसी पूर्णिमा के दिन सूर्य और चंद्रमा के मध्य पृथ्वी आ जाती है (चन्द्र ग्रहण) और कभी किसी अमावस्या के दिन सूर्य और पृथ्वी के मध्य चन्द्रमा (सूर्य ग्रहण) | इन्हें आप प्रकृति का रहस्य कहें अथवा परमत्मा की लीला, कोई फर्क नहीं पड़ता, अंततः प्रकृति भी तो परमात्मा का सृजन ही है |

      आगे भगवान कहते हैं कि जैसे प्राणियों के पंचभूत रचित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्यरूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारणरूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप में प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ |

        यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं - इस प्रकार निषेध की पद्धति से और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है - इस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित है, वे ही वास्तविक तत्व हैं | जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है |

           इसी प्रकार भागवतजी में श्रुतियों के द्वारा भगवान् की स्तुति का वर्णन भी आता है | श्रुतियां इस स्तुति में कह रही हैं कि भगवन ! आप समस्त ऐश्वर्य से परिपूर्ण हैं और आपही समस्त प्राणियों को फंसाने वाली माया का नाश कर सकते हैं | आपके मिटाए बिना यह माया नष्ट नहीं हो सकती | श्रुतियां कहती हैं कि हम आपके स्वरुप का पूर्ण रूप से वर्णन करने में सक्षम नहीं हैं परन्तु जब कभी आप माया के द्वारा जगत की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसका निषेध कर स्वरुप में स्थित हो जाते हैं तभी हम कुछ कुछ आपका वर्णन करने में समर्थ होती हैं | आप एक रस और निर्विकार हैं | भगवन् ! लोग तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं परन्तु आप तो मायानटी के स्वामी हैं अर्थात माया को भी नचाने वाले हैं |

         भगवन् ! प्राणीधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन करे, आपकी आज्ञा का पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है | फिर तो उनका शरीर उस लोहार की धौंकनी के समान है जो मृत है, फिर भी श्वांस लेती है | मनुष्य का शरीर पञ्च कोशों से बना है – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय | इन पञ्च कोशों में पुरुष रूप से रहने वाले और “मैं-मैं” की स्फूर्ति करने वाले भी आप ही हैं | आपके अस्तित्व से इन पञ्च कोशों की अनुभूति होती है और उनके न रहने पर भी आप ही रहते हैं | वास्तव में जो कुछ अस्ति अथवा नास्ति के रूप में अनुभव होता है, उन समस्त कार्य और कारणों से आप परे हैं | ‘नेति-नेति’ के द्वारा इन सबका निषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेध के भी साक्षी हैं और वास्तव में आप ही एकमात्र सत्य हैं |

       भगवन् ! परमात्म तत्व का ज्ञान प्राप्त करना बड़ा कठिन है | उसी का ज्ञान करने के लिए आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण कर लीला करते हैं | जो आपकी लीला का गान करते हैं और मोक्ष की कामना तक नहीं करते, वे परमानन्द में मग्न हो जाते हैं | लम्बी स्तुति के अंत में श्रुतियां कहती हैं कि हम श्रुतियां भी आपके स्वरुप का साक्षात् वर्णन नहीं कर सकती, आपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते करते अंत में हम अपना भी निषेध कर देती है और अंततः आप में ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं |

        श्रुतियों द्वारा भगवान् के बारे में वर्णन श्री मद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध के 87 वें अध्याय में विस्तार से दिया गया है | इस श्रृंखलामें श्रुतियों का कथन केवल भगवान् के चरित्र के गान के लिए अल्प रूप से उद्घृत किया है | इस जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, श्रुतियों का यह कथन महत्वपूर्ण है | जब हम इस बात का अनुभव करते हैं, तब अपना-पराया का समस्त भेद मिट जाता है | मायातीत की माया के कारण यह मनुष्य उसमें उलझकर संसार के आवागमन में फंस जाता है और बार-बार इस सांसारिक कुएं में गिरता रहता है | परमात्मा का ज्ञान और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना ही हमें इस आवागमन से मुक्त कर सकता है |

       इसी प्रकार कठोपनिषद में भी परमात्मा के बारे में वर्णन आता है | जब यम अपने शिष्य नचिकेता को ब्रह्म विद्या देते हैं, तब परमात्मा के बारे में वे सम्पूर्ण ज्ञान देते हैं | यम कहते हैं कि जो परमात्मा यहाँ है, वो वहां भी हैं और जो वहां है, वह यहाँ भी है | सब जगह एक वही है, दूसरा कोई नहीं | केवल वही मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है जो जगत में परमात्मा को नाना रूपों में देखता है | इस शरीर में स्थित; एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाले; जीवात्मा के देह से निकल जाने पर इस मृत शरीर में, सबमें वही रहता है | जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रादि के कारण जो जिस भाव को प्राप्त हुआ है, उनके अनुसार कितने ही जीवात्मा तो नाना योनियों को प्राप्त हो जाते हैं |

      जो नित्यों का भी नित्य है और चेतनों का भी चेतन है; अकेला ही इन अनेक जीवों के कर्मफल भोगों का विधान करता है; उस अपने भीतर रहने वाले को जो ज्ञानी निरंतर देखते रहते हैं उन्हीं को शाश्वत शांति प्राप्त होती है | इस प्रकार स्पष्ट है कि जो परमात्मा के स्वरुप को जान लेता है वह फिर इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेता | सर्वत्र परमात्मा को देखने का अर्थ है कि इस जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई भी नहीं है | गीता में “वासुदेव सर्वम्” कहने का अर्थ भी यही है |

          संसार में केवल उस एक को ही देखना, परम सिद्धि है | ऐसा सिद्ध पुरुष बार-बार जन्म नहीं लेता | वह इस भवकूप से निकलने के बाद पुनः उसमें लौटकर नहीं आता | इसलिए एक परमात्मा का ही आश्रय लें | उसके चरित्र का गान करें | वही इस जगत में नाना रूपों में दिखलाई पड़ रहा है | आप में, मुझ में, चर-अचर में, सजीव-निर्जीव में | अपना अहंकार लिए हम बेमतलब ही बौराए फिर रहे हैं | उससे अलग मान लेने पर ही हम अस्तित्वहीन और क्षुद्र हैं | उसमें अपने को मान लेने से हम भी वही हो जाते हैं | फिर हम भी असीम और अपरिमेय हो जाते हैं | हाँ, यह सत्य है | समुद्र से बूँद जब अलग हो जाती है तब वह सिमट कर रह जाती है | वही बूँद जब समुद्र में समा जाती है फिर वह समुद्र में खो नहीं जाती बल्कि समुद्र ही हो जाती है |

          प्रिज्म से निकला प्रकाश सात वर्णों (रंगों) में बंट जाता है | जिससे वही वर्णहीन प्रकाश भी सात रंग का होकर अलग-अलग दिखलाई पड़ने लगता है | ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रत्येक वर्ण में उस वर्णहीन प्रकाश की उपस्थिति सदैव बनी रहती है | इसी प्रकार परमात्मा द्वारा सृजित इस जगत के प्रत्येक भाग में, कण-कण में वह उपस्थित है | हमें इस बात को कभी भी नहीं भूलना है | स्मृति में सदैव जब परमात्मा रहेंगे तो यही कहा जायेगा कि हम भी परमात्मा है | फिर कोई हमसे भिन्न नहीं - कोई और नहीं, कोई गैर नहीं |

           ज्ञान से जब यह बात स्पष्ट हो जाती है तो मनुष्य में भक्ति का प्रवेश होता है | भक्ति का अर्थ है, दो दिखलाई पड़ते हुए भी दो नहीं | कर्म में हम कुछ करते हैं, ज्ञान में हम कुछ जानते हैं जबकि भक्ति में कुछ करना और जानना, दोनों ही नहीं होते बल्कि केवल एक परमात्मा को मानना होता है | एक परमात्मा की शरण में चले जाने से स्वत: ही करना और जानना दोनों भी हो जाते हैं | कोई व्यक्ति कितना ही प्रयास कर ले परमात्मा को पूर्ण रूप से जाना नहीं जा सकता क्योंकि जानना बुद्धि का विषय है | इसी प्रकार करना भी इन्द्रियों का विषय है | इन्द्रियां और बुद्धि असत है | असत से सत को नहीं जान सकते जबकि सत से असत को जाना जा सकता है | इसलिए आवश्यक है कि हम असत का संग छोड़कर सत का संग करें |

           असत का संग हमें भवकूप में ही डाले रखता है | असत के संग से हमें केवल हमारा संसार ही सत्य प्रतीत होता है | बाह्य दृष्टि केवल असत के अवलोकन के लिए होती है, उसके साथ बंधने के लिए नहीं | अवलोकन करते-करते उनमें आसक्त हो जाना, इन्द्रियों का इस प्रकार का उपयोग हमें सत से दूर ले जाता है | चर्म चक्षु से केवल चर्म ही दिखलाई पड़ सकता है क्योंकि भौतिक दृष्टि की भी एक सीमा होती है | इसी प्रकार सभी इन्द्रियों की एक निश्चित सीमा होती है | उस सीमित क्षेत्र के ज्ञान को सत का ज्ञान नहीं कहा जा सकता | सत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों, मन और बुद्धि को छोड़कर अहम् की ओर आना होगा | जब अहम् से इन सबको अलग कर दिया जाता है तब हमें अपने वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है | दर्पण पर जमी धूल को जब तक हटाया नहीं जाता है तब तक हम अपने वास्तविक रूप से अनभिज्ञ ही बने रहते हैं | इसलिए इन्द्रियों, मन और बुद्धि रुपी असत की धूल से अहम् के दर्पण को मुक्त करना होगा |

            हमारा स्वरुप अजन्मा, अजर, अमर, अपरिमेय है | स्वरुप तक पहुंचते ही हम निश्चिंत, निर्भय, नि:शंक, नि:शोक हो जाते हैं | फिर न तो मरना पड़ता है और न ही जन्म लेना पड़ता है | यह संसार हमें तभी तक प्रिय लगता है, जब तक हमारी इसमें आसक्ति है | आसक्ति का अर्थ है यहाँ से कुछ पाने की कामना करना | इस संसार से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता और न ही यहाँ कुछ करना पड़ता है | प्रकृति में सदैव सब कुछ संतुलित ही रहता है | प्रकृति में जितना आज है, कल भी उतना ही रहेगा | बस अंतर इतना ही है कि कल जो हमारे पास था, आज वह किसी ओर के पास है और परसों किसी ओर के पास होगा परन्तु प्रकृति में सदैव उतना ही बना रहेगा | हमारे पास होने को हम अपना होना मान लेते है, यही बड़ी भारी भूल है | इसी भूल के कारण हम भवकूप से बाहर निकल नहीं पाते हैं और इसी संसार को सब कुछ मान लेते हैं | संसार के सारे सम्बन्ध स्वार्थ के हैं | यहाँ इसे भी हम अपना मानते हैं, वे अपने तब तक ही हैं जब तक हमसे उनका अथवा उनसे हमारा स्वार्थ सिद्ध हो रहा है | स्वार्थ सिद्ध होते ही सभी अपने पराये हो जाते हैं | अपने जब पराये हो जाते हैं, तब यह संसार हमें दुःखपूर्ण लगता है।

          इस संसार में न तो कुछ खोया जा सकता है और न ही इससे कुछ पाया जाता है | सब हमारे मन का वहम है | जब यह वहम दूर हो जाता है, तब परमात्मा की यात्रा प्रारम्भ होती है | इस संसार में चाहे कितने ही अपने प्रतीत होते हों, एक परमात्मा के सिवाय कोई अपना नहीं है | इस संसार में अपने संसार को पाने के लिए केवल हम अपना शरीर ही खो रहे हैं और बदले में पाते कुछ भी नहीं है | जिस दिन हमें स्वयं को परमात्मा में खोना आ जायेगा, इस संसार में रहते हुए भी सब कुछ पा लेंगे | वह सब कुछ है, परमात्मा | इसलिए परमात्मा को पाना है तो स्वयं को खोना पड़ेगा | स्वयं के खोते ही सीमित संसार दृष्टि से ओझल हो जायेगा और आप उसी विशालता का अनुभव करने लगेंगे जो अनुभव एक बूँद को समुद्र में खोने से होता है |

          कुआँ सीमित है | उसमें चाहे जन्मों तक पड़े रहें अपनी असीमता का अनुभव हमें कभी भी नहीं हो पायेगा | कुएं के संसार को विस्मृत करना ही होगा | इस विस्मृति की ओर ले जायेगा हमारा गुरु, जो बाहर खड़ा कुएं में बाल्टी डाले हमें उससे मुक्त करने का प्रयास कर रहा है | परन्तु उस बाल्टी में स्वयं को ही प्रवेश करना होगा | जिस दिन हम उस कुएं से बाहर निकल जायेगे फिर कभी भी उसमें वापिस लौटना नहीं चाहेंगे | कुआँ तभी तक अच्छा लगता है जब तक उससे बाहर के दिव्य प्रकाश का अनुभव नहीं किया जाता | जिस दिन उस दिव्य प्रकाश का अनुभव हो जायेगा, हम भी कुएं के गुणगान करना छोड़ उस दिव्य स्वरुप के चरित्र का गान करने लगेंगे | फिर वापिस उस कुएं की ओर झांकने तक का प्रयास नहीं करेंगे | तभी मानस में गोस्वामीजी कहते हैं कि जो प्रभु के चरित्र का गान करता है उसे परम पद की प्राप्ति होती है और फिर वह इस भवकूप में नहीं गिरता |

           “यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा”

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, June 17, 2022

 कई सुधि पाठक कहते हैं - ‘महाभारत होने के पीछे द्रोपदी एक महत्वपूर्ण कारण थी | “अंधे का बेटा अँधा” कहना ही दुर्योधन को चोट पहुंचा गया | फिर कुरुक्षेत्र में हुए युद्ध ने न जाने कितने लोगों के प्राण ले लिए | रक्तरंजित कुरुक्षेत्र की भूमि क्या कभी द्रोपदी को क्षमा कर सकेगी ?’ यह किसी भी घटना को देखने का एक नजरिया हो सकता है परन्तु सत्य कदापि नहीं है | दूसरे कई कारण आप इस युद्ध के पीछे देख सकते हैं जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, दुर्योधन की महत्वाकांक्षा, द्रुपद द्वारा द्रोणाचार्य का किया गया अपमान, युद्धिष्ठिर का द्युत क्रीड़ा करना, द्रोपदी का चीरहरण इत्यादि | एक लम्बी सूची हो सकती है परन्तु फिर भी सभी मिलकर कुरुक्षेत्र में हुए रक्तप्रवाह के पीछे का सत्य नहीं हो सकते | सत्य तो केवल एक ही है, श्री कृष्ण के द्वारा कुरुक्षेत्र में कहा गया यह वाक्य कि अर्जुन ! तू तो इन सब योद्धाओं को मारने का श्रेय ले ले, ये सब योद्धा तो मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके हैं |

               रामायण के घटनाक्रम को देखें तो क्या भगवान् श्री राम के वनगमन के लिए कैकेयी दोषी थी ? आप कह सकते हैं कि कैकेयी ने ही दशरथ से वर माँगा था – “चौदह बरिस रामु बनबासी “| क्या राम वनगमन के पीछे का यही एक मात्र सत्य है | सतही दृष्टि से देखें तो कई और कारण भी इसके पीछे गिनाये जा सकते हैं परन्तु सत्य इनमें से कोई सा भी नहीं है | इसी प्रकार क्या सीताहरण के लिए स्वर्णमृग का चर्म लाने का सीता का आग्रह दोषी है ? लक्ष्मण द्वारा सीता को अकेले छोड़कर श्री राम की सहायता के लिए चले जाना भी तो इसके लिए उत्तरदायी हो सकता है | नहीं, राम-वनगमन और सीता-हरण दोनों को होना ही था क्योंकि प्रभु राम स्वयं ऐसा चाहते थे | “मरम बचन जब सीता बोला | हरि प्रेरित लछिमन मन डोला || इस चौपाई में “हरि प्रेरित” पर ध्यान चाहूँगा | श्री हरिः की प्रेरणा से ही लक्ष्मण श्री राम की सहायता के लिए दौड़ पड़े थे, न कि मात्र सीता के कहने से | नारदजी को जब विश्वमोहिनी नहीं मिलती तब श्री हरिः को वे श्राप दे देते हैं | श्राप देने के बाद नारदजी को जब दुःख होता है, तब उत्तर में भगवान् क्या कहते हैं ? गोस्वामीजी लिखते हैं - “मृषा होउ मम श्राप कृपाला | मम इच्छा कह दीनदयाला ||”

            “हरि अनंत हरि कथा अनंता | कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ||” इसलिए श्री हरिः की कथा सुनानी-सुननी चाहिए, उनके चरित्र का गान करना चाहिए | कथा पर प्रश्न उठाकर उसमें उलझना नहीं है बल्कि कथा सुन और गाकर संसार सागर की उलझन से मुक्त होना है | भगवान् अवतार लेने पर विभिन्न चरित्र करते हैं जिसका आनंद उठाकर हम आवागमन से मुक्त हो सकते हैं | तभी तो गोस्वामीजी मानस में कहते है – “यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ||” कल मिलेंगे –“ते न परहिं भवकूपा” विषय के साथ |

प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, June 1, 2022

करिष्ये वचनं तव -61से85

 करिष्ये वचनं तव-61से 85

                  सभी सजीव प्राणियों में एक बात की समानता अवश्य होती है-भूख की | सभी जीवित प्राणियों को भूख लगती ही है, चाहे वह चर हो अथवा अचर | भूख पर विजय पाने के लिए आहार (Food) की आवश्यकता होती है | आहार पाने के लिए ही पेड़-पौधों में वृद्धि होती है | उसकी जड़ें (Roots) भूमि की गहराई को नापते हुए भोजन के लिए जल व आवश्यक तत्व जुटाती है | तना (Stem) बढ़कर आकाश की ऊँचाइयों को छूने लगता है, जिससे पत्तियों (Leaves) को अधिक से अधिक सूर्य का प्रकाश (Sunlight) उपलब्ध हो सके | सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में भोजन का निर्माण जल और अन्य आवश्यक तत्वों से किया जाता है, जिसे प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) कहा जाता है |               

             चर प्राणियों में पेड़-पौधों की तरह स्वयं के द्वारा भोजन बनाने की सुविधा परमात्मा ने प्रदान नहीं की है | अतः उन्हें भोजन प्राप्त करने के लिए अपने स्तर पर प्रयास करना पड़ता है | किसी भी प्रकार से अपनी क्षुधा शांत करने के लिए भोजन प्राप्त करने की इच्छा चर सजीव को हिंसक (Violent) बना देती है | हिंसा (Violence) चर प्राणी को भोजन तो प्रदान करा देती है परन्तु साथ ही साथ स्वयं के द्वारा की गयी उस हिंसा के कारण वह भयग्रस्त (Frightened) भी हो जाता है क्योंकि वह समझ जाता है कि जिस प्रकार उसने हिंसा के माध्यम से भोजन प्राप्त किया है, एक दिन वह भी इसी प्रकार अन्य किसी भूखे प्राणी का भोजन बन सकता है | 

               भूख के कारण भय (Fear) पैदा होता है | भय पैदा होने का मुख्य कारण होता है मृत्यु, स्वयं के अस्तित्व के मिट जाने का भय | यह भय दो कारणों से होता है-निराहार (Starvation) रहने से हो सकने वाली संभावित मृत्यु से तथा किसी निराहारी का आहार बन जाने की सम्भावना से | दोनों ही परिस्थितियों के कारण से प्राणियों में असुरक्षा (Insecurity) की भावना भी पैदा हो जाती है | यह भय (Fear) इसलिए भी पैदा होता है क्योंकि वह यह सोचता है कि जिस प्रकार उसने शिकारी (Predator) बनकर किसी अन्य प्राणी का शिकार किया है, उसी प्रकार वह स्वयं भी कभी न कभी किसी का शिकार (Prey) भी बन सकता है | इस प्रकार उसकी प्रजाति का,उसके परिवार का एक न एक दिन विलुप्त होना संभव हो सकता है | इसकी प्रतिक्रिया में वह स्वयं की प्रजाति और परिवार को संसार में बनाये रखने के लिए संतान उत्पत्ति में रत हो जाता है | जो प्राणी सबसे अधिक शिकार बनता है, प्रकृति (Nature)  के इस नियम के अनुसार उसमें संतान उत्पत्ति की दर (Rate) भी सर्वाधिक होती है |

                    आहार प्राप्ति के लिए एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी को शिकार बनाना उनकी प्रकृति है | इसमें किसी प्रकार की हिंसा नहीं है | इसमें हिंसा हम मनुष्यों को इसलिए प्रतीत होती है क्योंकि हम मानते हैं कि स्वयं के आहार के लिए दूसरे जीव के जीने के अधिकार को छीन लेना एक प्रकार की हिंसा ही है |

               आहार के लिए एक प्राणी दूसरे प्राणी पर निर्भर रहता है | एक मेंढक छोटे-मोटे कीड़ों का शिकार करता है और वही मेंढक स्वयं एक सर्प का भोजन बन जाता है | इसी प्रकार एक सांप भी बाज, चील आदि पक्षियों का शिकार है | एक बड़ी मछली का भोजन समुद्र में तैर रही छोटी मछलियाँ ही होती है | इस प्रकार की कथित हिंसा में न तो कोई अपराधी है और न ही कोई पीड़ित | एक प्राकृतिक नियम के अनुसार सब एक दूसरे का आहार बनते हैं | ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ अथवा अर्थात जीव ही जीव का भोजन है | भागवतजी में कहा गया है-‘जीवो जीवस्य जीवनम्” अर्थात जीव ही जीव का जीवन है | बिना आहार के जीवन जिया नहीं जा सकता | इस प्रकार एक जीव ही दूसरे जीव का आहार बनकर जीव का जीवन जीना संभव बनाता है |

             एक शेर जब मृग का शिकार आहार के लिए करता है, तब उसके भीतर किसी प्रकार की हिंसा का भाव नहीं होता | वह तो अपनी भूख मिटाने के लिए यह सब कर रहा होता है | क्षुधा की तृप्ति के लिए शेर के सामने चाहे मृग आये अथवा भैंस; उसको तो वह केवल आहार नज़र आता है |  एक बार शिकार कर लेने के पश्चात चाहे उसके सामने मृग आये अथवा कोई अन्य जानवर, उसके भीतर इस प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं होती कि वह उसका शिकार करे | ‘बुभुक्षितः किम् न करोति पापम्”, यह उक्ति यही स्पष्ट करती है कि भूखा प्राणी अपनी क्षुधा शांत करने के लिए किसी भी प्रकार का पाप (हिंसा) कर सकता है |

                    अभी तक आहार के सम्बन्ध में हमने चर्चा की वह तो हुई मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की बात | मनुष्य इन सब प्राणियों से अलग है | वह बुद्धिमान और विवेकी है |एक मनुष्य के अनुसार आहार प्राप्ति के लिए की जाने वाली हिंसा भी दो प्रकार की होती है | एक जीव को स्वयं की क्षुधा शांत करने के लिए आहार बनाना पहली प्रकार की हिंसा है | दूसरे प्रकार की हिंसा है स्वयं की भूख मिटाने के लिए येन केन प्रकारेण किसी दूसरे से आहार को छीनने का प्रयास करना | पहली प्रकार की हिंसा में एक जीव दूसरे जीव को मारकर उससे अपनी भूख मिटाता है जबकि दूसरे प्रकार की हिंसा में वह प्राणी किसी दूसरे प्राणी से उसका आहार छीनने का प्रयास करता है | इस प्रकार छीनने के प्रयास में एक प्राणी अपराधी (Accused)  बन जाता है और दूसरा प्राणी पीड़ित (Victim) हो जाता है, जबकि इसके विपरीत पहली प्रकार की हिंसा में न कोई अपराधी होता है और न ही कोई पीड़ित |

            इस प्रकार हम विवेकवान मनुष्य समझ सकते हैं कि किसी एक जीव का दूसरे जीव को आहार बनाना उसके लिए हिंसा नहीं है बल्कि हिंसा होती है किसी दूसरे के आहार को स्वयं की उदर पूर्ति के लिए छीनने का प्रयास करना | हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि एक के अधिकार को छीनने का प्रयास जो कोई भी करता है, उसको रोकने का प्रयास करना | महाभारत में भगवान श्री कृष्ण यही तो बात अर्जुन को कह रहे हैं | पांडवों का अधिकार कौरवों ने छीन लिया था जो कि अनुचित था | इसी कारण से भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों को पुनः अपना अधिकार प्राप्त कर लेने के लिए अंतिम विकल्प के रूप में युद्ध करने का सुझाव दिया था |

                   दूसरे का आहार छीन लेने का एक सटीक उदाहरण प्रस्तुत है | एक बार एक चील को एक मरा हुआ चूहा दिखलाई पड़ गया | वह भूख से बुरी तरह तड़प रही थी | उसने उस मरे हुए चूहे को अपने पंजों में जकड़ा और आकाश की अनंत ऊँचाइयों की तरफ उड़ चली | वह तलाश में थी एक ऐसे स्थान की, जहाँ शांति के साथ बैठ कर वह उस चूहे को उदरस्थ कर सके | परन्तु दुर्भाग्य, कुछ चीलों ने उसे चूहा ले जाते हुए देख लिया | अब तो सभी चीलें उसके पीछे पड़ गयी | एक-एक कर प्रत्येक चील उस अकेली चील को अपनी नुकीली चोंच और पंजों से आक्रमण कर घायल कर रही थी | जिस चील के पंजों में मरा हुआ चूहा था वह समझ ही नहीं पा रही थी कि आज अचानक ही अन्य सभी चीलें उसकी दुश्मन क्यों बन गयी है ? उस चील ने अपने जीवन में आज तक इस प्रकार के किसी संघर्ष का सामना नहीं किया था और आज अनायास ही उसके समक्ष ऐसी परिस्थिति बन गयी थी | वह समझ ही नहीं पा रही थी कि आखिर उसके साथ ऐसा हो क्यों रहा है ?

                   इसी संघर्ष में आखिर उस चील के पंजों से वह चूहा छूट गया | चूहे के छूटते ही अन्य चीलों ने भी उस चील पर आक्रमण करना छोड़ दिया | घायल चील संघर्ष करते-करते थक गयी थी | वैसे वह पहले से ही भूख से निढाल हो रही थी | थककर वह एक पेड़ की चोटी पर बैठ गयी और विचार करने लगी कि आखिर अन्य चीलों ने उस पर आक्रमण क्यों किया था ? वह तो केवल अपना आहार ही तो ले जा रही थी, उसने किसी का कुछ बुरा तो नहीं किया था | उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उससे कहाँ और क्या भूल हुई जिसके कारण वह इस प्रकार हिंसा का शिकार बनी ?

          थकी-हारी उस चील की दृष्टि अन्य चीलों पर गयी जो कुछ समय पहले तक उसके साथ संघर्ष कर रही थी | उसने देखा कि अब वे सभी चीलें उस मरे हुए चूहे को पाने के लिए एक दूसरे से संघर्ष कर रही थी | सभी चीलें सबसे पहले उस चूहे तक पहुँचने के लिए एक दूसरे का रास्ता रोक रही थी | उनके मध्य बड़ी ही रोचक प्रतिस्पर्धा चल रही थी | थोड़े से चिंतन से ही उस चील को स्वयं के विरुद्ध हुयी उस हिंसा का उत्तर मिल गया | वह समझ गयी कि उसके विरुद्ध अन्य चीलों के हिंसक होने का एक मात्र कारण वह मरा हुआ चूहा था | चूहे के छूटते ही उसके विरुद्ध होने वाली हिंसा भी छूट गयी थी | अब उसको एक दम स्पष्ट हो गया था कि उसके विरुद्ध हो रही हिंसा का कारण था, वह मरा हुआ चूहा और उससे मिट सकने वाली भूख |

         भूख नहीं होती तो हिंसा भी नहीं होती | कहने का अर्थ है कि भूख हिंसा को जन्म देती है | किसी से आहार छीन लेने के लिए हिंसा अथवा शिकार कर आहार पाने के लिए हिंसा | दोनों ही प्रकार की हिंसा के मूल में भूख ही है | इस दृष्टान्त से मूल बात यह निकल कर हमारे सामने आती है कि हिंसा का आधार भूख है | भूख का आधार है बिना आहार के जीवन के नष्ट हो जाने का भय क्योंकि बिना आहार के जीवन जीना असंभव है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि भय का आधार हिंसा है | अतः परोक्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि भय की जननी भूख है | 

             अभी तक हमने अन्य प्राणियों की बात की है, परन्तु क्या मनुष्य के साथ भी ऐसा ही होता है ? क्या मनुष्य भी भूख शांत करने के लिए हिंसक हो सकता है ? भूख क्या सिर्फ और सिर्फ भोजन मिलने मात्र से ही मिट जाती है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर हम सभी जानते हैं | प्रथम प्रश्न का उत्तर है, हाँ, मनुष्य भी अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं है | दूसरे प्रश्न का उत्तर है, मनुष्य भी भूख को शांत करने के लिए हिंसक हो सकता है | तीसरे और अंतिम प्रश्न का उत्तर है कि सभी प्राणियों में पेट की भूख तो आहार मिलने से मिट जाती है परन्तु मनुष्य की भूख केवल आहार की नहीं होती बल्कि अन्य कई प्रकार की होती है, जो सब कुछ प्राप्त हो जाने के बाद भी मिट नहीं पाती | अतः सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य ही सभी जीवों में एक मात्र जीव ऐसा है, जिसकी भूख भोजन पाकर भी शांत नहीं होती | यही कारण है कि मनुष्य जीवन भर भय से मुक्त नहीं हो पाता |

                 मनुष्य के अतिरिक्त कोई अन्य प्राणी इस भय से मुक्त होने का विचार नहीं कर सकता | वह सदैव भयग्रस्त ही बना रहता है | मनुष्य ऐसे किसी भी प्रकार के भय से मुक्त होने की मन में इच्छाएं (Desires) पैदा करता है | वह भय से मुक्त होने के लिए मन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ लिए भोग सामग्री को एकत्रित (संग्रह) करने में लग जाता है | उसके द्वारा इस प्रकार भोग-सामग्री को संग्रह करने का कारण बनता है, अब तक उसको जो कुछ भी मिला है, उसको अपर्याप्त मानना अर्थात सदैव एक प्रकार के अभाव में जीना | यह कृत्रिम अभाव फिर से किसी नए भय को उत्पन्न कर देता है |

             इस प्रकार भूख, भय, संग्रह और अभाव का कभी न टूट सकने वाला चक्र (Vicious cycle) बन जाता है, जो व्यक्ति को जीवन में कभी भयमुक्त नहीं होने देता | इस अभाव से उत्पन्न हुए भय के कारण मनुष्य अपने वर्चस्व (Dominancy) को बनाये और व्यक्तित्व (Personality) को बचाये रखने के लिए विभिन्न प्रकार के भोगों में लिप्त होकर संतान उत्पत्ति (Reproduction) में लग जाता है | वह समझता है कि संतान उत्पन्न करने से वह अल्प रूप से ही सही, इस संसार में सदैव के लिए विद्यमान अवश्य ही रह सकेगा | परन्तु क्या केवल यही मार्ग है- भयमुक्त होने का ? ऐसा तो भयमुक्त होने के लिए मनुष्य ही क्या, संसार के सभी प्राणी करते हैं | फिर चर प्राणियों के अंतर्गत आने वाले बुद्धिमान प्राणी मनुष्य और अन्य प्राणियों में अन्तर ही कहां रह जायेगा ? भयमुक्त होने के लिए संतानोत्पति, भोग सामग्री का संग्रह और स्वार्थ पूर्ति के लिए की जाने वाली हिंसा के अतिरिक्त जो मार्ग है, उसी मार्ग को गीता में अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं |

             गीता की सार्थकता तभी है, जब हम भय मुक्त हो जाएँ और इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लें कि हिंसा कब और किस परिस्थिति में आवश्यक हो जाती है ? कहने का अर्थ है कि केवल अपनी भूख मिटाने के लिए की गयी हिंसा भूख और भय दोनों को बढ़ाती ही है, उनसे हमें मुक्त नहीं कर सकती | 

                 सभी चर प्राणी आहार(Feed), निद्रा(Sleep), भय (Fear) और मैथुन (Sex) में लीन है और मनुष्य भी इनसे अलग नहीं है | परन्तु मनुष्य के पास इनसे अलग एक क्षमता औऱ  है, विचार करने की क्षमता। वह इस क्षमता का उपयोग कर भयमुक्त हो सकता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि बिना भयमुक्त हुए और अहंकार को त्यागे बिना मनुष्य के जीवन में शांति नहीं आ सकती | अगर भय और अहंकार का त्याग मनुष्य नहीं कर सकता तो वह जीवन में कभी भी मुक्त नहीं हो सकता | हालाँकि इन दो का त्याग करने के लिए मुक्ति की कामना पैदा करना आवश्यक है परन्तु अंततः मुक्ति के लिए भी मुक्ति की कामना सहित सभी कामनाओं का त्याग करना आवश्यक है |

          भय और अहंकार से मुक्त होने के लिए भगवान ने गीता में तीन मार्ग बताएं हैं,  जिन्हें क्रमशः कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग कहा जाता है | बिना कर्म किये व्यक्ति क्या तो किसी को देगा और क्या किसी से प्राप्त कर सकेगा ? अतः कर्म करने भी आवश्यक है | बिना ज्ञान के मनुष्य अपने होने का उद्देश्य ही नहीं जान पायेगा | अतः व्यक्ति के लिए ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है | बिना भक्ति की भावना के मनुष्य मात्र एक मशीन बन कर रह सकता है, वह केवल एक प्रकार का यांत्रिक जीवन ही जी सकता है, जिस जीवन की कोई उपयोगिता नहीं है | अतः मनुष्य का भावना प्रधान होना भी आवश्यक है | भावना से सम्बंधित भक्ति-योग नाम से भगवान ने इसका वर्णन गीता में किया है |

                      मनुष्य के लिए आहार का अर्थ व्यापक है, इसे केवल पेट की क्षुधा शांत करने से ही न लें | मनुष्य को अपना पेट भरने के अतिरिक्त भी अन्य कई प्रकार के आहार चाहिए क्योंकि उसने अपनी क्षुधा को विस्तार दे दिया है | प्रत्येक इन्द्रिय-भोग की अपनी भूख होती है | जब मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान की प्राप्ति के स्थान पर केवल विषय-भोग की प्राप्ति की ओर लगा देता है, तब उसकी भूख का विस्तार पेट के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी हो जाता है |

         इस प्रकार जब मनुष्य में तृष्णा बढ़ती है तब प्रत्येक इन्द्रिय के माध्यम से मिलने वाले आहार की आवश्यकता भी बढ़ जाती है | जीवन में किसी न किसी की आवश्यकता बने रहने का नाम ही अभाव है | आज के इस भौतिक युग में समस्या यह है कि हम विलासिता और आवश्यकता में अंतर नहीं कर पा रहे हैं और विलासिता को ही आवश्यकता समझ बैठे हैं | साथ ही यह भी सत्य है कि आज की विलासिता भविष्य में एक दिन आवश्यकता बन ही जाती है | विलासिता ही अभाव को जन्म देती है जो सभी प्रकार का आहार पाकर भी तृप्त नहीं हो सकती | इस प्रकार असंतुष्टि का भाव जीवन में दुःख उत्पन्न करता है | इसीलिए गीता हमें अपनी आवश्यकताएं सीमित रखने को कहती है, जिससे मन में किसी प्रकार की निरर्थक कामनाओं का जन्म ही न हो |

            श्रीमद्भगवद्गीता में आहार और शयन के बारे में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते है कि –

         युक्ताहारविहारस्य  युक्तचेष्टस्य कर्मसु |

         युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||गीता-6/17||

        भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि दुखों का नाश करने वाला योग तो उचित आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने-जागने वाले का ही सिद्ध होता है |

                  दुःख का कारण है- भय | भय मनुष्य को सदैव दुःखी बनाये रखता है | मनुष्य को अगर कभी सुख की प्राप्ति हो भी जाती है तो वह थोड़े समय बाद उस सुख को अपर्याप्त मानते हुए दुःखी हो जाता है | अभाव सभी प्रकार के भय का जनक है और भय दुःख का प्रमुख कारण है | अगर हम आहार केवल अपने प्राण की रक्षा के लिए करते हैं तब तो वह निश्चित ही उपलब्ध होगा |

          हमें इस संसार में जन्म देने से पहले ही परमात्मा ने हमारे प्राणों की रक्षा करने के लिए हमारे लिए उचित आहार की व्यवस्था कर रखी है | जब कोई स्त्री गर्भधारण करती है, तब गर्भ की प्रारम्भिक अवस्था में ही उसके स्तनों का विकास दूध-स्राव के लिए होना प्रारम्भ हो जाता है जिससे नौ माह बाद पैदा होने वाले शिशु को तत्काल ही उचित आहार मिल सके |

           इस संसार में केवल मनुष्य नाम का ही एक प्राणी है, जो आहार के अतिरिक्त पैदा की हुयी क्षुधा को शांत करने के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं, भविष्य के न देखे जा सकने वाले हजारों वर्षों की व्यवस्था करने में लगे हुए हैं | हमें आहार चाहिए केवल अपने प्राणों की रक्षा के लिए और प्राण चाहिए इस शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए | स्वस्थ शरीर चाहिए तत्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए, आत्म-बोध के लिए | अतः हमारे जीवन का उद्देश्य केवल मात्र एक आत्म-बोध का ही होना चाहिए, केवल आहार प्राप्त करते रहने का नहीं |

      इसी बात को योगवासिष्ठ में वसिष्ठ मुनि भगवान श्री राम को उपदेश देते हुए स्पष्ट कर रहे हैं –

             अन्न्नाहार्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं कुर्यादाहारं प्राणसंधारणार्थम् |

       प्राणा संधार्यास्तत्वजिज्ञासनार्थं तत्त्वं जिज्ञास्यं यें भूयो न दुःखम् ||नि.प्र.उ.21/10||

              अर्थात मनुष्य को चाहिए कि इस संसार में आहार की प्राप्ति के लिए शास्त्रानुकूल अनिंद्य कर्म करे | आहार भी उतना ही करे, जितने से प्राणों की रक्षा हो सके | प्राण रक्षा भी तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही करे | तत्त्व-ज्ञान की इच्छा सब के लिए अत्यंत आवश्यक है, जिससे फिर से जन्म-मरण आदि दुखों की प्राप्ति न हो | 

              आत्म-ज्ञान प्राप्त करके ही अभय हुआ जा सकता है | भय से मुक्ति ही व्यक्ति को शांति उपलब्ध करवा सकती है | कहने का अर्थ है कि मनुष्य को ज्ञान अभय करता है जबकि अज्ञान भय और दुःख प्रदान करता है | परन्तु ज्ञान प्राप्ति की मुमुक्षा है कहाँ ? आधुनिकता के नक्कारखाने में ज्ञान के शब्द तूती की आवाज़ बनकर दबते जा रहे हैं | इसलिए आधुनिकता को प्रभावहीन करते हुए ज्ञान प्राप्त करने की भूख जगानी होगी | ज्ञान प्राप्ति की भी एक प्रकार की भूख होती है परन्तु यह भूख भोजन से नहीं मिटती बल्कि भजन से मिटती है | ज्ञान की भूख-प्यास को मिटाने के लिए मनुष्य में लगन का होना आवश्यक है |

           ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि परमात्मा-प्राप्ति के लिए व्यक्ति में लगन का होना सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है | वे कहा करते थे कि अगर आपमें लगन (Devotion) है, परमात्मा-प्राप्ति की उत्कृष्ट इच्छा है तो फिर परमात्मा आपको प्राप्त होकर ही रहेंगे | ये संत भी कभी-कभी बड़ी विलक्षण (Remarkable) बातें कह जाते हैं | कभी-कभी कोई ऐसी बात कह जाते हैं कि हमारे जैसे साधारण व्यक्ति सोच में पड़ जाते हैं कि उनके कहने का मंतव्य क्या है ? अपने प्रातःकालीन उद्बोधन में हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा सदैव ही संत-वाणी के अंतर्गत स्वामी जी के प्रवचनों का विवेचन करते हुए उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं | उस समय तो हमें वह बात स्पष्ट हो जाती है परन्तु कुछ समय बाद स्मृति से बाहर हो जाती है । 

                एक ओर तो स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि लगन हो तो परमात्मा भी मिल सकते हैं और दूसरी और वे ही संत कहते हैं कि परमात्मा खोए कहाँ है, जो मिल जायेंगे ? वे तो पहले से ही मिले हुए है | जब सुनते हैं तो लगता है कि दोनों बातों में बहुत विरोधाभास हैं | नहीं, विरोधाभास बिलकुल भी नहीं है | ‘परमात्मा मिल सकते हैं’, यह कहना हमारी उस अवस्था को प्रदर्शित करता है जब हमें ज्ञान नहीं हुआ है और हम आत्म-ज्ञान के लिए प्रयास कर रहे हैं | ‘परमात्मा खोए कब हैं, वे तो पहले से ही मिले हुए हैं’, इस कथन का अर्थ है कि परमात्मा हमारे भीतर ही हैं | आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाने के बाद ही हमें आभास होता है कि जिसके मिलने के लिए हम प्रयास कर रहे थे वे तो पहले से ही मिले हुए हैं |

         पहली अवस्था उस कृष्ण-मृग की अवस्था है, जो स्वयं की नाभि में ही स्थित कस्तूरी को बाहर जंगल में घास को सूंघ-सूंघ कर ढूंढ रहा है और उसे वह नहीं मिल रही है | दूसरी अवस्था में बाहर की खोज बंद कर दी जाती है और विश्राम की अवस्था को प्राप्त कर लिया जाता है | विश्राम की अवस्था का नाम ही आत्म-ज्ञान है, जहाँ पहुंचकर व्यक्ति को अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते है, उसके मन में कोई प्रश्न शेष नहीं रहता | उसे भली-भांति अनुभव हो जाता है कि जिसको वह बाहर ढूंढ रहा था वह तो उसके भीतर पहले से ही मौजूद है, केवल स्वयं के भीतर ही नहीं सब जगह उपस्थित है, सार्वभौमिक है, सर्वदेशीय है | उसमें और परमात्मा में कोई भिन्नता है ही नहीं , फिर कौन तो ढूंढें और किसको ढूंढें ?

              आत्म-ज्ञान की स्थिति में व्यक्ति स्वयं के होने की स्मृति को पुनः प्राप्त कर लेता है | मोह वश वह अपनी स्मृति खो बैठा है, इतने दिनों तक स्वयं को एक शरीर मान बैठा था परंतु मोह के नष्ट होते ही स्मृति प्राप्त कर वह अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है | केवल प्रश्न यही है कि वह इस बात को अपनी स्मृति में कब तक और कैसे बनाये रखे ?

           शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए आहार की आवश्यकता होती है | आहार को प्राप्त करने लिए कर्म करने आवश्यक है (कर्म-योग), तत्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है (ज्ञान-योग) और अहिंसक बनने के लिए हमारा भावना-प्रधान (भक्ति-योग) होना आवश्यक है | तीनों योग मिलकर ही हमें आत्म-बोध को उपलब्ध करा सकते हैं | अकेला एक योग मनुष्य को आत्ममुग्ध बना सकता है | यही कारण है कि केवल ज्ञान व्यक्ति के अहंकार का कारण बनता है और अकेला कर्म व्यक्ति को कर्तापन की ओर ले जाता है | परन्तु भक्ति के साथ ऐसा नहीं है | भक्ति में न तो अहंकार रहता है और न ही कर्तृत्वाभिमान पैदा होता है | भक्ति में अहंकाररहित ज्ञान भी होता हैं और बिना कर्ताभाव के कर्म भी होते रहते हैं |

        श्रीमद्भगवद्गीता में इन तीनों विषयों पर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में सारगर्भित ज्ञान दिया है | हम सब अज्ञान के कारण अपने जीवन में सदैव किसी न किसी बात का अभाव मानकर अभय नहीं हो पा रहे हैं | दुःख का कारण भय है और भय का मूल कारण अज्ञान है | जीवन में गीता की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हम भावना-प्रधान रहते हुए कर्म करें और ज्ञान को भी उपलब्ध हों |        

    इतने लम्बे विवेचन से स्पष्ट है कि गीता-ज्ञान के आधार पर चलें और भगवान् श्री कृष्ण की बातों को जीवन में विस्मृत न होने दें तो जीवन में सभी विकारों से मुक्त होकर निर्भय हुआ जा सकता है | हमारा भयरहित हो जाना ही इस बात की पुष्टि करता है कि हम विकार मुक्त हो गए हैं | अब इस विषय का समापन करते हुए कुछ कड़ियों में इसका उपसंहार करते हैं |

             एक गृहस्थ को अपने जीवन कैसे जीना चाहिए, यह बात हमें गीता से अधिक अच्छे तरीके से कोई अन्य समझा नहीं सकता | हम अपने मन की शुद्धि के लिए न जाने कितने प्रपंच करते रहते हैं | निरुद्देश्य भटकते रहते हैं और जीवन का संध्या-काल आ जाता है और मन की अशांति मिट नहीं पाती | गीता मन को शांत करने का सुगम मार्ग बतलाती है | मनुष्य जीवन में इस भौतिक शरीर से कर्म होंगे ही | सकाम कर्म विकारों के जनक हैं जो विषय-भोगों अर्थात सांसारिक सुख प्राप्त करने की इच्छा से किये जाते हैं | हम अपने जीवन में यह तो इच्छा रखते हैं कि परमात्मा हमें सभी दोषों और विकारों से मुक्त रखे परन्तु कर्म ऐसे करते हैं और इस प्रकार के करते हैं कि विकारों का त्याग न होकर दिन प्रतिदिन उनमें वृद्धि ही होती जाती है | ऐसी स्थिति में हमें अपने कर्मों के स्वरूप के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा | कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन करके ही हम समस्त विकारों से दूर हो सकते हैं | यही कर्म-योग है और इस कर्म-योग को साधने का सर्वोत्तम मार्ग है, भक्ति और ज्ञान | ज्ञान इस बात का सदैव बना रहे कि कर्म हम नहीं करते है बल्कि प्रकृति के गुणों के द्वारा ही होते हैं | जिस दिन हमें इस बात का ज्ञान हो जायेगा तो हम स्वयं को किसी भी कर्म का कर्ता नहीं मानेंगे | कर्ता-भाव रखना ही समस्त विकारों की जड़ है |

                  अब प्रश्न यह है कि हम विकार से मुक्त एक बार तो हो जाते हैं परन्तु वही विकार हमारे भीतर क्यों पुनः प्रवेश पा जाता है ? मोह ही ऐसा विकार है, जो मन के बाहर भीतर होता रहता है | इसका कारण है कि हमें अभी तक कर्म का विज्ञान पूर्ण रूप से समझ में नहीं आया है | जब तक कर्म-विज्ञान पूर्ण रूप से समझ में नहीं आएगा तब तक विकार बार-बार आते जाते रहेंगे | ज्ञान जब आत्मसात नहीं हो सके तो अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर दें | संसार से प्रेम करने के स्थान पर परमात्मा से प्रेम करें | इससे आपका कर्ता-भाव भी समाप्त हो जायेगा और आपको ज्ञान भी प्राप्त हो जायेगा | इसीलिए भक्ति-योग को ज्ञान-योग से श्रेष्ठ बताया गया है | भक्ति योग से आपके भीतर के कामादि सभी विकार चले जायेंगे और आप परम शांति को उपलब्ध हो जायेंगे |

                      गीता-ज्ञान की सार्थकता को मैंने अल्प रूप से समझाने का प्रयास किया है | मैं जानता हूँ कि गीता की सार्थकता को शब्दों के एक निश्चित क्षेत्र में बाँध पाना असंभव है फिर भी एक प्रयास किया है |

            गीता-ज्ञान को अर्जुन पूर्ण रूप से सार्थक नहीं कर सका, यह सत्य है | हम भी तो अर्जुन की तरह ही हैं | हम गीता के प्रति श्रद्धा भाव तो रखते हैं परन्तु उस ज्ञान के अनुसार चलते नहीं है | हमें गीता से ज्ञान मिलता है, कुछ ज्ञान आत्मसात भी करते हैं और साथ ही कुछ संशय ग्रस्त भी रहते हैं | ऐसे में भला गीता-ज्ञान की क्या कमी है ? हम परमात्मा की सेवा, पूजा अर्चना सब कुछ मन लगाकर करते हैं परन्तु उसी परमात्मा के बनाये और बताये हुए सिद्धांतों का अनुगमन करने के प्रति सदैव संशयग्रस्त बने रहते हैं | हमें लगता है कि गीता-ज्ञान अलग बात है, उस ज्ञान के अनुसार इस संसार में रहकर जीवन चलाना मुश्किल है | हमारी सोच ही कुछ इस प्रकार की हो गयी है कि हम मानने लगे हैं कि संसार में रहना केवल संसार के अनुसार चलने से ही संभव है | मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इस बात से | 

            गीता-ज्ञान एक व्यावहारिक ज्ञान है और इसे व्यवहार में लाए जाने से ही आनंद की अनुभूति होगी | हमने इस ज्ञान को अब तक केवल एक किताबी ज्ञान बना रखा है, इस ज्ञान को जीवन में उतारने का प्रयास तक नहीं किया है | अतः सभी प्रकार के संशय छोडिये और इस ज्ञान को एक-एक कर जीवन में उतारना प्रारंभ कीजिये | विज्ञान की पुस्तकों में लिखा है कि प्रत्येक क्रिया के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया अवश्य और उसी अनुपात में होती है | इसी बात को सनातन शास्त्र शताब्दियों से कहते आ रहे हैं कि प्रत्येक कर्म का उसी अनुपात में फल अवश्य प्राप्त होता है | हमारी प्रत्येक क्रिया ही कर्म है | हम शताब्दियों तक इस बात को पढ़ते आये हैं परन्तु व्यवहार में नहीं ला सके | जिस एक व्यक्ति ने इस ज्ञान को भौतिक रूप से व्यवहार में लिया, तो उसने इस ज्ञान का उपयोग करते हुए रॉकेट बना डाला जिसके कारण आज अंतरिक्ष की यात्रा संभव हुई है | इसी ज्ञान का आध्यात्मिक स्तर पर उपयोग किया जाये तो व्यक्ति का कल्याण हो जाये |

              ज्ञान और नाम, दोनों को केवल रटते रहने से कुछ नहीं होने वाला | रटते रहने से ही ज्ञान अगर सार्थक होता तो राम-राम रटते रहने वाला तोता कभी का जीवन-मुक्त हो गया होता | हमें गीता के प्रति श्रद्धा रखने के साथ-साथ उसमें समाहित ज्ञान को जीवन में उतारकर उपयोगी बनाना होगा तभी यह ज्ञान सार्थक सिद्ध होगा | कृषि-भूमि चाहे कितनी ही उपजाऊ हो, उस पर हल चलाने से ही उपज मिल सकती है अन्यथा केवल बैठे –बैठे उस भूमि को निहारते रहिये, उपज मिलने से रही | हम गीता को उपजाऊ भूमि मानते अवश्य हैं परन्तु उसमें समाहित ज्ञान को हल चलाकर उसका दोहन करना नहीं जानते |

          समस्त ज्ञान भी अर्जुन को मुक्त नहीं कर सका, फिर हमें कैसे मुक्त करेगा ? भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कर्म और ज्ञान योग कहने के बाद भक्ति और शरणागति पर जाने से पहले एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है | गीता 7/14 में भगवान ने कहा है कि मेरी यह माया बड़ी दुस्तर है अर्थात मेरी माया को समझना और इससे पार हो जाना बड़ा कठिन है | इस माया के कारण ही हम गीता-ज्ञान को ग्रहण करके भी उसको बार-बार भूल जाते हैं | यह सब उस माया का ही प्रभाव है | अगर हम इस त्रिगुणी माया को भली भांति समझ लें तो तीनों गुणों का उल्लंघन कर गुणातीत हो सकते हैं | अर्जुन भी इस ज्ञान को पाकर सत्व गुण की अवस्था तक पहुँच गया था परन्तु गुणातीत नहीं हो सका क्योंकि वह परमात्मा के साथ रहते हुए भी उसकी इस माया से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया था | वह कुछ समय के लिए माया-जाल से निकलता और कुछ समय बाद पुनः उसी माया में उलझ जाता | उसके साथ ऐसा क्यों हुआ ? कारण- मोह और अहंकार | मोह, परिवार का, अहंकार अपने आपको कर्ता मानने का | यह दो विकार ही हमें अर्जुन की तरह बार-बार गीता-ज्ञान से दूर ले जाते हैं और पुनः सांसारिक मोह-माया में उलझा देते हैं |

         मोह आदि विकार चला जाता है परन्तु पुनः लौट आता है, ऐसे में क्या करना चाहिए जिससे कि विकार वापिस नहीं आये ? अगर बाहर किया हुआ विकार वापिस लौट आता है इसका एक ही अर्थ है कि विकार का त्याग मन से नहीं किया गया था बल्कि यह एक सम सामयिक किया गया त्याग था, जिसे साधारण भाषा में मसानिया वैराग (किसी मृतक की अंत्येष्टि में जाने से उत्पन्न हुआ वैराग्य ) कहा जाता है | जीवन में विषम परिस्थितियां बन जाने पर हम एक बार उस विकार को त्याग तो देते है परन्तु बार-बार विषय-चिंतन से वह विकार पुनः लौट आता है | विकारों के इस आवागमन को रोकने का एक मात्र उपाय है, समस्त विषयों के प्रति अनासक्त हो जाना | विषय-भोग उपलब्ध हुए तो अच्छा, नहीं मिल पाए तो भी ठीक | न विषयों के प्रति आसक्ति और न ही इनसे विरक्ति | ऐसे में अनासक्त रहकर जीना ही एक मात्र उपाय है, विकारों को नियंत्रित करने के लिए |

                      विकारों के शरीर में प्रवेश करने से रोकने के भी वही तीन मार्ग-कर्म, ज्ञान और भक्ति | कर्म हमारे भीतर कर्तापन पैदा कर सकता है यानि मोह (अज्ञान) और अहंकार स्वयं के कर्ता होने का | ज्ञान अहंकार ला सकता है, स्वयं के ज्ञानी हो जाने का | शेष रहा एक- भक्ति-मार्ग | इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के सामने विकार ग्रस्त होने के कम अवसर हैं, हालाँकि इसमें भी व्यक्ति कभी–कभी संशय ग्रस्त हो सकता है | इसीलिए गीता के अंतिम और समापन चरण में संशयग्रस्त अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण सब कुछ छोड़-छाड़ कर शरणागत होने का कह देते हैं –‘सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’| अतः सरलतम उपाय हुआ, शरणागति | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा शरणागति पर एक भजन सुनाया करते हैं – ‘नाथ थार शरण आयो जी, जच जिस तरह खेल खिलाओ, थे मन चाह्यो जी, नाथ मैं शरण आयो जी .......|'  शरणागत हो जाने से कोई भी विकार भीतर रह ही नहीं सकता और न ही उसके पुनः लौट आने का खतरा रहता है | शरणागति अर्थात न तो कुछ करने का राग, न कुछ जान लेने का अहंकार और न ही परमात्मा के बारे में किसी प्रकार का संशय | कर्म आपको रजस में भटका सकते हैं, ज्ञान राजसिक गुणों से सात्विक गुणों की ओर ले जाता है, भक्ति सत्व गुणों से भरकर आपको सात्विक गुणों के उच्चत्तम स्तर पर पहुंचा सकती है परन्तु शरणागति आपको सभी गुणों से परे ले जाकर गुणातीत कर सकती है | इस प्रकार शरणागति सर्वश्रेष्ठ हुई, तभी तो मीरा भी बोल उठी थी -‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ...|’

                     कहने का अर्थ है कि हमें परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा-भाव रखना होगा और समर्पण के साथ अनन्य भक्त बनना पड़ेगा | किसी भी प्रकार का संशय मन में न रखते हुए शरणागत हो जाएँ | कर्म करना छोड़ना नहीं है बल्कि उनमें सुधार करते हुए नैष्कर्म्यता को अपनाना होगा | किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनना है | ज्ञान-योग यही बात तो कहता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं | गुणों में सुधार करते हुए उनके अनुसार कर्म करते रहना ही कर्म-योग है | सद्गुणों से किये जाने वाले कर्म ही निष्काम-कर्म हैं | माया का अर्थ है भ्रम | भ्रम इस बात का कि मैं कर्म करता हूँ जबकि सत्य बात यह है कि हम कर्म करते नहीं हैं बल्कि हमारे माध्यम से कर्म होते हैं | पुत्र हमारा नहीं है, बल्कि हमारे माध्यम से इस संसार में उसका आगमन हुआ है | इस बात को हम स्वीकार करें तो पुत्र में मोह पैदा नहीं होगा, परिवार में मोह पैदा नहीं होगा | भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट रूप से कह दिया था कि इस युद्ध में खड़े सभी योद्धाओं का मरना मेरे द्वारा पहले ही निश्चित किया जा चूका है, तू तो इनको मारने का केवल निमित्त मात्र  बन जा | हुआ भी वही, जो श्री कृष्ण ने कहा था परन्तु अर्जुन ने स्वयं को निमित्त मात्र माना ही कहाँ था ? वह तो महाभारत युद्ध के उपरांत श्री कृष्ण द्वारा दिया गया समस्त ज्ञान भूलकर उन योद्धाओं को मारने के लिए स्वयं को कर्ता मान बैठा था | यही अर्जुन का अहंकार था और हम भी अपने जीवन में ऐसे एक नहीं अनेकों अहंकार पाले हुए बैठे हैं |

               हम भोजन करते हैं और भोजन पचाने की क्रिया हमारे उदर में स्वतः होती है | क्या हम कह सकते हैं कि किये गए इस भोजन को मैं पचा रहा हूँ ? नहीं कह सकते क्योंकि भोजन स्वतः ही प्रकृति प्रदत्त गुणों के कारण पचता है | हम केवल इतना कह सकते हैं कि मेरी पाचन शक्ति अच्छी/ख़राब है | इसी प्रकार जब हमारा विवाह हो जाता है, पत्नी आ जाती है और फिर पुत्र पैदा हो जाता है तब उनमें मोह हो जाता है और कहने लग जाते हैं-यह मेरी पत्नी/पुत्र है । क्यों कहते हैं ? व्यवहारिक दृष्टि से तो कह सकते हैं परंतु मोहवश नहीं कहना चाहिए | हम किसी भी कर्म को करने के लिए केवल एक माध्यम मात्र हैं, कर्ता नहीं हैं |

         गोस्वामीजी मानस में कहते हैं –

मैं अरु मोर तोर तैं माया | 

जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया ||

गो गोचर जहँ लगि मन जाई |

 सो सब माया जानेहु भाई ||

                           (अरण्यकाण्ड -15/2-3)

भगवान राम अपने अनुज लक्ष्मण को कह रहे हैं कि मैं और मेरा, तूं और तेरा – यही माया है; जिसने सभी जीवों को अपने वश में कर रखा है | इन्द्रियों के विषय और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई ! उस सबको माया जानना |

                  इस माया को जान लेने और फिर उसी अनुसार अपने जीवन को बना लेने से ही हम गीता-ज्ञान को सार्थक कर पाएंगे अन्यथा आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो पाएंगे | माया के कारण ही हमारी कभी श्रद्धा बढ़ती है और कभी दुष्टता; कभी हम ज्ञान को मानने लगते हैं, फिर उसी ज्ञान पर संशय भी करने लगते है | हमारी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसी एक धोबी के कुत्ते की होती है | आया के साथ आया, गए के साथ गया | ऐसे में यह आवागमन कैसे मिटे ? माया भगवान ने बनाई ही हमें उलझाने के लिए है | अगर हम सभी माया का उल्लंघन कर जाये तो फिर यह संसार कैसे अनवरत रूप से चलेगा ? इस माया में हम स्वयं ही जानबूझकर उलझते हैं | एक मृग को जब दोपहर में प्यास लगती हैं तब वह मृग-तृष्णा को देखकर दूर कहीं पानी होना समझकर उस और दौड़ पड़ता है परन्तु वहां पहुँचने पर उसे पानी मिलता नहीं है | जल के होने का भ्रम तो कहीं और आगे बढ़ चूका होता है | इस प्रकार का भ्रम ही तो व्यक्ति को इधर से उधर, उधर से इधर दौड़ता रहता है | यह माया ही मृग-तृष्णा है | हमें सब कुछ अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर लेने का भ्रम होता है और इस प्रकार हम किसी न किसी को और कुछ न कुछ पाने के लिए जीवन भर दौड़ते रहते हैं | 

            एक जीवन, फिर दूसरा जीवन, ऐसे ही न जाने कितने जीवन, अनंत जीवन | फिर भी प्यास कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जाती है | इस अनंत यात्रा में हम उलझते जाते हैं परन्तु हमें प्राप्त कुछ भी नहीं होता | जिस दिन हम इस माया को पूर्णरूप से समझ जायेंगे फिर इसमें नहीं उलझेंगे | हमारी दौड़ भी थम जाएगी |

                माया को समझकर सभी विकारों से हम स्वयं को मुक्त रख सकते हैं | विकार-मुक्त जीवन ही आनंददायक होता है | शेष सभी सुख-दुःख केवल भ्रम जाल हैं, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हमें गीता-ज्ञान के अनुसार स्वयं को ही बदलना होगा तभी इस ज्ञान की सार्थकता होगी |

                 प्रश्न यह उठता है कि भगवान ने यह माया फिर बनाई ही किस लिए ? अगर माया नहीं होती तो यह संसार अस्तित्व ही नहीं लेता | अगर माया को समझकर सभी व्यक्ति इससे पार चले जाते तो फिर अब तक यह संसार कभी का समाप्त हो चूका होता | माया उस परम पिता ने बनाई ही इसलिए है कि वह देखना चाहता है कि कौन इस माया को समझकर इसमें उलझने से बच जाता है ? माया में उलझने से बचने का अर्थ है, मायातीत हो जाना जो कि साक्षात् परमात्मा हैं | पूरे एक वर्ष तक हम एक कक्षा में अध्ययन रत रहते हैं | वर्ष के अंत में एक परीक्षा होती है, जिसमें प्रश्न पत्र के माध्यम से कई प्रश्न पूछे जाते हैं | जो इन सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर दे देता है, वह विद्यार्थी सर्वोत्तम सिद्ध होता है | वह परीक्षक के द्वारा पूछे जाने वाले घुमावदार प्रश्नों के जाल में नहीं उलझता बल्कि उन प्रश्नों को समझकर उनका उत्तर देकर उनसे बाहर निकल जाता है | यह माया भी ऐसे ही घुमावदार उलझाने वाले प्रश्नों की तरह एक प्रश्न-पत्र है | हमें इसको समझकर इस भौतिक जगत में अपनी भूमिका निभाते हुए इस माया रुपी संसार के पार चले जाना है |

                आपको सदैव अपने भीतर जन्म ले रहे विकारों पर पैनी दृष्टि रखनी होगी | क्रोध आता है, तो क्रोध को ध्यान से देखें | पता लगाओ कि क्रोध किस कामना के पूरा न होने से आया है | उस कामना का विश्लेषण करो कि क्या आपकी यह कामना शुभ थी अथवा अशुभ | अशुभ कामना है तो भविष्य में ऐसी कामना  करें ही नहीं और शुभ कामना है तो यह समझें कि जिस व्यक्ति पर क्रोध आया है, वह आपकी शुभ कामना को सही रूप से समझ नहीं पाया है | इस क्रोध से आपका ही नुकसान हो रहा है, सामने वाले का नहीं | इस प्रकार के क्रोध को करने से क्या लाभ ? धीरे-धीरे आप देखेंगे कि आपका क्रोध कम हो रहा है, उसकी आवृति और तीव्रता दोनों ही कम होती जा रही है | कामनाओं पर भी नियंत्रण स्थापित होता जा रहा है | इस प्रक्रिया के सतत चलते रहने से धीरे-धीरे दूसरे दोष और विकारों से भी आप मुक्त होते चले जायेंगे | प्रारम्भ में कुछ असुविधा हो सकती है, परन्तु धैर्य के साथ ऐसा करते रहेंगे तो विकारों से दूर रहने में सफलता मिलने लगेगी | इस प्रकार आप अपनी स्वयं की प्रगति का आकलन कर सकते हैं |

               हम भी गीता से ज्ञान प्राप्त कर कह सकते हैं-‘करिष्ये वचनं तव’ परन्तु मात्र इस प्रकार कहने का कोई अर्थ नहीं है जब तक गीता के अनुसार किया नहीं जाये | अर्जुन ने भी ये शब्द तभी कहे थे जब कर्म, ज्ञान और भक्ति पर लम्बा चौड़ा व्याख्यान देने के बाद भी अर्जुन के प्रश्न समाप्त नहीं हो रहे थे | अंततः भगवान् को कहना पड़ा – ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ अर्थात तू इतना सब छोड़ केवल मेरी शरण में आ जा | कर्म और ज्ञान को समझना और उनकी अनुपालना करना बड़ा ही मुश्किल कार्य प्रतीत होता है | भक्ति में हम लोग क्रिया से आगे नहीं बढ़ पाते हैं, ऐसे में एक परमात्मा की शरण में जाना ही सरल और सर्वोत्तम मार्ग रह जाता है | परन्तु वह शरण उसी प्रकार की होनी चाहिए जैसी मीरा ने ली थी, तुलसी ने ली थी, सूर ने ली थी | शरणागति से ही मुक्ति की राह निकलती है और जीवन मुक्त हुआ जा सकता है।

       अंत में मैं बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि मैंने स्वयं के स्तर पर कोई राह नहीं सुझाई है बल्कि विभिन्न धर्म ग्रंथ विशेष रूप से गीता को पढ़कर यह राह जो कुछ मेरे समझ में आई है वह आपके साथ साझा की है | मैं स्वयं अभी भी इस राह पर चलने का प्रयास कर रहा हूँ और मैंने पाया है कि गीता-ज्ञान के आधार पर अगर जीवन जिया जाये तो इन विकारों से धीरे-धीरे मुक्त हुआ जा सकता है और जीवन में आनंद की अनुभूति की जा सकती है | मैं यह तो नहीं कहता कि मैंने उस तत्व को प्राप्त कर लिया है जिसको प्राप्त करने की कामना प्रत्येक कोई इस मार्ग पर चलने वाला करता है परन्तु इतना सत्य अवश्य है कि जीवन में 180 डिग्री (अक्षांश) का परिवर्तन अवश्य ही इस मार्ग पर चलने से आया है |

            हमारे शरीर की परिधि पर स्थित इन्द्रियां बाहर की तरफ विषय प्राप्त करने को दौड़ती रहती है | विषयों के साथ हमारे भीतर विकार प्रवेश करेंगे ही |अध्यात्म की यात्रा में इन इन्द्रियों की दौड़ को पूर्ण रूप से बदलना होता है | इन्द्रियों को विषयों की भूख से मोड़कर आत्म-बोध की भूख की ओर लगाना होगा | परिधि पर स्थित इन्द्रियों की बाह्य दृष्टि को आंतरिक दृष्टि देनी होगी | यह कार्य गीता-के ज्ञान से संभव हो सकता है | ‘करिष्ये वचनं तव’ की पूर्ण रूप से पालना करते हुए ज्ञान को कभी विस्मृत नहीं होने देना है, तभी आत्मा तक पहुंचकर परमात्मा को पा सकेंगे |

            अध्यात्म की राह परमात्मा की राह है और इसका अनुगमन जीवन पर्यंत करने से ही आनंद की अवस्था को उपलब्ध हुआ जा सकता है | इसका अनुपालन करने की मन में दृढ इच्छा होनी चाहिए, फिर जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है | केवल उस एक का आश्रय ही महत्वपूर्ण है फिर किसी अन्य का आश्रय लेने की आवश्यकता ही नहीं है।"करिष्ये वचनं तव" तभी सिद्ध होगा,जब हम करना,जानना छोड़ एक परमात्मा को मानते हुए पूर्ण रूप से श्रद्धा रखते हुए उसके प्रति समर्पित हों ।स्वीकर करें -"अब तो केवल उस एक की ही शरण ....... अन्य कुछ भी नहीं |"

     इसी के साथ यह महत्वपूर्ण श्रृंखला समाप्त करने की आज्ञा चाहूँगा | 

|| हरिः शरणम् ||

प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल